Tag Archives: itihas pradushan

मैं इनका ऋणी हूँ : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

मैं इनका ऋणी हूँ :- ऋषि के जीवनकाल में चाँदापुर शास्त्रार्थ पर उसी समय उर्दू में एक पुस्तक छपी थी। तब तक ऋषि जीवन पर बड़े-बड़े ग्रन्थ नहीं छपे थे, जब पं. लेखराम जी ने अपने एक ग्रन्थ में उक्त पुस्तक के आधार पर यह लिखा कि शास्त्रार्थ के आरभ होने से पूर्व मुसलमानों ने ऋषि से कहा था कि हिन्दू व मुसलमान मिलकर ईसाइयों से शास्त्रार्थ करें। ऋषि ने यह सुझाव अस्वीकार कर दिया। जब मैंने ऋषि जीवन पर कार्य किया, इतिहास प्रदूषण पुस्तक में यह घटना दी तब यह प्रमाण भी मेरे ध्यान में था।
मुसलमान लीडरों डॉ. इकबाल, सर सैयद अहमद खाँ, मौलवी सना उल्ला व कादियानी नबी ने पं. लेखराम का सारा साहित्य पढ़ा। पण्डित जी के साहित्य पर कई केस चलाये गये।

पाकिस्तान में आज भी पण्डित जी के साहित्य की चर्चा है। किसी ने भी इस घटना को नहीं झुठलाया, परन्तु जब मैंने यह प्रसंग लिखा तो वैदिक पथ हिण्डौन सिटी व दयानन्द सन्देश आदि पत्रों में चाँदापुर शास्त्रार्थ पर लेख पर लेख छपे। मेरा नाम ले लेकर मेरे कथन को ‘इतिहास प्रदूषण’ बताया गया। मैंने पं. लेखराम की दुहाई दी। देहलवी जी, ठा. अमरसिंह, महाशय चिरञ्जीलाल प्रेम के नाम की दुहाई तक देनी पड़ी। किसी पत्र के सपादक व मालिक ने तो मेरे इतिहास का ध्यान न किया, न इन गुणियों पूज्य पुरुषों की लाज रखी। थोथा चना बाजे घना।

मैंने प्राणवीर पं. लेखराम का सन्मान बचाने के लिये उनके ग्रन्थ के उस पृष्ठ की प्रतिछाया वितरित कर दी। पं. लेखराम जी पर कोर्टों के निर्णय आदि पेश कर दिये। लेख देने वाले को तो मुझे कुछ नहीं कहना। इन पत्रों के स्वामियों व सपादकों का मैं आभार मानता हूँ।

मैं इनका ऋणी हूँ। यह वही लोग हैं जो नन्हीं वेश्या पर लेख प्रकाशित करके उसे चरित्र की पावनता का प्रमाण-पत्र दे रहे थे। इनका बहुत-बहुत धन्यवाद। इन पत्रों के स्वामी पं. लेखराम जी के ज्ञान की थाह क्या जानें।
विषदाता कह पत्थर मारे। क्या जाने किस्मत के मारे।।
सुधा कलश ले आया। उस जोगी का भेद न पाया।।

हाँ! मुझे इस बात पर आश्चर्य है कि वैदिक पथ पर श्री ज्वलन्त जी का सपादक के रूप में नाम छपता है। आप ने ऐसी गभीर बात पर चुप्पी साध ली। मुझ से बात तक न की। मेरा उनसे एक नाता है, उस नाते से उनका मौन अखरा और किसी से कोई शिकायत नहीं। जी भर कर मुझे कोई कोसे। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का लाभ उठाना चाहिये। कन्हैया, केजरीवाल व राहुल ने सबकी राहें खोल दी हैं।
‘फूँकों से यह चिराग बुझाया न जायेगा’

मुंशी इन्द्रमणि और इतिहास प्रदुषण: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

मुंशी इन्द्रमणि और इतिहास प्रदुषण

क्या  बालक से ऋषि ने ऐसी चर्चा की?

श्री भारतीय जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है-‘‘मुरादाबाद

से मुंशी इन्द्रमणि भी महर्षि से भेंट हेतु अलीगढ़ आये तथा

जीव के अनादित्व पर चर्चा करते रहे।’’1 यह दिसम्बर  1873

के अन्तिम सप्ताह की घटना है। प्रश्न यह उठता है कि सन् 1865

में जन्मा केवल आठ वर्षीय बालक क्या  मुरादाबाद से अकेले ऋषि

को मिलने आया? आप ही ने मुंशी जी का जन्म का वर्ष सन्

1865 माना है।

दूसरा प्रश्न यहाँ यह उठता है कि स्वामी अच्युतानन्द जी जीव

ब्रह्म के भेद विषय पर ऋषि से शंका समाधान करते हैं तो एक पूरक

प्रश्न पूछने पर महर्षि जी स्वामी अच्युतानन्द जी से कहते हैं कि

तुम अभी बालक हो। आगे चलकर इसे समझ सकोगे। ‘आर्य

मित्र’ के महर्षि जन्म शताब्दी  विशेषाङ्क में स्वयं स्वामी अच्युतानन्द

जी ने अपने एक लेख में यह घटना लिखी है।

स्वामी अच्युतानन्द जी तो सन् 1853 में जन्में थे। आप तो

तब यौवन की चौखट पर पाँव धर चुके थे। मुंशी इन्द्रमणि आठ वर्ष

का बालक जीव के अनादित्व विषय पर चर्चा करने निकला है।

यहाँ ऋषि जी शिशु इन्द्रमणि से दार्शनिक चर्चा का आनन्द लेते हैं।

इस पर हम क्या  कहें? उर्दू में एक लोकोज़्ति हैं-‘‘अकल बड़ी

या भैंस’’।

ऋषि ने एक बार मुंशी जी को ‘बुज़र्ग’ भी कहा था। वह

ऋषि जी से कोई बीस वर्ष बड़े थे। स्वयं अकेले अलीगढ़ आये थे।

यह घटना हम सत्य ही मानते हैं।

मुंशी जी का लेखन कार्य

अपवाद रूप में संसार में कई बालक बहुत छोटी आयु में

बहुत अच्छे साहित्यकार बनकर चमके। हमारे देश में ही श्री ज्ञानेश्वर

महाराज, पं0 गुरुदज़ जी विद्यार्थी, पं0 चमूपति तथा वीर सावरकर

ने बहुत छोटी आयु में गद्य व पद्य सृजन करके यश पाया, परन्तु

पाठक हम से सहमत होंगे कि जन्म लेने से पूर्व ही कोई पुस्तक

लिख भी दे और छपवा भी दे-यह तो सज़्भव ही नहीं। जन्म लेते

ही कोई पुस्तक लिखकर छपवा दे यह भी नहीं माना जा सकता।

तीन और चार वर्ष की आयु में ही कोई सिद्धहस्त लेखक विद्वान्

बनकर ग्रन्थ पर ग्रन्थ लिखकर छपवा दे-यह भी तो सज़्भव नहीं

दीखता।

परन्तु महान् व्यज़्ति असज़्भव को सज़्भव कर दिखाने की

क्षमता रखते हैं। भारतीय जी ने सन् 1858 (जन्म से पूर्व),

सन् 1865 जन्म के समय, सन् 1868, तीन वर्ष की आयु में

और सन् 1869 चार वर्ष की आयु में भी इन्द्रमणि जी से ग्रन्थ

लिखवाये व छपवाये।1

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने बिना पढ़े, बिने विचारे इन दोनों

