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जिज्ञासा समाधान – 104

जिज्ञासा समाधान – 104

– आचार्य सोमदेव

  1. जिज्ञासा –मनुष्य योनि, कर्म योनि व भोग योनि दोनों है, जबकि अन्य योनियाँ केवल भोग योनि हैं। मनुष्य जो भी शुभ अथवा अशुभ /मिश्रित कर्म करता है, उसके सुख/दुःखरूपी फल व कर्मों एवं फलों की वासनायें (संस्कार) कर्माशय में एकत्र होते रहते हैं। ईश्वर की न्याय प्रक्रिया से उनके तीन रूपों में जाति, आयु व भोग रूपी फल अवश्य भोगने पड़ेंगे चाहे सैकड़ों वर्ष समाप्त हो जावें। यहाँ मुझे शंका है। वेदों व वैदिक पुस्तकों में पढ़ने को मिलता है कि ईश्वर भक्ति से कर्म नष्ट हो जाते हैं।

उदाहरणार्थः- त्वं हि विश्वतोमुखः…………… शोशुचदधम्। – ऋ. अष्टक अध्याय 1-7-5-6

स्थिरा वः सन्त्वायुधा………..मर्त्यस्य मायिनः।

– ऋ. 1-3-18-2 वर्ग मन्त्र

उपरोक्त उदाहरणों के अतिरिक्त भी अन्य कई स्थानों पर ईश्वर भक्ति (विवेक खयाति अपर वैराग्य समप्रज्ञात समाधि, पर वैराग्य व असमप्रज्ञात समाधि) द्वारा पापों का नाश होना बताया गया है। कृपया, स्पष्ट करें कि अशुभ कर्मों/पाप कर्मों के फलों से क्या बचा जा सकता है? मोक्ष प्राप्ति की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों के बाद पुनःजन्म लेने पर क्या पुराने कर्म-फल-संस्कार बचे रहतेहैं? यदि मोक्ष प्राप्ति के पूर्व के कर्मफल-संस्कार बचे रहते हैं तो क्या मोक्ष प्राप्ति के बाद पुनःजन्म लेने पर उन पुराने संस्कारों को भोगना पड़ेगा?

  1. योग के आठ अंगों में प्रथम ‘यम’ के पाँच भागों में अहिंसा व सत्य बोलना भी शामिल है- सत्य बोलना स्वयं में ही हिंसा का पर्याय है। कहा जाता है कि सच बोलने में शहद मिलाकर बोले- यह संभव नहीं लगता, सच तो कड़वा ही होता है। मैं प्रतिदिन पौराणिकों से अन्धविश्वासों के वेदानुकुल सच बोलकर मेरे मित्रों को भी फटकारता रहता हूँ। कृपया, सत्य व अहिंसा का कैसे पालन किया जावे- स्पष्ट करे। मैं महर्षि के पद-चिह्नों पर चलते हुए कड़वा सच ही बोलता हूँ।

– एम.एल. गोयल, वरिष्ठ उपाध्यक्ष आर्यसमाज केसरगंज, अजमेर।

समाधान– (क) जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह चाहे मनुष्य योनि में हो या किसी और योनि में। मनुष्य योनि में यह विशेषता है कि इस योनि में मनुष्य पाप-पुण्य रूप कर्म कर सकता है, जबकि अन्य योनि में यह नहीं है। इसमें कारण है मनुष्य योनि का भोग और कर्म योनि होना और मनुष्य से इतर योनियों का भोग योनि होना। इन भोग योनियों में भोगना होते हुए भी स्वतन्त्रता है, वह स्वतन्त्रता भले ही सीमित हो, किन्तु स्वतन्त्रता तो है। एक जानवर के सामने तीन मार्ग आ जाएँ तो ऐसी स्थिति में वह जानवर किसी भी रास्ते से जा सकता है, यह उसकी अपनी स्वतन्त्रता है। ऐसे ही अन्य स्थलों पर देखा जा सकता है।

