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हे गौ माता -रामनाथ विद्यालंकार

हे गौ माता। 

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता सविता। छन्दः क. स्वराड् बृहती, र. ब्राह्मी उष्णिक्।

ओ३म् इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमा कर्मणूऽआप्यायध्वमघ्न्याऽइन्द्राय भागं ‘प्रजार्वतीरनमीवाऽ अयक्ष्मा मा व स्तेनऽईशत माघशसो ध्रुवाऽअस्मिन् गोपतौ स्यात ह्वीर्यजमानस्य शून् पाहि॥

-यजु० १ । १ 

हे गौ माता !

मैं (इषे त्वा ) अन्नोत्पत्ति के लिए तुझे पालता हूँ, (अर्जे त्वा ) बलप्राणदायक गोरस के लिए तुझे पालता हूँ। हे गौओ ! तुम (वायवः स्थ) वायु के समान जीवनाधार हो। ( देवः सविता ) दाता परमेश्वर व राजा ( श्रेष्ठतमाय कर्मणे ) श्रेष्ठतम कर्म के लिए, हमें (वः प्रार्पयतु) तुम गौओं को प्रदान करे। (अघ्न्याः ) हे न मारी जानेवाली गौओ! तुम (आप्यायध्वम् ) वृद्धि प्राप्त करो, हृष्टपुष्ट होवो। ( इन्द्राय) मुझ यज्ञपति इन्द्र के लिए ( भागं ) भाग प्रदान करती रहो। तुम (प्रजावतीः ) प्रशस्त बछड़े-बछड़ियों वाली, ( अनमीवा:६) नीरोग तथा ( अयक्ष्माः ) राजयक्ष्मा आदि भयङ्कर रोगों से रहित होवो। ( स्तेनः ) चोर (वः मा ईशत ) तुम्हारा स्वामी न बने, ( मा अघशंसः ) न ही पापप्रशंसक मनुष्य तुम्हारा स्वामी बने। (अस्मिन् गोपतौ ) इस मुझ गोपालक के पास ( धुवाः ) स्थिर और ( बह्वीः७) बहुत-सी ( स्यात ) होवो। हे परमेश्वर व राजन ! आप ( यजमानस्य ) यजमान के (पशून्) पशुओं की ( पाहि ) रक्षा करो।

 हे गौ माता !

मैं तुझे पालता हूँ तेरी सेवा के लिए, अन्नोत्पत्ति के लिए और गोरस की प्राप्ति के लिए। तू सबका उपकार करती है, अत: तेरी सेवा करना मेरा परम धर्म है, इस कारण तुझे पालता हूँ।

तुझे पालने का दूसरा प्रयोजन अन्नोत्पत्ति है। तेरे गोबर और मूत्र से कृषि के लिए खाद बनेगा, तेरे बछड़े बैल बनकर हल जोतेंगे, बैलगाड़ियों में जुत कर अन्न खेतों से खलिहानों तक और व्यापारियों तथा उपभोक्ताओं तक ले जायेंगे।इस प्रकार तू अन्न प्राप्त कराने में सहायक होगी, इस हेतु तुझे पालता हूँ।

तीसरे तेरा दूध अमृतोपम है, पुष्टिदायक, स्वास्थ्यप्रद, रोगनाशक तथा सात्त्विक है, उसकी प्राप्ति के लिए तुझे पालता हूँ। हे गौओ ! तुम वायु हो, वायु के समान जीवनाधार हो, प्राणप्रद हो, इसलिए तुम्हें पालता हूँ।

दानी परमेश्वर की कृपा से तुम मुझे प्राप्त होती रहो। राष्ट्र के ‘सविता देव’ का, राष्ट्रनायक राजा प्रधानमन्त्री और मुख्य मन्त्रियों का भी यह कर्तव्य है कि वे श्रेष्ठतम कर्म के लिए तुम्हें गोपालकों के पास पहुँचाएँ राष्ट्र की केन्द्रीय गोशाला में अच्छी जाति की गौएँ पाली जाएँ, जो प्रचुर दूध देती हों और गोपालन के इच्छुक जनों को उचित मूल्य पर दी जाएँ।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ है। अग्निहोत्र रूप यज्ञ के लिए भी और परिवार के सदस्यों तथा अतिथियों को तुम्हारा नवनीत और दूध खिलाने-पिलाने रूप यज्ञ के लिए भी प्रजाजनों को राजपुरुषों द्वारा उत्तम जाति की गौएँ प्राप्त करायी जानी चाहिएँ।

हे गौओ!