पुस्तकों के प्राक्कथन  लिख डाले। विहंगम दृष्टि से पढ़ने पर तो

ऐसी पुस्तकों की गड़बड़ पकड़ में कहाँ आती है। इस लेखक की

समीक्षा पढ़कर स्वामी जी ने भारतीय जी से कहा था कि अपने

ग्रन्थ के साथ एक शुद्धि-अशुद्धि पत्र लगायें। इसके बिना

बिक्री नहीं होनी चाहिए, परन्तु भारतीय जी के अहं ने उनका

आदेश स्वीकार नहीं किया। तभी मैंने एक लेख में स्वामी जी के

इस कथन का उल्लेख कर दिया।

मरणोपरान्त मुंशी जी से लेखन कार्य करवाया

भारतीय जी की लगन, परिश्रम व उत्साह प्रशंसा योग्य है।

सृष्टि-नियम तो यह है कि जीते जी ही किसी व्यज़्ति से कोई पुस्तक

लिखवाई जा सकती है। मरणोपरान्त कोई आपके लिए एक

पृष्ठ लिखकर नहीं दे सकता। सृष्टि-नियम की चिन्ता न करके

भारतीय जी ने मुंशी इन्द्रमणि जी से एक सहस्र पृष्ठों से ऊपर

का ग्रन्थ लिखवा भी लिया और छपवा भी दिया। इस पुस्तक

का नाम है ‘आमादे हिन्द’ इसी को ‘इन्द्रवज्र’ नाम से प्रसिद्धि प्राप्त

हुई। भारतीय जी ने पं लेखराम जी के ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद का

सज़्पादन करते हुए इसका नाम ‘आमदे हिन्द’ कर दिया है।1

किसी से पूछ लेते तो इस अनर्थ से बचा जा सकता था। हमने

ऋषि जीवन में इसका शुद्ध नाम ‘आमादे हिन्द’ देकर यह कुचक्र

रोका है। ध्यान देने योग्य तथ्य तो यह है कि पं0 लेखराम जी का

बलिदान सन् 1897 में हुआ। वह ऋषि जीवन में1 तथा अपने

साहित्य में इन्द्र वज्र की चर्चा करते हैं। पण्डित जी लिखित ऋषि

जीवन सन् 1897 में ही प्रकाशित हो गया यह भारतीय जी मानते

हैं। इस मूल उर्दू ग्रन्थ में भी ‘इन्द्र वज्र’ की मुंशी इन्द्रमणि स्वयं

चर्चा करते हैं।2 इससे भी प्रमाणित हो गया कि यह ग्रन्थ मुंशी

जी ने जीते जी लिख दिया और छप भी गया।

परन्तु भारतीय जी दृढ़तापूर्वक लिखते हैं कि मुंशी जी ने सन्

1901 में इन्द्र वज्र लिखा व छपवाया।3 अब समझदार सज्जन

ही हमें सुझावें कि हम उनके इस कथन पर ‘सत्य वचन महाराज’

कैसे कह सकते हैं?

गुणी विद्वान् इन तथ्यों पर विचार करें और नीर क्षीर विवेक से

काम लेकर जो सत्य हो उसे स्वीकार कर इतिहास प्रदूषण को कुछ

तो रोकें।

 

  1. द्रष्टव्य, नवजागरण के पुरोधा, भाग पहला, पृष्ठ 401
  2. द्रष्टव्य, महर्षि दयानन्द के भज़्त, प्रशंसक और सत्संगी, पृष्ठ 17

46 इतिहास-प्रदूषण इतिहास-प्रदूषण 47

  1. द्रष्टव्य, पं0 लेखरामकृत हिन्दी जीवन चरित्र, सन् 2007, पृष्ठ 312
  2. द्रष्टव्य, उर्दू जीवनचरित्र महर्षि स्वामी दयानन्द, लेखक पं0 लेखराम, पृष्ठ 293
  3. द्रष्टव्य, ‘आर्य लेखक कोश’ पृष्ठ 23

 

माई भगवती जीः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

माई भगवती जीः ऋषि के पत्र-व्यवहार में माई भगवती जी का भी उल्लेख है। ऋषि मिशन के प्रति उनकी सेवाओं व उनके जीवन के बारे में अब पंजाब में ही कोई कुछ नहीं जानता, शेष देश का क्या कहें? पूज्य मीमांसक जी की पादटिप्पणी की चर्चा तक ही हम सीमित रह गये हैं। पंजाब में विवाह के अवसर पर वर को कन्या पक्ष की कन्यायें स्वागत के समय सिठनियाँ (गन्दी-गन्दी गालियाँ) दिया करती थीं। वर भी आगे तुकबन्दी में वैसा ही उत्तर दिया करता था। आर्य समाज ने यह कुरीति दूर कर दी। इसका श्रेय माता भगवती जी की रचनाओं को भी प्राप्त है। मैंने माताजी के ऐसे गीतों का दुर्लभ संग्रह श्री प्रभाकर जी को सुरक्षित करने के लिये भेंट किया था।

मैं नये सिरे से महर्षि से भेंट की घटना से लेकर माताजी के निधन तक के अंकों को देखकर फिर विस्तार से लिखूँगा। जिन्होंने माई जी को ‘लड़की’ समझ रखा है, वे मीमांसक जी की एक टिप्पणी पढ़कर मेरे लेख पर कुछ लिखने से बचें तो ठीक है। कुछ जानते हैं तो प्रश्न पूछ लें। पहली बात यह जानिये कि माई भगवती लड़की नहीं थी। ‘प्रकाश’ में प्रकाशित उनके साक्षात्कार की दूसरी पंक्ति में साक्षात्कार लेने वालों ने उन्हें ‘माता’ लिखा है। आवश्यकता पड़ी तो नई सामग्री के साथ साक्षात्कार फिर से स्कैन करवाकर दे दूँगा। श्रीमती व माता शदों के प्रयोग से सिद्ध है कि उनका कभी विवाह अवश्य हुआ था।

महात्मा मुंशीराम जी ने उनके नाम के साथ ‘श्रीमती’ शद का प्रयोग किया है। इस समय मेरे सामने माई जी विषयक एक लोकप्रिय पत्र के दस अंकों में छपे समाचार हैं। इनमें किसी में उन्हें ‘लड़की’ नहीं लिखा। क्या जानकारी मिली है- यह क्रमशः बतायेंगे। ऋषि के बलिदान पर लाहौर की ऐतिहासिक सभा में (जिसमें ला. हंसराज ने डी.ए.वी.स्कूल के लिए सेवायें अर्पित कीं) माई जी का भी भाषण हुआ था। बाद में माई जी लाहौर, अमृतसर की समाजों से उदास निराश हो गईं। उनका रोष यह था कि डी.ए.वी. के लिए दान माँगने की लहर चली तो इन नगरों के आर्यों ने स्त्री शिक्षा से हाथाींच लिया। माता भगवती 15 विधवा देवियों को पढ़ा लिखाकर उपदेशिका बनाना चाहती थी, परन्तु पूरा सहयोग न मिलने से कुछ न हो सका।

माई जी ने जालंधर, लाहौर, गुजराँवाला, गुजरात, रावलपिण्डी से लेकर पेशावर तक अपने प्रचार की धूम मचा दी थी। आर्य जन उनको श्रद्धा से सुनते थे। उनके भाई श्री राय चूनीलाल का उन्हें सदा सहयोग रहा। ‘राय चूनीलाल’ लिखने पर किसी को चौंकना नहीं चाहिये। जो कुछ लिखा गया है, सब प्रामाणिक है। माई जी संन्यासिन नहीं थीं। उनके चित्र को देखकर यहा्रम दूर हो सकता है। वह हरियाना ग्राम की थीं, न कि होशियारपुर की। पंजाबी हिन्दी में उनके गीत तब सारे पंजाब में गाये जाते थे। सामाजिक कुरीतियों के निवारण में माई जी के गीतों का बड़ा योगदान माना जायेगा। मैंने ऋषि पर पत्थर मारने वाले पं. हीरानन्द जी के  मुख से भी माई जी के गीत सुने थे। उनके जन्म ग्राम, उनकी माता, उनके भाई की चर्चा पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती है, परन्तु पति व पतिकुल के बारे में कुछ नहीं मिलता। हमने उन्हीं के क्षेत्र के स्त्री शिक्षा के एक जनक दीवान बद्रीदास जी, महाशय चिरञ्जीलाल जी आदि से यही सुना था कि वे बाल विधवा थीं।

इतिहास प्रदूषण – प्राक्कथन : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु  