अब आपकी बात पर विचार करते हैं कि किये हुए पाप क्षमा होते हैं या नहीं? इस विषय में महर्षि दयानन्द ने प्रश्न उठाकर उत्तर दिया है- ‘‘प्रश्न ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है वा नहीं? उत्तर – नहीं क्योंकि जो पाप क्षमा करे, तो उसका न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जाएँ, क्योंकि क्षमा की बात सुन के ही उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साह पूर्वक अधिक से अधिक बड़े-बड़े पाप करें, क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जाएँगे। इसलिए सबकर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं।’’ स.प्र. 7 यहाँ महर्षि की दृढ़ मान्यता है कि किए हुए पाप कर्म क्षमा नहीं होते। उनका तो फल भोगना ही पड़ता है।

महाभारत में कहा है-

येषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्ट्यां प्रपेदिरे।

तान्येव प्रतिपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः।।

अर्थात पूर्व सृष्टि में जिस-जिस प्राणी ने जो-जो कर्म किये होंगे, फिर वे ही कर्म उसे यथा पूर्व प्राप्त होते रहते हैं। जब अयुक्त कर्म इतनी दूर तक पीछा करते हैं तो इसी जन्म में किये पापों से बिना भोगे निवृत्ति पा लेना कैसे समभव हो सकता है? कृतकर्म का भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता- यह परमेश्वर का नियम है। अपने इस नियम को परमेश्वर स्तुति करने वाले भक्तों के लिए शिथिल नहीं कर सकता। यदि वह पापों को क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाए और सब मनुष्य पापी हो जाएँ । हाथ-पैर जोड़ने से परमात्मा अपराधियों को छोड़ देता है, यह जानने पर लोग निःशंक होकर पाप में प्रवृत्त होंगे। ऐसी अवस्था में ईश्वर लौकिक शासकों के समान हो जायेगा। जो उसकी स्तुति (चमचागिरी) करेंगे, वे उनके अपने होंगे। उनके प्रति उसका व्यवहार दया और सहानुभूति का होगा। इसके विपरीत जो उसकी स्तुति आदि नहीं करेंगे, उनके प्रति वैर भाव नहीं तो उपेक्षा का भाव तो रखेगा ही। तब वह सब प्राणियों के लिए एक जैसा नहीं रहेगा। अपनों का उपकार करना परोक्ष रूप से अपने पर उपकार करना ही है। इसमें स्वार्थ निहित है। इस स्वार्थ के कारण परमात्मा खुशामदियों से घिरे हुए शासक के समान होगा, जिसमें राग-द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि सब शेष होंगे।इस प्रकार के जगन्नियन्ता परमेश्वर से न्याय की आशा कैसे की जा सकती है? वास्तव में तो परमेश्वर तटस्थ भाव से सब जीवों के कर्मों का साक्षी रहते हुए ही न्याय परायण हो सकता है और है। उसके व्यवहार में दया और न्याय का विलक्षण सममिश्रण अथवा समन्वय है।

सामान्यतः मनुष्य दण्ड के भय से अपराध करने से डरते हैं। यदि यह विश्वास हो जाये कि अपराध करने पर पकड़े नहीं जायेंगे और पकड़े भी गये तो बिना दण्ड पाये छूट जाएँगे तो असंखय मनुष्य दुष्कर्मों-अपराधों के अभयस्त हो जायेंगे। किसी पीर पैगबर पर ईमान लाने मात्र से किये हुए कर्मों का दण्ड पाये बिना इससे कोई छूट नहीं सकता है। किये हुए पाप का फल तो भोगना ही पड़ेगा।

आपने जो प्रमाण दिये हैं, अब उस पर विचार कर लेते हैं। ‘‘स्थिरा वः सन्त्वायुधा ………मा मर्त्यस्य मायिनः।।’ ’इस मन्त्र में से पाप क्षमा वाली बात आपने कहाँ से ली, ज्ञात नहीं हो पाया। इसमें परमेश्वर की ओर से मनुष्यों को उपदेश है अथवा आशीर्वाद है कि तुमहारे आयुध शक्ति सामर्थ्य से रहें, जिससे शत्रुओं को पराजित किया जा सके और शत्रुओं का राज्यादि ऐश्वर्य कभी न बढ़े। दूसरा जो मन्त्र आपने उद्धृत किया है, उसमें जो ‘‘अप नः शोशुचदधम्’’ ये शबद आये हैं। इनके द्वारा प्रार्थना की गई है कि हमारे पाप दूर कराइये। परमेश्वर से प्रार्थना की गई है पाप दूर करने की। अब विचारणीय यह है कि यहाँ प्रार्थना किये गये (जो हो चुके ) उन पापों को दूर करने की है या पाप भावना को दूर करने की?

