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आर्य समाज और इस्लाम : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

arya samaj aur islamआर्य समाज इस्लाम नही है और इस्लाम भी आर्य समाज नहीं है किन्तु फिर भी दोनों में काफी समानता है।

– इस्लाम के आगमन के पूर्व लाखों वर्ष व्यतीत हो चुके थे | अरब ने भी मोहम्मद,जो इस्लाम के महान पैगम्बर थे, उनके वहाँ अवतार लेने के पूर्व मनुष्य की सहस्त्रों पीढियों को देखा था । कुरान का मनुष्य के पास अवतरण होने से पहले क्या ये दीर्घकाल बिना रौशनी के था ? कम से कम इस्लाम के समर्थक ऐसा कहते हैं। वे पूर्व इस्लामिक काल को जमाना-ए-जहालत अर्थात् अज्ञानता वाला काल कहते हैं । यह कल्पना से परे है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा ने जो प्रकाशों का प्रकाश है संसार को इतने दीर्घकाल तक अंधकार में रहने दिया होगा । हमारी सृष्टि के बहुपूर्व पृथ्वी पर दो महान प्रकाश पुँज प्रदान किये गये थे सूर्य एवं चन्द्र, एक वह जिसके चारों और हमारी पृथ्वी चक्कर काटती थी, और दूसरा वह जो पृथ्वी के चक्कर काटता था । यदि सूर्य अथवा चन्द्र नहीं होते, तो हमारी भौतिक दृष्टि व्यर्थ होती या यूँ कहें कि अस्तित्व में ही नही होती । प्राकृतिक सूर्य एवं चन्द्र के विषय में जो सत्य है वही आध्यात्मिक प्रकाशपुंजों के समान ही सत्य है।

भौतिक जगत आध्यात्मिक जगत का ही प्रतिरूप है । क्या आप यह सोचते हैं कि ईश्वर जो यह सहन नहीं कर सका कि हमारी प्राकृतिक आँखें सूर्य के प्रकाश के बिना एक पल भी रह सकें, उसने चाहा होगा कि करोडों वर्षों तक मनुष्य की करोडों पीढियां आयें और जाएं,जन्म लें और मरे बिना किसी आध्यात्मिक अथवा नैतिक प्रकाश के। किस प्रकार के पुरूष एवं स्त्रियां वे थीं जो पूरा अध्यात्मिक अथवा नैतिक अंधकार में विचरण करती रही । और किस प्रकार का वह ईश्वर, था जो उन्हें प्रकाश दे सकता था पर दिया नहीं ? क्यों वह इतनी देर उपेक्षा करता रहा? क्यों उसने करोडों वर्षों को व्यतीत होने दिया इसके पहले कि वह मानवता को प्रकाश का उपहार प्रदान कर सके ?

– इस्लाम इन प्रश्नों का उत्तर नही दे सकता है पर आर्य समाज दे सकता है|आर्य समाज एक शताब्दी पुरानी संस्था है । परन्तु वे सिद्धान्त जिन्हे यह मन में बैठाती है किसी भी प्रकार नये नही हैं। यह मौलिकता का कोई दावा नही पेश करती है । यह कहती है कि संसार में प्रारम्भ से ही ईश्वर ने मानव जाति को वेदों के नाम से पुकारे जाने वाले अपने ज्ञान का प्रकाश प्रदान किया है । वैदिक शिक्षायें हमारी पीढियों को सीधी अथवा माध्यम द्वारा, दृश्य अथवा अदृश्य व्यक्त अथवा समाविष्ट रूप से अनेको मार्गो से प्राप्त हुई हैं । बहुधा हम उपलब्ध प्रकाश के उदगम स्थान को खोज पाने में असमर्थ होते हैं और अधिकतर ऐसा ही होता है । पर फिर भी हम बिना प्रकाश के कभी भी नही छोड दिये जाते हैं।

जिस प्रकार इस्लाम के संस्थापक मोहम्मद साहब थे ठीक उसी प्रकार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द थे । परन्तु जबकि अगले ने मानव जाति के श्रेष्ठों में विशिष्ट स्थान पर होने का ईश्वर का पैगम्बर होने का जिसके समान न कोई हुआ और न कोई होगा, का दावा पेश किया परन्तु पिछले ने ऐसा कोई भी दावा प्रस्तुत नहीं किया। उन्होने केवल पुराने वैदिक सिद्धान्तों को पुनर्जिवित करना चाहा जिन्हें कुछ समय पूर्व से भूला दिया गया था। जबकि मोहम्मद ने ईश्वर एवं मनुष्य के बीच मध्यस्थ होने का दावा किया,स्वामी दयानन्द ने उपदेश दिया कि मनुष्य को किसी मध्यस्थ की आवश्यकता नही है।

मोहम्मद की महानता कहाँ पायी जाती है ? निश्चित रूप से वे महान थे, क्योकि यही वे थे जिन्होने असभ्य एवं बर्बर अरबियों को नियन्त्रित किया तथा उन्हें विश्व प्रसिद्ध शक्ति के रूप में परिणित किया । इस्लाम की लहर एक बार इतनी शक्तिशाली थी कि इसने पूरब अथवा पश्चिम में इसके मार्ग में आने वाली सभी वस्तुओं को बहा दिया । यह सम्पूर्ण दक्षिणी यूरोप उत्तरी अफ्रिका तथा एशिया के बृहत भाग में प्रसार पाया इसने भारत पर भी आक्रमण किया इसे अनेकों शताब्दियों तक अपनी दासता में रखा । पर भारतीय सभ्यता की विशेषता ने भारत को तोड़ने मे एक कठोर शिला बना दिया । निसन्देह इसने भारत की दुर्बलता का अत्याधिक शोषण किया । परन्तु हिन्दु समाज तथा हिन्दु सभ्यता में अन्तर्भूत शक्तियां हैं जो इसे सभी

आँधी-तूफानों को झेल पाने में समर्थ बनाती हैं। जबकि अफगानिस्तान फारस, अरब एवं मिश्र देश शत-प्रतिशत इस्लामिक है। केवल एक चौथाई भारतीयों ने इसे अपनाया । और अभी उनमें वृद्धि की सम्भावना कमतर होती जा रही है । किस वस्तु ने इस्लाम को अरब में सफल बनाया ? वह तीन वस्तुएं हैं।

१. उस विशाल रेतीले प्रायद्वीप के वासियों की घोर अज्ञानता।

२. अरबी समाज कीअत्याधिक अव्यवस्थित अवस्था ।

३. मोहम्मद की युद्धरत जातियों को प्रभावित तथा नियंत्रित करने की असाधारण योग्यता।

एक बार अरब में सफल होकर मोहम्मद के अनुयायियों ने पडोसी देशों पर आक्रमण किया और आक्रमणकारियों का प्रहार इतना शक्तिशाली था और आक्रामित लोग इतने असंगठित थे कि वे इस्लामिक प्रभावों के आगे तुरन्त झुक गये। पर भारत में इस्लाम आंशिक रूप में सफलीभूत था । भारत पूर्णतया असंगठित था जब इस्लामिक आक्रमण हुए थे । यद्यपि शारीरिक रूप में अधिक दुर्बल नहीं वरन कुछ विषयों में निश्चित रूप से सबल,भारतीय शासकों तथा भारतीय जनता ने उस वैधानिक शक्ति को खो दिया था जो एक मात्र इस्लामिक लहर को झेल सकता था । परन्तु भारत को एक स्पष्ट लाभ था । वह था भारत का उच्च स्तरीय दर्शन एवं नैतिकता जिसने बाहरी दुर्बलता का विरोध न कर अपना वर्चस्व बनाये रखा । ऐसे बहुधा होता है कि अति सुसंस्कृत लोग कुछ दुर्बलताओं को समय के साथ समाहित कर लेते हैं और इस प्रकार अल्प सभ्य पर शारीरिक रूप से दृढ, शत्रु के हाथों पराभव स्वीकार करते है । भारत के साथ ठीक ऐसी ही स्थिति थी । इसका दर्शन तथा धर्म यद्यपि प्रत्येक अत्युत्कृष्ट होकर भी निहित शक्ति को खो चुके थे। पुरोहित समाज अत्यन्त बलशाली था । अन्धविश्वास, मूर्तिपूजा एवं जाति गर्व ने भारतीय सभ्यता के मूल तत्वों को ग्रास बना लिया था । मुसलमानों का धर्म नया था । इस्लामी खलीफों ने अफगान आक्रमणकारियों की गृद्ध दृष्टि भारत की सम्पदा पर पाकर इसे एक वरदान के रूप में देखा और इसलिए एक पत्थर से दो शिकार करने के उद्देश्य से उन्होने उन पर धर्म के रक्षक का सम्मान प्रदान किया।

अब यही मोहम्मद-बिन-कासिम तथा गजनी के महमूद जैसे धर्मरक्षकों ने भारत पर आक्रमण किया, हिन्दु मन्दिरों को धूल-धुसरित किया, भारतीय सम्पदा को उड़ा ले गये और बदले में यहाँ इस्लाम को छोड गये । भारतीय राजकुमार एवं जनता इस प्रकार असंगठित थे और उन दिनों का हिन्दू धर्म इस प्रकार स्वांगी कर्मकाण्डपरक था कि वनिस्पत कि अनेकों शताब्दियों तक अविराम संघर्ष चले, इस्लामिक लहर के थपेड़ों को रोक भी नहीं सका । इस सम्बन्ध में दो वस्तुएं विचारणीय हैं –

प्रथम -कि हिन्दु धर्म इस्लाम का विरोध नहीं कर सका ।

द्वितीय-कि इस्लाम, हिन्दु धर्म को समूल नष्ट नहीं कर सका, दोनों तथ्यों की अपनी व्याख्या है और इसी के प्रकाश में आर्य समाज एवं इस्लाम के सम्बन्ध की गवेषणा करनी है । भारत पर इस्लामी आक्रमण अपने प्रकार के प्रथम नहीं थे । उनसे अनेकों शताब्दियों पूर्व ग्रीकों, हूणों तथा अन्य विदेशियों ने हिन्दुओं के साथ अपनी शक्ति का प्रयास किया था । महान ग्रीक मेसिडोनिया के अलेक्जेन्डर ने १२ अथवा १३ वीं शताब्दी पूर्व हिन्दु राजकुमार पोरस को परास्त किया था । यह पराभव हिन्दु राजकुमारों के ईर्ष्या तथा असंगठित होने के कारण था । पर हिन्दुधर्म स्वयं में इतना ठोस था कि एक विजय ग्रीकों के लिए कुछ विशेष स्थान नहीं बना सका और बिना समय व्यर्थ किए हिन्दु सभ्यता ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया । हूण आए तथा भारत में बस गये, पर शीघ्र ही हिन्दु राष्ट्रीयता के अपने में आत्मसात कर लेने के गुण के कारण उन्होने अपनी पहचान विलय कर दी । हिन्दु धर्म एवं हिन्दु दर्शन, हिन्दु आदर्श एवं हिन्दु समाजशास्त्र इतने शक्तिशाली थे कि विदेशियों को अपना मस्तक उनके समक्ष सम्मानपूर्वक झुकाना ही पड़ा और उनके गले-लगाने वाले प्रभाव के आधीन होना ही पडा।

