जिज्ञासा समाधान – 104
– आचार्य सोमदेव
- जिज्ञासा –मनुष्य योनि, कर्म योनि व भोग योनि दोनों है, जबकि अन्य योनियाँ केवल भोग योनि हैं। मनुष्य जो भी शुभ अथवा अशुभ /मिश्रित कर्म करता है, उसके सुख/दुःखरूपी फल व कर्मों एवं फलों की वासनायें (संस्कार) कर्माशय में एकत्र होते रहते हैं। ईश्वर की न्याय प्रक्रिया से उनके तीन रूपों में जाति, आयु व भोग रूपी फल अवश्य भोगने पड़ेंगे चाहे सैकड़ों वर्ष समाप्त हो जावें। यहाँ मुझे शंका है। वेदों व वैदिक पुस्तकों में पढ़ने को मिलता है कि ईश्वर भक्ति से कर्म नष्ट हो जाते हैं।
उदाहरणार्थः- त्वं हि विश्वतोमुखः…………… शोशुचदधम्। – ऋ. अष्टक अध्याय 1-7-5-6
स्थिरा वः सन्त्वायुधा………..मर्त्यस्य मायिनः।
– ऋ. 1-3-18-2 वर्ग मन्त्र
उपरोक्त उदाहरणों के अतिरिक्त भी अन्य कई स्थानों पर ईश्वर भक्ति (विवेक खयाति अपर वैराग्य समप्रज्ञात समाधि, पर वैराग्य व असमप्रज्ञात समाधि) द्वारा पापों का नाश होना बताया गया है। कृपया, स्पष्ट करें कि अशुभ कर्मों/पाप कर्मों के फलों से क्या बचा जा सकता है? मोक्ष प्राप्ति की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों के बाद पुनःजन्म लेने पर क्या पुराने कर्म-फल-संस्कार बचे रहतेहैं? यदि मोक्ष प्राप्ति के पूर्व के कर्मफल-संस्कार बचे रहते हैं तो क्या मोक्ष प्राप्ति के बाद पुनःजन्म लेने पर उन पुराने संस्कारों को भोगना पड़ेगा?
- योग के आठ अंगों में प्रथम ‘यम’ के पाँच भागों में अहिंसा व सत्य बोलना भी शामिल है- सत्य बोलना स्वयं में ही हिंसा का पर्याय है। कहा जाता है कि सच बोलने में शहद मिलाकर बोले- यह संभव नहीं लगता, सच तो कड़वा ही होता है। मैं प्रतिदिन पौराणिकों से अन्धविश्वासों के वेदानुकुल सच बोलकर मेरे मित्रों को भी फटकारता रहता हूँ। कृपया, सत्य व अहिंसा का कैसे पालन किया जावे- स्पष्ट करे। मैं महर्षि के पद-चिह्नों पर चलते हुए कड़वा सच ही बोलता हूँ।
– एम.एल. गोयल, वरिष्ठ उपाध्यक्ष आर्यसमाज केसरगंज, अजमेर।
समाधान– (क) जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह चाहे मनुष्य योनि में हो या किसी और योनि में। मनुष्य योनि में यह विशेषता है कि इस योनि में मनुष्य पाप-पुण्य रूप कर्म कर सकता है, जबकि अन्य योनि में यह नहीं है। इसमें कारण है मनुष्य योनि का भोग और कर्म योनि होना और मनुष्य से इतर योनियों का भोग योनि होना। इन भोग योनियों में भोगना होते हुए भी स्वतन्त्रता है, वह स्वतन्त्रता भले ही सीमित हो, किन्तु स्वतन्त्रता तो है। एक जानवर के सामने तीन मार्ग आ जाएँ तो ऐसी स्थिति में वह जानवर किसी भी रास्ते से जा सकता है, यह उसकी अपनी स्वतन्त्रता है। ऐसे ही अन्य स्थलों पर देखा जा सकता है।
अब आपकी बात पर विचार करते हैं कि किये हुए पाप क्षमा होते हैं या नहीं? इस विषय में महर्षि दयानन्द ने प्रश्न उठाकर उत्तर दिया है- ‘‘प्रश्न ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है वा नहीं? उत्तर – नहीं क्योंकि जो पाप क्षमा करे, तो उसका न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जाएँ, क्योंकि क्षमा की बात सुन के ही उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साह पूर्वक अधिक से अधिक बड़े-बड़े पाप करें, क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जाएँगे। इसलिए सबकर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं।’’ स.प्र. 7 यहाँ महर्षि की दृढ़ मान्यता है कि किए हुए पाप कर्म क्षमा नहीं होते। उनका तो फल भोगना ही पड़ता है।