पाप दो स्थितियों में नष्ट होते हैं, हो सकते हैं अथवा परमात्मा पाप नष्ट करता है, कर सकता है। एक जो पाप किये हैं, उनके फल भोगने पर वे पाप नष्ट हो जाते हैं। दूसरा जो हमारे मन में पाप भावना है, उसको परमेश्वर शुद्ध भावना से उपासना करने पर नष्ट करता है। ऐसा मानने पर कोई सिद्धान्त हानि नहीं है। और यदि पाप किये जाने के बाद उनका फल न देकर परमात्मा क्षमा कर देता है। ऐसा मानते हैं तो सिद्धान्त की हानि होती है। ऐसी मान्यता किसी शास्त्र वा ऋषि ने नहीं मानी है। यह तो अवश्य है कि दयालु परमेश्वर हमारे पाप नष्ट करता है। वह हमें हमारे पापों का फल भुगाकर नष्ट करता है इसमें परमेश्वर की न्याय व दया निहित है। परमात्मा शुद्ध अन्तःकरण से की गई प्रार्थना से भी पाप अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक आदि की भावना को नष्ट करता है। ऐसी मान्यता को मानने में कोई हानि नहीं है। हानि तो पाप क्षमा करने में है।

(ख) समाधि से पापों का नाश होता है, इसका तात्पर्य है अविद्या आदिक्लेशों का नाश होता है। अब अविद्या आदिक्लेश क्षीण होते हैं तो काम, क्रोध आदि पाप भी क्षीण होते हैं। दूसरा, इसमें विद्वानों की दो मान्यताएँ हैं- एक जो समाधि से अविद्या आदिक्लेशों के साथ-साथ कर्माशय को भी नष्ट होना मानते हैं, जो कि शास्त्र इनकी बात को अधिक पुष्ट करता है। इस स्थिति में अर्थात्क्लेशों के नष्ट होने की स्थिति में जो भी योगी आयेगा, उसके समस्त कर्म परमेश्वर नष्ट कर देता है। (पाप-पुण्य रूप दोनों कर्म) इसमें परमेश्वर के न्याय में भी कोई दोष नहीं आयेगा, क्योंकि जो भी इस स्थिति को प्राप्त करेगा, उसी के कर्माशय को नष्ट करेगा अन्य के नहीं। दूसरी मान्यता विद्वानों की है कि मुक्ति से पहले सब कर्म नष्ट नहीं होते केवल अविद्या आदिक्लेश ही नष्ट होते हैं, इस बात को मानने वाले के पास कोई विशेष प्रमाण नहीं है। इनकी मान्यता है कि जो मोक्ष होने से पहले कर्म शेष थे, उनके आधार पर मुक्ति से लौटकर जीवात्मा उनको भोगता है। जिनकी मान्यता ये है कि समस्त क्लेशों के साथ कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। वे मुक्ति से लौटने में परमात्मा की दया को देखते हैं कि मुक्ति की अवधि पूरी होने के बाद परमेश्वर जन्म देकर मुक्ति का प्रयास करने का पुनःअवसर दे रहे हैं।

(ग) आप सत्य को हिंसा की कोटि में रख रहे हैं, हिंसा ही मान रहे हैं, जबकि ऐसा है नहीं। सत्य और अहिंसा की परिभाषा को ठीक-ठीक जानने पर ऐसा प्रतीत नहीं होगा।महर्षि पतञ्जलि ने तो सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि को अहिंसा के पोषक माना है, ये सब अहिंसा को ही सिद्ध करने वाले हैं। आपने जो यह कहा कि पौराणिकों और अन्धविश्वासियों को सत्य बोलकर फटकारता हूँ तो उनको दुःख होता है। इस दुःख होने में सत्य दोषी नहीं है, अपितु वह व्यक्ति दोषी है जो सत्य को स्वीकार नहीं कर रहा और ऊपर से दुःखी हो रहा है।