यही इस्लाम की पूर्वकाल की कहानी है । पर उस समय तक जबकि इस्लाम ने उत्थान किया, हिन्दु समाज विखण्डित हो गया था। हिन्दु धर्म कुछ चयनित व्यक्तियों का एकाधिकार बनकर रह गया । हिन्दुओं का आत्मसात कर लेने का गुण दुर्बल हो गया। हिन्दु समाज की ठोस दीवारों में दरारें पड गयी । हिन्दुओं के अधिसंख्य भाग को मुख्य अधिकारों से वंचित कर दिया गया । उच्च वर्णो एवं दलित वर्णो ने आपस में सम्बन्ध विच्छेद कर लिया । सम्बन्धों में आये ढीलेपन ने पूरी हिन्दु समाज की रचना को ही क्षीण बना दिया । मुसलमानों में इतनी कुरीतियां नहीं थीं बल्कि वे अधिक दृढ थे और शक्तिशाली थे। उनका भ्रातृत्व अधिक ठोस था और इसी कारण उन्होने जब हिन्दुओ पर आक्रमण किया तो वे पिछले आक्रमण का सफलता पूर्वक विरोध नही कर सके और इस्लाम किसी प्रकार भारत में प्रवेश कर ही गया। पर इस्लाम ने विजय को सहज नही पाया यद्यपि शारीरिक रूप से और कुछ स्थितियों में समाजिक रूप से दृढतर उनकी नैतिकता तथा धर्म एवं दर्शन अत्यन्त दुर्बल थे । इसी कारण यद्यपि अस्थायी रूप में विजयी होकर भी वे डुबते हुए हिन्दु धर्म के बीच भी अधिक प्रगति नहीं कर सके । जहाँ कही भी एवं जब कभी भी मुस्लिम वशंज उदार एवं संयत हुए हिन्दुधर्म ने उन्हे प्रभावित करना प्रारम्भ किया । एवं जब कभी भी एक मुस्लिम राजकुमार कट्टर हुआ तभी आत्मोत्सर्ग का हिन्दु आदर्श ने प्रतिक्रिया प्रस्तुत की, एवं हिन्दु धर्म की ज्वाला को प्रज्वलित रहने दिया । यह हिन्दुओं के त्रुटिपूर्ण समाजिक रीति-रिवाज ही थे जिन्होनें अकबर महान एवं दारा को खुले तौर पर हिन्दु बनने से रोका । पर यह हिन्दु धर्म के आन्तरिक गुण थे जिन्होनें विचारवान एवं उदार मुस्लिमों को आकर्षित होने से नहीं रोक सके । यदि रिवाजों की अपार खाडी नही होती जैसा कि ग्रीको एवं हूणों के दिनों में नही था भारत में एक भी मुसलमान नहीं रहा होता तथा यवन विजेता जो अफगानिस्तान, फारस,अरब अथवा तुर्की से यहां आये थे वे स्पष्टतया हिन्दुओं में मिल गये होते। पर इस प्रकार की घटनायें नियति में नही थीं । और भारत आज जो है सो है। हिन्दु उच्च आदर्शों एवं उच्च दर्शनशास्त्र परन्तु भयानक दुर्बलताओं के पोशक हैं । कुछ मुसलमान अनेकों समाजिक सुविधाओं सहित पर अगणित आध्यात्मिक वरदानों से रहित हैं । ये दो महान सम्प्रदाय एक दूसरे के नजदीकी तथा सहयोगी बन सकती थी।

परन्तु इनमें से प्रत्येक की अपनी-अपनी भिन्न मानसिकता है जो इस खाई को पटने नहीं देता । प्रत्येक अपने को देवताओं का प्रिय, कुलीनतम तथा भव्यतम तथा दूसरों से अधिक उच्चकोटि का सोचता है। हिन्दु मुस्लिमों को निरर्थक धर्म त्यागी समझते है जिनमें से किसी के भी पास सदगुण नही रह गया हो और उनके पुनः अवतार के पश्चात ही उद्धार की सम्भावना रह गयी हो मुसलमान हिन्दुओं को केवल जो काफिर अथवा विधर्मी समझते हैं शीघ्र अथवा विलम्ब से धर्मान्तरण के ही योग्य हैं। आर्य समाज मध्य में स्थित रहकर खाई को पाटने का प्रयास करती है । प्रथमतः आर्य समाज ने हिन्दु समाज में ऐसे परिवर्तन लाये है जिसने मुसलमानों के अवगुणों को या तो  आंशिक रूप से अथवा पूर्णरूप से दूर कर दिया है । पहले कोई भी हिन्दु अपने पवित्र ग्रन्थों, विशेषकर वेदों को, अहिन्दुओं को पढने की अनुमति नहीं देते थे । आर्यसमाज प्रत्येक पवित्र पुस्तकों का सभी मुसलमानों अथवा अन्यों को स्वछन्दभाव से शिक्षा देती है।।

द्वितीयतः कोई भी मुसलमान किसी भी परिस्थिति में हिन्दु धर्म को गले नही लगा सकता था । आर्य समाज ने सभी बन्धनों को तोड दिया और वैदिक आस्था का दरवाजा सभी के लिए खुला छोड दिया।

‘तृतीयतः आर्य समाज ने निःसन्देह यह सिद्ध कर दिया है कि मूर्तिपूजा जिससे इस्लाम इतनी घृणा करता है वह वैदिक विचारधारा के अन्तर्गत नहीं है प्रत्युत विलम्बित उदगम का अन्ध विश्वास है और इसलिए त्याज्य है । पर इस्लाम के लिए भी इसका एक सन्देश है । यह इस्लाम के साथ सहमत है कि मूर्तिपूजा अनुचित  है । परन्तु यह बल देती है कि इस्लाम एकदम से मूर्ति पूजा ट्रा नहीं कर सकती है जब तक कि यह पैगम्बर को ईश्वर एवं मनुष्य के बीच मध्यस्थ के रूप में देखती है।

यह शैक्षिक हित का प्रश्न है कि कौन सा स्थान इस्लाम में पैगम्बर को प्राप्त है ? पवित्र इस्लामिक धर्मग्रन्थ के विद्यार्थी इस बिन्द पर विभिन्न मत के हो सकते हैं । सम्भवतया मुहम्मद ने पूजा की विषय वस्तु पर स्वयं को इतना महत्वपूर्ण बनना पसन्द नहीं किया होता । सम्भवतया उनकी यह हार्दिक इच्छा रहती कि ईश्वर के सिवाय किसी अन्य की पूजा हो परन्तु तथ्य यह है कि अनुयायियों तथा उत्तराधिकारियों ने अन्य महान पुरूषों के अनुयायियों तथा उत्तराधिकारियों की ही तरह ईश्वर को पष्ठभमि में रखकर पैगम्बर को प्रधानता दी । यदि हम घटनाओं में इतिहास को जिन्होने महान पैगम्बर की मृत्यु का अनुसरण आज तक किया, गम्भीरता से अध्ययन करें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी अर्थात पैगम्बर का नाम एवं महत्ता ने सभी विचारों को ग्रहण लगा दिया होता । कलमा अथवा पूजा का प्रारूप अन्य कर्मकाण्डों के साथ जो धर्म के मुख्य तथ्यों का निर्माण करता है । पैगम्बर को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान देता है । मुसलमानों द्वारा बहुधा उच्चारित की गयी आयत देखिये

गर मौहम्मद की जलवा नुमाई न होती। तो हार्गिज खुदा की खुदाई  न होती ॥

यदि मोहम्मद की महिमागान न हुई होती तो भले -मानव कभी भी प्रमुखता में नही आते यही एक विशिष्ट मुस्लिम मस्तिष्क का सच्चे अर्थों में प्रतिनिधित्व है । तार्किक अथवा आध्यात्मिक रूप से मोहम्मद ने पैगम्बर शब्द का क्या अर्थ निकाला यह एक प्रश्न है । पर पैगम्बर के विषय में आधुनिक इस्लामिक विचारधारा ने इस्लाम को व्यक्तिपूजक के रूप में कमतर कर दिया है जो किसी भी तरह श्रेष्ठ नहीं है और अनेकों विषयों में मूर्ति पूजा से भी निम्नतर है । यह अवश्य स्मरण किया जाना चाहिये कि व्यक्ति पूजा ही मूर्तिपूजा की पूष्ठ भूमि में रहा है । मूर्तिपूजा सर्वदा व्यक्ति पूजा का परिणाम रहा है। इसी कारण मूर्तिपूजा के विरूद्ध भंयकर धर्मयुद्ध के बदले इस्लाम इसे मिटा नही सका और इसका अवतरण बार बार दस सहस्त्रों विभिन्न रूपों में जैसे समाधि पूजा काला पत्थर पूजा, कागज पूजा (ताजियाओं) और इसी प्रकार अनेकों वस्तुओं की पूजा में हुआ।

धर्म के क्षेत्र में व्यक्ति पूजा से अधिक विनाशकारी कुछ भी नहीं है । यह दासत्व तथा कट्टरपन की मानसिकता उत्पन्न करती है जो सच्चे धर्म के प्रबल शत्र हैं । फिर भी श्रेष्ठ कितना भी महान हो उसके अच्छे गुण शीध्र ही पृष्ठभूमि में विलीन हो जायेंगे और उसकी दुर्बलताएं उसके अनुयायियों के लिए पूजा की वस्तुएं हो जायेंगी । इस्लाम से सम्बन्ध के सिवा यह और कहीं अधिक सत्य नहीं है । मोहम्मद एक महान पुरूष थे पर फिर भी एक व्यक्ति थे । उनके अपने दृढ अभिप्राय साथ ही दुर्बलता से भरे हुए थे । ईश्वर के सिवा कोई भी पूर्ण नहीं है और चूंके मोहम्मद ईश्वर नहीं थे, उनमे अपूर्णतायें थी। उनके श्रेष्ठ गुणों की खोज कोई बुद्धिमान व्यक्ति ही कर सकता है जबकि उनकी त्रुटियों का अनुकरण जन समुदाय द्वारा किया जाता है।

