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कर्मफल और मुक्ति का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से कर्मफलों का विचार किया जाता है। धर्म वा अधर्म का संचय कराने वाले शास्त्रों में कर्त्तव्य बुद्धि से विधान किये वा छोड़ने के लिये निषिद्ध किये शुभ-अशुभ अच्छे-बुरे दो प्रकार के कर्म हैं। उनके फल भी वैसे ही शुभ-अशुभरूप होते हैं। वे कर्म मन, वाणी और शरीर में उत्पन्न होने से तीन प्रकार के हैं। मानस कर्मों का फल मन से, वाचिकों का वाणी से और शरीर से होने वाले कर्मों का फल शरीर से ही इस जन्म में वा जन्मान्तर में मनुष्य भोगता है। इन्द्रियादि साधन और भोग के आधार शरीर के साथ रहने पर ही जीवात्मा का कर्त्ता-भोक्ता होना विद्वान् लोग स्वीकार करते हैं और इसी से केवल आत्मा के भोक्ता होने का निषेध भी करते हैं। वात्स्यायन ऋषि ने न्यायभाष्य में लिखा है कि- ‘शरीररहित आत्मा को कुछ भोग नहीं होता’१ और केवल शरीरादि भी सुख-दुःखादि के   साधन नहीं हो सकते अर्थात् इन्द्रिय और शरीर के द्वारा मनुष्य को सुख-दुःख का भोग प्राप्त होता है। जब धर्म का अधिक सेवन करता है तो सर्वोत्तम स्वर्गनामक सुख को प्राप्त होता और अधर्म के अधिक सेवन से नरकनामक विशेष दुःख पाता है। कर्मों से ही प्राणियों के शरीरों में प्रधान सत्त्वादि गुण और उनके अवयवरूप अवान्तर भेद प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। इसीलिये मनु ने बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘ज्ञानरूप सत्त्वगुण अज्ञानस्वरूप तमोगुण और रागद्वेषरूप रजोगुण माना है। अर्थात् इस शरीर में कर्मभेद से न्यूनाधिकभाव को प्राप्त हुए सत्त्वादिगुण व्याप्त रहते हैं।’२ कर्म के भेद से ही ऊंच-नीच अधिकारों और ऊंच-नीच योनियों में लिग्शरीर के सहित जीवात्मा प्रतिक्षण भ्रमते रहते हैं। इसीलिये मनु ने बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘इस जीवात्मा की अपने कर्म से ही अनेक प्रकार की दशा संसार में देख तथा धर्म और अधर्म के मेल को छोड़कर केवल धर्म में मन को धारण करे।’३ जिन-जिन शुभ वा अशुभ कर्मों का सेवन मनुष्य वर्त्तमान जन्म में करता है, उन कर्मों का यदि उसी शरीर में फलभोग नहीं होता तो उसको जाति कि कैसे कुल में जन्म होना, अवस्था कितनी और कैसा भोग हो यह तीन प्रकार का फल जन्मान्तर में होता है। इन्हीं फलरूप जाति आदि का विशेष विस्तार मनु आदि महर्षियों ने अपने अनुभव से किया है कि ऐसा-ऐसा कर्म करने से जन्मान्तर में अमुक-अमुक जाति वा योनि में जन्म होता है। सो यह बुद्धि के पार पहुंचे ज्ञान से देखने वाले लोकोत्तर पण्डित लोगों को वर्त्तमान प्रत्यक्ष शरीरों में किन्हीं लक्षण वा चिह्नों को देखकर भूतपूर्व उनके कारणों का यथार्थ अनुमान कर लेना कुछ आश्चर्य नहीं है कि- यह जीवात्मा इससे पूर्वजन्म में अमुक योनि वा जाति में रहकर अमुक कर्म करता रहा उस कर्म का यह जाति आदि रूप इस समय फल प्राप्त हुआ है। ऐसे परोक्ष विषयों का ठीक-ठीक अनुभव योगी लोग ही कर सकते हैं। कोई सन्ध्या वा पढ़ाने आदि ब्राह्मणादि के नित्य कर्म हैं और कोई गर्भाधानादि नैमित्तिक हैं। भोजन से नित्य क्षुधा की निवृत्ति के समान नित्यकर्म का फल भी नित्य-नित्य ही प्राप्त होता जाता है और नैमित्तिक गर्भाधानादि कर्मों का पुत्रोत्पत्ति आदि नैमित्तिक ही फल होता है। उत्तम, मध्यम, निकृष्ट इन तीन प्रकार के कर्मों का फल भी वैसा ही त्रिविध होता है। उत्तम कोटि के कर्मों का फल स्वर्गनामक, निकृष्ट का नरक और मध्यम का सुख-दुःख मिला हुआ रजोगुणसम्बन्धी फल होता है। तमोगुण में पड़ने वाले कृमि- कीटादि नीच कर्मों के नरक फल गामी होते और सत्त्वगुणी प्राणियों को प्रायः स्वर्गसुख के भागी वा निवासी जानना चाहिये।

कोई लोग संसारी प्रत्यक्षदशा से विलक्षण अदृश्य और परोक्ष नरक-स्वर्ग हैं अर्थात् किसी निज स्थान का नाम नरक और स्वर्ग है, ऐसा मानते हैं। हम लोग उन नरक-स्वर्गों के परोक्ष होने का खण्डन न करके प्रत्यक्ष भी नरक-स्वर्गों का ग्रहण करते हैं। वैसे बहुत लोक और उनके विशेष स्थान परोक्ष हैं वहां सुखविशेष के हेतु स्वर्गस्थान और दुःखविशेष के हेतु नरकस्थान भी हैं कि जैसे पृथिवी पर स्वर्गनाम सुखविशेष के हेतु और नरकनाम दुःखविशेष के भोगस्थान प्रत्यक्ष दीखते हैं। इसी प्रकार अन्य सब परोक्ष लोक-लोकान्तरों में भी स्वर्ग-नरक होना बन सकता है परन्तु यह नहीं हो सकता कि स्वर्ग-नरक किसी एक ही स्थल में हों और सर्वत्र न हों। जैसे सम्प्रति प्रत्येक नगर वा जिलों में बन्धागार (जेलखाना) बनाये जाते हैं वैसे ही सुख-दुःख की सामग्री सर्वत्र जानो। सब सुखों के भोगों की सामग्री जहां विद्यमान है ऐसे स्थानों में बसते स्वर्गरूप सुख का अनुभव करने वाले विद्याबुद्धिसम्पन्न पुरुष देव कहाते हैं। इसी से कहा है कि- ‘यज्ञ करने वा वेद पढ़ने वाले ज्ञानी लोग जो कि सत्त्वगुण की मध्यावस्था में रहते हैं वे ही देवता हैं। मुक्ति भी कर्मों से ही सिद्ध होती है।’१ इससे मुक्ति पाने के लिये भी मनुष्य को फलभोग की आशा छोड़कर धर्म का ही सेवन करना चाहिये। फलप्राप्ति की इच्छा छोड़कर सेवन किये कर्मों से उत्पन्न होने पर भी मुक्ति कर्मफल से पृथक् नहीं रह सकती क्योंकि अकस्मात् भी कर्मों का फल मिलता है। चाहना का बन्धन मानें तो बुरे कर्म के दुःखफल की चाहना कोई नहीं रखता। यद्यपि मुक्ति में दुःख के विरोधी किसी सुख का भोग नहीं है तो भी दुःख के अभाव का नाम सुख होने से मुक्त को अत्यन्त सुख होना कह सकते हैं। जैसे प्रक्षालन- धोने आदि कर्म से वस्त्रादि के मल की निवृत्ति और निर्मलता की प्राप्ति कर्म का ही फल है, ऐसा शिष्ट लोग मानते हैं। वैसे ही अन्तःकरण में रहने वाली पाप की वासना और उनसे होने वाले दुःख की विशेष निवृत्ति भी मनु आदि धर्मशास्त्र में कहे वर्णाश्रम धर्म का बहाना और कामना को छोड़कर सेवन करने से हो सकती है। इसी सर्वोत्तम मनुष्य की दशा को विचारशील मुक्ति कहते हैं। सो इसी धर्मशास्त्र के बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘वेदोक्त कर्म दो प्रकार का है- संसार में वा जन्मान्तर में जिसके फल की इच्छा हो जिससे देवाधिकार प्राप्त हो सके वह प्रवृत्त कर्म और द्वितीय केवल निष्काम ज्ञानपूर्वक ईश्वर की उपासनादि कर्म निवृत्त कहाता है, इसी का फल मुक्ति है।’१ ऐसा होने पर जो लोग मुक्ति को कर्म का फल नहीं मानते उनका उत्तर आ जाता है। वेद का अभ्यास करने में यत्न करता रहे इस कथन से उस संन्यासदशा के उपयोगी कर्मों के करने का विधान और अतिवृद्ध होने वा गृहादि के न होने से अग्निहोत्रादि कर्मों का त्याग सूचित किया है। यहां कर्मफलों का विवेचन संक्षेप से किया गया और विद्वानों को थोड़ा कथन ही बहुत होता है।

जो विषय हमने उपोद्घात के आरम्भ में उद्देशमात्र गिनाये हैं उन सबका क्रमानुसार संक्षेप से विचार किया। अब उपोद्घात समाप्त किया जाता है। बारहवें अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोक कोई नहीं दीखता। अब आगे प्रतिज्ञा के अनुसार मानव धर्मशास्त्र के

एकादश अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब ग्यारहवें अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार किया जाता है। इसमें पहले चालीसवां श्लोक प्रक्षिप्त है। इस पद्य में ‘बहुत धन के व्यय से पूरा होने योग्य यज्ञ को थोड़े धन से आरम्भ नहीं करना चाहिये’ इस विधिवाक्य का अर्थवाद कहा है। सो असम्भव है और अर्थवाद सम्भव होना चाहिये। क्योंकि यज्ञ कोई चेतन पदार्थ नहीं किन्तु जड़ है इससे इन्द्रियादि का नाश नहीं कर सकता और इस अर्थवाद में कहा यही है कि- इन्द्रिय, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्त्ति, प्रजा-सन्तान और पशुओं को थोड़ी दक्षिणा वाला यज्ञ नष्ट कर देता है।’१, सो ठीक नहीं। यद्यपि यज्ञादि कर्मों में जो दक्षिणा ऋत्विजादि को दी जाती है वह परिश्रम का फल (मेहनताना) है उसका लेन-देन नियमानुसार होना चाहिये। जैसे वकील आदि का मेहनताना उस काम और वकीलादि की योग्यतानुसार नियत होता है। किन्तु यह दान में नहीं गिना जायेगा। दान में दान लेने वाले से दाता का उपकार कुछ भी अपेक्षित नहीं किन्तु दक्षिणा में पूरा अपेक्षित है इसी से जहां-जहां ब्राह्मण को दान लेना बुरा कहा है, उससे दक्षिणा का निषेध नहीं हो सकता। इसी कारण जिस कार्य में परिश्रम का फल ठीक नहीं दिया जाता उसमें विघ्न होते हैं तथापि वह यज्ञादि कर्म जड़ होने से यजमान की कुछ हानि नहीं कर सकता किन्तु जिनका परिश्रम का फल ठीक नहीं मिलता वे ही विघ्न करते और कर सकते हैं। तथा उक्त श्लोक में यश और कीर्त्ति दोनों पर्यायवाचक पद एक साथ पढ़े हैं इस पुनरुक्ति दोष से भी उक्त श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। यद्यपि इस पुनरुक्ति का समाधान कुल्लूकभट्ट ने किया है तथापि वह सन्तोषजनक नहीं। और जब ऋत्विज् आदि को दक्षिणा देना उनके परिश्रम का फल है तो उसके दिये बिना उस कार्य की पूर्ति वा उससे फलप्राप्ति होना भी असम्भव है। यदि कोई वर्त्तमान समय में वकीलादि को इतना द्रव्य न देवे जितना उनको राजद्वार (अदालत) में कार्यसिद्ध होने के लिये देना चाहिये तो उस पुरुष का वह कार्यसिद्ध हो जावे, यह सम्भव नहीं है। अर्थात् जैसी और जितनी सामग्री वा व्यय से जो कार्य सिद्ध हो सकता है तो उस      अधूरे सामान वा व्यय से वह कार्य कदापि ठीक सिद्ध नहीं हो सकता। इसी प्रकार अल्पदक्षिणा वाला यज्ञ भी ठीक सुफल नहीं होता है, इस कारण अल्पदक्षिणा वाला यज्ञ नहीं करना चाहिये, यही अर्थवाद ठीक है। और जब यह अर्थवाद ठीक है तो वह इन्द्रियादि के नाश का अर्थवाद विरुद्ध हो गया। इसी से वह श्लोक प्रक्षिप्त है। इसके आगे बयालीसवां और तैतालीसवां (४२,४३) दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन श्लोकों में शूद्र से धन लेकर अग्निहोत्र करने वाले की निन्दा है। परन्तु ध्यान देकर देखा जावे तो धनाभाव में अग्निहोत्र न करने की अपेक्षा शूद्रादि नीच पुरुषों से भी धन लेकर अग्निहोत्र का सेवन करना चाहिये, यह निन्दित काम नहीं किन्तु जो इस ग्यारहवें अध्याय के उन्नीसवें (१९) श्लोक में कहा है कि- ‘जो नीचों से धन लेकर और श्रेष्ठों को देता है वह अपने को पवित्र करके उन दोनों को दुःख के पार कर देता है।’१ इस कथन से भी वह विरुद्ध है। अर्थात् शूद्र भी असाधु है उससे धन लेकर अग्निहोत्ररूप श्रेष्ठकर्म में लगाना शुभ काम है। अग्निहोत्र सबका उपकारक होने से महोत्तम कर्म है उसमें लगाया धन क्यों नीच वा निन्दित काम हुआ। जो कोई जिससे मांगने आदि द्वारा धनादि को लेकर कार्य करता है, वह काम उसी कर्त्ता का होता है किन्तु द्रव्यदाता का नहीं। और जब    धनदाता पुरुष धनादि देकर भृत्यों के तुल्य पुरोहितादि से काम कराता है तब वे पुरोहितादि शूद्रों के ऋत्विज् हो सकते हैं। शूद्र से धन लेकर यज्ञ करने में यदि धनदाता शूद्र को भी कुछ थोड़ा फल प्राप्त हो तो हमारी क्या हानि है ? अर्थात् अन्य की सुखसामग्री का उदय नहीं सह सकने वाले ही मत्सरता के दोष से दूषित होते हैं। शूद्र के धन से यज्ञ करने में शूद्र का भी कल्याण हो तो और भी अच्छा है कि एक काम से दो फल हुए।

आगे ११८,११९,१२१ ये तीन श्लोक प्रक्षिप्त हैं। अवकीर्णी का लक्षण ही जब एक सौ बीसवें श्लोक में कहा है फिर उसका असम्बद्ध व्रत करना पहले से ही कैसे हो जावे ? जिस ब्रह्मचारी ने जानकर व्यभिचार कर लिया हो उसको अवकीर्णी कहते हैं, उसका मुख्य प्रायश्चित्त १२२,१२३ श्लोकों में ठीक-ठीक कहा है। और होम करने आदि के सामान्य नियम तो आगे इसी ग्यारहवें अध्याय में कहे अनुसार मानने चाहियें। वहां जो-जो जप-होमादि प्रायश्चित्त में कहे हैं वे ग्रहण करने चाहियें। काणे गदहे को मारकर उसके मांस का होम करना तो राक्षसों का ही काम है उसका वेदमतानुयायियों को सदा ही त्याग कर देना चाहिये।

आगे १७४वां श्लोक प्रक्षिप्त जान पड़ता है। क्योंकि स्नान करना नित्य का काम होने से प्रायश्चित्त नहीं है। सो स्नान तो मनुष्य को करना ही चाहिये, सामान्यकर शास्त्र की आज्ञानुसार अपनी स्त्री से मैथुन करने वाले को चाहिये कि मैथुन के पश्चात् स्नान करे तभी शुद्धि होती है। इसी प्रयोजन से यदि यह भी श्लोक हो तो पुनरुक्त है। और जो महानीच शास्त्रविरुद्ध वा जिसके लिये शास्त्र में विधान नहीं, ऐसा पुंसिमैथुनादि दुष्ट कर्म है उसकी स्नान कर लेने मात्र से शुद्धि नहीं हो सकती। और इस १७४वें श्लोक से पूर्व १७३वें श्लोक में अयोनि पद करके पुंसिमैथुनादि का सम्भव प्रायश्चित्त कहा ही है। इससे वह श्लोक प्रक्षिप्त ही है।

आगे १८२,१८३ दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। यहां शुद्धि करने वा मानने का प्रकरण नहीं है किन्तु आगे और पीछे केवल प्रायश्चित्त का प्रकरण है। शुद्धिप्रकरण पञ्चमाध्याय में है वहां यथासम्भव सब कहा ही है। पतितों की जीवितदशा में ही मरे के तुल्य क्रिया करना ठीक नहीं, क्योंकि महापातकी आदि पतित लोग यदि अपनी इच्छा से प्रायश्चित्त का आचरण नहीं करते तो वे राजदण्ड भोगने योग्य हैं अर्थात् राजा उनको बलात्कार पूर्वक दण्ड देवे, उस राजदण्ड से जब वे चिह्नयुक्त हो जावेंगे तो उनको मरा समझना नहीं हो सकता सो कहा भी है कि- ‘राजा के शासन से दण्ड के चिह्न को प्राप्त होकर सर्वत्र घूमा करें।’१ इस प्रकरणविरुद्ध और असम्भव होने आदि कारण से ये उक्त दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं। आगे २०६,२०७ ये दो पद्य प्रक्षिप्त हैं, इसी आशय के दो श्लोक चतुर्थाध्याय में हैं। उनको भी हम ने प्रक्षिप्त ही ठहराया है। और यह अन्याय है कि जो किसी के गाली देने पर मार डालने का दण्ड दिलाना वैसे यहां भी अतिसूक्ष्म अपराध का अधिक दण्ड कहा है। इसी अध्याय में २०८वें श्लोक में उसी अपराध का सम्भव प्रायश्चित्त कहा है। इसलिये उक्त दोनों पद्य प्रक्षिप्त हैं। आगे २६१वां पद्य प्रक्षिप्त है। यह विषय जो इसमें कहा है, असम्भव है। यदि सब हत्या का ऋग्वेद पढ़नामात्र प्रायश्चित्त हो जावे तो ब्रह्महत्यादि महापातकों के अधिक कर बड़े-बड़े पृथक् प्रायश्चित्त कहना व्यर्थ हो जावे। और यह कहना असम्भव वा असग्त भी है कि वेद पढ़ लेने से सब पाप छूट जावें। इसलिये उक्त पद्य प्रक्षिप्त ही है। इस प्रकार इस ग्यारहवें अध्याय के दो सौ पैंसठ श्लोकों से १२ श्लोक प्रक्षिप्त हैं और शेष दो सौ त्रेपन श्लोक शुद्ध जानने चाहियें।