अहिंसा की परिभाषा ऋषि ने लिखी- ‘‘सब प्रकार से, सब काल में, सब प्राणियों के साथ वैर छोड़ के प्रेम-प्रीति से वर्तना। इस परिभाषा के अनुसार यदि व्यक्ति सत्य बोलता है तो सत्य हिंसक हो ही नहीं सकता । यदि व्यक्ति वैर भाव रखते हुए किसी को दुखी करने के लिए सत्य बोलता है तो निश्चित ही वह हिंसक होगा। देखना यह है सत्य किस प्रयोजन से बोला जा रहा है। सत्य का ध्येय अहिंसा है, धर्म है, परोपकार है, ईश्वर है ऐसी स्थिति में सत्य को हिंसा कहना सर्वथा असंगत ही तो है।

कोई व्यक्ति हमसे दुःखी न हो, ऐसा करने के लिए यदि हम सत्य को छोड़ असत्य बोलते हैं तो भले ही उस व्यक्ति को तात्कालिक दुःख न हो, किन्तु उस असत्य से कालान्तर में वह अवश्य पीड़ित होगा और इसके विपरीत सत्य बोलने से तात्कालिक रूप से भले ही थोड़ी देर के लिए दुःखी हो, किन्तु कालान्तर में उसको सत्य से अपार सुख मिलेगा। ऐसा होने से सत्य को हिंसा नहीं कहा जा सकता।

आपने कहा- सत्य कड़वा ही होता है सो ठीक नहीं है।सत्य को तो शास्त्र ने अमृत कहा है। हाँ, कड़वाहट तब होती है, जब कोई सत्य को सुनना और समझना न चाहता हो। यदि व्यक्ति यथार्थ में सत्य को जानना समझना चाहता है तो उसको कभी भी सत्य कड़वा नहीं लगेगा, वरन वह सत्य उसको अमृत रूप लगेगा। यदि सत्य अहिंसा न होकर हिंसा होता तो ऋषि कभी इसको योग का अंग न बनाते। वेद व शास्त्र सत्य की महिमा न कहते। वेद तो असत्य को छोड़ सत्य के प्राप्त होने को कहता है- इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि मैं असत्य से छूट सत्य को प्राप्त होऊँ। उपनिषद्में कहा है-

सत्यमेव जयति नाऽनृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।

येना क्रमन्त्पृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्।।

सर्वदा सत्य की ही विजय और झूठ की पराजय होती है, इसलिए जिस सत्य से चल के धार्मिक ऋषि लोग जहाँ सत्य की निधि – परमात्मा है, उसको प्राप्त होकर आनन्दित हुए थे और अब भी होते हैं, उसका सेवन मनुष्य लोग क्यों न करें? और भी- न हि सत्यात्परमो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।।

यह निश्चित है कि न सत्य से परे कोई धर्म और न असत्य से परे कोई अधर्म है। इससे धन्य मनुष्य वे हैं जो सब व्यवहारों को सत्य ही से करते हैं और झूठ से युक्त कर्म किञ्चित मात्र भी नहीं करते हैं। ये सत्य की महिमा है, इसलिए सत्य को निंदित रूप से न देखें। जैसे अहिंसा सुख देने वाली है, वैसे ही सत्य भी सुख देने वाला है। अस्तु।             – ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर।

जिज्ञासा समाधान: आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा 2- मैं महर्षि दयानन्द जी का एक बहुत छोटा सिपाही हूँ, दैनिक यज्ञ एवं दोनों समय सन्ध्या करता हूँ, किन्तु सन्ध्या करते वक्त जब मैं मनसा परिक्रमा मन्त्र का अर्थ भाव के साथ उच्चारण करता हूँ तो निनलिखित शंका घेर लेती है-