आर्य समाज के संस्थापक ने इस बन्धन से सुरक्षा के उपाय किये हैं । उनके उद्देश्य की श्रेष्ठता तथा जीवन की शुद्धता ने स्वामी दयानन्द को अनुयायियों द्वारा आराध्य बनाया । परन्तु एक विषय पर उन्होने अधिक बल दिया कि वह उतने भले थे जितना कि एक व्यक्ति हो सकता है फिर भी उनके विचार अन्धविश्वास की वस्तु न बनें ।

 

इन्ही शिक्षाओं के माध्यम से ईश्वर के अतिरिक्त अन्य उपासनाओं को समूल नष्ट किया जा सकता है । मनुष्य ईश्वर के अलावा अन्य वस्तुओं की उपासना क्यों करता है ? मानवीय इतिहास तथा मानवीय दर्शन शास्त्र बताते हैं कि समय के अन्तराल में नायक अर्द्धदेव तथा अर्द्धदेव देवता का रूप धारण कर लेते है । किसी भी पुराण विद्या से सम्बन्धित प्रतिभाये अर्द्धदेवों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो अपने समय में अन्ध विश्वास से प्रतिपादित रहस्यों से घिरे हुए थे । यही अर्द्धदेवों ने , कुछ धर्मो में पैगम्बर के नाम से पुकारे गये , लोगो को सत्य ईश्वर के उपासना से भटकाया है । यद्यपि तथ्य यह है कि प्रारम्भ में उन्होने अपने को ईश्वर का सच्चा उपासक होने का दावा पेश किया । इन्ही मुख्य विचारों पर इस्लाम एवं आर्य समाज के मध्य अपसरण है, देखिये

१. आर्य समाज का मत है कि दैवी शक्तियाँ संसार के आरम्भ में ही प्रकट होती हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य का अवतरण सांसारिक प्रकाश का उदगम स्त्रोत । इस्लाम का विश्वास है कि दैवी प्रेरणा अन्य मानवीय संहिताओं की तरह निराकरण तथा परिवर्तन के आधीन है । परन्तु उच्चतम असंगति जिसे इस्लाम परिवर्तन तथा प्रगति के समय अनुमति देता है वह है कि प्रेरणायें कुरान में पूर्णता प्राप्त करती हैं और मोहम्मद अन्तिम पैगम्बर थे । ऐतिहासिक खोज साधारणतया सिद्ध करते हैं कि कुरान में अनेकों गुण है केवल यह छोडकर कि यह नया है । इसकी शिक्षायें विद्युतीय प्रभावकारी हैं । पैगम्बर के व्यक्तित्व के अतिरिक्त कुछ भी नही ऐसा है जिसका अन्य धार्मिक पौराणिक गाथाओं में चिन्ह भी नहीं पाया जा सकता । आर्य समाज कुरान के सभी उपदेशों को अस्वीकृत नही करता है । ये बातें अधिक पुरानी पुस्तकों में भी उपलब्ध हैं यह उसका मानना है और अनेकों ऐसी बातें हैं जो प्राचीन काल में अस्तित्व में थी पर उनका कुरान में अथवा कुरान की आधुनिक व्याख्या में स्थान नही है ।

२. इस्लाम में जीवात्मा का कोई महत्व नहीं है यहाँ तक कि स्वतंत्र आस्तित्व भी नही ईश्वर शून्य से आत्मा की सृष्टि करता है। क्यों ? ईश्वर जानता हैं । कैसे? ईश्वर जानता है । किस सीमा तक ? ईश्वर जानता है । आर्य समाज आत्मा को स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान करता है । यह अनन्त है और जगत का केन्द्र बिन्दु है । आत्मा के हित में ही ईश्वर विश्व की रचना करता है यह दैवी हाथों की कठपुतली नही है।

यह हमारी नियति को साचें में ढालता है । यह उत्तरदायी है। इस्लाम आत्मा के अस्तित्व को केवल संयोग मानता है । परन्तु आर्य समाज की धारणा है कि वर्तमान जीवन उस प्रारम्भहीन एवं अन्तहीन जीवन का केवल अंश मात्र है । कर्म विधान तथा पुनर्जन्म का सिद्धान्त इसी तथ्य पर निर्भर है।

३. आर्य समाज आस्था एवं तर्क में समन्वय करता है जबकि इस्लाम पहले को दूसरे से वर्चस्व देती है । इस्लाम का अर्थ आस्था है जो धर्मान्धता की और अग्रसारित करता है । इस्लाम का दूसरे धर्मो के प्रति धारणा अथवा धार्मिकता इस तथ्य का ज्वलन्त उदाहरण है।

क्या आर्य समाज इस्लाम विरोधी है ? उतना नहीं जितना लगता है । प्रत्येक संस्था के कुछ उद्देश्य हैं। यह सहयोगी के प्रति मित्रवत हैं और उनके प्रति विरोधी हैं जो इसके कार्यो में बाधा डालते

यह केवल आर्य समाज के ही लिए सत्य नहीं है प्रत्यत इस्लाम ईसाईयत तथा औरों के लिए भी क्या इस्लाम आर्य समाज का विरोधी है आर्य समाज स्वतंत्र अभिव्यक्ति स्वतंत्र कर्म का पोषक है । क्या इस्लाम भी इनका समर्थन करता है ? तब कितना भी अन्य विषयों पर मतभेद हो, इस्लाम को आर्य समाज से अथवा एक दूसरे से भय नही है।

परन्तु दुर्भाग्यवश इस्लाम इसका अनुसरण नहीं करता है । पिछले दिनों में इस्लाम के अनुयायियों ने पुस्तकालयों को इस आधार पर जला डाला कि उनमें कान के विरूद्ध वस्तुएं हैं, वे अवांछित हैं और यदि कुरान से सम्बन्धित भी हैं तो अनावश्यक हैं।

इस्लाम की यही धारणा अभी भी स्पष्ट है विशेष कर भारत में आर्य समाज वास्तव में उन सभी का विरोधी है जो वैयक्तिक अन्तरात्मा को स्वतंत्र नहीं छोडते हैं । ॥ इति ।।

MAHOMEDANISM IS MAINLY BASED UPON JUDAISM: Ganga Prasad

THE religion of Mahomed is based chiefly on Judaism,

and partly on Zoroastrianism on which Judaism

itself is based. The first proposition is not denied

by the Mahomedans themselves, who only claim that their

Prophet has improved upon the Jewish religion in certain

respects. A detailed comparison of the two religions would,

however, show how closely Mahomed has followed the

Jewish religion even on points of detail, and would lead to

the conclusion that there is little or .nothing important in

Mahomedanism for which the Prophet could lay claim to

originality.

We shall in this branch of our enquiry follow Dr. Sale,

whose preliminary discourse, appended to his celebrated

translation of the Koran, contains a wealth of information

on this subject.

 

SECTION 1

 

THE ORIGIN OF THE UNIVERSE OR COSMOGONY

 

The idea that this universe is the first and the last of

its kind is purely a Jewish idea, and forms a distinctive feature

of Judaism, and the two great religions founded

upon it, Viz., Christianity and Mahomedanism. Again,

the belief that this world was created out of nothing by

a fiat of the Almighty is also borrowed from Judaism. The

story of Adam and Eve being created and placed in the

garden of Eden, where they were allowed to partake of

all things except the fruit of a particular tree; of their being

I tempted by Satan in the form of a serpent to eat of that very

fruit; and of their subsequent fall from paradise is borrowed

almost literally from the Jewish scriptures.

The same may be said of the existence of a higher order

of beings than man, Viz., the angels who have pure and

subtle bodies, created of fire, and who neither eat nor drink,

nor propagate species. These angels are supposed to have

various forms and offices, and the most eminent among them

are Gabriel, Michael, Azracl and Israfil. “This whole

doctrine concerning angels,” says Dr. Sale, “Mahomed

borrowed from the Jews, Who learned the names and offices

of those beings from the Persians, as they themselves confess.

-( Talmud Hieros and Roshbhashan). “:j:

The Koran teaches the existence of also an inferior class

of beings called jin or genii’ created also of fire, but of a

grosser fabric than angels, since they eat, drink and propagate

their species and are subject to death.’ “These notions,”

says Dr. Sale, “agree almost exactly with what the Jews

write of a sort of demons called Shedim. It

SECTION 2

THE DESTRUCTION OF THE UNIVERSe AND’

THE RESURRECTION

– The Mahomedans believe in the immortality of the

soul and think that there will be a day of resurrection

when the dead will rise to receive the rewards and punishment

of their actions in life according to their merits and

demerits. The whole of this doctrine has been taken from

Judaism.

The ,Resurreclion.-According to some writers the

resurrection will be merely spiritual. The generally received

opinion, however, is that both the body and the soul will

be raised.::: It might be asked: how will the body, which

has been decomposed rise again ~ “But Mahomed has

taken care to preserve one part of the body, whatever

becomes of the rest, to serve for a basis of future edifice, or

rather a leaven for the mass which is to be joined to it.

For he taught that a man t s body was entirely consumed by

the earth, except only the bone called AI Ajb which we

name the os coceygis or rumpbone; and that as it was the

first formed in the human body, it will also remain uncorrupted

till the last day, as a seed from whence the whole

is to be renewed; and this, he said, would be effected by

a forty days’ rain which Cod would. send, and which w~uld

cover the earth 10 the height of twelve cubits, and cause the

bodies to sprout forth like plants. Herein also is Mahomed

beholden to the Jews who say the same things of the bone,

Luz excepting that what Mahomed attributes to a great rain

would be effected according to them by a dew impregnating

the dust of the earth.

Signs of the Resurrection.-The approach of the day of

resurrection will be known from certain signs which are to

precede it; for example:-

  1. The rising of the sun’in the west.

(b) The appearance of the beast Dajjal, a monster of

the most curious appearance, who would preach

the truth of Islam in Arabic language. The

beast in the Revelation (Luke, xxiii: 8) seems,

according to Dr. Sale, to be responsible for this

idea.

( c) The coming of the Mehdi.

(d). The blast of the trumpet called Sur, which will be sounded three times.

All these are more or less Jewish ideas, So is the teaching that after the Resurrection, but before Judgment the resuscitated souls will have to wait for a long time

under the burning heat of the sun which would descend to

within a few yards of their heads

The Day of Judgment .-After mankind have waited

for fixed time God will, at length, appear to judge them,

Mahomed taking the office of intercessor. Then everyone

will be examined concerning all his actions in this life.

Some say that all the limbs and parts of the body ,will be

made to confess the sins committed by each. Each person

will be given a book in which all his actions arc recorded.

These books will-be weighed in a balance to be held by

Gabriel. Those whose good actions are heavier than the

bad ones, will be sent to Heaven; and those whose evil

actions preponderate, to the Hell. This belief has been taken

in its entirety from the Jews, “The old Jewish writers,”

says Dr, Sale, “make mention as well of the books to be

produced at the last day wherein men’s actions are registered,

as of the balance wherein they shall be weighed.