प्रायश्चित्त का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से प्रायश्चित्तविषय का विवेचन किया जाता है। प्रायश्चित्त यह शब्द कर्मविशेष का नाम है कि दुष्ट कर्मों के सेवन से उत्पन्न हुई व्याकुलता वा विषमता की निवृत्ति के लिये वेदवेत्ता विद्वानों की आज्ञा से मनुष्य जिसका सेवन करते हैं वह प्रायश्चित्त कर्म कहाता है। प्राय शब्द से परे चित्त या चित्ति शब्द को वार्त्तिक१ से सुट् का आगम होकर यह प्रायश्चित्त शब्द बनता है। सो इसका ऐसा ही विद्वानों ने लाक्षणिक अर्थ भी माना है कि- ‘प्रायः नाम तप और चित्त नाम निश्चय करके युक्त कर्म का नाम प्रायश्चित्त है। चित्त को सम करने के लिये अर्थात् चित्त की विषमता मेटने के लिये जो दिया वा बताया जाता और जिसका सेवन विशेष आन्दोलन के साथ विद्वानों की सभा कराती है वह कर्म प्रायश्चित्त कहाता है।२ इन श्लोकों में सभा के द्वारा कराने की आज्ञा दिखाने से ज्ञात होता है कि राज्यसभा के तुल्य वेदवेत्ता विद्वानों की सभा ने देश-कालादि का विचार करके करने को कहा कर्म प्रायश्चित्त कहाता है। अर्थात् राजदण्ड के तुल्य प्रायश्चित्त भी एक प्रकार का दण्डभोग है। इसी कारण यदि न्यायपूर्वक अपराधानुकूल ही दुष्ट कर्म का फल राजदण्ड भोग लिया हो तो पीछे इस जन्म वा जन्मान्तर में दुष्ट कर्म का बुरा फल नहीं मिलेगा। किन्तु वह अपराधी उस पाप से फिर छूट जाता है। वैसे ही यथार्थ रीति से प्रायश्चित्त कर लेने पर वह अपराधी उस पाप से छूट जाता है जो चोर, डाकू आदि पापकर्म करके उसका दुःख फल भोगना नहीं चाहते उनको राजा बलपूर्वक दण्डादि द्वारा वश में रखकर निर्बल धर्मात्माओं की रक्षा करे। और जो धर्मात्मा हैं वे किसी प्रकार अज्ञान वा दुःसग् में पड़ के भ्रम से पाप कर लेवें अर्थात् उनसे बुरा काम बन पड़े तो पीछे उसकी बुराई को सोचने से यदि मन ग्लानि को प्राप्त हो तो विद्वानों की सम्मति से उनको स्वयमेव दण्डभोगरूप प्रायश्चित्त का सेवन कर लेना चाहिये वा यों कहिये कि धर्मात्मा लोग बुरा काम बन जाने से स्वयमेव उसका दुःख फल भोगकर शुद्ध होना पसन्द करते हैं। यही प्रायश्चित्त और राजदण्ड में भेद है।

प्रायश्चित्त किस दशा में वा किसको करना चाहिये सो दिखाते हैं कि-  ‘वेदादिशास्त्रों में ब्राह्मणादि वर्णों के जो सन्ध्यादि कर्म विहित हैं उनको न करने वाला तथा निन्दित वा जिनके लिये वेदादि में निषेध किया है कि ऐसा काम न करना वैसे पापकर्म का आचरण करने वाला और इन्द्रियों के भोगविषय में लम्पट वा आसक्त, ये तीन प्रकार के मनुष्य ही विशेषकर प्रायश्चित्त करने योग्य होते हैं।’१ इस प्रायश्चित्त के दो भेद हैं- ‘एक तो बिना इच्छा किये स्वभाव से वा अज्ञान से दुष्ट कर्म का सेवन किया जाता अथवा कर्त्तव्य का त्याग किया जाता है, वहां द्वितीय ज्ञानपूर्वक किये की अपेक्षा प्रायश्चित्त थोड़ा किया जाता है। और जो इच्छापूर्वक वा जानकर बुरा काम किया जाता है उसमें पूर्व की अपेक्षा शास्त्रकारों ने अधिक प्रायश्चित्त कहा है।’२ तात्पर्य यह है कि ज्ञानपूर्वक किया कर्म जितना संस्कार को बिगाड़ने वाला होता है वैसा अज्ञान से किया कर्म नहीं हो सकता। क्योंकि अज्ञान से किये काम का हृदयादि के साथ वैसा पूरा प्रवेश नहीं होता जैसा कि ज्ञान से किये का होता है। इसी कारण इन दोनों प्रकार के कर्मों में भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्त कहा है, सो ठीक ही मन्तव्य है।

इस मानव धर्मशास्त्र के इसी ग्यारहवें अध्याय में एक-एक ब्रह्महत्यादि महापातक वा उपपातक के अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त दिखाये हैं। उसमें      अधिकारियों का भेद, देश का भेद और काल का भेद भी कारण हैं। सब अवस्थाओं, सब काल वा सब देश में सब लोग एक प्रकार का प्रायश्चित्त नहीं कर सकते। जवान, बलवान् और स्वस्थ मनुष्य जैसा दुःख सह सकता है वैसा वृद्ध, निर्बल और रोगी वा बालक नहीं सह सकता। इस कारण इनके प्रायश्चित्त वा दण्ड में भेद होना चाहिये। लक्षाधीश मनुष्य पर एक सहस्र मुद्रा का दण्ड जितना उसको दुःखदायी होगा उतना ही सहस्रपति को दस मुद्रा के दण्ड से क्लेश हो जायेगा और सर्वथा निर्धन दरिद्री मनुष्य को एक मुद्रा का दण्ड भी लक्षाधीश की अपेक्षा विशेष दुःखदायी होगा। इसी प्रकार लोक में अनेक प्रकार के अधिकारी हैं, उनकी योग्यता देखकर जैसे राजदण्डादि की न्यूनाधिक व्यवस्था करनी चाहिये वैसे ही प्रायश्चित्त में भी जानो, परन्तु यह काम सामयिक विद्वानों का है। सब देशों और सब कालों में भी सब काम नहीं हो सकते, इस कारण भी प्रायश्चित्तों में भेद किया है और करना ही चाहिये। जहां ब्रह्महत्या वा सुरापानादि महापातकों में आत्मघातरूप वधदण्ड ही प्रायश्चित्त लिखा है, वह उत्सर्ग है। कहीं किसी ब्रह्महत्या करने वाले के शरीर का बना रहना कई कारणों से अत्यन्त उपयोगी वा उचित है तो वहां वधदण्डरूप प्रायश्चित्त न कर, करा के अन्य प्रकार का प्रायश्चित्त करा लेना चाहिये। इत्यादि प्रकार एक-एक अपराध पर अनेक प्रायश्चित्त कहना सार्थक ही है।

मनुष्य जैसे कर्म का सेवन करता है वैसी ही उसके हृदय में वासना संचित होती है, उन्हीं वासनाओं का नाम संचित पाप वा पुण्य है अर्थात् पाप-पुण्यों का आधार मन ही है। जैसे ओषधि के सेवन से रोगों की निवृत्ति हो सकती है वैसे ही प्रायश्चित्त से निकृष्टसंस्काररूप पापों की निवृत्ति हो जाती है। अथवा जैसे दीपक से अन्धकार की, राग से द्वेष की और विद्या से अज्ञान वा मोह की निवृत्ति होती है वैसे प्रायश्चित्त से पापों की निवृत्ति जानो। सो योगभाष्य में कहा भी है कि- ‘जिस जन्मान्तर में फल देने वाले संचित कर्म का फल नियत नहीं कि अमुक देश, काल वा अवस्था में ऐसा फल अमुक पुरुष को अवश्य होगा। वैसे अनियतविपाककर्म की तीन दशाएं होती हैं। एक तो फलीभूत होने से उस संचितकर्म का नाश हो जाना, द्वितीय अपने साथी प्रधान पाप वा पुण्य के साथ मिल जाना और तृतीय नियत जिसका फल है ऐसे संचितकर्म के साथ दबा रहना, इनके उदाहरण ये हैं कि जैसे विद्याध्ययन कर लेने से जड़ता वा मूर्खता छूट जाती है विद्वत्ता और मूर्खता दोनों एक काल में एक शरीर में नहीं ठहर सकती वैसे जब प्रायश्चित्तादिरूप शुभ, पुण्य सूर्य का उदय हृदय में होता है तब अन्धकाररूप पाप का तत्काल नाश हो जाता है। द्वितीय जैसे जौ आदि अन्न के साथ घास के दाने पड़े रहते हैं परन्तु जौ बोया, जौ काटा, जौ धरा है इत्यादि व्यवहार जौ का ही होता है उसमें घास के दाने मिल कर पड़े रहने पर भी कुछ हानि नहीं करते इसी प्रकार थोड़ा पाप वा पुण्य अपने विरोधी पुण्य वा पाप के साथ मिला पड़ा रहता है कुछ हानि नहीं कर सकता केवल प्रधान का ही भोग वा व्यवहार होता है। तथा तृतीय प्रधान अपने विरोधी कर्म से तब तक दबा पड़ा रहे जब तक विरोधी की निर्बलता और उसकी प्रबलता देश-काल-वस्तु भेद से न हो।’१ इस प्रकार अनियतफल वाले दुष्ट कर्म के दण्डभोगरूप औषध से निवारण के लिए ही विशेषकर प्रायश्चित्तों की प्रवृत्ति है। और जो जन्मान्तर में नियत फल देने वाला संचितकर्म है उसकी असाध्य रोग के तुल्य प्रायश्चित्त से भी निवृत्ति नहीं हो सकती। पर वहां भी प्रायश्चित्त करना इस कारण निष्फल नहीं कि जब शुभकर्मरूप प्रायश्चित्त से उसके मन का सन्तोष वा दृढ़ता हो जाने से पाप का फल भोगने के समय में दुःख कम व्यापेगा। जैसे वही दुःख निर्बल और बलवान् को न्यूनाधिक व्यापता है। अथवा जैसे विद्वान्, अविद्वान् दो पुरुषों पर एक ही दुःख आकर पड़े तो अविद्वान् की अपेक्षा विद्वान् बहुत कम क्लेशित होता है, वैसे ही जिसने प्रायश्चित्त कर लिया है उसका मन प्रबल वा दृढ़ हो जाने से बड़े-बड़े दुःखों को छोटा-छोटा मानकर सहज में भोगकर पार हो जाता है।

तथा पाप न छूटने में प्रायश्चित्त करना इसलिये भी सार्थक है कि पुण्य कर्म के साथी प्रायश्चित्त के संचित हो जाने से शुभ फल होगा ऐसा विचारकर यथावसर सबको प्रायश्चित्त करना चाहिये, यही धर्मशास्त्रकारों का आशय है। सो यह प्रायश्चित्त दण्डभोगरूप ही है। यदि कोई पुरुष किन्हीं ऐसे नवीन दुष्ट कर्मों को करे जिनका प्रायश्चित्त धर्मशास्त्र में विशेष कुछ नहीं कहा तो वहां सामयिक विद्वानों को चाहिये कि देश, काल और वस्तु के अनुकूल नवीन प्रायश्चित्त की कल्पना कर लेवें। इसीलिये इस मानव धर्मशास्त्र के ग्यारहवें अध्याय में कहा भी है कि- ‘जिनके प्रायश्चित्त नहीं कहे गये ऐसे पापों से मुक्त होने के लिये शक्ति और पाप को देखकर प्रायश्चित्त की व्यवस्था बांध लेनी चाहिये।’१ इसीलिये बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘दस वा तीन वेदवेत्ता सदाचारी धर्मात्मा विद्वानों की सभा जिसको निश्चित करे उसको प्रायश्चित्तादिरूप से सभी लोग कर्त्तव्य निश्चित धर्म मानें कोई भी उसका उल्लंघन न करे।’२ इत्यादि। और धर्मशास्त्रकारों ने जिस अपराध में जो प्रायश्चित्त कहा हो वह भी विद्वानों की सभा की सम्मति से ही सबको सेवना चाहिये। इस प्रकरण में यह कोई न समझे कि प्रायश्चित्त से पाप छूटने का सिद्धान्त खड़ा करने से बिना भोग किये पाप छूट जायेंगे तो ‘मनुष्य के द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है।’३ यह सिद्धान्त कट जावे क्योंकि प्रायश्चित्त भी एक प्रकार का दण्डभोग है, यह लिख चुके हैं। इसलिये कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है, यही सिद्धान्त ठीक है। जल और स्थलादिक में स्नान वा दर्शन करना मानव धर्मशास्त्र के अनुकूल प्रायश्चित्त नहीं है किन्तु वह शास्त्र के सिद्धान्त से विरुद्ध नवीन कल्पना है। यहां संक्षेप से प्रायश्चित्त के विषय में कहा गया है, इसकी विशेष व्याख्या भाष्य में देखनी चाहिये।

दशम अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब दश्माध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा करते हैं। प्रथम छियासीवें से चौरानवें तक नौ श्लोक प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं। मीठे आदि रस से युक्त गुडादि द्रव्यों, गौ-अश्व आदि पशुओं, रंगे वस्त्रों और टसरी-रेशमी और ऊनी वस्त्रों के बेचने में क्या दोष है ? इसका कुछ कारण नहीं दीखता। श्वेत वस्त्र और वन के पशु बेचने में दोष क्यों नहीं है ? यह उसी श्लोक बनाने वाले से पूछना चाहिये। जब वन के पशु बेचने का भी निषेध किया आरण्यांश्च पशून् सर्वान् तो जो मनुष्य सम्बन्धी पशु हैं पशवो ये च मानुषाः जैसे गौ-घोड़ादि। यहां मानुष विशेषण व्यर्थ पड़ता है। यह परस्पर का विरोध भी इन श्लोकों के प्रक्षिप्त होने को प्रकट करता है। किसी वस्तु का उपार्जन अधर्म से कर सकते हैं उसका बेचना अवश्य अधर्म का उत्पादक होगा, उस वस्तु के बेचने से अपनी जाति से पतित होना भी ठीक सग्त हो जाता है जैसे मांस का बेचना जाति से पतित होने का हेतु है। परन्तु लाख और लवण के बेचने में ऐसा बड़ा दोष कौन है ? जिस कारण शीघ्र पतित हो जाता हो यह नहीं दीखता। यदि किसी वस्तु के बेचने में शरीर की मलिनता और अपने वेदोक्त सन्ध्यादि कर्मों का विशेष त्याग वा हानि होती हो तो उस तेल आदि वस्तु को यावच्छक्य नहीं बेचना चाहिये। परन्तु तिल बेचने में कोई दोष नहीं दीखता। व्याकरण महाभाष्य में भी कहा है कि- ‘तेल और मांस न बेचना चाहिये, सो पृथक् निकाला हुआ तेल और मांस ही नहीं बेचा जाता परन्तु जिसमें तेल और मांस व्यापक वा मिला है ऐसे तेल के उपादान सरसों वा गौ आदि पशुओं के बेचने में वह दोष नहीं माना जाता अर्थात् सरसों वा गौ आदि के बेचने से तेल और मांस का बेचना नहीं लिया जाता।’३ यद्यपि यहां तिलों के बेचने की आज्ञा स्पष्टतः नहीं है तथापि तेल के बेचने का निषेध दिखाने और जिससे तेल निकलता है उसका विधान जताने से तिल के बेचने का विधान आ जाता है। जैसा निष्कृष्ट तिल का बेचना यहां कहा है वैसा महाभाष्यकार को भी इष्ट होता तो तिल के बेचने का भी निषेध करते। यदि कोई कहे कि वह व्याकरण है उसमें    धर्मशास्त्र की व्याख्या क्यों होगी, सो नहीं। हमारे यहां सब ऋषियों ने जिस-जिस विषय के पुस्तक बनाये हैं उन सबमें प्रसग्वशात् धर्म-अधर्म का भेद वा कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विचार अवश्य दिखलाया है। और गौओं के बेचने की तो स्पष्ट आज्ञा है सो (पशवो ये च०) ‘ग्राम के पशु न बेचने चाहियें’१ इत्यादि कथन के साथ विरुद्ध पड़ता है। इससे अनुमान होता है कि महाभाष्य बनने के समय वे उक्त श्लोक मानवधर्मशास्त्र में नहीं थे किन्तु पीछे किसी ने मिलाये हैं। इस प्रकार ये उक्त नौ श्लोक विरुद्ध और असग्त होने से प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं, ऐसा बुद्धिमानों को विचारना चाहिये।

तिस के आगे एक सौ एकवें श्लोक से लेकर आठ श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। इन श्लोकों में निन्दित प्रतिग्रह अर्थात् दान लेने की प्रशंसा दिखाई है, सो पूर्वापर से विरुद्ध है। चतुर्थाध्याय में लिखा है कि- ‘उचित दान लेने से भी ब्राह्मण का ब्रह्मतेज घट जाता है।’२ तथा इसी दशवें अध्याय में लिखा है कि- ‘दान लेना नीच वा निकृष्ट काम है और दान लेने वाले ब्राह्मण का परलोक बिगड़ जाता है।’३ इत्यादि अनेक स्थलों में अनेक बार कहने से शुद्ध प्रतिग्रह को भी दान न लेने की अपेक्षा दूषित ठहराया है। फिर यहां लिखा है कि- ‘पवित्र को दोष लगता है यह धर्मानुकूल नहीं बनता।’४ यह कहना कैसे ठीक होवे ? यदि निकृष्टदान लेने आदि दुष्ट कर्मों से ब्राह्मण का तेज घट जाना सत्य है तो पवित्र दूषित होता है यह मानना चाहिये। क्योंकि दुष्ट कर्मों से ब्राह्मणपन का बिगड़ना ही पवित्र का दूषित होना है। इस प्रकार जब पवित्र दूषित होता है तो यह कहना कि- ‘पवित्र को दोष नहीं लगता’४ व्यर्थ वा निरर्थक हो गया। यदि पवित्र को दोष नहीं लगता तो किसको लगता है ? क्योंकि अपवित्र तो स्वयमेव दूषित ही है, फिर कौन दूषित होता है? और यह युक्ति से भी विरुद्ध है जो कि पवित्र को दोष न लगे। वास्तव में पवित्र ही दूषित होता और जो अपवित्र है वही पवित्र बन जाता है। यदि पवित्र दूषित न हो तो ब्राह्मणादि ऊंच वर्णों का दुष्ट कर्मादि के सेवन से अपने ऊंच अधिकार वा जाति से पतित होना भी न बन सके और ऐसा होने पर शुभ-अशुभ विशेष कर्मों के सेवन से ब्राह्मणादि वर्णों की उत्तमता-निकृष्टता जताने में तत्पर- ‘शूद्र ब्राह्मण हो जाता और ब्राह्मण शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है।’५ इत्यादि धर्मशास्त्र के वाक्य व्यर्थ हो जावेंगे। इस कारण वे उक्त श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन श्लोकों में पौराणिक इतिहास भी असग्त हैं। क्योंकि यद्यपि आपत्काल में जिस किसी प्रकार प्राण की रक्षा मनुष्य को करनी चाहिये यह कहना किसी प्रकार ठीक है किन्तु सर्वथा ठीक नहीं है। कोई कर्म ऐसा हो सकता है कि जिसको करने की अपेक्षा प्राण का त्याग देना ही शास्त्रकारों ने उत्तम कहा और युक्ति से भी ठीक जान पड़ता है। आपत्काल में भी मनुष्य का मांसभक्षण करने की अपेक्षा प्राणत्याग करके मर जाना ही अच्छा है। तथा महाभारतादि में लिखा है कि- ‘अपना जीवन बचाने के लिये भी      धर्म को न त्यागे अर्थात् शरीर भले ही नष्ट हो जावे, मर जाना स्वीकार कर ले, पर धर्म का त्याग कदापि न करे।’१ इत्यादि प्रकार धर्मशास्त्रों में प्रायः प्रमाण मिलते हैं। वेदधर्मानुयायी आर्य लोगों का सनातन काल से यही सिद्धान्त दृढ़ चला आता है कि शरीर तो वैसे भी घटादि के समान अनित्य हैं पर धर्म नित्य है जो मरने पश्चात् जीवात्मा के साथ जाकर जन्मान्तर में भी सुख पहुंचाता है फिर अनित्य वस्तु की रक्षा के लिये नित्यधर्म का त्याग कदापि नहीं करना चाहिये। और जो ऐसा करता है उससे अधिक मूर्ख वा नास्तिक कौन होगा ? वेदविरोधी मनुष्यों का प्रायः यही सिद्धान्त रहता है कि किसी प्रकार का अधर्म क्यों न हो पर प्राण की रक्षा सर्वोपरि है। इसीलिये उनका नाम असुर है। इसलिये आपत्काल में भी मनुष्य को विशेष अधर्म का उपार्जन न करना चाहिये किन्तु उस समय थोड़े धर्म के सेवन से निर्वाह कर्त्तव्य है। इस प्रकार ये आठ श्लोक भी प्रक्षिप्त हैं। इस दसवें अध्याय में सब एक सौ इकत्तीस श्लोक हैं, जिनमें सत्रह प्रक्षिप्त और एक सौ चौदह (११४) श्लोक शुद्ध जानने चाहियें।