(क) मनसा परिक्रमा मन्त्रों में हम दिशाओं, अग्नि, सूर्य, लता आदि जड़ पदार्थों को नमन करते हैं। कृपया, भाव स्पष्ट करें।

(ख) हर जीव अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर आयु, देश, स्थिति आदि प्राप्त करता है, लेकिन बहुत से लोग बेईमानी, छल-कपट के द्वारा भाग्य से अधिक धन अर्जित कर लेते हैं, जो कि उसके प्रारध से ज्यादा होता है। कृपया, थोड़ा प्रकाश डाल कर अज्ञान दूर करें।

– सुरेन्द्र कुमार, डल्यू-2-349-बी, नांगल राया, नई दिल्ली-110046

समाधान– 2 (क) महर्षि ने सन्ध्या करने का विधान मनुष्यों के लिए किया है। सन्ध्या में जिन मन्त्रों का विनियोग जिस क्रम से किया है, वह अपने आप में सन्ध्योपासना करने की वैज्ञानिक शैली है। सन्ध्या के प्रारभ से अन्त तक जिस क्रम को महर्षि ने रखा है, उस क्रम से साधक स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाता चला जाता है।

आर्य जगत् मूर्धन्य दार्शनिक योग्य विद्वान् पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने इस विषय पर चिन्तन कर सन्ध्या विषय को लेकर ‘सन्ध्या क्या, क्यों, कैसे’ पुस्तक लिखी है। उसके आधार पर यहाँ हम कुछ लिखते हैं।

सन्ध्या को चार भागों में विभक्त करके देखें- 1. आचमन मन्त्र से लेकर प्राणायाम मन्त्र पर्यन्त, 2. अघमर्षण मन्त्र, 3. मनसा परिक्रमा मन्त्र और 4. उपस्थान मन्त्र। प्रथम भाग में अपने शरीर=पिण्ड में ईश्वर के गुणों का विचार करना। इन्द्रिय स्पर्श, मार्जन एवं प्राणायाम मन्त्र में इसी पर बल दिया गया है, अर्थात् शरीर, प्राण व इन्द्रियों की बलवत्ता पर बल दिया गया है। दूसरापिण्ड से आगे ब्रह्माण्ड को देखते हुए, ईश्वर का विचार करना, जो अघमर्षण मन्त्रों में हैं। पिण्ड केवल मेरा अपना है, किन्तु ब्रह्माण्ड मेरा अपना भी है और सभी प्राणियों का भी। ब्रह्माण्ड सबके साझे का पिण्ड है। तीसरा स्थूल से सूक्ष्मता की ओर लेकर जाने का है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड ये स्थूल हैं, इन स्थूल से सूक्ष्म मन है, उस मन को सर्वत्र दौड़ाकर सर्वत्र परमेश्वर का चिन्तन करना, अर्थात् सब दिशाओं-उपदिशाओं में परमेश्वर का भान करना। चौथा मन से भी परे आत्मा को परमात्मा के निकट ले जाना, जो कि हम उपस्थान मन्त्रों के द्वारा परमेश्वर के निकट होते हैं। यह स्थिति सन्ध्या में सर्वोत्कृष्ट है। हमें इस स्थिति तक पहुँचना है, अर्थात् परमेश्वर के निकट अपनी आत्मा को ले जाना है।