 

The Jews in their turn borrowed this idea from the

Zoroastrians. Dr. Sale hints that the Old Testament seems

to have given the first notion of both (Exod., xxxii, 32-33 ;

Dan., vii, 10; Revel., xx, 12; Dan., v, 27.) but, he

admits, “what the Persian Magi believe of the’ balance’

comes nearest to the Mahomedan opinion. They hold that

on the day of Judgment two angels named Mehr and Sarush

will stand on the bridge we shall describe by and by, to

examine every person as he passes; that the former ,,,ho

represents divine mercy will hold a balance in his hand to

weigh the actions of men; that according to the report he

shall make thereof to God sentence will be pronounced, and

those ‘whose good works are found more ponderous, if they

turn the scale but by the weight of a hair, will be permitted

to pass forward to paradise; but those whose good works

shall be found light will be, by the other angel who represents

God’s justice, precipitated from the bridge into hell.”*

On the road to heaven is the bridge called by

Mahomed Al Sirai. This bridge is thrown over the abyss

of hell, and is said to be finer than a hair, and sharper than

the edge of a sword. Over this bridge the Muslims will

easily pass led by Mahomed; whereas the wicked will

soon miss their footing and fall down headlong into hell

which is gaping beneath them. The Jews likewise speak

of the bridge of hell which, according to them, is no

broader than a thread. For this idea the Jews and

the Mahomedans seem to be equally indebted to the

Zoroastrians who teach that on the last day all men will be

obliged to pass over a bridge called Pul Chinavad.

 

Paradise.-After passing the Al Sirai, the faithful will

reach paradise ‘which is situated in the seventh heaven.

The Mahomedan conception of paradise is that of a

beautiful garden, furnished with springs, fountains, and

rivers flowing with water, milk, honey and balsam, and

trees having their trunks of gold, and producing the most

delicious fruits. Above all, there will be seventy resplendent

ravishing girls called hur-ul-ayun on account of their big

black eyes. For almost. the whole of this description

Mahomed is indebted to the Jews. “The Jews constantly

describe the future mansion of the just as a delicious garden,

and make it also reach the seventh heaven ( vide Gemar

Tanith, f. 25; Biracoth, f. 34; Midrash Sabboth, f. 37).

They also say it has three gates ……… and four rivers

Flowing with milk, wine, balsam and honey.-( MiJrash,

Yalkul Shcwini).”:::

It is more than probable that the Jews themselves

borrowed this idea from the Zoroastrians, who described

the felicities of paradise in similar language. Dr. Sale

observes: “The Persian Magi had also an idea of the

future happy state of the good, very little different from

that of Mahomed. Paradise they call Bihishl, and Minu,

which signifies crystal, where they believe the righteous’

shall enjoy all manner of delights and particularly, the

company of huran-i-Bihisht or black-eyed nymphs of

paradise, the care of whom, they say, is committed to the

angel Zamiyad and hence Mahomed seems to have taken the

first hint of his paradisiacal ladies. “t

We may also quote from Nama Mihabad, one of the

later writings of the Parsis: “The lowest order of heaven

is this that its inmates will enjoy all the delights of this

world: nymphs, male and female slaves, meat and drink,

clothing and bedding, articles of furniture, and other things

which ca~not be enumerated here.”-Mihabad, 40 & 41. :::

 

Hell.-Similarly the different torments of hell, the

seY~n compartments into ,,,·hich it is said to be divided,

and the partition called Al Aira/, separating heaven from

hell, all seem to be copied from the Jews.

 

SECTION 3

GOD AND THE DEVIL

 

The Mahomedan conception of God agrees almost

exactly with the Jewish notion. And the doctrine that there

arc two powers in the world, a good and benevolent

power, viz., God, and an evil’ and malevolent power, Viz.,

Satan, is also taken from the Jews. This notion, which

seriously mars the Monotheism of the Bible and the

Koran, was certainly borrowed by the Jews from the

Zoroastrians, vrho call these (wo principles Spenla Mainyu

and A ngira M ainyu. In a later chapter we shall discuss

this question more fully, and show how this Zoroastrian

idea can be traced to a beautiful allegory in the Veda,

describing the struggle of good and evil in this world; and

how this allegory was misunderstood till in the hands of the

Jews, Christians, and Mahomedans, it degenerated into a

belief in two powers, Satan having been elevated to a

position a little below that of the Deily. This is a very

important point, and will show, in a remarkable manner,

how the stream of religious thought has flowed from the

Vedas to the Zend Avesta, and thence to the Bible and

the Koran.

 

SECTION 4

RELIGIOUS PRACTICES

We have show’n so far that the principal dogmas of the

Mahomedan religion have a Judaic origin. We shall next

show that their religious practices can’be traced to the same

source.

There are four duties incumbent upon every

Mahomedan: viz., (i) Prayer; (ii) Fasting; (iii) Zakat

or charity; and ( iv) Pilgrimage to Mecca.

(i) Prayer.-The following extract from. the Dasalir

would show to the reader that the several postures of the

followers of the Prophet at prayers have been probably’

copied from the Zoroastrians:-

II During prayer a pious and wise man should stand

ahead, and the rest should stand behind him. A man

(during prayer) should stand erect and join his hands

together; then bow down, then prostrate himself on the

ground; then again stand erect, place one of his hands on

the head, and removing it place the other hand on the

head; then raise his head and clasp his hands without

joining the thumbs, place his thumbs on his eyes, making

the fingers reach the head, then bend his head down to his

breast; then raise it; then sit on the ground; then putting

his hand on the ground and kneeling down touch the

ground with his forehead, and then with each side of the

face; then prostrate himself on the ground like a staff;

then stretch his hand till the breast touches the ,ground,

then do the same with, the thighs; then kneel down;

then squat, and place his head on his folded hands.

Such prayer is to be addressed to none but God.”:::

 

The practice among Mahomedans of saying their

prayer with their faces towards the Kabah is likewise

borrowed from the Jews who constantly pray with their

faces turned towards the temple of Jerusale~. ” The

same,” observes Dr. Sale, ” was the Kibla of Mahomed

and his followers for six or seven months (some say eighteen

months, vide Abulfed, Nit. Moh., p. 54), till he found

himself obliged to change it for the. Kabah. tt;:;

The practice of performing before prayers ablutions

with water or sand is also borrowed from the Jews and

the Persians. The. circumcision is well-known to be a

Jewish custom.

 

(ii) Fasling.-Speaking of Mahomed’s ordinances

concerning fasting, Dr. Sale traces them to those of the Jews,

and observes: “That nation, when they fast abstain not

only from eating and drinking but from women and from

anointing themselves, from daybreak until sunset ……….. :

spending the night in taking what refreshments they please,

(Gemar Yama, f. 40, etc. )”

 

(iii) Charily.-This is of two kinds, viz., ( 1 ) Zakat,

and ( 2) Sadka; and specific rules are laid down for the

giving of these alms. In these rules also Dr. Sale observes the

footsteps of the Jews, ( Vide. Prel. Dis., p. 87).

 

(iv) The Haj or Pilgrimage to Mecca . …;;.. The pilgrimage

to Mecca was not borrowed from the Jews, but was a

relic of the pagan Arabs. The temple of Mecca had long

been held in singular veneration by the Arabs, and the

Prophet considered it inexpedient to disturb the belief.

 

SECTION 5

NEGATIVE PRECEPTS

 

Among the negative precepts common to the Jews and

the Mahomedans may be mentioned abstaining from gaming ;:::

wine ; usuryt and certain kinds of prohibited meats.

Regarding prohibited meats we read in the Koran as

follows :-” Ye are forbidden to eat that which diet of

itself, and blood, and swine’ s flesh, and that on which the

name of any besides God has been invocated, and that

which hath been strangled or killed by a blow, or by a

fall, or by the horns of another beast, and that which has

been eaten by a wild beast, except what ye shall kill yourselves,

and that which, had been sacrificed to idols.”

 

In these particulars,” says Dr. Sale, ” Mahomed seems chiefly

to have imitated the Jews, by whose law, as is well-known,

all those things are for bidden, but he allowed some things

to be eaten which Moses did not. ”

 

SECTION 6

CIVIL INSTITUTIONS

 

The civil institution of the Mahomedans are founded

upon the Koran, as those of the Jews are founded on the

Pentateuch. That the former were copied from the latter

would be evident from the following!-

 

( i) Polygamy is allowed by both, but no Mussalman

may marry more than four wives at a time. U In

making the above mentioned limitation,” observes Dr. Sale

 

Mahomed was directed by the decision of the Jewish

doctors who, by way of counsel, limit the number of wives

to four ( rJide Maimon in Halachoth Ishath, c. 14), though

their law confines them not to any certain number. “:::

 

( ii) Dirvorce is an institution common to both religions.

In allowing divorce Mahomed has followed Jews. When

a woman is divorced, she must wait for three months before

she can re-marry. This period, is called iddal. At the end

of this period, if she is found with child, she must be

delivered of it before she can marry again. These rules”

says Dr. Sale, are also copied from the Jews, according to

whom a divorced woman or widow cannot marry another

man till ninety days be passed after the divorce or death

of the husband.” Dr. Sale adds: “The institutions of

Mahomed relating to the pollution of women during their

courses, the taking of slaves to wife, and the prohibiting of

marriage within certain degrees, have likewise no small

affinity with the institution of Moses.

 

SECTION 7

SOME MINOR SIMILARITIES

( 😉 The setting apart of one day in the week for

the special service of God is also an institution of the Jews

who keep Saturday sacred. THe Christians have Sunday for

their Sabbath day. Mahomed has imitated these religions

in this respect; but for the sake of distinction he has ordered

his followers to observe Friday, instead of Saturday or

Sunday. ,

 

(if) The celebrated formula of the Koran “La-Elah-illillah” (there is no God but God) is a mere paraphrase of the Zoroastrian formula, “Nest ezad magar

Yazdan.”

( iii ) It should be further noted that every chapter of the Koran (excepting only the ninth) opens with the words “Bismillah uar Rahman er Rahim,” which. exactly

correspond to the formula with which the Zoroastrians begin

their books, Viz., fI Banam Yazdan bakhshish gar dadar (in the name of the most merciful God ).