तुम ‘अघ्न्या’ हो, न मारने योग्य हो । राष्ट्र में राजनियम बन जाना चाहिए कि गौएँ। मारी–काटी न जाएँ, न उनका मांस खाया जाए। यदि किसी। प्रदेश में बूचड़खाने हैं तो बन्द होने चाहिएँ। दुर्भाग्य है हमारा कि वेदों के ही देश में वेदाज्ञा का पालन नहीं हो रहा है। मांस मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं है, न उसके दाँत मांस चबाने योग्य हैं, न आँतें मांस पचाने योग्य हैं।

हे गौओ !

तुम अच्छी पुष्ट होकर रहो। मुझ यज्ञपति इन्द्र का भाग मुझे देती रहो, बछड़े-बछड़ियों का भाग उन्हें प्रदान करती रहो। तुम प्रजावती होवो, उत्तम और स्वस्थ बछड़े-बछड़ियों की जननी बनो । तुम रोगरहित और यक्ष्मारहित होवो। तुम मुझ सदाचारी याज्ञिक गोस्वामी के पास रहो, चोर तुम्हें न चुराने पावे। पापप्रशंसक और पापी मनुष्य तुम्हारा स्वामी न बने। पापी नर-पिशाचों को गोरस नसीब न हो। मुझ गोपालक के पास तुम स्थिररूप से रहो, संख्या में बहुत होकर रहो, जिससे मैं गोशाला चलाकर उन्हें भी तुम्हारा दूध प्राप्त करा सकें, जो स्वयं गोपालन नहीं कर सकते हैं।

हे परमेश्वर ! मुझ यजमान के पशुओं की रक्षा करो, हे राजन् ! मुझ यजमान के पशुओं की रक्षा करो।


पाद-टिप्पणियाँ

१. इष्=अन्न, निघं० २.७।

२. ऊर्ग रसः, श० ५.१.२.८ । ऊर्जा बलप्राणनयोः, चुरादिः ।।

३. दीव्यति ददातीति देवः दाता। देवो दानाद्, निरु० ७.१५ ।

४. षु प्रसवैश्वर्ययोः, भ्वादिः, घूङ् प्राणिगर्भविमोचने, अदादिः । | ( सविता सर्वजगदुत्पादकः सकलैश्वर्यवान् जगदीश्वरः-द०भा० । (सवितः) सकलैश्वर्ययुक्त सम्राट्, य० ९.१-द०भा० ।।

५. (ओ) प्यायी वृद्धौ, भ्वादिः ।।

६. (अनमीवाः) अमीवो व्याधिर्न विद्यते यासु ताः । अम रोगे इत्यस्माद् | बाहुलकाद् औणादिक ईवन् प्रत्यय:-द०भा० ।

७. बह्वीः=बह्वयः । बह्वी+जस्, पूर्वसवर्णदीर्घ, वा छन्दसि पा० ६.१.१०६ ।।

८. यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म। -श०१.७.१.५

९. अघ्न्या=गौ, निघं० २.११। अघ्न्या अहन्तव्या भवति, निरु० ११.४० । अघ्न्या इति गवां नाम के एता हन्तुमर्हति, म०भा० शान्तिपर्व २६३ ।

