ओ३म्
‘वेदाविर्भाव और वेदाध्ययन की परम्परा पर विचार’
सृष्टिकाल के आरम्भ से देश में अनेक ऋषि व महर्षि उत्पन्न हुए हैं। इन सबकी श्रद्धा व पूरी निष्ठा ईश्वरीय ज्ञान वेदों में रही है। यह वेद सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा हमारे अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को उनकी आत्मा में अपने आत्मस्थ स्वरूप से प्रेरणा द्वारा प्रदान किये थे। आप्त प्रमाणों के अनुसार इन ऋषियों ने यह ज्ञान ब्रह्माजी को दिया और ब्रह्माजी से इन चारों वेदों को सृष्टि के आरम्भ में अन्य स्त्री व पुरूषों को पढ़ाये जाने की परम्परा का आरम्भ हुआ। इस विवरण से यह ज्ञात होता है कि ब्रह्मा जी को ईश्वर से सीधा ज्ञान नहीं मिला। ब्रह्मा जी को वैदिक संस्कृत भाषा और वेदों का ज्ञान अग्नि आदि चार ऋषियों से मिला। इसी प्रकार से ब्रह्माजी सहित इन 5 ऋषियों के अतिरिक्त अमैथुनी सृष्टि में जितने भी स्त्री-पुरूष उत्पन्न हुए थे वह सभी ज्ञान रहित थे। उनके पास न तो वेदों का ज्ञान था और न किसी भाषा का ही। भाषा के ज्ञान के लिए भी माता-पिता अथवा आचार्य की आवश्यकता होती है। उपलब्ध विवरण से यही ज्ञात होता है कि इन सबको भाषा व वेदों का ज्ञान ब्रह्मा जी से प्राप्त हुआ। यदि यह बात सत्य है, जो कि प्रमाणानुसार है, तो ब्रह्मा जी को इन सभी स्त्री व पुरूषों को पढ़ाने में बहुत लम्बा समय लगा होगा। इन मनुष्यों की कुल संख्या का विवरण भी प्रमाणिक साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। हो सकता है कि इनकी संख्या एक सौ से 1000 के बीच या इससे भी अधिक हो सकती है। पूर्णतः ज्ञान शून्य युवा स्त्री पुरूषों को पढ़ाना ब्रह्मा जी के लिए काफी कठिन रहा होगा। पहले तो उन्हें स्वयं ही चार ऋषियों से अध्ययन करने में लंबा समय लगा होगा और फिर अन्य सभी स्त्री व पुरूषों को चारों वेदों का भाषा सहित ज्ञान देना अत्यन्त ही कठिन अनुभव होता है। परन्तु यह अवश्य हुआ और आज तक यह परम्परा चली आयी है। अतः इस पर सन्देह करने का कोई औचीत्य नहीं है।
यहां एक प्रश्न विचारार्थ और लेना चाहते हैं। शतपथ ब्राह्मण में उपलब्ध विवरण के अनुसार ईश्वर द्वारा अन्तर्यामीस्वरूप से अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चार ऋषियों को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान ईश्वर द्वारा इनकी जीवात्माओं में प्रेरणा द्वारा प्राप्त हुआ था। इन ऋषियों ने इन वेदों का ज्ञान ब्रह्माजी को कराया। यहां एक प्रश्न और उसका उत्तर उपस्थित हो रहा है कि ब्रह्माजी सहित यह पांचों ऋषि किसी एक स्थान पर एकत्र हुए होंगे। यह कार्य ईश्वर की प्रेरणा से ही हुआ होगा। इसके बाद सबसे पहले अग्नि ऋषि ने ब्रह्माजी को ऋग्वेद के मन्त्र सुनाएं होंगे और ब्रह्माजी एक-एक मन्त्र करके उनको स्मरण कर रहे होंगे। कहीं शंका होने पर अग्नि ऋषि से पूछते भी होंगे? मन्त्र रटाने के बाद फिर वह उनका अर्थ भी ब्रह्माजी को बताते होंगे और ब्रह्माजी उनसे अपनी शंकाओं का निवारण करते होंगे। जब अग्नि ऋषि द्वारा ब्रह्माजी को ऋग्वेद का पाठ व अध्ययन कराया जा रहा होगा तो वहां वायु, आदित्य और अंगिरा बैठे हुए यह सब कुछ देख व सुन रहे होंगे। यह स्वाभाविक है कि इससे इन तीन ऋषियों को भी ब्रह्माजी सहित ऋग्वेद का ज्ञान हो गया होगा। इसके बाद वायु ने ब्रह्माजी को यजुर्वेद का अध्ययन व पाठ कराया होगा और अब अग्नि, आदित्य व अंगिरा ऋषियों ने इस वार्तालाप को देख व सुन कर यजुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर लिया होगा। और इसी प्रकार से क्रमशः सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान भी ब्रह्माजी