 

SECTION 8

SUMMARY

The above is sufficient to show that Mahomedanism

has borrowed almost all its doctrines and precepts mainly

from Judaism and partly from Zoroastrianism. The religion

of the Koran cannot, therefore, claim to be a new revelation,

or a special dispensation of the Will of God. Our

Mahomedan brethren will perhaps urge; “the monotheism

of the Koran is purer and better than that of Judaism and

Christianity, to speak nothing of Zoroastrianism which is not

monotheism at all, being a belief in two gods.”· Now there

can be no doubt that the Christian conception of God is’, in

several ways, superior to the Mahomedan conception. God

is represented by the Christians as a more righteous, more

merciful, more holy and more loving being than the God of

the Koran. In another way, the theism of Christianity is

certainly inferior to that of the Koran. Christianity teaches

the doctrine of Trinity which is virtually a belief in three

gods. and in this respect the Koran teaches a stricter monotheism

than Christianity. But it is difficult to understand how

Mahomedanism can claim to teach a better theism than

Judaism; because both are equally monotheistic or equally

dualistic. Both raise Satan to a position all but equal to

that of God, and thus equally mar the purity of their

monotheism. Both have the same conception of the Divine

character; and the anthropomorphic, vacillating, and

revengeful Jehovah of the Jews finds an exact counterpart

in the Allah of the Koran, who is described as an intolerant

and despotic potentate, urging his worshippers to make war

upon, and slay, the infidels.

As for Zoroastrianism, its theism is in no way inferior ,

to that of either Judaism or Mahomedanism. ” Ahurmazda ”

says the Rev. L. H. Mills, “is one of the purest conceptions

which had yet been produced,”::: and-we may add,-is

undoubtedly the prototype ~ of the God of the Koran as

well as the God of the Bible. We shall revert to this

subject in detail later on it The great value of Mahomed’s

doctrine of the unity of God lies in its being a protest against

the degenerate Christianity of his time and the polytheism

of the Arabs among whom he lived. But however superior

to the belief of his contemporaries, the theism of the Koran

can hardly be said to be superior to that of Judaism. The

claim of the Koran, therefore, to be an independent

revelation of God, on the plea of teaching a better theism

than Judaism and Zoroastrianism, to which it can be

traced, is untenable.

What is Jihad: Abhula La Maududi

Muslims now a days find out various meaning of Jihad. Some says is a spiritual struggle within oneself against sin. Some describes as Jihad is not a violent concept. Jihad is not a declaration of war against other religions etc etc.

Let’s have a view of Abhuda Ala Maududi on this point . He (25 September 1903 – 22 September 1979), was an Indian-Pakistani scholarphilosopherjuristjournalistislamist and imam.

He strove not only to revive Islam as a renewer of the religion, but to propagate “true Islam”.

He believed that politics was essential for Islam and that it was necessary to institute sharia and preserve Islamic culture from what he saw as the evils of secularismnationalism, and women’s emancipation.

He was the founder of the Jamaat-e-Islami, the largest Islamic organisation in Asia. He and his party are thought to have been the pioneer in politicizing islam and generating support for an Islamic state in Pakistan. They are thought to have helped inspire General Muhammad Zia-ul-Haq to introduce “Sharization” to Pakistan.

 

The word ‘Jihād’ is commonly translated into English as ‘the Holy War’ and for a long while now the word has been interpreted so that it has become synonymous with a ‘mania of religion’.

 

The word ‘Jihād’ conjures up the vision of a marching band of religious fanatics with savage beards and fiery eyes brandishing drawn swords and attacking the infidels wherever they meet them and

.pressing them under the edge of the sword for the recital of Kalima

 

What Jihad Really is?:  Forcing views on others…

 

In reality Islam is a revolutionary ideology and programme which seeks to alter the social order of the whole world and rebuild it in conformity with its own tenets and ideals. ‘Muslim’ is the title of that International Revolutionary Party organized by Islam to carry into effect its revolutionary programme.

And ‘Jihād’ refers to that revolutionary struggle and utmost exertion which the Islamic Party brings into play to achieve this objective.

Objective to destroy all states:

Islam wishes to destroy all states and governments anywhere on the face of the earth which are opposed to the ideology and programme of Islam regardless of the country or the Nation which rules it.

The purpose of Islam is to set up a state on the basis of its own ideology and programme, regardless of which nation assumes the role of the standard-bearer of Islam or the rule of which nation is undermined in the process of the establishment of an ideological Islamic State.

Want to rule whole world:

Islam requires the earth—not just a portion, but the whole planet—not because the sovereignty over the earth should be wrested from one nation or several nations and vested in one particular nation. Islam wishes to press into service all forces which can bring about a revolution and a composite term for the use of all these forces is ‘Jihad’.

The Need and Objective of Jihad: Destroy un-Islamic civilizations

Those who affirm faith in Islamic ideology become members of the party of Islam.

In this manner, an International Revolutionary Party is born to which Qur’an gives the title of ‘Hizb Allah’ and which alternatively is known as Islamic Party or the Ummah of Islam’.

As soon as this party is formed, it launches the struggle to obtain the purpose for which it exists. The rationale for its existence is that it should Endeavour to destroy the hegemony of an un-Islamic system and establish in its place the rule of that social and cultural order which regulates life with balanced and humane laws, referred to by the Qur’an with the comprehensive term ‘the

word of God’.

Objectives of Jihadis as explained by Quran:

The Holy Qur’an enunciates only one purpose of the genesis of this party and that is:

“You are the best people, raised for mankind, exhorting good and warding off evil and believing in Allah.” (3: 110)

It is their objective to shatter the myth of the divinity of demi-gods and false deities and reinstate good in place of evil.

(1) “And fight them until there is no persecution and religion is professed for Allah.” (2: 193).)

(2) “If you do not do (that you are enjoined) there will be mischief in the earth and tremendous disorder”. ( 8: 73)

(3) “He is Who sent His Messenger with guidance and the religion of truth, he may make it dominant over all religions, even if the polytheists resent it”. ( 9: 33)

No system other than Islamic is allowed to be in existence :

Hence this party is left with no other choice except to capture State Authority. No party

which believes in the validity and righteousness of its own ideology can live according to its precepts under the rule of a system different from its own.

Extirpate rule of Opposing Ideology

it is impossible for a Muslim to succeed in his intention of observing the Islamic pattern of life under the authority of a non-Islamic system of government. All rules which he considers wrong; all taxes that he deems unlawful; all matters which he believes to be evil; the civilization and way of life which, in his view, are wicked; the education system which seems to him as fatal—all these will be so inexorably imposed on him, his home and his children that evasion will become impossible.

Hence a person or a group of persons are compelled by the innate demand of their faith to

strive for the extirpation of the rule of an opposing ideology and setting up a government which follows the programme and policies of their own faith, for under the authority of a government professing inimical doctrines, that person or group of persons cannot act upon their own belief. If these people evade their duty of actively striving for this end, it clearly implies that they are hypocrites and liars in their faith.

“May Allah forgive you (O Muhammad) Why didst you permitted them (to remain behind) till had become manifest to you those who were truthful and who were liars. Those who believe in Allah and the Last Day, will not seek permission (for exemption) from striving with their riches

and their lives. And Allah knows the righteous Only those will seek permission from you (to be exempted) who do not believe in Allah and the Last Day and whose hearts are full of doubts and in their doubts they waver.” (9: 43-45)

 

In these words, the Qur’an has given a clear and definite decree that the acid test of the true devotion of a party to its convictions is whether or not it expends all its resources of wealth and life in the struggle for installing its faith as the ruling power in the State.

 

Eliminate rule of un-Islamic system

It must be evident to you from this discussion that the objective of the Islamic ‘ Jihād’ is to eliminate the rule of an un-Islamic system and establish in its stead an Islamic system of state rule. Islam does not intend to confine this revolution to a single state or a few countries; the aim of Islam is to bring about a universal revolution. Although in the initial stages it is incumbent upon members of the party of Islam to carry out a revolution in the State system of the countries to which they belong, but their ultimate objective is no other than to effect a world revolution.

The same conception has been enunciated by the Holy Qur’an in the following words:

“What has happened to you? Why don’t you fight in the way of God in support of men, women and children, whom finding helpless, they have repressed; and who pray, “O God! liberate us

from this habitation which is ruled by tyrants”. (4: 75).

Hence it is imperative for the Muslim Party for reasons of both general welfare of humanity and self-defence that it should not rest content with establishing the Islamic System of Government in one territory alone, but to extend the sway of Islamic System all around as far as its resources can carry it.

Forceful conversation of un Islamic establishments:

The Muslim Party will inevitably extend invitation to the citizens of other countries to embrace the faith which holds promise of true salvation and genuine welfare for them. Even otherwise also if the Muslim Party commands adequate resources it will eliminate un-Islamic Governments and establish the power of Islamic Government in their stead. It is the same policy which was executed by the Holy Prophet (peace of Allah be upon him) and his successor illustrious caliphs (may Allah be pleased with them). Arabia, where the Muslim Party was founded, was the first country which was subjugated and brought under the rule of Islam. Later the Holy Prophet (peace of Allah be upon him) sent invitations to other surrounding states to accept the faith and ideology of Islam.

 

Historical Evidence of such wars initiated by Mohemmad and Khalifas

 When the ruling classes of those countries declined to accept this invitation to adopt the true faith, the Prophet (peace of Allah be upon him) resolved to take military action against them.

The war of Tubuk was the first in the series of military actions. When Hadrat Abu Bakr  assumed leadership ofthe Muslim Party after the Prophet have had left for his heavenly homes he launched an invasion of Rome and Iran, which were under the dominance of un-Islamic Governments. Later, Hadrat ‘Umar  carried the war to a victorious end.

The citizens of Egypt, Syria, Rome and Iran initially took these military actions as evidence of the imperialist policy of the Arab nation.

Islam a religion of violence: Danish study says

Islam a religion of violence; Quran directly incites terror, killing people of other faiths, Danish study says

Although Muslims and even some Christians call Islam a religion of peace, a new study by a Danish expert concluded that Islam, in fact, is a violent faith.

The study was reported by Jihad Watch, a group that records the killings done in the name of Islam, and WND.

Danish linguist Tina Magaard led a team of researchers who for three years studied the texts of the holy books of the world’s 10 biggest religions, the Jihad Watch report said.

“The conclusion was clear: ‘The texts of Islam [are] clearly distinct from the other religions’ texts as [they include] a higher degree call for violence and aggression against followers of other faiths.’

“There are also direct incitement[s] to terror … Moreover, in the Quran [there are] hundreds of invitations to fight against people of other faiths,” the report said.

Magaard, who holds a Ph.D. in text analysis and intercultural communication from the Sorbonne in Paris, said “it is indisputable that the texts [of Islam] encourage violence and terror.”

For instance, the study noted a verse in Quran 47:4, which states, “So when you meet those who disbelieve, strike their necks until you have inflicted slaughter upon them.”

“The fact that Islam is the world’s most violent religion is most likely the reason why Muslims since September 11, 2011, [have] committed more than 27,000 deadly terrorist attacks in the name of Islam. This corresponds to approximately 2,000 a year or five a day,” Jihad Watch pointed out.

Jihad Watch also noted that 80 percent of young Turks in the Netherlands “see ‘nothing wrong’ in waging jihad against non-Muslims.”