महाभारत में कहा है-
येषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्ट्यां प्रपेदिरे।
तान्येव प्रतिपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः।।
अर्थात पूर्व सृष्टि में जिस-जिस प्राणी ने जो-जो कर्म किये होंगे, फिर वे ही कर्म उसे यथा पूर्व प्राप्त होते रहते हैं। जब अयुक्त कर्म इतनी दूर तक पीछा करते हैं तो इसी जन्म में किये पापों से बिना भोगे निवृत्ति पा लेना कैसे समभव हो सकता है? कृतकर्म का भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता- यह परमेश्वर का नियम है। अपने इस नियम को परमेश्वर स्तुति करने वाले भक्तों के लिए शिथिल नहीं कर सकता। यदि वह पापों को क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाए और सब मनुष्य पापी हो जाएँ । हाथ-पैर जोड़ने से परमात्मा अपराधियों को छोड़ देता है, यह जानने पर लोग निःशंक होकर पाप में प्रवृत्त होंगे। ऐसी अवस्था में ईश्वर लौकिक शासकों के समान हो जायेगा। जो उसकी स्तुति (चमचागिरी) करेंगे, वे उनके अपने होंगे। उनके प्रति उसका व्यवहार दया और सहानुभूति का होगा। इसके विपरीत जो उसकी स्तुति आदि नहीं करेंगे, उनके प्रति वैर भाव नहीं तो उपेक्षा का भाव तो रखेगा ही। तब वह सब प्राणियों के लिए एक जैसा नहीं रहेगा। अपनों का उपकार करना परोक्ष रूप से अपने पर उपकार करना ही है। इसमें स्वार्थ निहित है। इस स्वार्थ के कारण परमात्मा खुशामदियों से घिरे हुए शासक के समान होगा, जिसमें राग-द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि सब शेष होंगे।इस प्रकार के जगन्नियन्ता परमेश्वर से न्याय की आशा कैसे की जा सकती है? वास्तव में तो परमेश्वर तटस्थ भाव से सब जीवों के कर्मों का साक्षी रहते हुए ही न्याय परायण हो सकता है और है। उसके व्यवहार में दया और न्याय का विलक्षण सममिश्रण अथवा समन्वय है।
सामान्यतः मनुष्य दण्ड के भय से अपराध करने से डरते हैं। यदि यह विश्वास हो जाये कि अपराध करने पर पकड़े नहीं जायेंगे और पकड़े भी गये तो बिना दण्ड पाये छूट जाएँगे तो असंखय मनुष्य दुष्कर्मों-अपराधों के अभयस्त हो जायेंगे। किसी पीर पैगबर पर ईमान लाने मात्र से किये हुए कर्मों का दण्ड पाये बिना इससे कोई छूट नहीं सकता है। किये हुए पाप का फल तो भोगना ही पड़ेगा।
आपने जो प्रमाण दिये हैं, अब उस पर विचार कर लेते हैं। ‘‘स्थिरा वः सन्त्वायुधा ………मा मर्त्यस्य मायिनः।।’ ’इस मन्त्र में से पाप क्षमा वाली बात आपने कहाँ से ली, ज्ञात नहीं हो पाया। इसमें परमेश्वर की ओर से मनुष्यों को उपदेश है अथवा आशीर्वाद है कि तुमहारे आयुध शक्ति सामर्थ्य से रहें, जिससे शत्रुओं को पराजित किया जा सके और शत्रुओं का राज्यादि ऐश्वर्य कभी न बढ़े। दूसरा जो मन्त्र आपने उद्धृत किया है, उसमें जो ‘‘अप नः शोशुचदधम्’’ ये शबद आये हैं। इनके द्वारा प्रार्थना की गई है कि हमारे पाप दूर कराइये। परमेश्वर से प्रार्थना की गई है पाप दूर करने की। अब विचारणीय यह है कि यहाँ प्रार्थना किये गये (जो हो चुके ) उन पापों को दूर करने की है या पाप भावना को दूर करने की?