आर्य समाज के इतिहास में मिलावट की दुखद कहानी 

इस विनीत ने इस पुस्तक को कालक्रम से नहीं लिखा। न ही

निरन्तर बैठ कर लिखा। जब-जब समय मिला जो बात लेखक के

ध्यान में आई अथवा लाई गई, उसे स्मृति के आधार पर लिखता

चला गया। इन पंक्तियों के लेखक ने आर्यसमाज से ऐसे संस्कार

विचार पाये कि अप्रामाणिक कथन व लेखन इसे बहुत अखरता है।

बहुत छोटी आयु में पं0 लेखराम जी, आचार्य रामदेव जी, पं0

रामचन्द्र जी देहलवी, पं0 शान्तिप्रकाश जी, पं0 लोकनाथ जी

आदि द्वारा दिये जाने वाले प्रमाणों व उद्धरणों की सत्यता की चर्चा

अपने ग्राम के आर्यों से सुन-सुन कर लेखक ने इस गुण को अपने

में पैदा करने की ठान ली।

भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि जी, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी

और स्वामी वेदानन्द जी महाराज को जब पहले पहल सुना तो उन्हें

बहुत सहज भाव से विभिन्न ग्रन्थों को उद्धृत करते सुना। उनकी

स्मरण शज़्ति की सब प्रशंसा किया करते थे। उनको बहुत कुछ

कण्ठाग्र था। उनके द्वारा दिये गये प्रमाणों, तथ्यों तथा अवतरणों

(Quotations) में आश्चर्यजनक शुद्धता ने इन पंक्तियों के लेखक

पर गहरी व अमिट छाप छोड़ी। पुराने आर्य विद्वानों की यह विशेषता

आर्यसमाज की पहचान बन गई। अप्रमाणिक कथन को आर्य नेता,

विद्वान् व संन्यासी तत्काल चुनौती दे देते थे।

इतिहास केसरी पं0 निरञ्जजनदेव जी अपने आरंभिक  काल

का एक संस्मरण सुनाया करते थे। देश-विभाजन के कुछ समय

पश्चात् आर्यसमाज रोपड़ (पंजाब) के उत्सव पर पं0 निरञ्जनदेव

जी ने व्याज़्यान देते हुए दृष्टान्त रूप में एक रोचक घटना सुनाई।

दृष्टान्त तो अच्छा था, परन्तु यह घटना घटी ही नहीं थी। यह तो एक

गढ़ी गई कहानी थी। पूज्यपाद स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने अपने

शिष्य का व्याख्यान  बड़े ध्यान से सुना।

बाद में पण्डित जी से पूछा-‘‘यह घटना कहाँ से सुनी? क्या

कहीं से पढ़ी है?’’

पं0 निरञ्जनदेव ने झट से किसी मासिक के अंक का पूरा अता

पता तथा पृष्ठ संख्या  बताकर गुरु जी से कहा-‘‘मैंने उस पत्रिका

में छपे लेख में इसे पढ़ा था।’’

शिष्य से प्रमाण का पूरा अता-पता सुनकर महाराज बड़े प्रसन्न

हुए और कहा-‘‘प्रेरणा देने के लिए यह दृष्टान्त है तो अच्छा,

परन्तु यह घटना सत्य नहीं है। ऐसी घटना घटी ही नहीं।’’

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, स्वामी आत्मानन्द जी, श्री महाशय

कृष्ण जी नये-नये युवकों से भूल हो जाने पर उन्हें ऐसे ही सजग

किया करते थे।

अंजाने में भूल हो जाना और बात है, परन्तु जानबूझ कर और

स्वप्रयोजन से इतिहास प्रदूषित करने के लिए चतुराई से मनगढ़न्त

कहानियाँ, बढ़ा-चढ़ाकर, घटाकर हदीसें गढ़ना यह देश, धर्म व

समाज के लिए घातक नीति है।

आर्यसमाज के आरम्भिक  काल में ऋषि दयानन्द जी के सुधार

के कार्यों से प्रभावित होकर कई बड़े-बड़े व्यक्ति  आर्यसमाज में

आए। वे ऋषि के धार्मिक तथा दार्शनिक सिद्धान्तों में आस्था विश्वास

नहीं रखते थे। इन्होंने अपने परिवारों में, अपने व्यवहार, आचार में

वैदिक धर्म का प्रवेश ही न होने दिया। इन बड़े लोगों को न समझने

से आर्यसमाज की बहुत क्षति हुई। इनमें से कई प्रसिद्धि पाकर

समाज को छोड़ भी गये। इतिहास-प्रदूषण का यह भी एक कारण

बना।

मेहता राधाकिशन द्वारा लिखित आर्यसमाज का इतिहास (उर्दू)

में क्या  इतिहास था? लाला लाजपतराय जी ने अपनी अंग्रेज़ी

पुस्तक में कुछ संस्थाओं व पीड़ितों की सहायता पर तो लिखा है,

परन्तु पं0 लेखराम जी, वीर तुलसीराम, महात्मा नारायण स्वामी

आदि हुतात्माओं, महात्माओं का नाम तक नहीं दिया। इसे आप

क्या  कहेंगे?