What is even more worrisome, according to the report, is that “the number of Muslims in the Western world is increasing dramatically and that they are becoming still more religious.”

It said “75 percent of Muslims inside Europe think that the texts of the world’s most violent religion must be taken literal.”

The Danish research also cited another study on 45,000 teenagers which concluded that “boys growing up in religious Muslim families are more likely to be violent.”

The author of that study, Christian Pfeiffer, from a criminal research institute in Lower Saxony, Germany, said even when other social factors are taken into account, there remained a significant correlation between “religiosity and readiness to use violence.”

As to be expected, the Jihad Watch report immediately drew a negative backlash from supporters of Islam.

Imam Abdul Wahid Peteresen, of Copenhagen, said the research inappropriately took quotes out of context. He asked: If Islam truly advocates violence against non-Muslims, why has Islam not “eradicated all other faiths in the communities where Muslims are in the majority?”

http://www.christiantoday.com/article/islam.a.religion.of.violence.quran.directly.incites.terror.killing.people.of.other.faiths.danish.study.says/72088.htm

पूर्वजों का मनन-चिन्तन व युक्तियाँः- राजेन्द्र जिज्ञासु

  माननीय आचार्य सोमदेव जी की पुस्तक ‘जिज्ञासा-समाधान’ के प्रथम भाग का प्राक्कथन लिखते हुए मैंने आर्यसमाज की शंका-समाधान की परपरा की ओर आर्यों का ध्यान खींचा है। इस परपरा के जनक महर्षि दयानन्द जी महाराज हैं। इस परपरा को अखण्ड बनाना हमारा पवित्र कर्त्तव्य है। पं. गुरुदत्त जी, पं. लेखराम जी, स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. गणपति शर्मा, पं. धर्मभिक्षु, पं. रामचन्द्र देहलवी, पं. नरेन्द्र जी आदि ने जान जोखिम में डालकर इस परपरा को अखण्ड बनाया है। इस स्वर्णिम इतिहास में हम भी नये-नये अध्याय जोड़ें।

मैंने प्राक्कथन में सुझाया है कि प्रत्येक आर्य वक्ता व लेखक को शंका-समाधान, प्रश्नोत्तर करते हुए पूर्वजों का नाम ले-लेकर महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उनके द्वारा दिये गये मौलिक उत्तर जोड़ने चाहिए। पूर्वजों के साहित्य की सूचियाँ देने से कुछ न बनेगा। बहुत प्रामाणिकता से उनके दिये उत्तर उद्धृत किये जायें। कुछ उदाहरण देते हैं-

  1. 1. पं. लेखराम जी ने शैतान द्वारा पाप करवाने पर लिखा है- ‘‘वास्तव में शैतान को पाचन वटी मानकर पापों से बचना छोड़ दिया।’’
  2. 2. ऋषि ने खाने-पीने से बहिश्ती मल विसर्जन करेंगे तो दुर्गंधि व प्रदूषण होगा तो गंदगी मल-मूत्र कौन उठायेगा? यह प्रश्न किया तो मौलाना सना उल्ला ने लिखा कि यह बेगार काफ़िरों से ली जायेगी। इस पर पं. चमूपति जी ने लिखा- ‘‘तो क्या दोज़ख (नरक) भी उनके साथ बहिश्त में जायेगा अथवा स्वल्प काल के लिये वे नरक से छुटकारा पायेंगे?’’
  3. 3. बहिश्त में जब सुख-सुविधायें, खाने के पदार्थ, संसार जैसे होंगे तो स्वास्थ्य रक्षा के लिए परिश्रम, पुरुषार्थ करने की क्या व्यवस्था होगी? पं. चमूपति जी का यह प्रश्न कितना स्वाभाविक व मौलिक है!

अपने सिद्धान्तों की पुष्टि मेंःहमारे विद्वान् अवैदिक मान्यताओं व पाखण्ड-खण्डन के लिए अच्छे-अच्छे लेख व पुस्तकें लिखते हैं परन्तु अब एक चूक हमारे लेखक कर रहे हैं। अन्य मतों की वेद विरुद्ध बातों की तो चुन-चुन कर चर्चा करते हैं, अवैदिक मतों के साहित्य में वैदिक सिद्धान्तों के पक्ष में लिखे गये प्रमाण अथवा वैदिक धर्म की मान्यताओं की जो रंगत बढ़ रही है, उसका प्रचार नहीं किया जाता। पुराने आर्य विद्वानों से हम यह भी सीखें यथा सर सैयद अहमद लिखते हैं-

(1) ‘‘पहले आदम को केवल वृक्षों के फल खाने की आज्ञा दी गई। पशुओं के मांस के खाने की अनुमति नहीं थी।’’

(2) ‘परोपकारी’ में ‘तड़प-झड़प’ में अमरीका से प्रकाशित नये बाइबिल से प्रमाण दिये गये थे कि सृष्टि की उत्पत्ति के वर्णन में अब शाकाहार का ही आदेश हैं। माँसाहार का हटा दिया गया है।

(3) आदि सृष्टि में अनेक युवा पुरुष व स्त्रियाँ पैदा की गई, बाइबिल में यह वर्णन पढ़कर ऋषि की जयकार क्यों नहीं लगाई जाती। ऐसे-ऐसे प्रमाण खोज-खोज कर हम सब दें।

(4) ब्रह्माकुमारी वाले बार-बार ईश्वर की सर्वव्यापकता का खण्डन करते हुए कई कुतर्क देते हैं। इससे ईश्वर मल-मूत्र में भी मानना पड़ेगा। जहाँ क्रिया होगी, वहाँ कर्त्ता होगा ही। जहाँ कर्त्ता होगा, वहीं क्रिया होगी। सृष्टि में कहाँ गति नहीं। परमाणु में भी विज्ञान गति मानता है। वेद भी डंके की चोट से यही कहता है। जगत् शब्द ही गति का बोध करवाता है फिर ईश्वर की सर्वव्यापकता में संशय क्या रहा? क्या गंदे नालों में कीड़े-मकोड़े पैदा नहीं होते? इन्हें क्या ईश्वर नहीं बनाता? ईश्वर का नाक ही नहीं, उसे दुर्गंधि क्यों आयेगी? उसका शरीर ही नहीं (अकायम) उसे मल क्यों चिपकेगा? ये कुछ संकेत यहाँ दिये हैं। मैं तो पूर्वजों की इस शैली को ध्यान में रखता हूँ। आगे कभी फिर इस पर लिखा जावेगा।

क्या बिस्मिल्लाह कुरान में पारसियों की नकल से लिखा गया ?

मुस्लमान कुरान के बारे में दावा करते हैं की कुरआन मुहम्मद साहब पर नाजिल हुआ (उतरा ). ये खुदा का नवीनतम ज्ञान है जो खुदा ने अपनी पुरानी किताबों को निरस्त कर मुहम्मद साहब को दिया .

कुरआन की शुरुआत बिस्मिल्लाह से की जाती है . कुरान के अधिकतर सुरों की शुरुआत बिस्मिल्लाह से ही हुयी है . इस लिहाज़ से ये कुछ खास हो जाता है . अधिकतर कार्यों को करते हुए भी बिस्मिल्लाह पढ़ना शुभ माना जाता है यहाँ तक की सम्भोग करते हुए भी बिस्मिल्लाह पढने की रिवायतें हदीसों में मिलती हैं.

व्यक्ति कुछ लिखना आरम्भ करने से पहले सामान्यतया कुछ न कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं . जैसे भारतवर्ष में जब कोई व्यकित किताब या कोई लेख इत्यादि लिखते हैं तो ॐ, जय श्री राम इत्यादि शब्दों का प्रयोग करते हैं .इसी प्रकार के शब्दों का प्रयोग अरब और उसके आसपास के इलाकों में होता था .

इसी प्रकार पारसी भी अपनी किताबों के साथ ऐसे ही कुछ शब्दों का प्रयोग किया करते थे . जिसके अर्थ बिस्मिल्लाह होते थे . अनेकों विद्वानों का यह मानना है कि बिस्मिल्लाह आयत कुरान के लेखक ने पारसियों की किताबों से लिया है .

क्या बिस्मिल्लाह पारसियों से लिया गया है ?

ये देखिये सेल साहब क्या लिखते हैं :-

प्रत्येक अध्याय के शीर्षक के बाद , केवल नवें अध्याय को छोड़कर , मुसलमान बिस्मिल्लाह लिखते हैं जिसका अर्थ है महानतम दयावान के नाम पर .यह उनकी सामान्य प्रचलित पद्धिति है जिसे जो हर लेख या किताब के प्रारंभ में लिखते हैं . JEWS भी इसी तरह के शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसे –भगवान के नाम पर , महान  भगवान् के नाम पर , इसी तरह इसाई महान भगवान् और उसके पुत्र के नाम पर लिखते हैं . लेकिन मुझे लगता है कि ये तरीका मुसलामानों ने पारसीयों से लिया है जैसे कि उन्होंने दूसरी बहुत सी चीजें पारसियों से ली हैं . पारसी अपनी किताबों के आरम्भ में “ BENAM YEZDAN BAKHSHAISHGHER DADAR” लिखते थे जिसका अर्थ बिस्मिल्लाह अर्थात “महानतम दयावान के नाम पर” पर ही होता है .

अब जरा तफसीर जलालैन के लेखक के विचार इस बारे में जानते हैं .

Picture2

 

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क्या बिस्मिल्लाह के बाब ( अध्याय ) में आप ने दुसरे मजहब की (तकलीद नक़ल ) की है ?

पारसियों और मज़ुसियों के दसातीर में हर नामह ( किताब ) की शुरुआत भी कुछ इसी किस्म के अलफ़ाज़ से होती है .मसलन मौजूदा इन्जील के बाज ( कुछ ) इफ्ताताई ( प्राकत्थन लिखना ) अलफ़ाज़ भी कुछ इसी तरह के हैं जिससे यह साबित हो सकता है कि आं हजरत ने इन्हीं या दसातीर से استفاده (सुना होगा ) और बिस्मिल्लाह से कुरान ए करीम की इब्तदाई करने में में इनकी तकलीद और इक्त्दा (नक़ल ) की होगी . लेकिन अव्वल तो इन्जील के कदीम (पुराने ) और सहीह नुस्खों में नहीं है जिससे बरअक्स ये साबित होता है कि ईसाईयों ने मुसलामानों की देखा देखी कुरान की तकलीद की है . अलबत्ता पारसियों की दसातीर का जहाँ तक ताल्लुक है तो नहीं कभी आप (हजरत मुहम्मद साहब ) यूनान तशरीफ़ ले गए और  न ही अरब में किसे मजूसी (पारसियों से सम्बंधित ) आलिम या किताब खाना और मदरसा का नामोनिशान था .