पाप दो स्थितियों में नष्ट होते हैं, हो सकते हैं अथवा परमात्मा पाप नष्ट करता है, कर सकता है। एक जो पाप किये हैं, उनके फल भोगने पर वे पाप नष्ट हो जाते हैं। दूसरा जो हमारे मन में पाप भावना है, उसको परमेश्वर शुद्ध भावना से उपासना करने पर नष्ट करता है। ऐसा मानने पर कोई सिद्धान्त हानि नहीं है। और यदि पाप किये जाने के बाद उनका फल न देकर परमात्मा क्षमा कर देता है। ऐसा मानते हैं तो सिद्धान्त की हानि होती है। ऐसी मान्यता किसी शास्त्र वा ऋषि ने नहीं मानी है। यह तो अवश्य है कि दयालु परमेश्वर हमारे पाप नष्ट करता है। वह हमें हमारे पापों का फल भुगाकर नष्ट करता है इसमें परमेश्वर की न्याय व दया निहित है। परमात्मा शुद्ध अन्तःकरण से की गई प्रार्थना से भी पाप अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक आदि की भावना को नष्ट करता है। ऐसी मान्यता को मानने में कोई हानि नहीं है। हानि तो पाप क्षमा करने में है।
(ख) समाधि से पापों का नाश होता है, इसका तात्पर्य है अविद्या आदिक्लेशों का नाश होता है। अब अविद्या आदिक्लेश क्षीण होते हैं तो काम, क्रोध आदि पाप भी क्षीण होते हैं। दूसरा, इसमें विद्वानों की दो मान्यताएँ हैं- एक जो समाधि से अविद्या आदिक्लेशों के साथ-साथ कर्माशय को भी नष्ट होना मानते हैं, जो कि शास्त्र इनकी बात को अधिक पुष्ट करता है। इस स्थिति में अर्थात्क्लेशों के नष्ट होने की स्थिति में जो भी योगी आयेगा, उसके समस्त कर्म परमेश्वर नष्ट कर देता है। (पाप-पुण्य रूप दोनों कर्म) इसमें परमेश्वर के न्याय में भी कोई दोष नहीं आयेगा, क्योंकि जो भी इस स्थिति को प्राप्त करेगा, उसी के कर्माशय को नष्ट करेगा अन्य के नहीं। दूसरी मान्यता विद्वानों की है कि मुक्ति से पहले सब कर्म नष्ट नहीं होते केवल अविद्या आदिक्लेश ही नष्ट होते हैं, इस बात को मानने वाले के पास कोई विशेष प्रमाण नहीं है। इनकी मान्यता है कि जो मोक्ष होने से पहले कर्म शेष थे, उनके आधार पर मुक्ति से लौटकर जीवात्मा उनको भोगता है। जिनकी मान्यता ये है कि समस्त क्लेशों के साथ कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। वे मुक्ति से लौटने में परमात्मा की दया को देखते हैं कि मुक्ति की अवधि पूरी होने के बाद परमेश्वर जन्म देकर मुक्ति का प्रयास करने का पुनःअवसर दे रहे हैं।
(ग) आप सत्य को हिंसा की कोटि में रख रहे हैं, हिंसा ही मान रहे हैं, जबकि ऐसा है नहीं। सत्य और अहिंसा की परिभाषा को ठीक-ठीक जानने पर ऐसा प्रतीत नहीं होगा।महर्षि पतञ्जलि ने तो सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि को अहिंसा के पोषक माना है, ये सब अहिंसा को ही सिद्ध करने वाले हैं। आपने जो यह कहा कि पौराणिकों और अन्धविश्वासियों को सत्य बोलकर फटकारता हूँ तो उनको दुःख होता है। इस दुःख होने में सत्य दोषी नहीं है, अपितु वह व्यक्ति दोषी है जो सत्य को स्वीकार नहीं कर रहा और ऊपर से दुःखी हो रहा है।