अब आपकी जिज्ञासा पर विचार करते हैं। मनसा परिक्रमा मन्त्रों में जो कहा गया है कि सब दिशाओं में परमात्मा अपनी विभिन्न शक्ति स्वरूप से स्वामी है। सबके लिए नमस्कार व अपने अन्दर व अन्य के अन्दर स्थित द्वेष को दूर करने की प्रार्थना। आपका कथन है कि ‘‘इन दिशाओं, अग्नि, सूर्य, लता आदि को नमन करने का क्या भाव है?’’ इन मन्त्रों में जड़ और चेतन दोनों का ही कथन है और दोनों के लिए नमस्कार करने को कहा है। इन छः मन्त्रों में अग्नि, इन्द्र, वरुण, सोम, विष्णु और बृहस्पति, ये नाम सब दिशाओं में स्थित परमात्मा के हैं और इसी प्रकार असितः स्वजः और श्वित्र, ये नाम भी परमेश्वर के हैं। इन सभी स्वरूप वाले परमेश्वर को नमस्कार करना, अर्थात् उस परमेश्वर का समान करना, उससे यथायोग्य व्यवहार करना, अर्थात् उसकी आज्ञा का पालन करना। मन्त्रों में एक चेतन परमात्मा का वर्णन है, दूसरे चेतन पितर लोग, कीट-पतंग, विषधर प्राणी, वृक्ष-लता-बेल आदि हैं, इनको भी नमस्कार किया गया है। नमस्कार का अर्थ है- झुकना, नमन करना, यथायोग्य व्यवहार करना। इस यथायोग्य व्यवहार को लेकर जब नमस्कार को देखेंगे तो पितर, जो चेतन हैं, उनके लिए क्या व्यवहार होगा, वह हमारे सामने आ जायेगा। कीट, पतंग, विषधर प्राणी, लता, बेल, वृक्ष आदि ये हमारे लिए कितने उपयोगी हैं, इस प्रकृति के लिए कितने उपयोगी हैं, ऐसा विचार करना और इनके उपयोग को देखकर वैसा ही इसका उपयोग करना, व्यवहार में लाना, इनके लिए नमस्कार होगा और जो जड़ पदार्थ- आदित्य, अन्न, अशनि, वर्षा है, इनको भी नमस्कार अर्थात् इनका यथायोग्य उपयोग लेना, इनसे उपकार लेना, यह इनके लिए नमस्कार होगा।

कीट, पतंग, विषधर प्राणी, वृक्ष, लता, वेल, आदित्य, अन्न, अशनि, वर्षा, इषु आदि को नमस्कार करने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि इनकी जैसे पौराणिक वर्ग पूजा करता है, वैसे नमस्कारादि करना। यह व्यवहार चेतन मनुष्यों व परमेश्वर के लिए हो सकता है, अन्य के लिए नहीं।

(ख) जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह पाप-पुण्य रूप कर्म दोनों ही कर सकता है। इन्हीं पाप-पुण्य रूप कर्म के आधार पर परमेश्वर जीवों को फल देता है। वर्तमान जीवन में पिछले कर्मों के आधार पर व इस जीवन में किये पुरुषार्थ से जीव भोग भोगता है। पिछले कर्म श्रेष्ठ  थे, उसके आधार पर बहुत अच्छा शरीर, परिवार, समाज आदि मिला। ये मिलने के बाद भी जीवात्मा इस जीवन में विपरीत कर्म करता हुआ दुःखी हो सकता है। भले ही पिछले कर्म अच्छे थे, किन्तु इस जीवन में उसने जघन्य पाप किये, तो वह इस जीवन व अगले जीवन में दुःख भोगेगा।

एक बात और यहाँ कह दें कि जो कुछ हम जीवन में सुख-दुःख भोगते हैं, वह सब हमारे कर्मों का फल नहीं होता। हाँ, यह अवश्य है कि सुख-दुःख फल हमारे कर्मों का होता है, किन्तु सभी सुख-दुःख हमारे कर्मों का नहीं होता। किसी अन्य व्यक्ति के कारण या प्राकृतिक आपदा के कारण भी सुख-दुःख हो सकता है।

अब आपकी बात- जिस व्यक्ति का कर्माशय सामान्य था और इस आधार पर उसको फल भी सामान्य मिलना था, किन्तु वह व्यक्ति छल, कपट, अधर्म कर-करके बहुत धनादि अर्जित कर लेता है। उस अधर्म अर्जित धन वाले व्यक्ति को दूसरे लोग देखकर यह सोचने लग जाते हैं कि धर्म करने वाला दुःखी और यह अधर्म करने वाला सुखी है। ऐसा सोचना नासमझी है, क्योंकि धर्म का फल सदा ही श्रेष्ठ और अधर्म का फल सदा विपरीत ही होता है।