आपद्धर्म का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब आपद्धर्मविषय का विचार किया जाता है। धर्म दो प्रकार का है- एक सनातन धर्म और दूसरा आपद्धर्म कहाता है। स्वस्थदशा में सेवने योग्य वेदादि शास्त्रों में कर्त्तव्य मानकर मनुष्यों के लिये कहा गया सनातनधर्म है। जब सनातन धर्म के सेवने से मनुष्य का निर्वाह नहीं हो सकता वा सनातन धर्म के सेवन में असमर्थ हो जाता है उस समय में जिस प्रकार निर्वाह करने के लिये धर्मशास्त्रकारों ने आज्ञा दी है वह आपद्धर्म है। जिस-जिस ब्राह्मणादि वर्ण के जो-जो अध्यापनादि धर्म सम्बन्धी कर्म धर्मशास्त्र में कहे हैं, उनका सेवन करना यदि किसी प्रकार देश, काल वा वस्तु के भेद से असम्भव हो तो भी सर्वथा अज्ञानान्धकाररूप अधर्म के गड्ढे में न गिरना चाहिये किन्तु आपद्धर्मरूप स्वल्पधर्म के सेवन से भी निर्वाह करना अच्छा है। जैसे उत्सर्ग करने पर अपवाद स्वयमेव प्रवृत्त होता है अर्थात् सामान्यकर किसी बात के कहने पर विशेषता स्वयमेव खड़ी हो जाती है जैसे    धर्मशास्त्र वा वैद्यकशास्त्र में सब काल में सबके लिये सामान्य कर दिन में सोने का निषेध है। परन्तु अपवादरूप से विधान करने पड़ा कि रात को जागने की दशा में ग्रीष्म ऋतु और अजीर्णतादि रोगों में नियत काल तक मनुष्य को दिन में सोना चाहिये। ऐसे अपवादों को कोई रोक नहीं सकता अर्थात् जहां सामान्य की प्रवृत्ति होना दुस्तर हो जाती है वा हो सकने पर उससे विशेष हानि होना सम्भव होता है तब अपवाद दशा खड़ी की जाती है वा करने पड़ती है। वैसे ही आपत्काल स्वयमेव आया करते हैं। उस समय जो कर्त्तव्य है वही आपद्धर्म है। सनातनधर्म में बाधा डालने वाला आपद्धर्म हो ऐसी शटा नहीं करनी चाहिये। जैसे अपने वर्ण की एक स्त्री के साथ द्विजों का विवाह होना सनातनधर्म है और विधवाओं का आपत्काल में नियोग होना आपद्धर्म है। उस नियोग की गर्भहत्या वा लोक में व्यभिचार द्वारा बुराई फैलने आदि की अपेक्षा उत्तमता और धर्म मानना हो सकता है कि जो एक स्त्री के साथ नियोग होकर सन्तानोत्पत्ति होने से नियुक्त दोनों स्त्री-पुरुषों की एक सन्तान में प्रीति बढ़ती है। विवाह की अपेक्षा वा विधवा स्त्री को  ब्रह्मचर्य (पतिव्रत) धर्म धारण करके जन्म व्यतीत कर देने की अपेक्षा नियोग की उत्तमता नहीं है। इसी कारण जो स्त्री वा पुरुष सनातनधर्म के सेवन से निर्वाह कर सकता है उसके लिये नियोग नहीं है। यदि नियोग कर लूंगी ऐसा मानकर कोई स्त्री अपने पति को मार डाले तो भी नियोग करना दूषित नहीं होता क्योंकि जिस बुराई से बचने और इष्ट की प्राप्ति के लिये जो काम किया जाता है उससे वैसा प्रयोजन सिद्ध न करके कोई विरुद्ध काम करे तो वह करने वाले को दोष है। जैसे बाल काटने के लिये छुरा बनाया गया है उससे कोई हाथ आदि काट ले तो यह छुरा के बनने में वा बनाने वाले का दोष नहीं किन्तु यह उसी काटने वाले कर्त्ता का दोष है। इसी प्रकार नियोग जिस प्रयोजन के लिये है उससे विरुद्ध करे तो यह नियोग का दोष नहीं किन्तु उस स्त्री का दोष है। क्योंकि यदि नियोगरूप अवलम्ब उसको ज्ञात न हो तो वह अन्य पुरुष के साथ भाग जाने आदि बुद्धि से भी पति को मार सकती वा उससे विरोध कर सकती है। और कदाचित् नियोग करने में कोई दोष ही हो तो भी नियोग की अकर्त्तव्यता नहीं सिद्ध हो सकती। जैसे ‘हिरण चर जाने के भय से जौ-गेहूं आदि का बोना नहीं रोक दिया जाता’ वैसे यहां भी दोष के भय से नियोग को नहीं रोक सकते किन्तु जैसे हिरणों से खेत बचाने के अनेक उपाय किये जाते हैं वैसे नियोग आदि आपत्काल के धर्म में भी जो-जो दोष जान पड़े उसको हटाने को उपाय करना चाहिये और विपत्ति के समय में आपद्धर्म का तो सेवन अवश्य करना चाहिये। नियोग यहां केवल आपद्धर्म के उदाहरण में दृष्टान्तरूप से लिखा है। ब्राह्मणादि वर्ण जब अपने-अपने कर्मों से जीविका करने में असमर्थ होते हैं तब उनको अपने-अपने से नीच वर्ण के कर्मों से जीविका करनी चाहिये यह भी आपद्धर्म है सो लिखा भी है कि- ‘ब्राह्मण आपत्काल में क्षत्रिय के धर्म से जीविका करे क्योंकि यही उसका समीपी है। यदि अपने और क्षत्रिय के दोनों धर्म से जीविका न कर सके तो खेती और गोरक्षा आदि वैश्य की जीविका से निर्वाह करे।’१ और- ‘खेती को ब्राह्मण यत्न से छोड़ दे’२ यह कहना किसी अन्य का मत है किन्तु मनु का नहीं। खेती करना ऐसा बुरा नहीं कि जैसा लोग मानते हैं। पाराशर स्मृति में खेती का विधान लिखा है।३ तथा अन्य क्षत्रियादि को भी वैश्यादि की वृत्ति से आपत्काल में निर्वाह करना चाहिये। आगे आपत्काल के विषय पर महाभारत में शान्तिपर्वान्तर्गत आपद्धर्मानुशासन नामक एक अवान्तरपर्व है, वहां आपत्काल में सेवने योग्य धर्मों का साधन और दृष्टान्तों के सहित प्रायः विस्तार से व्याख्यान किया है। उसमें सारांश यह है कि- आपत्काल में निर्वाह के लिये मनुष्य को नीतिज्ञ और लोक के व्यवहार में चतुर होना चाहिये तब वह अपना सुख से निर्वाह कर सकता है। उसी आपद्धर्म के प्रकरण में यह भी लिखा है कि- ‘जिसके साथ जो मनुष्य जैसा बर्त्ताव करता है उसके साथ वैसा ही बर्त्ताव करना धर्म है। अर्थात् छली, कपटी वा दुष्ट मनुष्य के साथ छल कपट और दुष्टता करना तथा श्रेष्ठ, सज्जन धर्मात्मा पुरुषों से धर्मानुकूल वर्त्तना यह दोनों प्रकार का धर्म है।’१ यद्यपि छल-कपटादि करना वास्तव में धर्म नहीं तथापि छल-कपटादिरूप कांटों से धर्माङ्कुर की रक्षा होती हो तो वे धर्म के सहकारी कारण होने से धर्म माने जावेंगे। यह भी आपत्काल में ही धर्म है सदा नहीं। ‘पराया धन हर लेना और अन्याय से किसी को दुःख देने की निष्ठा को सदा छोड़कर वेदोक्त पञ्चमहायज्ञादि नित्यकर्म और गर्भाधानादि नैमित्तिक कर्म में प्रीति रखते हुए मन, वाणी और शरीर सम्बन्धी दस दोषों को छोड़कर दस लक्षण वाले दयादि नामक धर्म का नित्य नियम से सेवन करते हुए ब्राह्मणादि वर्णों को न्यायपूर्वक ही किसी प्रकार की जीविका से आपत्काल में निर्वाह करना चाहिये।’२  ‘विद्या, शिल्पकारी, नौकरी, सेवा, गोरक्षा, किसी प्रकार की दुकान करना, खेती, सन्तोष, भिक्षा मांगना, ब्याज- सूद लेना ये दस काम जीविका अर्थात् अन्न-धनादि की प्राप्ति के हेतु हैं।’३ इन दस जीविका के हेतुओें में से सब धर्मानुकूल नहीं हैं किन्तु- ‘दाय नाम अपना भाग वा हिस्सा, दुकान आदि का लाभ तथा बेचना, लड़ाई में जीतना, सूद लेना, कृषि, गोरक्षा और शिल्पकारी ये तीनों कर्मयोग में लिये जायेंगे, अच्छा दान लेना ये ही सात प्रकार की प्राप्ति धर्मानुकूल हैं।’४ क्रय के अन्तर्गत होने से भृति भी धर्मानुकूल है। शिल्पकारी, गोरक्षा और कृषि कर्मयोग के अन्तर्गत हैं अतः वे भी धर्मानुकूल हैं। सेवा, सन्तोष कर बैठ रहना और भिक्षा मांगना ये तीनों धर्मानुकूल नहीं किन्तु धर्म से विरुद्ध हैं। यद्यपि सेवा और भिक्षा मांगने की अपेक्षा धैर्य रखकर बैठ रहना अच्छा है तथापि निकम्मापन से लेकर किसी के वस्तु को भोगना अच्छा नहीं। इसी कारण आपत्काल में भी ब्राह्मणादि को इन तीनों का सेवन नहीं करना चाहिये। शिल्पकारी और खेती आदि कर्मों को कोई लोग ब्राह्मणादि के करने योग्य नहीं कहते सो ठीक नहीं क्योंकि पूर्वोक्त प्रकार से मनु जी ने स्वयमेव उनका धर्मानुकूल होना स्वीकार किया है। अर्थात् इन कर्मों का करना अधर्म नहीं। यदि कोई लोग ब्राह्मणादि के विद्याभ्यासादि बड़े-बड़े कर्मों में हानि देखकर शिल्प वा खेती आदि के न करने का प्रतिपादन करते हैं तो ठीक है जो बड़ा काम कर सकता है जिससे अपना वा संसार का बड़ा उपकार होता है तो उसको छोटा काम न करना चाहिये। परन्तु बड़े काम से निर्वाह करना किसी कारण नहीं हो सकता तो छोटे से निर्वाह करना चाहिये, इससे शिल्पकारी वा खेती आदि का अधर्म होना सिद्ध नहीं होता। स्वस्थ दशा में जब ब्राह्मणादि लोग विद्याभ्यास और अध्यापनादि अपने-अपने कर्मों से निर्वाह कर सकते हैं तब उनको शिल्प वा खेती आदि से जीविका नहीं करनी चाहिये, यह सर्वसम्मत है और आपत्काल में खेती आदि करना भी धर्मानुकूल ही है, यह सिद्धान्तपक्ष जानो। भिक्षा मांगना, किसी की नौकरी करना, सन्तोष कर बैठ रहना, गाड़ी वा इक्का चलाना अनेक प्रकार के छल-प्रपञ्च रचना इत्यादि की अपेक्षा खेती और शिल्पादि से निर्वाह करना बहुत ही उत्तम है। कोई लोग खेती करने में जीवहिंसा मानते हैं, परन्तु खेती की अपेक्षा गाड़ी-इक्का चलाने आदि में हिंसा अधिक है। तथा नौकरी की अपेक्षा खेती में स्वतन्त्रता और प्रसन्नता भी अधिक है।

वर्णसंकर का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब वर्णसंकर विषयक विचार किया जाता है, जिसके विषय में यह मुख्य वा प्रथम श्लोक है कि- ‘ब्राह्मणादि वर्णों का परस्पर व्यभिचार होने अर्थात् किसी वर्ण की स्त्री का किसी अन्य वर्ण के पुरुष से गुप्त वा प्रसिद्ध संयोग होने से तथा जिनके साथ विवाह न करना चाहिये उन भगिनी आदि के साथ विवाह कर लेने और अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर अन्य वर्ण के कर्मों का सेवन करने लगने से मनुष्य वर्णसंकर हो जाते हैं।’ अर्थात् पहले दो कर्मों से उत्पन्न होने वाले आगे वर्णसंकर बनते और उनके माता-पिता वर्णसंकर  नहीं होते किन्तु कुत्सित कर्म से निन्दित अवश्य हो जाते हैं। और तृतीय अपने कर्मों के त्याग से वे ही त्यागने वाले वर्णसंकर  हो जाते हैं। वर्णसंकर  होने में ये तीन कारण हैं।’१ ब्राह्मणादिवर्णों के अपने कर्म पढ़ने-पढ़ाने आदि धर्मशास्त्रोक्त हैं। व्यभिचार यहां दो प्रकार का लेना है। एक तो अपने-अपने वर्ण की उन स्त्रियों से संयोग करना जिनके साथ विवाह नहीं हुआ। और द्वितीय अपने से भिन्न वर्णों की उन दोनों प्रकार की स्त्रियों से संयोग करना जिनके साथ उस पुरुष का विवाह हुआ वा न हुआ हो, ऐसी अनुलोम-प्रतिलोम दोनों वर्ण की स्त्रियों से संयोग करना भी व्यभिचार ही है। ऐसे व्यभिचार कर्म से उत्पन्न होने वाले सब वर्णसंकर कहाते हैं। सटर नाम दो प्रकार के मेल का है विरुद्ध गुण वाले दो वस्तुओं वा प्राणियों के संयोग से उत्पन्न हुआ सटर कहाता है। वैशेषिकशास्त्र में लिखा है कि- ‘जैसे गुण कारण में होते हैं वैसे ही कार्य में आते हैं।’२ इसी के अनुसार व्यभिचार करने वाले स्त्री-पुरुषों में धर्म का लेश नहीं होता किन्तु चोरी, लम्पटता, कामासक्ति, लज्जा-शटा-भय-कामवश होकर झूठ, विश्वासघात और हिंसादि करने में तत्पर होते हैं। इस कारण वैसे ही गुण सन्तान में आते हैं, इससे वह सन्तान द्विरग वा वर्णसंकर कहाता है। जैसे दूध के साथ लवण का संयोग होने से अनिष्टगुण उत्पन्न होता है वैसे ही शास्त्र की आज्ञा और युक्ति से जिसका जिस स्त्री के साथ संयोग होना अनुचित है उस पुरुष का उस स्त्री से संयोग होना व्यभिचार है, उस व्यभिचार से उत्पन्न हुआ पुरुष लोक में सटर कहा जाता है। अपने कर्मों के त्याग से जो वर्णसंकर होते हैं उनका वर्णन- ‘जो वेद को न पढ़ के अन्य शास्त्रों में परिश्रम किया करता है वह जीवित ही अपने कुटुम्ब सहित शूद्र हो जाता है।’३ इत्यादि प्रकार सामान्य कर इस  मानवधर्मशास्त्र के सभी अध्यायों में किया गया है। तथा वर्णों के व्यभिचार और विवाह न करने योग्य स्त्रियों के साथ विवाह करने से उत्पन्न होने वाले सटरों का इस दशमाध्याय में विशेष कर वर्णन किया गया है। वे सटर दो प्रकार के हैं- एक अनुलोमज अर्थात् ब्राह्मणादि उत्तम वर्णस्थ पुरुषों का अपने से निकृष्ट-निकृष्ट वर्ण की स्त्रियों से विवाह वा व्यभिचार होकर उत्पन्न हुए अनुलोमज कहाते और शूद्रादि नीच वर्णस्थ पुरुषों का अपने से ऊंच-ऊंच वर्ण की स्त्रियों से व्यभिचार होकर उत्पन्न हुए प्रतिलोमज सटर कहाते हैं। बीज के प्रधान पक्ष को आगे लेकर प्रतिलोमज सटरों की अपेक्षा अनुलोमज सटर अतिश्रेष्ठ माने जाते हैं। और ये अनुलोमज किसी प्रकार शुद्ध संस्कारी होने से कुछ काल तक शुभ कर्मों का सेवन करके द्विजों में संख्यात हो सकते हैं। अम्बष्ठ आदि अनुलोमज और सूतादि प्रतिलोमज हैं। तथा अन्य प्रकार से भी वर्णसटरों के दो भेद हैं- एक तो चारों वर्णों के परस्पर व्यभिचार से उत्पन्न होने वाले और द्वितीय सटर पुरुषों से भिन्न-भिन्न सटरों की स्त्रियों में उत्पन्न हुए। इन दोनों के साथ प्रतिलोमज-अनुलोमज दोनों भेद बने रहते हैं। वे सटर जातिस्थ लोग व्यभिचार बढ़ते जाने से नवीन-नवीन अवान्तर भेदों से बढ़ते जाते हैं, उनके कर्मानुकूल नाम पूर्वजों ने किये और करते हैं।