इस जमाने में तो मजूस की मजहबी किताबों का अपनी कौम और मुल्क में पूरी तरह ईसायत और रिवाज़ भी नहीं था . खास खास लोग बतौर तबरक (आशीर्वाद ) दूसरों की नज़रों से अपनी मजहबी किताबों को छुपा कर रखते थे ताकि दुसरे लोग नहीं देख लें . मुल्क अरब तक इसकी नौबत कहाँ पहुँचती और फिर आप ( मुहम्मद साहब ) खुद अपनी जुबान के लिखने पढने तक से वाकिफ नहीं थी की नौबत यहाँ तक पहुँचती .

रहा हजरत सलमान फ़ारसी का मामला सुरा एक गुलाम में कोइ मजहबी आलम नहीं थे . अगर आप इनसे (इस्तफादः استفاده) फायदा लेते करते तो वो उलटे वो खुद आप के मोताकित ( भाग , विश्वास करने वाले ) कैसे हो जाते और अपने मुल्क की हर तरह की नाकाबिल बर्दाश्त तकलीफ सहह कर आपकी खिदमत में باعش अनुकूल फखर क्यों समझते .

अलावा इसके दूसरी बात यह कि अगर आप आं हजरत ने दूसरों की तकलीद में ऐसा किया भी है तो इससे आप आं हजरत की محاسن माहानता  अच्छे कार्य में इजाफा होता है और इससे आप आं हजरत की इन्साफ पसंदी   बुलंदी फक्र का अंदाजा होता है कि आप आं हजरत में दूसरों की अच्छाइयों और भलाइयों से किनाराकशी न की जाए   और   उनको अपनाने का जज्बा मौजूद थाबूल . और खुले दिल दिमाग से उनको करने का दूसरों को भी मशवरा देते थे . मुतासिब ( किसी की सहायता करना ) मुआनिद ( बात न मनाने वाला )  शख्स से कभी इस किस्म की तौकह (शर्म) नहीं की   जा सकती है  नहीं इस्लाम ने कभी अछूते और नए होने का ऐलान नहीं किया बल्कि हमेशा आपने पुराने और करीम होने पर फक्र किया है . यानी यह कह इसके तमाम उसूल करीम और पुराने हैं जिनकी तबलीक ( उपदेश ) अलैह्म करते चले आ रहे हैं .इस में कोई नई बात नहीं है बजूज (सिवाय ) इसके कि नादानों ने गलत रस्मों रिवाज की तहों और परतों में छिपा कर असल हकीकत को गम कर दिया था इसने फिर परदे हटा दिए और असल हकीकत को चमका दिया. पस इस तरह खुदा के नाम इफ्तताह करीम ज़माना और करीम मज़हब से चला आ रहा हो और इस्लाम ने भी इस की तकलीद की  हो तो काबिल ऐतराज ब्बत्त क्या रहा जाती है ?

तफसीर जलालैन के लेखक यह स्वीकार करते हैं कि हो सकता है कि बिस्मिल्लाह पारसियों से लिया गया हो और यदि ले लिया तो फिर परेशानी क्या है ये तो मुहम्मद साहब का बढ़प्पन था .

लेकिन कुरान कहता है की कुरान की तरह दूसरी आयत कोई नहीं बना सकता . बिस्मिल्लाह भी कुरान का हिस्सा है . यदि तफसीर ए जलालैन के लेखक के मुताबिक़ यह मान लिया जाये कि बिस्मिल्लाह पारसियों से लिया गया हो सकता है तो यह तो कुरान की तरह की आयत हो गयी जो पारसियों ने खुद बना ली थी . यह आयत को पारसियों को अल्लाह ने नहीं दी थी .

जब पारसी कुरान की तरह की एक आयत बना सकते हैं तो फिर कुरान की तरह की दूसरी आयते क्यों नहीं बनायी जा सकती .

और काफिरों द्वारा बनाई गयी इस आयत का महत्व तो देखिये कि कुरान के अधिकतर सुरों की शुरुआत ही इसी से होती है

मुसलमानों का इस बात को मानना कि यह आयत पारसियों से ली गयी हो सकती है , मुसलमानों के कुरान के खुदाई किताब होने के दावे की धज्जियाँ  उड़ा देती है .

Pakistanis are basically Hindus, Pakistani lady scholar admits

A brave Pakistani lady scholar boldly states what many Indians won’t.

In a landmark confession of truth, an enlightened Muslim intellectual, Fauzia Syed, declared during a discussion on a television channel that all Pakistani and Bangladeshi Muslims are essentially Hindus, and that in rare cases, they might be Buddhists.

The lady activist lamented that a lot of Muslims, mainly Pakistani and Bangladeshi, have a hard time accepting the fact that their ancestors were Hindus who were converted by force of sword to Islam. The gutsy lady said this in a live television show while responding to the argument of radical Pakistani Muslim preacher Zaid Hamid.

Syed’s bold assertion of the truth is a clarion call to Hindus to wake up from slumber and re-educate and enlighten the Muslims of the sub-continent about their ancestry and massacres of their forefathers. Unfortunately till now, no Hindu has responded to her wakeup call.

Explaining her viewpoint lucidly, Fauzia said that most Pakistani Muslims believe they are the offspring of the Muslim invaders who came attacking the sub-continent from Muslim lands. But this is an unalloyed falsehood. Any person having a hint of common sense would know that the ancestors of more than 99 percent Pakistanis were Hindus. Unfortunately, Pakistan does not want to admit the bitter truth, nor are the Pakistanis prepared to hear it, she averred.

One simply marvels at the extensively propagated falsehood that Pakistani Muslims are progeny of Arab or Turk invaders. Equally dumb is the assertion that the forefathers of today’s Muslims in Pakistan and India were converted by Sufi saints. Anyone who reads the history of the sub-continent objectively would know that lakhs of Hindus were killed and forcibly converted by Muslim invaders on pain of death. The deep blood relationship between the Muslims and Hindus of the sub-continent is further reinforced by the fact that many surnames like Cheema, Bajwa, Ghakhar, Sethi and also Sehgal (or Saigols) are common to both communities.

Among other things, Fauzia pointed out that it is not wrong to call Pakistan a terrorist state because it has been sheltering terrorists for a long time. The truth was exposed when Osama bin Laden was killed in Pakistan by American
commandos.

It is indeed a sign of the dumbness of Hindu society that this bold Pakistani human rights activist has not been invited to speak in India and interact with the intellectuals, media analysts and common citizens about her incontrovertible true statement on a Pakistani television channel. In any case, the matter deserves the focused attention of the Hindu intelligentsia.

It is not late even now to invite Fauzia Syed to India for a meaningful ‘samvad’ at the India International Centre, New Delhi and then to make her address the Indians in various parts of the country. The opportunity should not be missed and Fauzia Syed must be invited to India for sharing her views with Hindus and Muslims of India. The failure of Hindu society in ignoring the bold and truthful assertion by Fauzia Syed confirms that we continue to be somnolent.

An honest reappraisal of the common heritage of India and Pakistan will totally support Fauzia Syed’s assertion. For centuries, geographically as well as politically, Bharat, i.e., India, included the entire landmass from Bactria (known as Vaahlik Pradesh), the entire Afghanistan, the present day Pakistan, today’s Bharat (i.e., India) and the whole of Bangladesh.

The indescribable savagery of the Muslim invaders unleashed against Hindus of the sub-continent was highlighted by the well known historian, Will Durant, in his book, The Story of Civilization, in the following words:

“The Mohammadan conquest of India is probably the bloodiest story in history. It is a discouraging tale, for its evident moral is that civilization is a precarious thing, whose delicate complex of order and liberty, culture and peace may at any time be overthrown by barbarians invading from without or multiplying within.”

Thus, the bold assertion of Fauzia Syed that the Hindus of Pakistan, nay of the entire sub-continent, were forcibly converted to Islam by sword is absolutely correct. It is time that the gory narrative of the slaughter of Hindu forbears of today’s Pakistani Muslims is brought out of closet and debated publicly by inviting the braveheart Pakistani lady scholar to India.

article is taken from the link below:

http://indiatomorrow.co/nation/3892-pakistanis-are-basically-hindus-pakistani-lady-scholar-admits

Leaving Islam…..Aditya Nandiwardhana

‘No matter how many good things you have done before you kick the bucket, if you are not a Muslim, then bad news for you. Even back then, I had a problem accepting that part of the religious teaching’

“In the afterlife, only Muslims get to enter paradise.”

That was what my Quran tutor told me when I was in fourth grade. The moment she told me that, I was really, really, surprised.

I was raised as a Muslim, and like any other Muslim kid in Indonesia, I had to learn how to recite the Quran. My father hired a Quran tutor for me and I spent a couple of hours 3 days a week with her. I did not only learn how to recite the Quran from her, I also learned about Islam in general, about what Islam (well, at least her version of Islam) teaches us.

One of the things that I learned from her was that entering paradise is a Muslim privilege. No matter how many good things you have done before you kick the bucket, if you are not a Muslim, then bad news for you.

Even back then, I had a problem accepting that part of the religious teaching.

Here is the thing, I was born into the Muslim tradition because my father is a Muslim man. However, that was not the only tradition that I was born into.

My mother is a Catholic woman, a devout one in my opinion. When I was very little, I spent a lot of time with my grandparents from my mother’s side. They had to babysit me a lot because both my parents were working back then.

They had a lot of Catholic ornaments in their house – crucifixes on the walls, a statue of Virgin Mary, pictures of various saints, and many others. They would tell me stories about Jesus when they were babysitting me and I liked those stories.

When I was not being babysat by them, my father usually told me to perform shalat prayers with him. I did not know how to actually perform the prayers, of course, but I would just follow the movements from him.

That was my early childhood. I was always aware of the fact that my parents had different religious backgrounds. I did not have any problem accepting that fact – it all just made sense to me. I also knew that there were other people with other religious beliefs out there and thought that all of those different beliefs were as valid as mine. I had already identified as a Muslim at the time. If anyone asked me what my religion was, I would answer: Islam.

I never thought that my religion was superior to others, though. Until my Quran tutor taught me otherwise.

Becoming agnostic

I guess that was the starting point of the journey that led me to become an agnostic-atheist.

I had a problem accepting the doctrine of the superiority of Islam over other religious beliefs, that only Muslims can enter paradise after the apocalypse. I loved my grandparents and I thought that it was not fair that they were going to hell just because they believed in God in a different way than I did. As I grew up, I started having other questions regarding other aspects of Islam such as the role of women in the traditional views of Islam and LGBT rights, but I was also afraid to question those views further because I did not want to go to hell for doubting my faith.