-रामनाथ विद्यालंकार

हाँ, वेद में गो हत्यारे को मारने का आदेश है: डॉ. धर्मवीर

आजकल गो मांस खाने, न खाने को लेकर तथाकथित साहित्यकार, मानव अधिकारवादी, प्रगतिशील और कांग्रेस समर्थक राजनैतिक लोग प्रतिदिन ही शोर करते हैं। वास्तविकता तो यह है कि इनको गाय, घोड़े से कुछ भी लेना देना नहीं है, इनका उद्देश्य हिन्दू विरोध है। इस देश में गत साठ वर्षों तक जो लोग सत्ता के साथ रहे और वहाँ से लाभ उठाते रहे, आज उनका सत्ता सुख छिन गया तो चिल्ला रहे हैं। यदि इन लोगों के अन्दर थोड़ी भी संवेदनशीलता या मनुष्यता होती तो जो कुछ आज मुस्लिम देशों में हो रहा है, उसका विरोध करने का साहस अवश्य करते। मूल रूप से ये लोग पाखण्डी हैं, इनको हिन्दू विरोध करने का आर्थिक लाभ मिलता था, मोदी सरकार के आने से वह बन्द हो गया, इस कारण इनका यह पीड़ा-प्रदर्शन उचित ही है। हिन्दू विरोध के नाम पर राष्ट्रद्रोह करना इनका स्वभाव बन चुका है।

जो लोग ऐसा कहते हैं कि हिन्दू लोग गौ की तुलना में मनुष्य का मूल्य नहीं समझते, किसी ने किसी जानवर को मार दिया तो क्या हो गया, जानवर का मनुष्य के सामने क्या मूल्य है? संसार के सभी प्राणी मनुष्य के लिए ही बने हैं। उन्हें मारने-खाने में कोई अपराध नहीं होता। संसार की सभी वस्तुयें मनुष्य के उपयोग के लिये बनी हैं, इसका यह अभिप्राय तो नहीं हो सकता कि आप उन्हें नष्ट कर दें। संसार के प्राणी भी मनुष्य के लिये हैं तो इनको मारकर खा जाना ही तो एक उपयोग नहीं है। पहली बात, जो भी संसार की वस्तुयें और प्राणी हैं, वे सभी मनुष्यों की साझी सपत्ति हैं, सबके लिये उनका उपयोग होना चाहिए। सबका हित सिद्ध होता हो, ऐसा उपयोग सबको करना उचित है। संसार की वस्तुओं का श्रेष्ठ उपयोग मनुष्य की बुद्धिमत्ता की कसौटी है। कोई मनुष्य घर को आग लगाकर कहे कि लकड़ियाँ तो मेरे जलाने के लिये ही हैं। लकड़ियाँ जलाने के काम आती है, परन्तु घर बनाने के भी काम आती हैं, उनका यथोचित उपयोग करना मनुष्य का धर्म है।

कोई भी मनुष्य किसी का अहित करके अपना हित साधना चाहता है तो उसको ऐसा करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। समाज में व्यक्तिगत आचरण की पूर्ण स्वतन्त्रता है, परन्तु सामाजिक परिस्थितियों में प्रत्येक व्यक्ति को समाज के नियमों के अधीन चलना होता है। जो लोग गाय का मांस खाने को अधिकार मानते हैं, वे मनुष्य का मांस खाने को भी अधिकार मान सकते हैं। समाज में कोई ऐसा करता है तो उसे अपराधी माना जाता है, उसे दण्डित किया जाता है, जैसा निठारी काण्ड में हुआ है। वैसे ही गाय भारत में हिन्दू समाज में न मारने योग्य कही गई है। आप कानून व नियम का विरोध करके गो मांस खाने को अपना अधिकार बता रहे हैं। एक वर्ग-बहुसंयक वर्ग जब गौ हत्या की अनुमति नहीं देता, तब यदि आप ऐसा करते हैं तो देश और समाज से द्रोह करना चाह रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में जब एक वर्ग नियम को मानने से इन्कार करता है तो दूसरा वर्ग भी नियम तोड़ने लगता है, जैसा कश्मीर में हुआ, यदि गोहत्या करना, गोमांस खाना इंजीनियर रशीद का अधिकार है तो गाय की रक्षा करने का और गोहत्यारे को दण्डित करना भी हिन्दू का अधिकार है। ये दोनों स्थिति समाज में अराजकता उत्पन्न करने वाली हैं, समाज के हित में नहीं है। हमें समाज के हित को सर्वोपरि रखना होगा। यदि गोहत्या करके एक अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहता है तो दूसरा सूअर को लेकर आपकी भावनाओं को आहत करता है। यह संघर्ष निन्दनीय है।