जहां लोग स्त्री के साथ धर्मानुकूल गृहस्थ धर्म के सेवन के लिये ब्राह्म आदि विवाह वेदोक्त रीति से ठीक-ठीक करते हैं, वहीं ब्राह्मणादि उत्तम वर्ण होते हैं। और जो धर्म-अधर्म के विचार को छोड़कर चित्त से कामासक्त होकर जिस किसी जाति की स्त्री के साथ संयोग करते हैं, उन्हीं के निन्दित संस्कारों से हुए सटर लोग भी हिंसक, मिथ्यावादी और वैदिक धर्म के द्वेषी होते हैं। गुप्त व्यभिचार से उत्पन्न हुए अच्छे-अच्छे घरों में गुप्त भी वर्णसंकर हो जाते हैं। कोई लोग प्रतिष्ठा की रक्षा अथवा स्वार्थ के साधने हेतु अपने को वर्णसंकर  जानते हुये भी छिपाते हैं। इसलिये मानवधर्मशास्त्र के दशवें अध्याय में यह कहा है कि- ‘द्वेष वा ईर्ष्या करने में तत्पर होना वा नास्तिकता को धारण करना कि जन्मान्तर वा परलोक में शुभाशुभ फलदाता कोई ईश्वर नहीं, इसलिये जो मन में आवे सो धर्म वा अधर्म करना चाहिये कि जिससे हम अभी सुखी रहें ऐसी बुद्धि वाला पुरुष अनार्य कहाता और इससे विपरीत आर्य है। निष्ठुरता- कठोर बोलना वा कुछ काम न करना, क्रूरता- निष्प्रयोजन हिंसा करना तथा निष्क्रियात्मता- धर्मसम्बन्धी काम से विमुख रहना ये बातें पुरुष का नीच वा वर्णसंकर होना प्रकट करती हैं। अर्थात् कोई बड़ा प्रतिष्ठित भी बनता हो परन्तु उपर्युक्त लक्षण मिलते हों तो जान लो कि वह नीच वा वर्णसंकर  है। व्यभिचार से उत्पन्न हुआ पुरुष पिता के जैसे गुणकर्मों वाला हो वा माता के तुल्य अथवा दोनों के लक्षण उसमें मिलेंगे परन्तु वह नीचों से उत्पन्न हुआ सटर अपने स्वभाव को कदापि छिपा नहीं सकता। भले ही मुख्य प्रशंसित कुल में उत्पन्न हुआ हो पर जो किसी नीच पुरुष के वीर्य से होगा तो उस नीच के स्वभाव को थोड़ा वा बहुत अवश्य ही वह सटर मनुष्य धारण करेगा।’१ ऐसे दोनों प्रकार के गुप्त सटरों की परीक्षा करनी चाहिये। इस मानवधर्मशास्त्र में ब्राह्मणादि वर्णों से वर्णसटरों का पृथक् होना दिखाया है तिससे अनुमान होता है कि पहले इस देश में अपने कर्मों को छोड़ देने वाले ब्राह्मणादि और गुप्त व्यभिचार से हुए सटर लोग ब्राह्मणादि वर्णों में मिले नहीं रहते थे किन्तु बीच-बीच में परीक्षा कर-कर के निकाल दिये जाते थे, तभी वर्णव्यवस्था भी शुद्ध थी। और अब आर्य राजाओं के न रहने से वे सब नियम टूट गये इससे कोई वर्ण ठीक-ठीक शुद्ध नहीं रहा। इसी कारण आर्यावर्त्त देश की बड़ी हानि हुई और होती जाती है। यही एतद्देशीय मनुष्यों के महादुःख का कारण है।

 

ब्राह्मणादि वर्ण जन्म से वा कर्मों से किस प्रकार मानने चाहियें इत्यादि का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब ब्राह्मणादि वर्णों की व्यवस्था कैसे माननी चाहिये, इसका विचार किया जाता है। क्या ब्राह्मणादि वर्ण विद्यादिसम्बन्धी गुणकर्मों के विभागमात्र से मानने चाहियें कि जिसमें विद्यादि उत्तम गुण-कर्म-स्वभाव हों वही ब्राह्मण है अथवा जन्म से ही माने जावें कि जो-जो ब्राह्मणादि के कुल में उत्पन्न हो वह-वह ब्राह्मणादि माना जावे। इस विषय में मानवधर्मशास्त्र का क्या सिद्धान्त है, सो दिखाते हैं। विद्यादि गुणकर्म और जन्म दोनों से ब्राह्मणादि का पूरा-पूरा ब्राह्मणादिपन सिद्ध होता है। जैसे गुणकर्मों से ब्राह्मणादि की परीक्षा हो सकना मानकर यह कहा गया कि- ‘जैसे काठ का हाथी और केवल चाम में भूसा भरकर बनाया हरिण, हाथी और हरिण का काम न दे सकने से व्यर्थ वा नाममात्र है वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण ये तीनों हाथी, हरिण और ब्राह्मण नाम धरानेमात्र हैं किन्तु वास्तव में नहीं। तथा जो द्विज वेद को न पढ़कर अन्यत्र ही श्रम करता है अर्थात् अन्य ग्रन्थों को ही पढ़ता रहता है वह अपनी वर्त्तमान दशा में ही अपने कुटुम्ब- बाल-बच्चों सहित शूद्र हो जाता है।’१ यह मनु का आशय है। तथा- ‘मनुष्य को अपना आचरण बड़े उद्योग से ठीक रखना चाहिये और धन तो आता-जाता बना रहता है, इसलिये धन से निर्बल मनुष्य निर्बल नहीं किन्तु जिसके आचरण बिगड़े हैं वह वास्तव में बिगड़ा जानो। सत्य, दान, क्षमा, शुद्धि, अहिंसा, तप और दया ये धर्म के लक्षण जिसमें विद्यमान हों वह ब्राह्मण है।’२ यह महाभारत का लेख है। तथा जन्म से भी ब्राह्मणादि का होना मानकर बीज और खेत के प्रधान वा अप्रधान पक्ष का व्याख्यान किया है तथा- ‘शर्मशब्द युक्त ब्राह्मण का और रक्षायुक्त क्षत्रिय का नाम रखे।’३ यह भी नामकरणसंस्कार के अवसर पर कथन करना जन्म से ब्राह्मणादिपन होने में ही बन सकता है। सो यह सूक्ष्म और विशेष विचार करने से ज्ञात हो सकता है कि शरीरों के बीच में ब्राह्मणादिपन क्या वस्तु है ? इसमें मुख्य सिद्धान्त यही है कि अन्तःकरण के साथ वा चेतना धातु के साथ सम्बन्ध रखने वाले ऐसे कई गुण हैं, जिनके होने से उस-उस व्यक्ति को ब्राह्मणादि कहना बन सकता है। वे गुण प्रकृति-पुरुष के संयोग वाले जड़-चेतन शरीर के साथ ही रहते अर्थात् गर्भावस्था से ही उनमें होते हैं। बाल्यावस्था में उनके आविर्भाव प्रकटता का समय नहीं होता। इस कारण दबे रहते हैं परन्तु अधिक विचारशील लोग बाल्यावस्था में भी परीक्षा कर सकते हैं कि यह आगे ऐसा होगा। इसी विचार के अनुसार व्याकरण महाभाष्यकार ने भी कहा है कि- ‘विद्या, तप और योनि अर्थात् उत्पत्ति का कारण ये तीनों ब्राह्मण के चिह्न हैं अर्थात् इन तीनों के ठीक वा उत्तम होने से ब्राह्मण हो सकता है। जो विद्या और तप नाम अपने अध्यापनादि धर्मशास्त्रोक्त छह कर्मों से रहित है वह केवल जातिब्राह्मण है अर्थात् ब्राह्मण का वीर्य होने से ब्राह्मण कहाता है।’१ इसी जातिब्राह्मण पदवाच्य को मनु जी ने ब्राह्मणब्रुव२ शब्द से कहा है और जैसे काठ का हाथी वैसा ही गुणकर्म रहित ब्राह्मण है, इससे निष्फल दिखाया है।३ और मुख्य बात यही है कि जिस-जिस गुण के होने से वह-वह शब्द उस-उस वस्तु का वाचक ठहराया गया है। उस-उस गुण के विद्यमान रहने से ही वह-वह शब्द उस-उस वाच्य वस्तु का वाचक हो सकता है। जैसे गन्ध वाली पृथिवी रूप और दाहगुण वाला अग्नि है, यह माना जाता है। परन्तु गन्ध और रूप वा दाह गुणों के बिना पृथिवीपन वा अग्नि का होना नहीं कह सकते, क्योंकि रूप देखने और स्पर्श में दाह होने से जानते हैं कि यह अग्नि है। इसी आशय को लेकर महाभाष्यकार ने भी लिखा है कि- ‘द्रव्य में जिस गुण के विद्यमान होने से उस-उस शब्द को वाचक नियत किया जाता है उसी गुण की प्रधानता कहने के लिये व्याकरण में त्व, तल् प्रत्यय होते हैं।’४ इसी प्रकार ब्राह्मणादिपदवाच्यों में उस-उस ब्राह्मणादिपन गुण के होने पर ही ब्राह्मणादि शब्द उन-उन व्यक्तियों के वाचक होने चाहियें। जैसे लोक में भी रूप और दाहगुणों से रहित किसी वस्तु को कोई अग्नि नहीं कहता वा न जानता-मानता है। इसी प्रकार शास्त्र की मर्यादा के अनुसार जिन-जिन गुणों के होने से ब्राह्मणादिवर्ण कहे वा माने-जाने चाहियें उनके न होने पर उन-उन को ब्राह्मणादि कहना वा मानना अनुचित है। परन्तु लोक में ऐसा नहीं होता किन्तु गुणहीनों को भी ब्राह्मणादि कहते, मानते हैं। सो यह शब्द की मर्यादा वा विद्वानों की शैली से विरुद्ध है। इस पूर्वोक्त कथन से गुण को छोड़कर द्रव्य क्या वस्तु है यह भी नहीं कह सकते, क्योंकि गुण ही प्रत्यक्ष होता और गुण से ही द्रव्य के स्वरूप का निश्चय करते हैं। तो भी यह नहीं कह सकते कि द्रव्य कुछ नहीं, किन्तु द्रव्य कुछ है कि जो गुण के बदल जाने से वा न रहने पर भी पूर्व के तुल्य बना रहता है। इसी के अनुसार गुण का लक्षण व्याकरण महाभाष्य में ऐसा लिखा है कि- ‘अन्य किसी वस्तु को छोड़कर अन्य को प्राप्त होता और वही गुण द्रव्यान्तरों में भी दीखता है और तीनों लिगें का वाचक होता ऐसा गुण द्रव्य से भिन्न है।’१ यौवन अवस्था में जिन गुणों का प्रादुर्भाव होता है वे वृद्धावस्था में नहीं रहते तो भी वही युवावस्था के गुणों वाला जीवात्मा पूर्व बीती बातों का स्मरण करता है। यहां भी ज्ञान, बुद्धि और स्मृति आदि गुण आत्मा, ज्ञाता और द्रव्यरूप है। सो वह आत्मा ज्ञानादि गुणों के विपरीत होने पर भी यथावस्थित रहता है, यही द्रव्य-गुण का भेद है। गुण भी कोई नित्य और कोई नैमित्तिक होते हैं। नैमित्तिक गुण समय-समय पर देश-काल-वस्तु भेद से अपने-अपने प्रकाशक वा नाशक कारणों से उत्पन्न वा नष्ट होते रहते हैं, तथा नित्य गुण भी समय-समय पर अपने अनुकूल वा विरुद्ध सामग्री के संयोग से प्रबलता वा निर्बलता को प्राप्त हुए उछलते-दबते रहते हैं। शरीरादि में रहने वाले नैमित्तिकगुण नित्य के आहार-विहार से बदलते रहते हैं, परन्तु नित्यगुण कारण से ही कार्य में आते हैं और जो गुण कार्य कारण दोनों में रहते हैं अर्थात् कारण से कार्य में अन्वित होते हैं, वे ही नित्य हैं जैसे कठिनाई मट्टी और घड़ा दोनों में रहती है। इसी प्रकार यहां भी बहुत गुण होते हैं जो कारण से कार्य में आते हैं। जैसे सब प्राणियों के शरीर में सत्त्व, रजस् और तमोरूप सब गुण देश-काल-वस्तु भेद से न्यूनाधिकता को प्राप्त हुए सदा ही ठहरते हैं। वे ही गुण ब्राह्मणादिवर्ण के सूचक हैं क्योंकि गुणों का होना ही ब्राह्मणादिपन जताता है। अर्थात् जिन गुणों से ब्राह्मणादिवर्णों का विभाग बनता है वे सत्त्वादि कारण से कार्य में आते हैं इस कारण नित्य हैं। इस प्रकार एक-एक मनुष्य के शरीर में चारों वर्ण रहते हैं अर्थात् ब्राह्मणादि चारों वर्ण में चारों का समावेश रहता है। ब्राह्मण में ब्राह्मण का गुण   प्रधान और अन्य तीन का गौण रहता तथा ऐसे ही क्षत्रियादि में जानो। इसी के अनुसार वेद में भी लिखा है कि- ‘इस मनुष्य शरीररूप समुदाय के चार अवयव मुख्य हैं, उनमें सर्वोपरि उत्तम वेदादि के पढ़ने-पढ़ाने, मनन वा विचार के हेतु    धर्म के उपदेश वा प्रचार को बढ़ाने वाला शिरमात्र मुख ब्राह्मण है अर्थात् विद्या और धर्म के प्रचाररूप मुख्यकर मुख अवयव से सिद्ध होने योग्य कर्म में तत्पर पुरुष ब्राह्मण है। दुष्टों का ताडन तथा श्रेष्ठों की रक्षा करनेरूप भुजबल से सिद्ध होने योग्य प्रजारक्षणरूप काम में मुख्यकर तत्पर बाहुप्रधान क्षत्रिय कहाता तथा मुख्यकर गोड़ों से सिद्ध होने योग्य पशुओं की रक्षा आदि काम में प्रवीण वैश्य और पगों से सम्बन्ध रखने वाले इधर-उधर भागनेरूप दासकर्म में प्रवृत्त शूद्र हैं।’१ अर्थात् एक-एक शरीर में मुख ब्राह्मण, भुजा क्षत्रिय और गोड़े वैश्य तथा पग शूद्र हैं यह मन्त्र का आशय है। सत्त्वगुणी ब्राह्मण, रजोगुणप्रधान क्षत्रिय तथा रजस् और तमोगुण के मेल में वैश्य और तमोगुणप्रधान शूद्र है अर्थात् एक-एक शरीर में चारों वर्णों का गुण वा धर्म रहने पर भी जिस-जिस व्यक्ति में जिस-जिस वर्ण के     धर्म की प्रधानता हो वह-वह उसी ब्राह्मणादिपद का वाच्य होता है उसमें सत्त्वादिगुण उदाहरण वा दृष्टान्त हैं। ऐसा होने पर गर्भाधान के समय माता-पिता के शरीर में जिस गुण का जैसा उत्कर्ष स्वाभाविक प्रवृत्ति से हो वा नैमित्तिक सत्सग् आदि व्यवहार से होवे तो उनका सन्तान वैसे ही गुण को विशेष कर      धारण करने वाला होगा। सो सुश्रुत के शारीरस्थान में कहा भी है कि-  ‘जैसे-जैसे आहार, आचार और चेष्टा से युक्त हुए स्त्री-पुरुष गर्भाधान करें, उस समय उन दोनों के मन की वासना जैसी होगी वैसे ही संस्कारों वाला सन्तान होगा।’२ इसी कारण एक ही पुरुष के सन्तानों में भिन्न-भिन्न बुद्धि वा स्वभावादि होते हैं। क्योंकि सबके गर्भाधान में पिता-माता की वासना एक सी नहीं रह सकती। इससे सिद्ध हो गया कि कारण से कार्य में गुण आया करते हैं। वर्णविचार दो प्रकार का है, एक लौकिक और दूसरा शास्त्रीय। लौकिक विचार में गुणकर्मों के अभाव होने पर भी ब्राह्मणादि शब्दों का प्रयोग उन-उन व्यक्तियों के साथ किया जाता है, यह सिद्धानुवाद है। और शास्त्र की आज्ञा वा सम्मति से जिस-जिस में ब्राह्मणादि के गुण-कर्म हों वे-वे ही ब्राह्मणादिपद वाच्य हों। और गुण-कर्मों की प्रधानता परीक्षा के आधीन है। जैसे ब्राह्मणत्व की परीक्षा के लिये जो सत्यादि गुण हैं उनका आपत्काल में भी त्याग न करे, कितनी ही हानि वा दुःख उठाना स्वीकार कर ले, पर जो अपने सत्याचरणादि धर्म को न छोड़े। धर्म छोड़ने से अपना शरीर बचता हो वा धर्मानुकूल वर्त्तने से पुत्रादि के वध का अवसर आ गया हो वा      धनादि वस्तुओं की बड़ी हानि होती हो तो भी जो सत्य और असत्य में से सत्य का ही आचरण स्वीकार करे। अपने धर्म की रक्षा के लिये अपने जीवनादि को भी अर्पण कर दे लेकिन धर्म को कभी न छोड़े, वह ब्राह्मण है। जहां विशेष हानि-लाभ नहीं है वहां किसी के सत्यभाषण की दृढ़ता भी ब्राह्मणपन को सिद्ध नहीं कर सकती क्योंकि सब समय सब बातों की परीक्षा नहीं होती। इसीलिये नीति में कहा है कि- ‘किसी विशेष समय कठिन प्रदेश में विशेष दुःख में भेजने की आज्ञा देकर भृत्य की परीक्षा करे। व्यसन में कुटुम्बियों की, आपत्काल में भिन्न की और निर्धनता के समय स्त्री की परीक्षा करे।’१ इत्यादि प्रकार सब बातों की परीक्षा विशेष दशा में हुआ करती है, सब समय में सबकी परीक्षा नहीं होती। इसी प्रकार प्रजा की रक्षा के लिये दुष्टों को दण्ड देने के अर्थ जो अपने प्राण का भी अर्पण करता है तथा युद्ध के समय जो प्राण बचाने के लिये मुख न मोड़े, वह क्षत्रिय है। इसी प्रकार वैश्यादि भी अपने धर्म को प्राण से भी अधिक प्रिय मानकर सेवन करते हुए परीक्षा में उत्तीर्ण होकर उस-उस वर्ण में प्रविष्ट हो सकते हैं। यदि कोई कहे कि ऐसी परीक्षा में उत्तीर्ण तो कोई ही हो सकते हैं सब वा प्रायः नहीं, तो उत्तर यही है कि जो परीक्षा में उत्तीर्ण हों वे ही पूरे-पूरे ब्राह्मणादि हैं, सब नहीं। अन्यों में से जिसमें जिसकी अपेक्षा जैसे गुण की जितनी प्रधानता होगी वह उसकी अपेक्षा वैसा ही न्यूनाधिक ब्राह्मणादि होगा वा माना जायेगा क्योंकि सब बातें सापेक्ष हुआ करती हैं। परन्तु ब्राह्मणादि पदों का जो मुख्य अर्थ है उसका सर्वथा अभाव होने से उनको ब्राह्मणादि न कहना वा न मानना चाहिये। जैसे ब्रह्मशब्द से ब्राह्मणशब्द बना है। यद्यपि ब्रह्मशब्द के कई अर्थ हैं, तथापि धर्मशास्त्र के सिद्धान्तानुसार यहां वेद के पर्यायवाचक ब्रह्मशब्द से ब्राह्मणपद बनता है। अर्थ यह है कि ब्रह्मनाम वेद का पढ़ने-पढ़ाने-जानने तथा उपदेशादिद्वारा प्रचार करने वाला ब्राह्मण है। धर्मशास्त्र में लिखा है कि- ‘तब तक वह शूद्र के ही तुल्य है जब तक यज्ञोपवीत संस्कार होकर उसका वेद में प्रवेश न हो।’२ वेद के पढ़ने-पढ़ाने-जानने वा प्रचारादि करने में जिसका जितना उद्योग वा प्रवेश है उसमें उतना ही ब्राह्मणपन है। सन्ध्या, गायत्री तथा अग्निहोत्रादि पञ्चमहायज्ञों का जानना, करना भी कुछ वेद के साथ सम्बन्ध रखता वा उसमें प्रवेश है इसलिये सन्ध्यादि करने वा जानने वाले को भी किसी प्रकार ब्राह्मण कह सकते हैं। प्रयोजन यह है कि सत्यादि धर्म के लक्षणों का सेवनमात्र ब्राह्मणत्व का प्रयोजक नहीं किन्तु ब्रह्मनाम वेद का जानना और वेदोक्त कर्मों का करना ही ब्राह्मण बनाता है, किन्तु केवल सत्यादि के आचरण से ब्राह्मण नहीं होता और दोनों के होने से ठीक-ठीक ब्राह्मण हो सकता है। क्षत्र शब्द का अर्थ है कि क्षत नाम घाव वा पीड़ा से बचावे अर्थात् बलवान् जीव निर्बलों को दुःख न देने पावें ऐसा उद्योग करने वाला क्षत्रिय, व्यवहार ज्ञान में प्रवेश करने वाला वैश्य और कार्यों की सिद्धि के लिये शीघ्र भागने वाला शूद्र कहाता है। ये चारों गुण एक-एक में भी रहते हैं परन्तु जिसमें विशेष प्रवृत्ति होती उसी-उसी गुण की प्रधानता से वह यथोचित ब्राह्मणादि कहाने योग्य होता है। यह शास्त्र की व्यवस्था है परन्तु लोक में गुणकर्मादि की अपेक्षा को छोड़कर केवल जन्म से भी ब्राह्मणादि वर्णों का एक-एक समुदाय माना जाता है। जिस-जिस ब्राह्मणादि समुदाय में जिस-जिस वर्ण की उत्पत्ति होती है वह-वह ब्राह्मणादि पदवाच्य माना जाता है। इस दोनों प्रकार की वर्णविभाग व्यवस्था में गुण-कर्मों से ब्राह्मणादि के मानने की प्रधानता है क्योंकि जो कुछ जन्म से भी ब्राह्मणादिपन है वह कारण के गुण कार्य में आने से ही बन सकता है। सो जाति की अपेक्षा गुण-कर्मों की ही प्रधानता को मानकर महाभारत (महा॰ वन॰ अध्याय १८०) में ऐसा कहा है कि- एक अजगर बोला कि- ‘हे राजन् युधिष्ठिर ! ब्राह्मण कौन हो सकता और जानने योग्य क्या है ? तुम्हारे वचन सुनकर मुझे अनुमान हुआ कि आप बड़े विचारशील विद्वान् हैं।’१ युधिष्ठिर बोले कि- ‘सत्य बोलना, मानना वा करना, दान देना, सहनशीलता का धारण करना, कोमल स्वभाव, अच्छा आचरण, हिंसा का सर्वथा त्याग, निन्दा-स्तुति आदि द्वन्द्व का सहना और सब पर दया रखना ये गुण वा स्वभाव जिसमें दीख पड़ें, उसे ब्राह्मण मानना चाहिये।’२ फिर सर्प बोला कि- ‘चारों वर्णों में जब सामान्य कर ही सत्य का प्रमाण है क्योंकि वेदादि शास्त्रों में सबको सत्य बोलना चाहिये ऐसी आज्ञा दी गयी है। शूद्रों में भी सत्य का आचरण तथा दान और क्षमा हो सकती और सबमें एकता बढ़ाना और हिंसा का त्याग तथा दया करना इत्यादि धर्म के सामान्य लक्षण शूद्र में भी मिल सकते हैं तो क्या शूद्र भी ब्राह्मण होगा ?’३ अर्थात् आप के ब्राह्मणविषयक लक्षण में अतिव्याप्ति दोष आता है। युधिष्ठिर फिर बोले कि- ‘निद्रा, आलस्य, प्रमाद, अत्यन्त मैथुन में आसक्ति, मिथ्याभाषण में रुचि इत्यादि निकृष्ट कर्मों में रमण करना ही शूद्र का चिह्न है, वह ब्राह्मण में नहीं है क्योंकि ब्राह्मण सत्त्वगुणप्रधान होता है इस कारण एक ब्राह्मणादि के शरीर में सत्त्वगुण और तमोगुण की एक काल में एक साथ प्रधानता नहीं हो सकती। लोक में जिसको शूद्र और जिसको ब्राह्मण मानते हैं शास्त्र की मर्यादा के अनुसार भी वही शूद्र और ब्राह्मण माना जावे सो नहीं हो सकता क्योंकि अज्ञानी लौकिक लोगों में अन्धेर फैल सकता है पर वेदादि शास्त्रों का विचार करने वाले विद्वान् लोग वैसा नहीं मान सकते किन्तु विद्वानों का यही सिद्धान्त है कि जिसमें सत्य और दान आदि पूर्वोक्त गुणों का ठीक-ठीक आचरण हो वह ब्राह्मण और जिसमें सत्यादि का वर्त्तावरूप चिह्न न दीख पड़े वही शूद्र वा क्षत्रिय वा वैश्य है।’१