कुछ वर्षों से पुराने विद्वानों और महारथियों के उठ जाने से

वक्ता  लेखक जो जी में आता है लिख देते हैं और जो मन में आता

है बोल देते हैं। कोई रोकने-टोकने वाला रहा नहीं। इस आपाधापी

व मनमानी को देखकर मन दुखी होता है। सम्पूर्ण आर्य जगत् से

आर्यजन मनगढ़न्त हदीसों को पढ़कर लेखक को प्रश्न पूछते रहते हैं।

इतिहास की यह तोड़-मरोड़ एक सांस्कृतिक आक्रमण

है। बहुत ध्यान से इस पर विचारा तो पता चला कि सन् 1978 से

ऋषि दयानन्द जी की जीवनी की आड़ लेकर डॉ0 भवानीलाल जी

ने आर्यसमाज के इतिहास को प्रदूषित करने का अभियान छेड़ रखा

है। ‘आर्यसन्देश’ साप्ताहिक दिल्ली में एक लेख देकर स्वयं को

धरती तल पर आर्यसमाज का सबसे बड़ा इतिहासकार घोषित

करके जो जी में आता है लिखते चले जा रहे हैं।

आस्ट्रेलिया के डॉ0 जे0 जार्डन्स ने अंग्रेज़ी में लिखी अपनी

पुस्तक में कोलकाता की आर्य सन्मार्ग संदर्शिनी सभा की चर्चा

करते हुए महर्षि के बारे दो भ्रामक, निराधार व आपत्तिजनक  बातें

लिखी हैं। श्रीमान् जी ने आज तक इन पर दो पंक्तियाँ  नहीं लिखीं।

डॉ0 जार्डन्स ने ऋषि को उद्देश्य से भटका हुआ भी लिखा है।

डॉ0 महावीर जी मीमांसक ने इस आक्षेप का अवश्य उत्तर  दिया है।

स्वामी श्रद्धानन्द जी पर एक मौलाना ने एक लाञ्छन लगाया

था। वह तो स्वामी जी पर अपनी पुस्तक में डॉ0 जार्डन्स महोदय ने

दिया, परन्तु उसका उत्तर नहीं दिया। न हम जैसों से पूछा। डॉ0

भारतीय जी स्वप्रयोजन से, डॉ0 जार्डन्स का अपने ‘नवजागरण के

पुरोधा’ में चित्र देते हैं। उत्तर  ऐसे आक्षेपों का आज तक नहीं दिया।

किसी वार प्रहार का कभी सामना किया? विरोधियों के

आपज़िजनक लेखों पर मौन साधने की आपकी नीति रही है।

आर्यसमाज में भी ‘योगी का आत्म चरित’ के प्रतिवाद के लिए

दीनबन्धु, आदित्यपाल सिंह जी व सच्चिदानन्द जी पर तो लेख पर

लेख दिये, परन्तु इन सबको आशीर्वाद देने वाले महात्मा आनन्द

स्वामी जी से उनकी इस महाभयंकर भूल पर कुछ कहने व लिखने

का साहस ही न बटोर सके। अपना हानि लाभ देखकर ही आप

लिखते चले आये हैं।

आर्यसमाज के बलिदानी संन्यासियों, विद्वानों, लेखकों

तथा शास्त्रार्थ महारथियों ने ऋषि को समझा, उनके सिद्धान्तों

को समझा, उनके जीवन से प्रेरणा पाकर ऋषि के मिशन की

रक्षा, वैदिक धर्म के प्रचार के लिए अपने शीश कटवाये,

प्राण दिये और लहू की धार देकर एक स्वर्णिम इतिहास बनाया।

मत-पन्थों से ऋषि की विचारधारा का लोहा मनवाया। ऐसे

गुणियों, मुनियों, प्राणवीरों को नीचा दिखाते हुए भारतीय जी

ने लिखा है-‘‘मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि उस महामानव

के जीवन एवं कृतित्व तथा उसके वैचारिक अवदान का

वस्तुनिष्ठ, तलस्पर्शी तथा मार्मिक, साथ ही भावना प्रवण

विश्लेषण जैसा आर्यसमाजेतर अध्येताओं ने किया है, वैसा

वे लोग नहीं कर सके हैं, जो दयानन्द के दृढ़ अनुयायी होने

का दावा करते हैं, अथवा जो उनकी विचारधारा से अपनी

प्रतिबद्धता की कसमें खाते नहीं थकते।’’1

श्रीमान् जी रौमाँ रौलाँ, दीनबन्धु सी0एफ़0 एण्ड्रयूज़ को ऋषि

की विचारधारा का मार्मिक विश्लेषण करने के लिए अपूर्व बताते

हैं। इसी प्रकार भारतीय लेखकों में देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, श्री

अरविन्द घोष तथा साधु टी0एल0 वास्वानी जैसी योग्यता व क्षमता

इस प्रमाणपत्र प्रदाता को किसी भी आर्यसमाजी लेखक में दिखाई

नहीं दी।1 जिनके नाम श्रीमान् ने लिये हैं उन्होंने आर्यसमाज को

कौनसा ज्ञानी, बलिदानी और समर्पित सेवक दिया? कोई गुरुदत्त ,

कोई लेखराम या कोई गंगाप्रसाद, अरविन्द जी आदि ने दिया क्या ?

इन्हें क्या  पता कि श्री वास्वानी तो पं0 चमूपति जी की लेखन

शैली, विद्वज़ा व ऋषि-भज़्ति पर मुग्ध थे।

कुँवर सुखलाल जी ने कभी लिखा था-

सब मज़ाहब में ऐसी मची खलबली,

गोया महशर का आलम बपा कर गया।

तर्क के तीर बर्साय इस ज़ोर से,

होश पाखण्डियों के हवा कर गया॥

फिर लिखा-

नमस्ते लब पै आते ही मुख़ालिफ़ चौंक पड़ते थे।

समाजी नाम से पाखण्डियों के होश उड़ते थे॥

विरोधियों, विधर्मियों पर ऋषि की विचारधारा की धाक किन्होंने

बिठाई? मत पन्थों में खलबली मचाने वाले कौन थे? ऋषि की

सजीली ओ3म् पताका पहराने वाले कौन थे? ऋषि के सिद्धान्तों व

मन्तव्यों को समझकर ऋषि मिशन पर जानें वारने वाले, सर्वस्व

लुटाने वाले तथा दुःख-कष्ट झेलने वाले कौन थे?

सब जानकार पाठक कहेंगे कि यह पं0 लेखराम का वंश था।

जो स्वामी दर्शनानन्द जी से लेकर पं0 नरेन्द्र और पं0 शान्तिप्रकाश

जी तक इस मिशन के लिए तिल-तिल जले व जिये। क्या  ऋषि को

समझे बिना उसकी राह पर शीश चढ़ाने वाले, यातनाएँ सहने वाले

स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द,

स्वामी वेदानन्द, पं0 रामचन्द्र देहलवी, पं0 गंगाप्रसाद सब मूर्ख थे

जो बिना सोचे समझे ऋषि मिशन पर जवानियाँ वार गये?

अरविन्द घोष महान् थे, परन्तु अन्त तक काली माता के ही

पूजक रहे। वास्वानी जी बहुत अच्छे अंग्रेज़ी लेखक थे, परन्तु

अपने मीरा स्कूल के बच्चों को उनकी परीक्षा के समय उनका पैन

छू कर आशीर्वाद देते थे। बच्चों में पैन स्पर्श करवाने के लिए होड़

लग जाती थी। क्या  वास्वानी जी ने किसी को वैदिक धर्मी बनाया?

जब जब विरोधियों ने महर्षि दयानन्द जी के निर्मल-जीवन पर

कोई आक्षेप किया, कोई आपज़िजनक पुस्तक लिखी तो उज़र

किसने दिया? ऋषि के नाम लेवा उत्तर  देने के लिए आगे आये

अथवा रोमा रोलाँ, श्री अरविन्द व वास्वानी महात्मा ने जान

जोख़िम में डालकर उत्तर  दिया? अन्धविश्वासों का, पाखण्ड-

खण्डन का और वैदिक धर्म के मण्डन का कठिन कार्य शीश तली

पर धर कर स्वामी दर्शनानन्द, पं0 गणपति शर्मा, स्वामी नित्यानन्द,

पं0 धर्मभिक्षु, पं0 चमूपति, लक्ष्मण जी, पं0 लोकनाथ, पं0 नरेन्द्र,

पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय करते रहे अथवा उन लोगों ने किया