जो लोग गोहत्या के पक्षधर हैं, वे अपने भोजन की चिन्ता में पूरे समाज के भोजन पर संकट उत्पन्न कर रहे हैं। गाय का मांस तो कुछ लोगों की आवश्यकता है, परन्तु गाय का दूध पूरे समाज की आवश्यकता है। यह मांस खाने वालों की भी आवश्यकता है। इन लोगों के मांस खाने से समाज में आज दूध का भयंकर संकट उत्पन्न हो गया है। आपको अपने परिवार में दूध चाहिए या नहीं, छोटे बच्चों को दूध चाहिए, बड़ों को, रोगियों को दूध चाहिए। घर में दूध, दही, मक्खन, घी, मिठाई, मावा, खीर, पनीर आदि में प्रतिदिन जितने दूध की आवश्यकता है, दूध का उत्पादन उसकी अपेक्षा बहुत थोड़ा हो रहा है, इसीलिये दूध, दही, मावा, पनीर, मिठाई में सब कुछ नकली आ रहा है। दूध से बनी हर वस्तु में आज मिलावट है, क्योंकि गौहत्या के निरन्तर बढ़ने से गाय, भैंस आदि पशु घट गये हैं। यदि यही क्रम जारी रहा तो आपके लिये सोयाबीन का आटा घोलकर पीने के अतिरिक्त कोई उपाय ही नहीं बचेगा।

गोमांस खाने और गोमांस के व्यापार के कारण देश गहरे संकट की ओर जा रहा है। भोजन में गोदुग्ध के पदार्थों को निकाल दिया जाय तो भोजन में कुछ बचता नहीं है। हम समझते हैं कि कारखानों, उद्योगों से समृद्धि आती है, समृद्धि का वास्तविक आधार पशुधन है। मनुष्य की जितनी आवश्यकताओं की पूर्ति पशुओं से प्राप्त होने वाली वस्तुओं से होती है, उतनी अन्य पदार्थों से नहीं होती। जीवित पशु हमें अधिक लाभ पहुँचाते हैं, मरकर तो पहुँचाते ही हैं। स्वयं मरे पशु का उपयोग कम नहीं अतः पशुवध की आवश्यकता नहीं है। गोदुग्ध और उससे बने पदार्थ जहाँ मनुष्य के लिये बल, बुद्धि के बढ़ाने वाले होते हैं, वहाँ मांस तमोगुणी भोजन है, इसलिये महर्षि दयानन्द ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि गौ आदि पशुओं के नाश से राजा और प्रजा का भी नाश होता है। इस भारत के नाश के लिये अंग्रेजों ने हमारी समृद्धि के दो सूत्र समझे थे और उनका पूर्णतः नाश किया था। प्रथम हमारी शिक्षा, हमारे विचार और चिन्तन के उत्कर्ष का आधार थी, उसे नष्ट किया तथा दूसरा पशुधन विशेष रूप से गाय जो हमारी समृद्धि का मूल थी, उसका नाश कर इस देश को दरिद्र बना गये। उन्हीं के दलालों के रूप में जो लोग इस देश में उन्हीं से पोषण पाते हैं, उन्हीं के इशारे पर काम करते हैं, उन्हीं का षड़यन्त्र है। वे गोमांस खाने  जैसी बातें उठाकर विवाद उत्पन्न करते हैं, विदेशों में देश की छवि खराब करते हैं।