सर्प फिर बोला कि- ‘हे राजन् ! यदि तुम केवल गुण-कर्मों का आचरण देखने मात्र से ब्राह्मण मानते हो तो जब तक कर्म न हों तब तक जाति वृथा है अर्थात् जाति नाम उन-उन कुलों में जन्म होने से ब्राह्मणादि मानना सर्वथा निष्फल हुआ जाता है पर ऐसा होना अनुचित है।’२

इस पर युधिष्ठिर बोले कि- ‘जिस जाति को शास्त्रकारों ने भिन्न-भिन्न नित्य और सत्य अव्यभिचारिणी माना है वह जाति यहां मनुष्यमात्र की एक लेनी चाहिये अर्थात् मनुष्यजाति सत्य और अव्यभिचारिणी है, कभी मनुष्य से पशु-पक्षी आदि नहीं बन सकता। और ब्राह्मणादि मुख्यकर जाति नहीं किन्तु वर्ण हैं। गुणकर्मों को देखकर उस-उस वर्ण का अधिकार वा प्रतिष्ठा दी जाती है, इस कारण वर्ण कहाते हैं। उनकी परीक्षा ब्राह्मणादि के कुल में जन्म होनेमात्र से नहीं हो सकती क्योंकि यद्यपि ब्राह्मणादिपन गुण-कर्म से ही कार्य में आता है तथापि व्यभिचार के होने और माता-पिता के संस्कार वा आचरण गर्भाधान समय में विपरीत होने से परीक्षा होना दुस्तर है। प्रायः कुलों में गुप्त वा प्रसिद्ध वर्णसटर तथा धर्मसटरता का दोष लगता रहता है। सब ब्राह्मणादि लोग सब ऊंच वा नीच कुल की स्त्रियों में सदा सन्तानों को उत्पन्न करते रहते हैं। वाणी, मैथुन, जन्म और मरण आदि सब मनुष्यों का तुल्य ही स्वाभाविक काम है अर्थात् ब्राह्मणादि की स्वाभाविक वाणी आदि में भेद नहीं। जो कुछ नैमित्तिक भेद है वह विद्या पढ़ने आदि से ब्राह्मण और शूद्र में बराबर होगा अर्थात् व्याकरणादि पढ़ने से जैसे ब्राह्मण की वाणी आदि का    संशोधन होगा वैसे ही शूद्र की वाणी का भी होगा, इससे नैमित्तिक में भी तुल्यता रही। वाणी, मैथुन और जन्म-मरण ही मनुष्यादि जातियों के भेदक हैं। मनुष्य पशु पक्षी आदि की वाणी भिन्न-भिन्न है और जिनमें वाणी आदि का भेद नहीं उनका जातिभेद मानना भी ठीक नहीं है। इसी के अनुसार मनुष्यमात्र की वाणी आदि में भेद नहीं, इस कारण सब मनुष्य एक जाति हैं। तथा (ये यजामहे) यह वेद का प्रमाण है इसका अभिप्राय यह है कि हम लोग ब्राह्मण वा अन्य जो हैं वे यज्ञ करते हैं अर्थात् हम नहीं जान सकते कि हम ब्राह्मण हैं वा कौन। इस प्रकार जाति से ब्राह्मण होने में व्यभिचारादि का सन्देह मानकर यज्ञकर्म करने में दृढ़ प्रीति और प्रवृत्ति होने से ब्राह्मण होने का निश्चय होता है, इसलिये हमको यज्ञ करना चाहिये। इस कारण तत्त्वज्ञानी लोग शील, अच्छा स्वभाव, शुभकर्म में रुचि वा प्रवृत्ति ही को मुख्यकर ब्राह्मणादि वर्णव्यवस्था का हेतु मानते हैं। इस प्रकार ब्राह्मणादि के होने में गुण-कर्म की प्रधानतापरक वैदिकप्रमाण देकर मनुस्मृति का प्रमाण देते हैं कि- मनु जी भी जन्ममात्र से ब्राह्मणादि नहीं मानते। बालक का जन्म होते ही नालच्छेदन करने से पूर्व ही पुरुष का जातकर्म संस्कार कहा है। उस समय वेद के मन्त्रों से मधु और घृत बालक को चटाया जाता है, उस वैदिक संस्कार से वह पवित्र किया जाता है।१ यज्ञोपवीतसंस्कार में सावित्री मन्त्र२ से परमेश्वर की प्रार्थना-उपासना बतलायी जाती है, उस समय माता के तुल्य हितकारिणी गायत्री और गुरु उस शिष्य ब्रह्मचारी का पिता होता है और उत्पादक माता-पिता का साथ उस समय छुड़ा दिया जाता है। जब तक यज्ञोपवीतसंस्कार होकर वेदोक्तकर्म करने और वेद के पढ़ने में प्रवेश न हो तब तक ब्राह्मणादि के बालक भी शूद्र के तुल्य जानने चाहियें। इस प्रकार जगत् में दो प्रकार की बुद्धि है, कोई जन्म से ब्राह्मणादि जाति मानते और कोई गुण-कर्मों के विद्यमान होने से मानते हैं। इस पर स्वायम्भुव मनु ने (जिनकी मनुस्मृति है) कहा है कि यदि अपने-अपने गुण-कर्मों का बर्त्ताव नहीं तो वे ब्राह्मणादि नहीं मानने चाहियें। वे अपने कर्त्तव्य से च्युत होकर शूद्र तुल्य हो गये, उनके लिये कुछ कर्त्तव्य नहीं। इस ब्राह्मणादि वर्णों के पतित वा नीच हो जाने में व्यभिचार वा धर्म के त्याग से सटर हो जाना ही बड़ा कारण माना गया है। जिस व्यक्ति में शुद्ध आचरण ठीक धर्मानुकूल हो उसको मैंने प्रथम ब्राह्मण कहा वा माना है सो यही सिद्धान्तपक्ष है।’३ तथा इसी वनपर्व के ३१३ अध्याय में लिखा है कि- ‘हे राजन् युधिष्ठिर ! कुल, गुण, कर्म, वेदादि के पढ़ने अथवा बहुश्रुत होने से (इनमें से किस कारण से) ब्राह्मणत्व होता है ? यह निश्चय कर कहो।’१ इस यक्ष के प्रश्न को सुनकर युधिष्ठिर जी बोले कि- ‘ब्राह्मण होने में कुल, स्वाध्याय और बहुश्रुत होना ये कोई भी कारण नहीं किन्तु ठीक-ठीक सत्यादि का आचरण ही मुख्य कारण है। इसलिये विशेषकर ब्राह्मण को अपना आचरण ठीक रखना चाहिये क्योंकि जिसका आचरण नहीं बिगड़ा वह निर्बल नहीं और आचरण बिगड़ने पर मारा जाता है। पढ़ने-पढ़ाने और शास्त्र का विचार करने वाले जितने मनुष्य हैं वे यदि वेदादि शास्त्रों से निषिद्ध अधर्म का सेवन करें तो सब मूर्ख वा शूद्र हैं और जो क्रियावान् अर्थात् वेदोक्तधर्मसम्बन्धी कर्म करने वाला है वही पण्डित नाम ब्राह्मण है। कोई ब्राह्मणादि कुल में उत्पन्न होकर चारों वेद भी पढ़ा हो परन्तु दुराचारी हो तो शूद्र से भी अधिक नीच है तथा जो अग्निहोत्रादि कर्म करता और इन्द्रियों वा मन को वश में रखने वाला है वह ब्राह्मण है।’२ यहां भी अन्य कुल आदि की अपेक्षा सत्यादि के सेवन की प्रधानता दिखायी है। यहां सर्प वा यक्षादि शब्दों से इतिहास का सम्भव-असम्भव नहीं देखना चाहिये। जैसे हितोपदेशादि पुस्तकों में बनावटी काक वा मूषक आदि के इतिहास उपदेश करने के लिये कल्पित कर लिये जाते हैं वैसे यहां भी इतिहास कल्पित जानने चाहियें। सर्पादि का इतिहास बनाकर ऐसी बातों का उपदेश करना रुचि बढ़ाने के लिये है तथा यह भी दिखाना है कि धर्म वा नीति का बर्त्ताव तिर्यग्योनि में भी किसी प्रकार कुछ होता है तो मनुष्य को अवश्य ही करना चाहिये क्योंकि इस मनुष्य जाति को परमेश्वर ने विचार और धर्म के सेवने से अपने कल्याण कर सकने की सामग्री अन्य पश्वादि की अपेक्षा अधिक दी है।

इस प्रकार यदि कोई क्षत्रिय, वैश्य वा शूद्र के समुदाय में भी उत्पन्न हुआ हो तो वह भी अच्छे आचरणों का ठीक-ठीक सेवन करने से ब्राह्मणादि उच्च वर्ण के अधिकार को प्राप्त हो सकता है तथा ब्राह्मणादि उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ भी नीचकर्मों के सेवन से नीचवर्ण हो जाता है। सो मानवधर्मशास्त्र के दसवें अध्याय में लिखा है कि- ‘शूद्र ब्राह्मण हो जाता तथा ब्राह्मण शूद्र हो जाता है और क्षत्रिय तथा वैश्य भी अपने से निकृष्ट वा उत्तमवर्ण के अधिकार को प्राप्त हो जाते हैं।’१ तथा आपस्तम्ब धर्मसूत्रों में लिखा है कि- ‘धर्म के आचरण से नीच शूद्रादि वर्ण अपने से पूर्व-पूर्व वर्ण को प्राप्त होता और अधर्म के सेवन से पूर्व वर्ण अपने से नीच-नीच वर्ण को प्राप्त होता जाता है।’२ अर्थात् शूद्र अच्छे धर्मसम्बन्धी आचरणों से वैश्य होता, वैश्य क्षत्रिय और क्षत्रिय ब्राह्मण हो जाता है और इसी प्रकार नीचकर्मों से ब्राह्मण क्षत्रिय हो जाता, क्षत्रिय वैश्य बन जाता और वैश्य शूद्र हो जाता तथा शूद्र अतिशूद्र हो जाता है। और मनु के पूर्वोक्त वचन का भी यह अभिप्राय नहीं है कि शूद्र क्षत्रिय और वैश्य नहीं बनता वा ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य नहीं बनता किन्तु यह सब होता है। ब्राह्मण और शूद्र शब्द उक्त श्लोक में ऊंच और नीच के उपलक्षणार्थ हैं कि ब्राह्मणादि नीचता को प्राप्त होते और शूद्रादि भी ऊंच हो जाते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र श्रुतिस्मृतियों में भी बहुत से प्रमाण हैं जिनसे वर्णों का लौट-पौट होना स्पष्ट सिद्ध है। और युक्ति से भी यही सिद्ध होता है कि ब्राह्मणादि वर्ण लौट-पौट हुआ करते हैं, क्योंकि ब्राह्मणादि शब्द अधिकारवाचक हैं और अधिकार सदा बढ़ते-घटते रहते हैं। इसमें ब्राह्मणादि उच्च वंशस्थ मनुष्यों का चाण्डाल आदि के नीचकर्मों के सेवन से शीघ्र चाण्डालादि हो जाना तो प्रसिद्ध है इसको सभी लोग ऐसा ही स्वीकार भी कर लेते हैं। अर्थात् वैसे मनुष्य को उसी चाण्डाल वा ईसाई आदि के समुदाय में छोड़ देते और अपने समुदाय से निकाल देते हैं। जो कोई चाण्डालादि के साथ भोजन वा जलपानादि व्यवहार कर लेता है उसको श्रेष्ठ लोगों की कोटि से शीघ्र ही पतित कर देते हैं यह प्रत्यक्ष है, इसमें कुछ विशेष विवाद नहीं। परन्तु कोई नीच समुदाय में से अच्छे कर्म करके ऊंचा बनना चाहता है तो उसके ब्राह्मणादि ऊंचे बनने में बहुत लोग विवाद करते हैं सो यह विवाद निर्मूल है क्योंकि जब ब्राह्मणादि का पतित होना स्वीकार है तो शूद्रादि का ब्राह्मणादि होना न्याय से प्राप्त है। क्योंकि बनना-बिगड़ना दोनों साथ में लगे रहते हैं। जैसे घट-पटादि पदार्थ पहले-पहले बिगड़ते जाते हैं और नये-नये बनते जाते हैं। तथा जो बिगड़ते हैं वे भी पुनः संस्कार होकर साध्य हुए तो शुद्ध हो जाते हैं। परन्तु यह नहीं हो सकता कि पहले बिगड़ जावें और नये न बनें। इसी प्रकार जैसे ब्राह्मणादि का बिगड़ना सिद्ध है वैसे शूद्रादि का ब्राह्मणादि बनना भी मानना चाहिये। जगत् में जितने पदार्थ जड़ और चेतन हैं उन सभी में किसी का ऊपरी दशा से नीची दशा में आना और किसी का नीची दशा से ऊपरी दशा में जाना ये दोनों बातें प्रत्यक्ष हैं। ऊपर वालों का नीचे गिरना हो और नीचों का ऊपर को जाना न हो यह विरुद्ध है। उसमें इतना विचार अवश्य होना चाहिये कि जैसे मन्दिर आदि का गिर जाना वा गिरा देना शीघ्र हो सकता है पर उसी घर के बनाने में परिश्रम और काल दोनों अधिक लगते हैं। इसी प्रकार ब्राह्मणादि ऊंच लोग नीचकर्मों के सेवन से शीघ्र ही पतित हो जाते हैं और घर आदि के बनाने के तुल्य शूद्रादि के ब्राह्मणादि होने में बहुत अतिकाल बीतता है। यही सिद्धान्त श्रेष्ठ जान पड़ता है। विश्वामित्र क्षत्रियादि लोग भी बहुत काल तक तप करके ब्राह्मणादि अधिकार को प्राप्त हुए यहां दृष्टान्तरूप समझने चाहियें। और उत्तम वर्णों का कर्मों से नीच बन जाना तो लोक में भी प्रसिद्ध ही है।

कोई लोग जातिमात्र से वर्णव्यवस्था मानते हैं कि जो-जो ब्राह्मणादि के कुल में उत्पन्न हुए वे-वे ब्राह्मणादि हैं। ऐसा मानने वालों के मत में मिट्टी की गौ आदि भी गौ होनी चाहिये क्योंकि वे खिलौना भी गौ आदि की आकृति को लेकर ही बनाये जाते हैं। और धर्मशास्त्र के ‘जैसे काठ का हाथी वैसा गुणकर्महीन ब्राह्मण’१ इत्यादि वचन तथा- ‘वह मनुष्य स्थाणुनाम ठूंठ के समान निष्फल है कि जो वेद को पाठमात्र पढ़के उसके अर्थ को नहीं जानता’२ इत्यादि वेदवाक्य विरुद्ध होंगे क्योंकि इत्यादि वाक्यों से गुणकर्मों के होने पर ही ब्राह्मणादि का होना सिद्ध किया गया है। और केवल जातिमात्र से ब्राह्मणादि के होने को निष्फल ठहराया है। प्रयोजन यह कि गुण-कर्मों के होने से ही सब वस्तुओं की परीक्षा हो सकती है कि यह वस्तु ऐसा है। मिट्टी की गौ आदि में गुणकर्मों के न होने से गोत्व नहीं है इस बात को दिखाने के लिये ही ‘जैसे काठ का हाथी वैसा ही बिन पढ़ा ब्राह्मण’१ इत्यादि वचन धर्मशास्त्रकारों ने कहे हैं। इस कारण केवल जाति से ब्राह्मणादिपन सिद्ध कदापि नहीं हो सकता।