जिस व्यक्ति ने अधर्म से साधन अर्जित किये हैं, निश्चित रूप से उसको आगे जो फल मिलने वाला है, वह घोर दुःख ही होगा। महर्षि दयानन्द ने इस विषय में मनु का श्लोक देते हुए लिखा है-

अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति।

ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति।।

‘‘जब अधर्मात्मा मनुष्य धर्म की मर्यादा छोड़ (जैसे तालाब के बाँध तोड़, जल चारों ओर फैल जाता है वैसे) मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड, अर्थात् रक्षा करने वाले वेदों का खण्डन और विश्वासधातादि कर्मों से पराये पदार्थों को लेकर प्रथम बढ़ता है, पश्चात् धनादि ऐश्वर्य से खान-पान, वस्त्र, आभूषण, यान, स्थान, मान, प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है। अन्याय से शत्रुओं को भी जीतता है, पश्चात् शीघ्र नष्ट हो जाता है। जैसे जड़ से काटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे अधर्मी नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।’’ सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 5, इसलिए अधर्मी को बढ़ते देख यह कभी न सोचें कि इसका जीवन अच्छा है, अपितु यह विचारें कि यह नादान परमेश्वर के न्याय को नहीं देख रहा, यह परमेश्वर के न्याय से कभी नहीं बच सकता। जो इसने छल-कपट से अर्जन किया है, उससे वह विशेष सुख तो नहीं ले पायेगा, अपितु परमात्मा के न्याय से उसने जो छल-कपट के कर्म किये हैं, उनका विशेष दुःख अवश्य भोगेगा। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

जिज्ञासा समाधान: आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा 1- योग के आठ अंगों में जिनका ‘साधन पाद’ में उल्लेख है, छठा अंग ‘धारणा’ है। उसमें मन को शरीर के किसी एक अंग- जैसे नासिका, मस्तक आदि पर स्थिर करने की बात कही है। इसी स्थान पर आगे ध्यान, समाधि लगती है, परन्तु ‘समाधि पाद’ में सप्रज्ञात समाधि के अन्तर्गत जब वितर्क रूपी स्थिति, जिसमें पृथिवी आदि स्थूल भूतों का साक्षात्कार होता है, उसमें मन को नासिका, जिह्वा आदि अलग-अलग स्थानों पर लगाने का उल्लेख है। मेरी शंका यही है कि धारणा के समय जब एक स्थान चुन लिया है तो फिर वितर्क समाधि में अलग-अलग स्थान क्यों?

आशा है, मैं अपनी जिज्ञासा को ठीक प्रकार प्रकट कर पाया हूँ। आपसे निवेदन है कि इसका समाधान देने की कृपा करें।

– ज्ञानप्रकाश कुकरेजा, 786/8, अर्बन स्टेट, करनाल, हरियाणा-132001

समाधानयोग के आठ अंगों में धारणा छठा अंग है। धारणा की परिभाषा करते हुए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा- ‘‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।’’ इस सूत्र की व्याया करते हुए महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के उपासना प्रकरण में लिखा- ‘‘जब उपासना योग के पूर्वोक्त पाँचों अंग सिद्ध हो जाते हैं, तब उसका छठा अंग धारणा भी यथावत् प्राप्त होती है। धारणा उसको कहते हैं कि मन को चञ्चलता से छुड़ाके नाभि, हृदय, मस्तक, नासिका और जीभ के अग्रभाग आदि देशों में स्थिर करके ओंकार का जप और उसका अर्थ जो परमेश्वर है, उसका विचार करना।’’ धारणा के लिए मुय बात अपने मन को एक स्थान पर टिका लेना, स्थिर कर लेना है। टिके हुए स्थान पर ही ध्यान करना और वहीं पर समाधि का लगना होता है। इसके लिए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा- ‘‘त्रयमेकत्र संयमः’’ अर्थात् धारणा, ध्यान, समाधि तीनों का एक विषय हो जाना संयम कहलाता है। इस सूत्र पर महर्षि दयानन्द ने लिखा- ‘‘जिस देश में धारणा की जाये, उसी में ध्यान और उसी में समाधि, अर्थात् ध्यान करने योग्य परमेश्वर में मग्न हो जाने को संयम कहते हैं, जो एक ही काल में तीनों का मेल होना, अर्थात् धारणा से संयुक्त ध्यान और ध्यान से संयुक्त समाधि होती है। उसमें बहुत सूक्ष्म काल का भेद रहता है, परन्तु जब समाधि होती है, तब आनन्द के बीच में तीनों का फल एक ही हो जाता है।’’ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका

धारणा+ध्यान+समाधि= संयम।

अब आपकी बात पर आते हैं, आपने जो कहा कि ‘‘……सप्रज्ञात समाधि के अन्तर्गत जब वितर्क रूपी स्थिति जिसमें पृथिवी आदि स्थूल भूतों का साक्षात्कार होता है, उसमें मन को नासिका, जिह्वा आदि अलग-अलग स्थानों पर लगाने का उल्लेख है।’’ आपकी यह बात ‘‘वितर्कविचारानन्दास्मिता…..।’’ योगदर्शन 1.17 इस सूत्र में नहीं कही गई, हाँ ‘‘विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी।’’ योगदर्शन 1.35 इसमें कही है। इसमें वितर्क समाधि की बात नहीं, यहाँ तो मन की स्थिरता का कारण बताया है। यहाँ कहा है- नासिकाग्र आदि स्थानों पर चित्त को स्थिर करने से उत्पन्न दिव्यगन्धादि विषयों वाली प्रवृत्ति मन की स्थिति का कारण होती है।

इस सूत्र से पहले प्राणायाम का वर्णन किया हुआ है। ऋषि ने प्राणायाम को चित्त की स्थिरता का प्रमुख उपाय कहा है, अर्थात् प्राणायाम मन स्थिर करने का प्रमुख उपाय है। अब इसके आगे मन को स्थिर करने के अन्य गौण उपाय कहे हैं, उनमें यह उपाय भी है। जब योगायासी जिह्वाग्र, नासिकाग्र आदि स्थानों पर मन को स्थिर करता है, तब दिव्यरसादि की अनुभूति होती है। यह अनुभूति रूप व्यापार सामान्य न होकर उत्कृष्ट होता है। यह प्रवृत्ति मन को एकाग्र करने में सहायक होती है और साधक का अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने में विश्वास पैदा होता है और श्रद्धा पैदा होती है। तात्पर्य यह हुआ कि स्थान विशेष पर धारणा कर मन को स्थिर (एकाग्र) करना है।

वितर्क आदि समाधि सालब हैं। वहाँ स्थूल का आलबन करते हैं, अर्थात् नासिकाग्रादि का आलबन करना वितर्क कहलाता है। वितर्क समाधि एक-एक स्थान का आलबन करने से होती है। आपने जो पूछा- ‘धारणा के समय जब एक स्थान चुन लिया है तो फिर वितर्क समाधि में अलग-अलग स्थान क्यों?’ आप इस वितर्क समाधि के स्वरूप को समझेंगे तो आपको यह शंका नहीं होगी। वितर्क समाधि सालब समाधि है और वे आलबन स्थूल हैं, अलग-अलग हैं। अलग-अलग होने पर अलग-अलग स्थान धारणा के लिए चुने हैं।

धारणा के लिए भी ऋषि ने केवल एक ही स्थान निश्चित नहीं किया, वहाँ भी अनेक स्थान कहें हैं। अनेक में से कोई एक तो है, पर केवल एक नहीं है। जब दिव्य गन्ध की अनुभूति करनी है तो धारणा स्थल एक नासिकाग्र ही होता है, वहाँ स्थान बदले नहीं जाते। ऐसे ही अन्य विषयों में भी है। इसलिए जो अलग-अलग स्थान आप देख रहे हैं, वे अनेक विषयों को लेकर देख रहे हैं, जब एक ही विषय को लेकर देखेंगे तो अलग-अलग धारणा स्थल न देखकर एक ही स्थान देख पायेंगे।