गाय हमारे बीच हिन्दू-मुसलमान की पहचान नहीं है, गाय तो सब की है। गाय उपयोगिता की दृष्टि से दूध न देने पर भी उपयोगी है। उसके गोबर से खाद और गोमूत्र से औषध का निर्माण होता है। पिछले दिनों गाय पर किये जा रहे अनुसन्धानों ने सिद्ध कर दिया है कि गाय न केवल हमारी भोजन की समृद्धि को अपने दूध से बढ़ाती है, अपितु खेती की उर्वरा-शक्ति का संरक्षण भी गोबर की खाद से करती है। गोमूत्र से अमेरिका जैसे देश केंसर की दवा का निर्माण करते हैं। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में गाय की रक्षा के लिये बहुत प्रयत्न किया था। स्वामी जी ने गोहत्या के विरोध में करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर कराकर महारानी विक्टोरिया को भेजने और गोहत्या बन्द करने का आन्दोलन चलाया था। स्वामी जी ने गोकरुणानिधि में एक गाय के जीवन भर के दूध से कितने लोगों का पालन-पोषण होता है तथा एक गाय के मांस से एक बार में कितने लोगों का पेट भरता है, इसकी तुलना करके गौ का अर्थशास्त्र समझाया था। गाय को हिन्दुओं ने पवित्र माना, यह केवल एक धार्मिक भावना का प्रश्न नहीं है। आज गाय के दूध के गुणों के कारण भारतीय गायों की नस्ल का संरक्षण ब्राजील और डेन्मार्क जैसे देशों में किया जा रहा है। वहाँ गौ संवर्धन का कार्य बड़े व्यापक स्तर पर किया जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में हमारे देश में यह विवाद निन्दनीय और चिन्ताजनक है। भारतीय गायों की तुलना में विदेशी नस्ल की गायों के दूध में कितना विष है, इसका बहुत बड़ा अनुसन्धान हो चुका है। भारतीय गाय आज समाप्त होने के कगार पर है। ऐसी परिस्थिति में यह विवाद स्वयं प्रेरित नहीं कहा जा सकता। जो सामाजिक ताने-बाने को तोड़कर राष्ट्र की प्रगति को रोकना चाहते हैं, यह ऐसे लोगों का काम है।

भोजन की स्वतन्त्रता के नाम पर जो कानून को तोड़ना चाहते हैं, उन्हें यह भी अवश्य ही ज्ञात होगा कि स्वतन्त्रता की बात तो तब आती है, जब आपके पास कोई वस्तु  सुलभ हो। यदि कोई यह समझता है कि उसे गोमांस खाने की स्वतन्त्रता और अधिकार है तो क्या गोमांस खाने वालों के अधिकार से गोदुग्ध पीने वालों का अधिकार समाप्त हो जाता है। गोमांस और गोदुग्ध के अधिकार में गोमांस खाने की बात करना, दिमागी दिवालियेपन की पहचान है। नई वैज्ञानिक खोजों ने सिद्ध किया है कि प्राणियों की हिंसा और निरन्तर बढ़ रही क्रूरता से पृथ्वी का पर्यावरण सन्तुलन बिगड़ता जा रहा है। प्राणियों की हत्या करने का कार्य नई तकनीक और विज्ञान के प्रयोग से बहुत बड़े स्तर पर चलाया जा रहा है, उसमें क्रूरता भी उतनी ही बढ़ गई है। मनुष्य चमड़े के लोभ में पशुओं के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करता है और भोजन के नाम पर पशुओं को यातनायें देता है। इन यातनाओं से मनुष्य का स्वभाव क्रूर होता है। आजकल हमारे समाज में बच्चों से लेकर बड़ों तक, ग्राम से नगर तक सबके स्वभाव में असहिष्णुता और क्रूरता का समावेश हुआ है, उसका मुय कारण हमारे व्यवहार में आई हुई हिंसा है। जिन धर्मों में दया और संयम का स्थान नहीं है, उनको धर्म कहना ही उचित नहीं है, अहिंसा और संयम के बिना समाज में कभी भी मर्यादाओं की रक्षा नहीं की जा सकती। गौ आदि प्राणियों के रक्षण और पालन से समृद्धि के साथ सद्गुणों का भी समावेश होता है।