कोई लोग जाति को सर्वथा छोड़कर केवल गुणकर्मों से ही ब्राह्मणादि वर्णों का विभाग मानते हैं और कहते भी हैं कि यदि जाति से ब्राह्मणादिपन हो तो श्वेतादि वर्ण और शरीरस्थ रुधिरादि धातुओं में भेद दीख पड़ना चाहिये। शूद्र और ब्राह्मण का रंग वा रुधिरादि भिन्न-भिन्न हों, सो भेद तो उपलब्ध होता नहीं, इस कारण जाति से ब्राह्मणादि वर्णों का विभाग नहीं मानना चाहिये। ऐसा मानने वालों के मत में प्रथम तो ब्राह्मणादिपन जताने वाले गुणों की अनित्यता वा निर्मूलता प्राप्त होगी। जब गुण-कर्म प्रकृति के साथ लगे हैं तो जातिनिर्मूल न हुई किन्तु जन्म से ही जो गुणकर्ममूलरूप से सन्तान में रहते हैं उन्हीं के अनुकूल समय आदि उपयोगी कारण मिलने से वे प्रकट हो जाते हैं। तथा उनके मत में द्वितीय दोष यह भी आवेगा कि वीर्य के प्रधान वा अप्रधान होने से जिनकी श्रेष्ठता वा निकृष्टता दिखायी है ऐसे धर्मशास्त्रों के वाक्य विरुद्ध हो जायेंगे। जैसे लिखा है कि- ‘श्रेष्ठ आर्यपुरुष से अनार्या स्त्री में उत्पन्न हुआ अच्छे गुणों से आर्य अर्थात् श्रेष्ठ हो सकता है और अनार्य पुरुष से आर्या स्त्री में उत्पन्न हुआ अनार्य होना निश्चित है।’१ इत्यादि वाक्य व्यर्थ हो जायेंगे। तथा- ‘धान, मूंग, तिल, उड़द, यव, लशुन और ईख आदि वस्तु अपने-अपने बीज के तुल्य उत्पन्न होते हैं। अन्य कुछ बोया जाय और अन्य उत्पन्न हो यह नहीं हो सकता (गेहूं बोने से जौ नहीं उत्पन्न होता) किन्तु जो-जो बीज बोया जाता है वह-वह ही उत्पन्न होता है।’२ इत्यादि वाक्यों का भी यही आशय है कि जो ब्राह्मणादिपन को सूचित करने वाले गुण हैं वे गर्भाधान दशा में वीर्य से ही गर्भ में आते हैं। यदि कोई कहे कि उक्त वाक्यों का यह अभिप्राय हो कि मनुष्य के वीर्य से पशु नहीं हो सकते तो ठीक नहीं क्योंकि प्राप्ति में निषेध होते हैं। जब मनुष्य के वीर्य से पशु होना प्राप्त ही नहीं तो निषेध कैसे बन सकता है। इस उक्त मनुस्मृति के प्रकरण में- ‘बीज और खेत दोनों से बीज उत्तम है’३ ऐसा दिखाया है। सो बीज की प्रधानता का पक्ष लोक में भी स्पष्ट ही दीखता है। जैसे बैल से गौ का संयोग होता है वैसा ही बछड़ा उत्पन्न होता अर्थात् छोटे बैल के साथ संयोग होने से बड़ोहर बछड़ा कदापि नहीं हो सकता। इसी कारण बड़ी गौओं के साथ छोटे बैलों को प्रायः संयोग नहीं होने देते। तथा कोई घोड़े अपनी जाति में बड़े प्रबल प्रशंसनीय राशी कहाते विशेष गुणयुक्त होते और वे अश्वजाति में एक अवान्तर भेदभिन्न होते हैं वैसे घोड़े के साथ घोड़ी का संयोग होने से वैसे ही बछेड़ा उत्पन्न होते हैं परन्तु सामान्य मध्यम घोड़े के साथ संयोग होने से वैसे बछेड़ा नहीं होते। कदाचित् कहीं कभी बड़े घोड़े के साथ संयोग होने से भी मध्यम बछेड़ा होते हैं तब मध्यम घोड़ा ऋतुसमय घोड़ी ने देखा हो अर्थात् उस मध्यम घोड़े की छाया पड़ गयी ऐसा कहते वा मानते हैं। पर ऐसी विशेष अपवाद दशा में सामान्य नियम का विनाश नहीं होता। जैसे पुरुष से संयोग हो वैसा बच्चा हो यह बीज के प्रधान होने से सामान्य नियम है और छाया आदि पड़ने से कहीं अन्यथा होना अपवाद दशा है। यह पूर्वोक्त बीजप्रधान पक्ष जाति को दृढ़ करता है। जन्म से जो गुण विद्यमान हैं वे ही जाति को सिद्ध करते हैं। कहीं क्षेत्र की भी प्रधानता हो तो भी जाति सिद्ध होगी। वर्णसटरों का होना भी किसी प्रकार जाति को सिद्ध करता है क्योंकि अन्य-अन्य वर्ण के माता-पिता होने से सन्तान वर्णसटर होता है और माता-पिता के शरीरों से जो उत्तमता वा निकृष्टता आती है उसी का नाम जाति है कि जन्म से ही वे उत्तम वा निकृष्ट माने गये हैं। इससे सिद्ध हुआ कि सर्वथा जाति को छोड़कर केवल गुण-कर्मों से ब्राह्मणादि वर्णों का विभाग नहीं मान सकते और जहां कहीं केवल गुण-कर्मों से वर्णविपर्यास लोक में हुआ वा दीख पड़ता वा शास्त्रकारों ने माना है वहां भी पूर्व गर्भाधान दशा से ही उस वर्ण के गुण-कर्मों का मूल मानना पड़ेगा कि जो आगे जाकर वर्ण बनना है। जैसे विश्वामित्र जी क्षत्रिय से ब्राह्मण हो गये यहां ऐसा समझना चाहिये कि गर्भाधान दशा में उनके माता-पिता की बुद्धि आचरण वा चेष्टा ब्राह्मणत्व की ओर अर्थात् सत्त्वगुणप्रधान होगी उसी प्रकार का गुण सन्तान में हुआ उसी गुण ने अवस्था पाकर बल पकड़ा और तप आदि का विशेष सेवन कराकर प्रसिद्ध में ब्राह्मण बना दिया। लोक में ब्राह्मणादि वर्णों का मान लेना यह एक पृथक् बात है और वास्तव में गुण, कर्म और जाति की परीक्षा से ब्राह्मणादि ठहरना यह दूसरी बात है। जैसे इस समय लोकव्यवस्था के अनुसार जो ब्राह्मणवर्ण कहाता है उसमें सहस्रों क्षत्रियप्रकृति हो गये उनमें अधिकांश क्षत्रिय के लक्षण घटते हैं और वे ग्रामाधिपत्य (जमींदारी) आदि कार करने वाले ब्राह्मण कहाने से घृणा भी करते हैं किन्तु अपने को ठाकुर वा चौधरी कहाना पसंद करते हैं। तथा अनेक ब्राह्मण अनेक पीढ़ियों से वैसे ही काम करते-करते वैश्य प्रकृति वाले हो गये और अनेक निस्सन्देह शूद्र बन गये परन्तु लोक में वे सब ब्राह्मण कहाते हैं। यही दशा क्षत्रियादि के समुदायों की भी है अर्थात् उनमें भी एक-एक में चारों वर्ण मिले हैं परन्तु गुण, कर्म और जाति ये दोनों साथ लगे हैं। इसी के अनुसार हम कह सकते हैं कि विश्वामित्र जी जाति से भी ब्राह्मण थे और जो-जो ऐसे हुए वा होंगे वे सब जाति और गुण-कर्म दोनों से ब्राह्मणादि मानने चाहियें। विश्वामित्र के मन में जो ब्राह्मणत्व की वासना थी वही ब्राह्मण जाति का चिह्न है उसी की प्रेरणा से तप किया। तप करने के दो प्रयोजन हैं एक तो क्षत्रियकुल की उत्पत्ति और संसर्ग से ब्राह्मणत्व के बाधक जो गुण थे उनको निर्बल करना और लोगों को विश्वास कराना कि हम तप करके ब्राह्मण हुए। अर्थात् बिना तप किये लोक नहीं मान सकते कि ये ब्राह्मण हो गये क्योंकि यह प्रत्यक्ष है और भीतरी वासना की दृढ़ता इसी से प्रकट होती है। और यही दो प्रकार का प्रयोजन सर्वत्र वर्णविपर्यास में होना चाहिये। ऐसे ही लोक में दृष्टि देकर देखा जाय तो सब वर्णों में सब मिले हैं परन्तु बिना तप किये वे उन-उन उच्च वर्णों में शामिल नहीं हो सकते कि जिन वर्णों की उनमें पूर्ण योग्यता विद्यमान है। इस सब कथन से सिद्ध हुआ कि जाति और गुण-कर्म दोनों साथ हैं अर्थात् जो वर्ण बदलते हैं उनमें जन्म से ही गुण-कर्मों का सूक्ष्म संस्कार रहता है, वही प्रकट हो जाता है।

और ब्राह्मणादि वर्णों में रुधिरादि धातुओं का भेद भी होता है जिसके स्वभाव, खान, पान और आचरण में भेद है, उसके शरीरस्थ रुधिरादि धातुओं में अवश्य भेद होगा क्योंकि खान-पान और आचरण के अनुसार ही धातु बनते हैं। सात्त्विक आहार से धातुओं में शुद्धि और सत्त्वगुण बढ़ता और रजोगुणी, तमोगुणी आहार से धातु भी रजोगुण तमोगुणयुक्त बनते हैं, इससे भेद होना सिद्ध ही है। तथा देश और वस्तु के भेद से भेद होगा, इसको सभी जान सकते हैं। शरीरों का भिन्न-भिन्न होना वस्तुभेद और भिन्न-भिन्न अवकाश में होना देशभेद है। इसमें सबका रुधिरादि एक नहीं। यद्यपि जलत्व जाति में जल एक वस्तु है, उसमें जातिभेद नहीं है। तथापि देशभेद और व्यक्तिभेद प्रसिद्ध है अर्थात् इसी देशभेद और व्यक्तिभेद के कारण सब प्रकार के जलों में गुणभेद प्रसिद्ध दीख पड़ता है। कुआ, तालाब, सरोवर, झील, नदी, नहर आदि के जलों में भिन्न-भिन्न गुण हैं। कुओं के और नदियों आदि के जल में भी एक की अपेक्षा दूसरों-दूसरों में भिन्न-भिन्न गुण का स्वाद है। इसी प्रकार ब्राह्मणादि वर्णों तथा एक-एक शरीर में रुधिरादि धातुओं के गुण भिन्न-भिन्न हैं। वर्णभेद भी ब्राह्मणादि में हो सकता है। ब्राह्मण वर्ण के गुण-कर्म जिन-जिन में मिलेंगे वे अधिकांश में गौराग् होंगे। सामान्य प्रकार से संख्या करके देखा जावे तो अन्य की अपेक्षा ब्राह्मणसमुदाय में गौराग् अधिक निकलेंगे। किन्हीं-किन्हीं द्वीपों वा प्रदेशों में असुर वा दस्यु जाति के लोग वा क्षत्रियादि देश के जलवायु के कारण सभी गौराग् होते हैं तो वे सब ब्राह्मण होंगे ? अर्थात् नहीं। वास्तव में यह अतिव्याप्ति दोष इसलिये नहीं है कि हम गौराग् होनेमात्र को ब्राह्मणत्व का प्रयोजक हेतु नहीं मानते कि गौराग् होने से ब्राह्मण होता है किन्तु- ‘अन्य पूर्वोक्त मुख्य गुणों से ब्राह्मणपन के सिद्ध होने पर गौराग् होना भी किसी प्रकार ब्राह्मणपन की प्रशंसा बढ़ाने वाला है।’१ यह दोष तब आ सकता है जब हम गौराग् होनेमात्र से ब्राह्मण मानते कि जो-जो गौराग् हो वह-वह ब्राह्मण है। सो ऐसा तो हम मानते नहीं इसलिये कोई दोष नहीं। अन्य भी कोई दोष इस पक्ष में आवे तो इसी प्रकार समाधान कर लेना चाहिये। शारीरिक अवयवों की शुद्धि की न्यूनाधिकता होना ही वर्णभेद का कारण है। सो इस ब्राह्मणादि के शरीरों में रुधिरादि धातुओं के भेद को सूक्ष्मदर्शी बड़े-बड़े विद्वान् लोग ही जान सकते हैं। सात्त्विक आहार के सेवन से वैसे ही गुण वाले रसादि धातु उत्पन्न होते हैं। और धातुभेद को लेकर ही बीज के प्रधान होने का व्याख्यान हो सकता है। इस कारण ब्राह्मणादि वर्णों की जाति और गुण-कर्म से व्यवस्था माननी चाहिये। ‘शूद्र ब्राह्मण हो जाता वा ब्राह्मण शूद्र हो जाता है’२ इत्यादि कथन तो शूद्रसमुदाय में उत्पन्न हुए लोक में शूद्र करके प्रसिद्ध पुरुष का ब्राह्मणत्व दिखाने के लिये है। वास्तव में तो वह शूद्र समुदाय में उत्पन्न हुआ पूर्व गर्भाधान समय से ही किसी प्रकार ब्राह्मण के संस्कार वा गुणों से युक्त था। अर्थात् उसकी माता का ब्राह्मण के साथ विवाह होने अथवा गर्भाधान के समय उसके पिता के शरीर में सत्सगदि से प्राप्त हुए ब्राह्मणसम्बन्धी गुणों में उत्तेजना होने आदि से वह ब्राह्मण गुणधारी था। ऐसा ही मानने से वेदादिशास्त्रों के अनुकूल वर्णव्यवस्था हो सकती है। जो जिस समुदाय में उत्पन्न हुआ उसका वैसा ही ब्राह्मणादि पद से व्यवहार करना लोक की रीति है। वह शास्त्र के अनुकूल ब्राह्मणादिपन नहीं है। शास्त्र का सिद्धान्त जो कुछ है पूर्व संक्षेप से लिख दिया है।

नवम अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब नववें अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार किया जाता है। पहले तेईस और चौबीस दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। बाईसवें श्लोक में सिद्धानुवाद की रीति से लिखा है कि पति के अच्छे-बुरे गुणों की अधिकता से उस पति के साथ विवाही गयी स्त्री में भी वैसे ही अच्छे बुरे-गुणों की अधिकता होनी सम्भव है अर्थात्    धर्मात्मा, सुपात्र, सुशील पुरुष के साथ विवाही गयी स्त्री भी पुरुष के तुल्य शुभ गुणों वाली हो जाती है और अधर्मी आदि दुष्ट गुण वाले के साथ विवाही स्त्री भी पापिनी हो जाती है। इस सिद्धानुवाद का प्रयोजन यह है कि धर्मात्मा, विद्वान् और सुशील पुरुष को कन्या देनी चाहिये। सो ‘उत्तम, मध्यम वा निकृष्ट गुण प्रायः सग्ति के अनुसार मनुष्य में आते हैं।’१ इसी सग्ति से होने वाले फल का व्याख्यानरूप यह कथन है [इसमें कोई शटा करे कि सग्ति दोनों की दोनों से होती है जैसे पुरुष के साथ स्त्री का सग् होता वैसे स्त्री के साथ पुरुष का भी सग् रहता है, जब स्त्री पुरुष के समान गुण वाली हो जाती है तो पुरुष स्त्री के तुल्य गुणों वाला क्यों नहीं होता ? इसका उत्तर यह है कि मुख्य का वा स्वाधीन का गुण गौण वा पराधीन में लग जाता है और प्रायः पुरुष ही मुख्य रहता है। यदि कहीं स्त्री की स्वाधीनता और प्रधानता हो तो वहां स्त्री के गुण पुरुष में अवश्य जावेंगे] इसी सग्ति का फल दिखाने के लिये दो उदाहरण उक्त दोनों पद्यों में कहे हैं। सो वहां उदाहरण की अधिक अपेक्षा ही नहीं दीखती और किसी प्रकार कुछ अपेक्षा हो भी तो वैसी आधुनिक स्त्रियों का उससे बहुत प्राचीन मानव धर्मशास्त्र में वर्णन कैसे घटे अर्थात् किसी प्रकार नहीं, क्योंकि पिता के जन्म-समय में आगे होने वाले पुत्र के कर्मों का वर्णन कोई नहीं कर सकता। जब वसिष्ठ ने अक्षमालानामक मेहतरानी के साथ और मन्दपालनामक ऋषि ने शारग्ी नाम चिड़िया के साथ विवाह किया उससे पहले ही भृगु ने इस धर्मशास्त्र का निर्माण वा प्रचार किया था। क्योंकि अक्षमाला को कोई भाष्यकारों ने भंगिन कहा है। ऐसी नीच स्त्रियों के साथ ब्राह्मणादि का विवाह होकर यदि वे स्त्रियां ब्राह्मणादि उत्तम वर्णस्थ हो जावें तो जो शूद्रा वा अन्त्यज के साथ विवाह करने से धर्मशास्त्रकारों ने बहुत बुरा फल दिखाया है कि२- ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य लोग यदि कामी वा अज्ञानी होकर नीच वा अतिनीच जाति की स्त्रियों के साथ विवाह करते हैं, तो उनके बाल-बच्चों सहित सब कुल शूद्र वा नीच हो जाता है। तथा अत्रि और औतथ्य ऋषि का मत (राय) है कि शूद्रा के साथ विवाह करने से वेदी पर ही पतित हो जाते, शौनक का मत है कि शूद्रा में सन्तान होने पर पतित होते और भृगु के मत से सन्तान के सन्तान हो जाने पर पतित हो जाते हैं।’१ इत्यादि कथन में विरोध आवेगा। अर्थात् यदि चर्मकारी आदि नीच स्त्रियां ब्राह्मणादि के साथ विवाही जाने से उत्तम हो सकती हैं, ऐसा धर्मशास्त्र का सिद्धान्त होता तो शूद्रा के साथ विवाह करने में पूर्वोक्त प्रकार दोष नहीं दिखाते। यदि कोई कहे कि ‘समर्थ को दोष नहीं लगता’ इसलिये वैसे तपस्वी के लिये शूद्रा के साथ विवाह का निषेध नहीं, किन्तु सर्वसाधारण को है तो इसका उत्तर यह है कि असमर्थ वा   साधारण के लिये भी शूद्रा के साथ विवाह का निषेध नहीं हो सकता। क्योंकि असमर्थ तो स्वयमेव निकृष्ट ही हैं उनकी शूद्रा के साथ विवाह से भी विशेष हानि नहीं। किन्तु बड़े वा प्रतिष्ठितों की ही विशेष हानि है। इससे यह सिद्ध हुआ कि सग्ति से होने वाले गुण-दोष वर्ण वा जाति का भेद वा लौट-पौट नहीं कर सकते किन्तु एक जाति वा वर्ण में जो स्त्री पति की अपेक्षा विद्यादि उत्तम गुणों में न्यून है वह विद्या-शिक्षादि उत्तम गुणों वाली शान्तिशील हो सकती है। और वेदादि     धर्मशास्त्र जानने वाला तपस्वी वसिष्ठ के तुल्य विद्वान् पुरुष चाण्डाली के साथ विवाह करे यह कोई बुद्धिमान् विश्वास नहीं करेगा। और मन्दपाल ऋषि ने किसी शारग्ी नामक चिड़िया के साथ विवाह किया यह भी ठीक नहीं। विवाह करने का जो फल वा प्रयोजन है वह चिड़िया से कैसे सिद्ध हुआ वा कोई कैसे सिद्ध कर सकता है ? यह बात उसी श्लोक को बनाकर मिलाने वाले से विचारशील को पूछना चाहिये। यहां अधिक लिखना व्यर्थ है। उक्त प्रकार के अनेक दोष होने से पूर्वोक्त दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं।