सहित सभी ऋषियों को हो गया होगा। कुछ विद्वान हमारे इस अनुमान पर आपत्ति कर सकते हैं कि इसका उल्लेख तो शास्त्रों में है नहीं। हमारा उत्तर है कि यह सामान्य बात है कि जब दो व्यक्ति बातें कर रहें हों तो वहां उपस्थित अन्य व्यक्ति भी उनकी बातों को सुनते हैं। बैठकों में एक व्यक्ति बोलता है तो सभी उपस्थित जन उसकी बातों को सुनते हैं और प्रश्नोत्तर करते हैं। ऐसा ही आर्य समाज के साप्ताहिक सत्संगों व वार्षिकोत्सव की बैठकों में भी होता है। अतः इस प्रकार की आपत्ति का कोई आधार नहीं बनता। इस प्रकार से अध्ययन समाप्त होने पर पांचों ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा और ब्रह्मा वेदों के ज्ञानी बन गये होंगे और इसके बाद इन्होंने अलग-अलग वा मिलकर शेष शताधिक या सहस्राधिक स्त्री-पुरूषों को ज्ञान कराया होगा। इस अमैथुनी सृष्टि के बाद मैथुनी सृष्टि भी आरम्भ होनी थी जो कि निश्चित रूप से हुई और इन उत्पन्न नई पीढ़ी के बालक व बालिकाओं को इन ऋषियों व शेष स्त्री पुरूषों में से योग्य विदुषी और विद्वान पण्डितों द्वारा सभी बच्चों को अध्ययन कराया गया होगा। इस प्रकार से सृष्टि के आरम्भ में अध्ययन अध्यापन की परम्परा प्रचलित होने का अनुमान है।
हमने एक अन्य प्रश्न पर भी विचार किया है। वह यह कि सृष्टि के आरम्भ में जो मनुष्य उत्पन्न हुए उन्हें वेद मन्त्रों के अर्थ जानने में भारी कठिनाई होती होगी। मनुष्यों का आत्मा जो आज है वही सृष्टि के आरम्भ में भी था। हमारा शरीर पंच भूतों से मिलकर बना था। सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में भी सभी ऋषियों व साधारण जनों का शरीर भी इन्हीं पंचभूतों से बना था। भिन्नता केवल यही हो सकती है कि उनकी आत्माओं के संस्कार हमारी आत्माओं से उत्कृष्ट रहे हो सकते हैं। यदि ऐसा न होता तो अध्ययन अध्यापन व वेदों के ज्ञान के पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने में काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता। ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अनादि, अनुत्पन्न, अजर व अमर भी है। अतः सृष्टिकर्ता ईश्वर ने हर समस्या का निदान अपने विवेक से पहले ही किया हुआ रहा होगा। इस आधार पर जब हम देखते हैं तो हमें आदि अमैथुनी सृष्टि व उसके बाद की अनेकानेक पीढि़यों में उच्च कोटि के योगियों व मुनियों की सृष्टि अनुभव होती है। यह ऋषियों से पढ़ व सुन कर तत्काल उसे जान लेते होंगे। जिन वेद मन्त्रों के अर्थ जानने में कठिनता होती होगी उसे यह समाधि लगाकर ईश्वर से पूछ लेते होंगे या क्रमशः मन्त्रों पर विचार व चिन्तन कर अर्थ जान लेते होंगे जैसा कि महर्षि दयानन्द किया करते थे। और जब यह परम्परा सुस्थापित हो गई तो फिर धीरे-धीरे बुद्धि व स्मरण शक्ति का ह्रास होने लगा। ऐसा होने पर भी देश व समाज में अनेक ऋषि-मुनियों के होने पर हर समस्या का हल विवेक पूर्वक ढूंढा जाता रहा होगा। ऐसा होते-होते महाभारत काल का समय आ गया। रामायण-कालीन और महाभारत-कालीन वर्णन इन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं ही। इस क्रम को यहां रोक कर हम पहले आदिकालीन मनुष्यों द्वारा भाषा व ज्ञान की उत्पत्ति पर विचार करते हैं तथा इस क्रम को इसके बाद जारी रखेगें।