कुछ लोग गाय को माता कहने का मजाक बनाने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे लोग नहीं जानते कि इन शदों का भावनात्मक मूल्य क्या है? भारतीय जब भी संसार के पदार्थों के गुणों को समझते हैं और उनसे लाभ उठाते हैं, उनके साथ आत्मीय भाव विकसित करते हैं। जिनके साथ मनुष्य का आत्मीय भाव होता है, मनुष्य उनकी रक्षा करता है, उन वस्तुओं से प्रेम करता है। हिन्दू भूमि को माता कहता है, गाय को माता कहता है, अपना पालन-पोषण करने वाली धरती आदि को माता कहता है। सबन्धों में बड़े गुरु, राजा आदि की पत्नी को माता कहता है। यह शद समान और उसके प्रति कर्त्तव्य का बोध कराने वाला है।

जो लोग गाय का मांस खाने को अपना अधिकार बताते हैं और तर्क देते हैं कि ईश्वर ने पशुओं को मनुष्य के खाने के लिये बनाया है, उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या सूअर को ईश्वर ने न बनाकर क्या मनुष्य ने बनाया है और सूअर भी यदि ईश्वर ने बनाया है तो क्या ईश्वर अपवित्र वस्तु व प्राणी बनाता है? वस्तु व प्राणियों की पवित्रता-अपवित्रता मनुष्य की अपेक्षा से होती है। परमेश्वर के लिये सारी रचना पवित्र ही है। जहाँ तक मनुष्य अपने को पवित्र समझें तो उन्हें योग दर्शन की पंक्ति का स्मरण करना चाहिए- मनुष्य का शरीर जन्म से मृत्यु तक अपवित्रता का पर्याय है। फिर कोई प्राणी रचना से कैसे पवित्र-अपवित्र है, परमेश्वर की साी रचना पवित्र है। मनुष्य अपने ज्ञान, रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार वर्गीकरण कर लेता है।

आज गौ को बचाने के लिए गोमांस के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगाने की आवश्यकता है। विदेशों में, विशेषकर खाड़ी के देशों को मांस का निर्यात होता है, मांस के व्यापारी धन के लोभ में अधिक-अधिक गोमांस का निर्यात कर रहे हैं। इस पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है। राज्य व्यवस्था में गोहत्या राज्य का विषय होने से प्रशासन में एक मत नहीं हो पा रहा है। भाजपा शासित राज्यों में गोहत्या पर प्रतिबन्ध और इस अपराध के लिये दण्ड विधान है, दूसरे राज्यों में नहीं। इस कार्य को करने की आवश्यकता है।

अब एक बात सोचने की है, गोहत्यारे को मृत्युदण्ड बयान विवादित कैसे है? वेद में तो हत्यारे को मारने का विधान स्पष्ट है, विवादित बयान उनका हो सकता है जो लोग वेद में गो हत्या करने का विधान बताते हैं। वेद में हत्या का विधान होने से गो हत्यारे की हत्या तो हो नहीं जायेगी, क्योंकि भारत का शासन वेद के नियम से तो चलता नहीं है। यह तो भारत के संविधान से चलता है। कुरान में लिखा है कि काफिर को मारने वाले को खुदा जन्नत देता है, तो क्या लिखा होने से भारत में इसे लागू कर देंगे? वेद और कुरान में जो लिखा है, लिखा रहने दें, इससे परेशान होने की क्या आवश्यकता है, वेद तो कहता है- यदि कोई तुहारे गाय, घोड़े, पुरुष की हत्या करता है तो सीसे की गोली से मार दो। मन्त्र इस प्रकार है-

यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम्।

तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नासो अवीरहा।

– अथर्ववेद 1/16/4

– धर्मवीर