आगे पेंसठ से अड़सठ (६५-६८) तक चार श्लोक प्रक्षिप्त हैं। यदि कोई बीच के चारों पद्यों को छोड़कर ६४ से आगे ६९वें पद्य को पढ़े वा सग्ति मिलाना चाहे तो ठीक मेल मिल जाता है, किसी प्रकार का प्रकरण-विरोध नहीं है। और उन श्लोकों के बीच में रखने न रखने से एक ही सी सग्ति मिल जाती है। इस कारण वे श्लोक प्रक्षिप्त जानने चाहियें। यदि प्रारम्भ से रचकर रखे श्लोक बीच से निकाल दिये जावें तो जैसे माला के बीच से एक दो मूंगा निकाल देने से उन की सग्ति (सिलसिलारूप एक दूसरे के साथ मिलावट) बिगड़ जाती है उनमें बीच पड़ जाता है, वैसे यहां भी सग्ति बिगड़ जानी चाहिये थी, पर ऐसा नहीं होता। इसलिये वे चारों श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन नियोग का खण्डन करने वाले चार श्लोकों पर सर्वज्ञनारायण भाष्यकार ने लिखा है कि- ‘इस उक्त प्रकार से अन्य ऋषियों के मतानुसार नियोग का विधान करके मनु जी अपने मतानुसार खण्डन करते हैं’१ सो यह बात भी ठीक नहीं है। क्योंकि जब पहले प्रतिज्ञा कर चुके हैं कि- ‘अब आगे स्त्रियों को आपत्काल में वर्त्तने योग्य धर्म कहेंगे।’२ इससे स्पष्ट मनु जी का सिद्धान्त आपत्काल में निर्वाह करने के लिये आता है और वह सिद्धान्त वेद के भी सर्वथा अनुकूल है। वेद में नियोग करने के लिये स्पष्ट ही आज्ञा दी गयी है।३ जैसे- ‘हे नारि= स्त्रि ! तू गतासुम्, एतम्, उपशेषे= इस मरे हुए पति के समीप शोक में मग्न पड़ी है, उसको छोड़कर अभिजीवलोकम्= जीते हुए प्राणियों के समूह को देखकर उदीर्ष्व= उठ अर्थात् जीते हुए बाल-बच्चों आदि की रक्षा का उपाय कर। और उठके अर्थात् सचेत होके एहि= दूसरी ओर को आ तव, हस्तग्राभस्य, दिधिषोः, पत्युः= तेरे हाथ को ग्रहण करने वाले द्वितीय पति के इदम्, जनित्वम्, अभिसम्बभूथ= इस स्त्रीपनरूप सम्बन्ध को सब ओर से प्राप्त हो।’ ऋग्वेद के इस दूसरे पति की आज्ञा देने वाले मन्त्र में अर्थ का भी विवाद नहीं है। इस मन्त्र का यही अर्थ सायणादि भाष्यकारों ने भी माना वा लिखा है। और मेधातिथि नामक मनु के भाष्यकार ने भी लिखा है कि-“को वां शयुत्रा विधवेव देवरं मर्यं न योषा कृणुते सधस्थ आ।” इत्यादि नियोग    विधायक मन्त्र भी वेदों में दीखते हैं। और उद्वाहिक शब्द से वेदी पर पढ़े जाने वाले ‘गृभ्णामि ते०’ इत्यादि मन्त्र लिये जाते हैं, यह मेधातिथि का अभिप्राय है। सो यह विचार ठीक ग्रहण करने योग्य नहीं। क्योंकि जब वेद में नियोग का कर्त्तव्य होना लिखा है फिर नियोग की निन्दा करने वाले वेदविरोधी स्पष्ट ही सिद्ध हो गये। इस पर अधिक विचार की कुछ आवश्यकता नहीं। ‘नोद्वाहिकेषु०’ इत्यादि चार श्लोकों को सत्य ठहराने के लिये जो मेधातिथि आदि की कल्पना हैं वे सर्वथा निर्बल हैं। विवाहसम्बन्धी मन्त्रों में नियोग नहीं कहा इससे बुरा है, यह कथन ऐसा होगा कि जैसे कोई कह दे कि अग्निहोत्रविधायक मन्त्रों में नहीं कहा इसलिये वैश्वदेव करना बुरा है। अरे भाई ! विवाह द्वितीय प्रकरण है, उसमें आपत्काल का नियोग क्यों कहा जाता ? भिन्न प्रकरण में प्रमाण न देने से कोई विषय बुरा नहीं हो सकता। कदाचित् वेद में नियोग स्पष्ट रूप से न कहा होता, किन्तु ध्वनिमात्र निकलने पर भी प्रमाण माना जा सकता है और वेद से विरुद्ध होता अर्थात् वेद में नियोग का निषेध किया होता तो अवश्य खण्डनीय कह सकते थे। राजा वेन के समय से नियोग की प्रवृत्ति दिखाने से नियोग का निषेध करने वाले का तात्पर्य यह है कि नियोग करने की आज्ञा वेद में नहीं है। क्योंकि नियोग वेदोक्त हो तो उसका प्राचीन वा सनातन होना वेदोक्त होने से ही आ जावेगा। क्योंकि जब वेद सनातन हैं तो उनमें कहा विषय भी सनातन हुआ। इसीलिये  निषेधक ने पहले नियोग का वेदोक्त होना खण्डित करके वेन के राज्य से उसके चलने का समय दिखाकर नियोग को आधुनिक ठहराया है। इत्यादि कारण      मेधातिथि की उद्वाहिक शब्द के अर्थ पर कल्पना करना ठीक नहीं और पूर्वोक्त प्रकार से तथा मेधातिथि आदि की सम्मति से नियोग वेदोक्त है, ऐसा सिद्ध हो जाने से पूर्वोक्त चारों श्लोक प्रक्षिप्त हैं।

आगे एक सौ अट्ठाईस और एक सौ उन्तीस (१२८,१२९) दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इनमें असग्त पुराणाभासों के बनाने वाले लोगों ने पौराणिक कथाओं की पुष्टि के लिये परकृतिनामक अर्थवाद दो पद्यों से कहा है। और पुराणों में सब जगत् की उत्पत्ति कश्यप की तेरह स्त्रियों से ही दिखायी है। सो जब मनु के सिद्धान्त से ही विरुद्ध है फिर पीछे उत्पन्न हुई पौराणिक कथा का प्राचीन मानव धर्मशास्त्र में अनुकूल मेल कैसे हो सकता है ? इसलिये वे दोनों श्लोक प्रक्षिप्त ही जानो। आगे तीन सौ चौदह से तीन सौ उन्नीस (३१४-३१९) तक छह श्लोक प्रक्षिप्त हैं। तीन सौ तेरहवें श्लोक में जो विधिवाक्य है कि राजा ब्राह्मणों को कोपित न करे अर्थात् अधिक न सतावे, इसका अर्थवाद जो ठीक-ठीक होना चाहिये सो उसी श्लोक के उत्तरार्द्ध में है। और उसी विधिवाक्य का इन छह श्लोकों में भी अर्थवाद दिखाया है, सो ठीक नहीं है। अनुमान होता है कि अपने कुल का हित चाहने वाले संस्कृतज्ञ राजमन्त्री आदि ब्राह्मणों ने पक्षपात से ये श्लोक यहां मिला दिये हैं कि जिससे हमारे कुल के मूर्ख दुष्कर्मी ब्राह्मणों को भी कोई दण्ड न देवे, किन्तु सदा दानादि से सम्मान करते रहें। इन छह श्लोकों में भी असम्भव पुराणों की कथा दिखायी हैं। ब्राह्मणों ने अग्नि को सर्वभक्ष्य बनाया इत्यादि। क्या परमेश्वर के रचे अग्नि में सब वस्तु नहीं जल सकते थे ? तो पहले की शक्ति गिना देनी चाहिये कि अमुक-अमुक पदार्थों को पहले अग्नि जला सकता था, पीछे सब जलाने की शक्ति ब्राह्मणों ने की, इत्यादि सब असम्भव है। सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर ने जो पदार्थ जैसे गुण वाला रचा है उसमें वही गुण सदा रहेगा उसको कोई लौट-पौट नहीं कर सकता। समुद्र का जल खारा होने से पिया नहीं जाता, यह पृथिवी का गुण है। अन्यत्र भी अनेक कुओं में अत्यन्त खारा जल निकलता है, वह पीने योग्य नहीं रहा सो ऐसा किस ब्राह्मण ने किया ? यह उसी पौराणिक से पूछना चाहिये। इसी प्रकार अन्य भी अनेक बातें असम्भव हैं जिस अग्नि में विष्ठा मांसादि निकृष्ट वस्तु जलाया हो उसी अग्नि से यदि कोई रोटी आदि पदार्थ को पकावे तो अग्नि के साथ आये दोष से भक्ष्य भी दूषित हो जाता है। इसी कारण मरघट के अग्नि से पाक न बनाना चाहिये, यह शिष्टों की सम्मति है। यदि अग्नि में दोष न होता तो उस श्मशान के अग्नि से भी भोजन बनाना उचित समझा जाता। यदि मूर्ख पापी सब अच्छे गुणकर्मों से रहित ब्राह्मणकुल में उत्पन्न हुए नाममात्र के ब्राह्मण भी विद्वानों के तुल्य पूज्य हो जावें तो श्राद्धप्रकरण में जो श्रेष्ठों की पंक्ति में न बैठाने योग्य नीच ब्राह्मण गिनाये हैं, जिनको श्राद्ध में भोजन न कराना चाहिये उनका परिगणन भी व्यर्थ हो जावे। तथा- ‘मूषा पकड़ने को जैसे बिल्ली ध्यान लगाती वा जैसे मच्छी पकड़ने को बगुला ध्यान लगाता वैसे जो दूसरों के पदार्थ हर लेने के लिये ध्यान लगा के बैठते हैं, अवसर पाते ही झट ले लेते हैं और तीसरे वेद को न जानने वा पढ़ने वाले इन तीन प्रकार के ब्राह्मणों का जल से भी सत्कार न करे। धर्मपूर्वक परिश्रम से संचित किया भी धन यदि उक्त तीन प्रकार के ब्राह्मणों को दिया जावे तो उस दान से दाता को वर्त्तमान जन्म में और दान लेने वाले को जन्मान्तर में दुःखरूप फल होता है। और जैसे काठ का हाथी और केवल चाम में भूसा भरकर बनाया हरिण, हाथी और हरिण का काम न दे सकने से व्यर्थ वा नाममात्र हैं वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण ये तीनों हाथी, हरिण और ब्राह्मण नाम      धरानेमात्र हैं किन्तु वास्तव में नहीं, इत्यादि।’१ यदि सर्वथा ब्राह्मण पूज्य हों तो पूर्वोक्त वचन सब विरुद्ध पड़ेंगे अर्थात् ये दोनों बातें सत्य नहीं हो सकतीं किन्तु एक ही सत्य हो सकती है। इससे उक्त छह श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इस प्रकार इस नवम अध्याय में १४ चौदह श्लोक प्रक्षिप्त हैं और शेष तीन सौ बाईस (३२२) श्लोक शुद्ध प्रतीत होते हैं।

सपिण्डता और स्त्रीदाय का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब सापिण्ड्य शब्द पर कुछ विचार किया जाता है। समान और पिण्ड शब्द को मिलाकर सपिण्ड शब्द बनता है। उससे भाव-कर्म अर्थ में ष्यञ् प्रत्यय१ होकर सापिण्ड्य शब्द सिद्ध होता है। वीर्य-रुधिरादि की परम्परा से जिनका पिण्डनाम देह एकता को प्राप्त है, वे मनुष्य परस्पर सपिण्ड कहाते हैं। अथवा इस शब्द का द्वितीय अर्थ यह भी हो सकता है कि योनिसम्बन्ध की समीपता से पिण्डनाम ग्रासोपलक्षित भोजन व्यापार जिनका एक है जिनको सब प्रकार का भोजन परस्पर मिलकर करने में किसी प्रकार की घृणा नहीं उनको भी सपिण्ड कह सकते हैं। जिन पुत्रादि वा जिन पितादि को जिन अपने सम्बन्धी आदि का भोजन न्यायपूर्वक करना चाहिये, वे उनके सपिण्डी कहे वा माने जाते हैं। इस सिद्धान्त पर जो अतिव्याप्ति दोष आ सकता है उसकी निवृत्ति आगे की गई है। याज्ञवल्क्यस्मृति पर जो मिताक्षरा टीका है उसमें सपिण्डता के विचार प्रसग् पर इस प्रकार लिखा है कि२- ‘सपिण्डता भी एक शरीर का अंश परम्परा से अनेकों में जाने से होती है जैसे पिता के शरीर का अंश पुत्र में आने से पिता के साथ पुत्र की सपिण्डता है। इसी प्रकार पिता में पितामह के शरीर का अंश होने से पिता के द्वारा पौत्र की पितामह (दादा) के साथ सपिण्डता है। इसी प्रकार माता के शरीर का अंश पुत्र में आने से माता के साथ पुत्र की सपिण्डता तथा माता के द्वारा नाना आदि के साथ भी सपिण्डता है। और मौसी वा मामा आदि के साथ भी माता के द्वारा सपिण्डता है, क्योंकि जिनके शरीर से माता का शरीर बना उन्हीं से मामा वा मौसी का भी बना है, इस कारण वे भी सपिण्ड हैं तथा चाचा और बुआ आदि के साथ भी पिता, पितामह के द्वारा सपिण्डता मिलती है। और स्त्री-पुरुष दोनों से एक पुत्रादि का शरीर बनता है इसलिये पुत्रादि द्वारा स्त्री पुत्र की सपिण्डता है। और देवरानी-जिठानी आदि आपस में एक श्वशुर के शरीर से बने पतियों के साथ मिलके एक-एक पुत्रादि के शरीर का कारण होने से सपिण्डता है। इसी प्रकार जहां-जहां सपिण्ड शब्द की प्रवृत्ति है वहां-वहां साक्षात् वा परम्परा से शरीरांश मिलने का विचार जानना चाहिये। यदि ऐसा होने पर जो मनु आदि धर्मशास्त्रों में सपिण्ड वालों को दश दिन की मृतक अशुद्धि मानना लिखा है सो नाना आदि को भी सामान्य कर प्राप्त होगी ? इसका समाधान यह है कि ‘जो कन्या पतिकुल में चली गईं उनके पुत्रादि सम्बन्धी आशौच उसी कुल वालों को होगा।’ इत्यादि विशेष विचार न हो तो नानादि को भी आशौच लग सकता है। यह सपिण्ड- सम्बन्धी विचार शरीरांश के मेल से अवश्य मानना चाहिये क्योंकि ‘पिता का स्वरूप ही पुत्र उत्पन्न होता है।’ यह वेद का सिद्धान्त है।’ न्यायसूत्र पर वात्स्यायन भाष्य में लिखा है कि- ‘अन्य का विचार अपने अनुकूल हो तो वह अपना सिद्धान्त जानो’ यह शास्त्रकारों की युक्ति वा शैली है।’ इसी के अनुसार हमने भी मिताक्षरा का वर्णन यहां अपने सिद्धान्तपक्ष में रखा है। दूसरा पक्ष जो भोजन की एकता से सपिण्डता मानी है इसको मिताक्षराकार ने नहीं माना। इस दोनों प्रकार की सपिण्डता का ब्राह्मणादि वर्णमात्र में वा मनुष्यमात्र में लक्षण चला जाने से अतिव्याप्ति दोष आ जावेगा, क्योंकि शरीर के अंश की एकता मिलाने लगें तो उसकी उससे, उसकी उससे मिलते-मिलते सबकी एकता सबके साथ परम्परा से मिल सकती है [सम्बन्धी का सम्बन्ध- नाते का नाता खोजते-खोजते अवधि मिलना दुस्तर है यह अनवस्थापत्ति दोष कहाता है] इसी प्रकार भोजन की परम्परा भी एक से दूसरे की और दूसरे से तीसरे की मिलते-मिलते सबके साथ सबकी सपिण्डता प्राप्त होगी। इस अनवस्था दोष को हटाने के लिये मनु जी ने पञ्चमाध्याय में इस शब्द को योगरूढ़ लाक्षणिक अर्थ से ठहराया है कि-  ‘सप्तम पीढ़ी में सपिण्डता समाप्त हो जाती है।’ अर्थात् जिन-जिन की जिन-जिन के साथ सपिण्डता मानी गयी है उन-उन की सात पीढ़ी के अन्तर्गत ही रहेगी। इस प्रकार जब सपिण्डता का सिद्धान्त ठीक सिद्ध हो गया तो मरे हुए को पिण्ड देने की रीति से सपिण्डता के मानने वा कहने की शटा दूर हो जाती है। यह सपिण्डता के वर्णन का आशय है।