क्या मनुष्य स्वयं भाषा व ज्ञान की उत्पत्ति कर सकता है? इसका उत्तर हमें नहीं में मिलता है। इसका कारण यह है कि सर्वप्रथम भाषा जो भी हो या होती है, उसके निर्माण के लिए ज्ञान का होना आवश्यक है। ज्ञानहीन व्यक्ति बुद्धिपूर्वक ज्ञान का कोई काम नहीं कर सकता। भाषा क्या है? यह वाक्यों का समूह होती है। वाक्य शब्दों से मिलकर बनते हैं। शब्द संज्ञायें, सर्वनाम व क्रियाओं आदि के रूप में होते हैं। इसके आतरिक्त का, को, कि, से, पर, में आदि जैसे अनेक शब्दों का प्रयोग भी होता है। यह सभी शब्द कुछ मिश्रित ध्वनियों के उच्चारण से बनते हैं। इन ध्वनियों को पृथक-पृथक किए बिना, जैसा कि हिन्दी की वर्णमाला देवनागरी लिपि में है, भाषा बन नहीं सकती। इसको बनाने के लिए ज्ञान की आवश्यकता अपरिहार्य है। ज्ञान है ही नहीं तो भाषा कदापि नहीं बन सकती। भाषा से पूर्व विचार करना होगा, विचार भाषा में ही हो सकता है, भाषा ज्ञान की वाहिका है व ज्ञान का आधार व मूल भाषा है। अतः ज्ञान बिना भाषा के रहता ही नहीं और जब भाषा ही नहीं है तो भाषा बनाने के लिए अपेक्षित ज्ञान न होने के कारण भाषा नहीं बन सकती है। इससे सिद्ध होता है कि आदि भाषा वैदिक संस्कृत और वैदिक संस्कृत में निहित ज्ञान “चार वेद” सर्वप्रथम सृष्टि की आदि में ईश्वर से प्राप्त हुए थे। इस ईश्वर कृत वैदिक संस्कृत भाषा के प्राप्त होने पर अध्ययन का क्रम चल पड़ता है और देश, काल व परिस्थिति के अनुसार उच्चारण दोषों आदि से नई-नई भाषायें बना करती हैं। हमारा यह भी निवेदन है कि इस विषय पर मौलिक विचारों को जानने के लिए महर्षि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित उनके सभी ग्रन्थ उपयोगी हैं।
पुनः रामायण व महाभारत से आगे चर्चा करते हैं। महाभारत काल के बाद का इतिहास पूरी तरह सुरक्षित नहीं रहा है। इसका एक कारण विधर्मियों द्वारा तक्षशिला और नालन्दा के पुस्तकालयों को आग के समर्पित कर देना रहा। दूसरा कारण महाभारत काल के बाद आलस्य प्रमाद भी बढ़ता रहा और देश में अध्ययन व अध्यापन की सक्षम वा कारगर व्यवस्था व प्रणाली न रही जिससे महर्षि दयानन्द तक घोर अज्ञान व अन्धविश्वासों का समय हमारे देश में आया। विदेशों का कुछ-कुछ हाल भी अनुमान व उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर जाना जा सकता है। इतना और कहना समीचीन होगा कि महाभारत काल तक के लम्बे समय में देश में अनेकानेक ऋषि-मुनि हुए जिन्होंने ब्राह्मण, दर्शन, उपनिषद, ज्योतिष, आयुर्वेद, संस्कारों आदि के अनेकानेक ग्रन्थों का प्रणयन किया था। सौभाग्य की बात है कि इन विपरीत परिस्थितियों में हमारे अनेक ग्रन्थ सुरक्षित रह सके, यह ईश्वर की हम पर बहुत महती कृपा है। दूसरी कृपा हम पश्चिम के वैज्ञानिकों की भी मानते हैं जिन्होंने कागज, मुद्रण प्रेस, कमप्यूटर आदि नाना प्रकार के यन्त्र व संयत्रों का आविष्कार किया जिससे आज हमारे पास न केवल चार वेद, दर्शन व उपनिषदें ही विद्यमान हैं अपितु चारों वेदों के अनेक विद्वानों के भाष्य एवं इतर विपुल वैदिक साहित्य भी सुलभ है। हमारा अनुमान है महाभारत काल व उससे पूर्व भी आजकल की तरह एक व्यक्ति के पास सहस्रों ग्रन्थ नहीं रहा करते होंगे जैसे कि आजकल हैं। यह आधुनिक युग की देन जिसका अधिकांश श्रेय पश्चिमी जगत के वैज्ञानिकों को है। इस कार्य में सबसे अधिक यदि किसी अन्य का महनीय योगदान है तो वह महर्षि दयानन्द सरस्वती व उनके अनुयायियों का है। हम उनके चरणों का वन्दन करते हैं। यह भी कहना चाहते हैं कि हमारे देश के लोगों सहित विदेश के लोगों ने भी उनका उचित मूल्याकंन नहीं किया और न ही उनके द्वारा की गई आध्यात्मिक खोजों से लाभ उठाया है। राजनैतिक व अनेक सामाजिक दलों ने तो उनकी जानबूझकर उपेक्षा की है और उनसे न्यून व विपरीत ज्ञान तथा आचरण में भी कमजोर लोगों को उनसे अधिक योग्य सिद्ध करने का प्रयास किया है व किए जा रहे हैं। हम महर्षि दयानन्द की जय बोलकर इस लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
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