It wasn’t until my second year of university that I finally stopped practicing Islam. I stopped performing shalat, I stopped going to the masjid (mosque) every Friday, and I stopped performing shawm (fasting) during Ramadan. I did not identify as a Muslim anymore. I was not an atheist yet at the time. I was kind of a deist, still believing in a “higher power” of some sort. But I had finally become a murtadin (apostate).

I was not open about my epiphany to my parents. I lived in a kost (a boarding house for university students) in Yogyakarta when I first stopped identifying as a Muslim, while my parents lived in Jakarta, so that made it easier for me. But every time I went back to my parents’ house in Jakarta, I would pretend that I was still a Muslim.

I would try to get out of the house every time it was near prayer time, because I did not want to pray with my father. Of course I could not always get out of the house during prayer time, so I had to pretend to pray with my father during those occasions.

“The main crisis that humanity faces now is not religion, as many atheists would suggest. it is the oppressive power structures that oppress lgbt people, religious minorities (including but not limited to atheists), women, the working class and other oppressed groups.”

Ramadan was the hardest challenge for me. I had to pretend that I was fasting and think of how to sneak food into my room without getting caught. Every time I went back to Jakarta during university break, I could not wait to go home to my kost in Yogyakarta.

Exploring Buddhism

I began to have curiosity about Buddhism during my first years of apostasy. I read a lot about Buddhism and also went to the local Buddhist temple near my kost to learn more about it. I used to meditate regularly, and I am still trying to now.

This artilcle was taken from the following web portal

 

http://www.rappler.com/world/regions/asia-pacific/indonesia/bahasa/englishedition/106964-atheist-islam

Sex Jihad and Western Disbelief : Yash Arya

http://www.raymondibrahim.com/from-the-arab-world/sex-jihad-and-western-disbelief/

The sex jihad is back in the news.  Last Thursday, September 19, during an address to the National Constituent Assembly, Tunisian Interior Minister Lotfi Bin Jeddo announced that Tunisian girls who had traveled to Syria to perform “sex jihad” had returned after being sexually “swapped between 20, 30, and 100 rebels and they come back bearing the fruit of sexual contacts [from pregnancies to diseases] in the name of sexual jihad and we are silent doing nothing and standing idle.”

[Sixteen-year-old Rahma: Her parents appeared in tears on TV bemoaning how she was “brainwashed” to join the sex jihad.]

Several video interviews with Tunisian females who went to the sex jihad further testify to the veracity of this phenomenon.  For example, 19-year-old Lamia, upon returning, confessed how she was made to have sex with countless men—including Pakistanis, Afghanis, Libyans, Tunisians, Iraqis, Saudis, Somalis, and a Yemeni, all in the context of the “sex jihad,” and that she and many other women were abused, beaten, and forced to do things “that contradict all sense of human worth.”  Now back in Tunisia, Lamia has been to a doctor finding that she is five months pregnant. Both she and her unborn are carrying the aids virus (read her whole story).

Other interviewed women have told of how they were “fooled,” or how their husbands (they being one of four wives) divorced and sent them to Syria for the sex jihad, with assurances that they would be guaranteed paradise in the afterlife.  One 16-year-old explained how her father ordered her to have sex with several jihadi “liberators.”

Due to the severity of this matter, since March, 6,000 Tunisians were banned from travelling to Syria; 86 individuals suspected of forming “cells” to send Tunisian youth to Syria have been arrested.

Back in April, Sheikh Othman Battikh, former Mufti of Tunisia, said before reporters that, “For Jihad in Syria, they are now pushing girls to go there. Thirteen young girls have been sent for sexual jihad. What is this? This is called prostitution. It is moral educational corruption.”

He was dismissed from his position as Mufti of Tunisia days later.

However, as I wrote back in June when reporting on the sex jihad phenomenon:

Muslim women prostituting themselves in this case is being considered a legitimate jihad because such women are making sacrifices—their chastity, their dignity—in order to help apparently sexually-frustrated jihadis better focus on the war to empower Islam in Syria.

And it is prostitution—for they are promised payment, albeit in the afterlife. The Koran declares that “Allah has purchased of the believers their persons [their bodies] and their goods; for theirs (in return) is the garden (of Paradise): they fight in His cause, and slay and are slain (Yusuf Ali trans. 9:111).

At any rate, while news that Muslim girls in hijabs are prostituting themselves in the name of Islam may be instinctively dismissed as a “hoax,” the fact is, Islamic clerics regularly issue fatwas permitting forbidden, if not bizarre, things.

The fundamental criterion is that they help the jihad to empower Islam.

For instance, not only did the original “underwear bomber” Abdullah Hassan al-Asiri hide explosives in his rectum to assassinate Saudi Prince Muhammad bin Nayef—they met in 2009 after the 22-year-old Asiri “feigned repentance for his jihadi views”—but, according to Shi‘ite talk-show host Abdullah Al-Khallaf, he had fellow jihadis sodomize him to “widen” his anus to fit more explosives.

Al-Khallaf read the fatwa that purportedly justified such actions during a 2012 Fadak TV episode.  After praising Allah and declaring that sodomy is forbidden in Islam, the fatwa asserted:

However, jihad comes first, for it is the pinnacle of Islam, and if the pinnacle of Islam can only be achieved through sodomy, then there is no wrong in it. For the overarching rule of [Islamic] jurisprudence asserts that “necessity makes permissible the prohibited.” And if obligatory matters can only be achieved by performing the prohibited, then it becomes obligatory to perform the prohibited, and there is no greater duty than jihad. After he sodomizes you, you must ask Allah for forgiveness and praise him all the more. And know that Allah will reward the jihadis on the Day of Resurrection, according to their intentions—and your intention, Allah willing, is for the victory of Islam, and we ask that Allah accept it of you.

Two important points emerge here: first, jihad is the “pinnacle” of Islam—for it makes Islam supreme; and second, the idea that “necessity makes permissible the prohibited.” Thus, because making Islam supreme through jihad is the greatest priority, anything and everything that is otherwise banned becomes permissible. All that comes to matter is one’s intention, or niyya (see Sheikh Yusuf al-Qaradawi’s discussion along these lines).

Hence the many seeming contradictions in Islam: Muslim women must chastely be covered head-to-toe—yet, in the service of jihad, they are allowed to prostitute their bodies. Sodomy is forbidden—but permissible if rationalized as a way to kill infidels and/or apostates.  Lying is forbidden—but permissible to empower Islam. Suicide is forbidden—but permissible during the jihad—when it is called “martyrdom.”  Intentionally killing women and children is forbidden—but permissible during an Islamic jihad raid, as happened last weekend in both Peshawar and Nairobi.

One may therefore expect anything from would-be jihadis, regardless of how un-Islamic their actions may otherwise seem.

And yet, here in the West, many still refuse to believe the existence of such fatwas,habitually dismissing them as “hoaxes”—despite all the evidence otherwise: from a top Tunisian government official openly bemoaning the effects of the sex jihad on Tunisian girls, to several Arabic-language videos and reports of women discussing their experiences in the sex jihad.

Few things are more demonstrative of the arrogant mindset that proliferates amongst Western “progressives” than this inability to believe.

And it’s quite ironic:  for while supposedly “closed-minded” and “bigoted” conservatives tend to take the words, teachings, and deeds of Muslim clerics and jihadis at face value—and thus respect them as autonomous individuals—liberals, who always claim to “respect other cultures,” often reject as “hoaxes” any news that contradicts their culturally-induced worldviews—since apparently everyone in the world shares in their standards.

If that’s not an ethnocentric position—an especially dangerous one at that—what is?

 

author can be reached at :

https://yasharya.wordpress.com/

तमाम मुसलमान इस्लाम छोड़ जायेंगे .- डॉ गुलाम जेलानी

जो लोग दूर दराज  मुल्कों में सफर करने के आदी हैं वो इस हकीकत से आगाज़ हैं कि  सूरज गुरूब  नहीं होता . जब पाकिस्तान में सूरज डूब  जाता है तो मिश्र में लोग शाम की चाय पी रहे होते हैं. वहीं इंगलिश्तान में दोपहर का खाना खा रहे होते हैं और अमरीका के बाज हिस्सों में सूरज निकल रहा होता है . अगर आप बीस काबिल एहातिमाद   घड़ियाँ  साथ रखकर एक तियारे में विलायत चले जाएँ तो वहां जा कर आप हैरान हो जायेंगे की जब यह तमाम घड़ियाँ  शाम के आठ बजा रही होंगी वहां दिन का डेढ़ बज रहा होगा अगर आप एक तेज रफ़्तार रोकेट में बैठ कर अमरीका चले जाएँ तो यह देख कर आपकी हैरत और बढ़ जायेगी कि इन घड़ियों के मुताबिक सूरज तुलुह  हो जाना चाहिए था लेकिन वहां डूब रहा होगा अगर इन्ही घड़ियों के साथ आप जापान की तरफ रवाना हो जाएँ तो पाकिस्तानी वकत के मुताबिक वहां एनितीन  दोपहर सूरज डूब रहा होगा . खुलासा यह की रात के ठीक बारह बजे इंगलिस्तान में शाम के शाम के साढ़े पांच बज रहे होंगे और  हवाई में सुबह के साढ़े पांच .

 

आज घर घर रेडियो मौजूद है रात के नौ बजे रडियो के पास बैठ के पहले इंगलिस्तान लगायें फिर टोकियो और इस के बाद अमरीका आपको मन में यकीन हो जाएगा की जमीन का साया (रात ) नसब (आधा )   दुनिया पर है और नसब (आधा )   पर आफताब पूरी आबोताब . के साथ चमक रहा है .

 

इस हकीकत की वजाहत के बाद आप ज़रा यह हदीस पढ़ें –

अबुदर फरमाते हैं की एक मर्तबा गुरूब आफताब  के बाद रसूल आलः ने मुझ से पूछा क्या तुम जानते हो कि ग़ुरबत के बाद आफताब कहाँ चला जाता है . मैने कहा अल्लाह और उसका रसूल बेहतर जानते हैं आपने फ़रमाया की सूरज खुदाई तख़्त ने नीचे सजदे में गिर जाता है और दुबारा तालोह होने की इजाजत मांगता  है और उसे मुशरफ से दोबारा निकलने की इजाजत मिल जाती है लेकिन एक वकत ऐसा भी आयेगा की उसे इजाजत नहीं मिलेगी . और हुकुम होगा की लौट जाओ जिस तरफ से आये हो ……… वह मगरब की तरफ से निकलना शुरू करेगा और.तफसीर यही है .

अगर हम रात के दस बचे पाकिस्तान रेडियो से दुनिया को या हदीस सुना दें और कहें की इस वकत सूरज अर्श   के नीचे सजदे में पड़ा हुआ है तो सारी मगरबी  दुनिया खिलखिला कर हंस देगी और वहाँ के तमाम मुसलमान इस्लाम छोड़ जायेंगे .