अब संक्षेप से स्त्री के दाय का विचार किया जाता है। कोई-कोई धर्मशास्त्र के ज्ञाता स्त्रियों का दाय नहीं मानते वा चाहते। और ऐसा ही पूर्वज धर्मशास्त्रकार मनु आदि महर्षियों का सिद्धान्त भी कहते वा मानते हैं, सो ठीक नहीं है। क्योंकि मनु ने ही नवमाध्याय के दायभागप्रकरण में स्पष्ट कहा है कि- ‘भाई लोग अपने-अपने अंशों में से कन्याओं के लिये चौथा-चौथा भाग पृथक्-पृथक् देवें और यदि कन्याओं अर्थात् पिता के धन में से भगिनियों को भाग न देवें तो शास्त्र की आज्ञानुसार वे पतित मानने चाहियें।’१ इस सीधे अर्थ को मेधातिथ्यादि भाष्यकारों ने झमेला में डाल दिया है कि विवाह न होने से पूर्व ही कन्या शब्द से ग्रहण करके उन कन्याओं के विवाहसंस्कार के लिये भाइयों को अपने अंश से चतुर्थांश देना चाहिये, ऐसा वर्णन करते हैं। और इसी से यह भी आशय निकल सकता है कि यदि पिता के मरने से पूर्व ही कन्याओं का विवाह हो जावे तो पीछे बांट होने पर नहीं देना चाहिये। पर मनु जी का यह आशय होता तो चौथा भाग देना नहीं लिखते, किन्तु स्पष्ट यह लिख देते कि कन्याओं का विवाह करने से पहले पिता मर जावे तो रियासत वा धन में से कन्याओं के विवाह को यथोचित धन पृथक् निकालकर पीछे भाई लोग बांट करें। क्योंकि वैसा लिखने में अनेक दोष आवेंगे। जहां कुछ रुपया-पैसारूप धन इकट्ठा हो उसमें से तो कन्याओं के लिये विवाहार्थ देना बन सकता है। मान लीजिये कि कदाचित्् पिता के समय की कुछ सम्पत्ति नहीं और वह छोटी-छोटी कन्या छोड़कर मर गया तो क्या भाइयों पर अपने पैदा किये धन से विवाह करने का भार धर्मशास्त्र की आज्ञा के अनुसार नहीं होना चाहिये ? द्वितीय यदि पिता के मरने के बाद हजार गांवरूप सम्पत्ति राज्य हो और उसका एक ही पुत्र अधिष्ठाता हो तो क्या २५० ग्राम की जमींदारी कन्या के विवाहार्थ दी जावे ? जब इन लोगों को कन्याओं के लिये भाग दिलाना ही अभीष्ट नहीं, फिर जमींदारी उनके नाम कैसे इष्ट हो सकती है। और २५० वा ५०० ग्राम का मूल्य विवाह में व्यय भी नहीं हो सकता, यदि कुछ कन्या को दे दिया जावे तो वह विवाह के व्यय में नहीं समझा जावेगा। तात्पर्य यह है कि यदि विवाहमात्र का प्रबन्ध भाई लोग कर दें, यही आशय धर्मशास्त्र का होता तो चौथा भाग कन्याओं को देना नहीं कहते, क्योंकि कहीं तो चौथे भाग से [एक दो रुपया हो तो] विवाह हो नहीं सकता और कहीं चौथा भाग इतना हो सकता है जिससे सहस्रों विवाह हो जावें। इसलिये मेधातिथ्यादि भाष्यकारों की कल्पना ठीक नहीं है। और यह कल्पना केवल मेधातिथि आदि की ही नहीं है किन्तु मूल याज्ञवल्क्यस्मृति और मिताक्षरा टीका में भी ऐसा ही वर्णन किया है। अनुमान होता है कि उन्हीं को देखकर इन नवीन भाष्यकारों ने भी वैसा माना होगा। यदि इस सिद्धान्त को मानें तो स्त्री को अर्द्धाग्णिी मानना विरुद्ध पड़ता है क्योंकि अर्द्धाग्णिी मानने का मुख्य प्रयोजन यही है कि सर्वत्र जड़ वा चेतन में आधा भाग स्त्री का और     आधा पुरुष का है। मनुष्य के शरीर में विचारदृष्टि से देखें तो स्त्री का भाग    अधिक और पुरुष का कम है क्योंकि गर्भाधान के दिन पुरुष का थोड़ा सा अंश पड़ता और पीछे सब गर्भ का शरीर स्त्री के शरीर से बनता वा बढ़ता और नवमास के पश्चात् भी जब तक माता का दूध पीता है तब तक माता से ही बालक बढ़ता है। इसलिये माता का भाग पुत्र के शरीर में अधिक है इसी कारण पिता की अपेक्षा सहस्र गुणी सेवा सन्तान को माता की करनी चाहिये, यह धर्मशास्त्रकारों की आज्ञा है। इसीलिये पुत्र पर माता का अधिक बल वा दाय होना चाहिये। यदि वृद्धावस्था में कन्या, पुत्र माता की ठीक-ठीक सेवा-शुश्रूषा न करें तो राजद्वार से बलात्कार पुत्रों की कमाई में से माता ले सकती है [इसी स्त्री की प्रधानतारूप मूलपक्ष को लेकर कभी शाक्तमत चला हो ऐसा अनुमान होता है] इसके अनुसार स्त्री का अर्द्धभाग से भी अधिक होना चाहिये सो उसको पिता के धन में से कुछ न देना अन्याय क्यों नहीं हुआ ? और मूल श्लोक में वैसा कोई पद नहीं है जिससे अविवाहित कन्याओं के विवाहसंस्कारार्थ चौथे भाग की कल्पना समझी जावे। तथा नववें अध्याय में मनु जी ने कहा है कि- ‘पुत्र के पुत्र और पुत्री के पुत्र में      धर्म से देखा जाय तो कुछ भी न्यूनाधिकता नहीं है, क्योंकि पौत्रनाम पोते का पिता और दौहित्रनाम धेवते की माता ये दोनों उसी पुरुष के शरीर से उत्पन्न हुए हैं।’१ इसका अभिप्राय यह है कि जब कन्या और पुत्र दोनों में किसी प्रकार का भेद नहीं है। तभी उनके सन्तान भी बराबर के अधिकारी हो सकते हैं। इस श्लोक में      धर्मतः पद कहने का अभिप्राय यह है कि पुत्र कन्या बराबर के अधिकारी हैं। इस कथन से अनुमान होता है कि पहले भी कोई लोग कन्या, पुत्र में भेद मानते थे, सो यथोचित भेद मानना तो ठीक ही है। लोक में भी सामान्य कर माता-पिता पुत्र और कन्या को एक सी प्रीति से देखते हैं। और कन्या को जो भाईयों की अपेक्षा चतुर्थांश कम भाग देना लिखा इसका अभिप्राय यह है कि कन्या को पति के     धन पर भी किसी प्रकार का अधिकार होगा और पति के धन का ही प्रायः भोग करेगी यह तो उसको केवल अपना स्वत्व रखने तथा आपत्काल में निर्वाह के लिये दिया जाता है। विवाह कर देने का तो पिता वा पिता के पीछे भाईयों का सर्वथा भार है ही। तथा पूर्वकाल वा शास्त्र के विचारानुसार विवाह कर देने में धन का तो कुछ व्यय होता भी नहीं जिसके लिये चौथा भाग देने की आज्ञा दी जाती। और यदि किसी अंश में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियों की पराधीनता वा न्यूनता है तो स्त्री की अपेक्षा किसी अंश में पुरुष की भी प्रधानता हो सकती है। जैसे ब्राह्मण की अपेक्षा क्षत्रिय की किसी प्रकार अप्रधानता है वैसे किसी अंश में क्षत्रिय की अपेक्षा ब्राह्मण की भी अप्रधानता हो सकती है। ऐसी प्रधानता वा अप्रधानता से स्त्रियों के दाय का निषेध नहीं कर सकते, किन्तु पुरुष की अपेक्षा किसी प्रकार स्त्रियों की अप्रधानता मान के पुत्र की अपेक्षा कम धनांश दिया जाय यह हो सकता है। सो यह न्यूनता कन्याओं में इसलिये मानी गयी है कि वृद्धावस्था में जबकि माता-पिता की सेवा का समय आता है तब कन्या अपने पति के घर में होती और वहीं के कामों को सम्हालती हैं और पुत्र तो अच्छी शिक्षा पाकर निरन्तर पिता के घर को सुशोभित करते हुए दिन-रात वृद्धावस्था में माता-पिता की सेवा में तत्पर रहते वा रह सकते हैं। पुत्रों से पिता का नाम और गोत्र भी बराबर आगे को चलता है तथा कन्या अन्य पति के गोत्र में मिलके सन्तानोत्पत्ति द्वारा अपने पति और श्वशुर का नाम चलाने वाली होती हैं। इस कारण से पुत्रों की प्रधानता और कन्याओं की कुछ न्यूनता वा अप्रधानता मानी जाती है। पर इससे उन कन्याओं का सन्तानपन और दाय का छूट जाना नहीं हो सकता और ऐसा किया जाय तो धर्म से विरुद्ध है। जिस मार्ग से वा जैसी क्रिया और श्रम से पुत्रों की उत्पत्ति की जाती वा पालन-पोषण होता है वैसा ही सब कन्याओें की उत्पत्ति में भी करने पड़ता है फिर पुत्रों का स्वत्व रहे और पिता के धन में कन्याओं का भाग न रहे इसमें क्या कारण है ? यदि माता-पिता के धनादि में कन्याओं का स्वत्व न हो तो मातादि की भी हृदय से उन पर प्रीति न होनी चाहिये सो ऐसा नहीं दीखता। पुत्रों के तुल्य कन्याओं पर भी प्रीति का होना ही उनके दाय का सूचक है और जो मेधातिथि आदि भाष्यकारों ने कन्याशब्द से कुंआरी का ग्रहण किया है सो सर्वसाधारण मनुष्यों की अपेक्षा वे कन्या न समझी जावें यह हो सकता है परन्तु माता-पिता और भाईयों की अपेक्षा तो उनमें सदा कन्यापन ही रहता है और वे लोग कन्या, बेटी, छोरी आदि शब्दों से ही सदा व्यवहार करते वा बुलाते हैं। जैसे श्वेत बाल हो जाने पर भी पिता अपने पुत्रों को बालक, पुत्र वा वत्सादि शब्दों से ही बुलाता है वैसे ही विवाही हुई कन्याओं को भी माता-पिता कन्याशब्द से ही व्यवहार करते हैं। इस कारण कन्याशब्द से उक्त मनुस्मृति के श्लोक में कुंवारियों का ग्रहण नहीं करना चाहिये। किन्तु विवाहित-अविवाहित दोनों का ग्रहण समझना चाहिये। जहां एक कन्या और बहुत भाई हों वहां पिता के मरने पर सब भाई लोग बराबर अपने हिस्से करके अपने-अपने अंश से चौथे-चौथे भाग को उस भगिनी के लिये देवें और जहां एक भाई तथा बहुत बहिनें हों वहां सब मूल धन से चतुर्थांश लेकर सबके लिये बराबर भाग कर देवे। इसी प्रकार अन्यत्र भी लगा लेना चाहिये। इसका विस्तार भाष्य में देखना चाहिये। इससे सिद्ध हो गया कि पिता के धन में कन्याओं का भी दाय (हक) है, इसलिये उनको भी यथोचित भाग देना चाहिये। यह संक्षेप से मनु का सिद्धान्त कहा गया है।

दायभाग का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से दायभागसम्बन्धी विचार किया जाता है। इस विषय में नारदस्मृति का वचन है कि- ‘पिता की वस्तु का पुत्र लोग जो बांट करते हैं, उसको विद्वान् लोगों ने व्यवहार की व्यवस्था का हेतु होने से दायभाग कहा है।’१ दायशब्द एक प्रकार के धनादि वस्तु का नाम है जिस पर न्यायानुकूल किसी अपने सम्बन्धी का स्वत्व (हक) हो। जिस धनादि वस्तु को न्यायपूर्वक जो ले सकता है वह उसी का दाय है और वह पुरुष उस वस्तु के स्वामी का दायाद (वारिस) कहाता है। यहां दायनामक धन केवल रुपये आदि का ही वाचक नहीं है, किन्तु जो कुछ पृथिवी आदि सुखसाधन पितादि का वस्तु है, वह सब दाय ही है इस प्रकार के दाय का विवेचन करके कि (किसको क्या मिलना चाहिये) विभाग करना दायभाग कहाता है। वह दाय दो प्रकार का माना जाता है- चाचा वा नाना आदि के जब कोई निज पुत्र न हो और उनका स्वयं भी शरीर छूटने पर आवे तो उनका धनादि दाय विवाद सहित होता है और पिता वा पितामह का उनके न रहने पर पुत्र वा पौत्रादि को लेने योग्य दाय निर्विवाद माना जाता है। कहीं सविवाद जिसमें किसी प्रकार का झगड़ा है, वह झगड़े से रहित हो जाता और जिसमें झगड़ा नहीं उसमें भी कहीं झगड़ा खड़ा हो जाता है, इसीलिये महर्षि लोगों ने दायभाग के विवेचनार्थ धर्मशास्त्र बनाये और उससे भी बचे हुए का सामयिक न्यायालयों में राजाओं के द्वारा निर्णय होता रहता है।

इस विषय में पूर्वपक्ष यह है कि जो लोग मरे हुए पितरों को पिण्ड देना स्वीकार नहीं करते उनके मत में वह नियोग से उत्पन्न हुआ पुत्र अपने उत्पादक दोनों माता-पिता को पिण्ड देने वाला और दोनों के धनादि का ग्राहक होता है। यहां दोनों का पृथक् से कहने का अभिप्राय यह है कि उन नियुक्त माता-पिता के दो घर होते हैं, जिस विधवा स्त्री का नियोग होता है वह अपने पूर्व पति के घर वा नाम को नहीं छोड़ती इसलिये नियोग से उत्पन्न हुआ सन्तान दोनों घर का धन ले सकता है। यदि नियोगकर्त्ता पुरुष का कोई और पुत्र हो तो नियोगज पुत्र को दाय नहीं मिलेगा। तथा- ‘बारह पुत्रों में से पूर्व-पूर्व के न रहने वा न होने पर पर पुत्र पिण्ड देने वाला होगा।’२ इत्यादि दायभागसम्बन्ध में मरे हुए पितादि को पिण्डदान करने का प्रतिपादन करने वाले याज्ञवल्क्यस्मृति के वाक्य तथा ‘नाना के कोई पुत्र न हो तो उसका और अपने पिता का दोनों का पिण्डदान करे और वही एक सन्तान दोनों अर्थात् अपने पिता का और ननशाल का धन लेवे।’१ इत्यादि मनुस्मृति के वाक्य विरुद्ध पड़ेंगे क्योंकि जिसको पिण्ड देने का अधिकार है वही उसका दायभागी होगा। अथवा जिसका दिया पिण्ड उस पितादि को पहुंच सकता है, वही-वही पिण्डदाता उस-उस का दायभागी हो सकता है।

इस पर यहां समाधान दिया जाता है और श्राद्धविचार के प्रकरण में भी कुछ कहा है कि- पिण्डशब्द ग्रास कौर रोटी वा टुकड़ा का उपलक्षक है। ‘आठ पिण्ड- ग्रास मध्याह्न में खावे।२ कुत्ता पिण्डनाम कौरा देने वाले की सेवा वा उपासना करता है।’३ इत्यादि प्रमाणों के अनुकूल पिण्डशब्द ग्रास वा कौर का वाचक स्पष्ट ही है। जैसे स्त्रियां विवाह के पश्चात् अपने पति से भोजन-वस्त्र पाने की भागिनी होती हैं। यदि कदाचित् पति भोजनादि देकर अपनी स्त्री की रक्षा न करे तो राजा को उचित है कि उसके पति से भोजन-वस्त्र दिलाकर रक्षा करावे और वे स्त्री लोग भी राजदरबार में निवेदनपत्र (अर्जी) देकर वा दिलाकर अपने निर्वाह के लिये उन पुरुषों की शक्ति के अनुसार उनसे भोजन-वस्त्र ले सकती हैं। और कोई-कोई स्त्रियां ऐसा करती भी हैं। वैसे यहां भी जिस-जिस का उस पितादि के साथ जिस-जिस की अपेक्षा निकट सम्बन्ध है उस-उस का साक्षात् वा परम्परा से वह पितादि रक्षक रहा वा है। जिस पितादि ने उन अपने सम्बन्धी पुत्रादि का किसी प्रकार उपकार किया है, उन पुत्रादि पर वृद्धावस्था में पितादि का रक्षा कराने का भार (हक) है। उस समय वे वृद्ध पितादि शरीर और इन्द्रियों के शिथिल हो जाने से धनादि का उपार्जन कर अपने शरीर को भोजन-वस्त्रादि के व्यवहार से ठीक-ठीक रक्षा नहीं कर सकते। इस कारण उस वृद्धावस्था में जिन-जिन पर उन वृद्धों की रक्षा का भार है, उनकी न्यायनुकूल रक्षा न करने पर जो पुत्रादि राज्य की ओर से दण्ड पाने योग्य हैं। अथवा राजा बलपूर्वक जिनके द्वारा उन वृद्ध पितादि की रक्षा करा सकता है वा राजा को न्यायानुसार रक्षा करानी चाहिये, वे-वे पुत्रादि उन पितादि को पिण्डनाम भोजनादि देने के अधिकारी और उनके मरने पर दायभागी अर्थात् सब वस्तु के स्वामी होने के योग्य हैं। क्योंकि वे जीते हुए वृद्ध पितादि को पिण्डनाम भोजनाच्छादनादि देकर रक्षा करने के   अधिकारी रहे। लोक में सम्पूर्ण व्यवहार परस्पर के उपकार-प्रत्युपकार से ही चल रहा है। जिसने पहले किसी प्रकार जिसका उपकार किया हो उसको पीछे उसका प्रत्युपकार अवश्य करना चाहिये। और योनिसम्बन्ध में निकटवर्त्ती वा दूरवर्त्ती होने से जितना परस्पर उपकार किया जाता है। उतना अन्य किसी से नहीं हो सकता। जैसे पिता पुत्र को उत्पन्न कर उसका सर्वथा रक्षादि द्वारा महान् उपकार करता है। जब पुत्र समर्थ हो तब उसको वृद्धावस्था पर्यन्त अपने माता-पिता को भोजन-वस्त्रादि द्वारा महान् उपकार करना चाहिये। फिर वही पुत्र अपने पितादि के संचित किये वस्तुओं का पितादि के मरने पर लेने वाला होता है। यदि कदाचित् किसी प्रकार पिण्डनाम भोजनादि से पितादि की रक्षा करने का अवसर वृद्धावस्था में भी न आवे तो भी उन पुत्रादि के पिण्डदाता होने वा कहे जाने में कोई दोष नहीं है। क्योंकि अवसर होने से पिण्ड देने का भार उन पर है जिस कार्य के करने का भार जिस पर है वह चाहे किसी कारण किसी देश वा किसी काल में उस कार्य को न करे वा न कर सके तो सामान्य नियम में बाधा नहीं पड़ सकती। यदि कोई निमित्त न होता तो वह अवश्य वैसा करता। जो नियम सामान्य कर सर्वत्र के लिये होता है उसकी प्रवृत्ति कहीं न होने पर सामान्य कथन की हानि समझना ठीक नहीं है। अब आगे पूर्वोक्त याज्ञवल्क्यादि कि पिण्डदानविषयक श्लोकों को अर्थ करते हैं- ‘जिस कारण नियोग से उत्पन्न हुआ पुत्र अपने माता-पिता दोनों की भोजनादि से रक्षा करने वाला है इसी से वह दोनों का दायाद है।’ यह याज्ञवल्क्यस्मृति का आशय है। बारह पुत्रों में से पहले-पहले के में अगला-अगला पिण्ड देने वाला और दायभागी होता है। जो जिसको पिण्ड देने के लिये अधिकारी है वह उसके वस्तु का ग्रहण करने वाला हो यह न्यायानुकूल की बात है। ‘वही दौहित्र- धेवता अपने नाना और बाप दोनों को दो पिण्ड देवे।’ इस मनु के पूर्वोक्त वचन का आशय यह है कि जब नाना के कोई अन्य अपना निज औरस पुत्र न हो तब वह धेवता ही नाना के लिये वृद्धावस्था में पिण्ड अर्थात् भोजनादि देकर रक्षा करने का उद्योग करे। ऐसा होने पर वही दौहित्र उस नाना का दायाद (हकदार) होगा। अपने पिता के लिये पिण्ड देना और उसका दायाद होना तो सिद्ध को ही दिखाने रूप सिद्धानुवाद है। इसी प्रकार दायभाग में पिण्डदान की चर्चा सब वाक्य इसी उक्त सिद्धान्त के अनुसार व्यवस्थित हो जाते हैं। पिण्डशब्द से पकाये हुए रोटी आदि अन्न का ग्रहण है क्योंकि वृद्धावस्था में पितादि अपने हाथ से पाकादिक भी नहीं कर सकते। यदि कोई कहे कि रसोईयादि से करा लेंगे तो उत्तर यह है कि प्रथम तो रसोईया रखना सबका काम नहीं किन्तु धनी ही रख सकते हैं और धनी भी हों तो रसोईयादि कर्मचारियों से काम लेने और धनादि की रक्षा के लिये कोई पुरुषार्थी मनुष्य होना चाहिये। किन्तु वृद्ध से सब प्रबन्ध नहीं हो सकता। इसलिये उनको बनाया हुआ भोजन प्रीतिपूर्वक वही पुरुष देवे जो उस समय पर अन्यों की अपेक्षा निकटवर्ती सम्बन्ध वाला हो। जिसके ऊपर भोजन-वस्त्रादि देके अशक्त असमर्थ दशा में पितादि की रक्षा करने का भार है, यही पिण्डदान जानो अर्थात् जिनको पितादि की वृद्धावस्था में पिण्ड नाम भोजनादि देना चाहिये वे ही पुत्रादि पिण्डदाता हैं, उन्हीं का पिण्ड पितादि को पहुंच सकता और पितादि का उन पर पिण्ड लेने का दाय नाम हक है इसी कारण उनके मरने पर वे ही पिण्डदाता पुत्रादि उनके पदार्थों के दायभागी होने चाहियें। यह मनु आदि का सिद्धान्त पक्ष है।