जिनका नाम लेकर डॉ0 भारतीय ‘कसमें खाने’ की ऊटपटांग

बात बनाकर आर्य महापुरुषों को लताड़ लगा रहे हैं।

हम श्रीमान् की करनी कथनी को देखते रहे। ऋषि जीवनी का

सर्वज्ञ बनकर प्राणवीर पं0 लेखराम तथा सब आर्यों को नीचा

दिखाने का कुकर्म करने वाले इस देवता ने महाराणा सज्जनसिंह

जी, केवल कृष्ण जी आदि पर तो दो-दो पृष्ठ लिख कर अपनी

नीतिमज़ा दिखा दी और अंग्रेज़ भज़्त प्रतापसिंह पर 47 पृष्ठ लिखकर

अपने को धन्य-धन्य माना। ‘अवध रीवियु’ में प्रतापसिंह ने अपनी

जीवनी छपवाई उसमें ऋषि का नाम तक नहीं। राधाकिशन

लिखित प्रतापसिंह की जीवनी जोधपुर राजपरिवार ने छापी

है। इस पुस्तक में भी ऋषि के जोधपुर आगमन पर कुछ नहीं।

फिर भी उसके शिकार के, गोरा भज़्ति के चित्र व प्रसंग न देकर

प्रतापसिंह का गुणगान करके राजपरिवार को तो रिझा ही लिया।

नन्ही वेश्या को चरित्र की पावनता का प्रमाण पत्र देकर इतिहास

को प्रदूषित करने की रही सही कमी पूरी कर दी।

सत्य का गला घोंटना इनका स्वभाव है। हम सर्वज्ञ नहीं हैं।

अल्पज्ञ जीव से भूल तो हो ही जाती है, परन्तु हम जानबूझ कर भूल

करना पाप मानते हैं। देश व जाति को भ्रमित करना तो और भी पाप

है। हम अपनी प्रत्येक भूल से जो भी अनजाने से हो जाये, सुधार के

लिए व खेद प्रकट करने के लिए हर घड़ी तत्पर हैं।

इतिहास प्रदूषण अभियान के हीरो श्री भवानीलाल जी को

पता चला कि यति मण्डल इस लेखक से आर्य संन्यासियों पर एक

ग्रन्थ लिखवा रहा है। तब आप बिन बुलाये पहली व अन्तिम बार

यति मण्डल की बैठक में पहुँच गये और कहा, मैंने आर्यसमाज के

साधुओं पर एक पुस्तक लिखी है, यति मण्डल इसे छपवा दे। इस

पर स्वामी सर्वानन्द जी बोले, ‘‘यह कार्य तो जिज्ञासु जी को सौंपा

जा चुका है, वे लिखेंगे। इस पर भवानीलाल जी बोले, ‘‘जिज्ञासु

जी तो लिखेंगे, मैंने तो पुस्तक लिख रखी है।’’ स्वामी सर्वानन्द जी

यह दुस्साहस देखकर दंग रह गये। स्वामी जी ने आचार्य नन्दकिशोर

जी से इनके बारे जो बात की, वह यहाँ क्या  लिखें। तब स्वामी

ओमानन्द जी ने भी इन्हें कुछ सुनाईं। प्रश्न यह है कि इनका वह

महज़्वपूर्ण इतिहास ग्रन्थ फिर कहाँ छिप गया? वह अब तक छपा

क्यों  नहीं? जिज्ञासु ने तो एक के बाद दूसरे और दूसरे के पश्चात्

तीसरे चौथे संन्यासी पर नये-नये ग्रन्थ दे दिये।

गंगानगर आर्यसमाज ने इस लेखक का सज़्मान रखा। हमने

स्वीकृति देकर भी सम्मान  लेना अस्वीकार कर दिया। समाज वालों

ने यहां आकर सस्नेह दबाव डाला।

‘‘यह प्रेम बड़ा दृढ़ घाती है’ ’

हमें स्वीकृति देनी पड़ी। सम्मान  वाले दिन श्रीमान् ने श्री

अशोक सहगल जी प्रधान को घर से सन्देश भेजा, ‘‘मैं जिज्ञासु जी

के साहित्य पर बोलूँगा, मुझे बुलवाओ।’’ उन्होंने कहा, ‘‘आ जाओ।

रिक्शा  का किराया दे दिया जायेगा।’’ समाज ने मेरे विषय में (मेरे

रोकने पर भी) एक स्मारिका निकाली। उसमें भारतीय जी ने लेख

दिया कि ‘गंगा ज्ञान सागर’ जो चार भागों में छपा है निरुद्देश्य (At Random)  है। इनकी  उत्तम पवित्र सोच पर कवि की ये पंज़्तियाँ

याद आ गईं-

ख़ुदा मुझको ऐसी ख़ुदाई न दे।

कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे॥

देश की आध दर्जन प्रादेशिक भाषाओं में इस ग्रन्थमाला का

अनुवाद मेरी अनुमति से किसी न किसी रूप में छपता चला आ

रहा है। आर्य विद्वानों ने, समाजों ने इनके उपर्युज़्त फ़तवे की

धज्जियाँ उड़ा कर रख दी हैं। मैंने अनुवाद छपवाने वालों से किसी

पारिश्रमिक की कोई माँग ही नहीं की।

हिण्डौन में पुरोधा के विमोचन के लिए यह ट0न0चतुर्वेदी जी

को लेकर गये। या तो चतुर्वेदी जी बोले या यह स्वयं अपने ग्रन्थ पर

बोले। डॉ0 श्री कुशलदेव जी तथा यह लेखक भी वहीं उपस्थित

थे। ऋषि जीवन पर कुछ जानने वालों में हमारी भी गिनती है।

भारतीय जी को अपनी रिसर्च की पोल खुलने का भय था। अपराध

बोध इन्हें कंपा  रहा था। इन्हें हम दोनों को बोलने के लिए कहने

की हिज़्मत ही न पड़ी। इनको डर था कि इनके इतिहास प्रदूषण का

कच्चा चिट्ठा न खुल जाये। उस कार्यक्रम का संयोजन अपने आप

हाथ में ले लिया। हृदय की संकीर्णता व सोच की तुच्छता को सबने

देख लिया। हम आने लगे तो कुशलदेव जी ने अपने ग्रन्थ के

विमोचन के लिए हमें रोक लिया। यह अपना कार्यक्रम करके फिर

नहीं रुके। गंगानगर व हिण्डौन की घटना दिये बिना इतिहास

प्रदूषण अभियान का इतिहास अधूरा ही रहता।

सत्य की रक्षा के लिए, इतिहास-प्रदूषण को रोकने के लिए,

पं0 लेखराम वैदिक मिशन के लिए यह पुस्तक लिखी है। मिशन

के कर्मठ युवा कर्णधारों के स्नेह सौजन्य के लिए हम हृदय से

आभार मानते हैं। हम जानते हैं कि जहाँ कुछ महानुभाव आर्यसमाज

के इतिहास को विकृत व प्रदूषित करने वालों के अपकार की पोल

खुलने पर हमें जी भर कर कोसेंगे, वहाँ पर सत्यनिष्ठ, इतिहास प्रेमी

और ऋषि भज़्त आर्यजन हमारे साहस व प्रयास के लिए हमारी

सेवाओं व तथ्यों की ठीक-ठीक जानकारी देने के लिए धन्यवाद भी

अवश्य देंगे। कुछ शुभचिन्तक यह भी कहेंगे कि आपको इतिहास

प्रदूषित करने वालों के विकृत इतिहास का खण्डन करने से ज़्या

मिला? इससे क्या  लाभ? देखो तो! युग कैसा है-

सच्च कहना हमाकत है और झूठ ख़िुरदमन्दी

इक बाग़ में इक कुमरी गाती यह तराना थी

वोह और ज़माना था, यह और ज़माना है

ऐसा कहने वालों की बात भी अपने स्थान पर ठीक है। सत्य

लिखना बोलना आज मूर्खता है और असत्य लिखना ख़िरदरमंदी

(बुद्धिमज़ा) है। एक वाटिका में एक कोकिला ठीक ही तो गा रही

थी कि यह और युग है। पहले और युग था। हमारा किसी से

व्यज़्तिगत झगड़ा नहीं। हमने जो कुछ लिखा है ऋषि मिशन की

रक्षा के लिए लिखा है।

आर्यजाति का एक सेवक

राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

स्वामी श्रद्धानन्द बलिदान पर्व वेद सदन, गली नं0 6

संवत् 2071 वि0 नई सूरज नगरी, अबोहर-152116

 

 

‘इतिहास प्रदूषण’ पर आक्षेप: प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

ः- एक लबे समय से आर्य समाज में इतिहास प्रदूषण के महारोग और आन्दोलन को गभीरता से जाना, समझा फिर इस नाम से एक पुस्तक लिखी। एक-एक बात का प्रमाण दिया। अपनी प्रत्येक पुस्तक के प्राक्कथन में यह लिखना इस लेखक का स्वभाव बन गया है कि यदि जाने, अनजाने से, अल्पज्ञता से, स्मृति दोष से पुस्तक में कोई भूल रह गई हो तो गुणियों के सुझाने पर अगले संस्करण में दूर कर दी जावेगी। परोपकारी में कई बार स्मृति दोष से किसी लेख में पाई गई भूल पर निसंकोच खेद प्रकट किया। यह पता ही था कि इस पुस्तक पर खरी-खरी लिखने पर भी कुछ कृपालु कोसेंगे, खीजेंगे। उनका तिलमिलाना स्वभाविक ही है। कुछ लोगों ने नर्िाय होकर स्वप्रयोजन से आर्य समाज के इतिहास को प्रदूषित किया है।

दर्शाई गई किसी भूल, गड़बड़, मिलावट, बनावट व गड़बड़ को तो कोई झुठला नहीं सका। लेखक की दो भूलों को खूब उछाला जा रहा है। सेाच-सोच कर हमारे परम कृपालु भावेश मेरजा जी ने एक प्रश्न भी पूछा है सेवा का एक अवसर देने पर अपने बहुत प्यारे भावेश जी का हृदय से आभार मानना हमारा कर्त्तव्य बनता है।

यह चूक आपने पकड़ी है कि देवेन्द्र बाबू के ग्रन्थ में भी एक स्थान पर प्रतापसिंह ने ऋषि से पूछा कि यदि आपको अली मरदान ने विष दिया हो तो…………………

दूसरी चूक यह बताई गई कि भारतीय जी ने अपने ग्रन्थ में एक स्थान पर नन्हीं को वेश्या लिखा है। मेरा यह लिखना कि उन्होंने कहीं भी उसे वेश्या नहीं लिखा ठीक नहीं।

मेरा निवेदन है कि ये दोनों भूलें असावधानी से हो गई। इसका खेद है। दुःख है। भूल स्वीकार है। प्राक्कथन में दिये आश्वासन को पूरा किया जाता है। क्या भावेश जीाी नैतिक साहस का परिचय दे कर पुस्तक में दर्शाई गई आपके महानायक की एक-एक भूल को स्वीकार कर इस पाप पर कुछ रक्तरोदन करेंगे? इतिहास प्रदूषण का दूसराााग भी अब छपेगा। उसमें महानायक जी के कुछ पत्र पढ़कर हमें कोसने वाले चौंक जायेंगे। बस प्रतीक्षा तो करनी पड़ेगी ।

प्रतापसिंह ने ऋषि से विष दिये जाने की बात कब की? यह तो बता देते। वह जोधपुर की राज परपरा के अनुसार विष दिये जाने के 27 दिन के पश्चात् ऋषि से मिलने आया। तब ऋषि क्या होश में थे? मूर्छा का उल्लेख बार-बार मिलता है। प्रतापसिंह ने केवल ऋषि का हालचाल ही पूछा था। विष की कतई कोई चर्चा नहीं हुई। वह बस पूछताछ करके चला गया। ऋषि का पता पूछने जोधपुर तो राजपरिवार आया नहीं। ये सारी जानकारी देवेन्द्र बाबू व भारतीय जी ने पं. लेखराम जी के ग्रन्थ से ली है। वही सबका स्रोत है। विष की बात तो जोड़ी गई है। यह गढ़न्त है। पं. लेखराम जी ने एक – एक दिन की घटना तत्कालीन ‘आर्य समाचार’ मासिक मेरठ का नाम लेकर अपने ग्रन्थ में दी है। ‘आर्य समाचार’ का वह ऐतिहासिक अंक आज धरती तल पर केवल जिज्ञासु के पास है। उसके पृष्ठ 213 पर प्रतापसिंह के दर्शनार्थ जाने का उल्लेख है। कोई बात हुई ही नहीं। हदीस गढ़ने वाला कोई भी हो, है यह हदीस। तब ठा. भोपाल सिंह व जेठमल तो वहीं थे। किसी ने कभी यह गढ़न्त न सुनाई । शेष चर्चा फिर करेंगे। जिसमें हिमत हो इसका प्रतिवाद करे।

एक नया प्रश्नः- भावेश जी इस समय अकारण आवेश में हैं। वह पूछते हैं यह कहाँ लिखा है कि माई भगवती लड़की नहीं बाल विधवा थी? श्रीमान् जी उत्तर दक्षिण के आर्य व अन-आर्य समाजी तो छोटी-छोटी घटनायें इस सेवक से पूछते रहते हैं और आप पंजाब में कभी घर-घर में चर्चित माई जी के बारे में इस साहित्यिक कुली से ‘‘कहाँ लिखा है?’’ यह पूछते हैं।

महोदय हमने माई जी के साथ वर्षों कार्य करने वाले मेहता जैमिनि जी (आर्य समाज के त्र.ह्र.रू.), दीवान श्री बद्रीदास, ला. सलामतराय जी, महामुनि स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, महाशय कृष्ण जी, पूज्य ‘प्रेम’ जी के मुख से सुना। महोदय माई जी का एक साक्षात्कार लिया गया था। उसकी स्कैनिंग करके छपवा दी। ‘प्रकाश’ में छपे उस साक्षात्कार में माई जी को साक्षात्कार लेने वाला ‘माता भगवती’ लिखता है। उनका कभी फोटो छपा देखा उस पर भी ‘माई भगवती’ शीर्षक था। पंजाब में माई लड़की को कोई नहीं कहता। माई का अर्थ माता या बूढ़ी ही लिया जाता है फिर भी कहाँ लिखा का हठ है तो थोड़ा आप ही हाथ पैर मारकर देखें। स्वामी श्रद्धानन्द जी के आरभिक काल का साहित्य देखें। ‘बाल विधवा’ शब्द न मिले तो फिर लेखक की गर्दन धर दबोच लेना। जैसे भारतीय जी ने ‘कहाँ लिखा है’ की रट लगाकर जब हड़क प मचाया था तो हमने ‘लिखा हुआ’ सब कुछ दिखा दिया था- आपकोाी रुष्ट नहीं करेंगे। आप हमारे हैं, हम आपके हैं। आपको भी प्रसन्न कर देंगे।

यह दोहरा मापदण्ड क्यों?– – राजेन्द्र जिज्ञासु

‘आर्य सन्देश’ दिल्ली के 13 जुलाई के अंक में श्रीमान् भावेश मेरजा जी ने मेरी नई पुस्तक ‘इतिहास प्रदूषण’ की समीक्षा में अपने मनोभाव व्यक्त किये हैं। मैंने अनेक बार लिखा है कि मैं अपने पाठक के असहमति के अधिकार को स्वीकार करता हूँ। आवश्यक नहीं कि पाठक मुझसे हर बात में सहमत हो। समीक्षक जी ने डॉ. अशोक आर्य जी के एक लेख में मुंशी कन्हैयालाल आर्य विषयक एक चूक पर आपत्ति करते हुए उन्हें जो कहना था कहा और मुझे भी उनके लेख के बारे में लिखा। मैंने भावेश जी को लिखा मैं लेख देखकर उनसे बात करूँगा। अशोक जी को उनकी चूक सुझाई। उन्होंने कहा , मैंने पं. देवप्रकाश जी की पुस्तक में ऐसा पढ़कर लिख दिया। मैंने फिर भी कहा स्रोत का नाम देना चाहिये था और बहुत पढ़कर किसी विषय पर लेखनी चलानी चाहिये।

मैं गत 30-35 वर्ष से आर्यसमाज में इतिहास प्रदूषण के महारोग पर लिखता चला आ रहा हूँ परन्तु

‘रोग बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।’

वाली उक्ति के अनुसार यह तो ऊपर से नीचे तक फैल चुका है। भावेश जी ने अशोक जी की चूक पर तो झट से अपना निर्णय दे दिया कि यह भ्रामक कथन है। मैंने कई लेखकों की कई पुस्तकों व लेखों की भयङ्कर भूलों नाम की, सन् की, सवत् की, स्थान की, हटावट की मिलावट की बनावट की मनगढ़न्त हदीसें मिलाने की निराधार मिथ्या बातों के अनेक प्रमाण दिये तीस वर्ष से झकझोर रहा हूँ। मेरे एक भी प्रमाण व एक भी टिप्पणी को कोई आगे आकर झुठलाकर तो दिखावे। अशोक जी के एक लेख पर एक कथन पर भावेश जी ने झट से उसका प्रतिवाद कर दिया। अब भी वह ऐसा करते तो अच्छा होता अथवा मेरे दिये प्रमाणों को झुठलाते। यह तो वही बात हुई ‘चित भी मेरी और पट भी मेरी’

तड़प-झड़प वाली शैली पर जो आपत्ति समीक्षक ने की है, वही ऋषि दयानन्द, पं. लेखराम, पं. चमूपति, देहलवी जी, पं. शान्तिप्रकाश जी, पं. धर्मभिक्षु, पं. नरेन्द्र जी पर विरोधी कोर्टों व पुस्तकों में करते चले आ रहे हैं परन्तु कोई असंसदीय शद तो किसी कोर्ट में सिद्ध न हो सका। एक व्यक्ति ने गत तीस-पैंतीस वर्ष से प्रदूषण का आन्दोलन छेड़ा है तो उसी पर अधिक लिखा जावेगा। वेश्या व जोधपुर के राज परिवार के लिए आर्यसमाज के इतिहास को ही प्रदूषित करना क्या उचित है?

तड़प-झड़प वाले का लेख ईसाई पत्रिका पवित्र हृदय ने आदर से प्रकाशित किया। जब-जब किसी ने प्रहार किया, चाहे सत्यार्थप्रकाश पर दिल्ली में अभियोग चला, हर बार तड़प-झड़प वाले को ही उत्तर देने व रक्षा के लिए समाज पुकारता है। इसका कारण आप ही बता दें। गुरु नानकदेव विश्वविद्यालय अमृतसर का Sikh Theology विभाग सारा ही तड़प-झड़प वाले के पास पहुँचा तो क्या इससे आर्यसमाज का गौरव बढ़ा या नहीं? किसी और से वह काम ले लेते। महोदय! मुसलमानों ने आचार्य बलदेव जी से कहलवाकर तड़प-झड़प वाले की एक पुस्तक दो बार छापने की अनुमति ली। शहदयार शीराजी एक विदेशी मुस्लिम स्कॉलर ने पं. रामचन्द्र जी देहलवी व दो अन्य महापुरुषों पर तड़प-झड़प वाले से ग्रन्थ लिखवा कर समाज की शोभा शान बढ़ाई या नहीं? ये कार्य आप अपनी विभूति से करवा लेते तो संसार जान जाता। ‘इतिहास प्रदूषण’ में दिया गया एक प्रमाण, एक टिप्पणी तो झुठलाओ।

परोपकारी पर वार हो तो संगठन भूल जाता है। प्रदूषणकार, हटावट, मिलावट, बनावट करने वाले पर लेखनी उठाई जावे तब संगठन की दुहाई देने का क्या अर्थ? तड़प-झड़प वाला अर्थार्थी, स्वार्थी नहीं परमार्थी पुरुषार्थी है। यह क्यों भूल गये? न कभी किसी से पुरस्कार माँगा है, न समान व पेंशन माँगी है। कई बार अस्वीकार तो करता आया है। तन दिया है, मन दिया है, लहू से ऋषि की वाटिका, सींची है। धन को धूलि जानकर समाज पर वारा है। न तो कभी साहित्य तस्करी की है और न पुस्तकों की तस्करी का पाप कभी किया है। सच को सच तो स्वीकार करो। इसे झुठलाना आपके बस में नहीं है।

-इतिहास प्रदूषण- ‘पं. लेखराम एवं वीर सावरकर के जीवन विषयक सत्य घटनाओं का प्रकाश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य अल्पज्ञ है इसलिये उससे अज्ञानता व अनजाने में यदा-कदा भूल व त्रुटियां होती रहती है। इतिहास में भी बहुत कुछ जो लिखा होता है, उसके लेखक सर्वज्ञ न होने से उनसे भी न चाहकर भी कुछ त्रुटियां हो ही जाती हैं। अतः इतिहास विषयक घटनाओं की भी विवेचना व छानबीन होती रहनी चाहिये अन्यथा वह कथा-कहानी ही बन जाते हैं। आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आर्यसमाज के इतिहास विषयक साहित्य के अनुसंधान व तदविषयक ऊहापोह के धनी है। हिन्दी, अंग्रेजी व उर्दू के अच्छे जानकार है। लगभग 300 ग्रन्थों के लेखक, अनुवादक, सम्पादक व प्रकाशक हैं। नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखते हैं। मिथ्या आरोपों का खण्डन करते हैं। वह इतिहास विषयक एक सन्दर्भ को एक ही पुस्तक में देखकर सन्तोष नहीं करते अपितु उसे यत्र-तत्र खोजते हैं जिससे कि उस घटना की तिथियां व उसकी विषय-वस्तु में जानबूझ, अल्पज्ञता व अन्य किसी कारण से कहीं कोई त्रुटि न रहे। उनके पास प्रकाशित पुस्तकों व लेखों में जाने-अनजाने में की गईं त्रुटियों की अच्छी जानकारी है जिस पर उन्होंने इतिहास प्रदूषण नाम से एक  पुस्तक भी लिखी है। 160 पृष्ठीय पुस्तक का हमने आज ही अध्ययन समाप्त किया है। इस पुस्तक में रक्तसाक्षी पं. लेखराम जी के जीवन की एक घटना के प्रदूषण की ओर भी उनका ध्यान गया है जिसे उन्होंने सत्य की रक्षार्थ प्रस्तुत किया है। हम यह बता दें कि पण्डित लेखराम महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्त थे। आपने लगभग 7 वर्ष तक निरन्तर देशभर में घूम कर महर्षि दयानन्द के सम्पर्क में आये प्रत्येक व्यक्ति व संगठनों से मिलकर उनके जीवन विषयक सामग्री का संग्रह किया जिसके आधार पर उनका प्रमुख व सर्वाधिक महत्वपूर्ण जीवनचरित्र लिखा गया। 39 वर्ष की अल्प आयु में ही एक मुस्लिम युवक ने धोखे से इनके पेट में छुरा घोप कर इन्हें वैदिक धर्म का पहली पंक्ति का शहीद बना दिया था। कवि हृदय प्रा. जिज्ञासु जी ने इस शहादत पर यह पंक्तियां लिखी हैं-जो देश को बचा सकें, वे हैं कहां जवानियाँ ? जो अपने रक्त से लिखें, स्वदेश की कहानियां।। पं. लेखराम जी के जीवन की इस घटना को प्रस्तुत करने का हमारा उद्देश्य है कि पाठक यह जान सकें सच्चे विद्वानों से भी अनजाने में इतिहास विषयक कैसी-कैसी भूलें हो जाती हैं, इसका ज्ञान हो सके।

 

स्मृतिदोष की यह घटना आर्यजगत के प्रसिद्ध विद्वान जिन्हें भूमण्डल प्रचारक के नाम से जाना जाता है, उन मेहता जैमिनी से सम्बन्ध रखती है। मेहता जैमिनी जी की स्मरण शक्ति असाधारण थी। इस कारण वह चलते फिरते इतिहास के ग्रन्थ थे। उनकी स्मरण शक्ति कितनी भी अच्छी हो परन्तु वह थे तो एक जीवात्मा ही। जीव की अल्पज्ञता के कारण उनमें भी अपवाद रूप में स्मृति दोष पाया गया है। आपकी स्मृति दोष की एक घटना से आर्यसमाज में एक भूल इतिहास बन कर प्रचलित हो गई। प्रा. जिज्ञासु जी बताते हैं कि यह सम्भव है कि इस भूल का मूल कुछ और हो परन्तु उनकी खोज व जांच पड़ताल यही कहती है कि यह भ्रान्ति मेहता जैमिनि जी के लेख से ही फैली। घटना तो घटी ही। यह ठीक है परन्तु श्री मेहता जी के स्मृति-दोष से इतिहास की इस सच्ची घटना के साथ कुछ भ्रामक कथन भी जुड़ गया। कवियों ने उस पर कविताएं लिख दीं। लेखकों ने लेख लिखे। वक्ताओं ने अपने ओजस्वी भाषणों में उस घटना के साथ जुड़ी भूल को उठा लिया। घटना तो अपने मूल स्वरूप में ही बेजोड़ है और जो बात मेहता जी ने स्मृति-दोष से लिख दी व कह दी उससे उस घटना का महत्व और बढ़ गया।

 

घटना पं. लेखराम जी के सम्बन्ध में है। इसे आर्यसमाजेतर जाति प्रेमी हिन्दू भी कुछ-कुछ जानते हैं। यह सन् 1896 की घटना है। पं. लेखराम जी सपरिवार तब जालन्धर में महात्मा मुंशीराम (बाद में स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती) जी की कोठी से थोड़ी दूरी पर रेलवे लाईन के साथ ही एक किराये के मकान में रहते थे। मेहता जैमिनि जी (तब जमनादास) भी जालन्धर में ही रहते थे। मुंशीराम जी आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान थे। मेहता जैमिनि जी सभा प्रधान के पास बैठे हुए थे। पण्डित लेखराम जी प्रचार-यात्रा से लौटकर आये। महात्मा मुंशी राम जी ने उन्हें बताया कि मुस्तफाबाद (जिला अम्बाला) में पांच हिन्दू मुसलमान होने वाले हैं। आपका प्रिय पुत्र सुखदेव रूग्ण है। आप तो उसको देखें, सम्भालें ( उपचार करायें) मैं हकीम सन्तराम जी (जो शाहपुरा राजस्थान भी रहे) को तार देकर वहां जाने के लिए कहता हूं।

 

मेहता जी ने अपने इस विषयक लेख में लिखा है-‘‘नहीं, वहां तो मेरा (पं. लेखराम का) ही जाना ठीक है। मुझे अपने एक पुत्र से (आर्यहिन्दू) जाति के पांच पुत्र अधिक प्यारे हैं। आप वहां तार दे दें। मैं सात बजे की गाड़ी से सायं को चला जाऊंगा। यह भी लिखा कि वह केवल दो घण्टे घर पर रुके। उनकी अनुपस्थिति में डा. गंगाराम जी ने बड़ा उपचार निदान किया, परन्तु सुखदेव को बचाया न जा सका। 18 अगस्त 1896 ई. को वह चल बसा। (द्रष्टव्यः ‘आर्यवीर’ उर्दू का शहीद अंक सन् 1953 पृष्ठ 9-10)।  ईश्वर का विधि-विधान अटल है। जन्म-मृत्यु मनुष्य के हाथ में नहीं है।

 

जिज्ञासु जी आगे लिखते हैं कि यह तो हम समझते हैं कि पण्डित जी के लौटने पर मेहता जी ने महात्मा जी पण्डित जी का संवाद अवश्य सुना, परन्तु आगे का घटनाक्रम उनकी स्मृति से ओझल हो गया। पण्डित जी पुत्र की मृत्यु के समय जालन्धर में ही थे। घर से बाहर होने की बात किसी ने नहीं लिखी। वह पुत्र के निधन के पश्चात् मुस्तफाबाद जाति रक्षा के लिए गये। अब इस सम्बन्ध में और अधिक क्या लिखा जाए? एक छोटी सी चूक से इतिहास में भ्रम फैल गया। लोक झूम-झूम कर गाते रहे-

 

लड़का तिरा बीमार था

                        शुद्धि को तू तैयार था ।।

                        मरने का पहुंचा तार था।

                        पढ़कर के तार यूं कहा।।

                        लड़का मरा तो क्या हुआ।

                        दुनिया का है यह सिलसिला ।।

 

इससे भी अधिक लिफाफे वाले गीत को लोकप्रियता प्राप्त हुई। अब तो वह गीत नहीं गाया जाता। उस गीत की ये प्रथम चार पंक्तियां स्मृति-दोष से इतिहास प्रदूषण का अच्छा प्रमाण है।

 

लिफाफा हाथ में लाकर दिया जिस वक्त माता ने।

                        लगे झट खोलकर पढ्ने दिया है छोड़ खाने को।।

                        मेरा इकलौता बेटा मरता है तो मरने दो लेकिन

                        मैं जाता हूं हजारों लाल जाति के बचाने को।।

 

इस प्रसंग की समाप्ति पर जिज्ञासु जी कहते हैं कि स्मृति दोष से बचने का तो एक ही उपाय है कि इतिहास लेखक घटना के प्रमाण को अन्यान्य संदर्भों से मिलाने को प्रमुखता देवें।

 

विद्वान लेखक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने वीर सावरकर पर भी एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। हम इस प्रसंग से पहली बार परिचित हुए हैं जिसे हम पाठकों के साथ साज्ञा कर रहे हैं। पुस्तक इतिहास प्रदूषण में लेखक ने लिखा है कि वीर सावरकर ने अपनी आत्मकथा में ऋषि दयानन्द तथा आर्य समाज से प्राप्त ऊर्जा प्रेरणा की खुलकर चर्चा की है। यदि ये बन्धु लार्ड रिपन के सेवा निवृत्त होने पर काशी के ब्राह्मणों द्वारा उनकी शोभा यात्रा में बैलों का जुआ उतार कर उसे अपने कन्धों पर धरकर उनकी गाड़ी को खींचने वाला प्रेरक प्रसंग (श्री आर्यमुनि, मेरठवैदिकपथपत्रिका में वीर सावरकर जी पर प्रकाशित अपने लेख में) उद्धृत कर देते तो पाठकों को पता चला जाता कि इस विश्व प्रसिद्ध क्रान्तिकारी को देश के लिए जीने मरने के संस्कार विचार देने वालों में ऋषि दयानन्द अग्रणी रहे। इसी क्रम में दूसरी घटना है कि मगर आर्यसमाज ने जब अस्पृश्यता निवारण के लिए एक बड़ा प्रीतिभोज आयोजित किया तो आप (यशस्वी वीर सावरकर जी) विशेष रूप से इसमें भाग लेने के लिए अपने जन्मस्थान पर पधारे। इससे यह एक ऐतिहासिक घटना बन गई। इस लेखक (प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु) ने कई बार लिखा है कि भारत के राजनेताओं में से वीर सावरकर ने सर्वाधिक आर्य हुतात्माओं तथा देशभक्तों पर हृदय उड़ेल कर लेख लिखे हैं। आर्यसमाज ऋषि के विरोधियों को लताड़ने में वीर सावरकर सदा अग्रणी रहे। कम से कम भाई परमानन्द स्वामी श्रद्धानन्द जी की चर्चा तो की जानी चाहिये। आपके एक प्रसिद्ध पत्र का नाम ही श्रद्धानन्द था। यह पत्र भी इतिहास साहित्य में सदा अमर रहेगा। 

 

महर्षि दयानन्द आर्यसमाज संगठन के प्रति समर्पित अनेक विद्वान हुए हैं परन्तु जो श्रद्धा, समर्पण, इतिहास साहित्य के अनुसंधान की तड़फ पुरूषार्थ सहित महर्षि समाज के प्रति दीवानगी वर्तमान समय में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी में दिखाई देती है, वह अन्यतम एव अनुकरणीय है। नाज नखरों से रहित उनका जीवन एक सामान्य सरल व्यक्ति जैसा है। आज की हाईफाई जीवन शैली से वह कोसों दूर हैं। उन्होंने आर्यसमाज को जो विस्तृत खोजपूर्ण प्रामाणिक साहित्य प्रदान किया है वह स्वयं में एक कीर्तिमान है। पाठकों हममें उनका समस्त साहित्य प्राप्त कर अध्ययन करने की क्षमता भी नहीं है। हम उनकी ऋषिभक्ति खोजपूर्ण साहित्यिक उपलब्धियों के प्रति नतमस्तक हैं।  उनके साहित्य का अध्ययन करते हुए जबजब हमें नये खोजपूर्ण प्रसंग मिलते हैं तो हम गद्गद् हो जाते हैं और हमारा हृदय उनके प्रति श्रद्धाभक्ति से भर जाता है। कुछ अधूरे प्रसंग पढ़कर संदर्भित पुस्तक तथा प्रमाण तक हमारी पहुंच होने के कारण मन व्यथित भी होता है। उनके समस्त साहित्य में ऋषि भक्ति साहित्यिक मणिमोती बिखरे हुए हैं जो अध्येता को आत्मिक सुख देते हैं। हम ईश्वर से अपने इस श्रद्धेय विद्वान की शताधिक आयु के स्वस्थ क्रियात्मक जीवन की प्रार्थना करते हैं।

हम समझते हैं कि लेखकों से स्मृति दोष व अन्य अनेक कारणों से ऐतिहासिक घटनाओं के चित्रण व वर्णन में भूलें हो जाती हैं। इतिहास में विगत कई शताब्दियों से अज्ञानता व स्वार्थ के कारण धार्मिक व सांस्कृतिक साहित्य में परिवर्तन, प्रेक्षप, मिलावट व हटावट होती आ रही है जिसे रोका जाना चाहिये। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की इतिहास प्रदूषण पुस्तक इसी उद्देश्य से लिखी गई है। विद्वान लेखक ने अपनी इस पुस्तक में जाने-अनजाने में होने वाली भूलों के सुधार के लिए एक से अधिक प्रमाणों को देखकर व मिलान कर ही पुष्ट बातों को लिखने का परामर्श दिया है जो कि उचित ही है। इतिहास प्रदूषण से बचने के उनके द्वारा दिये गये सभी सुझाव यथार्थ व उपयोगी हैं। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001