अहिंसा की परिभाषा ऋषि ने लिखी- ‘‘सब प्रकार से, सब काल में, सब प्राणियों के साथ वैर छोड़ के प्रेम-प्रीति से वर्तना। इस परिभाषा के अनुसार यदि व्यक्ति सत्य बोलता है तो सत्य हिंसक हो ही नहीं सकता । यदि व्यक्ति वैर भाव रखते हुए किसी को दुखी करने के लिए सत्य बोलता है तो निश्चित ही वह हिंसक होगा। देखना यह है सत्य किस प्रयोजन से बोला जा रहा है। सत्य का ध्येय अहिंसा है, धर्म है, परोपकार है, ईश्वर है ऐसी स्थिति में सत्य को हिंसा कहना सर्वथा असंगत ही तो है।
कोई व्यक्ति हमसे दुःखी न हो, ऐसा करने के लिए यदि हम सत्य को छोड़ असत्य बोलते हैं तो भले ही उस व्यक्ति को तात्कालिक दुःख न हो, किन्तु उस असत्य से कालान्तर में वह अवश्य पीड़ित होगा और इसके विपरीत सत्य बोलने से तात्कालिक रूप से भले ही थोड़ी देर के लिए दुःखी हो, किन्तु कालान्तर में उसको सत्य से अपार सुख मिलेगा। ऐसा होने से सत्य को हिंसा नहीं कहा जा सकता।
आपने कहा- सत्य कड़वा ही होता है सो ठीक नहीं है।सत्य को तो शास्त्र ने अमृत कहा है। हाँ, कड़वाहट तब होती है, जब कोई सत्य को सुनना और समझना न चाहता हो। यदि व्यक्ति यथार्थ में सत्य को जानना समझना चाहता है तो उसको कभी भी सत्य कड़वा नहीं लगेगा, वरन वह सत्य उसको अमृत रूप लगेगा। यदि सत्य अहिंसा न होकर हिंसा होता तो ऋषि कभी इसको योग का अंग न बनाते। वेद व शास्त्र सत्य की महिमा न कहते। वेद तो असत्य को छोड़ सत्य के प्राप्त होने को कहता है- इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि मैं असत्य से छूट सत्य को प्राप्त होऊँ। उपनिषद्में कहा है-
सत्यमेव जयति नाऽनृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।
येना क्रमन्त्पृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्।।
सर्वदा सत्य की ही विजय और झूठ की पराजय होती है, इसलिए जिस सत्य से चल के धार्मिक ऋषि लोग जहाँ सत्य की निधि – परमात्मा है, उसको प्राप्त होकर आनन्दित हुए थे और अब भी होते हैं, उसका सेवन मनुष्य लोग क्यों न करें? और भी- न हि सत्यात्परमो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।।
यह निश्चित है कि न सत्य से परे कोई धर्म और न असत्य से परे कोई अधर्म है। इससे धन्य मनुष्य वे हैं जो सब व्यवहारों को सत्य ही से करते हैं और झूठ से युक्त कर्म किञ्चित मात्र भी नहीं करते हैं। ये सत्य की महिमा है, इसलिए सत्य को निंदित रूप से न देखें। जैसे अहिंसा सुख देने वाली है, वैसे ही सत्य भी सुख देने वाला है। अस्तु। – ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर।