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Advaitwaad Khandan Series 11: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

ग्यारहवाँ अध्याय

शंकर – सूक्तियाँ

यद्यपि शांकर  – भाश्य में मौलिक भूलें हैं तथापि जैसा हम पहले कह चुके हैं श्री शंकराचार्य महाराज के भाश्य मंे अनेक ऐसी सूक्तियां पाई जाती हैं जिन से वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति के उत्थान मंे बडी सहायता मिलती है । यदि मायावाद, छायावाद, स्वप्नवाद, ब्रह्मोकवाद, जीव ईष्वर अभेद वाद, प्रकृति – विरोधवाद को छोड दिया जाय या आँख से ओझिल कर दिया जाय तो शांकर  – भाश्य अर्णव मंे बहुत से रत्न हैं जो वेद तथा वैदिक ग्रन्थों से मथ कर ही निकाले गये हैं । उनसे पाठकों को बहुत लाभ हो सकता है । हम यहाँ कुछ नमूले के तौर पर देते हैं:-

(1)

वेदस्य हि निपेक्ष स्वार्थे प्रामाण्यं रवेरिति रूप विशये ।

(2।1।1 पृश्ठ 182)

वेद स्वतः प्रमाण है । इसके प्रमाणत्व में किसी अन्य को नहीं । जैसे सूय्र्य की रूप विशय में ।

(2)

ब्रह्म जिज्ञासा के लिये चार बातें चाहियेंः-

(अ) नित्यानित्य वस्तु विवेकः

नित्य और अनित्य की पहचान!

(आ) इहामुत्रार्थभोगविरागः ।

लोक और परलोक के भोग से विरक्ति!

(इ) षमदमादि साधन संपत् ।

षम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान रूपी छः मानसिक वृत्तियां ।

(ई) मुमुक्षुत्व ।

मोक्ष की इच्छा !

(3)

(1।1।1 पृश्ठ 5)

महतः ऋग्वेदादेः षास्त्रस्यानेकविद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थविद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म । नहीद्रषस्य षास्त्रस्यग्र्वेदादिलक्षणस्य सर्वज्ञ गुणान्वितस्य सर्वज्ञादन्यतः संभवोस्ति ।

(1।2।3 पृश्ठ 9)

ऋग्वेद आदि बडे षास्त्र हैं । उनमंे अनेक विद्यायें हैं । दीपक के समान वे सब अर्थों के द्योतक हैं । ऐसे सर्वगुण सम्पन्न षास्त्रों का प्रकाष सर्वज्ञ ईष्वर के सिवाय और किसी से नहीं हो सकता ।

(4)

तच्च सम्îग् ज्ञानमेकरूपं वस्तुतन्त्रत्वात् । एकरूपेण ह्यवस्थितो योऽर्थः स परमार्थ । लोके तद्विशयं ज्ञानं सम्यग्ज्ञान मित्युच्यते यथाग्निरूश्ण इति ।

(षां॰ भा॰ 2।1।11 पृश्ठ 194)

जो ज्ञान एक रूप रहे वह सम्यक् हैं, क्यांेकि वह वस्तु के आश्रित् है । परमार्थ वही है जो एक रूप में स्थित रहे, जैसे अग्नि की उश्णता ।

(5)

ध्यानं चिन्तनं यद्यपि मानसं तथापि पुरूशेण कर्तुमकतु मन्यथा वा कत्तुं षक्यं, पुरूशतन्त्रत्वात् । ज्ञानं तु प्रमाणजन्यं प्रमाणं च यथाभूत वस्तु विशयमतो ज्ञानं कर्तुमकर्तुमन्यथावा कत्र्तुमषक्य केवलं वस्तु तन्त्रमेव तत् ।

(1।1।4 पृश्ठ 18)

ध्यान यद्यपि मानस व्यापार है तो भी वह पुरूश के अधीन है, करे, न करे, या अन्यथा करे । ज्ञान प्रमाण जन्य है प्रमाण वस्तु विशय के आश्रित है । इसलिये ज्ञान मंे करने, न करने, या उल्टा करने का प्रष्न नहीं । वह वस्तु के आधीन है

(6)

ज्ञानस्य नित्यत्वे ज्ञानक्रियां प्रति स्वातंत्र्यं ब्रह्मणो हीयते । अथानित्यं तदिति ज्ञानक्रियाया उपरमेतापि ब्रह्म, तदा सर्वज्ञान षक्तिमत्त्वेनैव सर्वज्ञत्वमापतति ।

(1।1।5 पृश्ठ 25)

यदि ब्रह्म सर्वज्ञ है और उसका ज्ञान नित्य है तो संसार मंे जो क्रियायें हुआ करती हैं उनके जानने के लिये ब्रह्म स्वतन्त्र न रहेगा । क्यांेकि उसका ज्ञान बदलेगा नहीं । और यदि वह ज्ञान अनित्य है तो ब्रह्म कभी ज्ञान क्रिया से उपरत भी हो जायगा । अर्थात् ब्रह्म कभी ज्ञान क्रिया को नहीं भी करेगा । इसलिये यही मानना चाहिये कि ब्रह्म की सर्वज्ञता से ‘‘सर्वज्ञान – षक्ति’’ ही अभिप्रेत है ।

(7)

‘‘प्राण’’ के चार अर्थ:-

(1) वायुमात्र (2) देवतात्मा (3) जीव (4) परंब्रह्म ।

(1।1।28 पृश्ठ 56)

(8)

न ह्यन्यत्र परमात्मज्ञानाद्धिततम प्राप्तिरस्ति ।

(1।1।28 पृश्ठ 57)

परमात्मा के ज्ञान से इतर और कोई परम हितकारी प्राप्ति नहीं है ।

(9)

क्रतुः संकल्पो ध्यानमित्यर्थः ।

(1।2।1 पृश्ठ 63)

‘क्रतु’ का अर्थ है संकल्प या ध्यान!

(10)

यद्यपि अपौरूशेये वेदे वक्तुरभावान् नेच्छार्थः संभवति तथा प्युपादानेन फलेनोपचर्यते । लोके हि यच्छब्दाभिहितमुपादेयं भवति तद् विवक्षितमित्युच्यते, यदनुपादेयं तदविवक्षितमिति तद् वद् वेदेप्युपादेयत्वेनाभिहितं

विवक्षितं भवति इतरदविवक्षितम् ।

(1।2।2 पृश्ठ 64-35)

वेद अपौवुशेय है । कोई उसका वक्ता नहीं । इसलिये कहने की इच्छा का प्रष्न नहीं उठता । तथापि उपादान फल के उपचार से ऐसा कहा जाता है । लोक मंे देखते हैं कि जो उपादेय है उसको विवक्षित (कहने योग्य) कहते हैं । जो उपादेय नहीं उसको ‘अविवक्षित’ । ऐसे ही वेद मंे भी है ।

(11)

नन्वोष्वरोपि षरीरे भवति । सत्यम् । षरीरे भवति न तु षरीर एव भवति, ‘ज्यायान् पृथिव्या ज्यायानन्तरिक्षात्’ ‘आकाषवत् सर्वगतश्च नित्यः’ इति च व्यापित्वश्रवणात् । जीवस्तु षरीर एव भवति, तस्य भोगाधिश्ठानाच्छरीरादन्यत्र वृत्त्यभावात् ।

(षां॰ भा॰ 1।2।3 पृश्ठ 66)

जीव को ‘षरीर’ (षरीर वाला) कहते हैं । ईष्वर को नहीं । इस पर प्रष्न करते हैं कि जब ईष्वर भी षरीर मंे रहता है तो वह भी षारीर क्यों नहीं? इसका उत्तर देते हैं । यह ठीक है कि ईष्वर षरीर में है । परन्तु ‘षरीर मंे ही है’ ऐसा नहीं। श्रुति में कहा है कि ‘वह पृथ्वी से भी बडा है’, । अन्तरिक्ष से भी बडा है । आकाष के समान व्यापक है नित्य है । इसके विरूद्ध जीव केवल षरीर में ही है । षरीर से बाहर नहीं । षरीर ही उसके भोग का स्थान है । षरीर से बाहर उसकी वृत्ति नहीं । अतः जीव ही ‘‘षारीर’’ है । ईष्वर नहीं ।

(12)

कर्मफल भोगस्य प्रतिशेवकमेतद् दर्षनं, तस्य संनिहितत्वात् । न विकारसंहारस्य प्रतिशेधकं, सर्ववेदान्तेशु सृश्टि स्थिति संहार कारणत्वेन ब्रह्मणः प्रसिद्धत्वात् ।

(1।2।9 पृश्ठ 70)

ईष्वर कर्मफल का भोक्ता नहीं । इसका यह अर्थ नहीं कि ईष्वर सृश्टि मंे विकार और संहार भी नहंी करता । सब वेदान्त मंे प्रसिद्ध है कि ईष्वर स्त्रश्टि, स्थिति और संहार करने वाला है ।

(13)

विष्वश्चायं नरष्चेति, विष्वेशां वायं नरः, विष्वे वा नरा अस्येति विष्वानरः परमात्मा, सर्वात्मत्वात् । विष्वानर एव वैष्वानरः ।

अग्नि षब्दोपि अग्रणीत्वादि योगाश्रयेण परमात्म विशय एव भविश्यन्ति ।

(1।2।28 पृश्ठ 91)

परमात्मा को वैष्वानर कहते हैं क्योंकि वह विष्व नर या विष्व का नर है । या सब नर उसी के हैं ।

अग्रणी होने से अग्नि भी ईष्वर का ही नाम है ।

(देखो स्वामी दयानन्द का सत्यार्थ प्रकाष समुल्लास पहला) ।

(14)

सर्वाणीन्द्रियकृतानि पापानि वारयतीति सा वरणा, सर्वाणीन्द्रियकृतानि पापानि नाषयतीति सा नासीति ।

भ्रुवोघ्राणस्य च यः संधिः स एश द्यौलोकस्य परस्य च संधि र्भवति ।

(1।2।32 पृश्ठ 93)

जो पापों को वारे वह वरणा, जो उनको नासे वह नासी । यह ‘वाराणसी’ की व्युत्पत्ति है । नाक के ऊपर भौओं के बीच का भाग ईष्वर के ध्यान होने से ‘वाराणसी’ है । आजकल ‘वाराणसी’ काषी या बनारस नगर का नाम है ।

(15)

नहीदमतिगम्भीरं भावयाथत्म्यं मुक्तिनिबन्धनमागममन्तरे-णोत्प्रेक्षितुमपि षक्यम् रूपाद्यभावाद्धि नायमार्थः प्रत्यक्षगोचरः, लिंगाद्यभावाच्च नानुमानादीनामिति चावोचाम ।

(2।1।11 पृश्ठ 193)

मुक्ति का विशय अति गंभीर है । इसलिये वेद से ही इसका ज्ञान होता है । मुक्ति में न तो रूप आदि है कि प्रत्यक्ष से ज्ञान हो सकता । न लिंग आदि हैं कि अनुभव आदि से ज्ञान हो सके ।

(16)

यद्यपि अस्माकमियं जगद्विम्बविरचना गुरूतरसंरम्भेवाभाति तथापि परमेष्वरस्य लीलैव केवलेयम् । अपरिमित षक्तित्वात् ।

(2।1।33 पृश्ठ 217)

यद्यपि जगत् की रचना हमको बडी भारी तैय्यारी का फल प्रतीत होती तो भी ईष्वर के लिये यह लीला के समान है क्योंकि ईष्वर की षक्ति अपरिमित है ।

(17)

यथापि पर्जन्यो व्रीहि यवादि सृश्टौ साधारणं कारणं भवति, व्रीहियवादि वैशम्ये तु तत्तद् बीजगतान्येवासाधारणानि सामथ्र्यानि कारणानि भवन्ति, एवमीष्वरो देवमनुश्यादिसृश्टौ साधारणं कारणं भवति । देवमनुश्यादि वैशम्येतु तत्तज् जीवगतान्येवा साधारणानि कर्माणि कारणानि भवन्ति ।

(2।1।34 पृश्ठ 217-218)

जैसे चावल जौ आदि के उत्पत्ति मंे वर्शा साधारण कारण है और उनका भेद उनको बीजों के भेद के कारण है इसी प्रकार देव मनुश्य आदि की उत्पत्ति मंे ईष्वर सामान्य कारण है और उनके भेद उन – उन जीवों के भिन्न – भिन्न कर्मों के कारण हैं ।

(18)

‘पुर्यश्टकेन लिगंेन प्राणाद्येन स युज्यते । तेन बद्ध वै बन्धो मोक्षो मुक्तस्य तेन च ।’

षरीर के आठ बन्धन हैं । इनसे बद्ध होता है । और इनसे जो मुक्त है वही मुक्त है ।

(1) प्राणादि पच्चक्रम् ।

प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान ।

(2) भूतसूक्ष्म पच्चक्रम् ।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाष ।

(3) ज्ञानेन्द्रिय पच्चक्रम् ।

आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा ।

(4) कर्मेन्द्रिय पश्चक्रम् ।

हाथ, पैर, वाणी, पायु, उपस्थ ।

(5) अन्तःकरण चतुश्टय ।

मन, बुद्धि, चित्त, अंहकार ।

(6) अविद्या ।

(7) काम वासना ।

(8) कर्म ।

(2।4।3 पृश्ठ 311)

(16)

अन्नंषब्दश्चोपभोगहेतुत्व सामान्यादनन्नेऽप्युपचयमाणो द्रष्यते । यथा विषोऽत्रं राज्ञां पषवोऽत्र विषामिति ।

(3।1।7 पृश्ठ 329)

‘अन्न’ षब्द सब उपभोग की सामग्री के अर्थों में भी आता है । केवल खाद्य पदार्थ के अर्थ में ही नहीं । जैसे प्रजा राजा का अन्न है और पषु प्रजा के अन्न हैं ।

(20)

यथेह क्षुधितावाला मातर पर्युपासते, एवं सर्वाणि भूतान्यग्निहोत्रमुपासते ।

(3।3।40 पृश्ठ 414)

जैसे भूखे बालक माता को चाहते हैं ऐसे ही सब भूत अग्निहोत्र को चाहते हैं । अर्थात् बिना अग्निहोत्र के पंचभूत अपूर्ण रहते हैं । अग्निहोत्र पूरक हैं । उससे क्षीण अंष की पूर्ति हो जाती है ।

(21)

यदा प्रक्रान्तस्य विद्यासाधनस्य कश्चित् प्रतिबन्धो न क्रियते उपस्थितविपाकेन कर्मान्तरेण तदेहैव विद्योत्पद्यते, यदा तु खलु तत् प्रतिबन्धः क्रियते तदामुत्रेति ।

(3।4।51 पृश्ठ 457)

यदि किसी अन्य कर्म का फल बाधक न हो । तो विद्या का फल इसी जन्म मंे मिलता है । और यदि कोई प्रतिबन्ध आ जाय तो दूसरे जन्म में ।

(22)

उपासनं नाम समानप्रत्यय प्रवाहकारणं न च तद् गच्छते । धावतो वा संभवति गत्यादीनां चित्तविक्षेपकत्वात् । तिश्ठतोऽपि देहधारणे व्यापृतं मनोन सूक्ष्मवस्तु निरीक्षणक्षमं भवति । षयानस्याप्यकस्मादेव निद्रयाभिभूयेत । आसीनस्य त्वेवं जातीयको भूयान् दोशः सुपरिहर इति ।

 

(4।1।7 पृश्ठ 470)

एक ही प्रत्यय का प्रवाह करना उपासना है । उपासना चलते या दौडते नहीं हो सकतीं । क्योंकि चलने फिरने से चित्त विक्षिप्त होता है । खडे होने में भी मन षरीर के रोके रखने में व्यग्र रहता है अतः सूक्ष्म वस्तु का निरीक्षण नहीं कर सकता । लेटने में निद्रा की संभावना रहती है । इसलिये बैठ कर ही उपासना करने में दोशों से बचत है ।

(23)

नहि वयं कर्मणः फलदायिनी षक्तिमवजानीमहे । विद्यत एव सा, सा तु विद्यादीना कारणान्तरेण प्रतिवध्यत इति बदामः ।

(4।1।13 पृश्ठ 473)

हम कर्म की फलदायिनी षक्ति का अनादर नहीं करते । वह तो होती ही है । परन्तु हमारा तो इतना कहना है कि वह विद्या आदि अन्य कारणों से दब जाती है ।

नोट – इसी का नाम कर्मक्षय है ।

(24)

स्मरति ह्यापस्तम्बः – तद् यथाम्रेफलार्थे निमिते छायागन्धावनूत्पद्येते एव धर्म चर्यमाणमर्था अनूत्पद्यन्ते । इति ।

(4।3।14 पृश्ठ 500)

आप स्तम्ब का कथन है कि जैसे फल के लिये आम लगाओ तो छाया और गन्ध ऊपर से लाभ में मिलती हैं इसी प्रकार धर्म का आचरण करने से अर्थ – लाभ तो ऊपर से हो जाता है ।

(25)

जगदुत्पत्यादि व्यापारं वर्जयित्वाऽन्यदणिमाद्यात्म कमैष्वर्यं मुक्तनां भवितुमर्हति जगद्व्यापारस्तु नित्यसिद्धस्यैतेश्वरस्य ।

(4।4।17 पृश्ठ 510)

अणिमा आदि षक्तियाँ तो मुक्त जीवों को भी प्राप्त हो जाती हैं परन्तु जगत् का रचना आदि तो नित्य सिद्ध ईष्वर के ही वष में है । अर्थात् मुक्त जीव सृश्टि की उत्पत्ति नहीं कर सकते ।

नोट – इससे ज्ञात होता है कि मुक्त जीव जिन्होंने अविद्या से छूट कर मुक्ति को प्राप्त किया है ब्रह्म नहीं हुये । वे जीव ही हैं, और नित्यसिद्ध ब्रह्म अलग है जो सृश्टि करता है । यहाँ शंकर स्वामी ने ‘ईष्वर’ षब्द अपर ब्रह्म के लिये प्रयुक्त नहीं किया जो मायावष सृश्टि उत्पत्ति करता है । शांकर  मत में ईष्वर नित्य सिद्ध नहीं । ब्रह्म ही नित्य सिद्ध है ।

Advaitwaad Khandan Series 10 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

दसवाँ अध्याय

परस्पर विरोध

श्री शंकराचार्य जी महाराज मायावाद और ब्रह्म के अभिन्न – निमित्त उपादान कारणवाद को सिद्ध करना चाहते थे जो उपनिशदों, वेदान्त तथा वैदिक सिद्धान्त के विरूद्ध है । अतएव कई स्ािनों पर परस्पर विरोध हो गया है । यहाँ कुछ उद्धरण दिये जाते हैं ।

1- (अ) ‘अविकार्योऽयमुच्यते ।’

(षां॰ भा॰ 1।1।4 पृश्ठ 17)

वह ईष्वर अविकारी है ।

 

(क) प्राणानां ब्रह्मविकारत्व सिद्धिः ।

(षां॰ भा॰ 2।4।4 पृश्ठ 308)

इससे सिद्ध है कि प्राण ईष्वर के विकार हैं ।

2- (अ) प्रदीप प्रभायाश्च द्रव्यात्रत्वं व्याख्यातम् ।

(षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 286)

दीपक का प्रकाष एक द्रव्य ही दूसरा है ।

(क) अग्नेरिवौश्ण्य प्रकाषौ ।

(षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 286)

जैसे गरमी और प्रकाष अग्नि के गुण हैं ।

 

3- (अ) अविद्यावद् विशयाण्येव प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि षास्त्राणि च ।

(षां॰ भा॰ 1।1।1 पृश्ठ 3)

षास्त्र आदि अविद्यावत हैं । षास्त्र में वेद भी आ गया ।

(क) महतऋग्वेदादेः षास्त्रस्यानेक विद्यास्थानोपवंृहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म । (षां॰ भा॰ 1।1।3 पृश्ठ 9)

वेद प्रदीप के समान स्वयं सिद्ध हैं क्यांेकि ब्रह्म ही उसकी योनि है ।

4- (अ) षरीर संबन्धस्य धर्माधर्मयोस्तत् कृतत्वस्य चेतरेताश्रयन्वप्रसंगादन्धपरम्प रैशाऽनादित्वकल्पना ।  (1।1।4 पृश्ठ 22)

यदि षरीर कर्म के आधीन और कर्म षरीर के आधीन मानें जायँ तो यह अनादित्व की कल्पना अन्ध परम्परा हो जायगी ।

(क) नैश दोशः । अनादित्वात् संसारस्य ।          (2।1।45 पृश्ठ 218)

यह दोश नहीं । क्यांेकि संसार अनादि है ।

5- (अ) तत् कृतधर्माधर्म निमित्तं सषरीरत्वमितिचेन्न । षरीरसंबन्धस्यासिद्धत्वाद् धर्माधर्मयोरात्मकृतत्वासिद्धः ।

(षां॰ भा॰ 1।4।4 पृश्ठ 22)

आत्मा के किये हुये धर्म अधर्म के कारण षरीर नहीं है । षरीर का सम्बन्ध तो सिद्ध ही नहीं, और धर्म अधर्म आत्मकृत हैं यह भी सिद्ध नहीं ।

(क) सापेक्षो हीश्वरो विशमां सृश्टिं निर्मिमीते । किमपेक्षत इति वदामः

(2।1।34 पृश्ठ 217)

ईष्वर की बनाई हुई सृश्टि की विशमता अपेक्षा के कारण है । किसकी अपेक्षा से? धर्म और अधर्म की अपेक्षा से । ऐसा हमारा कथन है ।

6- (अ) ज्ञानं तु प्रमाणजन्यम् । (1।4।4। पृ॰ 18)

ज्ञान प्रमाणों द्वारा होता है ।

(क) अविद्यावत् विशयाणि प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि ।        (1।1।1 पृश्ठ 2)

प्रत्यक्ष आदि प्रमाण अविद्यावत् हैं ।

7- (अ) द्विरूपं हि ब्रह्मावगम्यते, नामरूप विकारभेदोपाधि विषिश्टं, तद् विपरीतं च सर्वोपाधि विवर्जितम् ।          (1।1।12 पृ॰ 34)

ब्रह्म के दो रूप जाने गये हैं एक नामरूप विकार भेद उपाधि विषिश्ट और दूसरा उपाधि रहित ।

(क) समस्त विषेश रहितं निर्विकल्पकमेव ब्रह्म प्रतिपत्तव्यं न तद् विपरीतम् ।

(3।2।11 पृश्ठ 356)

ब्रह्म को सब विषेशणों से मुक्त निर्विकल्प ही मानना चाहिये अन्यथा नहीं ।

8- (अ) परस्माद्धि ब्रह्मणो भूतानामुत्पत्तिरिति वेदान्तेशु मर्यादा ।

(1।1।22 पृश्ठ 47)

परब्रह्म से ही भूतों की उत्पत्ति हुई ऐसी वेदान्त वाक्यों की मर्यादा है ।

(क) उपाधीनां चाविद्या प्रत्युपस्थापितत्वात् ।

(3।2।11 पृश्ठ 355-356)

ब्रह्म में उपाधि तो अविद्या के कारण है ।

9- (अ) न ह्येकस्मिन्धर्मिणि युगपत् सदसत्त्वादि विरूद्धधर्मसमावेषः संभवति षीतोश्णवत् ।(षां॰ भा॰ 2।2।33 पृश्ठ 253)

एक ही धर्मो में एक ही समय सत् और असत् दो विरूद्ध धर्म नहीं रह सकते जैसे सर्दी और गर्मी दोनों ।

(क) तत्त्वान्यत्वाभ्याम निर्वचनीये नामरूपे ।        (1।1।5 पृश्ठ 27)

नाम और रूप न तत्व हैं न अतत्व । अनिर्वेचनीय हैं ।

10- (अ) अविद्यावत् विशयाणि प्रत्यक्षदीनि प्रमाणानि ।

(षां॰ भा॰ 1।1।1 पृश्ठ 2)

प्रत्यक्षादि प्रमाण अविद्यावत् हैं ।

(क) यद्धि प्रत्यक्षादीनामन्येतमेन प्रमाणेनोपलभ्यते तत् संभवति । यत् तु न केनचिदपि प्रमाणेनोपलभ्यते तत्र संभवति ।            (2।2।28 पृश्ठ 248)

जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध हो वह संभव है जो किसी प्रमाण से न सिद्ध हो वह असंभव ।

11- (अ) मायेव संध्ये सृश्टिनं परमार्थ गन्धोऽप्यस्ति ।

(3।2।3 पृ॰ 344)

माया के समान स्वप्न की सृश्टि मंे परमार्थ का गंध भी नहीं है ।

(क) स्मृतिरेशा यत् स्वप्न-दर्षनम् ।               (2।2।29 पृश्ठ 250)

स्वप्न में स्मृति की चीजें ही प्रतीत होती हैं ।

12- (अ) द्विरूपं हि ब्रह्मावगम्यते नामरूप विकार भेदोपाधि विषिश्टं, तद् विपरीतं च सर्वोपाधि विवर्जितम् ।

(षां॰ भा॰ 1।1।12 पृश्ठ 34)

 

 

 

ब्रह्म के दो रूप हैं एक नाम रूप उपाधि वाला, दूसरा उपाधि रहित ।

 

 

 

 

 

(क) समस्त विषेशकरहितं निर्विकल्पमेव ब्रह्म प्रतिपत्तव्यं न तद् विपरीतं ।        (3।2।11 पृश्ठ 356)

विषेश रहित, निर्घिकल्प ही ब्रह्म है । इससे विपरीत नहीं ।

न तावत् स्वत एव परस्य ब्रह्मण उभेयलिंगत्वमुपपद्यते ह्येकं वस्तु स्वत एव रूपादि विषेशोपेतं तद् विपरीतं चेत्य-वधारयितंु षक्यं विरोधात् ।

(पृश्ठ 356)

परब्रह्म मंे स्वतः ही उभय लिंगत्व नहीं हो सकता । यह नहीं हो सकता कि एक वस्तु ही स्वतः रूप आदि विषेशता वाली भी हो और इसके विपरीत भी ।

 

13- (अ) अयमनादिरनन्तो नैसर्गिकोऽध्यासः ।

(1।1।1 पृश्ठ 4)

यह अध्यास अनादि अनन्त नैसर्गिक है ।

 

(क) अस्यानर्थहेतोः प्रहाणाय आत्मैकत्व विद्या प्रति एत्तये सर्वे वेदान्ता आरभ्यन्ते

(पृश्ठ 4)

इसी अनर्थ के प्रहाण के लिये सब वेदान्त यत्न करते हैं ।

नोट – नैसंर्गिक अनादि अनन्त का प्रहाण कैसा?

 

14- (अ) क्रियासमवाया- भावाच्चात्मनः कर्तृतवानुपपत्तेः ।

(1।1।4 पृश्ठ 22)

आत्मा का कत्र्ता होना सिद्ध नहीं क्यांेकि आत्मा और क्रिया मंे समवाय सम्बन्ध का अभाव है ।

(क) अनादौ तु संसारे बीजांकुरवद्धेतुमöावेन कर्मणः सर्गवैशम्यस्य च प्रवृतिर्न-विरूध्यते ।

(2।1।35 पृश्ठ 218)

अनादि संसार में बीज और अंकुर के समान कर्म और विशमता की प्रवृत्ति मंे कोई विरोध नहीं । अर्थात् ईष्वर जीवों के कर्मों के अनुकूल षरीर आदि देता है ।

 

15- (अ) इदं तु परमार्थिकं, कूटस्थनित्यं, व्योमवत् सर्वव्यापि, सर्व विक्रियाग्हितं, नित्यंतृप्तं, निरवयवं स्वयं ज्योतिः स्वभावम् ।

(1।1।4 पृश्ठ 14)

यह तो परमार्थ में कूटस्थ, नित्य, आकाष के समान सर्वव्यापक, सब क्रियाओं से षून्य नित्य तृप्त, अवयव रहित स्वयं ज्योति है ।

(क) अभिध्योपदेषाच्चात्मनः कर्तृतवप्रकृतित्वे गमयति ।

(1।4।24 पृश्ठ 176)

अभिध्या के उपदेष से ब्रह्म का कर्ता और उपादान होना सूचित होता है ।

नोट – जो विक्रिया रहित हो वह उपादान कैसा?

 

16- (अ) ब्रह्मणोऽपितर्हि सत्तालक्षणः स्वभाव आकाषा दिश्वनुवतमानो द्रष्यते ।

(2।1।6 पृश्ठ 187)

कारण ब्रह्म और काय्र्य आकाष दोनों में सत्तालक्षण मिलता है ।

(क) काय्र्यस्य तद्धर्माणां चाविद्याध्यारोपितत्वान्न तैः कारणं संसृज्यत इति ।

(2।1।9 पृश्ठ 191)

काय्र्य और उसके धर्म सत्य नहीं, अविद्या के आरोपित मात्र हैं ।

 

 

17- (अ) सर्वज्ञस्येश्वर-स्यात्मभूत इव

(2।1।14 पृश्ठ 201)

सर्वज्ञ ईष्वर के ही आत्मभूत ।

 

 

 

 

 

(क) अविद्या कल्पिते नाम-रूप ।

(2।1।14 पृश्ठ 201)

अविद्या कल्पित नाम रूप हैं ।

नोट – यहाँ एक ही वाक्य मंे दो परस्पर विरूद्ध बातें हैंः-

(1) सर्वज्ञ ईष्वर के आत्म भूत ।

(2) अविद्या कल्पित नाम-रूप ।

सर्वज्ञ ईष्वर के अविद्या कल्पित नाम रूप आत्म भूत कैसे हुये?

 

 

 

18- (अ) यथा च कारणं ब्रह्म त्रिशुकालेशु सत्वं न व्याभिचरति एवं कार्यमपि जगत् त्रिशु कालेशु सत्त्वं न व्याभिचरति ।

(2।1।16 पृश्ठ 203)

जैसे कारण ब्रह्म तीनों कालों मंे सत्य है इसी प्रकार काय्र्य जगत् भी तीनों कालों मे सत्य है ।

 

(क) जगत् मिथ्या है ।

 

 

 

 

 

 

 

19- (अ) अनिर्वचनीये नाम रूपे ।

(1।1।5 पृश्ठ 27)

नाम और रूप न सत् हैं न असत् । अनिर्वाचनीय हैं ।

 

 

 

 

(क) अवक्तव्याष्चेत्रोच्येरम् । उच्यन्ते चावक्तव्यष्चेति विप्रतिशिद्धम् ।

(2।2।33 पृश्ठ 253)

अवक्तव्य हैं तो कहना नहीं चाहिये था । कहे भी जाते हो । और अवक्तव्य भी कहते हो । यह तो परस्पर विरोध है ।

 

20- (अ) द्रष्यतेहि लोके चेतनत्वेन प्रसिद्धेभ्यः पुरूशादिभ्यो विलक्षणानां केषनखादीनामुत्पत्तिः । अचेतनत्वेन च प्रसिद्धेभ्यो गोमयादिभ्यो वृश्चिकादीनाम् ।

(2।1।6 पृश्ठ 187)

 

 

(क) विलक्षण काय्र्योत्पत्त्यभ्युपगमात् समानः प्रागुत्पत्तेरसत्काय्र्यवादप्रसंगः ।

(2।1।12 पृश्ठ 192)

विलक्षण काय्र्य की उत्पत्ति से तो असत्काय्र्य वादी हो जाओगे ।

नोट – षंकर स्वामी असत्काय्र्य वादी नहीं । तो भी विलक्षण उत्पत्ति मानते हैं ।

 

 

 

 

 

21- (अ) न ब्रूमो यस्मिन्नचेतने प्रवृत्तिर्द्रष्यते न तस्य सा इति । भवतु तस्यैव सा । सा तु चेतनाद् भवतीति ब्रूमः ।

(2।2।2 पृश्ठ 222)

हम यह नहीं कहते कि जिस अचेतन में प्रवृत्ति देखी जाती है वह उसकी नहीं । उसी की हो । परन्तु हम यह कहते हैं कि यह प्रवृत्ति चेतन से आती है ।

(क) देहेन्द्रियादिश्वहं ममाभिमानरहितस्य प्रमातृत्वानुपपत्तौ प्रमाणप्रवृत्यनुपपत्तेः ।

(1।1।1 पृश्ठ 2)

देह और इन्द्रिय आदि में ‘अहं’ ‘मम’ रहित प्रमाता की उपपत्ति नहीं हो सकती । अतः प्रमाण की भी प्रवृत्ति नही ।

नोट – यहाँ यह क्यांे नहीं मानते कि यह प्रवृत्ति आत्मा जो चेतन है उसके कारण है?

 

22- (अ) यथा सुप्तस्य प्राकृतस्यजनस्य स्वप्न उच्चाव-चान्भावान्पष्यतो निष्चितमेव प्रत्यक्षाभिमतं विज्ञानं भवति प्राक्प्रबोधनात् न च प्रत्यक्षाभासाभिप्रायस्तकाले भवति, तद्वत् ।

(2।1।14 पृश्ठ 198)

जैसे स्वप्न में मनुश्य अतथ्य देखता है ऐसे ही जाग्रत में भी अतथ्य ही है ।

(क) न स्वप्नादि प्रत्ययवज् जाग्रत् प्रत्यया भवितुमर्हन्ति । कस्मात् ? वैधम्र्यात् । वैधम्र्य हि भवति स्वप्रजागरितयोः । किं पुनर्वैधम्र्यम् । बाधाबाधाविति ब्रूमः ।

(2।2।21 पृश्ठ 250)

स्वप्न के प्रत्यय और जाग्रत् के प्रत्ययों में भेद है स्वप्न के प्रत्ययों का बाध हो जाता है जाग्रत के प्रत्ययों का बाध नहीं होता ।

 

23- (अ) गायत्री वा इदं सर्वमिती । न ह्यक्षरंनिवेष-मात्राया गायत्र्याः सर्वात्मकत्वं संभवति । तस्माद् यद् गायत्र्याख्य विकारेऽनुगतं जगत्कारणं ब्रह्म तदिह सर्वमित्युच्यते ।

(1।1।24 पृश्ठ 54)

 

(क) विक्रियारहितम् ।

(1।1।4 पृश्ठ 14)

ब्रह्म विकार रहित है ।

 

 

 

 

 

 

24- (अ) नहि जीवनामात्यन्तभिन्नो ब्रह्मणः ।

(1।1।31 पृश्ठ 61)

ब्रह्म से भिन्न जीव नहीं ।

 

 

 

 

 

 

(क) नन्वीष्वरोऽपिषरीरे भवति, सत्यम् । षरीरे भवति न तु षरीर एव भवति ।………..जीवन्तु षरीरएव भवति, तस्य भोगाधिश्ठानाच्छरीरादन्यत्र वृत्त्याभावात् ।

(1।2।3 पृश्ठ 66)

ईष्वर भी षरीर में है । यह ठीक है । परन्तु षरीर में ही है ऐसा नहीं । जीव तो षरीर में ही है । षरीर से बाहर उसकी वृत्ति नहीं जाती । षरीरा उसके भोग का अधिश्ठान है ।

नोट – यहाँ जीव और ईष्वर का स्पश्ट भेद है ।

 

 

25- (अ) कर्तृतवानुपपत्तेः ।

(1।1।4 पृश्ठ 22)

 

 

 

 

 

 

(क) सर्ववेदान्तेशु सृश्टि-स्थिति संहारकारणत्वेन ब्रह्मणः प्रसिद्धत्वात् ।

(1।2।9 पृश्ठ 70)

सब वेदान्तों में प्रसिद्ध है कि ईष्वर सृश्टि, स्थिति और संहार करने वाला है ।

 

26- (अ) नषारीरस्य तनुमहिम्नः ।

(1।2।23 पृश्ठ 85)

जीव अल्पषक्ति है । वह सब भूतों की योनि नहीं हो सकता ।

(क) नहि जीवनामात्यन्त भिन्नो ब्रह्मणः ।

(1।1।31 पृश्ठ 61)

 

 

 

 

 

27- (अ) परमार्थावस्थायां सर्वव्यवहाराभावं वदन्ति वेदान्ताः सर्वे ।

(2।1।10 पृश्ठ 201)

परमार्थ अवस्था में सब व्यवहारों का अभाव होता है । ऐसा वेदान्त मानता है ।

 

 

(क) व्यवहारावस्थायां तूक्तः श्रुतावर्प ष्वरादिव्यवहारः ।

(2।1।10 पृश्ठ 201)

व्यवहार अवस्था में तो वेद में भी ईष्वरादि का व्यवहार किया है ।

नोट – व्यवहार परमार्थ से भिन्न क्यांे है? यदि व्यवहार परम अनर्थ है तो वेद में इसका प्रतिपादन क्यों है? वेद को तो सूय्र्यवत् कहा है ।

 

28- (अ) यत् सर्वज्ञं सर्वषक्ति ब्रह्मनित्यषुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं षारीराधिकमन्यत्, तद्वयं जगतः स्त्रश्ट ब्रूमः ।

(2।1।22 पृश्ठ 208)

जो सर्वज्ञ सर्वषक्तिमान, नित्य षुद्ध बुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव है और जीव से बडा है, उसी को हम जगत् का स्त्रश्टा कहते हैं ।

(क) जीवस्य संसारित्वं ब्रह्मणश्च स्त्रश्टंत्वं………सम्यग् ज्ञानेन बाधितत्वात् ।

(2।1।22 पृश्ठ 209)

सम्यग् ज्ञान से जीव का संसारीपन और ब्रह्म का स्त्रश्टा होना बाधित हो जाता है ।

नोट – जब बाधित हो गया तो ब्रह्म का स्त्रश्टा होना भी झूठ रहा ।

 

29- (अ) सामान्याद्धि विषेशा उत्पद्यमाना द्रष्यन्ते मृदादेर्घटादयो न तु विषेशेभ्यः सामान्यम् ।

(2।3।9 पृश्ठ 271)

सामान्य से ही विषेश उत्पन्न हुये देखे जाते हैं जैसे मिट्टी से घडे आदि । विषेश से सामान्य नहीं ।

नोट – यहाँ षंकर स्वामी सामान्य विषेश का भेद स्वीकार करते हैं ।

 

(क) न च वैषेशिकैःकल्पितेभ्यः शड्भ्यः पदार्थेभ्योऽन्येऽचिकाः षतं सहस्त्रं वार्था न कल्पयितव्या इति निवारको हेतुरस्ति ।

(2।2।17 पृश्ठ 237)

वैषेशिक ने छः पदार्थों की कल्पना की है । सौ और हजार की भी हो सकती है । कोई हेतु तो है नहीं ।

नोट – यहाँ वैषेशिकों के छः पदार्थों का मखौल उडाया है और आगे स्वयं इन्हीं को माना है

Advaitwaad Khandan Series 9 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

प्रलय का क्रम

षं॰ स्वा॰ – एवं क्रमेण सूक्ष्मं सूक्ष्मतंर चानन्तरमनन्तरं कारणमपीत्य सर्वं कार्याातं परमकारणं परमसूक्ष्म च ब्रह्माप्यतीति वेदितव्यम् ।

(षां॰ भा॰ 2।2।14 पृश्ठ 295)

इस प्रकार क्रम पूर्वक सूक्ष से सूक्ष्मतर, एक काय्र्य से उसके कारण मंे, फिर उसके कारण में, फिर उसके कारण में अन्त को सभी जगत् अन्त्य कारण परमसूक्ष्म ब्रह्म मंे लय हो जाता है ऐसा जानना चाहिये ।

हमारी आलोचना – यदि सृश्टि मिथ्या और अविद्या जन्य होती तो क्रम कैसे हो सकता था? क्रम विद्या का सूचक है न कि अविद्या का । क्रम – भंग के कारण ही तो स्वप्न विष्वसनीय नहीं होते । स्वप्नों मंे कहीं न कहीं कोई न कोई क्रम भंग ऐसा होता है जिससे स्वप्न का अतत्यत्व प्रकट हो जाता है । सृश्टि – रचना की प्रक्रिया में तो अविद्या और माया को स्थान दिया गया है परन्तु प्रलय की प्रक्रिया में नहीं । यह क्यों ? वहाँ तो केवल यह कह दिया गया:-

भूतानामुत्पत्तिप्रलयावनुलोम प्रतिलोम क्रमाभ्यां भवतः

(षां॰ भा॰ 2।3।15 पृश्ठ 275)

भूतों की उत्पत्ति और प्रलय अनुलोम प्रतिलोम क्रम से होती है । यहाँ प्रतिलोम में न कहीं अविद्या है न माया न अभ्यास । उपनिशद् में भी जहाँ उत्पत्ति का उल्लेख है वहाँ अनुलोम क्रम मंे कहीं अविद्या या माया का उल्लेख नहीं । देखोः-

‘तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाषः सम्भूतः’ (तै॰ 2।1)

यहाँ एक बात और याद रखनी चाहिये । यद्यपि माया द्वारा सृश्टि की उत्पत्ति में यह कहा जा सकता है कि कुछ क्रम तो होता है चाहे वह उलटा ही हो परन्तु यह बात प्रलय में कैसे घट सकती है? ‘माया – वाद’ से प्रलय की व्याख्या कठिन है । प्रलय और सृश्टि में क्या भेद है? यदि सृश्टि को स्वप्न माना जाय तो क्या प्रलय भी स्वप्न मंे ही षामिल है? यदि स्वप्न ही है तो भेद क्या हुआ? और यदि स्वप्न नहीं, जागृत अवस्था है तो क्रम कैसा? कल्पना कीजिये कि मैंने स्वप्न में देखा कि मैंने व्यापार किया, धन कमाया, गाय खरीदी, दूध दूहा, दही जमाया, रायता बनाया । यह था स्वप्न का क्रम । आँख खुल गई तो व्यापार, धन, गाय, दूध, दही, रायता रूपी सृश्टि एक क्षण मंे समाप्त हो गई । वहाँ प्रतिलोम प्रलय के लिये स्थान ही नहीं । यदि सृश्टि और प्रलय वास्तविक है तो अनुलोम और प्रतिलोम क्रम ठीक है । परन्तु यदि सृश्टि माया या अविद्या के कारण है तो अनुलोम प्रतिलोम क्रम का प्रष्न ही नहीं उठ सकता ।

Advaitwaad Khandan Series 8 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

शंकर और जादू

शांकर भाष्य में ‘मायावी’ अर्थात् जादूगर का उल्लेख बहुत आता है । श्री शंकराचार्य जी जादू की उपमा देकर इस संसार को मिथ्या सिद्ध करते हैं । आज कल किसी का जादूगर के जादू पर विष्वास नहीं है । बाजारों में नित्य जादू का खेल हुआ करता है । और जादूगर हाथ की चालाकी से कुछ का कुछ दिखा कर लोगों का मनोविनोद किया करते हैं । परन्तु कोई उनसे धोखा नहीं खाता । जादूगर रेत की चुटकी हाथ में लेकर कुछ मन्तर पढ कर रेत की घडी बना देता है । लोग चकित रह जाते हैं । परन्तु किसी को यह विष्वास नहीं होता कि वस्तुतः रेत की घडी बना दी गई हैं । श्री शंकराचार्य जी के समय में जादूगरों के विशय में लोगों की क्या धारणा थी इसका कुछ नमूना भाश्य से मिल जाता है । हम यहाँ कुछ उदाहरण देते हैं ।

(1)

यथा मायाविनश्चर्मखगंधरात् सूत्रेणाकाषमधिरोहतः स एव मायावी परमार्थरूपो भूमिश्ठोऽन्यः ।

(षां॰ भा॰ 1।1।17 पृश्ठ 39)

अर्थ – जैसे असली जादूगर तो जमीन पर खडा रहता है और एक झूठा जादूगर हाथ में ढाल तलवार लिये रस्सी पर चढता हुआ प्रतीत होता है इसी प्रकार जीव ब्रह्म से अलग है । ब्रह्म तो वास्तविक सत्ता है और जीव की केवल प्रतीति होती है । यहाँ श्री शंकराचार्य जी समझते हैं कि वस्तुतः एक मायावी ऊपर चढ जाता है । इसीलिये उन्होंने यह उपमा दी । बात यह नहीं है । रस्सी पर चढे हुये जादूगर भी असली ही होते हैं । उनको इस प्रकार खेल का अभ्यास रहता है कि वह षीघ्र ही उतर चढ सकते हैं । यह उपमा ब्रह्म के विशय मंे विशम ठहरती है । बादरायण के सूत्र में न तो यह उपमा है न इस सिद्धान्त का गन्धमात्र है ।

(2)

यथा स्वयं प्रसारितया मायया मायावी त्रिश्वपि कालेशु न संस्पृष्यते अवस्तुत्वात्, एवं परमात्मापि संसारमायया न संस्पृष्यत इति ।

(षां॰ भा॰ 2।1।9 पृश्ठ 191)

जैसे अपनी फैलायी हुई माया से जादूगर तीन कालों में भी दूशित नहीं होता क्यांेकि वह अवस्तु है इसी प्रकार परमात्मा भी संसार की माया से दूशित नहीं होता ।

यहाँ षं॰ स्वा॰ मान लेते हैं कि जादूगर में यह षक्ति है कि अवस्तु को वस्तु करके दिखा दे । आजकल जादूगर पर बहुत साहित्य उपस्थित है । उसके देखने से ज्ञात हो जाता है कि केवल धोखा है । जादू की उपमा ब्रह्म को देनी सर्वथा असंगत और अनुचित है ।

Advaitwaad Khandan Series 7 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

शंकराचार्य और पौराणिक मत

यह एक प्रसिद्ध बात है कि पौराणिक मत वैदिक धर्म का एक बिगडा हुआ रूपान्तर है । मूर्ति पूजा, देवी देवते, जाति पांति के बंधन इत्यादि बोसियों बुराइयाँ जिन्हांेने हिन्दू जाति को नश्ट कर डाला वैदिक धर्म में विहित न थीं । पुराणों मंे इनका समावेष हो गया । वेदान्त दर्षन आदि में पुराण तथा पौराणिक सिद्धान्तों के विशय में कुछ भी नहीं पाया जाता । परन्तु षंकर स्वामी के समय मंे वातावरण पौराणिक बातों से भरा हुआ था । अतः उसके प्रभाव मंे आकर षंकर स्वामी ने अपने भाश्य में भी उन बातों को तद्वत् मान लिया । वह वैदिक धर्म और पौराणिक मत में कोई विवेक नहीं कर सके । हम यहाँ कुछ उदाहरण देते हैं:-

(1)

हृद्यपेक्षया तु मनुश्याधिकारत्वात् ।         (1।3।25)

इस सूत्र का सम्बन्ध ‘अंगुश्ठमात्रः पुरूशो मध्य आत्मनि तिश्ठति’ से है (षां॰ भा॰ 1।3।24) यहाँ प्रष्न उठा कि ‘अंगूठे’ तो भिन्न – भिन्न प्राणियों के भिन्न – भिन्न होंगे । इस पर उत्तर देते हैं:-

‘‘मनुश्याधिकारत्वादिति । षास्त्र ह्यविषेश प्रवृत्तमपि मनुश्यानेवाधिकरोति । षक्तत्वात्, अर्थित्वात्, अपर्युदस्तत्वात्, उपनयनादि षास्त्राच्च ।’’

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 119)

अर्थात् मनुश्य को ही षास्त्र पढने का अधिकार है । इसलिये मनुश्य के अंगूठे से ही नापना चाहिये । इसके आगे का सूत्र है –

‘‘तदुपर्यपि बादरायणः संभवात्’’ (1,3,26)

इसका सीधा अर्थ यह है कि ‘अगुंश्ठमात्र’ से भी ब्रह्म ऊपर है । अर्थात् वह सब प्राणियों के भीतर है । परन्तु शंकराचार्य जी ने ‘‘देवादयः’’ अर्थात् पौराणिक देवताओं का अर्थ लिया है जिसका मूल सूत्र में कुछ उल्लेख नहीं । इसकी युक्ति देते हैंः-

तत्राथित्वं तावन् मोक्ष विशयं देवादीनामपि संभवति विकार विशय विभूत्यनित्यवालोचनादि निमित्तम् ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 120)

अर्थात् देवतों को भी मोक्ष की इच्छा है । क्योंकि संासारिक विकार, विशय, विभूति आदि अनित्य हैं ।

तथा सामथ्र्यमपि तेशां संभवति, मंत्रार्थवादेतिहास पुराण लोकेभ्यो विग्रहवत्त्वाद्यवगमात् ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 120)

पुराण आदि में बताया है कि देवतों में मूर्तिमान् होने की भी षक्ति है ।

देवतों को उपनयन आदि संस्कारों की आवष्यकता नहीं । क्यों?

उपनयन तो वेद पढने के लिये होता है । देवता तो वेदों को जानते ही हैं ।

अपि चैशां विद्याग्रहणार्थ ब्रह्मचर्यादि दर्षयति ।

अर्थात् देवतों को विद्याग्रहण आदि के लिये ब्रह्मचर्यादि आश्रमों के पालने का भी उपदेष है ।

इन सबसे विदित होता है कि श्री शंकराचार्य जी के देवतों के विशय में कितने अनिष्चित विचार थे । एक ओर तो देवताओं को स्वयं ही वेदों का ज्ञान है (स्वयं प्रतिभातवेदत्वात्) दूसरी ओर उनको पढने और ब्रह्मचर्य रखने की भी आवष्यकता है । शंकराचार्य जी के देवते ‘अमर’ नहीं है । उनको मोक्ष की अभिलाशा है । वह ‘मोक्ष’ भी षंकर जी विचार नहीं करते ? मनुश्यों के बन्धमोक्ष! और देवों के बन्ध-मोक्ष में क्या अन्तर है । इत्यादि इत्यादि ।

क्या इन्द्रादि देव व्यक्तियाँ हैं या जातियाँ । यह भी निष्चित नहीं ।

स्थानविषेशसंबन्धनिमित्ताष्चेन्द्रादिषब्दाः     सेनापत्यादि षब्दवत् ।

(षां॰ भा॰ 1।3।28 पृश्ठ 123)

जैसे सेनापति आदि किसी व्यक्ति विषेश के नाम नहीं किन्तु पदों के नाम हैं ऐसे ही इन्द्र आदि भी ।

तथा देवादिव्यक्ति प्रभवाभ्युपगमेऽप्याकृतिनित्यत्वान्न कश्चिद् वस्वादिषब्देशु विरोध इति द्रश्टव्यम् ।

(षां॰ भा॰ 1।3।28 पृश्ठ 133)

वादि व्यक्तियों का तो जन्म होता है । परन्तु आकृति तो नित्यादि देवों की आकृति से सम्बन्ध है । व्यक्ति से नहीं ।

यहाँ देवों को मनुश्यों की ही एक जाति लिया गया । वे अमर नहीं रहे । वह व्यक्ति भी नहीं रहे केवल पदवियों के नाम रह गयें । इससे देवतापन ही नश्ट हो गया । यह है पौराणिक देवतों की लीला जिसको श्री षंकर स्वामी ने बिना विष्लेशण किये मान लिया है ।

(2)

सत्यपि सर्वव्यवहारोच्छेदिनि महाप्रलये परमेष्वरानुग्रहा दीष्वराणां हिरण्यगर्भादीनां कल्पान्तरव्यवहारानुसंधानोपपत्तेः ।

(षां॰ भा॰ 1।3।30 पृश्ठ 129)

ईष्वर के अनुग्रह से हिरण्यगर्भ आदि का एक कल्प से दूसरे कल्प तक व्यवहार जारी रहता है ।

यद्यपि महाप्रलय में व्यवहार का उच्छेद हो जाता है तो भी यहाँ ब्रह्म से इतर हिरण्यगर्भ आदि देवताओं की कल्पना की गई है जो वेदों के मत के विरूद्ध है ।

(3)

तथापि प्राणित्वाविषेशेऽपि मनुश्यादिस्तम्बपर्यन्तेशु ज्ञानैष्वर्यादि प्रतिबन्धः परेण परेणभूयान्भवन् द्रष्यते, तथा मनुश्यादिश्वेव हिरण्यगर्भपर्यन्तेशु ज्ञानैष्वर्याद्यभिव्यक्तिरपिपरेण परेण भूयसीभवति ।

(षां॰ भा॰ 1।3।30 पृश्ठ 129)

जिस प्रकार यद्यपि कीट पतंग आदि से लेकर मनुश्य तक सब में प्राण हैं तो भी ज्ञान की अवनति का तारतम्य है इसी प्रकार मनुश्यादि से लेकर हिरण्यगर्भ पर्यन्त तक ज्ञान की वृद्धि का तारतम्य है ।

यहाँ यह मान लिया गया कि देवता केवल जीवों की ही उत्कृश्ट योनियाँ हैं ।

(4)

स्मर्यते च – ‘‘आदित्यः पुरूशोभूत्वा कुन्तीमुपजगाम ह’’ इति ।

(षां॰ भा॰ 1।3।33 पृश्ठ 133)

स्मृति मंे कहा है कि ‘सूय्र्य ने पुरूश का रूप धारण करके कुन्ती के साथ प्रसंग किया ।’

(5)

तथा च व्यासादयो देवादिभिः प्रत्यक्ष व्यवहरन्तीति स्मर्यते ।

(षां॰ भा॰ 1।3।34 पृश्ठ 135)

स्मृति मंे लिखा है कि व्यास आदि देवताओं से प्रत्यक्ष बात करते थे ।

(6)

तस्मादुपपन्नो मन्त्रादिभ्यो देवादीनां विग्रहवत्त्वाद्यवगमः ।

(षां॰ भा॰ 1।3।33 पृश्ठ 135)

इसलिये मन्त्रादि से सिद्ध है कि देव मूत्र्तिमान् होेते हैं ।

(7)

एवं प्राप्ते ब्रूमः – न षूद्रसयाधिकारः, वेदाध्ययनाभावात् । अधीतवेदो हि विदितवेदार्थो वेदार्थेश्वधिक्रियते । न च षूद्रस्यवेदाध्ययनमस्ति, उपनयनपूर्वकन्वाद् वेदाध्ययनस्य । उपनयनस्य च वर्णत्रयविशयत्वात् । तत्त्वर्थित्वं न तदसति सामर्थोऽधिकार कारणं भवति । सामथ्र्यमपि न लौकिकं केवलमधिकार कारणं भवति । षास्त्रीयेऽर्थे षास्त्रीयस्य सामथ्र्यस्यापेक्षितत्वात् ।

(षां॰ भा॰ 1।3।34 पृश्ठ 136)

‘‘हमारा उत्तर है कि षूद्रों को अधिकार नहीं । क्यांेकि उन्होंने वेद नहीं पढा । जिसने वेद पढा हो और वेद को समझता हो वही वैदिक कर्मों का अधिकारी है । षूद्र वेद नहीं पढता । वेद पढने के लिये उपनयन आदि संस्कार चाहिये और उपनयन आदि तीन उच्च वर्णों का ही होता है । जब तक सामथ्र्य न हो केवल इच्छामात्र से किसी को अधिकार नहीं हो सकता । सामथ्र्य भी यदि केवल लौकिक हो तो पय्र्याप्त नहीं हैं, षास्त्रीय बातों मंे षास्त्रीय सामथ्र्य चाहिये’’ ।

यहाँ षंकर स्वामी षूद्र को अधिकार नहीं देते । यह वेद के विरूद्ध है । ‘यथेमांवाचं’ इति आदि मन्त्र मंे वेद पढने की आज्ञा सबको है ।

नोट – इस सूत्र में कोई ऐसा षब्द नहीं जिससे षूद्र का वेद पढने का अनधिकार पाया जावे । क्यांेकि इसी सूत्र के भाश्य में षूद्र की व्युत्पत्ति की हैः-

षुचमभिदुद्राव, षुचावाभिदुद्रवे ।

जो षोक से भर जाय, या षोक को भर ले ।

(8)

भवति च वेदोच्चारणे जिह्वाच्छेदो धारणे षरीरभेद इति ।

(षां॰ भा॰ 1।3।38 पृश्ठ 138)

षूद्र वेद का उच्चारण करे तो जीभ छेद दी जाय, वेद को धारण करे तो षरीर का भेद किया जाय ।

षंकर जैसे अद्वैतवादी के लिये यह सिद्धान्त कैसे सह्य हुआ? पौराणिक मत के प्रभाव से ही ।

(9)

यदा कर्मसु काम्येशु स्त्रियं स्वप्नेशु पष्यति समृद्धि तत्र जानी-यात् तस्मिन् स्वप्ननिदर्षने । (छा॰ 5।2।9)

(षां॰ भा॰ 2।1।14 पृश्ठ 199)

यदि काम्य कर्म करते हुये स्वप्न में स्त्री देखे तो समझ ले कि काम में अवष्य सफलता होगी ।

तथा प्रत्यक्षदर्षनेशु केशुचिदारिश्टेशु जातेशु ‘न चिरमिव जीविश्यतीति विद्यात्’ इत्युक्त्वा ‘अथ स्वप्नाः पुरूशं कृश्णं कृश्णदन्तं पष्यति स एनं हन्ति’ इत्यादिना तेन तेनासन्येनैव स्वप्नदर्षनेन सत्यं मरणं सूच्यत इति दर्षयति ।

(षां॰ भा॰ 2।1।14 पृश्ठ 199)

यदि स्वप्न मंे कोई काले तथा कालेदांत वाले पुरूश को देखे कि मार रहा है तो अवष्य ही समझे कि मृत्यु निकट है ।

प्रसिद्धं चेदं लोकेऽन्वय व्यतिरेक कुषलानामीद्रषेन स्वप्न दर्षनेन साध्वागमः सूच्यत ईद्रषेनासाध्वागम इति ।

(षां॰ भा॰ 2।1।14 पृश्ठ 199)

लोक में प्रसिद्ध है कि ऐसा स्वप्न षुभ होता है और ऐसा अषुभ ।

नोट – षां॰ भा॰ 3।2।4, पृश्ठ 345-46 मंे भी ऐसी ही बातें दी हुई हैं ।

(10)

यथा लोके देवाःपितर ऋशयइत्येवमादयो महाप्रभावाष्चेतना अपि सन्तोऽनपेक्ष्यैव किंचिद्वाह्यं साधनमैश्वर्य विषेशयोगादमिध्यानमात्रेण स्वत एव बहूनि नानासंस्थानानि षरीराणि प्रासादादीनि च रथादीनि च निर्मिमाणा उपलभ्यन्ते मन्त्रार्थवादेतिहास पुराण प्रामाण्यात् ।

(षां॰ भा॰ 2।1।25 पृश्ठ 211)

जैसे लोक मंे देव, पितर, ऋशि आदि महा प्रभावषाली व्यक्ति चेतन होते हुये भी बिना किसी बाहरी साधन की अपेक्षा के ध्यान मात्र से स्वयं ही बहुत से भिन्न – भिन्न संस्थान, षरीर राजमहल आदि तथा रथ आदि को बनाते पाये गये हैं । मन्त्र, अर्थवाद, इतिहास, पुराण आदि इस बात में प्रमाण हैं ।

हमारी आलोचना – सूत्र में ध्यान आदि से बिना साधनों के महल, रथ आदि बनाने का कोई प्रमाण नहीं है । पौराणिक कल्पना मात्र है । श्री षंकर स्वामी का भी अपना अनुभव नहीं है । अन्यथा पुराण आदि की साक्षी न देते ।

सूत्र का वास्तविक अर्थ यह हैः-

देवादिवदपि लोके ।         (2।1।25)

लोक मंे अग्नि, वायु आदि देव (भौतिक देव) बिना किसी अन्य साधन के ही कार्य करते हैं । जैसे दूध में गाय की चेतन षक्ति काम करती है इसी प्रकार इन भौतिक देवों में ईष्वरीय षक्ति काम करती है । बाहर के साधन की आवष्यकता नहीं ।

‘लोके’ षब्द मंे स्पश्ट है कि किसी ऐसी चीज की ओर संकेत नहीं है जो लोक में देखी न जाती हो और जिसकी साक्षी के लिये पुराणों के पन्ने पलटने पडें । ध्यान से महल बनते न हम देखते हैं न श्री षंकर ने देखे थे और न श्री षंकर ने स्वयं ध्यान से महल बना दिये । यह सूत्र वस्तुतः उस सिद्धान्त के खण्डन में है कि अग्नि स्वभाव से जलता है, पानी स्वभाव से बहता है, ईष्वर की क्या आवष्यकता? यदि ईष्वर के द्वारा यह काम करते होते तो ‘उपसंहार’ दिखाई पडता । जैसे कुम्हार घडा बनाने के लिये चाक आदि का प्रयोग करता है । सूत्रकार ने दूध का द्रश्टान्त (2।1।24) देकर बताया कि वहां भी चेतन षक्ति बिना उपंसहार के काम करती है । और अग्नि आदि देवों में भी उपसंहार की आवष्यकता नहीं पडती ।

(11)

अपि च सप्त नरका रौरवप्रमुखा दुश्कृतफलोपभोगभूमित्त्वेन स्मर्यनते पौराणिकैः । ताननिश्टादिकारिणः प्राप्नुवन्ति ।

(षां॰ भा॰ 3।1।15 पृश्ठ 337)

पुराणों मंे दुश्कर्मिंयों के भोग के लिये सात रौरव आदि नरक बताये गये हैं । फिर चन्द्रलोक में उनके जाने की क्या आवष्यकता है ।

तेश्वपि सप्तसु नरकेशु तस्यैव यमस्याधिश्टातृत्व व्यापाराभ्यु पगमादविरोधः । यम प्रयुक्ता हिते चित्रगुप्तादयोऽधिश्ठातारः स्मर्यनते ।

(षां॰ भा॰ 3।1।16 पृश्ठ 337)

उन सात नरकों में भी यम ही मुख्य अधिश्ठाता है । चित्रगुप्त आदि तो उसके बनाये हुये अभिद्रश्टा (ैनचमतपदजमदकमदजे) मात्र हैं ।

हमारी आलोचना – सूत्रों मंे न तो यम का नाम है, न चित्रगुप्त का । और न नरकों का । केवल ‘सप्त’ षब्द से सात नरक नहीं लिये जा सकते । इससे तो श्री स्वामि हरिप्रसाद का भाश्य अधिक युक्ति संगत है देखो:-

सप्तकिल चक्षुरादयः प्राणाः सप्तर्शय इह निगद्यन्ते ‘‘प्राणा वा ऋशयः’’ (षत॰ 6।1।1।1) ते चास्मिन शाट्कौशिके जीवात्म षरीरे यथा स्नानं प्रति धीयन्ते । यत्रैतच्छु ते भवति ‘‘सप्त ऋशयः प्रतिहिताः षरीरे, सप्तरक्षन्ति सदमप्रमादम् । सप्तापः स्वपतो लोकमीयुस्तत्र जागृतो अस्वप्रजौ सत्रसदौ च देवौ ।’’

(यजु॰ 34।55)

अर्थात् चक्षु आदि सात प्राण हैं । उल्लेख षतपथ और यजुर्वेद में हैं ।

(12)

अपि च स्मर्यते लोके । द्रोणधृश्टधुम्न प्रभृतीनां सीता द्रौपदी प्रभृतीनां चायेनिजत्वाम् । तत्र द्रोणादीनां योशिद् विशयैकाहुतिर्नास्ति । धृश्टद्युम्नादीनां तु योशित् पुरूश विशये द्वे अप्याहुती न स्तः । यथा च तत्राहुतिसख्यानादरो भवत्येवमन्यत्रापि भविश्यति । बलाकाप्यन्तरेणैव रेतः । सेकं गर्भं धत्त इति लोकरूढिः ।

(षां॰ भा॰ 3।1।19 पृश्ठ 338-339)

लोक मंे प्रसिद्ध है कि द्रोण, धृश्ट द्युम्न, सीता द्रौपदी आदि अयोनिज हैं (योनि से उत्पन्न नहीं हुये) । द्रोण आदि के विशय मंे तो एक आहुति का अभाव था (जो पुरूश स्त्री की योनि मंे गर्भ के रूप में देता है) । और धृश्टद्युम्न आदि के विशय में दो आहुतियों का अभाव था (अन्न द्वारा जो पुरूश के षरीर मंे छोडी जाती है अर्थात् अन्न से वीर्य बनता है) । जैसे यहां पांच आहुतियों का नियम नहीं है वैसे अन्यत्र भी समझना चाहिये । लोक में प्रसिद्ध है कि बलाकी (सारसी) बिना नर के संग के गर्भ धारण करती है ।

हमारी आलोचना – यह पुराणों की गप हैं । जैसे हजरत ईसा मसीह बिना बाप के उत्पन्न हुये । ‘अयोनिज’ उत्पत्ति भी होती है जैसे वैषेशिक दर्षन में आया है ‘‘सन्त्ययो निजाः’’ (वे॰ 4।2।11)

परन्तु यहाँ अमैथुनी सृश्टि की ओर संकेत हैं । सृश्टि के आरम्भ में बिना माता पिता के उत्पत्ति होती है । जूँ ,खटमल आदि में पहले मैल से ही पैदा हो जाते हैं । चार प्रकार की योनियाँ हैः-

जरायुज – (जैसे मनुश्य, भैंस,गाय आदि) जो जरायु से उत्पन्न होते हैं ।

अण्डज – (जैसे सांप, पक्षी आदि) यह अण्डांे से उत्पन्न होते हैं ।

स्वेदज – (जैसे जूँ, आदि) जो पसीने या षरीर के मल से उत्पन्न होते हैं ।

उöिज – बीरबहुट्टी आदि जो भूमि से फोड कर उत्पन्न हो जाती हैं ।

इनमें पहली दो ‘योनिज’ हैं और दूसरी दो ‘अयोनिज’ हैं । सृश्टि के आरम्भ मंे सभी अयोनिज होते हैं ।

(13)

ननु ‘नहिंस्यात् सर्वा भूतानि’ इति षास्त्रमेव भूतविशयां हिंसामधर्म इत्यवगमयति । बाढम् । उत्सर्गस्तु सः । अपवादः ‘अग्नीशोमीयं पषुमालभेत इति ।’

(षां॰ भा॰ 3।1।25 पृश्ठ 342)

पूर्व पक्ष – षास्त्र मंे लिखा है कि किसी की हिंसा मत करो, पषु योग में पषु की हिंसा होती है अतः वह कर्म अषुद्ध है ।

षं॰ स्वा॰ – वह उत्सर्ग है (सामान्यनियम), यह अपवाद है कि अग्नि – सोम के लिये पषु की आहुति दो । अपवाद अषुद्ध नहीं होता ।

षंकर स्वामी पूर्वमीमांसा का इतना खण्डन करने (देखो 1।2।4) के पष्चात् भी यज्ञ में पषु हिंसा को विहित मानते हैं ।

(14)

यथा प्राणिहिंसा प्रति शेधस्य पषुसंज्ञपनविधिना बाधः ।

(षां॰ भा॰ 3।1।16 पृश्ठ 337)

‘हिंसा न करनी चाहिये’ इस निशेध का वाध पषु यज्ञ से होता है । षंकर स्वामी यज्ञों में पषु – बध का निशेध नहीं करते । यद्यपि ऊपर की उक्ति पूर्व पक्ष में है परन्तु इसका खण्डन नहीं किया गया । इस आक्षेप सं॰ 12 से मिला कर पढिये । ‘अपवाद’ विहित क्यों समझा जावे? इस अपवाद ने तो लाखों प्राणियों का बध करा के बौद्ध जैसे अवैदिक धर्म को जन्म दिया ।

(15)

सर्वगतस्यापि ब्रह्मण उपलब्ध्यर्थं स्थानविषेशो न विरूध्यते, षालग्राम इव विश्णोरिति।

(षां॰ भा॰ 1।2।14 पृश्ठ 76)

सर्व व्यापक ब्रह्म का उपलब्धि के लिये एक कोई स्थान मान लेना विरोध नहीं है । जैसे षालग्राम की बटिया मंे विश्णु का ।

उपनिशदो या वेदों में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है । यह पुराणों का प्रभाव है ।

(16)

यथा वा प्रतिमादिशु विश्ण्वादि बुद्धîध्यासः ।

(षां॰ भा॰ 3।3।9 पृश्ठ 382)

‘‘जैसे प्रतिमा आदि में विश्णु आदि बुद्धि का अभ्यास होता है’’ । यह पुराणों की बात है, उपनिशद् आदि मंे इनका उल्लेख नहीं ।

Advaitwaad Khandan Series 6 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

जीव और ब्रह्म का स्पश्ट भेद

श्री शंकराचार्य जी जीव ओर ब्रह्म में वास्तविक भेद नहीं मानते । केवल उपाधि भेद मानते हैं । और जीव के उपासना आदि जितने व्यवहार हैं उनको भी उपाधि कृत ही कहते हैं । उनके इस सिद्धान्त की पुश्टि मंे हम उनके भाश्य से कुछ उदाहरण आलोचना सहित देते हैं: –

(1)

द्वि रूपं हि ब्रह्मावागम्यते, नामरूपविकारभेदोपाधि विषिश्टं, तद् विपरीतं च सर्वोपाधि विवर्जितम् ।

(षां॰ भा॰ 1।2।12 पृश्ठ 34)

ब्रह्म के दो रूप हैं एक तो नाम रूप विकार भेद की उपाधि वाला, दूसरा इसके विपरीत सब प्रकार की उपाधियों से छूटा हुआ ।

(2)

तत्राविद्यावस्थायां ब्रह्मण उपास्योपासकादिलक्षणः सर्वो व्यवहारः । तत्र कानिचिद् ब्रह्मण उपासनान्यभ्युदयार्थानि, कानिचित् क्रम – मुक्तयर्थानि, कानि चित् कर्म समृद्धîर्थानि । तेशां गुणविषेशोपाधिभेदेन भेदः ।

(षां॰ भा॰ 1।2।12 पृश्ठ 35)

वहाँ अविद्या की अवस्था मंे ब्रह्म के उपास्य और उपासक आदि लक्षण वाले सब व्यवहार होते हैं । ब्रह्म की कुछ उपासनायें अभ्युदय के लिये हैं, कुछ मुक्ति के क्रम के लिये, कुछ कर्म की समृद्धि के लिये । इनमंे उपाधि के भेद से भेद होता है ।

(3)

पर एवात्मा देहेन्द्रिîमनोबुद्धयुपाधिभिः परिच्छिद्यमानो वालैः षारीर इत्युपचय्यते । यथा घटकरकाद्युपाधिवषादपरिच्छिन्नमपि नभः परिच्छिन्नवदवभासते, तद्वत् ।।

(षां॰ भा॰ 1।2।6 पृश्ठ 67)

परमात्मा ही देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि की उपाधियों से परिछिन्न होकर मूर्खों के लिये षारीर अर्थात् जीव कहलाता है । जैसे कमण्डल आदि से परिच्छिन्न आकाष परिच्छिन्न दिखाई पडता है ।

(4)

अविद्या प्रत्युपस्थापित कार्यकरणोपाधि निमित्तोऽयं षारीरान्तर्यामणोर्भेदव्यपदेषो न पारमार्थिकः । एको हि प्रत्यगात्मा भवति, न द्वौ प्रत्यगात्मानौ संभवतः । एकस्यैव तु भेदव्यवहार उपाधिकृतो यथा घटाकाषो मठाकाष इति । ततच्श्र ज्ञातृज्ञेयादि भेद श्रुतयः प्रत्यक्षादीनि च प्रमाणानि संसारानुभवो विधिप्रतिशेध षास्त्रां चेति सर्वमेतदुपपद्यते । तथा च श्रुतिः ‘यन्त्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतर पष्यति’ इत्यविद्याविशये सर्वं व्यवहारं दर्षयति । ‘यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवा भूत्तत्केन कं पष्येत्’ इति विद्याविशये सर्वं व्यवहारं वाययति’

(षां॰ भा॰ 1।2।20 पृश्ठ 81)

जीव और ब्रह्म का भेद अविद्या के कारण है । पारमार्थिक नहंी । आत्मा एक ही है दो नहंी हो सकते । जैसे आकाष एक है । परन्तु घटाकाष मठाकाष व्यवहार मंे अलग अलग हैं । इसी प्रकार उपाधि के भेद से जीव भी अलग अलग है । ज्ञाता और ज्ञेय का भेद, प्रत्यक्षादि प्रमाण आदि सब व्यवहार दषा में है । विद्या विशय मंे यह सब व्यवहार नहीं रहते ।

(5)

एवं मिथ्या ज्ञानकृत एव जीवपरमेष्वरयोर्भेदः, न वस्तुकृतः । च्योमवदसंगत्वाविषेशात् ।

(षां॰ भा॰ 1।3।16 पृश्ठ 114)

इस प्रकार जीव परमेष्वर का भेद मिथ्याज्ञान के कारण है वास्तविक नहीं । जैसे आकाष और उसके टुकडों का भेद ।

(6)

यावदेव हि स्थाणाविव पुरूश बुद्धिं द्वैतलक्षणमविद्यां निवर्तयन् कूटस्थनित्यद्दक्स्वरूपमात्मानमहं ब्रह्मास्तीति न प्रतिपद्यते तावज्जीवस्य जीवत्वम् ।।

(षां॰ भा॰ 1।3।16 पृश्ठ 112)

जैसे ठूठ को भूल से मनुश्य समझ लेते हैं इसी प्रकार जब तक द्वैत लक्षण वाली अविद्या मिट कर यह ज्ञान नहीं हो जाता कि मैं कूटस्थ ब्रह्म हूँ उसी समय तक जीव का जीवत्व रहता है ।

(7)

अपरे तु वादिनः पारमार्थिकमेव जैवं रूपमिति मन्यन्तेऽस्मदीयाष्च केचित् । तेशांसर्वेशामात्मैकत्व सम्यग्दर्षन प्रति पक्षभूतानां प्रति बोधायेदं षारीरकमारब्धम् । एक एव परमेष्वरः कूटस्थनित्यो विज्ञानधातुरविद्यया मायया मायाविवदनेकधा विभाव्यते । नान्योविज्ञानधातुरस्तीति ।

(षां॰ भा॰ 1।3।16 पृश्ठ 115)

कुछ मतावलम्बी जीव के रूप को पारमार्थिक (वास्तविक) ही मानते हैं । हम में से भी कुछ लोग इसी मत के हैं । हमने षारीरक का आरम्भ उन्हीं के भ्रम को दूर करने के लिये किया है जिससे स्पश्ट

(1) यहाँ ‘अस्मदीयाष्च’ से प्रकट होता है कि श्री शंकराचार्य जी के समय में भी कुछ वेदान्ती जीव को पारमार्थिक ही मानते थे । उपाधिकृत नहीं ।

(2) परमेष्वर और ब्रह्म पर्याय हैं । भिन्न नहीं ।

(3) स्पश्ट है कि षांकर मत में ब्रह्म ही मायावी बनता है । क्यों? क्या कूठस्थ नित्य ब्रह्म भी स्वयं मायावी बन सकता है ?

हो जाय कि आत्मा एक ही है । एक ही कूटस्थ नित्य परमेष्वर जो ज्ञान से जाना जा सकता है, अविद्या या माया के द्वारा जादूगर की भांति अनेक प्रकार का दिखाई पडता है।

यह हुआ षांकरमत का निरूपण । अब हम यह दिखलाते हैं कि वादरायण के सूत्रों मंे जीव ओर ब्रह्म का स्पश्ट पारमार्थिक भेद है ओर श्री शंकराचार्य जी अपने भाश्य में इस भेद को मिटाने मंे सफल नहीं हुये ।

(1)

नेतरोऽनुपपत्तेः । (1।1।16)

इतष्चानन्दमयः पर एवात्मा । नेतरः । इतर ईष्वरादन्यः संसारी जीव इत्îर्थः । न जीव आनन्दमय षब्देनाभिधीयते । कस्मात् । अनुपपत्तेः ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 38)

‘आनन्दमय’ परमात्मा ही है । जीव नहीं । ‘इतर’ का अर्थ है ईष्वर से भिन्न संसारी या जीव । जीव के लिये आनन्दमय षब्द नहीं लाते । क्यों ? उपपत्ति नहीं बैठती ।

यहाँ स्पश्ट कहा है कि जीव ईष्वर से भिन्न है । यहाँ सूत्रकार ने उपाधि आदि का वर्णन नहीं किया ।

(2)

भेदव्यपदेषाच्ंच । (1।1।17)

इतष्च नानन्दमयः संसारी । यस्मादानन्दमयाधिकारे – ‘रसो वै सः’ । रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति (तै॰ 2।7) इति जीवानन्दमयौ भेदेन व्यपदिषति ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 39)

यहाँ भी आनन्दमय जीव नहीं । क्योंकि आनन्दमय अधिकार से । उपनिशद् (तै॰ 2।7) में कहा है कि ब्रह्म रस है यह रस को पाकर ही आनन्दी होता है’’ यहाँ स्पश्टतया जीव और आनन्दमय मंे भेद बताया है ।’

षंकर स्वामी इसी सूत्र मंे आगे चल कर मायावी का द्दश्टान्त देते हैं । वह सूत्रकार के विरूद्ध और असंगत है ।

(3)

अस्मिन्नस्य च तद्यांग षास्ति । (1।1।19)

इतष्च न प्रधाने जीवे बानन्दमयषब्दः । यस्मादस्मिन्नानन्दमये प्रकृत आत्मनि प्रतिबुद्धस्यास्य जीवस्य तद्योगं षास्ति । तदात्मना योगस्तद्योगः । तöावापत्तिः । मुक्तिरित्यर्थः ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 39)

‘‘यहाँ भी आनन्दमय न प्रधान के लिये है न जीव के लिये । क्योंकि कहा है कि ज्ञानी होने पर जीव का ब्रह्म से योग होता है । आत्मा से योग का अर्थ है तद् योग अर्थात् उसी की भावना करना । अर्थात् मुक्तिः।’’

यहाँ सूत्रकार के षब्द ‘तद्योग’ से भेद स्पश्ट है । परन्तु षंकर स्वामी ने ‘तद्भावापत्तिः’ ऐसा अर्थ किया है । यह अषुद्ध है । यदि यही तात्पर्य होता तो सूत्रकार इतने बलपूर्वक कई सूत्रों में यह न कहते कि आनन्दमय षब्द जीव के लिए नहीं आ सकता । ‘तद् योग’ का अर्थ तो केवल इतना है कि ज्ञान होने पर जीव अपने को ब्रह्म का सम्बन्धी समझता है । योग तभी होगा जब दो पदार्थ भिन्न – भिन्न हों । परमार्थतः एक ही वस्तु का ‘तद् योग’ कैसा ?

(4)

न ह्यक्षरसंनिवेषमात्राया गायत्र्याः सर्वात्मकन्वं संभवति । तस्माद् यद् गायत्र्याख्य विकारेऽनुगतं जगत् कारणं ब्रह्म तदिह सर्वमित्युच्यते । यथा ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ (छा ॰ 3।14।1)

(षां॰ भा॰ 1।1।25 पृश्ठ 54)

यहाँ कहा था कि ‘‘गायत्री वा इदं सर्वे’’ । यह सब गायत्री है । इस पर प्रष्न उठाया गया कि गायत्री तो कई अक्षरों का संघात है । इसमंे ‘‘सर्वात्मकत्व’’ कैसा ? इस का उत्तर यह है कि विकार युक्त गायत्री के लिये यह ‘सर्व’ नहीं प्रयुक्त हुआ किन्तु जगत् के कारण ब्रह्म के लिये । जैसे ‘सर्वे खल्विदं ब्रह्म’ मंे । यहाँ षंकर स्वामी स्वीकार करते हैं कि ‘सर्वे खल्विदं ब्रह्म’ मंे ‘सर्वे’ षब्द जगत् कारण ब्रह्म के लिये है । ‘सर्वे खल्विदं ब्रह्म’ यह वाक्य बहुधा अद्वैत परक लिया जाता है । परन्तु यह ठीक नहंी । षंकर स्वामी को भी यह स्वीकार करना ही पडा । इसका आगे का वाक्य ‘तज्ंलान्’ भी यही सिद्ध करता है ।

(5)

अनुपपत्तेस्तु न षारीरः (1।2।3)

पूर्वेण सूत्रेण ब्रह्मणि विवक्षितानां गुणानामुपपत्तिरूक्ता । अनेन तु षारीरे तेशामनुपपत्तिरूच्यते । तु षब्दोऽवधारणार्थः । ब्रह्मैवोत्तेन न्यायेन मनो मयत्वादिगुणं न तु षारीरो जीवो मनोमयत्वादिगुणः ।……………………………………….नन्वीष्वरोऽपि षरीरे भवति । सत्यम् । षरीरे भवति न तु षरीर एव भवति । ‘ज्यायान् पृथिव्या ज्यायनन्तरिक्षात्’, आकाषवत् सर्वगतश्चनित्यः इति च व्यापित्व श्रवणत् । जीवस्तु षरीर एव भवति, तस्य भोगाधिश्ठानाच् छरीरादन्यत्र वृत्त्îभावात् ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 65-66)

‘‘पहले सूत्र में ब्रह्म में विवक्षित गुणों की उपपत्ति बताई । इस सूत्र में बताते हैं कि वे गुण जीव में नहीं पाये जाते । उक्त न्याय से मनोमयत्वादि गुण ब्रह्म मंे ही हो सकते हैं । जीव में नहीं । यदि कोई कहे कि षरीर में तो ब्रह्म भी विद्यमान है, यह ठीक है, परन्तु ब्रह्म षरीर में है ‘षरीर में ही है’ ऐसा नहीं । ‘‘वह पृथ्वी से भी बडा है अन्तरिक्ष से भी बडा है’ ‘‘आकाष वत् सर्वत्र व्यापक है नित्य है ।’’ जीव केवल षरीर में ही है । षरीर उसके भोग का अधिश्ठान है । उसकी वृत्तियाँ अन्यत्र नहीं है ।’’

यहाँ तो स्पश्टतया जीव और ब्रह्म का भेद सिद्ध हो गया । षरीर में जीव भी है और ब्रह्म भी परन्तु षरीर जीव के भोग का अधिश्ठान है ब्रह्म के भोग का नहीं । यदि ब्रह्म ही अविद्यावष जीव होता तो ऊपर का कथन न बन सकता । सूत्र में भी ऐसा नहीं है ।

(6)

कर्मकर्तृ व्यपदेषाच्ंच । (1।2।4)

तथोपास्योपासकभावोऽपि भेदाधिश्ठान एव । तस्मादपि न षारीरो मनोमयन्वादि विषिश्टः ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 66)

तथा उपास्य उपासक भाव तो भेद के द्वारा ही हो सकता है । इसलिये भी मनोमयत्वादि गुण से यहाँ जीव का अभिप्राय नहीं ।

भेद स्पश्ट है । उपाधि का उल्लेख नहीं । यदि ब्रह्म ही उपाधि के कारण जीव हो गया होता तो भी उपास्य उपासक का प्रष्न न उठता ।

(7)

षब्दविषेशात् (1।2।5)

………………………….‘‘एवमयमन्रात्मन पुरूशो हिरण्मयः’’ (षत॰ ब्रा॰ 10।6।3।2) इति । षारीरस्यात्मनो यः षब्दोऽभि – धायकः सप्तम्यन्तोऽन्तरात्मन्निति तस्माद्विषिश्टोऽन्यः प्रथमान्तः पुरूशषब्दो मनो मयत्वादि विषिश्टस्यात्मनोऽभिधायकः । तस्मात् तयोर्भेदोऽधिगम्यते ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 66)

‘‘षतपथ ब्राह्मण में आया है कि यह अन्तरात्मा में ज्योतिर्मय पुरूश है । यह सप्तमी विभक्ति में जो षब्द है यह जीव के लिये है । और प्रथमा विभक्ति में जो षब्द है वह ब्रह्म के लिये है । इसलिये इन दोनों का भेद स्पश्ट प्रतीत होता है ।’’

षब्द स्पश्ट है । टिप्पणी की आवष्यकता नहीं ।

(8)

स्मृतिश्च षारीरपरमात्मनोर्भेदं दर्षयति – ईष्वरः सर्वभूतानां हृद्देषेऽर्जुन तिश्ठति ……………(गीता 18।61)’’

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 67)

स्मृति भी जीव और ब्रह्म का भेद बताती है जैसा कि गीता के ष्लोक मंे है । ‘‘ईष्वर सब भूतों के हृदय में है…..।’’

इस सूत्र के भाश्य में षं॰ स्वा॰ ने आगे चल कर कहा है कि यह भेद अविद्या के कारण है । मूर्खों की यह धारणा है । परन्तु सूत्र में तो ऐसा नहीं है । न गीता मंे । गीता में मूर्खता की बात क्यों लिखी जाती ?

(9)

संभोगप्राप्तिरिति चेन्न वैषेश्यात् । (1।2।8)

न तावत् सर्वप्राणिहृदयसंबन्धाचछारीरवद् ब्रह्मणः संभोग प्रसंगः, वैषेश्यात् । विषेशोहि भवति षारीरपरमेष्वरयोः । एकः कत्र्ता भोक्ता धर्माधर्मसाधनः सुखदुःखादिमाँश्च । एकस्तद्विपरी – तोऽपहतपाप्मत्वादिगुणः । एतस्मादनयोविषेशादेकस्य भोगो नेतराय, यदि च संनिधानमात्रेण वस्तुषक्तिमनाश्रित्य कार्य संबन्धोऽभ्युपगम्येत, आकाषीदीनामपि दाहादिप्रसंगः ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 68)

‘‘यद्यपि ब्रह्म सब के हृदय मंे विद्यमान है तथापि उसे दुःख सुख संभोग नहीं लगता । क्यों? जीव और ब्रह्म मंे विषेशता (भेद) है । जीव कत्र्ता, भोक्ता, धर्म अधर्म का साधन और सुखी या दुखी है । ब्रह्म पाप आदि से मुक्त है । इसलिये भोग जीव के लिये है ब्रह्म के लिये नहीं । यदि कहो कि व्यापक होने से ब्रह्म मंे भी भोग का प्रष्न होगा तो कहते हैं कि नहीं । आकाष व्यापक होता है । परन्तु वस्तु के जलने पर आकाष नहीं जलता ।’’

आगे चल कर षं॰ स्वा॰ ने इसी सूत्र के भाश्य मंे कहा है कि जीव का संभोग मिथ्याज्ञान के कारण है । यह उन्होनें अपने मत को स्थापित करने के लिये कहा है । सूत्र में ऐसा नहंी है । जहाँ तक षं॰ स्वा॰ ने सूत्र का अर्थ किया है जीव ब्रह्म का भेद स्पश्ट है ।

(10)

विषेशणाच्ंच । (1।2।12)

विषेशणं च विज्ञानात्मपरमान्मनोरेव भवति । ‘आत्मानं रथिनं विद्धि षरीरं रथमेव तु’ (का॰ 1।3।3) इत्यादिना परेण प्रन्थेन रथिरथादिरूपककल्पनया विज्ञानात्मानं रथिनं संसारमोक्षयोर्गन्तारं कल्पयति । ‘सोऽध्वनः पारमाप्रोति तद्विश्णोः परमंपदम्’ (का॰ 1।2।9) इति च परमात्मानं गन्तव्यम् । तथा ‘तं दुदर्षगूढमनुप्रविश्टं गुहाहितं गह्वरेश्ठं पुराणम् । अध्यात्मयोगाधि गमेन देवं मत्वा धीरो हर्शषोकौ जहाति’ (का॰ 1।2।12) इति पूर्वस्मिन्नपि ग्रंथे मन्तृ-मन्तव्यन्वेनैतावेव विषेशितौ । प्रकरणं चेदं परमात्मनः । ‘ब्रह्मविदा वदन्ति’ इति च वक्तृविषेशोपादानं परमात्मपरिग्रहे घटते । तस्मादिह जीवपरमात्मानावुच्येयाताम् । एश एव न्यायः ‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया’ (मुण्ड॰ 3।1।1) इत्येवमादिश्वपि । तत्रापि ह्मध्यान्माधिकारान्न प्राकृतौ सुपर्णावुच्येते । ‘तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति’ इत्यनलिगांद् विज्ञानात्मा भवति ‘अनश्रन्नन्योऽभिचाकषीति’ इत्यनषनचेतनत्वाभ्यां परमात्मा । अनन्तरे च मन्त्रे तावेव द्रश्टद्रश्टव्य भावेन विषिनिश्टि – ‘‘समाने वृक्षेपुरूशोनिमग्नोऽनीषया षोचति मुह्यमानः । जुश्टं यदा पष्यत्य-न्यमीषमस्य महिमानमिति वीतषोकः (मुण्ड॰ 3।1।2) इति ।’’

इस संदर्भ पर सूक्ष्म दृश्टि डालने से ज्ञात होता है कि यद्यपि बाद्ररायण का मौलिक सूत्र ‘विषेशणाच्च’ द्वैत को सिद्ध करने के लिये पय्र्याप्त था, तथापि षं॰ स्वा॰ ने सुन्दर युक्ति एवं प्रमाणों की श्रंखला द्वारा सोने पर सुहागे का काम कर दिया । अब द्वैत – सिद्धि मंे कोई आषंका नही रही । इसके पष्चात् यदि षं॰ स्वा॰ द्वैत के खण्डन मंे कुछ कथन भी करते हैं तो उनका मूल्य कुछ नहीं रहता । या यांे कहना चाहिये कि सांप तो निकल गया लकीर पीटते रहो । हम यहाँ ऊपर के सदंर्भ का भाशानुवाद मात्र देते हैं । पाठक गण स्वयं विचार लें कि द्वैत की पुश्टि कितने प्रबल प्रमाणों द्वार की गई है । और यदि पीछे से इसके विरूद्ध कुछ कहा भी गया है तो वह कितना निर्बल तथा निर्मूल है ।

‘‘भेद तो विज्ञानात्मा (जीव) और परमात्मा मंे ही होता है । कठोपनिशद् में आत्मा केा रथी और षरीर को रथ बताया है । इस रूपक से विदित होता है कि यहाँ तात्पर्य ‘‘विज्ञानात्मा’’ अर्थात् जीव से है जो संसार रूपी यात्रा मोक्षप्राप्ति के लिये कर रहा है । उसी उपनिशद् मंे कहा है कि ‘‘वह मार्ग के पार जाकर विश्णु के परमपद को पाता है’’ यहाँ परमात्मा से तात्पर्य है । कठोपनिशद् मंे इससे पहले कहा गया था कि धीर पुरूश अध्यात्म योग द्वारा हृदय के भीतर छिपे हुये देव को जान कर हर्श और षोक के द्वन्द्वों से छूट जाता है । यहाँ जीव और ब्रह्म का स्पश्ट भेद है । यहाँ प्रकरण परमात्मा का है । क्योंकि कहा है कि ‘‘ब्रह्म के जानने वाले कहते हैं ।’’ यहाँ स्पश्ट है कि कहने का विशय परमात्मा ही है । इसलिये यहाँ जीव और परमात्मा दोनों ही समझने चाहिये । मुण्डक उपनिशद् के ‘‘द्वासुपर्णा’’ आदि मन्त्र में भी यही बात है । वहाँ सचमुच के पक्षियों का वर्णन नहीं है । ‘‘एक उनमंे से पिप्पली को खाता है ।’’ इससे विज्ञानात्मा (अर्थात् जीव) अभिप्रेत है ।’’ ‘‘दूसरा न खाता हुआ देखभाल करता है’’ यहाँ ‘न खाना’ और ‘चेतनत्व’ दोनों से परमात्मा का अभिप्राय है । मुण्डक का एक और मन्त्र है ‘एक ही वृक्ष में एक पुरूश परवष होता हुआ षोक करता है । परन्तु जब उसी वृक्ष पर दूसरे स्वामी को देखता है तो षोक छूट जाता है ।’ यहाँ दोनों का भेद स्पश्ट है ।-

ऊपर षंकर स्वामी ने दो षब्द प्रयुक्त किये हैं एक विज्ञानात्मा दूसरा परमात्मा । विज्ञानात्मा जीव के लिये हैं । एक स्थान पर स्पश्ट भी लिख दिया है ‘‘जीवपरमात्मानौ ।’’ यहाँ ‘विज्ञान’ पद ज्ञान का बोधक है अविद्या या भ्रम या अध्याय का नहीं । अविद्या ग्रसित जीव अपने ईष को नहीं देख सकता ं विज्ञानात्मा ही देख सकता है । उपनिशद् के जो मन्त्र यहाँ दिये गये हैं उनमंे कहीं यह नहीं लिखा कि अविद्यावष अपने को ब्रह्म से इतर समझता है । इत्यादि ।

(11)

भेदव्यपदेषात् । (1।3।5)

भेदव्यपदेषष्चेह भवति – ‘तमेवैकं जानथ आत्मानम्’ इति ज्ञेयज्ञातृभावेन ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 96)

भेद का उल्लेख है । ‘‘उसी एक आत्मा को जानो’’ । यहाँ ज्ञेय और ज्ञाता (जानने योग्य और जानने वाला) यह दो अलग – अलग बतायें हैं ।

यहाँ द्वैत स्पश्ट है ।

(12)

स्थित्यदनाभ्यां च (1।3।7)

ताभ्यां च स्थित्यदनाभ्यामीष्वरक्षेत्रज्ञौ तत्र गृह्येते ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 97)

अर्थात् ‘द्वासुपर्णा सयुजा सखाया’ (मु॰ 3।1।1) वाली ऋचा मंे एक को भोक्ता बताया है और दूसरे को द्रश्टा । इससे ईष्वर और जीव का भेद विस्पश्ट है ।

नोट – श्री षं॰ स्वामी ने ऐसा कहा है:- ‘तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति’ इति कर्मफलाषनं, ‘अनश्रन्नन्योऽभिचाकषीति’ इत्यौदासीन्येनावस्थानं च ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 97)

यहाँ ‘ओदासीन्येन’ ठीक नहीं है । ‘अभिचाकषीति’ का उपसर्ग ‘अभि’ प्रकट करता है कि यद्यपि ईष्वर चखता नहीं परन्तु वह परोपकार भाव से निश्काम होता हुआ देख भाल रखता है (ैनचमतअपेमत) । वह कर्मफल के बन्धन में नहीं है परन्तु ‘वषी’ है । ‘द्रश्टा’ का अर्थ केवल ‘उदासीनता से देखना’ निरर्थक है । फलदाता ईष्वर ही है । श्री षं॰ स्वामी ब्रह्म को कत्र्ता नहीं मानते । इस लिये उन्होंने ‘औदासीन्येन’ अपनी ओर से लगा दिया ।

(13)

प्रलोयमानमपि चेदं जगच्छक्तîवषेशमेव प्रलीयते । षक्तिमूलमेव च प्रभवति । इतरथाकस्मिकत्व प्रसंगात् । …………समान नामरूपन्वाच्चावृत्तवपि महासर्ग महाप्रलय लक्षणायां जगतोऽभ्युपगम्यमानायां न कश्चिच्छब्द प्रामाण्यादि विरोधः समान नाम – रूपतां च श्रुतिमृती दर्षयतः ।

(षां॰ भा॰ 1।3।30 पृश्ठ 130)

जब जगत् का प्रलय होता है तो उतना ही होता है कि षक्ति बच रहे और उसी षक्ति से फिर जगत् बनता है । अन्यथा सृश्टि आकस्मिक (बिना कारण के) हो जाय …………….. महासृश्टि और महाप्रलय में नाम और रूप समान ही होते हैं । ऐसा मानने में श्रुति और स्मृति का कुछ विरोध नहीं ……………….

यदि केवल ब्रह्म ही सत्य है और जगत् अध्याय मात्र तथा मिथ्या है तो प्रलय, महा प्रलय तथा सृश्टि के बार – बार आने का क्या तात्पर्य है ? मायावाद मंे प्रलय का क्या स्थान है और कैसे ?

(14)

सुशुप्तावृत्øान्तौ च षारीराद् भेदेन परमेष्वरस्य व्यपदेषात् । सुशुप्तौ तावत् ‘अयं पुरूशः प्राज्ञेनात्मना संपरिश्वक्तो न बाह्यं किंचन वेद नान्तरम् (वृ॰ 4।3।21) इति षारीराद् भेदेन परमेष्वरं व्यपदिषति । तत्र पुरूशः षारीरः स्यात् तस्य वेदितृत्वात् । बाह्याम्यन्तरवेदनप्रसंगें सति तत् प्रतिशेधसंभवात् । प्राज्ञः परमेष्वरः, सर्वज्ञत्वलक्षणया प्रज्ञया नित्यमवियोगात् । तथोत्क्रान्तावपि ‘अयं षारीर आत्माप्राज्ञेनात्मनान्वारूढ उत्सर्जन्यति’ (वृ॰ 4।3।35) इति जीवाद् भेदेन परमेष्वरंव्यपदिषति । तत्रापि षारीरो जीवः स्याच् छरीरस्वामित्वात् । प्राज्ञस्तु एव परमेष्वरः ।

(षां॰ भा॰ 1।3।42 पृश्ठ 143)

‘‘सुशुप्ति और उत्क्रान्ति (मृत्यु) दोनों मंे जीव और परमेष्वर का भेद बताया है । सुशुप्ति का उदाहरण – ‘‘यह पुरूश प्राज्ञ आत्मा से मिल कर न बाहर का कुछ देखता है न भीतर का ।’’ (वृ॰ 4।3।21) यहाँ जीव और परमेष्वर का भेद बताया गया है । यहाँ पुरूश का अर्थ है जीव । क्यांेकि जानने की क्रिया ‘अर्थात् वह न बाहर की बात जानता है न भीतर की,’ जीव के ही सम्बन्ध मंे संभव है । ‘प्राज्ञ’ का अर्थ है परमेष्वर क्योंकि उसका लक्षण ही यह है कि वह सर्वज्ञ है और सर्वज्ञता से कभी अलग नहीं होता । इसी प्रकार मृत्यु का भी उदाहरण – ‘‘यह षरीरी आत्मा प्राज्ञ आत्मा की सहायता से निकल कर जाता है’’ (बृ॰ 4।3।35) यहाँ भी जीव और परमेष्वर का भेद बताया गया है । यहां जीव का नाम षारीर है क्योंकि वह षरीर का स्वामी है और प्राज्ञ तो परमेष्वर ही है ।’’

यहाँ यह कह जा सकता है कि सुशुप्ति और उत्क्रान्ति मंे ही जीव और ब्रह्म का भेद बताया गया है वास्तविक नहीं है । परन्तु यह कल्पना ठीक नहीं क्योंकि ब्रह्म को ‘प्राज्ञ’ या ज्ञानी बताया है । जब ब्रह्म ज्ञानी है तो वह अविद्यावष जीव नहीं हुआ । और यदि जीव नहीं हुआ तो भेद कैसा? यदि स्वप्न का द्रश्टान्त देकर यह कहा जा सकता कि जीव वस्तुतः ब्रह्म है, स्वप्न वष अपने को जीव समझता है, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि सुशुप्ति मंे जीव और प्राज्ञ ब्रह्म का सम्पर्क होता है । या मृत्यु मंे जीव प्राज्ञ परमेष्वर के आश्रय से निकलता है । यहाँ स्पश्ट कहा है कि सुशुप्ति और उत्क्रान्ति में परमेष्वर और जीव का भेद है । श्री षंकरजी भी स्वीकार करते हैं । अब प्रष्न यह रहता है कि यह भेद वास्तविक है या व्यावहारिक या प्रातिभासिक! व्यावहारिक का तो सुशुप्ति और उत्क्रान्ति मंे प्रष्न ही नहीं उठता । और न प्रातिभासिक का । फिर यह भेद वास्तविक ही मानना पडेगा ।

(15)

त्रयाणांमेव चैवमुपन्यासः ष्नश्च ।।                            (1।4।6)

इस सूत्र का केवल इतना अर्थ है । ‘‘तीनों का ही प्रसंग है और प्रष्न भी ।’’

इस सूत्र से जीव ब्रह्म का अभेद लेषमात्र भी प्रतीत नहीं होता । परन्तु षं॰ स्वा॰ ने एक लम्बी व्याख्या करके कई अप्रासंगिक बातें लिखी हैं:-

(अ) इह चान्यत्र धर्मादित्यस्य प्रष्नस्य प्रतिवचनं ‘न जायते म्रियते वा विपश्चित्’ इतिजन्ममरण प्रतिशेधेन प्रतिपाद्यमानं षारीरपरमेष्वरयोरभेदं दर्षयति ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 153)

‘‘उपनिशद् में उत्तर दिया गया कि जीवन मरता है न उत्पन्न होता है । इस जन्म मरण के प्रतिवेध से जीव और ब्रह्म का अभेद प्रतिपादित होता है ।’’

यह युक्ति सर्वथा युक्ति आभास है क्यांेकि जन्ममरण के प्रतिशेश से जीव का नित्यत्व बताया गया है । इसको आप जीव और ब्रह्म का नित्यत्व के विशय मंे साद्दष्य तो कह सकते हैं । परन्तु अनन्यत्व नहीं ।

(आ) तथा – ‘स्वप्रान्तं जागरितान्तं चोभौ येनानुपष्यति महान्तं विभुमान्मानं मन्वा धीरो न षोचति’ (का॰ 2।4।4) इति स्वप्रजागरितद्दषो जीवस्यैव महत्त्व विभुत्व विषेशणस्य मननेन षोकविच्छेदं दर्षयन्न प्राज्ञादन्यो जीव इति दर्षयति प्राज्ञविज्ञानाद्धि षोक विच्छेद इति वेदान्त सिद्धान्तः ।

(षां॰ भा॰ 1।4।6 पृश्ठ 143)

‘‘कठोपनिशद् में स्वप्न और जागृत देखने वाले जीव के लिये बताया गया है कि जब वह महत्व और विभुत्व विषेशण का मनन करता है तो षोक विच्छेद हो जाता है । इसमें बताया गया कि जीव परमेष्वर ही है । वेदान्त का यह सिद्धान्त है कि प्राज्ञ अर्थात् परमब्रह्म के ज्ञान से ही षोकविच्छेद होता है ।’’

समालोचना – यहाँ ‘न प्राज्ञादन्यो जीवः’ यह कहाँ से आ गया ? यह तो ठीक है कि ‘‘प्राज्ञ के विज्ञान’’ से ही षोक दूर होता है । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि प्राज्ञ ही जीव है । उपनिशद् मंे तो यह बताया गया है कि ईष्वर को महान और विभु मानकर किसी को षोक नहीं होता । अर्थात् जो जीव ईष्वर पर विष्वास करेगा उसको षोक नहीं होगा । विष्वास करने वाला या न करने वाला जीव है । ‘मत्वा धीरो न षोचति’ । यह मानने वाला धीर ब्रह्म नहीं किन्तु ब्रह्म से इतर होना चाहिये । इसलिये षं॰ स्वा॰ की प्रतिपत्ति युक्ति संगत नहीं ।

(इ) तथाग्रे – ‘यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह । मृत्योः स मृत्युमाप्रोति य इह नानेवं पष्यति । (का॰ 2।4।10) इति जीवप्राज्ञभेदद्दश्टिमपवदति ।’

(षां॰ भा॰ 1।4।6 पृश्ठ 153)

‘जो इस लोक में है वह परलोक में । जो परलोक मंे है वह इस लोक मंे । मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है जो यहाँ भेद देखता है’ इससे जीव और ब्रह्म के भेद का खण्डन किया है ।

हमारी आलोचना – उपनिशद् में तो केवल इस लोक और परलोक का नैरन्तर्य (सातत्य) बताया गया है । यहाँ जीव और ब्रह्म के भेद या अभेद का तो प्रष्न ही नहीं था । यह समस्त ब्रह्माण्ड एक इकाई है । इसकी प्रत्येक वस्तु का परस्पर सम्बन्ध है । ‘नाना इव पष्यति’ का अर्थ है कि जो संसार की चीजांे को असम्बद्ध वत् देखता है और समझता है कि इस लोक और परलोक मंे कोई सम्बन्ध नहीं वह अज्ञानी है और मृत्यु को प्राप्त होता है । इसको एक द्रश्टान्त से देख सकते हैं । एक परिवार में कई लोग हैं । सबका एक दूसरे से सम्बन्ध है । यदि उनमंे से कोई अपने को अलग समझे तो परिवार का हृास हो जाय । ‘‘नाना इव’’ देखना प्रबन्ध को तोडना है, और प्रबन्ध के टूटते ही हृास हो जाता है । इसका यह अर्थ तो नहीं कि परिवार में एक ही मनुश्य है । कई नहीं । सम्बन्ध षब्द ही बताता है कि अनन्यत्व नहीं है । यदि एक ही पुरूश होता तो परिवार ही न होता । ब्रह्म को समस्त जगत् में ओत – प्रोत समझना और समस्त वस्तुओं और क्रियाओं को सम्बद्ध समझना ही ‘ज्ञान’ है । और इसके बिना मुक्ति नहीं होती ।

(ई) ‘तं दुर्दर्षं गूढमनु प्रविश्टं गुहाहितं गह्वरेश्टं पुराणम् । अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्शषोकौ जहाति’ (का॰ 1।2।12) इति तेनापि जीवप्राज्ञयोरभेद एवेह विवक्षित इति गम्यते’

(षां॰ भा॰ 1।2।12 पृश्ठ 154)

कठोपनशित् के 1।2।12 से भी ब्रह्म और जीव का अभेद बताया गया है ।

हमारी समालोचना – नही तो । उपनिशद् मंे तो अभेद का लवलेष भी नहंी । वहाँ तो ‘धीर’ और ‘देव’ का स्पश्ट भेद है । ‘‘देवं मत्वा धीरो हर्श षोकौ जहाति’’ । अनुप्रवेष से भी जीव ब्रह्म की एकता सिद्ध नहीं होती । बहुत खींचातानी से भी उपनिशद् का वह अर्थ नहीं निकलता जो षंकर स्वामी ने लिया है । बादरायण के सूत्र में तो कुछ भी संकेत नहीं । षंकर स्वामी को स्वंय लिखना पडा:-

‘‘सूत्रं त्वविद्याकल्पितजीवप्राज्ञभेदापेक्षया योजयितव्यम् ।’’

‘‘अर्थात् सूत्र का अर्थ अविद्याकल्पित जीव ब्रह्म के भेद की अपेक्षा से लेना चाहिये ।’’

इससे स्पश्ट है कि सूत्र में भेद बताया गया है । रही यह बात कि वह अविद्या कल्पित है या नहीं सो सूत्र में तो इसका उल्लेख नहीं । यह केवल षंकर स्वामी की कल्पना है ।

विचारे ‘प्रधान’ को तो षंकर स्वामी ने व्यर्थ ही घसीटा है ।

(15)

अपि चैवमेके षाखिनो वाजसनेयिनोऽस्मिन्नेव बालाक्यजात षत्रु संवादे स्पश्टं विज्ञानमयषब्देन जीवमाम्नाय तद् व्यतिरिक्तं परमात्मानमामनन्ति – ‘य एश विज्ञानमयः पुरूशः क्वैश तदाभूत् कुत एतदागात्’ । (बृ॰ 2।1।16) इति प्रष्ने । प्रतिवचनेऽपि ‘य एशोऽन्तहृदय आकाषस्तस्मिञा्षेते’ इति ।

(षां॰ भा॰ 1।4।18 पृश्ठ 168)

इस बालाकी अजात षत्रु संवाद मंे वाजसनेयी षाखा वाले स्पश्ट रीति से विज्ञानमय से जीव का ही अर्थ लेते हैं और परमात्मा को इससे भिन्न मानते हैं । ‘‘यह विज्ञानमय पुरूश कहाँ था और कहाँ से आया’’? (बृ॰ 2।1।16) इस प्रष्न के उत्तर में कहा है, ‘‘हृदय के भीतर जो आकाष है उसमंे सोता है’’ ।

यहाँ जीव-ब्रह्म का भेद स्पश्ट है । परन्तु षं॰ स्वा॰ ने दो पंक्तियाँ आगे ‘‘उपाधिमतां आत्मनाम्’’ अपनी ओर से लिख दिया अर्थात् यहाँ उपाधिकृत जीवों का विशय है । इस कथन की पुश्टि न तो उपनिशद् से होती है न सूत्र से ।

(17)

वृहदारण्यक के 4।5।6 में मैत्रेयी – याज्ञवल्क्य संवाद है । श्री षंकर स्वामी ने वेदान्त 1।4।19 के भाश्य में प्रष्न उठाया:-

‘विज्ञानान्मानमेवेहोपदिश्टं दर्षयति’                                                                                   (पृश्ठ 169)

इसका उत्तर देते हैं:-

‘परमांत्मोपदेष एवायम्’                                                                                                          (पृश्ठ 169)

अर्थात् यहाँ विज्ञानात्मा जीवका सम्बन्ध नहीं किन्तु परमात्मा का है ।

कस्मात् – क्यों ?

वाक्यान्वयात् – वाक्यों के पूर्वा पर सम्बन्ध से । कौन से वाक्यों का ?

‘‘अमृतत्वस्य तु नाषास्ति वित्तेन’’ इति याज्ञवल्क्यादुपश्रुत्य ‘येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्या यदेव भगवान् वेद तदेव में ब्रूहि इत्यमृतन्धमाषासानाया मैत्रय्या याज्ञवल्क्य आत्मविज्ञानमिदमुपदिषति न चान्यत्र परमात्मविज्ञानादमृतत्वमस्तीति श्रुति स्मृति वादा वदन्ति’ ।

(षां॰ भा॰ 1।4।19 पृश्ठ 169)

हमारी आलोचना – वाक्यों के पूर्वा पर सम्बन्ध से विज्ञानात्मा (जीव) का खण्डन तो नहीं होता । याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को तो यह समझाया है कि धन से अमृतत्व नहीं प्राप्त होता । अपने आत्मा पर विचार करने से होगा । यह ठीक है कि परमात्मज्ञान के लिये भी तो पहले जीव का ज्ञान आवष्यक है । जीव के अस्तित्व को भुला कर परमात्मोपदेष या अमृतत्व प्राप्ति का कोई अर्थ नहीं ।

(18)

नीचे के तीन सूत्रों में कई आचार्यों की साक्षी से षं॰ स्वामी ने ब्रह्म – जीव का अभेद प्रतिपादित किया है । यह आलोचनीय है । सूत्र यह है ।

1-प्रतिज्ञासिद्धेर्लिगंमाष्मरथ्यः ।

2-उत्क्राम्रिश्यत एवंभावादित्यौडुलोमिः ।

3-अवस्थितेरिति काषकृत्स्नः ।

(1।4।20।21।22)

इसके षाब्दिक अर्थ यह हैः-

1-आष्मरथ्य आचार्य का मत है कि यह प्रतिज्ञा की सिद्धि का लिंग है ।

2- औडुलोमि आचार्य का मत है कि मरने वाले (षरीर छोडने वाले) का इस प्रकार का भाव हो जाता है ।

3- काषकृत्स्न आचार्य का मत है कि जीव की स्थिति ही इस प्रकार की है ।

अस्त्यत्रप्रतिज्ञा ‘आत्मनिविज्ञाते सर्वामिदं विज्ञातं भवति’ ‘इदं सर्वं यदयमात्मा’ इति च । ……….यदि हि । विज्ञानात्मा परमात्मनोऽन्यः स्यात् ततः परमात्मविज्ञानेऽपि विज्ञानात्मा न विज्ञान इति ।

(षां॰ भा॰ 1।4।20 पृश्ठ 170)

प्रतिज्ञा यह है कि आत्मा के जानने से सब जगत् जान लिया जाता है । ‘यह जो आत्मा है वह सब कुछ है’ । यदि विज्ञानात्मा परमात्मा से अलग होता तो परमात्मा के जानने से आत्मा का ज्ञान न होता ।

हमारी समझ में यह युक्ति ठीक नहीं । उपनिशद् मंे जो यह कहा कि ब्रह्म के जानने से सब कुछ जान लिया जाता है उससे षांकर – अद्वैत सिद्ध नहीं होता । क्योंकि नियन्ता के जानने से उसके समस्त काम को समझ सकते हैं । ईष्वर को नियन्ता तो द्वैतवाद भी मानता है । किसी बडे कारखाने के स्वामी के द्रश्टि – कोण को समझते ही समस्त कारखाना समझ में आ सकता है । किसी षासक क द्रश्टिकोण को समझते ही उसके समस्त षासन को समझ सकते हैं । यही बात यहाँ कीह गई । विज्ञानात्मा (जीव) तो परमात्मा के षासन में रहता है । यद्यपि वह कर्म करने में स्वतन्त्र है तथापि वह इस जगत् के सभी नियमों से बंधा हुआ है । अतः ब्रह्म को समझ कर हम जीव को भी समझ सकते हैं । क्योंकि विज्ञानात्मा एक छोटा आत्मा है । परमात्मा बडा आत्मा है । सूय्र्य को समझने से दीपक का समझना या समुद्र को समझने से झील का समझना सुगम हो जाता है । उपनिशद् की उस प्रतिज्ञा मंे जीव – ब्रह्म के अभेद की द्रश्टि नहीं है । ‘‘आत्मनि विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति’’ । यहाँ एक प्रष्न करने से ही समस्त अभेदवाद समाप्त हो जाता है । अर्थात् ‘केन?’’ । ‘‘केन आत्मनि विज्ञाते सिर्वमिदं विज्ञातं भवति?’’ ब्रह्म को कौन जान ले तो उसे सब कुछ ज्ञात हो जाय? ब्रह्म तो ज्ञेय हुआ । ज्ञाता हुआ जीव । फिर अभेद कहाँ रहा ?

आचार्य औडुलोमि और आचार्य काषकृत्स्न का जितना मत सूत्रों मे दिया है उससे तो अभेद की सिद्धि नहीं होती ।

श्री औडुलोमि जी कहते हैं कि षरीर छोडने के पष्चात् मुक्त जीव में ‘एवंभाव’ अर्थात् ब्रह्मरूपता हो जाती है । ‘ब्रह्मरूपता’ का यह अर्थ नहंी कि जीव का जीवत्व नश्ट होकर केवल ब्रह्म ही रह जाता है । काषकृत्स्न आचार्य कहते हैं कि जीव की आन्तरिक अवस्था इस प्रकार की है कि वह मुक्ति में ब्रह्मरूपता का अनुभव करने लगता है । अर्थात् मुक्ति कोई बाहर की आरोपित वस्तु नहीं है । मुक्ति का बीज जीव की आन्तरिक अवस्था में विद्यमाना है । हमारा यहाँ यह लिखने का तात्पर्य यह है कि षं॰ स्वा॰ का ब्रह्म – जीव अभेद न तो बादरायण के सूत्रों मंे है न आष्मरथ्य आदि आचार्यों के कथनों में और न उपनिशदों के उद्धरणों मंे । इसको तो ‘अतस्मिँस्तद्बुद्धिः’ अर्थात् भेद में अभेद की कल्पना ही कहना चाहिये ।

षंकर स्वा॰ के निम्न वाक्यों पर द्रश्टि डालिये:-

(1) न च तेजः प्रभृतीनां सृश्टौ जीवस्य पृथक् सृश्टिः श्रुता, येन परस्मादात्मनोऽन्यस्तद्विकारो जीवः स्यात् ।

(षां॰ भा॰ 1।4।22 पृश्ठ 171)

श्रुति मंे जैसे अग्नि आदि की उत्पत्ति वर्णन की वैसे अलग जीव की सृश्टि का वर्णन नहीं किया जिससे परमात्मा से अलग जीव उसका विकार हो सकता ।

हमारी आलोचना – जीव की उत्पत्ति का अलग वर्णन इस लिये नहीं है कि जीव नित्य और अजन्मा है । इससे न तो यह सिद्ध होता है कि जीव ब्रह्म ही है । न उसका विकार । अग्नि आदि भी तो ब्रह्म का विकार नहीं है । क्यांेकि ब्रह्म उपादान कारण नहीं।

(2) काषकृत्स्नयाचार्यस्याविकृतः परमेष्वरोजीवोनान्यइति मतम् ।

(षां॰ भा॰ 1।4।22 पृश्ठ 171)

काषकृत्स्न आचार्य तो अविकृत परमेष्वर को ही जीव मानते हैं न अन्य को ।

(3) आष्मरथ्यस्य तु यद्यपि जीवस्य परस्मादनन्यत्वम – भिप्रेतं तथापि प्रतिज्ञासिद्धेरिति सापेक्षत्वाभिधानात् काय्र्यकारण – भावः कियानप्यभिप्रेत इति गम्यते ।

(षां॰ भा॰ 1।4।22 पृश्ठ 171)

यद्यपि आष्मरथ्य जी जीव का परमेष्वर से अनन्यत्व मानते हैं तो भी ‘‘प्रतिज्ञासिद्धि से’’ इस अपेक्षा के कथन मात्र से कुछ – कुछ काय्र्य कारण भाव की प्रतीति होती है ।

(नोट – यह तो अनन्यत्व नहीं है) ।

(4)औडुलोमिपक्षे पुनः स्पश्टमेवावस्थान्तरापेक्षौ भेदाभेदौ गम्यते ।

‘‘औडुलोमि के पक्ष में तो स्पश्ट ही भेद और अभेद अवस्था की अपेक्षा से हैं ।’’ (अर्थात् बन्ध अवस्था मंे भेद है मुक्ति मंे अभेद है ।)

(5) तत्र काषकृत्स्नीयं मतं श्रुत्यनुसारीति गम्यते ।

(षां॰ भा॰ 1।4।22 पृश्ठ 171)

यहाँ काषकृत्स्न का मत श्रुति के अनुसार है ।

हमारी आलोचना – इससे इतना तो स्पश्ट है कि यह आचार्य षांकर अद्वैत के मानने वाले नहीं थे । कारण और काय्र्य का भेद अनन्यत्व नहीं हो सकता । बन्ध में भेद और मुक्ति में अभेद कुछ अर्थ नहीं रखते । यह तो कह सकते हैं कि बन्ध में जीव को ब्रह्मरूपता नहीं प्राप्त होती । मोक्ष मंे होती है । काषकृत्स्न का मत वही नहीं जो षंकर स्वामी का है । श्रुति के अनुसार अवष्य है क्यांेकि श्रुति भी ष्ंाकर स्वामी के मत की पुश्टि नहीं करती ।

(19)

अधिकं तु भेदनिर्देषात् (वे॰ 2।1।22)

(1) यत् सर्वज्ञ सर्वषक्ति ब्रह्म नित्य षुद्ध बुद्धमुक्तस्वभावं षारीरादधिकमन्यत् । तद्वंय जगतः स्त्रश्टृ ब्रूमः । न तस्मिन्हिता कारणादयो दोशाः प्रसज्यन्ते । नहि तस्य हितं किंचित्कत्र्तव्यम-स्तयहितं वापरिहर्तव्यम् । नित्यमुक्तस्वभावन्वात् ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 2089)

(2) षारीरस्त्वनेवंविधस्तस्मिन् प्रसज्यन्ते हिताकरणादयो दोशाः न तु तं वयं जगतः स्त्रश्टारं ब्रूमः । कुत एतत् । भेदनिर्देषात् ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 209)

जो सर्वज्ञ सर्वषक्तिमान् ब्रह्म है वह नित्य – षुद्ध – बुद्ध मुक्त स्वभाव होने से जीव से अधिक, अन्य है । उसी को हम जगत् का रचयिता कहते हैं । उसमंे यह दोश नहीं लगाया जा सकता कि वह हित नहीं करता । उसको न तो अपना कोई हित करना है न अपना कोई अहित निवारण करना है । नित्य – मुक्त – स्वभाव होने के कारण ।

जीव तो ऐसा नहीं है, उसमें ‘हित न करना’ आदि दोश लग सकते हैं । उसको हम जगत् का रचयिता नहीं कहते । क्यों । भेद का निर्देष होने के कारण ।

हमारी आलोचना – यहाँ ब्रह्म और जीव का भेद स्पश्ट है ।

पूर्व पक्ष – नन्वभेदनिर्देषोऽपिदर्षितः ‘तत्त्वमसि’ इत्येवंजाती – यकः । कथं भेदाभेदौ विरूद्धौ संभवेयाताम् ।

‘तत्वमसि’ आदि वाक्यों मंे अभेद भी तो बताया है । भेद और अभेद दोनों कैसे मेल खायेंगे?

षां॰ उत्तर पक्ष – नैश दोशः । (1) आकाषघटाकाषन्या येनोभयसंभवस्य तत्र तत्र प्रतिश्ठापितत्वात् ।

(2) अपि च यदा तत्त्वमसीत्येवं जातीयकेनअभेदनिर्देषेन अभेदः प्रतिबोधितो भवति, अपगतं भवति तदाजीवस्य संसारित्वं ब्रह्मणश्च स्त्रश्टृत्वं, समस्तस्य मिथ्याज्ञान विजृम्भितस्य भेदव्यवहारस्य सम्यगानेन बाधितत्वात् ।

(षां॰ भा॰ 2।1।22 पृश्ठ 209)

यह दोश नहीं । क्यांेकि (1) जैसे आकाष और घटाकाष मंे भेद अभेद दोनों ही ठीक है वैसा ही यहां भी समझना चाहिये । (2) दूसरे जब ‘तत्वमसि’ आदि निर्देष से अभेद की जागृति हो जायगी तो न जीव का संसारीपन रहेगा और न ब्रह्म का स्त्रश्टापन । यह तो सब भेद मिथ्या ज्ञान के द्वारा है । जब यह समाप्त हुआ तो वह भी नश्ट हो जायगा ।

हमारी आलोचना – यह हम कई स्ािानांे पर दिखा चुके हैं कि ‘तत्वमसि’ जीव के लिये है ब्रह्म के लिये नहीं । और न यह वाक्य ब्रह्म और जीव का अभेद बताता है ।

वादरायण के सूत्र मंे इस बात की गन्ध तक नहीं कि यह भेद मिथ्या ज्ञान के कारण है । सूत्र मिथ्या ज्ञान को दूर करने के लिये हैं न कि उसके आधार पर वक्तव्य देने के लिये ।

आकाष और घटाकाष तो एक ही हैं और एक लक्षण वाले हैं । परन्तु जीव और ब्रह्म का भेद आप ही प्रबल भाशा मंे बता चुके हैं । अतः यह द्रश्टान्त ठीक नहंी है ।

मिथ्या ज्ञान के दूर होने पर किसी जीव की मुक्ति हो जाय तो उसका संसारीपन अवष्य छूट जायगा । परन्तु उसकी अपनी सत्ता नश्ट नहीं होगी । मुक्ति का अर्थ यह नहीं कि अस्तित्व भी नश्ट हो जाय । (देखो षां॰ भा॰ 4।4।12, 4।4।17)

यह कहना तो सर्वथा ही अनर्गल है कि ईष्वर का स्त्रश्टापन भी समाप्त हो जायगा । क्यांेकि एक जीव की मुक्ति होने से समस्त जीवमंडल की मुक्ति नहीं हो सकती । आज संसार विद्यमान है और ईष्वर का स्त्रश्टापन भी स्थित है । क्या यह समझना चाहिये कि अब तक षंकर स्वामी, उनके गुरू अथवा किसी अन्य जीव की मुक्ति हुई ही नहीं ।

(20)

न जीवस्योत्पत्तिप्रलयौ स्तः, षास्त्रफल संबन्धोपपत्तेः । षरीरानुविनाषिनि हि जीवे षरीरान्तरगतेश्टानिश्टप्राप्ति परिहारार्थौ विधि – प्रतिशेधावनथकौ । स्याताम् । श्रूयते च -‘जीवापेतं वाव किलेदं स्त्रियते न जीवो स्त्रियते ।   (छा॰ 6।11।3)’

(षां॰ भा॰ 2।3।16 पृश्ठ 277)

जीव की उत्पत्ति प्रलय नहीं होते । इसी प्रकार षास्त्रोक्त कर्मफल का सम्बन्ध हो सकता है । यदि षरीर के साथ जीव भी नश्ट हो जाय तो दूसरे षरीर में इश्ट अनिश्ट की प्राप्ति या परिहार कैसे हो ? और षास्त्र में जो विधि ओर निशेधात्मक उपदेष है वह भी अनर्थक हो जाय । छान्दोग्य में भी कहा है कि ‘जीव से त्यागा हुआ षरीर मरता है जीव नहीं मरता ।’

यह भाशा जीव ब्रह्म का भेद दिखाने के लिये इतनी स्पश्ट है कि टिप्पणी की आवष्यकता नहंी । 17वें सूत्र के भाश्य में षंकर स्वामी ने जो यह लिखा हैः-

‘‘प्रतिज्ञानुपरोधोऽप्यविकृतस्यैव ब्रह्मणो जीवभावाभ्युपगमात् । लक्षणभेदोऽप्यनयोरूपाधिनिमित्तएव ।’’

(षां॰ भा॰ 2।3।17 पृश्ठ 279)

अर्थात् अविकृत (विकार – रहित) ब्रह्म के जीव मानने से ही उपनिशदों का समन्वय होता है और जीव ब्रह्म का जहाँ कहीं लक्षण – भेद दिया है वह उपाधि के कारण है यह ठीक नहीं । प्रथम तो इससे स्पश्ट हो जाता है कि षास्त्रों में जीव ब्रह्म का लक्षण भेद दिया है । दूसरे ब्रह्म को अविकृत भी मानना और फिर उसमें उपाधि का पचडा लगाना ये दोनों परस्पर विरूद्ध बातें हैं । यदि ब्रह्म अविकार्य है तो उसमंे उपाधि का कुछ प्रभाव नहीं पड सकता और वह जीव-भाव को प्राप्त नहंी हो सकता । श्री षंकर स्वामी लिखते हैं:-

यदपि क्वचिदस्योत्पत्ति प्रलय श्रवणं तदप्यत एवोपाधिसंबन्धान्नेतव्यम् । उपाध्युत्पत्त्यस्योत्पत्तिः प्रलयेन च प्रलय इति ।

(षां॰ भा॰ 2।3।17 पृश्ठ 279)

जहाँ कहीं जीव की उत्पत्ति या प्रलय लिखी है वह उपाधि सम्बन्ध से है । उपाधि की उत्पत्ति से इसकी उत्पत्ति, उपाधि की प्रलय से इसकी प्रलय ।

यहाँ यह ठीक है कि षरीर ही उत्पन्न या नश्ट होता है । जीव नहीं । जहाँ जीव की उत्पत्ति या विनाष का उल्लेख है वहाँ षरीर की अपेक्षा से है । परन्तु इसको ब्रह्म में तो नहंी घटा सकते । याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को जो उपदेष दिया है वहाँ भी जीव ही अभिप्रेत है । यह जो षंकर स्वामी आकाष का द्रश्टान्त देते हैं:-

‘‘आकाषस्येव घटादि संबन्ध निमित्तम्’’ । (पृश्ठ 279)

अर्थात् जैसे आकाष के घट आदि के निमित्त से भाग हो जाते हैं वैसे ही ब्रह्म के भी हो जायंगे । यह ठीक नहीं । प्रथम तो उपनिशदों या सूत्रों में ऊपर के वाक्य के तुल्य एक भी ऐसा वाक्य नहीं है जहाँ बिना खींचा तानी के स्पश्ट ऐसा उल्लेख हो । दूसरे जहाँ आकाष से ब्रह्म की उपमा दी गई है वहाँ विभुत्व के प्रसंग में न कि उपाधि के प्रसंग मंे । यह एक विषेश बात है जिसको लोग आँखों से ओझल कर देते हैं । दूसरी बात यह है कि आकाष जड है । घटाकाष को यह ज्ञान नहीं कि मैं उपाधि के कारण अब तंग या तंग सा हो गया । केवल दूसरे लोग ऐसा समझ लेते हैं । परन्तु ब्रह्म तो सर्वज्ञ तथा चेतन है । उसे स्वयं यह क्यों नहीं पता रहता कि मैं विभु हूँ केवल षरीर के कारण परिच्छिन्न हो गया हूँ ।’’ घडे की दीवारंे भीतर के आकाष के किसी गुण को तिरोहित करने के समर्थ नहीं है । फिर षरीर की उपाधि ब्रह्म के मौलिक गुण सर्वज्ञता, निश्पापता, आनन्द आदि को कैसे तिरोहित कर सकती है? तीसरे घडे की दीवारें झूठी नहीं, सच्ची हैं फिर भी वे आकाष के गुणों को दबा नहीं सकीं तो षरीर की मायावीं उपाधियाँ ब्रह्म को कैसे दबा सकती हैं? जीव अल्प हैं षरीर के आश्रित है अतः षरीर की सीमाओं से प्रभावित हो जाता है।

(21)

नित्यस्वरूप चैतन्यत्वे घ्राणाद्यानर्थक्यमिति चेत् । न । गन्धा – दिविशय विषेशपरिच्छेदार्थत्वात् ।। तथाहि दर्षयति ‘गन्धाय घ्राणम्’ इत्यादि ।

(षां॰ भा॰ 2।3।18 पृश्ठ 280)

यदि यह आक्षेप करो कि यदि जीव नित्य चेतन होगा तो नाक आदि व्यर्थ हो जायेंगे तो यह आक्षेप ठीक नहीं । क्यांेकि नाक आदि तो गन्ध आदि विषेश विशयों के पहचानने के लिये हैं । षास्त्र भी कहता है, ‘‘गन्ध के लिये नाक है ।’’

यह ठीक है । परन्तु इससे जीव का ब्रह्म से भेद स्पश्ट हो जाता है । ब्रह्म को किसी विशय के जानने के लिये इन्द्रिय की आवष्यकता नहीं ।

‘‘पष्यतयचक्षुः स शृणोत्यकर्णः’’ (ष्वे॰ 3।19)

जब बिना चक्षु के रूप विशय को देखता और बिना कान के षब्द विशय को सुनता है तो बिना नाक के गन्ध विशय को सूंघने में क्या संदेह ?

(22)

वेदान्त दर्षन के दूसरे अध्याय के तीसरे पाद के 19वें सूत्र से लेकर 32वें तक जीव के अणुत्व का प्रष्न है । इन सूत्रों में स्पश्ट दिया है कि जीव अणु है विभु नहीं । परन्तु षंकर स्वामी ने 19 से 28 तक सूत्रों को पूर्व – पक्ष मान कर षेश मंे जीव का विभुत्व स्वीकार किया है जिससे जीव – ब्रह्म का अभेद सिद्ध हो जाय । सब सूत्रों के षब्दों पर दृश्टि डालने से षंकर स्वामी की अयुत्क्ता स्पश्ट हो जाती है । सूत्र ये हैं:-

(19) उत्क्रान्तिगत्यागतीनाम् ।

उत्क्रान्तिगत्यागतीनां श्रवणात् परिच्छिन्नोऽअणु परिमाणो जीव इति । उत्क्रान्तिस्तावत् – ‘स यदास्माच्छरीरादुत्क्रामति सहैवैतैः सर्वैरूत्क्रामति’ (कौशीत॰ 3।3) इति गतिरपि ‘ये वै के चास्माल्लोकात् प्रयन्धि चन्द्रमसमेव ते सर्वे गच्छन्ति (कौशी॰ 1।2) इति । आगतिरपि ‘तस्माल्लोकात् पुनरेत्यस्मै लोकाय कर्मणे’(बृ॰ 4।4।6) इति’

आसामुत्क्रान्तिगत्यागत्तीनां श्रवणात् परिच्छिन्न स्तावज्जोब इति प्राप्रोति । नहि विभोश्चलनमवकल्पत इति ।

(षां॰ भा॰ 2।3।19 पृश्ठ 281)

श्रुति मंे दिया है कि जीव निकलता है, जाता है और फिर लौटता है । जैसे कौशीतकि ब्रह्मण – उपनिशद् मंे लिखा है कि जब जीव इस षरीर से निकलता है तो इन सब (प्राणादि) के साथ निकलता है । तथा ‘‘जो कोई इस लोक से जाते हैं वे सब चन्द्र लोक को जाते हैं’’ और वृहदारण्यक में है कि ‘‘उस लोक के फिर इस लोक को लौटते हैं कर्म के लिये ।’’ निकलने, जाने और लौटने से सिद्ध है कि जीव परिच्छिन्न है । विभु होता तो चलना कैसे होता ?

(20) स्वात्मना चोत्तरयोः ।

उत्तरे तु गत्यागतो नाचलतः संभवतः । स्वात्मना हि तयोः संबन्धो भवति गमेः कर्तृस्थ क्रियात्वात् । अमध्यम परिमाणस्य च गत्यागतो अणुत्व एव संभवतः ।…………………………. तस्मादप्यस्याणुत्वत्वसिद्धिः ।

(षां॰ भा॰ 2।3।20 पृश्ठ 282)

जाना ओर लौटना अचल मंे नहीं हो सकता । अपने आत्मा से ही उनका सम्बन्ध होता है । गति कत्र्ता में ही होती है । जाने और लौटने के लिये जीव अणु होना चाहिये ।

(21) नाणुरतचªछुतेरिति चेन्नेतराधिकारात् ।

अथापि स्यान्नाणुरयमात्मा । कस्मात् । अतचªछुतेः । अणुत्व-विपरीत परिमाणश्रवणादित्यर्थः । ‘सवा एश महाजन आत्मा योऽयं विज्ञानमयः प्राणेशु (बृ॰ 4।4।12), ‘आकाषवत् सर्वगश्च नित्यः,’ ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ (तै॰ 2।1।1) इत्येवं जातीयका हि श्रुतिरात्मनोऽणुत्वे विप्रतिशिध्येतेति चेत् नैश दोशः । कस्मात् । इतराधिकारात् । परस्य ह्यान्मनः प्रक्रियायामेशा परिमाणान्तर श्रुतिः ।

(षां॰ भा॰ 2।3।21 पृश्ठ 282)

यदि वह कहा जाय कि आत्मा अणु नहीं । क्यों? श्रुति के विरूद्ध होने से । अर्थात् श्रुति में लिखा है कि आत्मा अणु नहीं । जैसे बृहदारण्यक में है ‘वह महान् अज, विज्ञानमय है,’ या तैत्तिरीय में है ‘वह आकाषवत् सर्वत्र है,’ ‘‘ब्रह्म सत्य, ज्ञान, और अनन्त है’’ । तो यह आक्षेप ठीक नहीं । क्यांेकि यहाँ प्रकरण ब्रह्म का है । यह श्रुतियाँ ब्रह्म के परिच्छिन्नत्व का खण्डन करती हैं जीव का नहीं ।

(22) स्वषब्दोन्मानाभ्यांच ।

इतश्चाणुरात्मा यतः साक्षादेवास्याणुत्ववाची षब्दः श्रूयते ‘एशोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन् प्राणः पञचधा संविवेष (मु॰ 3।1।9) इति ……….तथोन्मानमपि जीवस्याणिमानं गमयति बालाग्रषत भागस्य षतधा कल्पितस्य च । भागो जीवः सविज्ञेयः (ष्वे॰ 5।8) इति । आराग्रमात्रो ह्यवरोऽपि दृश्टः । (ष्वे॰ 5।8) इति चोन्मानान्तरम् ।’

(षां॰ भा॰ 2।3।22 पृश्ठ 282-83)

मुण्डक उपनिशद् में स्वयं ‘अणु’ षब्द आया है । ष्वेताष्वर में बाल के सिर के सौवां हिस्सा ऐसा परिमाण भी लिखा है ।

(23) अविराधश्चन्दनवत् ।

यथा हि हरिचन्दन विन्दुः षरीरैकदेष संबद्धोऽपि सन् सकल देहव्यापिनमाह्लादं करोति एवमात्मापि देहैकदेषस्थः सकल देह-व्यापिनीमुपलब्धिं करिश्यति ।

(षां॰ भा॰ 2।3।23 पृश्ठ 283)

जैसे चन्दन का एक बिन्दु एक अंग मंे लगा हुआ सब षरीर को आनन्द देता है (त्वचा के द्वारा) इसी प्रकार आत्मा भी एक देष में ठहरा हुआ सब षरीर का ज्ञान करता है । इससे जीव का अणुत्व सिद्ध है ।

(24) अवस्थिति वैषेश्यादिति चेआभ्युपगमाद्धृदि हि ।

अभ्युपगम्यते ह्यान्मनोऽपि चन्दनस्येव देहैकदेषवृत्तित्वमव स्थिति वैषेश्यम् । कथमित्युच्यते । हृदि ह्येश आत्मा पठ्यते वेदान्तेशु ‘हृदि ह्येश आत्मा’ (प्रष्न 3।6) ‘सवा एश आत्मा हृदि’ (छा॰ 8।3।3) ।

(षां॰ भा॰ 2।3।24 पृश्ठ 283)

चन्दन की बूँद के समान आत्मा को भी एक देष में स्थित बताया गया है । प्रष्न और छान्दोग्य दोनों मंे लिखा है कि आत्मा हृदय मंे रहता है ।

(25) गुणाद् वा लोकवत् ।

यथा लोके मणिप्रदीपप्रभृतीनामपवरकैकदेषावत्र्तिनामपि प्रभाऽपवरकव्यापिनी सती कृत्स्नेऽपवरके कार्यं करोति तद्वत् ।

(षां॰ भा॰ 2।3।25 पृश्ठ 284)

लोक में देखते हैं कि एक देष में रक्खा हुआ मणि या दीपक सभी स्थानों में प्रकाष करता है इसी प्रकार जीव भी एक देष मंे ठहरा हुआ समस्त षरीर मंे काम करता है ।

(26) व्यतिरेको गन्धवत् ।

अप्राप्तेश्वपि कुसुमादिशु गन्धवत्सु कुसुमगन्धोपलब्धेः । एव – मणोरपि सतो जीवस्य चैतन्यगुणव्यतिरेको भविश्यति ।

(षां॰ भा॰ 2।3।26 पृश्ठ 284)

जैसे फूल न मिलने पर भी दूर से फूल की गन्ध मिल जाती है इसी प्रकार अणु जीव का चैतन्य गुण भी दूर देष में काम कर सकता है ।

(27) तथा च दर्षयति ।

‘आलोमभ्य आ नखाग्रेभ्यः’ (छा॰ 8।8।1)

(षां॰ भा॰ 2।3।27 पृश्ठ 284)

छान्दोग्य उपनिशद् में भी कहा है ‘‘बालों तक, नाखूनों के अन्त तक’’ ।

(28) पृथगुणपदेषात् ।

‘प्रज्ञया षरीरं समारूद्य’ (कौशी॰ 3।6) इति चात्मप्रज्ञयोः कर्तृकरणभाशेन पृथगुपदेषाच्चैतन्यगुणेनैवास्य षरीरव्यापिता गम्यते ।……………….तस्मादणुरात्मेति ।

(षां॰ भा॰ 2।3।28 पृश्ठ 284)

कौशीतकी में लिखा है कि जीव प्रज्ञा के द्वारा षरीर में रहता है । यहाँ कत्र्ता और करण को अलग – अलग दे दिया है । इस लिये आत्मा अणु है ।

हमने इन 10 सूत्रों का भाश्य षंकर स्वामी के षब्दों में ही दे दिया है । इससे जीव का परिच्छिन्न होना और इस लिये ब्रह्म से भिन्न होना भी सिद्ध है । उपनिशदों के भी पुश्फल प्रमाण इस पक्ष में हैं ।

परन्तु षंकर स्वामी ने इन को पूर्वपक्ष कर दिया है । यद्यपि इनमें कोई षब्द भी ऐसा नहीं जिससे इनका पूर्वपक्षत्व सिद्ध हो सके ।

आगे के चार सूत्रों के भाश्य मंे षंकर स्वामी ने ऊपर के पूर्व पक्ष का खण्डन किया है । और जीव ब्रह्म के अनन्यत्व का प्रतिपादन । परन्तु सूत्रों के षब्दों से ऐसा ज्ञात नहीं होता । दूसरे अध्याय के पहले पाद का 22वां सूत्र ‘अधिकं तु भेदनिर्देषात्’ भी भेद को स्पश्ट बताता है । अतः जीव के अणुत्व को भी ।

तथापि हम यहाँ अगले चारों सूत्रों और उन पर षांकर भाश्य की आलोचना करते हैं:-

(29) तद्गुणसारत्वात् तु तद्-व्यपदेषः प्राज्ञवत् ।

षां॰ भा॰ – (1) तुषब्दः पक्ष व्यावर्तयति । नैतदस्त्यणु-रात्मेति ।

‘तु’ षब्द पूर्वपक्ष का परिहार करता है । आत्मा अणु नहीं है ।

(2) उपाधि गुणसारन्वज्जीवस्याणुत्वादि व्यपदेषः प्राज्ञवत् । यथा प्राज्ञस्य परमात्मनः सगुणेशूपासनेशूपाधिगुणसारत्वाद णीयस्त्वादिव्यपदेषः ‘अणीयान् व्रीहेर्वा यवाद् वा’ (छा॰ 3।1।14।2) ‘मनोमयः प्राणषरीरः सर्वगन्धः सर्वरसः सत्यकामः सत्य संकल्पः’ (छा॰ 3।1।14।2) इत्येव प्रकारस्तद्वत् ।

(षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 285-287)

उपाधि गुण के सार के कारण जीव को अणु कहा है । प्राज्ञ के समान । जैसे सगुण उपासना मंे उपाधि गुण सारत्व के कारण प्राज्ञ ब्रह्म को अणु कहा, ‘जैसे छान्दोग्य में चावल और जौ से भी छोटा कहा है । अथ मनोमय, प्राण षरीर, सर्वगंध, सर्वरस, सत्यकाम और सत्य संकल्प बताया है । उसी प्रकार यहाँ भी ।’

हमसार अलोचना – श्री आनन्द तीर्थ (मध्वाचार्य) के अणु भाश्य मंे ‘तु’ नहीं है । अन्य पुस्तकों मंे है । आनन्द तीर्थ कहते हैं:-

भिन्नाजीवः परोभिन्नस्तथाजिज्ञानरूपतः ।

प्रोच्यन्ते ब्रह्मरूपेण वेद वादेशु सर्वथा ।                              (अणु भाश्य)

अर्थात् जीव भिन्न है । पराब्रह्म भिन्न है परन्तु ज्ञानरूपता के कारण जीव को ब्रह्मरूप से वर्णन किया गया है तथा:-

चेतनत्वादि सादृष्यं यद्यभेद इतीश्यते ।

अंगीकृतं तदस्माभिर्नं स्वरूपैक्यता क्वचित् ।।                  (अणु व्याख्यान)

चेतनता आदि के सादृष्य से यदि अभेद मानों तो हम को स्वीकृत है । परन्तु स्वरूप से एकता नहीं ।

परन्तु यदि ‘तु’ को मान भी लिया जाय तो भी षंकर मत की पुश्टि नहीं होती । क्यांेकि 28वें सूत्र ‘पृथगुपदेषात्’ के पष्चात् 29वें सूत्र का ‘तु’ पृथक् उपदेष का खण्डन करता हुआ प्रतीत नहीं होता । यदि कहो कि पिछले दसों सूत्र के खण्डन में है तो भी ठीक नहीं क्यांेकि उन सूत्रों के षब्दों से स्पश्ट है कि समस्त बातों का खण्डन ‘गुण सारत्व’ मात्र से नहीं होता । यदि बादरायण को ऐसा अभीश्ट होता तो एक एक युक्ति का क्रमषः खण्डन करते ।

इसकी अपेक्षा तो स्वामी हरि प्रसाद ने वैदिकवृत्ति मंे अच्छा कहा है । बुद्धि सत्व का आत्मा से व्यतिरेक बताकर वह षंका उपस्थित करते हैं । ष्वेताष्वरतर में जीव को ‘अंगुश्ठमात्रो रवितुल्यरूपः’ (ष्वे॰ 5।8) बताया गया है, षंका होती है कि अंगूठे के परिणाम वाला अणु कैसे हो सकता है, इसके उत्तर में 29वां सूत्र कहता है कि –

(1) न खलु श्रुत्या स्वरूप तोऽगंुश्ठपरिमाणो जीवात्मा व्यपदिष्यते किन्तु बुद्धि गुण प्रधान्यात् ।

जीवात्मा स्वरूप से अंगूठे के बराबर नहीं । बुद्धि गुण की प्रधानता के कारण है ।

(2) हृदयं च मनुश्याणां प्रायेणागंुश्ठ परिमाण मिति ।

मनुश्यों का हृदय प्रायः अंगूठे के बराबर माना जाता है ।

(30) यावदात्मभावित्वाश्च न दोशस्तद् दर्षनात् ।

नेयमनन्तर निर्दिश्ट दोशप्राप्तिराषंकनीया । कस्मात् । यावदात्म भावित्वाद् बुद्धिसंयोगस्य । यावदयमात्मा संसारी भवति, यावदस्य सम्यग्यदर्षनेन संसारित्वं न निवतते, तावदस्य बुद्धîा संयोगो न षाम्यति ।

(षां॰ भा॰ 2।3।30 पृश्ठ 287)

पहले एक षंका उठाई कि जब बुद्धि और आत्मा भिन्न है तो इनका संयोगान्त (अवसान) भी अवष्य होगा । बुद्धि के वियोग होेने पर जीव का अलक्ष्यत्व होगा अर्थात् लक्षण न कर सकोगे । अतः या जीव का अभाव मानना पडेगा या असंसारीपन ।

इस षंका का उत्तर देते हैं । जब तक आत्मा संसारी रहता है, जब तक समयक् ज्ञान से संसारित्व छूटता नहीं तब तक बुद्धि का संयोग भी नहीं छूटता ।

षंकर स्वामी के इस अर्थ से भी जीव के अणुत्व पर कोई प्रभाव नहीं पडता । केवल दूसरा प्रष्न उठ जाता है । जीव के अणु होने पर भी यह ठीक ही हो सकेगा कि जब तक जीव की मुक्ति न होगी षरीर मंे आना जाना (संसारीपन) लगा रहेगा । परन्तु इससे ब्रह्म और जीव का अनन्यत्व सिद्ध नहीं होता ।

(31) पुस्त्वादिवत् त्वस्य सतोऽभिव्यक्तियोगात् ।

यथा लोके पुंस्त्वादीनि बीजात्मना विद्यमानान्येव बाल्यादिश्वनुपलभ्यमानान्यविद्यमा वदभिप्रेयमाणानि यौवनादिश्वा-विर्भवन्ति, नाविद्यमानान्युत्पद्यते शण्ढादीनामपि तदुत्पत्ति प्रसंगात्, एवमयमपि बुद्धिसम्बन्धः षक्तîात्मना विद्यमान एव सुशुप्ति प्रलययोः पुनः प्रशोधप्रसवयोराविर्भवति ।

(षां॰ भा॰ 2।3।31 पृश्ठ 289)

बालकों मंे पुंस्त्व (मर्दानापन) बीज मात्र होता है । प्रकट नहीं होता । और युवावस्था में प्रकट होता है । होता अवष्य है । अभाव से भाव नहीं हो जाता । अन्यथा नपुंसक मंे पुस्त्व आ जाता । इसी प्रकार सुशुप्ति और प्रलय में भी आत्मा का बुद्धि से सम्बन्ध षक्तिमात्र रहता है । और जगने पर आविर्भूत हो जाता है ।

इस व्याख्या से जीव के अणु होने का खण्डन नहीं होता किन्तु जीव का ब्रह्म से भेद प्रकट होता है । क्योंकि प्रलय या सुशुप्ति में ब्रह्म तो एक सा ही रहता है । उसमंे बीज – अंकुर की उपमा नहीं घट सकती ं

(32) नित्योपलब्ध्यनुपलब्धि प्रसंगोऽन्यतरनियमो वाऽन्यथा ।

(1) तच्चैवंभूतमन्तः करणमवष्यमस्तीत्यभ्युपगन्तव्यम् ।

(2) अन्यथा ह्यनभ्युपगम्यमाने तस्मिन्नितयोपलब्ध्यनुपलव्धि प्रसंगः स्यात् । आत्मेन्द्रियविशयाणामुपलब्धि साधनानां संनिधाने सति नित्यमेवोपलब्धिः प्रसज्येत । अथसत्यपि हेतु समवधाने फलाभावस्ततो नित्यमेवानुपलब्धिः प्रसज्येत ।

(षां॰ भा॰ 2।3।32 पृश्ठ 289)

(1) हमको ऐसे अन्तःकरण को मानना ही चाहिये ।

(2) न मानने से या तो नित्य ज्ञान होगा या नित्य अज्ञान । आत्मा इन्द्रिय और विशयों के सम्पर्क से सदा ज्ञान ही होगा । और यदि इनके सम्पर्क से भी ज्ञान न हुआ तो कभी नहीं होगा ।

(3) नचैवं दृष्यते ।

(4) अथवान्यतरस्यात्मन इन्द्रियस्य वा षक्ति प्रतिबन्धोऽभ्यु – पगन्तव्यः ।

या यह मानो कि आत्मा या इन्द्रिय की षक्ति में कोई बाधा पड गई ।

(5) न चात्मनः षक्तिप्रतिबन्धः संभवति अविक्रियत्वात् ।

आत्मा की षक्ति मंे बाधा नहीं हो सकती । वह अविकारी है ।

(6) नापीन्द्रियस्य । न हि तस्य पूर्वोत्तरयोः क्षणयोरप्रतिबद्ध षक्तिकस्य सतोऽकस्माच्छक्तिः प्रतिबध्येत ।

इन्द्रियों में भी बाधा नहीं हो सकती । क्यांेकि पहले और पीछे कोई बाध होती नहीं

तात्पर्य यह है कि आत्मा इन्द्रियों के द्वारा विशयों से संनिकर्श करता है तो ज्ञान होता है । दीवार विशय है, आंख इन्द्रिय है । मैं देखने वाला आत्मा हूँ । जब तक आंख खुली है आत्मा का आंख के द्वारा दीवार को प्रत्यक्ष करना चाहिये । ऐसा नहीं होता । आंख खुली रहने पर भी हम चीजों को नहीं देखते । इससे पता चलता है कि आत्मा और आंख के बीच मंे एक अन्तःकरण या मन भी है । यदि मन को न मानें तो या तो सदा दीवार का ज्ञान होगा या कभी न होगा । परन्तु कभी होता है कभी नहीं होता । इससे सिद्ध है कि मन भी है ।

हमारी आलोचना – ऊपर के इस कथन से जीव का अणु होना सिद्ध तो है असिद्ध नहीं । और न इससे जीव के ब्रह्म होने का कोई प्रसंग उठता है ।

हमने यहाँ 12 सूत्र दिये हैं । जो जीव के अणु होने को प्रकट करते हैं ।

अब आगे हम कुछ युक्तियों की भी आलोचना करेंगे जो पिछले सूत्रों के अन्तर्गत षांकर – भाश्य में भाश्यकार की ओर से उठाई गई हैं । और जिनके लिये बादरायण को उत्तरदाता नहीं बनाया जा सकता ।

षं॰ स्वा॰ – न चाणोर्जीवस्य सकलषरीरगता वेदनोपपद्यते । त्वक् संबन्धात् स्यादिति चेत् । न । कण्टकोतोदनेऽपि सकल षरीर गतैव वेदना प्रसज्येत । त्वक् कण्टकयोर्हि संयोगः कृत्स्नायां त्वचि वर्तते त्वक् च कृत्स्नषरीरव्यापिनीति । पादतल एव तु कण्टकनुन्नो वेदनां प्रतिलभते ।

(षां॰ भा॰ 2।3।32 पृश्ठ 285-286)

यदि जीव अणु होता तो समस्त षरीर की वेदना को न अनुभव कर सकता । यदि कहो कि त्वचा का समस्त षरीर से सम्बन्ध है इस लिये त्वचा के द्वारा वेदना का ज्ञान हो जायगा । तो यह ठीक नहीं । क्योंकि यदि पैर कांटे पर पड जाय तो समस्त षरीर मंे पीडा होनी चाहिये थी । क्योंकि कांटे और त्वचा का सम्बन्ध समस्त देह से है । त्वचा समस्त देह में व्यापक है । परन्तु ऐसा होता नहीं । पीडा केवल पैर के तलवे में ही होती है ।

हमारी आलोचना – इस युक्ति को युक्ति कहने में बडा संकोच होता है । यदि यह युक्ति षांकर भाश्य में न होती तो हम इसकी ओर संकेत करना भी उचित न समझते । षरीर षास्त्र का सामान्य ज्ञान रखने वाला विद्यार्थी भी जानता है कि पैर मंे कांटा लगने से पैर में ही क्यांे पीडा होती है । समस्त षरीर मंे नहीं होती । त्चचा एक अखण्ड अविभाज्य वस्तु नहीं है । षरीर के भिन्न – भिन्न भागों से मस्तिश्क तक नस नाडियों का तांता लगा हुआ है । अतः पैर में कांटा लगते ही आतमा को सूचना मिल जाती है कि षरीर के अमुक स्थान में कांटा लगा है । तार घर में एक स्थान पर बैठे हुये तार बाबू को पता चल जाता है कि तार लखनऊ से खटखटाया जा रहा है या कलकत्ता से । इससे तो जीव के अणुत्व का खण्डन नहीं होता अपितु नाडी संस्थान के उत्तम प्रबन्ध का परिचय होता है ।

जब पक्षाघात (लकवा) हो जाता है तो तन्तु सम्बन्ध मंे विकार आने से कांटे का चुमना भी अनुभव नहीं होता । यदि आत्मा विभु होता तो पक्षाघात होने का कोई प्रभाव न होना चाहिये था ।

कांटे के पैर में लगने से ‘पैर में पीडा है’ ऐसा ज्ञान जीव को अपने मस्तिश्क में होता है षरीर के अन्य स्थानों पर नहीं । इससे सिद्ध है कि जीव अणु ही है ।

यद्यपि त्वग् इन्द्रिय समस्त षरीर मंे है तो भी कांटा जितनी पीडा आंख में उत्पन्न कर सकता है उतनी पैर के तलवे में नहीं । बिना जूते के चलने वाले ग्रामीण पुरूशों की तलवे की खाल इतनी कठोर हो जाती है कि साधारण कांटे का लगना अनुभव भी नहीं होता ।

(2) षंकर स्वामी – न चार्णोगुर्णव्याप्तिरूपपद्यते, गुणस्य गुणिदेषत्वात् । गुणत्वमेव हि गुणिनमनाश्रित्य गुणस्य हायेत । प्रदीप प्रभायाश्च द्रव्यान्तरत्वं व्याख्यातम् । गन्धोऽपिगुणत्वाभ्युप – गमात् साश्रय एवं संचरितुमर्हति । अन्यथा गुणत्वहानिप्रसगांत् ।

(षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 286)

(1) जहाँ गुणी रहेगा वहीं गुण रहेगा । यदि जीव अणु है तो उसकी चेतनता भी अणु होनी चाहिये । फिर वह एकदेषीय होगी और षरीर के अन्य भागों मंे विदित न होगी । गुणी का आश्रय छोड कर गुण नहीं रह सकता ।

(2) दीपक का प्रकाष तो गुण नहीं अपितु एक और द्रव्य है ।

(3) गन्ध का द्रश्टान्त भी ठीक नहीं । क्यांेकि गन्ध को गुण मानो तो गन्ध अपने गुणों के बाहर नहीं जा सकता ।

अतः जीव अणु नहीं है ।

हमारी आलोचना – षं॰ स्वा॰ के मत मंे गुण और गुणी का भेद नहीं । वैषेशिक मत के खण्डन में वे इसको स्पश्ट लिख चुके हैं । इस लिये यहाँ गुणगुणी का भेद मान कर विपक्षी की युक्ति का खण्डन करना उचित नहीं ।

इसके अतिरिक्त युक्ति सर्वथा निस्सार है । यह ठीक है कि जहाँ गुणी रहेगा वहीं गुण भी रहेगा । उसके बाहर नहीं जा सकता । परन्तु उस गुण की सहायता से उत्पन्न हुई षक्ति का प्रभाव तो बहुत दूर तक जा सकता है । यदि मैं अपने कमरे में कुर्सी पर बैठा हूँ तो मेरे गुण कुर्सी से बाहर नहीं जा सकते । परन्तु उन गुणों की सहायता से मैं कलम, लाठी, विद्युत्तार आदि में जो क्रिया उत्पन्न कर देता हूँ वह तो सैकडों मील तक जा सकती है । श्री षंकर स्वा॰ की विद्वत्ता उनके आश्रित थी । वह उनसे बाहर नहीं जा सकती थी । परन्तु उस विद्वत्ता का प्रकाष अन्य भौतिक साधनों द्वारा पुस्तक रूप में देष और काल दोनों की सीमा से बाहर चला जा रहा है । गुण तो द्रव्य में ही रहेगा परन्तु कर्म के लिये यह नियम नहीं है । अतः जीव का अणु होना षरीर की चेतनता – युक्त प्रवृत्तियों का बाधक नहीं ।

प्रकाष ओर गन्ध पर भी वही बात लागू होती है ।

प्रकाष को द्रव्यान्तर कह देने से तो उपमा निरर्थक नहीं ठहर सकती ।

(3) षं॰ स्वा॰ – यदि च चैतन्यं जीवस्य समस्तं षरीरं व्याप्नुयान्नाणुर्जीवः स्यात् । चैतन्यमेव ह्यस्य स्वरूपमग्नेरिवौश्ण्य – प्रकाषौ । नात्र गुणगुणिविभागो विद्यत इति । षरीरपरिमाणत्वं च प्रत्याख्यातम् । परिषेशाद् विभुर्जीवः ।

(षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 286)

जब जीव का चैतन्य समस्त षरीर मंे व्याप्त है तो जीव अणु नहीं हो सकता । चैतन्य ही इसका स्वरूप है । जैसे अग्नि का गर्मी और प्रकाष । गुण और गुणी अलग तो हो ही नहीं सकते ।

यह पहले ही बताया जा चुका है कि जीव का वही परिमाण नहीं है जो देह का है । (देखो वेदान्त 2।2।34)

अतः यही सिद्ध है कि जीव विभु है ।

हमारी आलोचना – जीव की चेतनता षरीर भर में कैसे व्याप्त होती है? इसका हम अभी ऊपर उल्लेख कर चुके हैं । षरीर के सभी अवयवों मंे चेतनता का समान प्रकाष नहीं होता । यदि समस्त षरीर में चेतनता बराबर होती और जीव विभु होता तो अन्तःकरण के मानने की आवष्यकता न थी । एक ही साथ आँख से देख और कान से सुन सकते है । परन्तु ऐसा नहीं होता । उँगली के कट जाने से चेतनता नहीं कट जाती ।

अभी षं॰ स्वा॰ प्रकाष को द्रव्यान्तर बताते थे और अभी उसी पृश्ठ में उसी सूत्र के भाश्य में उसी प्रसंग में प्रकाष को अग्नि का स्वभाव माना ।

प्रदीपप्रभायाश्च द्रव्यान्तरम् ।

स्वरूपमग्नेरिवोश्ण्यप्रकाषौ ।।

यदि आप कहें कि प्रदीप और प्रभा मंे द्रव्यान्तरत्व है तो ठीक नहीं । क्यांेकि उपमा में प्रदीप से मिट्टी, काँच या पीतल के पात्र से अभिप्राय नहीं है अपितु दीप षिखा या अग्नि से ।

एक बात बहुत ही विचित्र कही । षं॰ स्वा॰ कहते हैं कि जीव षरीर के परिमाण वाला नहीं है । इसलिए विभु है । हमको देखना है कि इस सूत्र में क्या है? सूत्र यह हैः –

एवं चात्माऽकात्स्र्नयम् ।

(2।2।34)

इसका अर्थ हुआ ‘‘इसी प्रकार आत्मा का अकात्स्र्नयम्’’ भी ।

श्री षंकर स्वामी का कथन है कि यह सूत्र जैनियों के इस सिद्धान्त का खण्डन करता है कि जीव का परिमाण षरीर के परिमाण के बराबर होता है । क्योंकि यह जीव का परिमाण षरीर के परिमाण के बराबर हो तो बच्चे का जीव छोटा और युवा का बडा होना चाहिये क्यांेकि बच्चे का षरीर छोटा और युवा का बडा होता है । दूसरे हाथी के षरीर से निकला हुआ जीव चींटी की योनि में कैसे प्रवेष करे और चींटी के षरीर से निकला हुआ हाथी के षरीर में कैसे?

परन्तु जीव के षरीर परिमाणी न होने से विभुत्व कैसे सिद्ध हुआ? यह तो अणुत्व का हेतु है । जीव अणु होने से चींटी और हाथी दोनों के षरीर में प्रवेष कर सकता है । षरीर घटता बढता है जीव नहीं । मैं एक छोटे कमरे में भी रह सकता हूँ और एक विषाल भवन में भी । षर्त केवल एक है । मेरे रहने के कमरे से मेरा षरीर छोटा होना चाहिये । इससे जीव का अणुत्व सिद्ध है । इसके भी आगे चलिये । इस युक्ति से जीव का विभुत्व प्रतिशिद्ध (खण्डित) भी है । क्यांेकि यदि जीव विभु होता तो चींटी के षरीर से हाथी के या हाथी के षरीर से चींटी में जाने की न आवष्यकता होती न संभव ही था । देखो ‘‘उत्क्रान्तिगत्यागतीनाम्’’ (वे॰ 2।3।19) ।

(4) षं॰ स्वा॰ – (क) तथा च – ‘‘बालाग्रषतभागस्य षतधा कल्पितस्य च । भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते’’ (ष्वे॰ 5।9) इत्यणुत्वं जीवस्योक्त्वा तस्यैव पुनरानन्त्यमाह ।

(ख) तच्चैवमेव समञजसं स्याद् यद्यौपचारिकमणुत्वं जीवस्य भवेत् पारमार्थिक चानन्त्यम् । न ह्युभयं मुख्यमवकल्पेत ।

(ग) न चानन्त्यमोपचारिकमिति षक्यं विज्ञातुम्, सर्वोपनिशत्सु ब्रह्मान्मभावस्य प्रतिपिपादयिशितत्वात् ।

(घ) तथेतर स्मिन्नप्युन्माने ‘बुद्धेगु णेनात्मगुणेन चैव आराग्रमात्रो ह्यवरोऽपि दृश्टः’ (ष्वे॰ 5।8) इति च बुद्धिगुणसंबन्धे – नैवाराग्रमात्रतां षास्ति न स्वेनैवात्मना ।

(षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 286)

(क) ष्वे॰ 5।9 में जीव को अणु भी कहा है और अनन्त भी । (ख) यह तभी ठीक हो सकता है कि अणुत्व को उपचार की भाशा मानें और अनन्तत्व को परमार्थ की भाशा । दोनों को मुख्य नहीं मान सकते । (ग) अनन्तत्व को उपचार की भाशा नहीं मान सकते क्यांेकि सब उपनिशदों मंे जीव को ब्रह्म बताया है । (घ) ष्वे॰ 6।8 में बुद्धि गुण के सम्बन्ध से ही आत्मा का अणुत्व बताया है स्वयं अपने स्वरूप से नहीं ।

हमारी आलोचना – आपने यह तो मान लिया कि ष्वेताष्वतर में जीव को अणु माना है । केवल आपका कहना यह है कि अनन्त भी माना है । अतः अणुत्व को उपचार की भाशा समझनी चाहिये । हमारा कहना है कि आप किसी को भी औपचारिक न मानिये । केवल ‘अनन्त’ के अर्थ पर विचार कीजिये । ‘अनन्त’ और ‘विभु’ में भेद है । उपनिशत् ‘विभु’ नहीं बताती, अनन्त बताती है । प्रत्येक अणु अनन्त होता है क्योंकि उसका न आदि होता है न अन्त । वह अमर होता है । आपने ष्वेताष्वतर उपनिशत् के 5।8 को उद्धृत तो ठीक किया परन्तु अर्थ मूल से सर्वथा विपरीत किया । उपनिशत् कहती है:-

‘‘बुद्धिगुणेन आत्मगुणेन चैव’’

अर्थात् बुद्धि के गुण से तथा आत्मगुण से । आप अर्थ करते हैं ‘बुद्धिगुण संबन्धेनैव’ ‘‘न स्वेनैवात्मना’’ । आपने ‘न’ अपनी ओर से जोड कर अर्थ का अनर्थ कर दिया ।

जब अर्थ करने का यह हाल है तो अन्य उपनिशदों की बात क्यों छेडते हैं । वे तो आपके हाथ में मोम की नाक हैं । जोड दो, घटा दो, खींच दो, सिकोड दो, मुख्य को उपचार कह दो, उपचार को मुख्य कह दो ।

सर्वथा व्यवहत्र्तव्यं कुतोऽह्यवचनीयता ।

(5) षं॰ स्वा॰ – मिथ्याज्ञानपुरः सरोऽयमात्मनो बुद्धयुपाधि संबन्धः ।।

(षां॰ भा॰ 2।3।30 पृश्ठ 288)

आत्मा का यह बुद्धि उपाधि सम्बन्ध मिथ्याज्ञान के कारण है ।

हमारी आलोचना – किसके मिथ्याज्ञान के ? जीव के या ब्रह्म के ? ब्रह्म तो सर्वज्ञ है । इसको मिथ्याज्ञान कैसा? ‘जीव के’ कहो तो जीव और ब्रह्म का भेद सिद्ध होता है । यदि कहो कि मिथ्याज्ञान एक तीसरी (द्रव्यान्तर) है जो जीव या ब्रह्म को पकडती फिरती है । तो द्वैत से भी आगे त्रैत सिद्ध हो जायगा । यदि कहो कि मिथ्याज्ञान मिथ्या कल्पना है तो हम आपके ही षब्दों को दुहरा देंगे:-

कल्पितानामवस्तुत्वादवस्त्वेव संयोगः

(षां॰ भा॰ 2।3।12 पृश्ठ 232)

आपने अपने षस्त्रालय में अनेक ऐसे षस्त्रों का संचयन कर दिया है जिनसे स्वयं आपके सिद्धान्तों का खण्डन हो जाता है ।

(1) कत्र्ता षास्त्रार्थवत्त्वात् । (2।3।33)

कत्र्ता चायं जीवः स्यात् । कस्मात् । षास्त्रार्थवत्वात् । एवं च ‘यजेत’ ‘जुहुयात्’ ‘दद्यात्’ इत्येवंविधं विधि षास्त्रमर्थवद् भवति । अन्यथा तदनर्थकंस्यात् ।।

(षां॰ भा॰ 2।3।33 पृश्ठ 290)

यह जीव कत्र्ता है । अर्थात् इसमंे कर्तृत्व है । क्यांे? यदि कर्तृतव षून्यजीव हो तो षास्त्र के ऐसे विधिवाक्य अनर्थक हो जायं यज्ञ करो, ‘आहुति दो’, ‘दान करो’ आदि!

(2) विहारोपदेषात् (2।3।34)

इतश्च जीवस्य कर्तृत्वं, यज्जीवं प्रक्रियायां संध्ये स्ािाने विहारमुपदिषति । – ‘स ईयतेऽमृतो यत्र कामम्’ (बृ॰ 4।3।18) इति, ‘स्वे षरीरे यथाकामं परिवर्तते’ (बृ॰ 2।1।18) इति च ।

(षां॰ भा॰ 2।3।38 पृश्ठ 290)

यहाँ भी जीव का कर्तृतव सिद्ध है क्यांेकि जीव विशय मंे कहा है कि वह स्वप्न में फिरता है, वह अमर इच्छा पूर्वक विचरता है, ‘अपने षरीर में इच्छा पूर्वक विचरता है ।’

(3) उपादानात् (2।3।35)

इतश्चास्य कर्तृत्वं यजजीव प्रक्रियायामेव करणानामुपादानं संकीर्तयति तदेशां प्राणानां विज्ञानेन विज्ञानमादाय’ (बृ॰ 2।1।18) इति च

इन्द्रिय आदि उपकरणों का लेना पाया जाता है । ‘प्राणों को लेकर’ ऐसा आया है।

(4) व्यपदेषच्च क्रियायां न चेन्निर्देष विपर्ययः । (2।3।36)

इतश्च जीवस्य कतृत्वं, यदस्य लौकिकीशु वैदिकीशु च क्रियासु कर्तृत्वं व्यपदिषति षास्त्रं – विज्ञानं यज्ञ तनुते कर्माणि तनुतेऽपि च (तै॰ 2।5।1) इति

जीवका कर्तृत्य लौकिकी ओर वैदिकी क्रियाओं में लिखा हुआ है ।

पूर्व पक्ष – विज्ञान षब्दों बुद्धौ समधिगतः । कथमनेन जीवस्य कर्तृत्वं सूच्यते । इति

विज्ञान षब्द तो यहाँ बुद्धि के लिये आया है । फिर जीव का कर्तृतव कैसे सूचित हुआ?

उत्तर पक्ष – नेत्युच्यते । जीवस्यैवैश निर्देषो न बुद्धेः । न चेज्जीवस्य स्यान्निर्देष विपर्ययः स्यात् । तथा

(षां॰ भा॰ 2।3।36 पृश्ठ 290)

नहीं । जीवका ही है । बुद्धि का नहीं । यदि जीव का न होता तो षब्द अन्यथा होते ।

(5) उपलब्धिवदनियमः । (2।3।37)

यथा यमात्मोपलब्धिं प्रति स्वतन्त्रोऽप्यनियमेनश्टमनिश्टं चोपलभत एवमनियमेनैवेश्टमनिश्टं च संपादयिश्यति ।

(षां॰ भा॰ 2।3।37 पृश्ठ 291)

जैसे यह आत्मा आँख द्वारा इश्ट और अनिश्ट दोनों प्रकार के रूप देखता है उसी प्रकार इश्ट और अनिश्ट फल वाले कामों को भी कर बैठता है ।

न च सहायापेक्षस्य कर्तुः कर्तृत्वं निवर्तते । भवति ह्येधोदकाद्यपेक्षस्यापि पक्तुः पक्तृत्वम् । सहकारि वैचित्र्याच् चेश्टानिश्टार्थ क्रियायामनियमेन प्रवृत्तिरात्मनो न विरूध्यते ।

(षां॰ भा॰ 2।3।37 पृश्ठ 291)

सहायता लेने से कत्र्ता का कर्तृतव नहीं जाता । ईंधन, जल आदि की सहायता लेता हुआ भी पाचक पाचक ही है । सरकारी पदार्थों की विचित्रता से कत्र्ता के कर्तृतव में कोई भेद नहीं आता चाहे क्रिया अनिश्ट हो या इश्ट ।

(6) षक्तिविपर्ययात् (2।3।38)

यदि पुनर्विज्ञान षब्द वाच्या बुद्धिरेव कत्र्री स्यात् ततः षक्तिविपर्ययः स्यात् ।

(षां॰ भा॰ 2।3।38 पृश्ठ 291)

यदि विज्ञान षब्द वाची बुद्धि में ही कर्तृव माना जाय तो स्थान मंे कर्तृकारक बुद्धि के साथ लाना पडेगा । फिर बुद्धि के लिये ‘मैं’ षब्द प्रयुक्त होगा ।

(7) समाध्यभावाच्च । (2।3।39)

योऽप्ययमौपनिशदात्मप्रतिपत्तिप्रयोजनः समाधिरूपदिश्टो वेदान्तेशु ‘आत्मावा अरे द्रश्टव्य’ इत्यादि (बृ॰ 2।4।5)……………..ओमितयेवं ध्यायथ आत्मानम् । (मु॰ 2।2।6) इत्येवं लक्षणः, सोप्यसत्यात्मनः कर्तृतवे नोपपद्येत ।

(षां॰ भा॰ 2।3।39 पृश्ठ 292)

यदि जीव में कर्तृतव न माना जाय तो उपनिशदों की ‘ध्यान’ की व्यवस्था अनर्थक हो जाय ।

हमारी आलोचना – इन सात सूत्रों में जीव का कर्तृतव सिद्ध किया गया है । षां॰ भा॰ में इस का सुन्दर प्रतिपादन है । परन्तु इससे जीव का ब्रह्म से भेद ही पुश्ट होता है । यदि हम केवल इतने ही भाश्य को देखते तो कभी न समझते कि षांकर मत में जीव ब्रह्म का अभेद है । षंकर स्वामी इस स्पश्ट भेद का प्रतिख्यान नहीं कर सके ।

यदि इन सूक्तियों को सूत्र 1।1।4 के भाश्य से मिलाया जाय तो आकाष पाताल का भेद प्रतीत होता है । वहाँ तो ‘आम्रायस्य क्रियार्थत्वात’ आदि विधि परक वाक्यों की अवहेलना की गई है:- (देखो पृश्ठ 10) ब्रह्म – उपासना का भी खण्डन है:-

न तु तथा ब्रह्मण उपासना विधिषेशत्वं संभवति, एकत्व हेयोपादेय षून्यतया क्रिया कारकादि द्वैत विज्ञानोपमर्दोपपत्तेः ।

(पृश्ठ 11)

अर्थात् जब द्वैत है ही नहीं तो कौन किसकी उपासना करे? बादरायण के 2।3।33 का जैमिनि के 1।2।1 सूत्र से मिलान हो जाता है । परन्तु षंकर स्वामी बीच में बाधक होते हैं । (पूरी चतुः सूत्री पढिये) ।

इसके अतिरिक्त एक और बात है । अब तक तो आत्मा की प्रवृत्ति बुद्धि सत्व की उपाधि के कारण मानते थे । अब 2।3।37 के भाश्य में कितनी प्रबलता के साथ जीव का ‘कर्तृत्व’ स्वीकार किया । यहाँ स्पश्ट कह दिया कि अन्तःकरण करण है और जीव कत्र्ता । न उपाधि है न अध्याय ! न घटाकाष मठाकाष का द्रश्टान्त ।

(25)

यथा च तक्षोभयथा ।        (2।3।40)

षं॰ स्वा॰ – त्वर्थे चायं चः पठितः । नैवं मन्तव्यं स्वभाविक मेवात्मनः कर्तृतवमग्नेरिवौश्ण्यमिति । यथा तु तक्षा लोके वास्या दिकरणहस्तः कर्ता दुःखी भवति स एव स्वगृहंप्राप्तो विमुक्तवास्यादिकरणः स्वस्थो निवृतो निव्र्यापारः सुखी भवति एवं अविद्या प्रत्युपस्थापित द्वैतसंपृक्त आत्मा स्वप्रजागरितावस्थयोः कर्ता दुःखी भवति । इत्यादि

(षां॰ भा॰ 2।3।4 पृश्ठ 293)

यहाँ ‘च’‘तु’ के अर्थ मंे आया है । ऐसा नहीं मानना चाहिये कि आत्मा का कर्तृतव स्वाभाविक है जैसे अग्नि में उश्णता । जैसे बढई उसी समय तक कत्र्ता और दुःखी है जब तक हाथ में औजार हैं । जब औजार रख कर घर चला आया तब न दुःखी है न कत्र्ता है । इसी प्रकार आत्मा जब तक अविद्या के कारण द्वैत से मिला हुआ है तब तक कत्र्ता भी है और दुःखी भी ।

हमारी आलोचना – यहाँ ‘च’ का अर्थ ‘तु’ करके पिछले सूत्रों में कही बातों का खण्डन करना सर्वथा अनुचित है । सूत्र में ‘चकार’ से पिछली बातों की पुश्टि की गई है । सूत्र का षाब्दिक अर्थ यह है:-

‘‘और जैसे तक्षा दोनों प्रकार से’’

इसमंे न तो अविद्या का उल्लेख है । न स्वाभाविक कर्तृत्व के खण्डन का । यहाँ तो केवल यह बताया है कि जैसे बढई चाहे तो मेज बनावे चाहे न बनावे । इसी प्रकार जीवात्मा ‘कर्तुम् अकर्तुम् अन्यथा वा कत्र्तुम्’ सभी बातों में समर्थ है । करे, न करे, उल्टा करे । इसी से तो उसका कर्तृत्व पाया जाता है । भाव या अभाव क्रिया का होता है कर्तृत्व का नहीं । यदि मैं लिखना बन्द कर दूँ तो लेखन – षक्ति का नाष प्रकट नहीं होता । इसी प्रकार जीव का कर्तृत्व तो स्वाभाविक ही है जैसा पिछले सूत्रों में वर्णन किया गया है । उस कर्तृत्व का आविर्भाव परिस्थिति के अनुसार होता है । षंकर स्वामी को अपने इन वचनों की स्मृति नहीं रही:-

(1) जीवस्यैवैश निर्देषो न बुद्धेः ।

(2) न च सहायापेक्षस्य कर्तुः कर्तृत्वं निवर्तते ।

(षां॰ भा॰ 2।3।36।37 पृश्ठ 290,291)

बढई के औजार तो अविद्या कल्पित नहीं है । इसी सूत्र के भाश्य में षंकर स्वामी ने कुछ अप्रासांगिक षंकायें भी उठाई इनको हम यहाँ देते हैं:-

षं॰ स्वा॰ न स्वाभाविकं कर्तृतवमात्मनः संभवति अनिर्मोक्ष प्रसंगात् । इत्यादि

(षां॰ भा॰ 2।3।40 पृश्ठ 292)

यदि आत्मा का कर्तृत्व स्वाभाविक हो तो मोक्ष न हो सकेगी । जैसे अग्नि से गरमी नहीं दूर हो सकती उसी प्रकार आत्मा से कर्तृत्व दूर न होगा । जब तक कर्तृत्व दूर न होगा पुरूशार्थ सिद्धि न होगी । क्यों? ‘‘कर्तृत्वस्य दुःख रूपत्वात्’’ । कर्तृत्व दुःखरूप है ।

पूर्व पक्ष – स्थितायामपि कर्तृत्वषक्तौ कर्तृत्वकाय्र्य परिहारात् पुरूशाथः सेत्स्यति । (पृश्ठ 292)

कर्तृत्व षक्ति रह जायगी । काय्र्य न रहेगा । इससे पुरूशार्थ की सिद्धि हो सकेगी । जैसे काठ में अग्नि रहती है पर जलाती नहीं ।

षं॰ स्वा॰ – न । निमित्तानामपि षक्तिलक्षणेन संबन्धेन संवद्धानामत्यन्त परिहारासंभवात् ।   (पृश्ठ 292)

नहीं । अत्यन्त परिहार तो न होगा । षक्ति तो बनी ही रही ।

पूर्व पक्ष – मोक्षसाधन विधानान्मोक्षः सेत्स्यति ।     (पृश्ठ 292)

मोक्ष साधन के विधान से मोक्ष हो जायगा ।

षं॰ स्वा॰ – न । साधनायत्तस्यानित्यत्वात् ।   (पृश्ठ 292)

नहीं, साधन तो अनित्य होते हैं फिर उनका फल मुक्ति भी अनित्य होगी ।

पूर्व पक्ष – पर एव तर्हि संभारी कत्र्ता भोक्ता च प्रसज्येत । परस्मादन्यष्चेच्चितिमाञजीवः कर्ता बुद्धîादिसंघातव्यतिरिक्तो न स्यात् ।    (पृश्ठ 292)

परब्रह्म से भिन्न तथा बुद्धि आदि संघात से अलग यदि कोई जीव नहीं है तो मानना पडेगा कि परब्रह्म ही संसारी होकर कत्र्ता भोक्ता है ।

षं॰ स्वा॰ – न । अविद्याप्रत्युपस्थापितत्वात् कर्तृतवभोक्तत्वयोः ।

(षां॰ भा॰ 2।3।40 पृश्ठ 292)

नहीं । यह कर्तृत्व भोक्तृत्व तो अविद्या के कारण हैं ।

हमारी आलोचना – (1) पहली बात तो प्रसंग की है । सूत्र में मोक्ष का कोई प्रसंग नहीं । पिछले सूत्रों में भी नहीं । केवल ध्यान का है ।

(2) दूसरी बात यह है कि कर्तृत्व को दुःख रूप बताना भूल है । दुःख फल है दुश्टकर्म का । दुश्टकर्म का । दुश्टकर्म कर्तृत्व का अनिश्ट आविर्भाव है । उसी के इश्ट आविर्भाव को पुण्य कहते हैं जिसका फल सुख होता है । ऐसा न मानोगे तो कुछ कर्मफल की व्यवस्था भी न रहेगी ।

(3) मोक्ष में यदि कर्तृत्व का विनाष माना जाय तो मुक्त और जड पदार्थ में क्या भेद रहेगा? ऐसा मोक्षानन्द तो आलसियों के लिये ही ठीक होगा । यदि दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति को ही मोक्ष माना जाय तो प्रत्येक जड पदार्थ को मुक्ति स्वयं प्राप्त है । मेरी मेज मुझसे बहुत अच्छी है । वह नित्य मुक्त है मैं बद्ध हूँ ।

(4) मोक्ष के अनित्य मानने में क्या हानि? यदि बन्ध के पीछे मोक्ष हुआ । तो मोक्ष अनादि न ठहरा । अनन्त कैसे होगा ?

(5) अविद्या के कारण कर्तृत्व भोक्तृत्व है तो बताइये किस की अविद्या के । इसकी मीमांसा हम पूर्व कर चुके हैं । पीसे को क्या पीसा जाय ?

(26)

परात्तु तच्छु तेः । (2।3।41)

षं॰ स्वा॰ – अविद्यावस्थायां काय्र्यकरणसंघाताविवेकदर्षिनो जीवस्याविद्यातिमिरान्धस्य सतः परस्मादात्मनः कर्माध्यक्षात् सर्वभूताधिवासात् साक्षिणष्चेतयितुरीश्वरात् तदनुज्ञया कर्तृत्व भोक्तृत्व लक्षणस्य संसारस्य सिद्धिः । तदनुग्रहहेतुकेनैव च विज्ञानेन मोक्ष सिद्धिर्भवितुमर्हति । कुतः । तच्छु तेः ।

(षां॰ भा॰ 2।3।41 पृश्ठ 295-297)

अविद्या अवस्था में काय्र्य करण संघात द्वारा उत्पन्न हुये अविवेक के कारण अन्धकार में अंधे के समान जीव के प्रपंच की सिद्धि सत्, कर्माध्यक्ष, सब भूतों में व्यापक साक्षी, चेतन ईष्वर के द्वारा ही होती है और उसी के अनुग्रह से ज्ञान उत्पन्न होकर मुक्ति होती है । ऐसा ही वेद में कहा है इत्यादि ।

हमारी आलोचना – कितना सुन्दर वर्णन है ब्रह्म और जीव के भेद का । जीव अविवेकी है, ईष्वर सत् है, पर (बडा) है, कर्माध्यक्ष है, सर्व भूताधिवासी है, साक्षी है उसकी कृपा से ज्ञान उत्पन्न होता है । इससे अच्छा निरूपण ब्रह्म और जीव के भेद का कोई द्वैतवादी भी न करेगा ! अविद्या के विशय में पहले कह चुके हैं ।

अगले सूत्र में इसका और अच्छा निरूपण है । परन्तु है पूरा द्वैत । अभेद का नाम नहीं । देखिये ।

कृतप्रयत्त्रापेक्षस्तु विहित प्रतिशिद्धावैयथ्र्यादिभ्यः ।    (2।3।42)

षां॰ स्वा॰ – जीवकृतधर्माधर्म वैशम्यापेक्ष एव तत् तत् फलानि विशम विभज्ञेत् पर्जन्यवदीश्वरो निमित्तत्वमात्रेण । (पृ॰ 296)

जीव के किये हुये धर्म अधर्म भेद की अपेक्षा से ही फल भी भिन्न – भिन्न होते हैं । बादल सभी पेडों पर बरसता है परन्तु भिन्न – भिन्न वृक्ष अपने भेदी की अपेक्षा से भिन्न – भिन्न फल लाते हैं । इसी प्रकार ईष्वर भी सब को प्रेरणा करता है परन्तु निमित्त मात्र ।

यदि जीव कर्म करने में सर्वथा ईष्वर के आधीन होता तो विधि और निशेध व्यर्थ हो जाते ।

(27)

अंषांषीभाव

(1) जीव ईष्वरस्यांषो भवितुमर्हति, यथाऽग्नेर्विस्फुलिंगः । अंष इवांषः । नहि निरवयवस्य मुख्यांेऽषः संभवति ।

(षां॰ भा॰ 2।3।43 पृश्ठ 297)

जीव ईष्वर का अंष कहा जा सकता है जैसे अग्नि की चिनगांरियां । अंष के समान अंष । वास्तविक अंष नहीं । क्योंकि ईष्वर तो निरवयव है । उसके टुकडे नहीं हो सकते । इसलिये उसके वास्तविक अंष नहीं हो सकते ।

(2) यथा जीवः संसारदुःखमनुभवति नैवं पर ईष्वरोऽनुभवतीति प्रति जानीमहे ।

(षां॰ भा॰ 2।3।46 पृश्ठ 299)

जैसे जीव संसार के दुःख का अनुभव करता है । ईष्वर नहीं करता । अविवेक के कारण ।

(3) आभास एव च ।   (2।3।50)

आभास एव चैश जीवः परस्यात्मनो जलसूर्यकादि वत् प्रति – पत्तव्यः । न स एव साक्षात् । नापि वस्त्वन्तरम् । अतश्च यथा नैकस्मिञजलसूर्य के कम्पमाने जलसूर्यकान्तरं कम्पते, एवं नैकस्मिञजोवे कर्मफलसंबन्धिनि जीवान्तरस्य तत् संबन्धः । एवमप्यव्यति – करः एव कर्मफलयोः । आभासस्य चाविद्याकृतत्वात्तदाश्रयस्य संसारस्याविद्याकृतत्वोपपत्तिरिति ।

(षां॰ भा॰ 2।3।50 पृश्ठ 302)

जीव को ईष्वर का आभास मानना चाहिये जैसे जल मंे सूय्र्य की छाया । वह साक्षात् ऐसा नहीं है । न अन्य वस्तु है । जैसे एक जल में सूय्र्य की छाया नहीं कंपती । ऐसे ही एक जीव में कर्म फल का जो सम्बन्ध है वह दूसरे में नहीं । आभास तो अविद्याकृत होता है । इसलिये संसार भी अविद्या कृत है ।

हमारी आलोचना – यहाँ अंष और आभास दो षब्द हैं जो बहुधा लोक में भी प्रयुक्त होते हैं । और प्रायः लोगों में भ्रान्ति फेली हुई है कि जीव ब्रह्म का अंष है या आभास है । यहाँ ‘अंष इव अंषः’ ओर ‘न स एव साक्षात्’ कह कर बता दिया गया कि जीव ईष्वर का न तो वास्तविक अंष है न छाया । क्योंकि ईष्वर अखण्ड है । और विभु है, अंष होता है किसी अवयवी का । और छाया पडती है किसी पदार्थ की किसी दूसरे दूरस्थ पदार्थ में । ईष्वर से दूरस्थ कोई पदार्थ नहीं जिसमें ईष्वर की छाया पड सके । इससे प्रतिबिम्बवाद का भी खण्डन हो गया । हाँ, एक अर्थ मंे जीव को ईष्वर का अंष भी मान सकते हैं और आभास भी । वह है समानता में । दोनों चेतन हैं । जल में सूय्र्य की किरणों का आभास भी चकाचैंध उत्पन्न कर देती है । लोक में रिवाज भी है कि जब कोई किसी दूसरे के समान होता है तो कहते हैं यह उसकी छाया है । यह अंषत्व और आभासत्व बौद्धिक तथा औपचारिक है वास्तविक नहीं ।

श्री षंकर स्वामी ने अविद्या का पचडा यहाँ भी लगा दिया । यह पुरानी बात है । पहले कही भी जा चुकी है ।

(4) सत्यपि जीवेष्वरयोरंषाषिभावे प्रत्यक्षमेव जीवस्येष्वर विपरीतधर्मत्वम् । र्कि पुनर्जीवस्येष्वरसमानधर्मत्वं नास्त्येव । न नास्त्येव । विद्यमानमपि तत् तिरोहितमविद्यादिव्यवधानात् ।

(षां॰ भा॰ 3।2।5 पृश्ठ 347)

जीव और ईष्वर मंे अंष – अंषी भाव होने पर भी जीव और ईष्वर का विपरीत धर्मत्व प्रत्यक्ष ही है ।

प्रष्न – क्या जीव और ईष्वर में समान धर्मत्व है ही नहीं ?

उत्तर – ऐसा नहीं कि न हो । समान धर्मत्व विद्यमानता है परन्तु अविद्या के परदे मंे छिपा हुआ है ।

हमारी आलोचना – जीव ब्रह्म का अंष किस अर्थ में है यह ऊपर दे चुके । यहाँ ब्रह्म – जीव भेद स्पश्ट षब्दों में वर्णित है । समान धर्मत्व का अर्थ अनन्यत्व नहीं है । षं॰ स्वामी भी ‘समानधर्मत्व’ षब्द का प्रयोग करते हैं ‘अनन्यत्व’ का नहीं । समानधर्मत्व द्वैत का बोधक है । अद्वैत का नहीं । जैसे गाय और नील गाय में । जीव में ईष्वर के समान बहुत से गुण हैं जो अविद्या के कारण जीव को विदित नहीं होते ।

(28)

(1) स एव तु जीवः सुप्तः स्वारथ्यंगतः पुनरूत्तिश्ठति नान्यंः । कस्मात् । कर्मानुस्मृतिषब्दविधिभ्यः ।

(षां॰ भा॰ 3।2।9 पृश्ठ 352)

(2) विभज्य हेतु दर्षयिश्यामि । कमषेशानुश्ठानदर्षनात् तावत् स एवोत्यातुमर्हति नान्यः । (पृश्ठ 352)

(3) नह्यन्यद्रश्टमन्योऽनुस्मतुर्महति । (पृश्ठ 352)

(4) षव्देभ्यश्च तस्यैवोत्यानमगम्यते । तथाहि पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्या द्रवति बुद्धान्तायैव ।  (बृ॰ 4।3।16)

(5) कर्मविद्याविधिभ्यष्चैवमेवावगभ्यते । अन्यथाहि कर्म विद्याविधयोऽनर्थकाः स्युः । (पृ॰ 353)

(6) अपि चान्योत्थानपक्षे यदि तावच्छरीरान्तरे व्यवहरमाणो जीव उत्तिश्ठत् तत्रत्यव्यवहाग्लोपप्रसंगः स्यात् ।

(7) अथ मुक्त उत्तिश्ठेदन्तवान्मोक्ष आपद्येत ।

(8) एतेनेष्वरस्योत्थानं प्रत्युक्तम् । नित्यनिवृत्ताविद्यत्वात् ।

(9) युक्तं तत्रविवेककारणाभावज्जल बिन्दोरनुद्धरणम् । इह तु विद्यत विवेक कारणं कर्म चाविद्या चेतिवैशम्यम् ।।

(षां॰ भा॰ 3।2।9 पृश्ठ 353)

प्रष्न यह था कि जो जीव सुशुप्ति अवस्था मंे जाता है । क्या जागने पर वही जीव फिर जागृति मंे वापिस आ जाता है? यदि समुद्र में एक बूँद मिल जाय तो फिर वही बूँद बाहर निकले ऐसा आवष्यक नहीं है । इस पर शंकराचार्य जी उत्तर देते हैं कि –

(1) वही जीव जो सोया था स्वस्थ होकर फिर जाग उठता है दूसरा नहीं । इसकी पुश्टि में चार हेतु हैं – कर्म, अनुस्मृति, षब्द और विधि ।

(2) एक एक करके हेतु देते हैं । कल आधा काम समाप्त करके सो गया । आज जागने पर षेश आधे को समाप्त कर देता है । यदि दूसरा कोई जीव उठा होता तो उसे क्या मालूम था कि कौन काम किस अवस्था में छूटा हुआ है । रात को किसी किताब के 18 पृश्ठ पढ कर सो गये तो प्रातःकाल 19वें से आरम्भ कर देते हैं । (कर्म)

(3) एक का देखा हुआ दूसरे को याद नहीं रह सकता । परन्तु सोने से पूर्व देखी हुई चीजें याद रहती हैं । (अनुस्मृति)

(4) बृहदारण्यक आदि उपनिशदों मंे भी यह लिखा है कि वही जीव उठता है । (षब्द)

(5) यदि कोई दूसरा ही उठ बैठता न कि सोने वाला तो केवल सोने मात्र से मुक्ति हो जाती । विधि के उपदेष की क्या आवष्यकता थी ? कर्मफल की पूरी व्यवस्था नश्ट हो जाती ।

(6) यदि यह माना जाय कि एक षरीर में काम करता हुआ जीव सोने के पष्चात् दूसरे षरीर में जाग उठता है तो पहले षरीर में किया हुआ काम अधूरा रह जायगा ।

(7) यदि कहो कि मुक्त जीव उठ सकता है तो मोक्ष अन्त वाली हो जायगी । मुक्त होकर भी जीव बद्ध हो सकेगा । जो अविद्या से निवृत्त हो गया वह फिर क्यों प्रपंच में फँसे?

(8) यदि कहो कि ईष्वर उठ बैठता है तो वह भी ठीक नहीं । क्योंकि वह तो सदा अविद्या से मुक्त है ।

(9) जल बिन्दुओं मंे विवेक नहीं । अतः वहाँ कोई एक बूँद उठ खडी हो । परन्तु जीव तो विवेक वाला है । और अविद्या (मिथ्या-ज्ञान) भी लगी हुई है । इसलिये उदाहरण विशम है ।

हमारी आलोचना – यदि जीव ही ब्रह्म होता तो पहले तो यह कहना असंगत था कि सुशुप्ति में जीव ब्रह्म से मिलता है । दूसरे ऊपर के सभी विकल्प और उनकी मीमांसा निरर्थक हो जाती ।

(29)

(1) न तावत् स्वत एव परस्य ब्रह्मणउभयलिगंत्वमुपपद्यतेउ न ह्येकं वस्तु स्वत एव रूपादिविषेशोपेतं तद्विपरीतं चेत्यवधारयितुं षक्यं विरोधात् ।

(2) अस्तु तर्हि स्थानतः पृथिव्याद्युपाधियोगादिति । तदपि नोपपद्यते । नह्युपाधियोगादप्यन्याद्रषस्य वस्तुनोऽन्याद्रषः स्वभावः संभवति ।

(3) नहि स्वच्छः सन् स्फटिकोऽलक्तकाद्युपाधियोगादस्वच्छो भवति भृममात्रत्वादस्वच्छताभिनिवेषस्य ।

(षां॰ भा॰ 3।2।11 पृश्ठ 355-56)

(1) परब्रह्य मे स्वतः दोनों प्रकार के लिंग नहीं हो सकते । यह नहीं हो सकता कि किसी वस्तु में रूपादि हों भी और न भी हों । क्यांेकि यह परस्पर विरूद्ध हैं ।

(2) पृथिवीं आदि की उपाधि के कारण भी विरूद्ध धर्म नहीं आ सकते । उपाधि के भेद से किसी वस्तु में विपरीत स्वभाव नहीं आ सकते ।

(3) स्वच्छ स्फटिक् लाख के संसर्ग से अस्वच्छ नहीं हो जाता । अस्वच्छता तो भ्रम मात्र है ।

हमारी आलोचना – यहाँ स्पश्ट कह दिया कि उपाधि के कारण ब्रह्म के स्वभाव मंे भेद नहीं पडता । फिर जीव का जीवत्व कहाँ से आया ? क्योंकि षांकरमत मंे जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं । इन सब की तुलना कीजिये षंकर स्वामी के दूसरे कथन से । देखिये कितना विरोध है:-

एवमेकमपि ब्रह्मापेक्षितोपाधि संबन्ध निरस्तोपाधि संबन्ध च उपास्यत्वेन ज्ञेयत्वेन च वेदान्तेशूपदिष्यते ।

(षां॰ भा॰ 1।1।12 पृश्ठ 35)

एक ही ब्रह्म उपास्यत्व और ज्ञेयत्व के कारण वेदान्त में उपाधि सहित और उपाधि रहित दोनांे प्रकार का बताया गया है ।

(4) उपाधीनां चाविद्या प्रत्युपस्थापितत्वात् ।

(षां॰ भा॰ 3।2।11 पृश्ठ 356)

स्फटिक के साथ लाल लाख की उपाधि तो सच्ची है । परन्तु ब्रह्म की तो उपाधि भी अविद्या के कारण है ।

हमारी आलोचना – षंकर स्वामी का तात्पर्य है कि स्फटिक मंे जो लाख की छाया पडने से स्फटिक लाल दिखाई देता है । इसमें स्फटिक तथा लाख दोनों सत्य हैं । मिथ्या लाख सत्य स्फटिक मंे लाली उत्पन्न नहीं कर सकती । परन्तु ब्रह्म की उपाधि तो अविद्या वष है । हमारा यह कहना है कि यदि ब्रह्म से इतर कोई वस्तु नहीं और अविद्या कोई वस्तु नहीं तो उपाधि का प्रष्न ही नहीं उठता । और जीव की जो स्वप्न, सुशुप्ति आदि में अवस्थायें होती हैं वे जीव ब्रह्म के भेद को सिद्ध करती हैं । इसी प्रकार का कथन षां॰ भा॰ के 3।2।15 के अन्त मंे किया गया है । परन्तु वह भी आपत्ति जनक ही है ।

(30)

प्रकाषादिवच्चावैषेश्यं प्रकाषश्च कर्मण्यभ्यासात् । (3-2-25)

वेदान्तेश्वभ्यासेनासकृज्जीवप्राज्ञयोरभेदः प्रतिपाद्यते ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 367)

षंकर स्वामी ने यहाँ ब्रह्म – जीव का अभेद माना है । सूत्र मंे तो केवल इतना है कि समाधि मंे जीव को ब्रह्म रूपता प्राप्त हो जाती है । इसको सूत्रकार ने ‘अवैषेश्यं’ कहा है । क्यांेकि उपासना आदि कर्म में अभ्यास करता है’ और इस प्रकार जीव का अन्धकार नश्ट होकर प्रकाष की उपलब्धि हो जाती है । यदि स्वाभाविक अभेद होता तो कर्म में अभ्यास की आवष्यकता न थी । षंकर स्वामी ने कर्म का अर्थ ‘कर्म सूपाधिभूतेशु’ किया है । यह कैसे ? उपाधि का सूत्र में गन्ध भी नहीं । कई पिछले सूत्रों से प्रकरण भी यही चला जाता है कि ब्रह्म का उपासक ब्रह्म को ‘अव्यक्त’, अनन्त आदि रूप में अनुभव करता है ।

(31)

परमतः सेतून्मानसंबन्ध भेदव्यय देषेभ्यः ।   (3-2-31)

पूर्व पक्ष – परमतो ब्रह्मणोऽन्यत् तत्वं भवितुमहति कुतः सेतु व्यपदेषात्, उन्मान व्यपदेषात्, संबन्ध व्यपदेषात्, भेद व्यपदेषाच्चेति ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 369)

परम ब्रह्म से भी इतर एक तत्व है । क्यों? इस लिये कि श्रुति मंे ब्रह्म के साथ सेतु, उन्मान, संबन्ध और भेद षब्दों का प्रयोग किया है ।

सेतु अर्थात् पुल तो तभी होगा जब पुल के पार भी कोई चीज हो, उन्मान अर्थात् माप तोल भी तभी होगी । संबन्ध और भेद भी उसी समय ।

षं॰ स्वा॰ का उत्तर पक्ष – सामान्यात् तु ।    (3।2।32)

(1) सेतु व्यपदेषादात्मनो लौकिक सेतुनिदर्षनेन सेतुवाह्य वस्तुतां प्रसञजयता मृद् दारूमयतापि प्रासड्क्ष येत । न चैतन्नयाय्यम् । अजत्वादि श्रुतिविरोधात् …………….सेतुरिव सेतुरिति प्रकृत आत्मा स्तूयते । सेतु तीत्र्वेत्यपि तरतेरतिक्रमासंभवात् प्राप्रोत्यर्थ एव वर्तते । यथा व्याकरणं तीर्ण इति प्राप्त इत्युच्यते ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 370)

यदि सेतु का लौकिक सेतु से अत्यन्त साद्रष्य लोगे तो ब्रह्म को मिट्टी और लकडी का बनाहुआ भी मानना पडेगा । परन्तु ब्रह्म तो अजन्मा है…………… सेतु का अर्थ है सेतु के समान आत्मा! सेतु को तरने का अर्थ है प्राप्त करना । जैसे व्याकरण तीर्थ होते हैं ।

(2) बुद्धîर्थः पादवत् ।         (3।2।33)

उन्मानव्यपदेषोऽपि न ब्रह्म व्यतिरिक्तवस्त्वस्तित्व प्रतिपत्त्यर्थः किमर्थस्तर्हि? बुद्धîर्थः, उपासनार्थ इति यावत्! (पृ॰ 371)

तात्पर्य यह है कि ब्रह्म को ‘चतुश्यात्’ इसलिये कहा है कि साधारण बुद्धि के पुरूश उपासना कर सकें ।

क्योंकि सभी तो परमात्मा को पूर्णरीत्या समझ नहीं सकते ।

(3) स्थानविषेशात् प्रकाषादिवत् ।      (3।2।34)

उपाधिभेदापेक्षयोपचर्यते न स्वरूपभेदापेक्षया प्रकाषादिवदित्यु-प्रमोपादानम् ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 371)

भेद और संबन्ध भी उपाधि के भेद से हैं स्वरूप भेद से नहीं । प्रकाष के समान ।

(4) तथान्यप्रतिशेधात् । (3।2।36)

तथान्यप्रतिशेधादपि न ब्रह्मणः परं वस्त्वन्तरमरतीति गम्यते ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 372)

अन्य निशेध किया गया है । इससे भी सिद्ध है कि ब्रह्म से इतर कोई वस्तु नहीं ।

हमारी आलोचना – आपकी सेतु, उन्मान आदि के व्याख्या से यह सिद्ध नहीं होता कि ब्रह्म से इतर कोई अन्य वस्तु नहीं । यदि सेतु का अर्थ प्राप्ति है और उन्मान उपासना के लिये है तो भी अन्य वस्तु का अस्तित्व तो मानना ही पडेगा । हाँ । केवल यह कहा जा सकता है कि परम ब्रह्म से भी परम और कोई वस्तु नहीं ।

यदि 31वें सूत्र को पूर्व पक्ष न माना जाय और अगले सूत्र 31वें सूत्र की व्याख्या मानें जाय तो भी कुछ हानि नहीं ।

‘स एवाधस्तात्’ ‘अहमेवाधस्तात्’ ‘आत्मैवाधस्तात्’ (पृश्ठ 372)

(छान्दोग्य 7।25।1-2) से भी दूसरी वस्तु का अस्तित्व स्पश्ट होता है । अन्यथा ‘अधः’ का क्या अर्थ होगा । एक ही वस्तु हो तो क्या ऊपर और क्या नीचे? इसका स्पश्टीकरण तो बादरायण के अगले सूत्र से हो जाता हैः-

अनेन सर्वगतत्वमायामषब्दादिभ्यः । (3।2।37)

अर्थात् ‘ब्रह्मैवेदं सर्वम्,’ ‘अहमेवाधस्तात्’ आदि वाक्यों से ब्रह्म का ‘सर्वगतत्व’ या व्यापक होना पाया जाता है । षंकर स्वामी स्वयं लिखते हैं:-

‘आयामषब्दो व्याप्तिवचनः षब्दः’

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 372)

‘आयाम’ षब्द का अर्थ है व्यापक होना । व्यापक के लिये व्याप्य भी तो हो । जब व्याप्य ही नहीं तो व्यापक कैसा?

(32)

धर्म जैमिनिरत एव ।

पूर्वं तु बादरायणो हेतुव्यपदेषात् ।     (वेदान्त 3-2-40-41)

यह दो सूत्र कर्म – फल के सम्बन्ध में है । 38वें सूत्र में कहा गया है ‘फलमत उपपत्तेः’ । अर्थात् कर्मों का फल स्वंय ईष्वर देता है । कर्म स्वंय फल नहीं देते । श्री षंकर स्वामी 41वें सूत्र की व्याख्या में स्वयं लिखते हैं:-

कर्मापेक्षादपूर्वापेक्षाद्वा  यथातथास्त्वीश्वरात्    फलमिति सिद्धान्तः ।

(षां॰ भा॰ 3।2।41 पृश्ठ 374)

अर्थात् ईष्वर जीवों के कर्मो के अनुकूलं या अपूर्वं की अपेक्षा से फल देता है ।

यह ठीक है । परन्तु इससे कर्म के करने वाले जीव और फल के देने वाले ईष्वर का भेद सिद्ध हो जाता है । यदि ब्रह्म और जीव एक ही हो तो कौन पाप करे और कौन दुःख रूपी दण्ड देबे?

परन्तु षंकर स्वामी ने 40वें सूत्र का अर्थ इस प्रकार किया है मानो जैमिनि जी को इससे विरोध है । वस्तुतः यह बात नहीं है जैमिनि यह तो कहते हैं कि धर्म फल का दाता है । परन्तु यह नहीं कहते कि ‘ईष्वरस्तु फलं ददातीत्यनुपपन्नम्’ । यह श्री षंकर स्वामी के षब्द हैं जैमिनि जी के नहीं । धर्म को फलदाता मानना उपचार की भाशा है । क्यांेकि धर्म के ही अनुकूल तो फल मिलेगा । ‘अपूर्व’ कहो, ‘धर्म’ कहो, बात एक ही है । ईष्वर बिना कर्म की अपेक्षा के तो फल देता नहीं ।

अन्यथा उस पर निर्दयता का दोश लगेगा । यह कहना ठीक नहीं कि ईष्वर ही साधु या असाधु कर्म करता है ।

(33)

उपचितापचित गुणत्वं हि सति भेद व्यवहारे सगुणे ब्रह्मण्यु – पपद्यते न निर्गुणे परस्मिन् ब्रह्मणि ।।

(षां॰ भा॰ 3।3।12 पृश्ठ 385)

बढना , घटना आदि तो सगुण ब्रह्म में हो सकता है, निर्गुण दो प्रकार के ब्रह्मों का उल्लेख नहीं है । वहाँ तो केवल यह प्रसंग था कि ‘आनन्द’ आदि गुणों का तो ब्रह्म के साथ सर्वत्र ही संबन्ध है । परन्तु ‘प्रियषिरस्त्व’ आदि का नहीं । यह तो उपासक अपनी अपेक्षा से प्रयुक्त करता है । ब्रह्म तो एक ही है । उपस्थित गुणों के अस्तित्व की भावना से सगुण और अनुपस्थित गुणों के नास्तित्व की भावना से निर्गुण । शंकराचार्य जी सगुण ब्रह्म और अपर ब्रह्म को व्यर्थ ही बीच में लाते हैं ।

(नोट – ऊपर ‘प्रियषिरस्त्व’ का संकेत तैत्तिरीय उपनिशद् 2।5 से है – ‘तस्य प्रियमेव षिरः, मोदोदक्षिणः पक्षः, प्रमोदः उत्तरः पक्षः । आनन्द आत्मा । ब्रह्म पुच्छप्रतिश्ठा ।’)

(34)

व्यतिहारो विषिंशन्ति होतरवत् ।      (वे॰ 3।3।37)

व्यतिहारोऽयमाध्यानाम्नायते इतरवत् । यथेतरे गुणाः सर्वत्मत्वप्रभृतय आध्यानायाम्नायते तद् वत् । तथाहि विषिशन्ति समाम्नातार उभयोच्चारणेन ‘त्वमहमस्म्यहं चत्वमसि’ इति तच्चोभयरूपानां मतौ कत्र्तव्यामार्थवद्धवति । अन्यथा हीदं विषेशेणोभयाम्नानमनर्थकंस्यात् । एकेनैव कृतत्वात् ।।

(षां॰ भा॰ 3।3।37 पृश्ठ 411)

जीवेषयोर्मिथोविषेशणविषेश्यभावो व्यतिहारः ।

जीव और ईष्वर के परस्पर एक दूसरे के विषेशण विषेश्य भाव को व्यतिहार कहते हैं ।

जैसे सर्वात्मत्व आदि अन्य गुण ध्यान के लिये हैं इसी प्रकार यह व्यतिहार भी ध्यान के लिये हैं । जैसे कहा है ‘‘मैं तू हूँ और तू मैं है’’ । ध्यान के दोनों रूपों को मान कर ही यह कथन सार्थक हो सकता है । अन्यथा यह सब अनर्थक हो जायगा यदि एक ही माना जाय तो ।

हमारी आलोचना – कुछ श्रुतियों में उल्लेख है कि ‘मंै तू हूँ और तू मैं है’ । इन कथनों से लोग जीव और ब्रह्म की एकता को मान बैठते हैं । परन्तु बादरायण इस सूत्र में स्पश्ट करते हैं कि ऐसा ‘व्यतिहार’ अर्थात् बदला केवल ध्यान के लिए है । अर्थात् ध्यान करने वाला ध्येय में इतना तन्मय हो जाता है कि वह अपने को भूल जाता है । षंकर स्वामी इसी प्रकार का अर्थ करते हैं । आगे चल कर वे लिखते हैं:-

न वयमेकत्वद्रढीकारं वारयामः किं तर्हि व्यतिहारेण द्विंरूपा मतिः कर्तव्या वचनप्रामाण्यान्नैक रूपेत्येतावदुपपादयामः ।

(पृ॰ 411)

जब षंकर जी से कहा गया कि ऐसा अर्थ करने से तो आप एकत्व के सिद्धान्त को ही मिटा देंगे तो उन्होंने यह कथन कह दिया कि –

‘‘हम एकत्व को हटाना नहीं चाहते । हमारा तात्पर्य तो यह है कि व्यतिहार से द्विरूप मति होनी चाहिये । प्रमाण से एक रूपा मति सिद्ध नहीं होती ।’’

इस विचार श्रेणी पर विचार कीजिये । अन्य अनेकों स्थानों पर ष॰ स्वामी यही कहते हैं कि भेद भाव मिटा दो । यही सोचो कि तुम ब्रह्म हो । परन्तु यहाँ स्पश्ट कह दिया कि ध्यान हो ही नहीं सकता जब ध्यान करने वाला और जिसका ध्यान किया जाय वह भिन्न – भिन्न न हों । जब मैं कहता हूँ कि ‘मैं तू हूँ और तू मैं’ तो मैं और तू का भाव भी अलग – अलग रहता है । अकेला बैठा हुआ मैं तो ‘तू’ का प्रयोग कर ही नहीं सकता ।

(35)

संकल्पादेव तु केवलात् पिन्नादिसमुत्थानमिति ।

(षां॰ भा॰ 4।4।8 पृश्ठ 507)

मुक्त पुरूश के संकल्पात्र से ही पितर आदि उठ बैठते । (देखो छा॰ 8।2।1)

हमारी आलोचना – इससे स्पश्ट है कि सम्यक् ज्ञान होने और मुक्ति प्राप्त करने पर भी जीव और ब्रह्म में एकता नहीं होती । अन्यथा संकल्प और पितृ-समुत्थान का कोई भी अर्थ न होगा । बद्ध अवस्था में तो कह सकते थे कि अविद्या के कारण भेद है । परन्तु जब मुक्ति मिल गई तो फिर भी संकल्प आदि के लिये उसी समय स्थान रह सकता है जब जीव और ब्रह्म मंे वास्तविक भेद हो । इससे तो षंकर स्वामी की इस बात का भी खण्डन होता हैः-

ब्रह्मैव हि मुक्त्îशवस्था न च ब्रह्मणोऽनेकाकारयोगोस्तिि ।

(षां॰ भा॰ 3।4।52 पृश्ठ 458)

अर्थात् ब्रह्म में कई आकार नहीं होते । इसलिये ब्रह्म ही मुक्ति अवस्था है ।

षं॰ स्वा॰ – अविभागेन द्रश्टत्वात् ।          (वे॰ 4।4।4)

परं ज्योतिरूपसंपद्य स्वेन रूपेणाभिनिश्पद्यते यः स किं परस्मादात्मनः पृथगेव भवत्युताविभागेनैवावतिश्ठत इति वीक्षायाम् …………… अविभक्त एव परेणात्मना मुक्तोऽवतिश्ठते । कुतः द्रश्टत्वात् ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 505)

अर्थात् सूत्र में दिया है कि मुक्त जीव परमात्मा में अविभक्त होकर ठहरता है । इससे ब्रह्म और जीव का अभेद सिद्ध है ।

हमारी आलोचना – नहीं । यहाँ अविभाग से केवल यही तात्पर्य है कि जीव और ब्रह्म के बीच में अज्ञान का व्यवधान नहीं रहता ।

षं॰ स्वा॰ – ‘यथोदकं षुद्धे षुद्धमासिक्तं ताद्रगेवभवति । एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम’ (क॰ 4।15) इति चैवमादोनि मुक्तस्वरूप निरूपण पराणि वाक्यान्यविभागमेव दर्षयन्ति । नदी समुद्रादि निदर्षनानि च ।

(षां॰ भा॰ 4।4।4 पृश्ठ 505)

कठोपनिशत् का वचन है कि जैसे षुद्ध जल में षुद्ध जल मिल जाता है इसी प्रकार मुक्त आत्मा ब्रह्म मंे मिल जाता है । इसी प्रकार के अन्य वचन भी मुक्ति के स्वरूप को बताते हैं । समुद्र और नदी का द्रश्टान्त भी इसी का निरूपण करता है ।

हमारी आलोचना – उपनिशद् के इस वचन से ब्रह्म जीव का भेद सिद्ध होता है न कि अभेद । षुद्ध जल षुद्ध में मिल गया । इसका क्या अर्थ? क्या वह मिलने वाला जल नश्ट हो गया? नहीं! जल में जल मिलकर बढता है । यदि अभेद होता तो मिलने का प्रष्न भी न उठता । ‘ताद्रगेव भवति’ (वैसा ही होता है) यह षब्द ही बताते हैं कि उपमा भेद को दर्षाति है ।

समुद्र और नदी का संकेत मुण्डक उपनिशद् के निम्न ष्लोक की ओर हैः-

यथा नद्यः स्यन्दमाना समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय । तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरूशमुपैति दिव्यम् ।

(मु॰ 3।2।8)

‘जैसे नदियां नाम और रूप को छोडकर समुद्र मंे मिल जाती हैं इसी प्रकार विद्वान् नाम और रूप से मुक्त होकर परमात्मा की दिव्य ज्योति को प्राप्त होता है ।’

इस ष्लोक से जीव ब्रह्म का अभेद सिद्ध नहीं होता । गंगा जब बंगाल की खाडी में गिरती है तो अपने जल के अस्तित्व को नहीं खो देती । न उसका और पुराने जल का अभेद हो जाता है । गंगा का जल समुद्र के जल मंे आधिक्य उत्पन्न कर देता है । केवल गंगा का रूप बदल जाता है । बनारस की गंगा की जो अलग धारा थी वह नहीं रहती और न उसका अलग नाम रहता है । इसी प्रकार बद्ध अवस्था में जीव के षरीर था । इसलिये रूप था । और इसलिये नाम भी था । पुरूश, स्त्री, बालक, आदि का रूप षरीर की अपेक्षा से है । इसी प्रकार नाम भी षरीरों की पहचान के लिये है । जब जीव मुक्त हो गया तो षरीर नहीं रहा । इसलिये रूप से छुटकारा हो गया । और जो लोग षरीर भेद के कारण पुकारने के लिये नाम रखते थे उनको भी आवष्यकता नहीं रही अतः नाम भी नहीं रहा । परन्तु जीव तो रहा । यह है उपनिशत् के इस ष्लोक का अर्थ ।

मुक्ति का जो वर्णन वेदान्त के तीसरे और चैथे अध्याय में आता है उसके षांकर भाश्य से भी जीव ब्रह्म का अभेद स्पश्ट नहीं होता ।

षं॰ स्वा॰ – भेदनिर्देषस्त्वभेदेऽप्युपचर्यते । ‘स भगवः कस्मिन् प्रतिश्ठित इति स्वे महिम्नि’ (छा॰ 7।24।2) इति ।

(षां॰ भा॰ 4।4।4 पृश्ठ 505)

‘अभेद होने पर भी उपचार की भाशा में भेद दिखाया गया है जैसे वह किसमें प्रतिश्ठित होता है? अपनी महिमा मंे’ । अपने में ही रत रहता है । अपने में ही खेलता है ।

हमारी आलोचना – हर स्थान पर तो उपचार की भाशा नहीं हो सकती । उपचार की भाशा स्वयं द्वैत की बोधक है । अद्वैत की नहीं ।

षं॰ स्वा॰ – अतएव चानन्याधिपतिः ।  (वे॰ 4।4।9)

‘अथ य इहात्मानमनुविद्य व्रजन्त्येतांश्च सत्यान् कामांस्तेशां सर्वेशु लोकेशु कामचारो भवति’ इति ।            (छा॰ 8।1।6)

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 507)

मुक्त पुरूष का कोई अधिपति नहीं होता क्यांेकि सब लोकों मंे उनका कामचार (इच्छापूर्ति) होता है ।

हमारी आलोचना – यह भी द्वैत को ही बताता है । तात्पर्य केवल यह है कि बद्ध अवस्था में अनेक विघ्न उपस्थित होते थे । मुक्त अवस्था में वे दूर हो जाते हैं । जीव अदीन हो जाता है ।

(36)

(अ) अभावं बादरिराह ह्येवम् ।             (वे॰ 4।4।10)

तत्र बादरिस्तावदाचार्यः षरीरस्येन्द्रियाणां चाभावं महीयमानस्य विदुशो मन्यते ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 508)

बादरि आचार्य मुक्ति मंे षरीर और इन्द्रियों का अभाव मानते हैं ।

(आ) भावं जैमिनिर्विकल्पामननात् ।         (वे॰ 4।4।11)

जैमिनिस्त्वाचार्यो मनोवच्छरीरस्यापि सेन्द्रियस्य भावं मुक्तं प्रति मन्यते । यतः स एक धा भवति त्रिधा भवति (छा॰ 7।26।2) इन्यादिनाऽनेकधाभावविकल्पमामनन्ति । न ह्यनेकविधता विना षरीरभेदेनाञजसी स्यात् ।    (पृ॰ 508)

जैमिनि आचार्य मन के समान षरीर और इन्द्रियों का भाव भी मानते हैं जिससे वह अनेक प्रकार का हो जाता है । विना षरीर के अनेक प्रकार का कैसे हो सकता है ?

(इ) द्वादषाहवदुभयविधं बादरायणोऽतः ।     (वे॰ 4।4।12)

बादरायणः पुनराचयोऽत एवोभयलिंग श्रुति दर्षनादुभयबिधत्वं साधु मन्यते यदा सषरीरतां संकल्पयति तदा सषरीरो भवति यदा त्वषरीरतां तदाऽषरीर इति । सत्यसंकल्पन्वात् । संकल्प वैचित्र्याच्च । द्वादषाहवत् । यथा द्वादषाहः सत्रमर्हनश्च भवति । उभयलिंगश्रुति दर्षनादेवमिदमपीति ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 508)

बादरायण आचार्य दोनों मानते हैं । जैसे द्वादषाह सत्र को बाहर दिन का सत्र भी कहते हैं और अहीन भी । इसी प्रकार मुक्त जीव जब षरीर का संकल्प करता है तो षरीरी हो जाता है और अषरीरता का संकल्प करता है तो अषरीरी ।

हमारी आलोचना – मुक्ति के इस स्वरूप से जीव और ब्रह्म की एकता की जड ही उखड जाती है । संसारी बातों मंे तो व्यावहारिक और पारमार्थिक अर्थ लिये जा सकते थे । परन्तु मुक्ति में पारमार्थिक अर्थ ही लेने होंगे । मुक्ति तो लौकिक नहीं होती ।

(37)

जगद् व्यापारवर्जं प्रकरणादसंनिहितत्वाच्च ।         (वे॰ 4।4।17)

जगदुत्पत्त्यादि व्यापारं वर्जयित्वाऽन्यदणिमाद्यान्मकमैष्वर्यं मुक्तानां भवितुमर्हति जगद् व्यापारस्तु नित्यसिद्धस्यैवेश्वरस्य ।

(षां॰ भा॰ पृश्ठ 510)

मुक्त  जीवों को अणिमा आदि अन्य सब सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं जगद् व्यापार को छोड कर । अर्थात् जगत् का बनाना , स्थित रखना तथा नाष करना केवल नित्य ईष्वर के ही हाथ में है । मुक्त आत्माओं के नहीं ।

हमारी आलोचना – इससे सिद्ध है कि मुक्त आत्मा भी ब्रह्म नहीं हो जाते । इतना मान कर षंकर स्वामी ब्रह्म और जीव के अभेद को कैसे मान सकते हैं? यहाँ एक प्रष्न उठता है । जगद् व्यापार में न केवल सूय्र्य पृथ्वी आदि का ही निर्माण है अपितु षरीरांे का भी । मुक्त आत्माअनेक षरीर धारण कर लेते हैं ऐसा षंकर स्वामी ने 4।4।15 के भाश्य मंे लिखा है । जिन पाँच भूतों से षरीर बनते हैं उनके भौतिक नियम हैं जिनका उल्लंघन करना किसी बद्ध या मुक्ति आत्मा की षक्ति के बाहर है । इसका हमारे विचार से यह समाधान है कि मुक्त आत्माओं के सांकल्पिक षरीर होते हैं न कि भौतिक । स्वप्न के समान । इसीलिये उनका व्यापार भी भौतिक षरीरों के समान नहीं होता ।

Advaitwaad Khandan Series 5 पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

वैषेशिक और शंकर स्वामी

वैषेशिक दर्षन वैदिक शट् दर्षनों में से एक है। परन्तु शंकर स्वामी ने उसको अर्द्ध वैनाषिक, तथा अषिश्ट माना है। क्योंकि वैषेशिक के स्पश्ट सिद्धान्त के समक्ष मायावाद या विवर्तवाद की स्थापना अत्यन्त कठिन है। इस अध्याय में शंकर स्वामी के षारीरक भाश्य के उस भाग की मीमांसा की जाती है जो वैषेशिक से संम्बन्ध रखता है।

(1)

परमाणुओं का पारिमाण्डल्य

पूर्वपक्ष-तत्रायं वैषेशिकाणामभ्युपगमः-कारणद्रव्यसमवायिनो गुणाः कार्यद्रव्ये समानजातीयं गुणान्तरमारभन्ते, षुक्लेभ्यस्तन्तुभ्यः षुक्लस्य पटस्य प्रसवदर्षनात् तद्विपर्यया दर्षनाच्च तस्माच्चेतनस्य ब्रह्मणो जगत्कारणतवेऽभ्यपगम्यमाने कार्यऽपि जगति चैतन्यं समवेयात्। तद्दर्षनात् तु न चेतनं ब्रह्म जगत् कारणं भवितुमर्हति।

(षां॰ भा॰ 2।2।11 पृश्ठ 228-229)

वैषेशिकों का यह सिद्धान्त है-कि जैसे गुण कारण द्रव्य में होते हैं वैसे ही कार्य द्रव्य में आते है। इसलिए यदि जगत् का (उपादान) कारण चेतन ब्रह्म को माना जाय तो कार्य जगत् में भी चेतनता होनी चाहिये। परन्तु ऐसा नहीं है इसलिये चेतन ब्रह्म जगत् का (उपादान) कारण नहीं है।

षं॰ स्वा॰ को उत्तर पक्ष-यथा परमाणोः परिमण्डलात् सतोऽणु ह्नस्वं च द्वîणुकं जायते महद्दीर्धं च त्र्चणुकादि न परि मण्डलम्। यथा वा द्वîणुकादणोह्र्नस्वाच्च सतो महद्दीर्घं च त्र्चणुकं जायते नाणुनोह्नस्वम्। एवं चेतनाद्ब्रह्मणोऽचेतनं जगज् जनिश्यते।

(षां॰ भा॰ 2।2।11 पृश्ठ 228-229)

जैसे परमाणु परिमण्डल होता है और इसका पारिमाण्डल्य द्व ्यणुक में नहीं जाता। उसमें पारिमाण्डल्य के स्थान में अणुत्व और ह्नस्वत्व होता है और जैसे द्व ्यणुकों का अणुत्व और ह्नस्तत्व चतुरणुकों में महत्व औद दीर्घत्व उत्पन्न हो जाय तो तुम्हारी क्या हानि?

इस उत्तर के समझने के लिये कुछ व्याख्या की आवष्यकता है जिसको स्थानाभाव से हम षांकर-वाक्यों के अनुवाद रूप में देते हे। वैषेशिक-कार की प्रक्रिया यह है। परमाणु सबसे छोटी और आरंभिक वस्तु है। उसमें केवल पारिमाण्डल्य (गुलाई) होती है। दो परमाणु मिल कर द्व ्यणुक में पारिमाण्डल्य नहीं होता। अणुत्व और ह्नस्वत्व होता है। द्व्यणुको से चतुरणुक बने तो उनमें अणुत्व तथा ह्नस्वत्व न रहा। महत्व और दीर्घत्व आ गया। इससे ज्ञात हुआ कि वैषेशिक के मत में भी कारण के गुण कार्य में नहीं गये। फिर वैषेशिक का षांकर मत के विरूद्ध यह आक्षेप असंगत है कि चेतन ब्रह्म से अचेतन जगत् कैसे उत्पन्न हो गया?

पूर्व पक्ष-विरोधिना परिमाणान्तरेणाक्रान्तं कार्यद्रव्यं द्वîणुकादि। इत्यतो नारम्भकाणि कारणगतानि पारिमाण्डल्यादीनि इत्यभ्युपगच्छामि। न तु चेतनाविरोधिना गुणान्तरेण जगत आक्रान्तत्वमस्ति; येन कारणगता चेतना कार्येचेतनान्तरं नारभेत। न ह्यचेतना नाम चेतनाविरोधी कष्चिद् गुणोऽस्ति। चेतनाप्रतिशेधमात्रत्वात्। तस्मात् पारिमण्डल्यादि वैशमयात् प्राप्नोति चेतनाया आरम्भकत्वमिति।        (षां॰ भा॰ 2।2।11 पृश्ठ 229-30)

द्व ्यणुक आदि कार्य द्रव्य दूसरे विरोधी परिमाण से आक्रांत (घिरे हुये) होते हैं, इसलिये कारण का आरंभक पारिमाण्डल्य कार्य में नही आता। ऐसा हमारा मत है। परन्तु जगत् किसी चेतना-विरोधी अन्य गुण से आक्रांत नहीं है जो कारणगत चेतना को कार्य में दूसरी चेतना उत्पन्न करने से रोक सके। अचेतना चेतन का विरोधी गुण तो है नहीं। चेतना का अभाव ही अचेतना है। इसलिये पारिमाण्डल्य का उदाहरण विशम है। चेतना से चेतना उत्पन्न होनी ही चाहिये।

षां॰ उत्तर पक्ष-(1) मैव मंस्थाः। यथा कारणें विद्यमानानामपि पारिमाण्डल्यादीनामनारम्भकत्वमेवं चैतन्यस्यापि, इति अस्यांषस्य समानत्वात्।

(पृश्ठ 230)

जैसे कारण का पारिमाण्डल्य कार्य में नहीं जाता उसी प्रकार कारण का चैतन्य भी कार्य में नहींे जाता। बात तो एक सी ही है। वैशम्य नहीं।

(2) न च परिमाणान्तराक्रान्तत्वं पारिमाण्डल्यादीनामनारम्भकत्वे कारणम्, प्राक् परिमाणान्तरारम्भात् पारिमाण्डल्यादीनामारम्भ्कत्वोपपत्तेः। आरव्धमपि काय्य द्रव्यं प्राग् गुणांरभात् क्षण मात्रगुणं तिश्ठति इत्यभ्युपगमात्।।      (पृश्ठ 230)

दूसरे परिमाण की आक्रान्ति पारिमाण्डल्य आदि गुणों को कार्य में जाने से नहीं रोक सकती। क्योंकि कार्य द्रव्य आरंभ होकर भी क्षण भर बिना गुण के रहता है। कार्य गुण तो कार्य में भी क्षण भर के पीछे ही उत्पन्न होता है। ऐसा वैषेशिक का सिद्धान्त है।

(3) न च परिमाण अन्तर आरभे व्यग्राणि पारिमाण्डल्यादीनि, इति अतः स्वसमानजातीयं परिमाणान्तरं नारभन्ते परिमाणान्तरस्य अन्य हेतुत्व अभ्युपगमात्। ‘कारण बहुत्वात कारण महत्वात् प्रचयविषेशाच्च महत्’ (वै॰ सू॰ 7।1।9) ‘तद्विपरीतमणु’ (7।1।10), ‘एतेन दीर्धत्वह्नस्वत्वे व्याख्याते’ (7।1।17), इति हि कारणभुजानि सूत्राणि।      (पृश्ठ 230)

यह भी नहीं कह सकते हि पारिमाण्डल्य आदि गुण दूसरे परिमाण के उत्पन्न करने मे व्यग्र (लगे) रहते हैं इसलिये स्वसमान जातीय परिमाण को नहींे बना सकते। क्योंकि दूसरे परिमाण के उत्पन्न होने का तो कणाद ने अपने सूत्रो में दूसरा हेतु बताया है। देखो ”कारण के बहुत्व, कारण के महत्व और प्रचय (इकट्ठा होने की रीति) के कारण“ महत्व उत्पन्न होता है (7।1।9), अणु उसके विपरीत है’ (7।1।10) ‘इसी प्रकार दीर्धत्व और ह्नस्वत्व भी समझने चाहिये’ (7।1।17)।

(4) न च संनिधान विषेशात् कुतष्वित् कारण बहुत्वादीनि एव आरभन्ते न पारिमाण्डल्यादीनीत्युच्येत, द्रव्यान्तरे गुणान्तरे वारभ्यमाणे सर्वेशामेव कारणगुणानां स्वाश्रयसमवाय-अविषेशात्। तस्मात् स्वभावादेव पारिमाण्डल्यादीनामनारम्भकत्व तथा। चेतनाया अपीति द्रश्टव्यम्।    (पृश्ठ 230)

यह भी नहीं कह सकते कि कारण का बहुत्व किसी संनिधान (निकट रखना) के कारण कार्य में महत्व उत्पन्न कर देता है और पारिमाण्डल्य आदि अपने अनुरूप गुण नही उत्पन्न कर सकते। क्योंकि जब कभी नया गुण या नया द्रव्य उत्पन्न होता है तब कारण के सभी गुणों का अपने आश्रय के साथ एक सा ही समवाय सम्बन्ध रहता है। अर्थात् कारण में जिस प्रकार बहुत्व का गुण है उसी प्रकार पारिमाण्डल्य का भी। फिर क्या कारण है कि बहुत्व तो महत्व को उत्पन्न कर सके और पारिमाण्डल्य पारिमाण्डल्य को नहीं।

इसलिये स्वभाव से ही पारिमाण्डल्य आदि अपने अनुरूप गुणों को उत्पन्न नहीं कर सकते। इसी प्रकार चेतन ब्रह्म से भी अचेतन जगत् उत्पन्न हो जाता है।

(5) संयोगाच्च द्रव्यादीनां विलक्षणानामुत्पत्तिदषनात् समानजातीयोत्पत्ति व्यभिचारः।

(पृश्ठ 230)

लोक में देखा भी जाता है कि द्रव्यों के संयोग से विलक्षण चीजें  उत्पन्न हो जाती है। इससे यह सिद्धान्त सर्वतन्त्र नहीं कि समान जातीयों की ही उत्पत्ति होती है।

(6) द्रव्यंप्रकृते गुणोदाहरणमयुक्तमिति चेत्। न। दृश्टान्तेन विलक्षणारम्भमात्रस्य विवक्षिततवात्। (षां॰ भा॰ 2।2।11 पृश्ठ 230)

यदि यह कहो कि द्रव्य के प्रसंग में गुणों का उदाहरण क्यों दिया? तो ठीक नहीं। क्योंकि यहाँ तो हम केवल यह दिखाना चाहते है कि विलक्षण की उत्पत्ति हो जाती है।

हमारी आलोचना-षं॰ स्वा॰ ने केवल एक गुण अर्थात् पारिमाण्डल्य को लेकर सब आक्षेप किये हैं। उनका उद्देष है खण्डन करना ”कारणगुण पूर्वकः काय्र्य गुणों दृश्टः“ का। परन्तु ऐसा करने से ”नासतो, दृश्टात्“ (वेदान्त 4।2।26) का भी खण्डन हो जायगा। क्योंकि जो गुण कारण में नहीं वह यदि कार्य में आ जाय तो कार्य की उत्पत्ति के लिये कोई नियत कारण का उपयोग न करे। षाक में चटपटाहट उत्पन्न करने के लिये मिर्च डालते हैं क्योंकि मिर्च चटपटी है हलवे को मीठा करने के लिये गुड़ डालते है क्योंकि गुड़ मीठा होता है। यदि सफेद सूत से भी काला कपड़ा बुना जा सके तो फिर कोई व्यवस्था ही न रहे। और षं॰ स्वा॰ के कथनानुसार ”षषविशाणादिभ्योऽप्यंकुगदयो जायेरन्“ (षां॰ भा॰ 2।2।26 पृश्ठ 245) अर्थात् खरगोष के सींगो से भी वृक्ष्ज्ञ के अंकुर उग आवें। यदि कहो कि उस सूत्र में तो अभाव से भाव की असिद्धि लिखी है तो वह तो यहाँ भी सिद्ध होती है क्योंकि कार्य में आप उस गुण की उत्पत्ति मानते हैं जो कारण में नहीं है। अर्थात् उसका अभाव है। शंकर स्वामी ने स्चयं अन्यत्र इसी सिद्धान्त को स्वीकार किया है जैसे ”कारणानुरूपं ही कार्ये भवति“। (षां॰ भा॰ 3।1।5 पृश्ठ 328)। रही परिमाण और संख्या की बात, वह तो परिमाण और संख्या और संख्या के अर्थो को समझने से ही स्पश्ट हो जाती है और उसके साथ आपके आक्षेपों का परिहार भी हो जाता है। एक सेब और एक सेब मिलकर दो सेब होते हैं। द्वितव दोनों में से किसी एक में भी नहीं। परन्तु मिलकर दो हो जाते है। यदि पचास सेब मिलकर भी अपनी इकाई को न छोड़े अर्थात् एक ही रहें तो कोई इतने सेब एकत्रित क्यों रहे? यदि एक इंच और एक इंच कपड़ा संयुक्त होकर भी एक इंच ही रहे तो कोई उसको जोडे़ क्यों? इसीलिये तो वैषेशिक ने स्पश्ट कह दिया कि ”कारणबहुत्वात् कारण महत्वात् प्रचयविषेशाच्च महत्“ (वै॰ सू॰ 7।1।1)। यह महत्व और दीर्घत्व प्रचय विषेश से (अर्थात् किन्हीं चीजों को एक विषेश रीति से जोड़ देने के कारण) होता है। इसको आप प्रत्यक्ष देखते है और इसका खण्डन नहीं कर सकते। याद रखना चाहिये कि जब एक ईट पर एक ईट रखकर एक 10 फुट ऊँची दीवार बन जाती है तो यह 10 फुट की ऊँचाई दीवार के अलग-अलग कारण ईटो में नहीं थी। ईटो को प्रचय (चयन) आकाष के कारण हुआ और उसी की सहायता से ऊँचाई उत्पन्न हो गई। यदि आकाष न होता तो ईटों का प्रचय भी न हो सकता। अब यदि ईटें ठोस है तो दीवार ठोस है तो दीवार ठोस होगी। यदि ईटें पोली हैं तो दीवार पोली है दिवार पोली होगी। क्योंकि कारण का ठोसपन या पोलापन कार्य में भी आवेगा सत्कार्यवादी होते हुये आप कैसे इनकार कर सकते है? एक और बात ध्यान देने योग्य है। पारिमाण्डल्य ह्नस्वत्व, दीर्घत्व सब परिमाण की सापेक्षिक श्रेणियां है। पारिमाण्डल्य में दीर्घत्व की बीज षक्ति ;चवजमदजपंसपजलद्ध है। पारिमाण्डल्य और ह्नस्वत्व को हम देख नहीं सकते दीर्घत्व को देख सकते है। श्री राधाकृश्णन् के षब्दों मेंः-

प्दपिदपजम हतमंजदमेे ंदक पदपिदपजम ेउंससदमेे ंतम दवज तमंसप्रमक उंहदसजनकमेय जीमल ंतम जीम नचचमत – जीम सवूमत सपउपजेए ंदक ूींज ूम ानवू पे पदजमतउमकपंजम इमजूममद जीम जूवण्

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील टंपेमेीपांए टवस  प्प् चण् 195द्ध

यदि आप कहें कि हम सत्कार्य वादी है सत्कारणादी नहीं। अर्थात् कार्य का अस्तित्व कारण में मानते है कारण का कार्य में नही तो भी ठीक नहीं क्योंकि ‘अनन्यत्व’ के जो आपने अर्थ किये है वे गलत ठहरेंगे। यदि आप कहें कि हम सत्कारणवादी भी है तो ब्रह्म के उपादान मानने से ब्रह्म की चेतनता जगत् में भी आनी चाहिये और जगत् में कोई जड़ पदार्थ भी होना नहीं चाहिये। और यदि भिन्न-भिन्न कारणों के परिमाण और संख्या को भी कार्य में देखना चाहते तो ब्रह्म से उत्पन्न हुये सभी पदार्थ एक और विभु होने चाहिये क्योंकि ब्रह्म विभु और एक है। यदि आप कहें कि हम तो कारण के गुणों का कार्य में होना आवष्यक नहीं समझते, विलक्षणता के पक्षपाती हैं तो सत्य ब्रह्म से मिथ्या जगत् की उत्पत्ति मानने के लिये अविद्या या माया की क्या आवष्यकता है? एक कारण से उससे विपरीत गुण वाले विलक्षण कार्य की उत्पत्ति हो जायगी। और मकड़ी के जाले से गंगा का पुल बनाकर भी लोग उससे पार हो सकने की आषा रख सकेंगे।

यदि आप कहें कि हमारा प्रयोजन किसी नियम का खण्डन करना नहीं है अपितु वैषेशिक कार की प्रक्रिया को असत्य सिद्ध करना है तो भी ठीक नहीं। क्योंकि प्रकरण ब्रह्म की सिद्धि का है। यह सूत्र तो केवल यह दिखाने के लिये है कि बिना चेतन ब्रह्म को निमित्त कारण माने हुये सृश्टि की व्याख्या नहीं हो सकती।

अब रही बात कि ‘आरब्धमपि कार्य द्रव्य प्राग् गुणारम्भात् क्षणमात्रगुणंतिश्ठति’ अर्थात् कार्य द्रव्य एक क्षण के लिये गुणषून्य रहता है। यह तो प्रक्रिया समझने मात्र के लिये है अन्यथा कोई द्रव्य गुणषून्य होकर द्रव्य कहला ही नहीं सकता। वैषेशिक दर्षन में तो इसका कहीं उल्लेख नहीं। पिछले लोगों ने समझने के लिये मान लिया है। ‘क्षण’ स्वयं कल्पित इकाई है और सापेक्ष्ज्ञिक है। परन्तु परमाणु सापेक्षिक नहीं। क्योंकि परमाणु के फिर टुकड़े नहीं हो सकते। परमाणु के पारिमाण्डल्य का अर्थ रही है कि उसमें लम्बाई चैड़ाई या मोटाई नहीं। परन्तु लम्बाई, चैड़ाई, उत्पन्न करने की बीज षक्ति है। और उसका आविर्भाव प्रचय द्वारा होता है। बुझे हुये एक सहस्त्र दीपक प्रकाष नहीं कर सकते परन्तु टिमटिमाते हुये सौ दीपक प्रकाष को बढ़ा सकते है। बहुत्व का यही प्रभाव है। संख्या गुण एक व्यक्ति में नहीं रहता अपितु समूह का गुण है। या यों कहिये कि व्यक्ति में व्यक्तित्व है और समूह में समूहत्व। यदि व्यक्ति में समूहत्वच हो तो सहति अनावष्यक हो। और यदि समूह में व्यक्तित्व हो तो संहति निरर्थक हो। सूत की सफेदी की तुलना महत्व और दीर्घत्व से करनी अयुक्त है। षं॰ स्वामी समझते हैं कि चतुरणुक के महत्व और दीर्घत्व में परमाणु का पारिमाण्डल्य नहीं रहा। परन्तु जैसे एक, एक, एक मिलकर तीन होते है। और त्रित्व में एकत्व भी विद्यमान है इसी प्रकार दीर्घत्व में पारिमाण्ल्य भी विद्यमान है। परन्तु जड़ जगत् की जड़ता में ब्रह्म का चेतनस्य विद्यमान नहीं है। अतः चेतन ब्रह्म को जड़ जगत् का उपादान मानना भूल है।

(2)

सावयवत्व और आदिम कर्म

पूर्वपक्ष-(1) सर्व चेदं जगद् गिरि समुद्रादिकं सावयवं, सावययतवाच् च आदि अन्तवत्। न च अकारणेन कार्येण भवितव्यम् इति, अतः परमाणवो जगतः कारणम्।

(षां॰ भा॰ 2।2।12, पृश्ठ 231)

यह सब जगत् पहाड़ समुद्र आदि अवयवों वाला है। अवयवों वाली चीज आदि वाली और अन्तवाली होती है। क्योंकि कभी तो अवयव मिले होने। और यदि मिलें तो उनका वियोग भी होगा ही। बिना कारण के कोई कार्य होता नहीं इसलिये जगत् का कारण परमाणु हैं।

(2) तानि इमानि चत्वारि भूतानि भूम्युदक तेजः पवनाख्यानि सावयवानि उपलभ्यं चतुर्विद्या परमाणवः परिकल्प्यन्ते।      (पृश्ठ 231)

पृथ्वी, जल, तेज, वायु चार अवयव वाले 5 भूत है। इसीलिये चार प्रकार के परमाणु भी है।

(3) तेशां च अपकर्शपर्यन्तगतवेन परतो विभागा-असंभवाद् विनष्यतां पृथिव्यादीनां परमाणुपर्यन्तो विभागो भवति स प्रलयकालः।    (पृश्ठ 231)

ये चार भूत जब बिखरने लगते है और ऐसी सीमा आ जाती है कि फिर आगे उनका विभाजन नहीं हो सकता तो अन्त की चीज को परमाणु कहते है। यही प्रलयकाल है।

(4) ततः सर्गकाले च वायवीयेशु अणुशु अदृश्टापेक्षं कर्म उत्पद्यते, तत् कर्म स्वाश्रयमणुमण्वन्तरेण संयुनक्ति ततो द्व ्यणुकादि क्रमण वायुमुत्पद्यते।

तब सृश्टि के समय वायु के अणुओं में अदृश्ट की सहायता से कर्म की उत्पत्ति होती है। वह कर्म अपने आश्रयी अणु को दूसरे अणु से जोड़ देता है। इस प्रकार द्व ्यणुक आदि क्रम से वायु उत्पन्न हो जाती है?

(5) एवमग्नः, एवम् आपः, एवं पृथिवी, एवमेव षरीरं सेन्द्रियमिति।

ऐसे ही अग्नि उत्पन्न होती है, ऐसे ही जल, ऐसे ही पृथ्वी, ऐसे ही इन्द्रियों सहित षरीर।

(6) एवं सर्वमिदं जगद् अणुभ्यः संभवति।

ऐसे ही सब जगत् अणुओं से उत्पन्न होता है।

(7) अणु गतेभ्यष्व रूपादिभ्यो द्वîणुकादिगतानि रूपादीनि संभवन्ति तन्तुपटन्यायेन इति कारणदा मन्यन्ते।   (षां॰ भा॰ 2।2।12 पृश्ठ 231)

अणुओं के रूप आदि से द्व ्यणुकों में रूपादि उत्पन्न होते है जैसे ष्वेत धागों से ष्वेत वस्त्र।

कणाद मुनि के वैषेशिक का ऐसा सिद्धान्त है।

षां॰ उत्तरपक्ष-(1) विभागावस्थानां तावदणूनां संयोगः कर्मापेक्षोऽभ्युपगन्तव्यः, कर्मवतां तन्तवादीनां संयोगदर्षनात्। कर्मणष्व कार्यत्वान्निमितं किमपि अभ्युपगन्तव्यम्।

(पृश्ठ 231)

प्रलय अवस्था वाले अणुओं का संयोग कर्म की अपेक्षा से हुआ। जैसे कर्म वाले धागे आदि का संयोग देखने में आता है। अब हम पूछते है कि कर्म तो कार्य है। इसलिये इस कर्म का भी कोई निमित्त तलाष करना चाहिये।

(2) अभ्युपगमें निमित्ताभावान् न अणुशु आद्यं कर्म स्यात्।

यदि निमित्त न मानो तो अणुओं में पहला कर्म कहाँ से आयेगा?

(3) अनभ्युपगमेऽपि यदि प्रयत्नोऽभिघातादिर्वा यथादृश्टं किमपि कमणो निमित्तमभ्युपमम्येत तस्यासंभवान्नैवाणुश्वाद्य कम स्यात्।

यदि निमित्त मानो तो पहले लोक में प्रत्यक्ष किसी (दृश्ट) चीज को निमित्त मान लो जैसे प्रयत्न या अविघात।

अर्थात् जब सूतों से कपड़ा बुना जाता है तो प्रयत्न और अभिघात पाये जाते है। परन्तु अणुओं के साथ ऐसा नहीं मान सकते। वहाँ तो सब की आदि में आदिम प्रयत्न या आदम संघात सभव ही नहीं हो सकते।

(अ) नहि तस्यामवस्थायामात्मगुणः प्रयत्नः संभवति षरीरभावात्। षरीर प्रतिश्ठे हि मनसि आत्मनः संयोगे सति आत्मगुणः प्रयत्नो जायते।

उस प्रलय अवस्था में आत्मा का गुण प्रयत्न तो सभव ही नहीं क्योंकि षरीर नहीं। षरीर में प्रतिश्ठित मन से ही आत्मा का संयोग होने पर प्रयत्न हो सकता है।

(आ) एतेन अभिघाताद्यपि दृश्टं निमित्तं प्रत्याख्यातव्यम्।

इसी प्रकार की युक्ति से लोक मेें प्रत्यक्ष अभिघात आदि निमित्तों का भी खण्डन हो गया।

(इ) सर्गोत्तरकालं हि तत् सर्व नाद्यस्य कर्मणो निमित्तं संभवति।

यह सब तो सृश्टि की उत्पत्ति के पष्चात् ही हो सकता है। और आदिम कर्म का निमित्त नहीं हो सकता।

(4) अथादृश्टमाद्यस्य कर्मणो निमित्तमित्युच्येत।

अब यदि आदिम कर्म का निमित्त अदृश्ट को मानो तो दो प्रष्न उठेगें।

(अ) तत् पुनः आत्मसमवायि वा स्यात्।

(आ) अणु समवायि वा।

उसका समवाय सम्बन्ध आत्मा के साथ होगा या अणु के साथ।

(इ) उभयथापि न अदृश्ट निमित्तमणुशु कर्मावकल्पेत अदृश्टस्य अचेतनत्वात्।

दोनों दषाओं में अदृश्ट अणुओं में कर्म-नहीं उत्पन्न कर सकता और न करा सकता है।

(उ) आत्मनष्वानुत्पन्न चैतन्यस्य तस्यामवस्थायामचेतनत्वात्।

आत्मा भी असमर्थ है क्योंकि उस समय उसमें चेतना प्रादुर्भूत नहीं हुई है।

(ऊ) आत्मसमवायितवाभ्युपगमाच्च नादृश्टमणुशु कर्मंणो निमित्त स्यादसंबन्धात्।

यदि कहो कि अदृश्ट का आत्मा से समवाय सम्बन्ध है तो भी अणुओं में कर्म की उत्पत्ति नहीं हो सकती क्योंकि अणुओं से सम्बन्ध नहीं।

(ऋ) अदृश्टवता पुरूशेण अस्ति अणूनां संबन्ध इति चेत, संबन्ध सातत्यात् प्रवृत्तिसातत्यप्रसंगो नियामकान्तराभावात्।

यदि कहो कि अदृश्टवान आत्मा का अणुओं से सम्बन्ध है तो सम्बन्ध है तो सम्बन्ध नित्य होगा अतः प्रवृत्ति भी नित्य ही होगी। और कोई नियामक तो है ही नहीं।

(ऋ) तदेव नियतस्य कस्यचित् कम निमित्तस्य अभावात् न अणुशु आद्यकर्म स्यात्।

इसलिये कर्म का कोई भी नियत निमित्त नहीं और अणुओं में आदिम कर्म नहीं हो सकता।

(5) कर्माभावात् तान्नन्धनः संयगो नस्यात्।

कर्म न होगा तो उसका निबन्ध संयोग भी न होगा।

(6) संयोगाभावाच्च तन्निबन्धनं द्वîणुकादि कार्यजातं न स्यात्।

(षां॰ भा॰ 2।2।12, पृश्ट 231-232)

संयोग न हो तो द्व ्यणुक आदि से रचना कैसे हो?

हमारी आलोचना-यह उसी प्रकार का विकल्प व्यूह है जैसा सांख्य के सम्बन्ध में आ चुका है। और उसका मूल्य भी उतना ही है।

प्रथम तो कणाद ने पहाड़ आदि जगत् के पदार्थो का विष्लेशण करते-करते सब से आदिम सीमान्त परमाणुओं की जो अस्तित्व सिद्धि की उसमें आपने कोई दोश नहीं निकाला। यह तो दैनिक अनुभव की बात है। दीवार को तोड़ो तो आदिम इकाइयों अर्थात् ईटों तक पहुँचचोगे। ईटों को तोड़ो तो मिट्टी के कणों तक। इत्यादि। इसमें भूल ही क्या है? प्रत्यक्षे कि प्रमाणम्। यदि कणादोक्त विष्लेशण में कोई भूल बताई होती तो उसकी परीक्षा की जाती।

आप चले प्रलय सें, आप का प्रष्न यह है कि अणुओं में कर्म कैसे उत्पन्न हुआ? यदि आप यह विचार कर लें कि परमाणुओं के ऊपर उनमें ओत-प्रोत एक सर्वज्ञ और सर्वषक्तिमती सत्ता भी है जो जीवों के कर्मफल को दृश्टि में रखकर उनके कर्मक्षेत्र ओर भोग क्षेत्र के रूप में उन परमाणुओं से सुश्टि बनाया करती है तो आपके सभी आक्षेप दूर हो जाते है। परमाणु तो केवल उपादान कारण होगंे, कर्म होंगे जीवों के! उनके अनुकूल  ईष्वर उनको फल देने के लिये भिन्न भिन्न जीवों की भिन्न भिन्न आवष्यकताओं को ध्यान में रखकर सृश्टि बनावेगा। इसके साथ ही आप यह भी दृश्टि में रक्खें कि सृश्टि प्रवाह से अनादि है अतः ‘आद्य कर्म’ का प्रष्न भी न उठेगा। यहाँ तो हम आपके ही कथन को आपके खण्डनं में उपयुक्त समझते हैंः-

”नैश दोशः। अनादित्वात संसारस्य। भवेदेश दोशो यद्यादिमान् संसारः स्यात्। अनादौ तु संसारे बीजांकुरवद्धेतुमöावेन कर्मणः सर्गवैशम्यस्य च प्रवृत्तिर्न विरूघ्यते।“

(षां॰ भा॰ 2।1।35 पृश्ठ 218)

संसार अनादि है इसलिये कोई दोश नहीं। यदि संसार आदि मान् होता तो दोश आ सकता था। अनादि संसार में कर्म और सृश्टि के वैशम्य में विरोध नहीं पड़ता। बीज से अंकुर होता है। अंकुर से बींज

(3)

अणुओं का संयोग

षं॰ स्वा॰-संयोगष्वाणोरण्वन्तरेण सर्वात्मना वा स्यादेक देषेन वा।

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यह खण्डन श्री षंकराचार्यजी का अपना नहीं है बौद्धदार्षनिक आर्यदेव (देव) ने भी बहुत पहले इसी प्रकार की आलोचना की थी। देखोः-

(क) सर्वात्मना चेदुनपचयानुपपत्तेरणुमात्रतव प्रसंगो दृश्टविपर्ययप्रसंगेष्व। प्रदेषवतो द्रव्यस्य प्रदेषवता द्रव्यान्तरेण संयोगस्य दृश्टत्वात्।

(ख) एक देषेन चेत् सावयवत्व प्रसगः।

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”प्रतिपक्षी कहता है कि परमाणु है जो यद्यपि सर्वव्यापक और नित्य दोनों नहीं तथापि एक देषीय और नित्य है क्योंकि उनके कार्य रूप समुदाय उनके अस्तित्व को बताते हैं (वै॰ 4।1।1-4)। हमारा (अर्थात् आर्य देव का) आक्षेप यह है कि दो परमाणु एक दूसरे से सब और से नहीं जुड़ सकते। क्योंकि समुदायरूपी कार्य में पारिमाण्डल्य नहीं होता (वै॰ 7।1।20) हमारा कथन है कि परमाणु अनित्य होने चाहिये क्योंकि वह आकाष द्वारा सर्वत्र विभक्त होते है (वै॰ सूत्र 7।1।9-10 7।1।20, न्याय सूत्र 4।2।18) दूसरा हेतु उनके अनित्य होने का यह कि रंग आदि से उनकी पहचान होती है (वै॰ सूत्र 7।1।18, 18) (वैषेशिक फिलासफी, चीनी संस्करण, प्रोफेसर एच॰ यू॰ आई॰ षोताषू कालेज टोक्यो कृत, एफ डब्ल्यू टामस द्वारा अंगरेजी अनुवाद पृश्ठ 51।52)

(ग) परमाणूनां कल्पिताः प्रदेषाः स्युरिति चेत्, कल्पितानाम वस्तृत्वादवस्त्वेव संयोग इति वस्तुनः कार्यस्यासमवायिकारणं न स्यात्।

(घ) असति चासमवायिकारणे द्वîणुकादि कार्य द्रव्यं नोत्पद्येत।

(षां॰ भा॰ 2।1।12 पृश्ठ 232)

क्या एक अणु कुल का कुल दूसरे अणु से मिल जाता है या अणु का एक देष मिलता है?

(क) यदि कुल का कुल मिल जाय तो परिमाण में वृद्धि न होगी। सब चीजें मिलने पर भी अणु के बराबर ही रहेगी दूसरी बात यह है कि प्रदेष वाली चीजें ही मिलती देखी जाती हैं।

(ख) यदि कहो कि परमाणु कुल का कुल नहीं मिलता, एक देष में मिलता है तो परमाणु के अवयव मानने पड़ेगें। और उनका आगे विभाजन हो सकेगा।

(ग) यदि कहो कि परमाणु में प्रदेष कल्पित कर लिये गये है। तो कल्पित वस्तु मिथ्या होती है। कल्पित वस्तुओं का संयोग भी कल्पित होगा और वह वास्तविक वस्तुओं का असमबायि कारण न हो सकेेगा।

(घ) असमवायि कारण न होने से द्वîणुक कैसे बनेगें?

हमारी आलोचना-निरवयव वस्तु में समस्त और व्यस्त या कुल और एक देष का प्रष्न ही नहीं उठता। आपके विकल्प हो सावयव पदार्थों में हो सकते हैं। परमाणु निरवयव है। इसलिये आप उसके सम्बन्ध में यह प्रष्न नहीं कर सकते।

आप कहते हैं कि संयोग तो प्रदेष वाली चीजों में ही देखा गया है। ठीक हम भी मानते है। बने हुये जगत् में सभी चीजें प्रदेष वाली हैं। परन्तु यदि आप मान लेवें कि प्रदेष वाली चीजें विभाज्य है तो उनके विभाग भी मानने पड़ेंगे। और उन विभागों को भी विभाज्य मानने से उनका भी विभाग हो सकेगा। इस प्रकार कहीं तो सीमा पहुँचेगी ही अत्यथा अमवस्था दोश्ज्ञ आयेगा। इस प्रकार भी परमाणु की सिद्धि हो गई।

एक परमाणु के दूसरे परमाणु में धसकर एक हो जाने का प्रष्न तभी उठता जब परमाणु सावयव होात और उसमें पोल होती।

आप यह तो मानते हैं कि प्रदेष वाली चीजें सिरों पर संयुक्त होती है। परन्तु आप यह नहीं बताते कि वे सिरे आपस में कैसे संयुक्त होते है। कुल के कुल या एक देष में। क्योंकि सिरों से भी सिरे हो सकते है। सिरा सापेक्षिक षब्द है। इस प्रकार भी या तो अनवस्था दोश आयेगा या मानना पड़ेगा कि सिरे मिलना सम्भव है। उसी प्रकार की सम्भावना आप परमाणु के विशय में भी कर सकते हैं। विष्लेशण द्वारा सिद्ध हुये परमाणु के अस्तित्व का निशेध करने की क्या आवष्यकता है?

(4)

प्रलय और अदृश्ट

षं॰ स्वा॰-प्रदृश्टमपि भोगप्रसिद्धयर्थ न प्रलय प्रसिद्धयर्थम्।

(षां॰ भा॰ 2।2।12 पृश्ठ 232)

अदृश्ट तो भोग के लिये है प्रलय के लिये नहीं। फिर प्रलय कैसे होगी?

——————————————————वैषेशिक दर्षन के निम्न सूत्रों में कर्म के सम्बन्ध में अदृश्ट का उल्लेख हैः-5।1।15, 5।2।2, 5।2।13, 5।2।17-18, 6।2।2, 6।2।13

जीव जो कर्म करते है उनके फल की प्राप्ति के हेतु उनमें एक प्रकार के संस्कार या बीजषक्ति उत्पन्न हो जाती है जो अदृश्ट रहता है और जिसकी प्रेरणा से उसको उन कर्मो का अच्छा या बुरा फल मिलता है। जीव के षरीर और षरीरों द्वारा प्राप्त भोग अदृश्ट की प्रेरणा से होते हैं। जैसे भूमि में बोया हुआ बीज प्राकृतिक नियमों द्वारा वृक्ष रूप होता हुआ कालान्तर में फल लाता है इसी प्रकार कर्मो के करने से

——————————————————हमारी आलोचना-जिस प्रकार आजकल चीजों का बिगड़ना या षरीर का मृत्यु को प्राप्त होना जीवों के भोग के अन्तर्गत है इसी प्रकार समस्त जगत् का प्रलय भी भोग से सम्बन्ध है। आज कल नित्य प्राप्ति क्षण आंषिक प्रलय हुआ करती है। वह महाप्रलय होगी।

(5)

समवाय सम्बन्ध

षं॰ स्वा॰-”द्वाभ्यां चाणुभ्यां द्वîणुकमुत्पद्यमानमत्यन्त भिन्नमणुभ्यामणवोः समवैतीत्यभ्युपगम्येते भवता। न चैवमभ्युपगच्छताषक्यतेऽणुकारणता समर्थयितुम्। कुतः? साम्यादनवस्थितेः।          (षां॰ भा॰ 2।2।13 पृश्ठ 233)

तुम्हारे मत में (वैषेशिक के मत में) दो अणुओं से मिल कर द्वîणुक और पहले अणुओं में समवाय सम्बन्ध होता है। हमारा आक्षेप यह है कि द्वय्णुक अणु से भिन्न है। इन भिन्न पदार्थो में समवाय सम्बन्ध मानते हो तो इसी प्रकार समवाय ओर समवायी भी भिन्न है उनमें भी दूसरा समवाय सम्बन्ध मानना पड़ेगा। इस प्रकार अनवस्था दोश आ जायेगा।

वैषेशिक का पक्षः-नन्विह प्रत्ययग्राह्यः समवायो नित्यसंबद्ध एव समवायिभिर्गृह्यते नासंबन्धान्तरापेक्षो वा। ततष्व न तस्यान्यः संबन्धः कल्पयितव्यो येनानवस्था प्रसज्येत इति।   (पृ॰ 223)

——————————————————उत्पन्न हुआ अदृश्ट रूपी बीज ईष्वर की धर्म व्यवस्था द्वारा कालान्तर में सुख या दुःख रूपी फलों को प्राप्त कराता है। बीज का वृक्ष रूप होना प्राकृतिक नियमों के अनुसार है जो दृश्ट है। कर्मोे से उत्पन्न अदृश्ट आचार सम्बन्ध नियमों ;उवतंस संूेद्ध के अनुसार है जो दिखाई नहीं पड़ता।

——————————————————

समावाय और समवायी का सम्बन्ध हमको नित्य प्रतीत होता है। यह न तो दूसरे सम्बन्ध की अपेक्षा रखता है। इसलिये और दूसरे सम्बन्ध की कल्पना अनावष्यक है। इसलिये अनवस्था दोश नहीं आता।

षं॰ स्वा॰-नेत्युच्चते। संयोगीऽप्येवं सति संयोगिभिर्नित्यसंबद्ध एवेति समवायवन्नन्यं संबन्धमपेक्षेत।

यह युक्ति ठीक नहीं। इस प्रकार तो संयोग और संयोगी का भी नित्यसम्बन्ध मानना पड़ेगा। और तुम्हारी यह कल्पना व्यर्थ होगी कि संयोग और संयोगी मे सम्बन्ध है। यदि कहो कि अर्थान्तरत्व (भिन्नता) के कारण संयोग को एक और सम्बन्ध की आवष्यकता है तो समवाय को भी समवायी से उसी प्रकार भिन्न है जैसे संयोग संयोगी से। यदि कहो कि संयोग गुण है, गुण और गुणी में समवाय सम्बन्ध होता है इसलिये संयोगी में भी समवाय सम्बन्ध होता है इसलिये संयोगी में भी समवाय सम्बन्ध है तो यह भी ठीक नहीं।

अपेक्षाकारणस्य तुल्यत्वात्। गुणपरिभाशायाष्वातन्त्रत्वात्।।

(षां॰ भा॰ 2।2।13 पृश्ठ 233)

क्योंकि कारण तो दोनों के साथ एक ही है। यह दूसरी बात है कि परिभाशा में संयोग को गुण कह लिया और समवाय को नहीं।

हमारी आलोचना-वैषेशिककार ने छः पदार्थ ;बंजमहवतपमेद्ध माने  है द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विषेश और समवाय। षं॰ स्वा॰ का ऊपर का आक्षेप समवाय विशयक है। याद रखना चाहिये कि पिछले तीन पदार्थो को कणाद ने बुद्ध्यपेक्षित माना है। जैसे-

सामान्यं विषेश इति बुद्धयपेक्षम्।            (वैषे॰ दर्षन 1।2।3)

इसका यह अर्थ नहीं कि ये तीन पदार्थ काल्पनिक है। हैं तो ये वास्तविक। परन्तु इनका परिज्ञान बुद्धि से होता है। मेरा आषय उदाहरण से स्पश्ट  होगा। संसार में अनेक वस्तुये हैं। ये सब वस्तुएँ असंद्ध नहीं है। इस सम्बन्ध को आप बुद्धि से समझ सकते हैं, समवाय एक सम्बन्ध है।

दहेदमिति यतः कार्यकारणयोंः स समवायः।              (वैषे॰ दर्षन 7।2।26)

अयुतसिद्धानाम धार्याधारभूतानां गः संबन्धं इहेतिप्रतययहेतुः स समवायः। इति प्रषस्तपादः।

समवाय सम्बन्ध अयुतसिद्ध वस्तुओं में होता है। अयुतसिद्ध वह है जिनका कभी पृथक्त्व नहीं हो सकता, जैसे गुण और गुणी। वैषेशिक लोग कारण कार्य, गुण-गुणी, अवयव-अवयवी, क्रिया-क्रियायान्, जाति-व्यक्ति मे समवाय सम्बन्ध सम्बन्ध मानते है। इसका केवल इतना अर्थ है कि इनमें जो कुछ सम्बन्ध है उस सम्बन्ध का नाम समवाय रक्खा गया। युत-सिद्ध वस्तुओं में भी सम्बन्ध होता है। जिसका नाम संयोग है। जैसे पात्र में दही है। पात्र और दही अयुत सिद्ध नहीं। युत-सिद्ध है। गुण के बिना गुणी रह नहीं सकता। परन्तु दही के बिना पात्र रह सकता है।

इतना समझने के पष्चात् षं॰ स्वा॰ के आक्षेप इतने प्रबल समझे जाते है कि श्रीराधाकृश्णन जी को यह कहना पड़ा कि-

ज्ीम जीमवतल व िैंउंअंलं पे ं ूमंा सपदा पद जीम टंपेमेपां ैलेजमउण् ॅम बंददवज सववा नचवद ैंउंअंलं ंे ं बवददमबजपवद इमज ूममद जूव कपेजपदबज जीपदहे ंदक लमज तमहंतक पज ंे व िं कपििमतमदज ापदक तिवउ ैंउलवहंए वत बवदरनदबजपवदण् प् िैंउंअंलं

——————————————————

कार्यकारणयोरित्युपलक्षणं गुणगुणिनोः क्रियाक्रियावतोर्जातिव्यक्त्यौर्नित्द्रत्र्यविषेश दार्थयौष्वाधाराधेयभावनियामकोऽपि सम्मबाध एवेति मन्तव्यम्।

(जयनाराण तर्क पचानन भट्टाचार्यकृत कणाद सूत्र विवृत्ति 7।2।26)

——————————————————

पे कपे पदबज तिवउ ैंउलवहंए जीमद जीम ूीवसम पे ेवउमजीपदह वअमत ंदक ंइवअम जीम चंतजण्

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील टवसण् प्प्ण् चंहम 231द्ध

अर्थः-वैषेशिक दर्षन की शृखला में समवाय का सिद्धान्त एक निर्बल कड़ी हैं। यह कैसे माना जा सकता है कि समवाय दो भिन्न भिन्न वस्तुओं के बीच का सम्बन्ध भी हो और संयोग सम्बन्ध से भिन्न हो? यदि समवाय को संयोग से भिन्न मानोगे तो अवयवी को अवयवों से अतीत (अधिक) मानना पड़ेगौ।

यह सम्मति शंकर स्वामी के प्रभाव का फल स्वरूप है। जब कणाद ने भिन्न भिन्न पदार्थाें की दो कोटियाँ कर दी एक अयुत-सिद्ध और दूसरी युत-सिद्ध, तो इन दो प्रकार की वस्तुओं के परस्पर सम्बन्धों के लिये भी दो नाम रक्खे, तो इन दो प्रकार की वस्तुओं के परस्पर सम्बन्धों के लिए भी दो नाम रक्खे, एक समवाय, दूसरा संयोग। यह दो नाम तो सर्वथा उपयुक्त है। इनमें कोई दोश नहीं। तो क्या इनके लक्षणो में कोई दोश है? यदि लक्षण के षब्दों को ष्लेश के झमेले मे अलग रक्खा जाय तो लक्षण में भी कोई दोश प्रतीत नहीं होता। हाँ यदि षब्दों का कहीं कोई अर्थ लिया जाय तो हो सकता है और षं॰ स्वा॰ ने ऐसा ही किया है। देखिये-

(1) शंकर स्वा॰ का आक्षेप यह है कि आकाष और परमाणु तो कभी अलग नहीं होते। फिर इनमें समवाय सम्बन्ध क्यों नहीं?

परन्तु थोड़े से विचार से पता चल जायगा कि जिस भाव से पदार्थो की दो कोटियाँ की गई एक अयुत-सिद्ध और दूसरी युत-सिद्ध,उसके अनुसार आकाष और परमाणु अयुत-सिद्ध की कोटि में नही आते। षब्द आकाष का गुण है अतः यह दोनों अयुत-सिद्ध है, और इनमें परस्पर समवाय सम्बन्ध है।

दूसरी बात यह है कि यदि आप इस बात पर आग्रहे करें कि आकाष और परमाणु भी अयुत-सिद्ध है, क्योंकि जहाँ आकाष है वहाँ

परमाणु है, जहाँ परमाणु है वहाँ आकाष है, तो हम कह देंगे कि इस आग्रह मात्र से समवाय सिद्धान्त नहीं कटता। केवल हमको आपकी इतनी बात स्वीकार कर लेनी पड़गी कि आकाष और परमाणु में भी समवाय सम्बन्ध है। परन्तु ऐसा हैं नहीं क्योंकि यह कहना ठीक न होगा कि जहाँ जहाँ आकाष है वहाँ वहाँ वही परमाणु है और आकाष के होने के कारण है। जो विषेशता कारण-कार्य, गुण-गुणी, क्रिया-क्रियावान्, अवयव-अवयवी, जाति-व्यक्ति में पाई जाती है वह आकाष-परमाणु में नहीं है। आकाषत्व का परमाणुत्व के साथ वही सम्बन्ध नहीं है जो जातित्व का व्यक्तित्व के साथ या कारणत्व का कार्यत्व के साथ।

(2) दूसरा आक्षेप यह है कि यदि गुण और गुणी भिन्न हैं और उनके बीच में समवाय सम्बन्ध है तो समवाय और समवायी भी भिन्न हैं अतः उनके बीच में कोई दूसरा समवाय सम्बन्ध चाहिये। इस प्रकार बढ़ाते-बढ़ाते अनवस्था दोश आ जाएगा।

इस आक्षेप के उत्तर में वैषेशिक का यह कहना है कि समवाय-समवयी के सम्बन्ध की प्रतीति तो नित्य है। उसे किसी अन्यसम्बन्ध की अपेक्षा नहीं। रथ के दो बैलों के कंधों को एक जुए से संबद्ध कर देते है। परन्तु जुए को प्रत्येक बैल के कंधें से बाँधने के लिए किसी दूसरे जुए की आवष्यकता नहीं होती। इसलिए अन्य समवाय मान कर अनवस्था उत्पन्न करने का प्रष्न नहीं उठता।

इस पर षं॰ स्वा॰ कहते है कि यह बात तो संयोग पर भी लागू होगी फिर संयोग और संयोगी में भी समवाय मानना पड़ा। परन्तु याद रखना चाहिये कि जिन भिन्न-भिन्न पदार्थों के संयोग से एक संयुक्त पदार्थ बना उसके उन भिन्न-भिन्न पदार्थों से अलग अलग हर एक के साथ संयोग का समवाय सम्बन्ध नहीं। केवल संयुक्त पदार्थ के साथ है। उदाहरण सके लिये जल को लीजिये। आक्सीजन और हायड्रोजन के संयोग से जल बना। जल का गुण है षीतलता। यह षीतलत्व न तो आक्सीजन का गुण हैं न हायड्रोजन का। अपितु एक तीसरे संयुक्त पदार्थ का जिसको जल कहते हैं। संयोग न तो अलग आक्सीजन में है न अलग हायड्रोजन में है अपितु दोनों के मेल से बने तत्व में।

जल है संयुक्त पदार्थ।

जलत्त है संयोग।

अतः जल और जलतव तथा संयुक्त और संयोग अयुत-सिद्ध हो गये और उनमें समवाय मानना आवष्यक हो गया।

वैषेशिक ने बुद्धि-भ्रम को बचाने के लिए ये दो सम्बन्ध अलग अलग रक्खे। आप इनमें गड़बड़ करके बुद्धि-भ्रम के लिये अवसर दे रहे है। श्रीराधाकृश्णन् जी को यह आपत्ति खटकी तो अवष्य परन्तु उन्होंने इसको इतना गंभीर नहीं समझा और सहन कर गये। वे लिखते है।

ज्ीमतम पे दव कवनइज जींज जीम तमसंजपवद व िं इपदंतल ंजवउपब बवउचवनदक जव पजे बवदेजपजनमदज मसमउमदजेए वत व िं ेचमबपमे जव जीम पदकपअपकनंसे बवदेजपजनजपदह पजए पे दवज जीम ेंउम ंे जीम तमसंजपवद व िं जंइसम बसवजी ंदक जीम जंइसमण् ठनज जीम कपििपबनसजल पद इवजी जीम बंेमे ेममउे जव इम जीम ेंउमण् जींज ं तमसंजपवदए ीवूमअमत पदजपउंजमए बंद दवज इम पकमदजपबंस ूपजी जीम जमतउे तमसंजमकण्

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील टवसण् प्प्ण् च्ंहम 218.19द्ध

अर्थः-इसमें संदेह नहीं कि द्वîणुक का अपने परमाणुओं के साथ या जाति का अपने व्यक्तियों के साथ वही सम्बन्ध नहीं है जो मेज का मेजपोष के साथ है। परन्तु कठिनाई दोनों दषाओं में एक ही है। अर्थात् एक सम्बन्ध चाहे कितना ही घनिश्ठ क्यों न हो, संबद्ध पदार्थों से उसका अनन्यतव नहीं हो सकता।

यहाँ स्पश्ट हो गया कि मेज और मेजपोष युत-सिद्ध है और जाति व्यक्ति अयुत-सिद्ध। इनके सम्बन्ध भिन्न-भिन्न है। अतः इनके नाम भी भिन्न होने चाहिये। आगे की कठिनाई कुछ कल्पित सी है। क्योंकि समवाय और समवायी में कोई अनन्यत्व नहीं मानता।

(3) तीसरा आक्षेप षं॰ स्वा॰ का यह है कि कारण और कार्य अयुत-सिद्ध नहीं। क्योंकि वैषेशिक असत्कार्य-वादी है। वह कारण में कार्य को उत्पत्ति से पूर्व नहीं मानता। अर्थात् कार्य का प्रागभाव मानता है। (देखो षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 236)

यह आक्षेप बहुत गहरा नहीं है, हम अन्यत्र सत्कार्य और असत्कार्य की मीमांसा कर चुके है। यह झगड़ा एकांगी विचार के कारण है। घड़े में मिट्टी तो सदा ही रहती है अतः अयुत-सिद्ध है, केवल ऊपरी दृश्टि से यह कहा जा सकता है कि मिट्टी में घड़ा सदा नहीं रहता। परन्तु असत्कार्यवाद का यह सिद्धान्त तो नहीं कि कारण और कार्य में नियत-सम्बन्ध नहीं। प्रत्येक कारण से प्रत्येक कार्य तो उत्पन्न नहीं हो सकता। जल से बरफ बनती है रेत से नहीं। इसलिये यों समझना चाहिये कि मिट्टी में घड़ा बीज-रूप से रहता है। प्रागभाव और अन्योन्याभाव या अत्यन्ताभाव में भेद है।

यह कहना कि कार्य कारण के साथ समवाय सम्बन्ध में प्रविश्ट हाने से पूर्व अपनी उत्पत्ति के पष्चात् कुछ काल तक बिना सम्बन्ध के रहता है केवल षाब्दिक भूल भुलय्या हैं। युक्ति में कोई सार नहीं। ऐसी युक्यिाँ उभयपक्ष से बहुत सी दी जा सकती है।

(6)

अणुओं में प्रवृत्ति का प्रष्न

षं॰ स्वा॰-अपि चाणवः प्रवृत्तिस्वभावा वा निवृत्तिस्वभावा योगयवास्वभावा वाऽनुभयस्वभावा वऽभ्युपरम्यन्ते गत्यन्तराभावात्। चतुर्थापि नोपपद्यते। इत्यादि।

(षां॰ भा॰ 2।2।14 पृश्ठ 223)

अर्थः-यदि परमाणुओं को सृश्टि का कारण मानो तो चार अवस्थायें मानी जा सकती हैं। या तो परमाणुओं में बनाने की प्रवृत्ति हो। यदि ऐसा है तो सृश्टि बनती ही जायगी, कभी प्रलय आदि नाष न होगा। यदि निवृत्ति मानो तो कभी प्रलय आदि नाष न होगा। यदि निवृत्ति मानो तो कभी बनेगी ही नहीं। दोनों स्वभाव परस्पर विरोधी है। अतः विचार के योग्य नहीं। यदि दोनों प्रकार की न मानो तो अदृश्ट आदि निमित्त से इनका नितय सम्बन्ध होने की दषा में सृश्टि सदैव बनती रहेगी, बिगड़ेगी नहीं और यदि किसी अदृश्ट बनने की प्रवृत्ति ही न हो सकेगी। इस लिये परमाणुकारणवाद ठीक नहीं।

हमारी आलोचना-शंकर स्वामी इस आक्षेप को करने से पूर्व मान बैठते हैं कि कणाद अनीष्वरवादी हैं, और परमाणुओं को अभिन्न-निमित्त-उपादान कारण मानते हैं। श्री राधाकृश्णन् का यह कथन विचारने योग्य हैः-

ज्ञंदंकंष्े ेनजतं कवमे दवज वचमदसल तममित जव ळवकण् भ्म जतंबमे जीम चतपउंस ंबजपअपजपमे व िजीम ंजवउे ंदक ेवनसे जव जीम चतपदबपचसम व िंकतेजंण् ॅींजम ीम ेममउमक जव ींअम इममद ेंजपेपिमक ूपजी जीम मगचसंदंजपद व िजीम नदपअमतेम इल जीम चतपदबपचसम व िंकतेजंए ीपे विससवूमते मिसज जींज जीम चतपदबपचसम व िंकतेजं ूंे जवव दमइनसवदे ंदक नद.ेचपतपजदंस ंदक उंकम पज कमचमदकमदज वद ळवकष्े ूपससण् ळवक पे जीम मििपबपमदज बंनेम व िजीम ूवतसक ूीपसम जीम ंजवउे ंतम जीम उंजमतपंस बंनेमण् प्ज पेए ीवूमअमतए ींतक जव बवदबमकम जींज ज्ञंदंकं ीपउ ेमस िमिसज जीम दममक व िं कपअपदम इमपदहण् ज्ीम ंिअवनतपजम चंेेंहमए ूीपबी वबबनते जूपबमए ंदक ींे इममद उंकम जव ेनचचवतज जीमेउ इल संजमत बवउउमदजंजवतेए ींे दव तममितमदबम जव ळवकण् ।चचमदजसल ज्ञंदंकं मिसज जींज जीम टमकंे ूमतम जीम ूवतो व िजीम ेममतेए ंदक दवज ळवकण् प् ींज जीम टमकंे ूमतम जीम ूवतो व िजीम ेममतेए ंदक दवज ळवकण्

;प्दकपंद च्ीपसवेवचील टवसण् प्प् चण् 226द्ध

अर्थः-कणाद के सूत्र खुलमखुल्ला ईष्वर का उल्लेख नहीं करते। वह तो परमाणुओं और आत्माओं की प्रारम्भिक प्रवृत्ति को अदृश्ट तक ले जाते हैं। वह अदृश्ट के सिद्धान्त से ही जगत् की उत्पत्ति मानने से सन्तुश्ट थे परन्तु उनके अनुयायियों ने सोचा कि अदृश्ट तो इतना अनिष्चित और अनात्मक है कि इससे काम नही चलता। अतः उन्होंने अदृश्ट ईष्वर की इच्छा के परतन्त्र कर दिया। ईष्वर जगत् का निमित्त कारण है और परमाणु उपादान कारण। परन्तु यह मानना कठिन है और परमाणु उपादान कारण। परन्तु यह मानना कठिन है कि कणाद ईष्वर की आवष्यकता को अनुभव करते थे। जो सूत्र दो बाद आया है।

तद्वचनादामनायस्य प्रामाण्यम्। 1।1।3; 10।2।9

और जिसको आस्तिकवाद की पुश्टि में पेष किया जाता है उसका ईष्वर से सम्बन्ध नहीं। प्रतीत होती है कि कणाद वेद को ईष्वर कृत नहीं अपितु ऋशि-कृत मानते थे।

हमको भी राधाकृश्णन जी के साथ साहमत्य प्रकट करने में आपत्ति है। ‘तद् वचनाद्’ में ‘तद्’ षब्द केवल ईष्वर के लिये ही आ सकता है। अन्य कोई प्रकरण ही नहीं है। यह एक प्रसिद्ध बात है कि वैदिक साहित्य में ‘तत्’ षब् ईष्वर का ही वाचक है यदि कोई और प्रकरण न हो। यदि यह भी मान लिया जाय कि कणाद वेद ऋशि-कृत मानते थे तो भी कणाद का अनीष्वरवादी होना सिद्ध नहीं होता क्योंकि वेद में आरम्भ से ही ईष्वरवाद का प्रतिपादन है। इस बात को तो श्री षंकराचार्यजी भी स्वीकार करते है। यदि ईष्वर को मान लिया जाय तो शंकर स्वा॰ का विकल्प-व्यूह एक झटके से ही टूट जाता है। अदृश्ट का सबन्ध तो कर्मो से है। ईष्वर अकारण ही तो सृश्टि के भिन्न भिन्न भागों को उत्पन्न नहीं करता। अदृश्ट के अनुसार करता है। इस प्रकार उत्पत्ति ओर नाष दोनों ही संभव हो जाती है। न प्रलय के अभाव का प्रसंग रहता है सृश्टि में अभाव का। रेल के अध्यक्ष है और रेल है। परन्तु रेल का पूर्व, पष्चिम, उत्तर, दक्षिण को दौड़ना, न दौड़ना, कभी दौड़ना, कभी रूकना, यात्रियों की आवष्यकताओं के आधीन है। इस दृश्टान्त को विस्तार के साथ घटा लीजिये। समस्त आक्षेप निरस्त हो जायेगे। यही बात षं॰ स्वा॰ भी मानते हैं परन्तु अन्यत्र। देखोः-

वैशमय नैघृण्ये नेष्वरस्य प्रसज्येते। कस्मात्? सांपेक्षत्वात्। यदि हि निरपेक्षः केवल ईष्वरों विशमां सृश्टि निर्मिमीते स्यातामेतौ दोशौ वैशम्यं विद्र्यृण्यं च। न तु निरपेक्षस्य निर्मातृत्वमस्ति। सापेक्षो हीष्वरो विशमां सृश्टिं निर्मिमीते। किमपेक्षित इति चेत्। धर्माधर्मावपेक्षित इति वदामः।        (षां॰ भा॰ 2।1।34 पृश्ठ 219)

ईष्वर में विशमता और निर्दयता का दोश नहीं आ सकता। क्यों? अपेक्षा से। यदि ईष्वर बिना किसी की अपेक्षा के सृश्टि बनाता तो उस पर दोश आता कि उसने कहीं कुछ कही कुछ कयों बनाया? वह निर्दयी है। परन्तु वह तो धर्म और अधर्म की अपेक्षा से सृश्टि बनाता है।

यह अदृश्ट भ्ीा इन्हीं धर्म, अधर्म के अनुसार बनता है।

(7)

परमाणुओं की नित्यता।

षं॰ स्वा॰-यदि लोके रूपादिमद्वस्तु तत्स्वकारणाापेक्षया स्थूलमनित्यं च दृश्टम्। तद् यथा पटस्तन्तूनपेक्ष्य स्थूलोऽनित्यअष्वभवति तन्तवष्वांषूनपेक्ष्य स्थूला अनित्याष्च भवन्ति। यथाचामी परमाणवो रूपादिमन्तस्तैरभ्युपगम्यन्ते, तस्मात् तेऽपि कारणवन्तस्तदपेक्षया स्थूला अनितयाष्च प्रात्नुवन्ति। यच्च नित्यत्वे कारणं तैरूक्तम्-”सक्ष्कारणवन्नित्यम्“ (वै॰ सू॰ 4।1।1) इति। ततप्येवा सत्यणुशु न संभवति। उक्तेन प्रकारेणाणूनामपि कारणवत्त्वोपपत्तेः।

(षां॰ भा॰ 2।2।15 पृश्ठ 234)

अर्थः-लोक मे देखा जाता है कि रूप आदि वाली स्थूल वस्तुयें अपने कारण की अपेक्षा स्थूल और अनित्य होती है। जैसे कपड़ा सूत की अपेक्षा स्थूल और अनित्य है और सूत छोटे-छोटे रूई के कणों की अपेक्षा स्थूल और अनित्य है। इसी प्रकार रूप आदि वाले परमाणु भी अपने कारण की अपेक्षा स्थूल और अनित्य होगे। और उन पर ‘सत्, कारण रहित, नित्य’ यह लक्षण ने घट सकेंगे क्योंकि उनका एक और कारण होगा जो उनकी अपेक्षा सूक्ष्म और नित्य होगा और यह उसकी अपेक्षा स्थूल और अनित्य होगे। इसलिये परमाणुओं को नित्य मानना ठीक नहीं।

हमारी आलोचना-क्या कार्य से कारण की ओर वापिस चलने में कहीं विराम न होगा? चलते ही जायेगें? जब यह मान लिया कि कार्यरूप कपड़ा कारणरूप तन्तुओं की अपेक्षा स्थूल और अनित्य है तो अर्थापत्ति से यह भी सिद्ध हो गया कि तन्तु सूक्ष्म और अधिक नित्य है। सापेक्षित स्थूलता और अनित्यता सापेक्षक सूक्ष्मता और नित्यता को सिद्ध करती है। इस प्रकार रूई के कारण अधिक सूक्ष्म और नित्य हुये। इसी प्रकार चलते-चलते आप सूक्ष्मतम और नित्यतम वस्तु तक अवष्य पहुँचेेंगे उसी का नाम परमाणु है। यह तो इतनी स्पश्ट बात है कि इसका खण्डन ही नहीं हो सकता। आप की युक्ति ‘लोके’ इस षब्द से आरम्भ होती है। लोक में तो यही देखते है इसीलिये तो कहना पड़ा कि इसका खण्डन ही नहीं हो यही देखते है। इसीलिये तो कहना पड़ा कि ‘मूले मूलाभावादमूलं मूलम्’ अर्थात् जड़ की जड़ नहीं होती। अतः जड़ को अमूल कहते है। या यों कह सकते हैं किः-

‘कारणे कारणाभावादकारणं कारणम्’

अर्थात् कार्य का कारण होता है कारण का कारण नहीं होता। जब तक किसी वस्तु का कार्य होनार सिद्ध न हो जाय उसके कारण की खोज करना भूल है। तन्तु पट का कारण है। परन्तु तन्तु के स्वरूप को देखने से पता चलता है कि यह कार्य भी है। अतः कार्य होने के कारण उसका कारण खोजा जाता है न कि कारण होने के कारण। यह युक्ति तो इसी प्रकार की है जैसे नास्तिक लोग कहा करते हैं कि यदि जगत् को ईष्वर ने बनाया तो ईष्वर को किसने बनाया? उनको यह नहीं पता कि यदि जगत् का कार्यत्व सिद्ध न होता तो हम कभी जगत् के कत्र्ता की खोज न करते। इसलिये वैषेशिक के सूत्र में कोई अषुद्धि नहीं।

षं॰ स्वा॰-यदपि नित्यत्वे द्वितीयं कारणमुक्तम्-”अनितयमिति च विषेशतः प्रतिशेधाभावः“ (वै॰ 4।1।4) इति। तदपि नावष्यं परमाणूनां नित्यत्वं साधयति। असति हि यस्मिन्कारिमँष्चि न्नितये वस्तुनि नित्यषब्देन न´ाः समासो नोपपद्यते। न पुनाः परमाणुनित्यत्वमेवापेक्ष्यते। तच्चास्तयेव नित्यं परमकारणं ब्रह्म। न च षब्दाथव्यवहारमात्रेण कस्यचिदर्थस्य प्रसिद्धिर्भवत्ति, प्रमाणान्तर सिद्धयोः षब्दार्थयोव्यवहारावतारात्।

(षां॰ भा॰ 2।2।15 पृश्ठ 234)

अर्थः-यह जो परमाणु के नित्यत्व में दूसरा कारण दिया कि ‘अनित्य’ षबद कहने से ही नित्य की सिद्धि होती है। अर्थात् यदि कोई चीज नित्य न होती तो उसके साथ ‘न’ कार लकार अनित्य न बनाते। इससे भी यह सिद्ध नहीं होता कि परमाणु अवष्य ही नित्य सिद्ध हो जायँ। यदि कोई नित्य वस्तु हो ही न तो नित्य षब्द के साथ न´ा् सभास न लगेगा। इससे यह भी सिद्ध नहीं होता कि परमाणु नित्य है क्योंकि परम कारण ब्रह्म तो नित्य है ही। केवल किसी षब्द और अर्थ के व्यवहार मात्र से किसी अर्थ की सिद्धि नहीं हो सकती। जब तक किसी अन्य प्रमाण से उसकी सिद्धि न हो जाय।

हमारी आलोचना-वैषेशिक के जो सूत्र मिलते हैं उनमें ‘प्रतिवेधभावः’ है ‘प्रतिशेधाभावः’ नहीं। सम्भव है श्री षं॰ स्वा॰ को ऐसा ही पाठ मिला हो। इसकी व्याख्या आनन्द गिरि ने इस प्रकार की हैः-

कार्यमनित्यमिति कार्येविषेशतो नित्यत्वनिशेधी न स्याद्यदि कारणेऽप्यनित्यतवम्। अतोऽणूनां कारणानां नित्यतेति सूत्रार्थः।

अर्थात् यदि कारण भी अनित्य होता तो जैसा कारण अनित्य वैसा ही कार्य अनित्य, फिर कार्य में ‘अनित्य’ विषेशण लगाने की क्या आवष्यकता थी? कार्य की अनित्यता पर बल देने का अभिप्राय ही यह है कि कारण की नित्यता से कार्य में विषेशता उत्पन्न की जाय। इसलिये सिद्ध हुआ कि कारण अर्थात् परमाणु नित्य है। कारण और कार्य में यह भेदक-भित्ति है।

इस पाठ भेद से कुछ भेद नहीं पड़ता क्योंकि शंकर मिश्र ने उपस्कार में इस सूत्र का भाश्य करते हुये लिखा हैः-

तच्च न संभवतीति षेशः।

बात एक ही है। या तो ‘प्रतिशेधाभावः’ ऐसा कहो या ‘प्रतिशेधभावो न संभवति’ ऐसा कहो।

परन्तु षं॰ स्वा॰ का इस सूत्र का खण्डन ठीक नहीं। क्योंकि यह सूत्र ‘परमाणु की नित्यता’ ही सिद्ध करने के लिये नहीं लिखा गया अपितु,

सर्वमेवानित्यं नहि किंचिदपि नितयमिति मतं निरस्यति।                 (विवृति॰)

अर्थात् ‘सभी चीजें अनित्य हैं कोई भी नित्य नहीं’ इस बात का खण्डन इस सूत्र से किया गया है। सूत्रान्तर्गत युक्ति स्पश्ट है और ठीक है। यदि सभी पदार्थ अनित्य होते कोई नित्य न होता तो ‘अनित्य’ षब्द भी न होता। क्योंकि जितने षब्द है वे अपने वाच्य की अन्य पदार्थो से विषेशता बताते हैं। यदि संसार की समस्त वस्तुयें काली होती तो काला, पीला, लाल, सफेद ये षब्द भी न होते। इससे करण का नित्यतव सिद्ध है।

रही बात कि ‘ब्रह्म नित्य है, परमाणु नहीं।’ यह भी ठीक नहीं। क्योंकि ब्रह्म तो उपादान नहीं हो सकता। इसका हम कई स्थानों पर वर्णन कर चुके है। कोई युक्ति या दृश्टान्त अभिन्न-निमित्त-उपादान कारण को सिद्ध नहीं करता। अतः नित्य उपादान कारण परमाणुओं को ही मानना पड़ेगा।

श्री षं॰ स्वा॰ का यह कहना भी ठीक नहीं कि केवल षब्द के व्यवहार से कुछ नहीं होता जब तक अन्य प्रमाणों से कोई चीज सिद्ध न हो। क्योंकि प्रकृत युक्ति में कोई त्रुटि प्रतीत नहीं होती। जिस प्रतिपत्ति को सिद्ध किया गया है अर्थात् ”कुछ न कुछ नित्य अवष्य है“ उसकी युक्ति पर्याप्त है।

षं॰ स्वा॰-(1) यदपिनित्यत्वे तृतीयं कारणमुक्तम्-‘अविद्या च’ (वै॰ 4।15) इति, तद्यद्येवं विव्रीयेत सतां परिदृष्यमानकार्याणां कारणानां प्रत्यक्षेणग्रहणमविद्येति, ततो द्वîणृकनित्यताऽप्यपद्येत।

अर्थः- परमाणु के नित्यत्व का साधक है। यदि न दीख पड़ने से ही कोई चीज नित्य हो जाय तो द्वîणुक भी नहीं दीखते अतः वह भी नित्य होने चाहिये।

(2) अथाद्रव्यत्वे सतीति विषेश्येत तथाप्यकारणवत्त्वमेव नित्यता निमित्तमापद्येत। तस्य च प्रागेवोक्तत्वात् ‘अविद्या च’ इति पुनरूक्तं स्यात्।

यदि ‘अविद्या च’ इस सूत्र को इस प्रकार पढ़ा जाय ”अविद्या च अद्रव्यत्वेसति“ अर्थात् कारण का कारण नहीं होता अतः दिखाई नहीं पड़ता, तो यह बात हो ‘सदाकारणवन्नित्यम्’ (वै॰ 4।1।1) इसी सूत्र में बता दी गई। फिर एक दूसरा सूत्र बना कर उसी की पुनरूक्ति की क्या आवष्यकता थी?

(3) अथापि कारणविभागात् कारणविनाषाच्चान्यस्य तृतीयस्य विनाष हेतोरसंभवोऽविद्या सा परमाणूनां नित्यत्वं ख्यापयतीति व्याख्यायेत। नावष्यं विनष्यद्वस्तु द्वाभ्यामेव हेतुभ्यां विनश्टुमर्हतीति नियमोस्ति।

यदि कहो कि नाष के दो ही कारण है एक तो कारण का विभाग हो जाना (जैसे मकान की ईटें यदि अलग अलग हो जाये तो मकान का नाष हो जाय), दूसरा कारण का नश्ट हो जाना। परमाणु विभाज्य नहीं, और न उनका नाष होता है। तीसरा कोई हेतु संभव नहीं है इसलिए परमाणु नित्य है। तो यह ठीक नहीं क्योंकि वस्तु के नाष के यही दो हेतु नहीं है।

(4) संयोग सचिवेह्यनेकस्मिंष्च द्रव्ये द्रव्यान्तरम्यारम्भकेऽभ्युप गम्यमान एतदेवं स्यात्।

यह तो तभी हो सकता है जब मान लिया जाय कि दो चीजों के मिलने से ही तीसरी चीज बनती है।

(5) यदा त्वापास्तविषेशं सामान्यत्मकं कारणं विषेशवदवस्थान्तरमापद्यमानमारम्भकमभ्युपगम्यते।

परन्तु यदि यह माना जाय कि एक वस्तु पहले सामान्य मात्र थी, उसमें विषेशता कुछ न थी। फिर वह विषेश अवस्था में आ गई और कार्य बन गई। तो

(6) तदा घृत काठिन्य विलयनवन् मूत्र्यवस्था विलयनेनापि विनाष उपपद्यते।

(षां॰ भा॰ 2।1।18 पृश्ठ 205)

तो जिस प्रकार जमा हुआ घी पिघल कर विलय हो जाता है इस प्रकार भी नाष हो सकेगा।

हमारी समालोचना-पहले षं॰ स्वा॰ की युक्तियों को सरल भाशा में रख दिया जाय। शंकर स्वामी सिद्ध करना चाहते है कि परमाणु के नित्यत्व की जो युक्यिाँ वैषेशिक में दी हुई हैं वे सब गलत है। एक युक्ति यह है कि परमाणु के टुकड़े हो ही नहीं सकते। अतः कैसे नाष होगा। जब नाष न होगा तो परमाणु नित्य ठहरे। योंही तो अभाव हो न जायगा।

षं॰ स्वा॰ कहते है कि यदि चीजें कई चीजों के मिलने से ही बना करती तो यह बात ठीक थी। परन्तु चीजों के बनने की एक रीति यह भी है कि पहले एक वस्तु सामान्य रूप में हो उसमें विषेशता न आई हो। फिर उसकी अवस्था बदल जाय, उसमें विषेशता न थी। अब अवस्थान्तर हो गई। बर्फ बन गई। बर्फ के पिघलने से बर्फ का नाष हो गया। उसके टुकड़े टुकड़े अलग होने की आवष्यकता नहीं। यदि इसी प्रकार बर्फ जल हो सकती है तो जल एक तीसरी चीज जो सकता है। इस प्रकार आगे बढ़ते बढ़ते ब्रह्म तक पहुँच जायँगे। परमाणुओं की क्या आवष्यकता?

इस प्रकार षं॰ स्वा॰ ने गुण परिणामवाद का आश्रय लेकर आरम्भकवाद का खण्डन किया है।

परन्तु उनका यह कहना ठीक नहीं। यदि एक ही वस्तु ही। अनेक न हो। तो गुण परिणाम भी नहीं होता। यदि अकेला घी हो और ताप न हो तो घी न जमे, न पिघले; न जल जम कर बर्फ हो, न बर्फ पिघल कर जल बने। दूसरे यदि जल या घी के बिन्दु अलग अलग न हो तो भी जमने या पिघलने का प्रष्न नहीं उठता। जितने दृश्टान्त गुण परिणाम के मिलते है उनमें से कोई भी अखण्ड एक रस वस्तु के नहीं है। आष्चर्य है कि षं॰ स्वा॰ घी को अखण्ड एक पदार्थ मानते हैं। यदि ऐसा हो तो एक पात्र के घी को कई पात्रों मे बाँटा न जा सके। मिट्टी सामान्य है। उसमें घटत्व की विषेशता नहीं है। परन्तु यह कहना ठीक नहीं कि बिना आरम्भक क्रिया के केवल गुण परिणाम से घट बन गया। सामान्य में विषेशता आवेगी ही तब, जब उसके टुकड़ों का क्रम बदल दिया जाय। अतः गुण परिणाम और आरम्भक में ऊपरी भेद है। वास्तविक भेद नहीं। फिर शंकर स्वामी तो विवर्तवादी है। अतः उनका तो गुण परिणाम से भी काम नहीं चलता।

यदि कहो कि शंकर स्वामी पहले विवर्त मान कर फिर गुण-परिणाम मानते है, जैसे पहले स्वप्न देखा फिर उसमें कारण-कार्य की परम्परा चल पड़ी। तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि गुण परिणाम के पीछे तो विवर्त संभव है विवर्त के पीछे गुण परिणाम संभव नहीं। यह तो संभव है कि जल की बर्फ बन जाय और कोई धोखे से उसे रूई का गाला समझने लगे। परन्तु यह संभव नहीं कि बर्फ को रूई का गाला समझ कर कोई उसके कात कर कपड़ा बुन सके। यही कारण है कि स्वप्न की देखी हुई वस्तुओं में देष, काल, तथा कारण-कार्य की मर्यादा नहीं रहती।

(8)

परमाणु और भूत

षं॰ स्वा॰-एवमेतानि चत्वारि भूतान्युपचितापचित गुणानि स्थूल सूक्ष्म सूक्ष्मतरसूक्ष्मतमतारतम्योपेतानि च लोके लक्ष्यन्ते, तद्वत् परमाणवोऽप्युपचितापचितगुणाः कल्प्येरन्नवा।

(अ) कल्प्यमाने तावदुपचितापचित गुणत्वे परमाणुत्वसामयप्रसिद्धये यदि तावत् सर्व एकैकगुणा एव कल्प्येरंस्ततस्तेजसि स्पर्षस्योपलब्धिर्न स्यात्।

(इ) अथ सर्वे चतुर्गुणाएव कल्प्येरन्, ततोऽप्स्वपि गन्धस्योपलब्धिस्यात्।

(षां॰ भा॰ 2।2।16 पृश्ठ 235)

अर्थः-जैसे चार भूतो में किसी में कम गुण हैं किसी में अधिक, इस प्रकार कोई स्थूल है कोई सूक्ष्म, इसी प्रकार क्या उनके परमाणुओं में भी स्थूल सूक्ष्म का तारतम्य है

(अ) यदि तारतम्य मानो तो उनके परिमाण में भी तारतम्य होगा क्योंकि जिसमें अधिक गुण होगे उसका परिमाण बड़ा होगा।

(आ) यदि मानो कि सब मे समान गुण है तो या एक ही गुण सब में मानो। उस दषा में अग्नि में स्पर्ष न होगा, जल में रूप और स्पर्ष न होगा, पृथ्वी में रस, रूप तथा स्पर्ष न होगा। क्योंकि कारण के गुण कार्य में आते हैं।

(इ) या हर परमाणु में चारों गुण मानो, तो जल में गन्ध, अग्नि में गन्ध और रस, वायु में गन्ध, रस और रूप भी होना चाहिये। ऐसा नहीं है।

अतः परमाणुकारणवाद ठीक नहीं।

हमारी आलोचना-शंकर स्वामी ने तीन विकल्प दिये। चैथा छोड़ दिया। वही निर्दोश था। न तो हर परमाणु में एक गुण मानो न हर परमाणु में चारों गुण। अपितु भिन्न-भिन्न भूतों के भिन्न भिन्न परमाणु मानो और उनमें उस भूत का मुख्य गुण मानो। जैसे पृथ्वी के परमाणु का गुण गन्ध है, जल के परमाणु का रस, अग्नि के परमाणु का रूप, वायु के परमाणु का स्पर्ष। इन सब के संयोग से भूत बनते हैं। बने हुये भूतों में जो वायु के परमाणुओं से भूत बना वह सूक्ष्मतम वायु-भूत होने से केवल स्पर्षवान् हुआ। जिसमें वायु और अग्नि के परमाणु मिले वह अग्नि-भूत होने से रूप और स्पर्षवान् हुआ, जिसमें वायु अग्नि तथा जल के परमाणु मिले वह जल-भूत होने से स्पर्ष, रूप तथा रसवान् हुआ। और जिसमें वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी के परमाणु मिले वह पृथ्वी-भूत होने से स्पर्ष, रूप, तथा गन्धवान् हुआ। इन पांच भूतों के अपने अपने मुख्य गुण का ज्ञान त्वक्, चक्षु, रसन, प्राण तथा श्रोत्र इन्द्रियों से अलग अलग होता है।

यदि आप इस सिद्धान्त को दूशित समझते हैं तो आपके पास माया-विवर्त को छोड़कर और कोई सिद्धान्त नहीं रह जाता। और आपके इस सिद्धान्त में इतने दोश है कि अन्त में आपको अनिर्वचनीयता का आश्रय लेना पड़ता है। अनिर्वचनीय कह कर पल्ला छुड़ाना तो दार्षनिक मनोवृत्ति के सर्वथा विपरीत है।

(9)

वैषेशिक के छः पदार्थ

(1) वैषेशिकास्तन्त्रार्थभूतान् शट्पदार्थान् द्रव्य गुण कर्म सामान्य विषेश समवायाख्यान्, अत्यन्त भिन्नान्, भिन्नलक्षणान्, अभ्युपगच्छन्ति। यथा मनुश्योऽष्वः षष इति।

(2) तथात्वं चाभ्युगम्य तद् विरूद्धं द्रव्याधीनत्चं षेशाणामभ्युपगच्छन्ति। तन्नोपपद्यते।

(षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 235-236)

अर्थ-(1) वैषेशिक लोग छः पदार्थ मानते हैं द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विषेश, समवाय। इन के भिन्न-भिन्न लक्षण करते है। इन को इतना ही भिन्न मानते है जैसे मनुश्य, घोड़ा, खरगोष।

(2) ऐसा मानकर भी द्रव्य के आधीन षेश पांचों को मानते हैं। यह ठीक नहीं।

(3) अथ भवति द्रव्याधीनत्वं गुणादीनां ततो द्रव्यभावे भावाद् द्रव्याभावेऽभावाद् द्रव्यमेव संस्थानादि भेदादनेक षब्द प्रत्यय भाग् भवति। यथा देवदत्त एक एव सन्नवस्थान्तरयोगादनेक षब्द प्रत्ययभाग् भवति तद्वत्।             (पृश्ठ 236)

जब गुण कर्म आदि पांचो द्रव्य के आधीन हैं तो द्रव्य के होते हुये होंगे; द्रव्य के न होते हुये न होंगे, तो इसका अर्थ तो यही हुआ कि द्रव्य ही संस्थान-भेद से अनेक षब्द का वाच्य होगा जैसे देवदत्त भिन्न भिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न षब्दों से पुकारा जाता है।

वैषेशिक का पूर्वपक्षः-ननु अग्नेरन्यस्यापि सतो धूमस्याग्न्यधीतत्वं दृष्यते।    (पृश्ठ 236)

धुआं अग्नि से भिन्न है फिर भी अग्नि के आधीन है।

षां॰ उत्तरपक्ष-नैव द्रव्यगुणयोरग्नि-धूमयोरिव भेदप्रतीतिरस्ति।        (पृश्ठ 236)

अग्नि और धूम की प्रतीति तो अलग-अलग होती है द्रव्य और गुण की इसी प्रकार नहीं होती।

हमारी आलोचना-द्रव्य, गुण, कर्म आदि भिन्न पदार्थ तो है परन्तु मनुश्य, घोड़ा, खरगोष के समान भिन्नता नहीं। घोड़ा मनुश्य से उसी प्रकार भिन्न नहीं जैसे घोड़े का रंग घोड़े से भिन्न है। यह तो प्रत्यय-विधान पर विचार करने से ही स्पश्ट हो जाता है। मनुश्य और घोड़े का विशम दृश्टान्त भ्रमोत्पादक है। यह कहना ठीक नहीं कि संस्थान भेद से द्रव्य ही गुण आदि कहलाता है। क्योंकि यदि गुण, कर्म आदि भिन्न न मानो तो संस्था भेद भी कैसे होता? देवदत्त की भिन्न-भिन्न अवस्थाये भी तो कर्म आदि के भिन्नत्व के कारण है। जल और जल के प्रवाह को एकात्मता प्राप्त नहीं है। यदि गुण और गुणी को एक माना जाय तो दूध और मिठास तथा दूध और सफेदी एक होने ओर इस प्रकार मिठास और सफेदी को एक मानना पड़ेगा जो नितान्त निरर्थक है।

दूध = मिठास

दूध = सफेदी

मिठास = सफेदी।

(10)

अयुतसिद्ध का लक्षण

वैषेशिक का पूर्वपक्ष-गुणादीनां द्रव्याधीनत्वं द्रव्य गुणयोरयुतसिद्धत्वात्।

द्रव्य और गुण अयुत सिद्ध हैं अतः गुण द्रव्य के आधीन है।

षां॰ उत्तर पक्ष-(1) तत् पुनयुतसिद्धत्वमपृथग्देषत्वं वा स्यादपृथक्कालत्वं वाऽपृथक्स्वभावत्वं वा। सर्वथापि नोपपद्यते।

अयुतसिद्ध से क्या तात्पर्य है? देष की अपेक्षा अपृथक्त्व, या काल की अपेक्षा, या स्वभाव की अपेक्षा? तीनों दषायें नहीं बनती।

(2) अपृथग्देषत्वे तावत् स्वाभ्युपगमो विरूध्येत।………………तन्तवो हि कारणद्रव्याणि कार्यद्रव्यं पटमारभन्ते तन्तुगताष्व गुणाः षुक्लादयः कार्यद्रव्ये परे षुक्लादिगुणान्तरमारभन्त इति हि तेऽम्युपगच्छन्ति। सोऽम्युपगमो द्रव्य गुणयोरपृथग्देषत्वेऽम्युपगम्यमाने बाध्येत।

(षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 236)

अपृथग्देषत्व वैषेशिक के अपने ही सिद्धान्त को काटता है।……………इनका सिद्धान्त यह है कि कारण द्रव्य तन्तु कार्य द्रव्य वस्त्र को उत्पन्न करते है। ऐसा मानने से द्रव्य और गुण का अपृथग्देषत्व खण्डित हो जाता है।

हमारी आलोचना-यह आक्षेप ठीक नहीं। केवल षाब्दिक भूल-भुलावा है। द्रव्य और गुण का अपृथदेषत्व तो वैसा ही बना है। जहाँ तन्तु है वहीं तन्तु की सफेदी है। वहीं तन्तु से बना वस्त्र है और वहीं वस्त्र की सफेदी भी है। यह किसने कहा कि कपड़ा किसी और जगह है और उसकी सफेदी और जगह?

(3) अथापृथक्कालत्वमयुतसिद्धन्वमुच्येत सव्य दक्षिण योरपि गोविशाणयोरयुतसिद्धत्वं प्रसज्येत। (षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 236)

यदि अपृथक्कालत्व को अयुत सिद्धत्व माना जाय तो गाय के दाहिने और बांये सींग भी अयुत सिद्ध होंगे।

हमारी आलोचना-समकालीनतव का नाम अयुसिद्धत्व नहीं है। यो तो लन्दन की टेम्स ओर प्रयाग की गंगा अयुत सिद्ध होंगे क्योंकि इनमें समय की दूरी नहीं है। गाय का दहिना सींग टूट सकता है बायाँ सींग बना रह सकता है। यह अयुत सिद्ध कैसे? क्या यह दृश्टान्त गुण और द्रव्य पर लागू हो सकता है?

(4) तथाऽपृथक् स्वभावत्वे त्वयुतसिद्धत्वे न द्रव्यगुणयोरात्म भेदः संभवति।

(षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 237)

यदि स्वभाव की अपेक्षा से अयुत सिद्ध मानो तो द्रव्य और गुण में भेद नहीं रहेगा।

हमारी आलोचना-यहाँ भी स्वभावैकत्व और स्वभावापेक्षितायुतसिद्धत्व में बहु भेद है। एक स्वभाव के हो सकते हैं कि वे सर्वप्रकारेण एक दूसरे से पृथक्् न हो सके जैसे द्रव्य और गुण। या मेज और उसकी लम्बाई। जहाँ मेज है वहाँ उसकी लम्बाई है। जब तक मेज की लम्बाई है तब तक मेल है। यद्यपि मज और लम्बाई एक (अनन्य) नही। मेज का स्वरूप और है, लम्बाई का और। मेज के प्रत्यय और लम्बाई के प्रत्यय (ज्ञान) में भी भेद है। कोई मेज को लम्बाई नहीं कहता, न लम्बाई को मेज। फिर भी दोनों के स्वरूप इस प्रकार के है कि उनमें पृथक्त्व की कल्पना हो ही नहीं सकती। यहाँ शंकर स्वामी ने तीन विकल्प उठा कर जो अयुत सिद्धतव का खण्डन किया वह दृश्टान्तों की विशमता के कारण स्वंय खण्डित हो गया।

(11)

समवाय और संयोग

षं॰ स्वा॰-नापि संयोगस्य समवायस्य वा संबन्धस्य संबन्धिव्यतिरेकेणास्तितवे किंचित् प्रमाणमस्ति। संबन्धिषब्द प्रत्ययव्यतिरेकेण संयोगसमवाय षब्द प्रत्ययदर्षनात् तया रस्तितवमिति चेत्।न। एकत्वेऽपि स्वरूप बाह्यरूपापेक्षयानेक षब्द प्रत्ययदर्षनात्। यथैकोऽपि सन् देवदत्तो लोके स्वरूपं संबन्धिरूपं चापेक्ष्यानेक षब्द प्रत्ययभाग् भवति, मनुश्यो, ब्रह्मणः श्रोत्रियो वदान्तो बालो युवा स्थविरः पिता पुत्रः पौत्रो भ्राता जामातेति। यथा चैकापि सती रेखा स्थानान्यत्वेन निविषमानैकदषषसहस्त्रादि षब्द प्रत्ययभेदमनुभवति।   (षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 237)

अर्थः- संबन्ध से इतर न तो संयोग संबन्ध के अस्तित्व का कोई प्रमाण है न समवाय संबन्ध के अस्तित्व का। यदि कहो कि षब्द अलग अलग है इसलिये इनके भाव भी अलग अलग होगे। तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न अपेक्षा से भिन्न-भिन्न नाम होते है। जैसे देवदत्त एक है परन्तु स्वरूप और सबन्धिरूप की अपेक्षा से अनेक षब्दों का वाच्य होता है। जैसे मनुश्य, ब्रह्मण, श्रोत्रिय, बालक, युवा, स्थविर, पिता, पुत्र, पौत्र, भ्राता, जमाता आदि। इसी प्रकार एक ही रेखा (अंक) भिन्न-भिन्न स्थानों पर रक्खी जाय तो इकाई, दहाई, सैकड़ा वा हजार का वाचक हो जाती है।

हमारी आलोचना-शंकर स्वामी दृश्टान्त देते है वैषेशिक सिद्धान्त की पुश्टि का और प्रदर्षन कर देते है उसके खण्डन का। यह शंकर स्वामी की तर्क षैली की विलक्षणता। काटतेक है अपना हाथ और षत्रु समझता है कि मेरा हाथ काट डाला। इसको कहते है षस्त्र चलाने का कौषल। यहाँ दो दृश्टान्त दिये एक देवदत्त का, दूसरा रेखा का। किसलिये? संबन्धि से इतर संबन्ध के अस्तितव के खण्डन में। परन्तु सिद्ध क्या हुआ? संबन्ध का अस्तित्व! स्वयं कहते जाते हैं कि देवदत्त के भिन्न भिन्न नाम उसके ‘संबन्धि रूप’ की अपेक्षा से हैं। अर्थात् यदि संबन्ध न होता तो संबन्धी कैसे होता? फिर उसकी अपेक्षा कैसे होती? फिर देवदत्त के अनेक नाम कैसे होते? इससे तो संबन्ध का अस्तित्व सिद्ध होता है न कि असिद्ध। यही रेखा के दृश्टान्त से सिद्ध होता है। क्या दस, सौ, हजार, एक ही वस्तु के भिन्न भिन्न नाम है? यदि कहो कि अपेक्षा से है तो यदि द्रव्य से इतर गुण आदि पदार्थ न माने जायँ तो किसकी अपक्षा होगी? यदि कहो कि द्रव्य को द्रव्य की ही अपेक्षा होगी तो भी प्रष्न होगा कि क्या एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से कुछ संबन्ध है या नहीं। यदि कहो ‘है’ तो इस संबन्ध का नाम देना पड़़ेगा, चाहे संयोग हो चाहे समवाय। यदि कहो कि कोई संम्बन्ध नहीं तो ‘अपेक्षा’ का क्या अर्थ होगा? सांराष यह है कि शंकर स्वामी ने वैषेशिक के छः पदार्थो के खण्डन में जो युक्तियाँ दी हैं सब निस्सार है।

(12)

परमाणु और प्रदेष

षं॰ स्वा॰-अण्वात्ममनसामप्रदेषतवान्न संयोगः संभवति प्रदेषवतो द्रव्यस्य प्रदेषवता द्रव्यान्तरेण संयोग दर्षनात्।       (षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 237)

अणु आत्मा और मन का संयोग नहीं हो सकता। क्योंकि संयोग केवल प्रदेष (टुकड़े) वाले द्रव्यों में ही होता है। अणु आत्मा और मन में प्रदेषों का अभाव है।

हमारी आलोचना-यह तो शंकर स्वामी ने मान ही लिया कि संयाग प्रदेष वाले द्रव्यों में होता है। अब प्रष्न यह है कि क्या यह संयोग द्रव्यों में होता हैं या द्रव्यों के प्रदेषों में? यदि कहो कि द्रव्यों के प्रदेष संयुक्त होते है तो क्या इन प्रदेषों के भी प्रदेष होते हैं या नहीं। ‘नहीं’ तो कह नहीं सकते क्योंकि प्रदेष सापेक्षक चीज है। षरीर की अपेक्षा से हाथ की अपेक्षा से उंगलियाँ, उंगलियों की अपेक्षा से उंगलियों के सिरे, उंगलियों के सिरों की अपेक्षा से उंगलियों के नख, नखों की अपेक्षा से नखों के सिरे। फिर संयोग तो अन्ततोगत्वा उन्हीं प्रदेषों का होगा जो सीमान्त पर है। वे प्रदेष तो फिर प्रदेषवान् न होंगे। जिस प्रकार प्रदेषो के ये सीमान्त संयुक्त हो सकते है उसी प्रकार परमाणु, मन और आत्मा में भी संयोग संभव है। बात बारीक थी, युक्ति मोटी दी। काट न सके। कुल्हाड़ी मार कर विद्युत् की धारा को कैसे काट सकते हैं?

(13)

संष्लेश का प्रष्न

षं॰ स्वा॰-द्वाभ्यां परमाणुभ्यां निरवयवाभ्यां सावयवस्य द्वîणुकस्याकाषेनेव संष्लेशानुपपत्तिः। न ह्याकाषस्य पृथिव्यादीना च जातुकाश्ठवत् संष्लेशोऽस्ति।

(षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 238)

अर्थः-दो निरवयव परमाणुओं का सावयव द्वîणुक के साथ उसी प्रकार संष्लेश नहीं हो सकता जैसे आकाष के साथ नहीं हो सकता। क्योंकि आकाष और पृथ्वी आदि का वही संबन्ध नहीं है जो काश्ठ और वार्निष का है।

हमारी आलोचना-यह आक्षेप पहले दिये हुये ‘प्रदेषवत्व’ आक्षेप का छोटा रूप है और संख्या वृद्धि के लिए किया गया है। जिस प्रकार दो परमाणु संयुक्त होकर द्वîणुक बना सकते हैं उसी प्रकार तीसरा परमाणु भी से संयुक्त हो सकेगा उसमे आपत्ति ही क्या है? ‘प्रदेषवत्व’ सम्बन्धी आक्षेप का हम ऊपर उत्तर दे चुके है। वस्तुतः इस आक्षेप में गाड़ी के पीछे घोड़ा जोता गया है। ‘प्रदेषत्व’ संयोग में निमित्त नहीं होता अपितु संयोग द्वारा उत्पन्न होता है, वह संयोेग में निमित्त नहीं होता अपितु संयोग द्वारा उत्पन्न होता है, वह संयोग का कार्य है कारण नहीं। जब तक संयोग न होगा प्रदेष भी न होगे। जब तक कई वस्तुयें न मिलें अवयव और अवयवी नहीं हो सकते। यह तो कहा जा सकता हैं कि जब परमाणु से आगे कोई विभाजन हो ही नहीं सकता और परमाणु किन्हीं दो चीजों से मिल कर नहीं बना तो वह प्रदेषवान नहीं है। पहले संयोग हो तब प्रदेषवतव हो। परन्तु यहाँ उलटी माँग है। कहते है कि प्रदेषवत्व नहीं तो संयोग कैसे होगा? हम तो ”कैसे?“ का यह उत्तर देते है कि लोक के टुकड़़ो से संयुक्त होकर मेज कैसे बनती है। इत्यादि।

अब प्रष्न है ‘संष्लेश’ का। ‘संष्लेश’ के यह लक्षण किये गये हैं-

संष्लेशः संग्रह एकाकर्शणेनापराकर्शणम्।

अर्थात् यदि कोई चीजें ऐसी मिल जायं कि एक दूसरे को आकर्शित करने लगे तो उसको संष्लेश कहते है। जैसे लकड़ी पर वार्निष लगाई जाय तो  लकड़ी की वार्निष को पकड़ लेती है और वार्निष लकड़ी को। वार्निष और लकड़ी के संष्लेश का दृश्टान्त देकर तो षं॰ स्वा॰ ने संष्लेश को और सुदृढ़ कर दिया। यदि कोई पूछे कि परमाणु का द्वयणुक से कैसे संष्लेश होता है? तो हम उत्तर देंगे ”जतुकाश्ठवत्“। जैसे वार्निष के परमाणुओं का लकड़ी के परमाणु के साथ होता है।

(14)

समवाय और अन्योन्याश्रय दोश

वैषेशिक का पूर्वपक्षः-काय्र्यकारणद्रव्ययोराश्रिताश्रयभावोऽन्यथा नोपपद्यत इत्यवष्यं कल्प्यः समवायः इति।    (पृश्ठ 238)

अर्थः-काय्र्य कारण में आश्रित आश्रय भाव अन्यथा न हो सकेगा अतः समवाय सम्बन्घ की कल्पना आवष्यक हो गई।

षं॰ स्वा॰ का उत्तर पक्षः-न, इतरेतराश्रयत्वात्। कार्यकारणयोर्हिभेदसिद्धावाश्रिताश्रयभावसिद्धिराश्रिताश्रयभावसिद्धौ च तयोर्भेदसिद्धिः कुण्डवदरवद् इति इतरेतराश्रयतास्यात्।        (पृश्ठ 238)

अर्थः-ऐसा नहीं। इसमें तो अन्योन्याश्रय दोश है। काय्र्य कारण का भेद सिद्ध हो गया तब आश्रित-आश्रय भाव की सिद्धि हुई। और जब आश्रिय-आश्रय भाव सिद्ध हो गया तब कार्य-कारण के भेद की सिद्धि हुई।

हमारी आलोचना-इसमें अन्योन्याश्रयदोश नहीं। काय्र्य-कारण का सम्बन्ध और अश्रित-आश्रय का सम्बन्ध दो अलग अलग सम्बन्ध नहीं। एक ही सम्बन्ध के दो नाम है। इस सम्बन्ध को समवाय सम्बन्ध कहते है। सम्बन्ध तो स्वयं सिद्ध है। दो वस्तुयें होंगी तो उनमें कोई न कोई सम्बन्ध अवष्य होगा। जिनको आप सिद्ध-साधक कहते हैं और अन्योन्याश्रय दोश बताते हैं वे वस्तुतः वाच्य वाचक हैं। हम समवाय को साधक मान कर सम्बन्ध की सिद्धि नहीं करते अपितु स्वतः सिद्ध सम्बन्ध का ‘समवाय’ नाम रखते है।

आपका यह कहना कि वेदान्ती। लोग कारण और काय्र्य में भेद नहीं मानते ठीक नहीं। यदि ऐसा है तो ”जन्माद्यस्य यतः“ का क्या अर्थ कीजियेगा? और ब्रह्म को जगत् का क्या अर्थ कीजियेगा? और ब्रह्म को जगत् का अभिन्न-निमित्त-उपादान-कारण कैसे मानेंगे? आप मानते कुछ हैं और कहते कुछ हैं।

(15)

परमाणु और दिषायें

षं॰ स्वा॰-परमाणूनां परिच्छिन्नत्वाद् यावत्यो दिषः शडश्टौ दष वा तावöिरवयवः सावयवास्ते स्युः सावयवत्वाद नित्याष्चेति नित्यतवनिरवयवतवाभ्युपगमो बाध्येत।

(षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 238)

अर्थ-परमाणु परिच्छिन्न एकदेषी है अतः उसमें छः, आठ या दष दिषायें होंगी। दिषाओं के कारण अवयव मानने पड़ेंगे। सावयव वस्तु अनित्य होती है। इससे वैषेशिक का यह सिद्धान्त खण्डित हो जायगा कि परमाणु निरवय और नित्य है।

हमारी आलोचना-परमाणुवाद के विरूद्ध यह सबसे प्रबल युक्ति समझी जाती है परन्तु है यह युक्त्याभास मात्र। जब तक किसी वस्तु में अवयव न मान लो दिषाओं की कल्पना ही नहीं हो सकती। जब तक किसी वस्तु के दो सिरों में व्यवधान न माना जाय यह नहीं कहा जा सकता कि यह पूर्व है और यह पष्चिम। निरवयव वस्तु में कोई बीच का व्यवधान नहीं। वहाँ तो सब दिषायें मिलती हैं। याद रखना चाहिये कि पूर्व और पष्चिम दिषाओं का ज्ञान अपेक्षा से होता है जिसको एक अपेक्षा से पूर्व कहते है उसको दूसरी अपेक्षा से पष्चिम भी कह सकते हैं। कानपुर दिल्ली से पूर्व है और प्रयाग से पष्चिम। निरवयव में अपेक्षा न होने के कारण दिषाओं का भेद भी नहीं हो सकता।

यदि आप कहें कि हम दिषाओं की कल्पना कर लेते हैं तो हम आपके ही षब्दों में कहेंगेः-

अविद्यमानार्थकल्पनायां सर्वाथसिद्धिप्रंसगत्          (षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 237)

अर्थात् जो है नहीं उसकी जितनी चाहो कल्पना किये जाओ। कोई सीमा तो है नहीं। ऐसी उच्छृखल कल्पना पर कुछ विचार नहीं हो सकता। मन के लड्डू हैं जितने चाहें बना लीजिये।

षं॰ स्वा॰-यांस्त्वं दिग्भेदभेदिनोऽवयवान् कल्पयसि त एव परमाण इति चेत् ।न। स्थूल सूक्ष्मतारतम्य क्रमेणापरमकारणाद् विनाषोपत्तेः।

(षां॰ भा॰ 2।2।17 पृश्ठ 238)

अर्थः-यदि कहा जाय कि जिनको तुम दिषा-भेद करने वाले अवयव समझते हो वे ही परमाणु है तो यह ठीक नहीं क्योंकि स्थूल सूक्ष्म के क्रम के कारण इनका विनाष हो सकेगा।

हमारी आलोचना-हम स्थूल-सूक्ष्म क्रम के विशय में पहले कह चुके है। यह कोई नई युक्ति नहीं है। पिश्ट-पेशण है। यदि आप किसी विषेश वस्तु को सावयव मानेगे तो उसके अवयव भी मानने पड़ेगे। यदि उन अवयवों को भी सावयव मानो तो उनके भी अवयव होगे। इस पर सिलसिला जारी रहेगा और अनवस्था दोश आयेगा। यदि कहीं विराम लेगे तो वही निरवयव सिद्ध होगा। उसी को परमाणु कहेंगे। वह अनित्य नहीं होना चाहिये।

इसी प्रसंग में षं॰ स्वा॰ ने 2।2।17 के भाश्य के अन्त में घृतकाठिन्य आदि पुरानी युक्तियो को दुहरा दिया है। हम इनकी मीमांसा ऊपर कर चुके है।

(16)

ईष्वर, वेद और वैषेशिक

षं॰ स्वा॰-तदेवमसारतरतर्क संदृब्धत्वाद्, ईष्वरकारण श्रुति विरूद्धत्वात्, श्रुतिप्रवणौष्व षिश्टैर्मन्वादिभिरपरिगृहीतत्वाद्, अत्यन्तमेवानपेक्षास्मिन् परमाणु कारणवादे कार्या श्रेयोर्थिमिरिति वाक्यषेशः।

(षां॰ भा॰2।2।17 पृश्ठ 238)

अर्थ-इस प्रकार तर्क से विरूद्ध, ईष्वर विशयक श्रुतियों से विरूद्ध, षिश्ट लोगों से अमान्य होने के कारण परमाणु कारणवाद का तिरस्कार करना चाहिये।

हमारी आलोचना-युक्तियों की सारता तो हमारे कथन से सिद्ध हो गई। जो युक्तियाँ खण्डन में प्रस्तुत की गई सब आभासमात्र सिद्ध हुई।

वैषेशिक वेद और ईष्वर को मानता है। इसका उल्लेख न केवल विशय के आदि में ही है। अपितु अन्तिम सूत्र में पुनः दुहराया गया है।

इस सिद्धान्त के मानने वाले कणाद आदि और उनके भाश्यकार प्रषस्तपाद आदि षिश्ट ही थे। उनको अषिश्ट कहना अनुचित है।

(17)

वादरायण और वैषेशिक

अब एक बात रह गई। मान लो कि षांकर भाश्य ने वैषेशिक का खण्डन अनुचित किया। परन्तु यह भाश्य तो वादरायण के सूत्रों का ही है। जो दोश षं॰ स्वा॰ पर लगाते हो वही वादरायण पर भी लगेगा। हम कहते है कि यह बात नहीं। वादरायण के सूत्रों के दूसरे अध्याय के दूसरे पाद के 12वें से 17वें तक सब सूत्र देख जाइये न कणाद कर उल्लेख है न वैषेशिक का। ये छः सूत्र निम्न हैः-

(12) उभयथापि न कर्मातस्तदभावः।

(13) समवायाभ्युपगमाच्च साम्यादनवस्थिेतेः।

(14) नित्यमेव च भावात्।

(15) रूपादिमत्त्वाच्च विपर्ययो दर्षनात्।

(16) उभयथाच दोशात्।

(17) अपरिग्रहाच्चात्यन्तमनपेक्षा।

(18)

ईष्वर निमित्त कारण है

षं॰ स्वा॰-(1) तथा वैषेशिकादयोऽपि केचित् कथंचित् स्वप्रक्रियानुसारेण निमित्तकारणमीष्वर इति वर्णयन्ति। अत उत्तरमुच्यते ‘पत्युरसाम´जस्यात्’ इति। पत्युरीश्वरस्य प्रधान पुरूशयोरधिश्ठातृत्वेन जगत् कारणत्वं नोपद्यते। कस्मात्। असाम´जस्यात्।।    (षां॰ भा॰ 2।2।37, पृश्ठ 256)

अर्थः-वैषेशिक आदि कुल, किसी प्रकार, अपनी प्रक्रिया के अनुसार मानते हैं कि ईष्वर निमित्त कारण है। इसका उत्तर देते है कि ईष्वर को प्रधान और पुरूश के अधिश्ठाता के रूप में जगत् का कारण मानना ठीक नहीं। क्यो? इसमें असाम´जस्य है।

(2) किं पुनऽसाम´जस्यम्।

वह असाम´जस्य क्या है?

(3) हीन मध्यमोत्तमभावेन हि प्राणि भेदान् विदधत ईष्वरस्य रागद्वेशादि दोश प्रसक्तेरस्मदादिवदनीश्वरत्वं प्रसज्येत।             (पृश्ठ 256)

अर्थः- ईष्वर ने किसी को हीन, किसी को मध्यम और किसी प्राणि को उत्तम बनाया। इस प्रकार ईष्वर में हमारे समान राग द्वेश आ गया। फिर वह ईष्वर कैसा?

(4) प्राणिकर्मापेक्षितत्वाददोश्ज्ञ इति चेत्। न। कमेश्वरयोः प्रवत्र्यप्रवर्तयितृत्वे इतरेतराश्रय दोश प्रंसगत्।  (पृश्ठ 256)

अर्थ-यदि कहो कि यह भेद प्राणियों के कर्मो के कारण है तो कर्म और ईष्वर एक दूसरे में प्रवृत्ति उत्पन्न करने वाले होंगे। इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोश लगेगा।

(5) नानादित्वादिति चेत्। न। वर्तमान कालवदतीतेश्वपि कालेश्वितरेतराश्रय दोशाविषेशादन्धपरम्परान्यायापत्तेः। (पृश्ठ 257)

अर्थ-यदि कहो कि कर्म अनादि है तो भी बात नहीं बनती। जैसे वर्तमान काल में उसी प्रकार भूतकालों में भी एक दूसरे के आश्रित होने से अन्ध परम्परा चल पड़ेगी।

(6) अपिच ‘प्रवर्तंनालक्षणादोशाः’। (न्याय सू॰ 1।1।18) इति न्यायवित्समयः। नहि कष्चिददोशप्रयुक्तेः स्वार्थे परार्थे वा प्रवर्तमानों दृष्यते। स्वार्थ प्रयुक्त एव च सर्वोजनः परार्थेऽपि प्रवर्तत इत्येवमप्यसाम´जस्यं, स्वार्थवत्त्वादीश्वरस्यानीश्वरत्व प्रसंगत्।

(पृश्ठ 257)

अर्थ-न्याय का सूत्र है कि प्रवृत्ति से दोश उत्पन्न होते हैं। कोई चाहे स्वार्थ में प्रवृत्त हो चाहे परार्थ में, उसे दोश लगता ही है। जो परार्थ का काम करते है। उनमें भी स्वार्थ होता ही है। इसलिये ईष्वर में दोश लगता है।

(7) पुरूशविषेशत्वाभ्युप्रमाच्चेश्वरस्य पुरूशस्य चैदासीन्याभ्युपगमादसामा´जस्यम्।

(षां॰ भा॰ 2।2।27 पृश्ठ 256-57)

अर्थः-ईष्वर को पुरूश विषेश मानने से पुरूश के समान ईष्वर में भी उदासीनता का प्रसंग होगा।

हमारी आलोचना-पहले तो सूत्र के अर्थ पर आपत्ति है। सूत्र में ‘न’ नहीं है। फिर भी बहुत दूर से उसकी अनुवृत्ति ली गई है। इसमें हम को संदेह है। ‘पत्युः न, असाम´जस्यात्’ ऐसा कैसे हो गया?

दूसरे, शंकर स्वामी ने इस सूत्र को पाषुनपत्य सम्प्रदाय के खण्डन में लगाकर फिर अनावष्यकतया ही वैषेशिक के खण्डन में लगा दिया। और पांच आक्षेप किये जिन पर हमने 3, 4, 5, 6, 7, संख्या डाली है। इन आपत्तियां के विरूद्ध षं॰ स्वामी स्वयं ही लिख चुके है। देखियेः-

(1) यदि हि निरपेक्षः केवल ईष्वरो विशमां सृश्टि निर्मिमीते स्यातामेतौ दोशौ वैशम्यं निर्घृण्यं च। न तु निरपेक्षस्य निर्मातृत्वमस्ति। सापेक्षो हीश्वरो विशमां सृश्टि निर्मिमीते। किमपेक्षत इति चेत्। धर्माधर्मावपेक्षत इति वदामः। अतः सृज्यमानप्राणि धर्माधर्मापेक्षा विशमा सृश्टिरिति नायनीश्वरस्यापराधः। ईष्वररस्तु पर्जन्यवद् द्रश्टव्यः।

(षां॰ भा॰ 2।1।34, पृश्ठ 217)

अर्थ-यदि ईष्वर निरपेक्ष भाव से स्वयं अकेला ही सृश्टि बनाता उस पर पक्षपात या निर्दयता का दोश लगता। कि एक को हीन बनाया और दूसरे को अच्छा। परन्तु ईष्वर तो धर्म अधर्म की अपेक्षा से सृश्टि रचता है। जो जैसा करता है उसको वैसा ही फल मिलता है इसमें ईष्वर क्या अपराध है? वह तो बादल के समान एक सा बरसता है। गन्न गन्ने को उत्पन्न करात है और मिर्च-मिर्च को।

(2) प्राक् सृश्टेरविभागावधारणान्नास्ति कर्मं यदपेक्ष्य विशमा सृश्टि स्यात्।……………………………………………नैश दोशः। अनादित्वात् संसारस्य, भवेदेश दोशो यद्यादिमान संसारः स्यात्। अनादौ तु संसारे बीजांकुरवद्धेतु मöावेन कर्मणः सर्गवैशम्यस्य च प्रवृत्तिर्नविरूघ्यते।   (षां॰ भा॰ 2।1।35 पृश्ठ 218)

अर्थ – यदि कहो कि सृश्टि के पहले तो कर्म था ही नहीं जिसकी अपेक्षा से सृश्टि विशम होती । …………………तो यह दोश नहीं । क्योंकि संसार प्रवाह रूप से अनादि है । यदि संसार आदि वाला होता तो आक्षेप ठीक था । अनादि संसार में तो बीज, अंकुर के समान कर्म और विशमता की श्रंखला बनी रहती है और इन की प्रवृत्ति में विरोध नहीं आता ।

दूसरे अध्याय के पहले पाद के 34 और 35वें सूत्र में इन आक्षेपों का ऐसा युक्ति – युक्त समाधान करके दूसरे अध्याय के दूसरे पाद के 37वें सूत्र में इन्हीं आक्षेपों को फिर प्राबल्य के साथ दुहराना घोर परस्पर – विरोध है । परन्तु षं॰ स्वा॰ की यह विषेशता है कि जिस युक्ति से वह एक विपक्षी के आक्रमण से अपने को बचाते हैं उसी युक्ति से अन्यत्र दूसरे विपक्षी का प्रध्वंस भी कर देते हैं । वहाँ यह नहीं सोचते कि जिस युक्ति को अपने पक्ष में लगाया उसी को विपक्ष में कैसे लगाया जाय । विपक्षी को मारना चाहिये किसी षस्त्र से क्यों न सही ।

यहाँ एक बात रह जाती है । षं॰ स्वा॰ कहते हैं कि लोग परार्थ भी स्वार्थवष करते हैं । यह सर्वतन्त्र सिद्धान्त नहीं । बहुत से लोग भी बहुत सा उपकार बिना किसी स्वार्थ के करते हैं, मातायें तो बच्चे के पालन में कुछ भी स्वार्थ नहीं रखतीं । कहा जा सकता है कि वह इसलिये बच्चों का पालन करती है कि वृद्धावस्था मंे उनसे सहायता मिलेगी । परन्तु माताओं का परार्थ इस विचार से नहीं होता । मुर्गी को तो यह भी आषा नहीं होती फिर भी वह अपने बच्चे का निःस्वार्थ भाव से पालन करती है । परन्तु यदि प्राणियों में स्वार्थ हो भी तो भी क्या ईष्वर में भी स्वार्थ मानना ही चाहिये ?

यदि ईष्वर कर्म के अपेक्षा से फल देता है तो इसमें अन्योन्याश्रय भाव कैसा ? सृश्टि की रचना तो ईष्वर के अधीन रही । केवल कर्म के अनुसार रही । इसको आप भी मानते हैं इसमंे विकल्प सम्भव ही नहीं ।

आपने यह बात तो अनोखी ही कही कि ईष्वर भी पुरूश है और जीव भी पुरूश है अतः जीवन के अवगुण ईष्वर मंे भी आ जायेंगे । यह तो ऐसी ही बात हुई कि सिंह भी प्राणी है और बकरी भी प्राणी । इसलिए सिंह की सी क्रूरता बकरी में भी होनी चाहिये । केवल पुरूश कहलाने से ही ब्रह्म और जीव एक नहीं हो जाते । भेद भी तो है ।

षं॰ स्वा॰ – नहि प्रधान पुरूशव्यतिरिक्त ईष्वरोऽन्तरेण संबन्धं प्रधानपुरूशयोरीषिता । न तावत् संयोगलक्षणः संबन्धः संभवति, प्रधान पुरूशेष्वराणां सर्वगतत्वान्निरवयत्वाच्चं । नापि समवायलक्षणः संबन्धः आश्रयाश्रयि भावानिरूपणात् । नाप्यन्यः कच्ंिश्रंत् कार्यगम्यः संबन्धः, षक्यते कल्पयितु काय्र्यकारणभाव – स्यैवाद्याप्यसिद्धत्वात् ।।

(षां॰ भा॰ 2।2।38 पृश्ठ 257)

अर्थ – प्रधान और पुरूश से अतिरिक्त ईष्वर को माना जाय तो ईष्वर अधिपति नहीं हो सकता । इनमंे संयोग सम्बन्ध तो हो नहीं सकता । क्योंकि ईष्वर भी सर्वव्यापक ओर निरवयव, प्रधान भी सर्वव्यापक और निरवयव, पुरूश भी सर्वव्यापक और निरवयव । समवाय सम्बन्ध भी नहीं । क्योंकि आश्रय – आश्रयि सम्बन्ध का निरूपण नहीं हुआ और कोई सम्बन्ध है नहीं । काय्र्य – कारण सम्बन्ध सिद्ध नहीं ।

हमारी आलोचना – यद्यपि प्रधान और जीव सर्वव्यापक नहीं । तथापि ईष्यर सर्वव्यापक है अतः संयोग सम्बन्ध नहीं । परन्तु आश्रय, आश्रित या आधार – आधेय सम्बन्ध होने से इसको समवाय सम्बन्ध कह सकते हैं । यदि समवाय सम्बन्ध को केवल काय्र्य कारण अयुत-सिद्ध यदार्थों तक सीमित रक्खों तो व्याप्य व्यापक सम्बन्ध भी है । इससे ईष्वर के ईषत्व मंे तो कोई विघ्न नहीं पडता ।

षं स्वा॰ – ब्रह्मवादिनः कथमितिचेत् । न तस्य तादान्म्य लक्षणं संबन्धोपपत्तेः ।

(षंा॰ भा॰ 2।2।38 पृश्ठ 257)

अच्छा तो ब्रह्मवादी क्या सम्बन्ध मानते हैं ? तादात्म्य सम्बन्ध ।

हमारी आलोचना – तादात्म्य सम्बन्ध कैसे बनेगा ? यों तो कोई वस्तु जड ही न रहेगी और प्रत्येक जीव ईष्वर के समान सर्वज्ञ होगा । याद रखना चाहिये कि सब सम्बन्ध दो या अधिक वस्तुओं के बीच में होते हैं । एक वस्तु में कोई संबन्ध हो ही नहीं सकता । शंकर स्वामी स्वंय कहते हैं ‘‘द्वयायत्तत्वात् संबन्धस्य’’ (षां॰ भा॰ 2।2।17, पृश्ठ 237, पंक्ति 3) ‘संबन्ध’ षब्द स्वंय बताता है (बन्ध – बन्धने धातु) । दो खूँटे एक रस्सी से बंध सकते हैं एक खूंटा नहीं । अतः ‘तादात्म्य’ सम्बन्ध वस्तुतः कोई संबन्ध है ही नहीं । यह तो उपचार मात्र की भाशा है । संबन्ध कई प्रकार के होते हैं । व्याप्य व्यापक संबन्ध, आधारधेय संबन्ध, गुण गुणी सबंन्ध, काय्र्य – कारण – सम्बन्ध, अवयव – अवयवी संबन्ध । इनके या तो अलग अलग नाम रखिये । या यदि इनको दो कोटियों मंे ही विभक्त करना चाहते हैं तो व्याप्य – व्यापक के लिये ‘समवाय’ सम्बन्ध उपयुक्त है । परन्तु एक कोटि के अन्तर्गत यदि कई अन्य प्रकार के सम्बन्ध आते हैं तो उनमें परस्पर पूर्ण विविक्ति होनी चाहिये । अन्यथा विचार में अविवेक आ जायगा । अर्थात् यदि व्याप्य – व्यापक सम्बन्ध को समवाय सम्बन्ध कहा जाय तो इससे काय्र्य – कारण का सम्बन्ध न समझ लिया जाय । यदि समवाय को केवल कार्य कारण या गुण गुणी तक सीमित रखना चाहते हैं तो व्याप्य – व्यापक सम्बन्ध को अलग तीसरा सम्बन्ध कहिये क्योंकि यह आपके सीमित समवाय में नही आता न संयोग में । दार्षनिक विचारों मंे यदि यह विवेक न रक्खा जाय तो आगे चल कर गडबड हो जाती है । और ठीक मीमांसा नहीं हो सकती ।

Advaitwaad Khandan Series 4 : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

श्री स्वामी षंकाराचार्य जी ने वेदान्त दर्षन का जो भाश्य किया है उसके आरम्भ के भाग को चतुःसूत्री कहते है। क्योंकि यह पहले चार सूत्रों के भाश्य के अन्र्तगत है। इस चतुःसूत्री में भाश्यकार ने अपने मत की मुख्य रूप से रूपरेखा दी है। इसलिये चतुःसूत्री को समस्त षांकर-भाश्य का सार कहना चाहिये। वादराय-कृत चार सूत्रों के षब्दों से तो षांकर-मत का पता नहीं चलता। वे सूत्र ये हैंः-

(1) अथातो ब्रह्मजिज्ञासा-अब इसलिये ब्रह्म जानने की इच्छा है।

(2) जन्माद्यस्य यतः-ब्रह्म वह है जिससे जगत् का जन्म, स्थिति तथा प्रलय होती है।

(3) षास्त्रायोत्विात्-वह ब्रह्म षास्त्र की योनि है अर्थात् वेद ब्रह्म से ही आविर्भूत हुये है।

(4) तत्तु समन्वयात्-ब्रह्म-कृत जगत् और ब्रह्म-प्रदत्त वेद में परस्पर समन्वय है। अर्थात् षास्त्र में कोई चीज नही जो सृश्टि-क्रम के विरूद्ध हो। सृश्टि से षास्त्र का और षास्त्र से सृश्टि का बोध होता है। दोनों को ब्रह्म की रचना कहना चाहिये। षास्त्र को षब्द-रचना और जगत् को अर्थ-रचना।

षांकर-चतुःसूत्री को षांकर वेदान्त की भूमिका या नींव कहना चाहिये। श्री षंकराचार्य जी ने पहले इस भूमिका को दृढ़ किया है। फिर अपने मत का विषाल भवन बनाया है। इसलिये जो कोई षांकर-वेदान्त की मीमांसा करना चाहे पहले उसे चतुःसूत्री की भली भाँति मीमांसा करनी चाहिये। प्रष्न तीन हैं।

(1) क्या चतुःसूत्री मे जो प्रतिपत्तियाँ स्थापित की गई हैं वे निर्दोश हैं?

(2) क्या उनकी सिद्धि उपनिशदों से होती है?

(3)  क्या वादरायण के उन चार सूत्रों के षब्दों से यह प्रतिपत्तियाँ निकलती हैं?

ये प्रतिपत्तियाँ क्या है? उन्ही के षब्दों मे पहली प्रतिपत्ति सुनियेः-

1-पहली प्रपिपत्ति

अस्मत् प्रत्ययगोचरे विशयिणि चिदात्मके युश्मत्प्रत्यय गोचरस्यविशयस्य तद्धर्माणां चाध्यासः। तद् विपर्ययेण विशयिणस्तद्धर्माणं च विशयेऽध्यासों मिथ्येति भवितुं युक्तम्। तथाप्यन्तोन्यस्मिन्न न्योन्यात्मकतामन्योन्यधर्माष्चध्यस्तेरेतराविवेकेन, अत्यन्त विविक्तयोर्धर्मधर्मिणोर्मिथ्याज्ञानानमित्तः सत्यानृते मिथुनीकृत्य, अहमिदं ममेदमिर्ति नैसर्गिकोऽयं लोकव्यवहारः।

(उपोद्घात पृश्ठ 1)

अहंभाव के द्योतक चेतन विशयी मे तुम भाव के द्योतक विशय का तथा उसके धर्मो का अध्यास मिथ्या है। और विशय मे विशयी तथा उसके धर्मो का भी अध्यास मिथ्या है। परन्तु लोक में ऐसा नैसर्गिक व्यवहार है कि विवके-षून्यता के कारण मिथ्या द्वारा एक दूसरे में एक दूसरे के धर्माे का अध्यास करके ही ‘मैं यह हूँ’, ‘यह मेरा है’ आदि आदि का प्रयोग किया जाता है। इस प्रतिपत्ति को स्पश्ट करने की आवष्यकता है। संसार में दो चीजें है। एक विशयी और दूसरा विशय। ‘मैं सूर्य को देखता हूँ।’ इस व्यापार में ‘सूर्य’ विशय है और ‘मैं’ विशयी। मैं ‘अस्मत् प्रत्ययगोचर’ हूँ। ओर सूर्य ‘युश्मत्-प्रत्ययगोचर’ इसी प्रकार अन्य पदार्थो को लेना चाहिये। एक ज्ञाता और दूसरा ज्ञेय। श्री षंकराचार्य जी का कहना है कि विशयी और विशय अलग-अलग हैं। वे ‘अत्यन्त विविक्त’ है। उनमें तथा उनके धर्मो में कोई समानता नहीं। परन्तु अज्ञानवष लोग विशय में विशयी का और विशयी में विशय का अध्यास अर्थात् मिथ्या कल्पना कर लेते है। ‘मैं सूर्य को देखता हूँ’ भिन्न है। मैं सूर्य नही, सूर्य मैं नहीं। सूर्य के धर्म मेरे नहीं। मेरे धर्म सूर्य धर्म नहीं। फिर मुझमें और सूर्य में ऐसा सम्बन्ध ही कैसे हो सकता हे कि मैं सूर्य को देखता हूँ। अब यदि मंै यह कहता हूँ कि मैं सूर्य को देखता हूँ तो मानों मैं अपने में सूर्य का अध्यास (मिथ्या कल्पना) कर रहा हूँ।

इस प्रतिपत्ति के अनुसार जगत् का मिथ्यात्व सिद्ध है।

श्री षंकराचार्य जी ने गौड़पादीय निम्नकारिका का इस प्रकार स्पश्टीकरण किया हैः-

अन्तः स्थानात्तु भेदानां तस्माज्जागरिते स्मृतम्।

यथा तत्र तथा स्वप्ने संवृतत्वेन मिद्यते।।

जाग्रद् दृष्यानां भावानां वैतथ्यमिवि प्रतिज्ञा। दृष्यत्वादिति हेतुः। स्वप्न दृष्य भाववदिति दृश्टान्तः।

अर्थात् जागते में जो दृष्य देखते है वे मिथ्या हैं। हेतु यह है कि वे दिखाई पड़ते है। जैसे स्वप्ने में देखी हुई चीजे मिथ्या होती हैं इस प्रकार जागते में भी जो दृष्य दिखाई पड़ते हैॅं, वे मिथ्या है।

इससे क्या परिणाम निकला? सुनियेः-

(1) तमेतमेवं लक्षणामध्यासं पण्डिता अविद्येति मन्यन्ते।

(पृश्ठ 2)

(2) न चानध्यस्तात्मभावेन देहेन कष्चिद् व्याप्रियते।

(पृश्ठ 3)

(3) तस्मादविद्यावद् विशयण्येव प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि षास्त्राणि च।

(पृश्ठ 4)

अर्थात् (1) इस अध्यास को ही पण्डित लोग अविद्या कहते है।

(2) जब तक देह में आत्माभाव का अध्यास न किया जाय कोई व्यापार नहीं हो सकता।

(3) इसलिये प्रत्यक्ष आदि प्रमाण तथा षस्त्रा अविद्यावत् विशय ही हैं।

(4) एवमयमनादिरनन्तो नैसर्गिकोऽध्यासों मिथ्याप्रत्ययरूपः कर्तृत्वभोक्ृतत्व प्रवर्तकः सर्वलोक प्रत्यक्षः।

(पृश्ठ 4)

यह अध्यास मिथ्या है परन्तु अनादि अनन्त और नैसर्गिक है। इसी से मनुश्य की कर्तृत्व और भोक्ृतत्व में प्रवृत्ति है। यह सब लोक में प्रत्यक्ष है।

यह तो स्पश्ट ही है कि वादरायण के सूत्रों के किसी षब्द से इस प्रतिपत्ति की झलक तक नहीं मिलती। परन्तु हमारा कहना है कि इस प्रतिपत्ति की स्थापना में जो हेतु दिये है वे सब अयुक्त (गलत) है।

श्री षंकराचार्य इस हेतु से आरम्भ करते हैः-

युश्मदस्मत् प्रत्ययगोचर योर्विशय विशयिणोस्तमः प्रकाशवद् विरूद्ध स्वभावयोरितरेतभावानुपपत्तैत्तौ सिद्धायां तद्धर्माणामपि सुतरामितरेतरभावानुपपत्तिरिति।

अर्थात् जैसे अँधेरे और उजाले में परस्पर विरोध है। उसी प्रकार विशय और विशयी में भी विरोध है और उनके धर्माें में भी विरोध है। इसलिये एक दूसरे के भावों की अनुपपत्ति है।

यहाँ सब से भारी भूल है दृश्टान्त चुनने में। अन्धकार और उजाला परस्पर विरोधी हैं परन्तु विशय परस्पर विशयी नही। भिन्नता और विरोध है ऐसा ही विशय और विशयी में भी विरोध है। उजाला ओर प्रकाष मिल नहीं सकते। प्रकाश आते ही उजाला भाग जाता है परन्तु विशय आते ही विशयी नहीं भाग जाता। यह ठीक है कि मैं सूर्य नहीं। परन्तु मेरा और सूर्य का परस्पर विरोध भी नहीं है। यदि प्रकाष न हो तो अँधेरा होगा। यदि अँधेरा न हो तो उजाला होगा। अधेरा और उजाला साथ नहीं रह सकते परन्तु यदि विशयी न हो तो विशय न रहेगा और यदि विशय न हो तो विशयी न रहेगा। विशय और विशयी का परस्पर सम्बन्ध है। वह सम्बन्ध अँधेरे और उजाले में नहीं हॅै। सम्बन्ध दो भिन्न वस्तुओं में ही हो सकता है। एक ही वस्तु हो तो सम्बन्ध कैसा? सम्बन्ध न अध्यास है अध्यास जन्य।

जब भूमिका की सबसे पहली ईंट ही निर्बल है तो आगे दीवार कैसे ठहरेगी?

अब अध्यास को लीजिये। अध्यास के जो लक्षण श्री षंकराचार्य जी ने किये है उन सब को हम माने लेते है, क्योंकि उनके कथनानुसार

सर्वथापि व्वन्यस्यान्यधर्मावभासतां न व्यभिचरति। (पृश्ठ 2)

अर्थात् अध्यास के विशय में कोई सिद्धान्त क्यों न ठीक हों एक बात तो सब लक्षणों में समान है अर्थात् अन्य में अन्य के धर्माे की प्रतीति। जैसे सीपी में चाँदी की प्रतीति।

परन्तु मुख्य प्रष्न तो यह है कि क्या अध्यास ‘अनादि,’ ‘अनन्त’ और ‘नैसर्गि’ है जैसे श्री षंकर स्वामी ने माना है। हमको सीपी में चाँदी की भी प्रतीति होती और सीपी की भी। सांप हमको सांप भी प्रतीत होता है और रस्सी भी। रस्सी कभी रस्सी ही दृश्ट पड़ती है और कभी सांप भी। ऐसा व्यवहार अनादि, अनन्त और नैसर्गिक क्यों माना जावे? यदि यह व्यवहार अनादि और अनन्त है तो इसका अन्त न हो सकेगा और श्री षंकराचार्य जी का यह कथन सर्वथा अनुपयुक्त होगा कि

अस्यानर्थहेतोः प्रहाणाय आत्मैकत्वविद्या प्रतिपत्तये सवेैवेदान्ता आरभ्यन्ते।

(पृश्ठ 4)

‘अनन्त’ का ‘प्रहाण’ कौन कर सकता है और वह भी नैसर्गिक का। अग्नि की उश्णता अनादि, अनन्त और नैसर्गिक है। इसका तिरोभाव तो हो सकता है परन्तु ‘प्रहाण’ कैसे होगा? दूसरी बात यह है कि अनादि, अनन्त और नेैसर्गिक व्यवहार मे अध्यास की सिद्धि कैसे होगी? यह रस्सी में सांप की प्रतीति अनादि, अनन्त और नैसर्गिक व्यवहार हो तो यह कैसे सिद्ध होगा कि वस्तुतः रस्सी है साँप प्रतीत हो रही है। क्योंकि जब देखा उसको साँप ही देखा। संदेह तो तब होता जब वही चीज कभी रस्सी दृश्ट पड़ती और कभी साँप। यदि एक वस्तु सदा ही साँप दिखाई पड़ती है तो न तो संदेह के लिये कोई स्थल है न कौनसी ख्याति है इसकी खोज की आवष्यकता।

श्री षंकराचार्य जी ने ‘अध्यास’ विशय में लोक के दो अनुभव दिये है। एकः

‘षुक्तिका हि रजतवदवभसते।’   (पृश्ठ 2)

सीपी चाँदी मालूम होती है। दूसरा

‘एकष्चन्द्रः सद्वितीयवत्’।  (पृश्ठ 2)

एक चाँदी के दो चाँद दिखाई पड़ते है।

क्या यह दोनों अनादि अनन्त और नैसर्गिक अध्यास के उदाहरण है? प्रायः तो सीपी सीपी ही मालूम होती है। यदि ऐसा न होता तो यह कह ही नहीं सकते थे कि वस्तुतः यह सीपी है चाँदी प्रतीत होती है। यदि चाँदी सदा दो दिखाई देते तो कौन कहता कि वस्तुतः एक है दो प्रतीत होते है। ‘सम्यक् ज्ञान’ और ‘प्रतीति’ में क्या भेद है? अनादि, अनन्त और नैसर्गिक तो सम्यक् ज्ञान ही हो सकता है अध्यास नही।

इस पर षंकर स्वामी ने बड़ा प्रबल पूर्णपक्ष उठाया है।

”कथं पुनः प्रत्यगात्मन्यविशयेऽध्यासो विशयतद्धर्माणाम्। सर्वो हि पुरोऽवस्थिते विशये विशयान्तरमध्यस्यति, युश्मत् प्रत्ययापेतस्य च प्रत्यगात्मनोऽविशयत्वं ब्रवीशि“ इति।

(पृश्ठ 2)

प्रष्न करते है कि ”अविशय में विशय का अध्यास कैसे हो सकता है? एक विशय में दूसरे विशय का अध्यास तो सभ मानते है। तुमने पहले ही कह दिया कि विशयी विशय सेे विरूद्ध है। अविशय है।“

प्रभु बड़ा स्पश्ट है और प्रबल है, इसका उत्तर सर्वथा असंगत और निर्बल है, सुनिये।

(1) पहला उत्तर –

न तावदयमेंकान्तेनाविशयः। अस्मत्प्रत्ययविशयत्वात्, अपररोक्षत्वाच्च प्रत्यगात्मप्रसिद्धेः।

(पृश्ठ 2)

आत्मा एकान्तेन (पूरा पूरा) अधिशय नहीं है ‘मैं हूँ’ यह ज्ञान भी तो विशय और विशयी हो गया। ‘मैं हूँ’ यह ज्ञान तो प्रत्यक्ष ही है। यदि यह बात है तो विशय और विशयी का अँधेरे उजाले का विरोध कहाँ रहा? वही विशयी भी है और विशय भी। ‘मैं हूँ’ इस बात का ज्ञान मुझको है। अर्थात् मैं ही विशय हूँ और मै ही विशयी। क्या मुझमें ‘अपनत्व’ का ज्ञान भी अध्यास कहा जायगा? यदि ऐसा हो तो अध्यास के लक्षण ”अतस्मिंस्तद्बुद्धिः“ न घट सकेंगे।

(2) दूसरा उत्तर और विचित्र है-

न चायमस्ति नियमः पुरोऽवस्थित एव विशयेविशयान्तरमध्यसितव्यमिति। अप्रत्यक्षेऽपि ह्याकाषे बालास्तलमलिनताद्यध्यस्यन्ति।      (पृश्ठ 2)

”यह नियम नही है कि जो विशय उपस्थित हो उसी में दूसरे विशय का अध्यास किया जाय। आकाष अप्रत्यज्ञ है फिर भी मूर्ख लोग उसमें रंग का अध्यास कर लेते हैं“ै।

यह दृश्टान्त सर्वथा दूशित है। जिस आकाष को मूर्ख लोग नीला नीला कहते है वह दार्षनिक आकाष तत्व व्यापक है उसको तो लोग जानते भी नहीं। और न उसका रंग नीला है। जो ‘आकाष’ तत्व व्यापक हे उसको तो लोग जानते भी नहीं। वह तो प्रत्यक्ष आकाष को ही नीला या मैला कहते हैं। एक षब्द के कई अर्थ होते है, दार्षनिक ‘आकाष’ और बोलचाल के ‘आकाष’ षब्द को एक दूसरे के अर्थ मे लेना और उसको दृश्टान्त बना कर उससे एक प्रपत्ति की स्थापना करना सर्वथा असंगत है।

यदि यह कहा जाय कि अनादित्व, अनन्त और नैसर्गिकत्व अध्यस्त उदाहरणों के लिये नहीं किन्तु आत्मा के अध्यासरूपी व्यापार के सामान्य स्वभाव के लिये है। जैसे आँख का काम है देखना। यह है नैसर्गिक। परन्तु किस विषेश वस्तु को देखना। यह दूसरी बात है। तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि यदि अध्यास आत्मा का अनादि, अनन्त ओर नैसर्गिक व्यापार हो तो उसका ‘प्रहाण’ कैसे हो सकेगा?

विशयी और विशय या ज्ञाता और ज्ञेय के सम्बन्ध मात्र को अन्धकार और प्रकाष से तुलना करना पहली मौलिक भूल है और उस सब को ‘अध्यास’ मानना दूसरी। वस्तुतः अन्धकार में कोई कभी प्रकाष में अन्धकार का।

श्री षंकराचार्य जी ने अध्यास के लक्षण किये हैः-

स्मृतिरूपः परत्र पूर्वदृश्टावभासः।       (पृश्ठ 1)

इस लक्षण को युश्मत् प्रत्यय और अस्मत् प्रत्यय में कैसे घटा सकते हैं। पूर्वदृश्ट (पहले देखा हुआ) क्या है और ‘परत्र’ क्या? अध्यास के लिये तीन चीजें चाहिये। (1) पूर्वदृश्ट (2) उसकी स्मृति (3) परत्र। मैंने पहले वास्तविक साँप देखा-यह हुआ पूर्वदृश्ट। मुझमें उसको स्मृति रही। दूसरा रस्सी ‘परत्र’ है जिसमें पूर्व दृश्ट स्मृति के कारण साँप का अध्यास हुआ। वर्तमान जगत् को मिथ्या सिद्ध करने के लिए आवष्यक है कि पहले कभी वास्तविक देखा गया हो। फिर उसकी स्मृति रही हो और उसके लिए ‘परत्र’ भी चाहिए। यदि वास्तविक जगत् पहले देखा था तो उस जगत् को सत्य मानना पड़ेगा। या आगे चलते जाओ तो अनवस्था दोश आयेगा। सारांष यह है कि यदि ”सत्य“ और ”अनृत“ का ”मिथुनीकरण“ नैसर्गिक लोकव्यवहार है तो इसके नैसर्गिकत्व का कोई कारण होना चाहिये। यदि कहो कि नैसर्गिक तो नैसर्गिक ही हेै। इसका कारण कैस? तो इससे छुटकारे का क्या अर्थ? और नैसर्गिक व्यवहार को मिथ्या कहने का क्या अर्थ ? यदि नैसर्गिक है तो ‘सत्यानृत’ का मिथुनीकरण नहीं। और यदि मिथुनिकरण है तो नैसर्गिक नहीं। यदि जल का जलतव नैसर्गिक है तो इसमें सत्य और अनृत का मेल कैसा?

प्रबल आक्षेपों का निर्बल उत्तर देखना हो तो षांकर चतुःसूत्री में मिलेगा। प्रष्न करते है-

”कथं पुनरविद्यावद्विशयाणि प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि षास्त्राणि चेति“।     (पृश्ठ 2)

अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाण और षास्त्र अविद्यावत् कैसे?

बड़ा कठिन प्रष्न है। यदि प्रत्यक्ष है तो अविद्यावत् नहीं और यदि अविद्यावत् है तो प्रत्यक्ष नहीं।

इसका उत्तर सुनियेः-

(1) देहेन्द्रियादिश्वहंममाभिमानरहितस्य प्रमातृत्वानुपपत्तौ प्रमाण प्रवृत्त्यनुपपत्तेः।    (पृश्ठ 2)

(2) नहीन्द्रियाण्यनुपादाय प्रत्यक्षादिव्यवहारः संभवति।                  (पृश्ठ 2)

(3) नचाधिश्ठानमन्तनरेणोन्द्रियाणां व्यवहारत् संभवति।                   (पृश्ठ 2)

(4) नचानध्यस्तात्मभावेन देहेन कष्चिद्व्याप्रियते।                पृश्ठ 3)

(5) न चैतस्मिन् सर्वस्मिन्नप्तति असंगत्यात्मनः प्रमातृत्वमुपपद्यते।          (पृश्ठ 3)

(6) न च प्रमातृत्वमन्तरेण प्रमाणप्रवृत्तिरस्ति।                  (पृश्ठ 3)

अर्थः-

(1) देह, इन्द्रिय आदि में ‘अहं’ ‘मम’ भाव नहीं है। इसलिये वह प्रमाता नहीे, जो प्रमाता नही उसकी प्रमाण में प्रवत्ति नहीं।

(2) बिना इन्द्र्रियो के प्रत्यक्षादि व्यवहार नहीं होते।

(3) बिना अधिश्ठान के इन्द्रियो का व्यवहार संभव नहीं।

(4) जिस देह में आत्मा का अध्यास न हो वह देह व्यापार नहीं कर सकती।

(5) और यदि यह सब न हो तो असंगत आत्मा प्रमाता कैसे होगा?

(6) प्रमाता के बिना प्रमाण की प्रवृत्ति कैसे होगी?

पहली तीन बाते ठीक हैं, परन्तु चैथी ठीक नहीें, और उसके द्वारा जो उत्तर दिया गया है वह भी ठीक नहीं।

यह ठीक है कि देह और इन्द्रियाँ प्रमाता नहीं हो सकतीं। परन्तु प्रमाता का साधन तो हो सकती है। इसलिये तो कहा है कि बिना इन्द्रियों के प्रत्यक्ष आदि व्यवहार नहीं हो सकते। उपकरण का अध्यास कहना भूल है। अध्यास के किसी लक्षण से इन्द्रियों का उपकरण होना अध्यास नहीं कहा जा सकता। ‘स्मृतिरूपः परत्र पूर्वदृश्टावभासः’ पर विचार किजिये, और फिर उसे प्रत्यक्ष पर घटाइये। ‘पूर्वदृश्ट’ क्या है? उसकी स्मृति क्या है? और परत्र क्या है? थोड़े से विचार से पता चल जायगा कि यह कहना नितान्त अयुक्त है कि ”न चानध्यस्तात्मभावेन देहेन कष्चिद् व्याप्रियते“। यह तो कह सकते है कि बिना इन्द्रियों की सहायता के आत्मा को प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। अर्थात् इन्द्रियाँ उपकरण है।

यदि ‘अतस्मिस्तद्बुद्धिः’ पर विचार करें तो प्रष्न यह है कि प्रत्यक्षादि व्यवहार में क्या इन्द्रियाँ अपने को आत्मा समझती है? या आत्मा अपने को इन्द्रिय समझता है? यह तो स्पश्ट है कि इन्द्रियाँ अपने को आत्मा नहीं समझतीं। उनमें स्वयं बुद्धि ही नहीं जो अपने में किसी अन्य वस्तु की बुद्धि कर सकें। आत्मा भी अपने को इन्द्रिय नहीं समझता। यदि ऐसा होता तो अन्धे को भी रूप का अवभास होता क्योंकि आँखें न होते हुए भी वह अपने में आँखों की बुद्धि कर सकता। वस्तुतः बात यह है कि जिसको षंकर स्वामी अध्यास बताते हैं वह आत्मा द्वारा आँख का प्रयोग है। दूसरे अध्याय के दूसरे पाद के दूसरे सूत्र ‘प्रवृत्तेष्च’ का भाश्य करते हुए षंकर स्वामी ने जो वर्णन किया है वह अधिक ठीक है। वह लिखते हैंः-

”न ब्रमो यस्मिन्नचेतने प्रवृत्तिर्दृष्यते न तस्य सेति। भवतु  तस्यैव सा। सातु चेतनाभ्दवतीति ब्रमः। तभ्दावे भावात्तदभावे चाभावात्।    (पृश्ठ 222)

यहाँ यह बताया गया है कि आत्मा ‘प्रवत्र्तक’ है, देह आदि इन्द्रियाँ ‘प्रवत्र्य’ हैं। और उनमें ‘प्रवृत्ति’ आत्मा द्वारा आती है। परन्तु यहाँ अध्यास नहीं है। इस सम्बन्ध में षंकराचार्यजी ने एक प्रबल पूर्वपक्ष खड़ा किया है ”एकत्वात् प्रवत्र्याभावे प्रवर्तकत्वानुपपत्तिरिति।“ अर्थात् षांकर मत में सब जगत् मिथ्या और केवल आत्मा ही सत्य है तो बिना ‘प्रवत्र्य’ के प्रवर्तकत्व कैसा और प्रवृत्ति कैसी? यह ऐसा प्रष्न है कि उससे अध्यासवाद का समस्त प्रासाद धराषयी हो गया है। षंकराचार्यजी ने इसका जो उत्तर दिया है वह सर्वथा खोखला है। वे कहते हैंः-

‘न। अविद्याप्रत्युपस्थापितनामरूपमायावेषवषेनासकृत् प्रत्युक्तवात्।        (पृश्ठ 223)

अर्थात् अविद्या के कारण नामरूप का मायाजाल बन जाता है।

यह प्रष्न का उत्तर नहीं है अपितु प्रष्न को और जटिल बना दिया है। यहाँ अविद्या और माया दोनों षब्द मिले-जुले प्रयुक्त किये गये है। यह उत्तर नहीं किन्तु उत्तराभास है। ऐसे उत्तर तो किसी प्रष्न के दिये जा सकते हैं। पूर्वपक्ष जैसा का तैसा उपस्थित रहता है।

अब षंकर स्वामी-प्रदत्त अध्यास के कुछ उदाहरणों की विवेचना कीजिये।

पुत्रभार्यादिशु विकलेशु सबलेशु वा अहमेव विकलःसकलो वेति वाह्यधर्मानात्मन्यध्यस्यति।

(पृश्ठ 3)

अर्थात् पुत्र भाई आदि के सुख-दुखः से आत्मा स्वंय अपने को सुखी या दुःखी मान लेता है यह अपने मे बाह्य धर्मों का अध्यास है।

(2) तथा देहधर्मान्-स्थूलोऽहं, गौरोऽहं, तिश्ठामि, गच्छामि, लघयानि चेति।  (पृश्ठ 3)

अर्थात् देह स्थूल है, गोरी है। आत्मा न स्थूल है न कृष न गौर। परन्तु जब आत्मा कहता है कि मैं स्थूल हूँ तो देह के स्थूलता धर्म का अपने में अध्यास करता है। इसी प्रकार देह चलती है न कि आत्मा।

(3) तथेन्द्रियधर्मान्-मूकः, काणः, लकीबः, बधिरः, अन्धोहमिति।

अर्थात् आत्मा काना नहीं, आँख कानी है परन्तु आत्मा कानेपन का अपने में अध्यास करता है।

(4) तथाऽन्तःकरणधर्मान् कामसंकल्पविचिकित्साध्यवसायादीन्।

अर्थात् काम संकल्प आदि अन्तःकरण के धर्म है। आत्मा अपने में उनका अध्यास करता है।

यहाँ चार उदाहरण दिये गये है। पहले उदाहरण में कुछ-कुछ अध्यास की झलक है, परन्तु यह दुःख सम्बन्ध के कारण है। यदि पुत्र के पेट में पीड़ा का अपने पेट में अध्यास कभी नहीं करता। उसको दुःख भिन्न है और पिता भिन्न। यह ”अतस्मिंस्तद्बुद्धि“ का लँगड़ा दृश्टान्त है।

‘मैं स्थूल हूँ’ का स्पश्ट अर्थ यह है कि मेरा षरीर स्थूल है। किसी को षरीर की स्थूलता में अपनी स्थूलता की बुद्धि नहीं होती। ‘मैं जाता हूँ’ यह उदाहरण तो सर्वथा अनुपयुक्त है। यदि रेल में बैठा हुआ मैं प्रयाग से काषी गया तो यह कहना कि वास्ताव में रेल मैं प्रयाग में ही बैठा रहा मैंने रेल के जाने का अपने में अध्यास कर लिया स्पश्ट तथा हास्यप्रद है। इसी प्रकार ‘अन्धोहम्’ का अर्थ यही है कि मेरे आँख नहीं। नेत्र तो अन्धे नहीं होते। जब नेत्र नश्ट हो जाते हैं तो मनुश्य अन्धे नहीं होते। जब नेत्र नश्ट हो जाते हैं तो मनुश्य अन्धा हो जाता है।

यहाँ षायद आप पूछेंगे कि यदि अध्यास कोई चीज ही नही ंतो भिन्न-भिन्न ख्यातियों का प्रष्न क्यों उठा ?

हम कहते हैं कि हम अध्यास का खण्डन नहीं करते। अध्यास होता है। परन्तु वह उत्सर्ग नहीं उपवाद मात्र है। हम प्रायः रस्सी को रस्सी ही देखते हैं। कभी-कभी रस्सी में साँप की प्रतीति हो जाती है। इस प्रतीति का कारण ढूँढने के लिये ही ख्यातियों की षरण ली जाती है। इस प्रतीतियों को अपवाद मानने से समस्त जगत् मिथ्या सिद्ध नहीं होता। और यदि इनको उत्सर्ग माना जावे तो अध्यास के लक्षण नहीं बनते जैसा हम ऊपर कह चुके हैं। यदि कभी साँप का सत्यज्ञान हुआ ही नही हो रस्सी में साँप की प्रतीति भी नहीं हो सकती।

षंकराचार्यजी जगत् में समस्त व्यवहार को अध्यास परक कहते हैं यही भूल है। उन्होनें मनुश्यो के व्यापार की पषुओं के व्यापार से तुलना करके मनुश्यों को पषुओं के समान अविवेकी बताया है। परन्तु दृश्टान्त के लिये पषुओं का वह व्यवहार चुना हैं जिसको अविवेक नहीं विवके ही कहना पड़ेगा। वे लिखते हैंः-

”पष्चादिमिष्चाविषेशात्। यथा हि पष्वादयः षब्दादिभिः श्रोत्रादीनां सम्बन्धे सति षब्दादिविज्ञाने प्रतिकूले जाते ततो निवर्तनतं अनुकूले च प्रवतन्ते यथा दण्डोद्यतकृरं पुरूशमभिमुखमुपलभ्य मां हन्तुमयमिच्छतीति पलायितुमारभन्ते, हरिततृण्पूर्णपाणिमुपलभ्य तं प्रत्यभिमुखीभवन्ति, एवं पुरूशा अपि व्युत्पन्नचित्ताः क्रूरदृश्ट नाक्रोषतः खड्गोद्यतकरान् बलवत उपलभ्य ततो निवर्तन्ते, तद्विपरीतान् प्रति प्रवर्तन्ते, अतः समानः पष्चादिभिः पुरूशाणां प्रमाणप्रमेयव्यवहारः। पष्चादीनां च प्रसिद्धोऽविवेक पुरःसरः प्रत्यक्षादिव्यवहारः। तत्सामान्यदर्षनाद्व्युत्पत्तिमतामपि पुरूशाणां प्रत्यक्षादिव्यवहारस्तत्कालत् समान इति निष्चीयत।“   (पृश्ठ 3)

यहाँ श्री षंकराचार्यजी को सिद्ध करना है कि जैसे पषु मूर्ख होते हैं उसी के समान पुरूश भी मूर्ख होते है। इनकी युक्ति सुनिये। बड़ी विचित्र है। पषु यदि किसी को लकड़ी हाथ में लिये देखे तो उसकी और आता है कि कहीं मार न दे। और हरी घास हाथ में देखे तो उसकी ओर आता है। ऐसा ही व्यवहार पुरूश करते है। पषु अविवेकी है अतः पुरूश भी उसके समान व्यवहार करके अविवेकी हो गये। यहाँ पषुओं की अविवेकता दिखाने के लिये जो व्यापार चुना गया वह सर्वथा विवके सूचक है। लकड़ी से डरना और घास से प्रेम करना पषुओं के विवके सूचक द्योतक हे अविवेक का नहीं। यह तो पषुओं को बड़े अनुभव से प्राप्त हुआ है। और यदि पुरूश भी इसका अनुकरण करते है। तो विवेकी हैं अविवेकी नहीं। हाँ, यदि पषुओं के किसी विवेकषून्य व्यवहार का दृश्टान्त दिया जाता तो ठीक था। पषु भी किसी-किसी बात में भ्रान्त हो जाते हैं ओर मनुश्य भी। इससे उनके समस्त व्यवहारों को भ्रम-युक्त कहकर समस्त संसार को अविद्यावत कहना ठीक नहीं।

फिर षास्त्र को अविद्यावत् कहना तो और भी बड़ी भूल है। इन्द्र-जाल की पुस्तक और षांकर-भाश्य को किसी प्रकार भी एक कोटि में नहीं रख सके। पहली चीज नितान्त धोखा है। दूसरी में तो कहीं-कहीं भूल हो सकती है। इसी प्रकार उपनिशद् आदि भी षास्त्र है ओर उनकी कथा या व्याख्या जगत् के व्यापार के अन्तर्गत हैं। वे अविद्यावत् कैसे हो सकती है!

इस सम्बन्ध में एक बात विचारणीय है। रस्सी में साँप की ही प्रतीति क्यों होती है? हाथी की प्रतीति क्यों नहीं होती? मृगतृश्णिका में जल की ही प्रतीति क्यों होती है रेलगाड़ी की प्रतीति क्यों नहीं होती? जिस प्रकार रस्सी में साँप का अभाव है उसी प्रकार हाथी का भी अभाव है। ठूँठ को भ्रम से चोर तो समझ सकते हैं परन्तु सूरज नहीं समझ सकते।

हम यह नहीं कहते कि संसार में धोखा नहीं है। धोखा है। परन्तु उस धोखे की बुनियाद भी सत्य पर है। लोग दुध में पानी मिला देते हैं जिससे लेने वालों को पानी में दूध-बुद्धि हो जाय, परन्तु दूध में मक्खी डाल कर कोई धोखा नहीं दे सकता। क्या कारण है कि मनुश्य पानी में तो दूध-बुद्धि कर लेता है और मक्खी में नहीं। संसार की समस्त प्रकार की भ्रान्तियों को इकट्ठा करके उनके कारण का विचार कीजिये। और जता चल जायगा कि सभी प्रत्याक्षादि व्यापार अध्यास नहीं हैं और न यह ‘अविद्यावत्’ हैं। अविद्या के दो कारण होते हैंः-

इन्द्रियदोशात्संस्कारदोशाच्चाविद्या।

पहला दन्द्रिय-दोश, दूसरा संस्कार-दोश। यदि ब्रह्म ही केवल सत्य है और समस्त जगत् मिथ्या, तो न इन्द्रिय-दोश का प्रष्न उठता है न संस्कार-दोश का। न उपनिशदों के किसी वाक्य से इसकी सिद्धि होती है।

ब्रह्म की जिज्ञासा का आरम्भ अध्यास से करके श्री षंकराचार्यजी ने बादरायण के साथ न्याय नहीं किया। और न और लोगों के साथ। यदि बादरायण के जगत् और षास्त्र दानों को अविद्या मानतेे तो ब्रह्म की जिज्ञासा का उन्हीं से आरम्भ न करते जैसा कि उन्होंने दूसरे और तीसरे सूत्रों में किया है। सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म के लिये यह कोई प्रषंसा की बात नहीं है कि उससे अविद्यावत् जगत् का जन्म, स्थिति अथवा प्रलय हो और उसको अविद्यावत् षास्त्र की योनि कहा जाय। षंकर स्वामी स्वयं भी तो कहतेे हैंः-

”तद्ब्रह्म सर्वज्ञं सर्वषक्ति जगदुपत्तिस्थितिलयकारणं वेदान्तषास्त्रादेवावगम्यते।“

(षां॰ भा॰ 1।1।4 आरम्भिक वाक्य)

सर्वज्ञ ब्रह्म अविद्यावत् जगत् का कारण कैसा? और अविद्यावत् षास्त्र से (चाहे वह वेद हो या वेदान्त) उसकी प्राप्ति कैसी?

दूसरी प्रतिपत्ति

(1) न च तेशां कर्तृस्वरूप प्रतिपादन परतावसीयते, ‘तत्केन कं पष्येत्’ इत्यादि क्रियाकारकफलनिराकरणश्रुतेः। (1।1।4 पृश्ठ 11)

श्रुति के वाक्यों से कत्र्ता के स्वरूप का प्रतिपादन नहीं होता। अर्थात् ब्रह्म को कत्र्ता नहीं माना। वृहदारण्यक 2।4।13 में कहा है कि ‘किसको कौन देखे’। उससे क्रिया, कारक और फल तीनों का खण्डन होता है।

(2) यत् तु हेयोपादेयरहितत्वादुपदेषानर्थक्यमिति, नैप दोशः, हेयोपादेयषून्य ब्रह्मात्मतावगमादेव सर्वक्लेषग्रहाणात् पुरूशार्थसिद्धेः।  (1।1।4 पृश्ठ 11)

यदी कहो कि हेय और उपादेय के बिना उपदेष का कुछ  अर्थ नही  तो यह ठीक नहीं क्योंकि यदि यह ज्ञान हो जाय कि ब्रह्मात्मा न हेय है न उपादेय है तो इसी ज्ञान से सब क्लेष दूर हो जाते हैं और यही पुरूशार्थ की सिद्धि है।

अर्थात् श्रुति में यह उपदेष नहीं है कि यह छोड़ो और यह करो। केवल यह ज्ञान हो जाना चाहिये कि ब्रह्म न हेय है न उपादेय।

(3) न तु तथा ब्रह्मण उपासनाविविधषेशत्वंु संभवति एकत्वे हेयोपादेयषून्यतया क्रियाकारकादिद्वैतविज्ञानोपमर्दोपपत्तेः। न ह्येकत्वविज्ञानेनोन्मथितस्य द्वैतविज्ञानस्य पुनः संभवोऽस्ति, येनोपासनाविधिषेशत्वं ब्रह्मणः प्रतिपद्येत।     (1।1।4 पृश्ठ 11)

जब द्वैत ज्ञान नश्ट हो गया तो हेय उपादेय, क्रिया, कारक आदि का प्रष्न ही नहीं रहता। उस समय ब्रह्म की उपासना भी सम्भव नही रहती। जब एक बार एकत्व का ज्ञान हो गया और द्वैत-ज्ञान नश्ट हो गया तो ब्रह्म की उपासना के लिये कोई स्थान ही नहीं रहता। इससे कर्म और उपासना दोनों का खण्डन हो गया।

(4) ‘अषरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृषतः’।  (छा॰ 8।12।1) इति प्रियाप्रियस्पर्षनप्रतिशाधाच्चोदनालक्षणधर्मेकार्यत्वं मोक्षाख्यस्याषरीरत्वस्य प्रतिशिध्यत इति गम्यते।     (1।1।4 पृश्ठ 14)

षरीर रहने पर प्रिय और अप्रिय भी स्पर्ष नहीं करते। ऐसा छान्दोग्य में लिखा है। इससे सिद्ध होता है कि षरीर रहित मोक्ष के लिये वेदोक्त कर्म का प्रतिशेध है।

यहाँ वेदोक्त कर्म की अवहेलना की गई है।

(5) अषरीरत्वभेव धर्मकार्यमितिचेत्र, तस्य स्वाभाविकत्वात्।           (1।1।4 पृश्ठ 14)

यदि कोई ऊपर के आक्षेप का समाधान करता हुआ कहे कि धर्म के कारण ही षरीर से छुटकारा मिलता है तो स्वाभाविक है।

(6) अतएववानुश्ठेयकर्मफलविलक्षणं मोक्षाख्यमषरीरत्वं नित्यमिति सिद्धम्।     (1।1।4 पृश्ठ 14)

इसलिये सिद्ध है कि षरीर से छुटकारा पाकर जो मोक्ष मिलता है वह अनुश्ठेय कर्म के फल से सर्वथा विलक्षण है।

(7) अब कहते हैं कि ब्रह्म की मोक्ष हैः-

इदं तु पारमार्थिकं कूटस्थनित्यं, व्योमवत्सर्वव्यापि, सर्वविक्रियारहितं, नित्यतृप्तं, निरवयवं, स्वयंज्योतिः स्वभावम्। यत्र धर्माधर्मौ सह कार्येण कालत्रयं च नोपवर्तेते। तदेतद् अषरीरत्वं मोक्षाख्यम्।    (1।1।4 पृश्ठ 14)

”यह जो पारमार्थिक कूटस्थ नित्य, आकाषवत् सर्वव्यापी, सर्वविकार रहित, नित्यतृप्त, अवयवषून्य, स्वयं ज्योति स्वभाव है जहाँ धर्म अधर्म कार्य के साथ तीनों कालों में स्पर्ष नहीं करते वही यह अषरीरत्व मोक्ष है।

यहाँ मोक्ष को नित्य और अनादि माना है क्योंकि कालत्रय अर्थात् तीनों कालों का संस्पर्ष वहाँ होता। यह स्वभाव है। यह मान कर ही षंकराचार्य जी मोक्ष के लिये कर्म का निशेध करते है।

(8) यह युक्ति (युक्ति-आभास) विचारणीय है।

अतस्तद्ब्रह्म यस्येयं जिज्ञासा प्रस्तुता, तद् यदिकत्र्तव्यषेशत्वे नोपदिष्येत, तेन च कर्तव्येन साध्यष्चेनमोक्षोऽभ्युपगम्येत, अनित्य एव स्यात्।

जिस ब्रह्म की जिज्ञासा वेदान्त दर्षन में की गई हैं। वह यदि किसी कर्तव्य विषेश का फल हो और उसी के द्वारा उसकी प्राप्ति मानी जावे तो वह ब्रह्म अनित्य हो जावे।

इस युक्ति का स्पश्टीकरण आवष्यक है। षंकरजी पहले सिद्ध कर चुके हैं कि धर्म करने से सुख होता है। सुख अनित्य होता है। मोक्ष नित्य है इसलिये उसके लिये धर्मानुश्ठान की आवष्यकता नही। यदि ब्रह्म भी कर्मानुश्ठान का फल हो तो वह अनित्य हो जायगा। अब तक तो हमने आठ उद्धरण किये है वे सब इसी बात को सिद्ध करने के लिये हैं कि पूर्व मीमांसा में जो कर्म का विधान बताया गया और वेद का सार्थत्व इसी पर आधारित किया गया वह ठीक नहीं है।

इस युक्ति में दोश निकालना कठिन भी हो तो भी किसी मनुश्य को यह युक्ति ठीक प्रतीत नहीं होती। प्रथम तो मोक्ष में और ब्रह्म में भेद है। मोक्ष जीव की अवस्था विषेश है ब्रह्म जीव नहीं। चैथे अध्याय में कई स्थानों पर मुक्त जीवों का वर्णन षंकरजी ने भी इस प्रकार किया है मानो वह मोक्ष और ब्रह्म में भेद करते हैं ‘अभाव बाहरिराह ह्येवम्’ (4।4।10) पर भाश्य करते हुए षंकरजी लिखते हैंः-

यदि मनसा षरारन्द्रियैष्च विहरेन् मनसेति विषेशणं न स्यात् तस्मादभावः षरीरेन्द्रियाणां मोक्षे।      (पृश्ठ 508)

‘मनसैतान् कामान् पष्यन् रमते’

अर्थात् मुक्त पुरूश ‘मन से’ मनोरथों को देखता हुआ रमण करता है। इस पर षंकरजी कहते हैं कि यदि षरीर और इन्द्रियों का भी साथ अभीश्ट होता तो ‘मनसा’ ऐसा न कहते। इससे सिद्ध है कि मोक्ष में षरीर और इन्द्रियों का अभाव है। इससे सिद्ध है कि मोक्ष में षरीर और इन्द्रियों का अभाव है। इससे सिद्ध है कि मुक्त जीव ब्रह्म नहीं। वह तो

”मनसा एतान् कामान् पष्यन् रमते।“

 

इस सूत्र की संगति चतुःसूत्री से नहीं लगती।

परन्तु युक्ति में दोश भी है। वह स्पश्ट है।

यह ठीक है कि धर्मानुश्ठान से जो सुख जीव को होता है वह नित्य नहीं। परन्तु जिस ब्रह्म के ज्ञान से वह सुख होता है उसकी नित्यता का बोध कैसे हो सकता है। धर्मानुश्ठान से ज्ञान होगा। वह ज्ञान होता ब्रह्म का। यदि ज्ञान अनित्य हो तो ज्ञेय भी अनित्य हो ऐसा तो नियम नहीं है। ज्ञान ज्ञेय के आश्रित है ज्ञेय ज्ञान के अश्रित नहीं। ‘ब्रह्म जिज्ञासा’ में जिज्ञासु जीव है। ज्ञान अनित्य हो सकता है परन्तु जिज्ञासा अर्थात् ज्ञेय तो ब्रह्म है वह अनित्य कैसे होगा? 24 का 8 गुणा 192 होता है। यह नित्य सचाई एक बालक जो इस सचाई को याद करता है कई बार भूल जाता है। वह ज्ञान अनित्य हुआ। परन्तु ज्ञान के अनित्य होने से ज्ञेय का अनित्य होना तो ठीक नहीं। यह युक्ति तो सर्वथा दोशयुक्त है। परन्तु इसको इतने वाक्यों के झुण्ड में डाल दिया गया है कि साधारणतया पढ़ने से वह दोश प्रतीत नहीं होता है। एक प्रकार की भूलभुलय्याँ हैं। जो बिना थोड़े परिश्रम के स्पश्ट नहीं हो सकती।

(9) इत्येवमाद्याः श्रुतयो ब्रह्मविद्यानन्तंर मोक्षं दर्षनन्तयो मध्ये कार्यान्तरं वारयन्ति।

(1।1।4 पृश्ठ 15)

यहाँ कुछ श्रुतियाँ देकर कहते है कि ब्रह्मविद्या की प्राप्ति पर ही मोक्ष हो जाती है। बीच में कुछ और कार्य की आवष्यकता नही पड़ती ।

यह वाक्य अकेला तो कुछ हानि नहीं करता परन्तु जिस प्रसंग में इसका प्रयोग हुआ है वह अवष्य ही आपत्ति-जनक है। श्री षंकराचार्यजी का मुख्य अभिप्राय हैं धर्मानुश्ठान अर्थात् कर्माें की निःसारता दिखाना। प्रष्न यह है कि क्या धर्मानुश्ठान ब्रह्मविद्या प्राप्ति के लिये आवष्यक नहीं? फिर यदि ब्रह्मविद्या की प्राप्ति हो गई तो क्या उसी क्षण से कत्र्तव्यों का अन्त हो गया? फिर जीव-मुक्ति सम्बनधी सूत्रों का क्या बनेगा? क्योंकि ज्ञान होते ही मोक्ष और अषरीरत्व प्राप्त हो जायगा। इनके मत में ब्रह्मविद्या प्राप्ति का अर्थ ही यह है कि जीव में जीव-बुद्धि न रहकर ब्रह्म-बुद्धि प्राप्त हो हो जावे। तृतीय अध्यास के तृतीय पाद है 9वें सूत्र ”व्याप्तरेष्च समंजसम्“ का भाश्य करते हुए श्री षंकराचार्य ने स्वयं हमारे आक्षेप की पुश्टि की है और अपने मत का विरोध। वे लिखते हैं

”मिथ्याज्ञाननिवृत्तिः पलमिति चेत्। न । पुरूशार्थाेंपयोगानवगम त्“।

(पृश्ठ 383)

अर्थात् यदि मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति ही फल हो तो पुरूशार्थ का क्या उपयोग होगा? अर्थात् मनुश्य को जब तक षरीर है अवष्य ही धर्मानुश्ठान करते रहना चाहिये।

षंकराचार्यजी का एक और हेत्वाभास सुनियेः-

न च तद्विज्ञानं कमणां प्रवर्तक भवति प्रत्युत्त कर्माण्युच्छिनत्तीत वक्ष्यति ‘उपमर्दं चं ’

(ब्र॰ सू॰ 3।4।16)

(देखो षां॰ भा॰ 6।4।8, पृश्ठ 435)

षंकराचार्यजी कहते हैं कि ब्रह्म का ज्ञान कर्मो का प्रवर्तक नहीं, किन्तु उच्छेदक है। अतः ज्ञान कर्म का साधक नहीं। यहाँ ‘कर्म’ को दो अर्थों में लिया गया है। जब हम कहते हैं कि अमुक वस्तु कर्म का प्रवर्तक है तो इसका अर्थ होता है कि वह कर्म करने में प्रवृत्ति कराती है। इस अर्थ में ब्रह्मज्ञान कर्म का उच्छेदक नहीं। ब्रह्मज्ञानी संसार के उपकार में रत रहता है। निश्काम कर्म करता है। परन्तु जब हम कहते हैं कि ब्रह्मज्ञान कर्म का उच्छेदक है तो वहाँ कर्म करने से तात्पर्य नहीं किन्तु कर्म का फल भोगने से है। ”क्षीयन्ते चास्यकर्माणि के फलभोग का बोधक है। और ”कुर्वन्नेवेह कर्माणि“ में कर्म से तात्पर्य है निश्काम कर्म करने से। इसलिये इस प्रकार की भूल भुलैयों से यह नहीं समझना चाहिये कि धर्मानुश्ठान श्रुति को अभीश्ट नहीं या धर्मानुश्ठान से ब्रह्मज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं।

(10) न चेदं ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानं संपद्रूपम्।

न चाध्यास रूपम्।

नापि विषिश्टक्रियायोगनिमित्तम्।

नाप्याज्यावेक्षणादिकमवत् कर्मांगसंस्काररूपम्।

संपदादिरूपे हि ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानेऽभ्युपगभ्यमाने ‘तत्त्वमसि’

(छा॰, 6।8।7)

‘अहं ब्रह्मास्मि’         (बृ॰ 14।10)

‘अयमात्मा ब्रह्म’      (बृ॰ 2।5।19)

इत्येवमादीनां वाक्यानां ब्रह्मात्मैकत्ववस्तुप्रतिपादनपरः पदसमन्वयः पीड्येत।

तस्मान्न संपदादिरूपं ब्रह्मात्मैकत्व विज्ञानम्। (1।1।4। पृश्ठ 15,16)

षंराचार्यजी कहते है कि ”ब्रह्म और आत्मा के एक होने का ज्ञान“ जिसको मोक्ष कहते है न तो सम्पत है  अर्थात् यह किसी धर्म आदि कर्माे से प्राप्त नहीं होती। न अध्यास है। न विषिश्ट क्रियायोग से प्राप्त होती है। न किसी कर्मांग का संस्कार है। क्योंकि यदि इसको सम्पत् आदि माना जाय तो ‘मैं ब्रह्म हूँ’ आदि आदि श्रुतियों का समन्वय न हो सकेगा।

(11)अतोे न पुरूश व्यापारतत्रा ब्रह्मविद्या। कि वर्हि प्रत्यक्षादि-प्रमाणविशयवस्तुज्ञानवद्वस्तुतन्त्रा।  एवभुतस्य ब्रह्माणस्यज्ज्ञानस्य च न कयाचिक्ष्युक्त्या षक्याः काय्र्यानुप्रवेषः कल्र्पायतुम्।

इसलिये ब्रह्मविद्या पुरूश के व्यापार के आश्रित नहीं हैं। अपितु वस्तु-आश्रित है जैसे प्रत्यक्षादि विशय होते है। इसलिये इस प्रकार के ब्रह्म या उसके ज्ञान का किसी युक्ति से भी कार्य के साथ सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकता।

श्री षंकराचार्यजी ने विभिन्न युक्तियों द्वारा यह सिद्ध किया है कि ब्रह्म का ”ब्रह्मज्ञान“ का कार्य से कोई सम्बन्ध नहीं, और इससे वह धर्मानुश्ठान का खण्डन करते हैं। यह सब परिश्रम पूर्वमीमांसा के कर्मवाद के विरोध में है। परन्तु यह प्रतिपत्ति न तो वेदान्त के इन चार सूत्रों से सिद्ध होती हॅै न उपनिशद् वाक्यों से।

”ब्रह्म का कार्य से सम्बन्ध नहीं“ इसका क्या अर्थ? यदि कहो कि ब्रह्म कोई ऐसा कार्य नहीं करता कि जिससे उसे सुख दुःख हो तो ठीक है। परन्तु इसका प्रसंग नहीं। पुरूश क्रियाओं द्वारा ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त करते हैं। जितना धर्मानुश्ठान है वह जीव मे मल, विक्षेप और आवरणों को दूर करने के लिये हैं। इसलिये षंकराचार्यजी का प्रयत्न या तो निरर्थक है या प्रसंग-विरूद्ध।

श्री षंकराचार्य जी को ‘कार्य’ या ‘कर्म’ से कहाँ तक द्वेश है इसका उदाहरण नीचे के पदों से सुनियेः-

न च विदिक्रियाकर्मत्वेन काय्र्यानुप्रयवेषो ब्रह्मणः, ‘अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि’।   (केन॰ 1।3)

इति विदिक्रियाकर्मत्वप्रतिशेधात्।      (1।1।4, पृश्ठ 16)

”ब्रह्म विदि क्रिया का कर्म नहीं हो सकता क्योंकि केन उपनिशद् में लिखा है कि ब्रह्म विदित और अविदित दोनों से अलग है।“ क्या अच्छी युक्ति है। यदि विदि क्रिया का कर्म न हुआ तो ‘ज्ञा’ क्रिया का हुआ। बात क्या हुई। स्वयं षंकराचार्य जी पहले सूत्र की व्याख्या में लिखते हैं।

”तच्च कर्मणि शश्ठी परिग्रहे सूत्रेणानुगतं भवति।“

जो समाधान ‘ज्ञा’ का दिया जा सकता है वही ‘विदि’ का भी हो सकता है। विदितात्’ ‘अविदितात्’ के स्थान में ‘ज्ञातात्’ और ‘अज्ञातातत्’ कह सकते है। उपनिशद् में तो ‘पूर्ण अज्ञान’ से तात्पर्य था। परन्तु श्री षंकराचार्यजी ने उसको खींच कर अपनी युद्ध-स्थली में ला डाला। क्योंकि वे पूर्वमीमांसा का विरोध करने पर तुले हुए है।

(12) तथोपास्तिक्रियाकमत्वप्रतिशेधोऽपि भवति। ‘यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते’ इत्यविशयत्वं ब्रह्मण उपन्यस्य ”तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते“ इति।     (केन॰ 1।4)

भविशयत्वे ब्रह्मणः षास्त्रयोनित्वानुपपत्तिरितिचेत्।

न। अविद्याकल्पितभेदनिवृत्तिपरत्वाच्छास्त्रस्य।।

”इसी प्रकार उपासना-विधि का कर्मत्व भी ब्रह्म में नहीं, क्योंकि लिखा है कि वह वाणी का विशय नहीं। वाणी उससे कार्य करती है। इस प्रकार ब्रह्म को अविशय बता कर कहा गया है कि ‘उसी को तुम ब्रह्म जानो’ न कि उसको जिसकी जगत् उपासना करता है।“

इस पर आक्षेप उठाते है कि यदि ब्रह्म उपासना का भी विशय नही तो षास्त्र से उसकी प्राप्ति कैसी? इसका उत्तर देते है कि षास्त्र का काम तो यह है कि अविद्या के द्वारा हुए भेद-भाव को मिटा दे। वह प्रतिपत्ति भी न तो सूत्र से सिद्ध है न उपनिशद् के वचनों से। माना कि ब्रह्म के कल्पित स्वरूप का निराकरण ही षास्त्र का उद्देष्य हुआ, तो भी ब्रह्म की उपासना का खण्डन कहाँ हुआ?

(13) अब षंकराचार्यजी ‘मुक्ति की नित्यता’ को हेतु बना कर कर्म का विरोध करते हैंः-

अतऽविद्याकल्पितसंसारित्वनिवर्तनेन नित्यमुक्तात्मस्वरूप-समर्पणान्न मोक्षस्यानित्यत्वदोशः।

अर्थात् षास्त्र का उपदेष अविद्या-कल्पित संसार की निवृत्ति है। आत्मा नित्यमुक्त है ही। अतः मोक्ष भी नित्य ही हुआ। इसमें कोई दोश नहीं।

(14) यस्त तूत्पाद्यो मोक्षस्तस्य मानसं, वाचिकं, कायिकं वा कार्यमपेक्षत इति युक्तम्। तथा विकार्यत्वे च तयोः पक्षयोर्मोक्षस्य नित्यं दृश्टं लोके। नचाप्यत्वेनापि काय्र्यापेक्षा, स्वात्मस्वरूपत्वे सत्यनाप्यत्वात्। स्वरूपव्यतिरिक्तत्वेऽपि ब्रह्मणो नाप्यत्वं, सवगतत्येन निव्याप्तस्वरूपत्वात् सर्वेणब्रह्मणः, आकाषस्येव। नापि संस्कार्यो मोक्षः, येन व्यापारनयनेन वा। न तावद्गुणाधानेन संभवति, अनाधेयातिषयब्रह्मस्वरूपत्वान्मोक्षस्य। नापि दोशपनयनेन, नित्यषुद्धब्रह्मस्वरूपत्वान्मोक्षस्य।

(1।1।4, पृश्ठ 16-17)

यहाँ पाँच विकल्प उठाये गये।

(अ) यदि मोक्ष उत्पाद्य (पैदा की हुई) वस्तु है तो मानसिक, वाचिक या कायिक कार्य की आवष्यकता होगी। और मोक्ष अनित्य हो जायगा। जैसे घड़ा।

(आ) यदि विकार्य वस्तु है जैसे दही दूध का विकृत रूप है, तो भी मोक्ष अनित्य होगा।

(इ) यदि मोक्ष आप्य (प्राप्त होने वाली) वस्तु है तो भी कार्य की आवष्यकता नहीं क्योंकि ब्रह्म तो स्वात्मस्वरूप है। क्यों? स्वयं अपने ही को प्राप्त करने का क्या अर्थ?

(ई) यदि जीव-ब्रह्म में भेद भी हो तो भी कर्म की जरूरत नहीं क्योंकि जैसे आकाष सर्वत्र व्याप्त है और उसकी प्राप्ति का प्रष्न नहीं उठता। इसी प्रकार ब्रह्म भी सर्वत्र व्याप्त है। व्याप्त की ‘आप्यता’ का क्या प्रष्न?

(उ) यदि मोक्ष संस्कार्य है तब भी व्यापार की आवष्यकता नहीं क्योंकि संसार में या तो कोई गुण बढ़ाते हैं या कोई दोश दूर करते हैं। ब्रह्म के साथ यह दोनों नहीं हो सकते। ब्रह्म नित्य है। इसलिये मोक्ष भी नित्य है।

इन हेतुओं में कितनी भूल भुलैयाँ हैं! श्री षंकराचार्यजी को अभीश्ट है कर्म का विरोध। इसके लिये पहले तो यह मान लिया कि मोक्ष नित्य (अनादि और अनन्त) है। इसके लिये लिख दिया।

‘नित्यष्च मोक्षः सर्वैर्मोक्ष वादिभिरम्युपगम्यते’

अर्थात् सभी मोक्षवादी मोक्ष को नित्य मानते है। यह कल्पना भी गलत थी। मोक्ष को चाहे लोग अनन्त भले ही मानें, अनादि मानने वाले तो बहुत कम होंगे। नित्य वस्तु अनादि और अनन्त दोनों होती है। केवल अनन्त को नित्य नहीं कह सकते। मोक्ष को अनन्त मानना उत्पाद्य, विकार्य या संस्कार्य तीनों विकल्पों से नहीं टकराता। रही ‘आप्य’ की बात। सो जो ब्रह्म को जीव मानते हैं उनका विरोध ‘आप्य’ से भले ही होता हो, भेद मानने वालों के लिये ‘आप्य’ का क्या विरोध है? क्योेंकि आप्य न केवल देष या काल की अपेक्षा से होता है किन्तु ज्ञान की अपेक्षा से भी। यद्यपि देष और काल की अपेक्षा से आकाष सब को आप्य है परन्तु ज्ञान की अपेक्षा से नहीं। यदि जीव और ब्रह्म भिन्न हैं तो ब्रह्म ज्ञान की अपेक्षा से आप्य है। प्राप्ति के लिये कार्य की अपेक्षा स्पश्ट ही है। ज्ञान बिना कर्म के संभव नहीं, यदि षांकर भाश्य को अविद्या के निराकरण और ज्ञान की प्राप्ति का साधन मान लिया जाय तो षांकर भाश्य की प्राप्ति और पढ़ने तथा समझने की योग्यता पाने तक कितने व्यापारों की अपेक्षा होगी? फिर कर्म का तिरस्कार कैसा?

(15) स्वात्मधर्म एव संस्तिरोभूतो मोक्षः क्रिययात्मनि संस्क्रियमाणोऽमिव्यज्यते, यथाऽऽदर्षे निधर्शणाक्रियय संस्क्रियमाणो भास्वरत्वं धर्म इति चेत्। न, क्रियाश्रयत्वानुपपत्तेरात्मनः।

(1,1,4, पृश्ठ 17)

अब कार्य-वाद कार पोशक पूर्वपक्षी धर्म का दूसरा अर्थ करके कार्य के लिये स्थान तलाष करना चाहता है परन्तु षंकराचार्यजी उसको तिल भर स्थान देने को राजी नहीं। वह कहता है कि माना कि मोक्ष आत्मा का स्वात्मधर्म है जैसे दर्पण का सफाई धर्म है। परन्तु जैसे दर्पण पर मैल आ जाता है तो उसे कपड़े से रगड़ते है। इसी प्रकार आत्मा का मैल रगड़ने के लिये तो व्यापार की आवष्यकता है।

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यन्नित्यं कर्म वैदिकमग्रिहोत्रादि तत् तत् कार्यायैव भवति, ज्ञानस्य यत् कार्यं तदेवास्यापि कार्यमित्यर्थः।

(षां॰ भा॰ 4।1 16 पृश्ठ 475)

यहाँ अग्निहोत्रादि नित्यकार्म का वही फल माना है जो ज्ञान का। यह मुख्य प्रतिपत्ति के विरूद्ध है। इसी स्थल पर षंका उठाकर इसका समाधान करते हैंः-

षंका–ज्ञान कर्मणोर्विलक्षणकार्यत्वान् कार्यैकत्वानुपपत्तिः।

ज्ञान और कर्म के फलों में भेद हैं फिर दोनों का एक सा फल क्यों कहा?

समाधान-नैशदोश। ज्वरमरणकाय्र्ययोरपि दधिविशयो र्गुडमन्त्रसंयुक्तयोस्तृप्ति पृश्टि कार्य दर्षनात्, तद्वत् कर्मणोऽपि ज्ञान संयुक्तस्य मोक्ष कार्योपपत्तेः।

यह दोश नहीं। दही खाने से ज्वर हो जाता है और विशखाने से मृत्यु। परन्तु दही में गुड़ मिला दिया जाय तो तृप्ति हो जाती है। और

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(16) ननु देहाश्रयया स्नानाचमन यज्ञोपवीतादिकया क्रिययादेही संस्क्रियमाणो दृश्टाः। न। देहादि संहतस्यैवाविद्यागृहीतस्यात्मनः संस्क्रियमाणत्वात्। प्रत्यक्ष हि स्नानाचमनादेर्देह समवायित्वम्। तया देहाश्रवयया तत्संहत एव कष्चिदविद्ययात्मत्वेन परिगृहीतः संस्क्रियत इति युक्तिम्।

प्रष्न है कि स्नान आचमन, यज्ञोपवीत आदि क्रिया भी तो देही की षुद्धि के लिये होती हे। षंकरजी कहते है कि वह तो केवल देह की षुद्धि के लिये हैं और इनसे वही देही षुद्ध होता है जिसने अविद्या के कारण अपने को देह से संयुक्त समझ रक्खा है। औशध खाकर एक मनुश्य कहता है कि मैं अब अच्छा हो गया। यह अध्यास अविद्या के कारण है आगे का वाक्य और भी प्रबल हैः-

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विश को मन्त्र के साथ (विषेश विधि के साथ) खाया जाय तो पुश्टि होती है। इसी प्रकार कर्म और ज्ञान के संयोग से मुक्ति हो सकती है। यहाँ कर्म की उपयोगिता बताई है। परन्तु चतुःसूत्री के कर्म का खण्डन किया है। वहां तो केवल ज्ञान को ही मोक्ष का साधन माना है। यदि केवल गुड़ से ही तृप्ति हो जाय तो दही में गुड़ कौन मिलावे? यदि बिना अग्निहोत्रादि के केवल ज्ञान से ही मुक्ति हो जाय तो अग्निहोत्रादि की आवष्यकता नहीं। परन्तु ‘अग्निहोत्र’ तो व्यास सूत्र में दिया हुआ है। उसका निराकरण कैसे हो सकता था? यदि षंकर स्वामी आरम्भ से ही ज्ञान और कर्म का सहयोग मान लेते तो षारीरिक भाश्य तथा उपनिशद्-भाश्यों में कई स्थानों पर जो उन्होंने कर्म का खण्डन किया है वह न करते।

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(17) तस्माज्ज्ञानमेकं मुक्त्वा क्रियया गन्धे मात्रस्याप्यनु प्रवेष इह नोपपद्यते।

अर्थात् ज्ञान को छोड़ कर क्रिया की गन्ध मात्र भी इस विशय में प्रवेष नहीं पा सकती।

कैसा गजब का विरोध है। ‘गन्ध’ षब्द को नोट कीजिए।

(18) अब क्रिया का पक्षपाती कहता है।

ननु ज्ञानं नाम मानसी क्रिया  (1।1।4 पृश्ठ 18)

अरे ज्ञान भी तो क्रिया ही है। षरीर की न सही, मन की।

इसका उत्तर षंकर स्वामी देते है।

न, वैलक्षण्यात्। (1।1।4 पृश्ठ 18)

नहीं। बड़ा भेद है।

क्या भेद है? सुनिये।

(19) ध्यानं चिन्तनं यद्यपि मानसं तथापि पुरूशेण कर्तुमकर्तुमन्यथा वा कर्तु षक्यं, पुरूशतन्त्रत्वात्। ज्ञानं तु प्रमाणजन्यम् प्रमाणं च यथाभूतवस्तुविशयमतो ज्ञानं कर्तुमकर्तुमन्यथावा कर्तुमषक्यं केवलं वस्तुतन्त्रमेव तत्। न चोहनातन्त्रम्। नापि पुरूशतन्त्रम्। तस्मान्मानसत्वेऽपि ज्ञानस्य महद्वैलक्षण्यम्।    (पृश्ठ 18)

ध्यान और ज्ञान में भेद है। यद्यपि ध्यान मानसिक है परन्तु पुरूश के अधिकार में है करे, न करे। अन्यथा करे, ज्ञान प्रमाण जन्य है। ज्ञान वस्तु के आधीन है। उसमें पुरूश का करने, न करने अथवा अन्यथा करने का अधिकार नहीं। ज्ञान व्यापार के आधीन नहीं। न पुरूश के आधीन है। इसलिये मानसतव होने पर भी ज्ञान ध्यान से सर्वथा विलक्षण है।

ज्ञान और ध्यान के भेद का स्पश्टीकरण बड़ी सुन्दरता से किया गया है। परन्तु इसका प्रयोग जिस उद्देष्य से किया गया है वह ठीक नहीं, ज्ञान का क्रिया से इतना विरोध नहीं। क्योंकि विरोध नहीं। क्योंकि क्रिया ज्ञान का साधन है, और कर्म और ज्ञान सहयोगी है।

एक विचित्र बात है। यहाँ तो षंकर जी ”ज्ञानं तु प्रमाणजन्य“ बताते हैं। यह ‘चोदनातन्त्रम्’ है ‘न पुरूशतन्त्रम्’। परन्तु अध्यास की मीमांसा करते हुये प्रमाण को अविद्यावत् बताते हैंः-

” तमेतमविद्याख्यमात्मानात्मनोरितराध्यासं पुरस्कृत्य सर्वेप्रमाण प्रमेय व्यवहारा लौकिका वैदिकाष्च प्रवृत्तः। सर्वाणि च षास्त्राणि विधि प्रतिशेध मोक्षपराणि।  (1।1।1। पृश्ठ 2)

जब प्रमाणों को अविद्यावत् सिद्ध कर चुके तो वह ज्ञान के जनक कैसे होंगे? यह प्रष्न है।

(20) या तु प्रसिद्धेऽग्नावग्निबुद्धिर्न सा चोदहनातन्त्रा। नापि पुरूशतन्त्रा। किं तर्हि प्रत्यक्ष विशय वस्तुतन्त्रैवेति ज्ञानमेवैतन्न क्रिया। (पृश्ठ 18)

अग्नि में जो अग्नि बुद्धि है वह न तो क्रिया के आधीन है न पुरूश के किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण के।

यदि यह ठीक है तो ऊपर कहे अनुसार यह अध्यास और अविद्या का परिणाम होगा।

(21) अब प्रष्न होता है कि वेद में ‘लिङ्’ लकार का प्रयोग क्यों है जब विधि या निशेध का प्रष्न ही नहीं उठता।

इसका उत्तर विलक्षण हैः-

तद्विशये लिङादयः श्रूयमाणा अप्यनियोज्यविशयत्वात् कुण्ठी भवन्ति, उपलादिशु प्रयुक्तक्षुरतैक्षण्यादिवत्।     (पृश्ठ 19)

अर्थात् जैसे पत्थर पर चलाने से क्षुरे की धार कुंठित हो जाती है ऐसे ही लिङ् लकार आदि प्रयुक्त होकर भी ब्रह्म के विशय में कुण्ठिन हो जाते हैं।

उपमा कितनी अच्छी है। परन्तु यह लागू कैसे हो सकती है? क्षुरे की धार को कुण्ठित करने के लिये पत्थर पर चलाना मूर्खता ही तो है। क्या लिङ् लकार का प्रयोग उसको कुण्ठित करने के लिये किया गया है? क्या यह उपनिशत् कारों की प्रषंसा है। या बुराई?

(22) किमर्थानि तर्हि ‘आत्मा वाऽरे द्रश्टव्यः श्रोतव्यः’ इत्यादीनि विधिच्छायानि वचनानि।

स्वाभाविक प्रवृत्तिविशय विमुखी करणार्थानीति ब्रूमः।

(पृश्ठ 19 )

अच्छा विधि के तुल्य प्रतीत होने वाले उन विधि वाक्यों का क्या अर्थ होगा जिनमें कहा है कि आत्मा को ही देखना या सुनना चाहिये?

हमारा (षंकाराचार्यजी का) उत्तर है कि विशयों में जो स्वाभाविक प्रवृत्ति है उसको विमुखी करने के लिये यह वाक्य कहे गये हैं?

पाठक थोड़ा सा विचार करें। इसी को तो द्राविड़ी प्राणायाम कहते हैं, नाक सीधी न पकड़ी सिर के पीछे हाथ करके पकड़ी, स्वाभाविक प्रवृत्ति से विमुख करना भी तो निशेध है। और निशेध चोदना तंत्र हुआ। और पुरूश तंत्र भी। फिर यह कहना कि श्रुति में क्रिया का गन्ध मात्रा भी नहीं; देखते हुये न देखने के समान है। दूसरे सर्व साधारण में तो यह उपदेष लोगों को अकर्मण्य ही बनाते हैं जैसा कि षांकर-वेदान्त ने भारतवर्श को बना दिया है।

(23) अब पूर्वमीमांसा का स्पश्ट खण्डन करते हैं।

यदपि केचिदाहुः प्रवृत्ति निवृत्ति विधि तच्छेशव्यतिरेकेण केवल वस्तुवादी वेदामार्गो नास्ति’ इति तन्न औपनिशदस्य पुरूशस्यानन्यषेशतवात्। (पृश्ठ 19)

जो कहते है कि वेद केवल वस्तु वादी नहीं है उसमें प्रवत्ति और निवृत्ति की विधि है। तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि उपनिशदों का पुरूश किसी विधि या निशेध का साधन नहीं।

यहाँ ‘केवल’ षब्द पर ध्यान दीजिये और क्रिया के गन्ध मात्र न होने पर ध्यान दीजिये।

आगे के प्रष्नोत्तर से स्पश्ट हो जायगा कि ऊपर जिस बात का खण्डन किया गया है उसी को माना है।

(24) पूर्व मीमांसा का सिद्धान्त है कि

”अ म्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम्।“

अर्थात् वेद का मुख्य प्रयोजन है क्रिया। इसलिए जो श्रुति इस प्रयोजन को सिद्ध न करे वह निरर्थक होगी।

इस सूत्र का स्वाभाविक अर्थ यह है कि वेद-षास्त्र षासन का पुस्तक है। उसमें जो ज्ञान की बातें दी हुई हैं वह इसलिये कि मनुश्य कर्तव्य अकर्तव्य समझ सके। और उसी का अनुश्ठान करे। यजुर्वेद के 40 अध्याय के दूसरे मंत्र में भी कहा है किः-

कुवन्नेवेह कर्माणि जिजीविशेच्छत समाः।

अर्थात् मनुश्य को चाहिये कि सौ वर्श तक वैदिक कर्म करते हुये जीने की इच्छा करे। इसका यह तात्पर्य नहीं कि किसी वस्तु का ज्ञान ही षास्त्र में नहीं है। ज्ञान है तो परन्तु है इसीलिये कि उसकी उपलब्धि से मनुश्य कर्तव्य का पालन और अकर्तव्य का त्याग करे।

परन्तु षंकराचार्य जी को षास्त्र की यह पोजीषन प्रिय नहीं। वह जैमिनि के इस सूत्र का खण्डन करते हैं।

(25) पहले तो उन्होंने कहाः-

एतदेकान्तनाभ्युपगच्छतां भूतोपदेषानर्थक्य प्रसंगः।    (1।1।3 पृश्ठ 20)

अर्थात् इस सूत्र का पूरा-पूरा षाब्दिक अर्थ लेने से तो वह भाग जिसमें वस्तुज्ञान (भूत-उपदेष) दिया है निरर्थक हो जायगा।

(26) परन्तु जब उनसे कहा गया कि महाराज!

प्रवृत्तिनिवृत्ति विधितच्छेशव्यतिरेकेण भूतं चेद् वस्तूपदिषति भव्यार्थत्वेन।    (1।1।4 पृश्ठ 20)

अर्थात् वस्तु का ज्ञान विधि और निशेध का साधक होगा। तो इस पर आक्षेप करते है।

कूटस्थनित्यं भूतं नोपदिषतीति को हेतुः।     (1।1।4 पृश्ठ 20)

परन्तु इतने से यह तो नहीं कहा जा सकता कि वस्तु उपदिश्ट नहीं हैं।

क्रियाथत्नवेऽपि क्रियातिवर्तन षक्ति मद् वस्तूपदिश्टमेव। क्रियाथत्वं तु प्रयोजनं तस्य। (त॰ 1।4 पृश्ठ 20)

चाहे वह क्रिया के उद्देष्य से ही कही गई हो। परन्तु वस्तु का उपदेष तो हो गया।

ठीक! मेरा कहना यह है कि यदि यह सिद्धान्त पहले से ही स्वीकार होता तो श्री षंकराचार्य जी को इसके खण्डन की क्या आवष्यकता थी। वह तो ‘क्रिया’ का गन्धमात्र भी सहन नहीं कर सकते थे। यह तो कोई नहीं कहता कि वेद में कूटस्थनित्य ब्रह्म का ज्ञान नहीं। मन्त्र के मन्त्र भरे पड़े हैं। जैमिनी सूत्र का अभिप्राय तो केवल इतना है कि षास्त्र कर्तव्य अकर्तव्य के पालन के लिये हैं। मेरी समझ में तो श्री षंकराचार्यजी ने व्यर्थ का वाद खड़ा कर दिया। क्रिया का गन्घ मात्र तो मानना ही पड़ा। जैमिनी की ‘धर्म जिज्ञासा’ और वादरायण की ‘ब्रह्म जिज्ञासा’ एक दूसरे के विरूद्ध नहीं है। परन्तु श्री षंकराचार्य जी ने अपनी युक्ति-संतति के द्वारा इसको ऐसा बना दिया है।

समस्त वाद वेदान्त सूत्रों से सर्वथा असंगत है।

(27) जैमिनी जी के उसी सूत्र के विरोध में और युक्तियाँ देखियेः-

अपिच ‘ब्रह्मणो न हन्तव्यः’ इति चैवमाद्या निवृत्तिरूपदिष्यते। न च सा क्रिया। नापि क्रिया साधनम्।। अक्रियार्थानामुपदेषोऽनर्थकष्चेत् ”ब्रह्मणो न हन्तव्यः“ इत्यादिनिवृत्युप देषानामानर्थक्यं प्राप्तिम्।     (पृश्ठ 21)

कहते हैं कि यदि क्रिया-षून्य श्रुतियाँ अनर्थक हों तो ब्राह्मण को न मारना चाहिये इत्यादि श्रुतियाँ भी निरर्थक हो जायेगी क्योंकि यहाँ ‘निवृत्युपदेष’ है। किसी काम का करना नहीं बताया गया किन्तु ”न करना“ बताया गया है। यह न तो क्रिया का साधन“

जैमिनी के पोशक कह सकते हैं कि ”स्वभावप्राप्तहन्तर्थानुरागेण न´ाः षक्यमप्राप्त क्रियार्थत्वम्।“ (1।4 पृश्ठ 21)

‘हन्तव्य’ इस क्रिया के साथ निशेधार्थक ‘न´ा्’ लगाने से ऐसी क्रिया का अर्थ आया जो अभी प्राप्त नहीं है। क्रिया का सम्बन्ध तो रहा ही। आनन्द गिरि ने इस युक्ति को इन षब्दों में प्रकाषित किया है।

”ननु ‘न हन्तव्यः’ इत्यत्र हननं न कुर्यादिति न वाक्यार्थः हि त्वहननं कुर्यादिति। ततो हननविरोधिनी संकल्पक्रिया हननं न कुर्यामित्येव रूपा कायतया विधीयते तेन निशेध वाक्यमपि नियोगनिश्ट मेव।“

अर्थात् जब कहते है कि ‘न मारना चाहिये’ तो केवल निशेध वाक्य नहीं है। नियोग-वाक्य भी है क्योंकि हत्या की विरोधिनी क्रिया का संकल्प करना होता है।

यह पूर्व पक्ष बड़ा प्रबल है। और जैमिनी के सूत्र की पुश्टि करता है परन्तु श्री षंकराचार्य जी ने इसके खण्डन में जो युक्ति दी है वह स्पश्टतया खींचातानी प्रतीत होती है। वे कहते हैं।

”न´ाष्चैश स्वभावो यत् स्वसंबन्धिनोऽभावं बोधयतीति। अभाब बुद्धिष्चैदासीन्यकारणम्। सा च दग्धेन्धनाग्रि वत् स्वयमेवोपषाम्यति।“     (1।1।4 पृश्ठ 21)

‘न´ा्’ का यह स्वभाव है कि जिस क्रिया के साथ जुड़ता है उसके अभाव को बताता है। जैसे ‘न मारो’। यहाँ ‘न कार’ ”मारो“ क्रिया के साथ लग कर ‘मारो’ क्रिया के अभाव को बतातो है। अभाव बुद्धि का अर्थ है ‘उदासीनता।’ उदासीनता क्रिया नहीं है। किन्तु क्रिया की अन्तक है। जैसे अग्नि ईंधन को पहले क्रिया के प्रति अभाव बुद्धि स्थापित करके स्वयं भी नश्ट हो जाता है। यह युक्ति श्रृखला सुदृढ़ नहीं है। इसकी एक कड़ी बड़ी कमजोर है। वह है यह ”अभाव बुद्धिष्चदासीन्यकारणम्।“ ‘अभाव बुद्धि उदासीनता का कारण है।’ यह ठीक नहीं। यदि ऐसा हो तो पतंजलि के ‘अ$हिंसा’, ‘अ$स्तेय’, अ$परिग्रह’ आदि षब्द अनर्थक हो जायगे । यही नहीं, यदि नहीं, यदि वस्तुतः देखा जाय तो ‘ब्रह्मचर्य’ का उपदेष भी निशेधात्मक है। अर्थात् अपने वीर्य का नाष मत करो। इनसे उदासीनता प्रकट नहीं होती।

(28) अब यह प्रष्न है कि क्या हमारा षरीर हमारे पूर्व जन्मकृत धर्म अधर्म के अनुकूल हैं? कर्म-सिद्धान्त की यह एक प्रसिद्ध प्रतिपत्ति है। षंकराचार्य जी इसका भी खण्डन करते हैंः-

”तत्कृतधर्माधर्मनिमित्त सषरीरत्वभिति चेन्न, षरीरसंबन्धनस्यासिद्धत्वाद् धर्माधर्मयोरात्मकृत्वा सिद्धेः। षरीरसंवन्धस्य धर्माधर्मयोस्तत्कृतत्वस्य चेतरेतराश्रयत्वप्रसंगदन्ध्परम्परैशाऽनादित्व कल्पना।   (1।1।4 पृश्ठ 22)

यदि कहो कि सषरीरत्व आत्मकृत धर्म अधर्म के कारण है तो ठीक नहीं। क्योंकि जब षरीर का सम्बन्ध ही सिद्ध नही ंतो आत्मकृत धर्म और अधर्म कैसे सिद्ध होंगे? षरीर के सम्बन्ध और आत्मकृत धर्म-अधर्म के एक दूसरे के आश्रय होने से अन्ध-परम्परा चल कर अनादित्व की कल्पना हो जायेगी।

यह वही दलील है जो ईसाई और मुसलमान पुनर्जन्म के विरूद्ध दिया करते है कि कर्म पहले है या षरीर। परन्तु श्री षंकराचार्य जी तो पुनर्जन्म को मानते है। वे ईषोपनिशत् के तीसरे मन्त्र के भाश्य में लिखते हैः-,

”अन्धेनादर्षनात्मकेना ज्ञानेन तमसा ऽऽवृता आच्छादितास्तान् स्थावरान्तान् पे्रत्य त्यक्त्वेमंसेहहमभिगच्छन्ति यथाकम यथाकम यथाश्रुतम्।

अर्थात् ”कर्म और षास्त्र विधान के अनुकूल अन्धकार से आच्छादित स्थावर आदि योनियों को षरीर छोड़ने के पष्चात् प्राप्त होते है“ यहाँ स्थावर आदि योनि भी मानी और कर्म के अनुकूल मानी। जब कर्म के अनुकूल योनि मिलती है तो प्रष्न यह होता है कि किसके कर्म के अनुकूल? उत्तर स्पश्ट है ”जो करेगा वह पायेगा।“ यहाँ आत्मकृत धर्म-अधर्म का खण्डन तो नहीं होता। फिर दूसरे अध्याय के पहले पाद के 35वें सूत्र की व्याख्या में तो इसको स्पश्ट ही कर दिया। देखियेः-

सृश्टयुक्तकालं हि षरीरादिविभागापेक्षं कर्म, कर्मापेक्षष्च षरीरादिविभाग इतीतरेतराश्रयत्वं प्रसज्येत। अतो विभागादूध्र्वं कर्मापेक्ष ईष्वरः प्रवर्ततां नाम। प्राग्विभागद। वैचित्र्यनिमित्तस्य कर्मणोऽभावात् तुल्येैवाद्या सृश्टिः प्राप्नोतीति चेत्। नैश दोशः। अनादित्वात् संसारस्य। भवेदेश दोशो यद्यादिमान् संसारः स्यात्। अनादौतु संसारे बीजांकुरवद्धेतुमभ्दावेनकर्मणः संगवैशम्यस्य च प्रवृत्तिर्न विरूध्यते।ः

(षां॰ भा॰ 2।1।35 पृ॰ 218)

”प्रष्न करते हैं कि सृश्टि उत्पन्न होने के पष्चात् षरीर आदि। इसमें तो इतरेतराश्रय दोश आ गया। उत्तर देते है कि ”नहीं। यह दोश नहीं है। क्योंकि संसार अनादि है। यदि संसार आदिमान् होता तो यह दोश होता। संसार के अनादि होने पर बीज और अंकुर के तुल्य यह भी विरोध नहीं आता।“

क्या इसको परस्पर विरोध नहीं कहते? क्या यह अपने ही सिद्धान्त का खण्डन नहीं है? जिस ‘अनादित्व कल्पना’ को षंकर जी ने चतुः सूत्री में अन्ध परम्परा कहा उसी को दूसरे अध्याय में स्वयं माना। महद्वैचित्र्यम्।

(29) और चलियेः-

क्रिया समवायाच्चात्मः कर्तृत्वानुपपत्तेः।

आत्मा का कर्ता होना सिद्ध ही नहीं हो सकता। क्यों? क्रिया और आत्मा का समवाय-सम्बन्ध नहीं।

संनिधानमात्रेण राजप्रभृतीनां दृश्टं कर्तृत्वमिति चेन्न, धन-दानद्युपार्जित भृत्य संबधित्वात् तेशां कृर्तृत्वोपपत्तेः। न त्वान्मनो धनदानादिवच्छरीरादिभिः स्वस्वामिसंबन्धनिमित्तं किंचिच्छक्यं कल्पयितुम्।   (1।1।4 पृश्ठ 22)

यदि कहो कि जैसे राजे आदि भृत्यों से काम करा लेते हैं इसी प्रकार आत्मा का कर्तृव्य है सो भी ठीक नहीं क्योंकि राजे आदि तो धन देकर भृत्यों से काम ले लेते हैं। आत्मा और षरीर आदि का एकसा सम्बन्ध कल्पना में नहीं आता।

श्री षंकराचार्य जी का यह सब प्रयास क्रिया के विरोध में है। परन्तु अध्याय 2, पाद 1 से सूत्र 34 के भाश्य में क्या कहंेगे?

प्रष्न था कि ईष्वर ने किसी को सुखी किसी को दुःखी बना कर विशमता क्यों कि ओर इससे ईष्वर निर्दयी क्यों नही, इसका विस्तृत वर्णन करके उत्तर देते है।

एवं प्राप्ते ब्रूमः-वेशम्यनैर्घृण्ये नेष्वरस्य प्रसज्येते। कस्मात्? सापेक्षत्वात्। यदि हि निरीपेक्षः केवल ईष्वरो विशमां सृश्टिं निर्मिमीते। स्यातामेतौ दोशौ वैशम्यं नैर्घृण्यं च। नतु निरपेक्षस्य निर्मातृत्वमस्ति। सापेक्षो हीष्वरो विशयां सृश्टिं निर्मिमीते। किमपेक्षत इति चेत्। धर्माधर्मावपेक्षतः इति वदामः।   (पृश्ठ 217)

श्री षकंराचार्य जी कहते है कि हमारा उत्तर यह है कि ईष्वर मे विशमता या निर्दयता का दोश नहीं आता क्यों? अपेक्षा से। यदि ईष्वर निरपेक्ष भाव से सृश्टि बनाता तो ये दोनों दोश आते। परन्तु सृश्टि-उत्पत्ति निरपेक्ष तो नहीं है। अच्छा तो किसकी अपेक्षा है? धर्म और अधर्म की! अब कहिये। दोनों को मिला कर न्याय कीजिये। कौन ठीक है? वस्तुतः है तो यही ठीक। परन्तु दोश है उस प्रवृत्ति का जो चतुःसूत्री में ओतप्रोत है।

(30) अब प्रष्न करते है आत्मा और षरीर का सम्बन्ध गौण क्यों नही। मिथ्या क्यों है? यदि गौण मान लिया जाय तो क्रिया का खण्डन न हो। ”देहादावहं प्रत्ययो मिथ्यैव न गौणः“ परन्तु षरीर के मिथ्या होने के लिये कोई प्रबल हेतु नहीं दिया गया। यदि मान भी लिया जाय तो श्री षंकराचार्य जी के नीचे के वाक्य का क्या अर्थ होगा?

तस्मान्मिथ्यांप्रत्यय निमित्तत्वात् सषरीरत्वस्य सिद्धं जीवतोऽपि विदुशोऽषरीरत्वम्।    (पृश्ठ 22)

अर्थात् षरीर का भाव मिथ्या है। इसलिये जिसको ज्ञान हो गया (कि मैं ब्रह्म हूँ, षरीर मिथ्या है) उसका जीवन में भी अषरीरत्व सिद्ध है। ”जीवतोऽपि अषरीरत्वम्“ का क्या अर्थ है? षरीर या तो सत्य है या मिथ्या। यदि मिथ्या है तो मिथ्या ज्ञान के दूर होते ही जीवन का भी अन्त हो गया और षरीर का भी। यह नहीं हो सकता कि षरीर का अन्त हो और जीवन का न हो। यदि मैं मिथ्या मुकुट पहने हूँ अर्थात् मुकुट तो नहीं है परन्तु की प्रतीति होती है तो जिस समय वह मिथ्या ज्ञान दूर होगा मुकुट और राज-पन दोनों ही निवृत्त हो जायेंगे। यह कैसे होगा कि मुकुट न रहे और राजा बना रहूँ।

दूसरी बात यह है कि यदि षरीरादि मिथ्या हैं और जीव वस्तुतः ब्रह्म ही है और मिथ्याज्ञान के निवारण का नाम ही मुक्ति है तो ज्योंही जीव को ज्ञान होगा वह मुक्त हो जायगा अर्थात् वह ब्रह्म हो जायगा। फिर मुक्त जीवों की मुक्त अवस्था का अलग वर्णन कैसा? परन्तु ”संकल्पादेव तु तच्छृ ªतेः“ (4-4-8) के भाश्य में श्री षंकराचार्य जी लिखते हैंः-

एवं प्राप्ते ब्रूमः संकल्पादेव तु केवलात् तु केवलात् पित्रादि समुत्थानमिति।

कुतः? तच्छु ªतेः ‘संकल्पादेवास्य पितरः समुत्तिश्ठन्ति“।

(छा॰ 8।2।1) (4।4।8, पृ॰ 507)

अर्थात् मुक्त जीवों के पितर संकल्प से ही उठ बैठते हैं। यदि मुक्ति मे भी जीव ब्रह्म नहीं हो जाता तो भेद स्पश्टतया सिद्ध है और श्री षंकर जी की कोई युक्ति इसका खण्डन नहीं कर सकती। चतुः सूत्री में वृहदारण्यक का जो उदाहरण दिया गया है उससे भी षरीर का मिथ्यात्व नहीं होता:-

”तद् यथाऽहिनिल्र्वयनी वल्मीके मृताप्रत्यस्ता षयीतैवमेवेदं षरीरं षेते।“            (बृह॰ 4।4।7, पृश्ठ 23)

जैसे बांबी में साँप की केंचुली निर्जीव और तिरस्कृत पड़ी रहती है वैसे ही मुक्त आत्मा का षरीर पड़ा रहता है। इस उद्धरण से षरीर का आत्मा से इतर होना तो सिद्ध है परन्तु मिथ्या होना नहीं।

(31) अब प्रष्न करने वाला कहता है कि उपनिशद् कहती है कि आत्मा श्रोतव्य है, मन्तव्य है और निदिध्यासितव्य है। इससे सिद्ध होता है कि पहले सुनो, फिर मनन और निदिध्यासितव्य है। इससे तो ब्रह्म के साथ विधिवाक्य की संगति मिलती है।

इस स्थापना का निशेध तो हो नहीं सकता, ठीक ही है। ब्रह्म के विशय में उपनिशद् कहती है सुनों, फिर विचार और ध्यान करो। परन्तु षंकराचार्य जी इस कथन को निजषैली के अनुसार वर्णन करके कुछ का कुछ कर देते हैं। वे बीच में ‘विधिषेशत्व’ डाल कर पूर्वपक्ष के इस प्रकार वर्णन करते हैंः

”विधिषैशत्वं ब्रह्मणो न स्वरूप पर्यवसायित्वमिति।“ (पृश्ठ 23)

”इससे ब्रह्म का विधिषेशत्व तो सिद्ध होता है परन्तु ‘स्वरूपपर्यवसायित्व’ न सिद्ध हो सकेगा अर्थात् ब्रह्म विधि के आश्रित न होगा। स्वरूप से सिद्ध रहेगा। पूर्वपक्षी के मुख में एक ऐसा षब्द डाल देना जिससे उसका पक्ष हास्यजनक प्रतीत हो और फिर बलपूर्वक उसका निशेध करना तिनके का षत्रु बना कर फिर वीरता से उसका बध करने के समान है। कोई पूर्वमीमांसा का पक्षपाती यह न कहेगा कि इससे ब्रह्म का विधिषेशत्व है स्वरूपपर्यावसायित्व नहीं, सुनने वाला, मनन करने वाला और ध्यान करने वाला तो जीव है। जीव सुनेगा ब्रह्म के विशय में और उसी का मनन या ध्यान करेगा। जीव द्वारा ‘मनव्य’ या ‘निदिध्यासितव्य’ होने के कारण ब्रह्म की स्वरूप सिद्धि में क्या बाधा हो सकती है। दुखती हुई आँख सूर्य को देखने का यत्न करे तो इससे सूर्य में तो कोई दोश नहीं आता। विधिषेशत्व का क्या अर्थ है? भामती में लिखा है:

विधयो हि धर्मप्रमाणम्, ते च साध्यसाधनेतिकर्तव्यता भेदाधिश्ठाना धर्मोत्पादिनष्च तदधिश्ठाना न ब्रह्मात्मैक्ये सति प्रभवन्ति, विरोधादित्यर्थः।

”धर्म में विधियाँ प्रमाण हैं। क्योंकि उनमें साध्य, साधन, इति कर्तव्यता भेद होते हैं। जब ब्रह्म और जीव एक हैं तो उसमें विधि का क्या प्रभाव? वहाँ तो विरोध है, फिर कहा है:

अद्वैते हि विशयविशयिभावो नास्ति। न च कर्तृत्वं, कार्याभावात्। न च करणत्वम् अतएव।

अर्थात् अद्वैत में विशय-विशय तो हैं नहीं न कार्य है। अतः कर्तृव्य है न करणत्व।

यदि ऐसा है तो ‘जन्माद्यस्य यतः’ अर्थात् ईष्वर जगत् का कत्र्ता है इसका क्या अर्थ होगा?

वेदान्त कल्पतरू में इसी सम्बन्ध में कहा हैः-

त्र्यंषा भावना हि धर्मः। तद्विशय विधयः साध्यादिभेदाघिश्ठानास्तद्विशयाः। अपि चैतेऽनुश्ठेयं धममुपदिषन्तस्तदुत्पादिनः पुरूशेण तमनुश्ठापयन्तीति साध्यधर्माधिश्ठानास्तत्प्रमाणानीति यावत्। अतो नित्यसिद्धद्वैतब्रह्मावगमे तेशांविरोध इति।

अर्थात् विधि का सम्बन्ध धर्म से है ब्रह्म से नहीं। धर्म की भावना में तीन अंष होते हैं साध्य, साधन, इति कर्तव्यता। नित्यसिद्ध अद्वैज ब्रह्म में साध्य, साधन का प्रष्न ही नहीं उठतरा। ब्रह्म तो सिद्ध है, नित्य सिद्ध है, कभी साध्य की कोटि में नहीं आता। अतः षास्त्र में विधि वाक्यों की गुंजायष नहीं।

इस प्रकार बाल की खाल निकाल कर जैमिनि की ‘मीमांसा’ और कर्म का विरोध किया गया है। यह ठीक है कि ब्रह्मज्ञान के पष्चात् जीव को कुछ षेश नहीं रहता। परन्तु अल्प जीव को ब्रह्म-ज्ञानी होने और मुक्ति प्राप्त करनेक तक तो कर्म का आश्रय लेना ही पड़ेगा। अतः धर्मानुश्ठान और ज्ञान में सहयोग तो है परन्तु विरोध नहीं। श्री षंकराचार्य जी ने वेदान्त सूत्रों से पूर्व-मीमांसा की अनुपयोगिता दिखाई है यह ठीक नहीं हैं।

षंकर स्वामी ने वेदान्त 3, 2, 21 के भाश्य में बिना प्रसंग के ही इस प्रष्न को फिर छोड़ा है और बड़ी लम्बी चैड़ी व्याख्या करके बताया हैः-

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वेदान्त 3।3।33 सूत्र तथा उसके भाश्य से स्पश्ट है कि वादरायण जैमिनि के विरूद्ध न थे। उसमें पूर्वमीमां न थे। उसमें पूर्वमीमां 3।3।8 की ओर संकेत है।

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‘तस्मादवगतिनिश्ठान्येव ब्रह्म वाक्यानि न नियोगनिश्ठानि।’                               (पृश्ठ 363)

अर्थात् ब्रह्मवाक्य ज्ञान-निश्ठ नहीं।

”द्रश्टव्यादिषब्दा अपि परविद्याधिकारपठितास्तत्वाभिमुखी करण प्रधाना न तत्वावबोधविधि प्रधाना भवन्ति।’                (पृश्ठ 362)

अर्थात् यहाँ कहा कि आत्मा को देखना चाहिये इत्यादि। वहाँ तत्व के ज्ञान की विधि नहीं बताई गई तत्व की ओर ध्यान दिला दिया गया है।

यह दलील भी विचित्र ही है। ‘विधि’ से न जाने क्यों चिढ़ है? ”ध्यान दिलाया गया है। ज्ञान प्राप्ति की विधि नहीं बताई गई।“ यह बात क्या हुई?

(32) अब लिखा हैः-

तस्मान्न प्रतिपत्तिविधि विशयतया षास्त्र प्रमाणकत्वं ब्रह्मणः संभवतीत्यतः स्वतन्त्रमेव ब्रह्म षास्त्रप्रमाणकं वेदान्तवाक्य समन्वतीत्सतः स्वतन्त्रेव ब्रह्म षास्त्रप्रमाणकं वेदान्तवाक्य समन्वयादिति सिद्धम्। एवं च सति ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ इति तद्विशयः पृथक षास्त्ररम्भः उपपद्यते। प्रतिपत्तिविधिपरत्वे हि ‘अथातो धर्मजिज्ञासे त्येवारब्धत्वात्र पृथक् षास्त्रमारभ्येत। आरभ्यमाणं चैवमारभ्येत-‘अथातः परिषिश्ट धर्मजिज्ञासेति’ ‘अथातः क्रत्वर्थपुरूशार्थयोर्जिज्ञसा“ (जै॰ 4।1।1) इतिवत्।      (पृश्ठ  23)

यह तो ठीक है कि भिन्न-भिन्न विशयों का प्रतिपादन करते हैं। परन्तु वे विशय एक दूसरे के विरोधी नहीं होते। और न बादरायण का अभिप्राय जैमिनि-विरोध है। ‘ब्रह्म-जिज्ञासा’ लिखने से ‘धर्म-जिज्ञासा’ का विरोध नहीं, वस्तुतः ब्रह्म जिज्ञासा भी क्रत्वर्थ और पुरूशार्थ की जिज्ञासा ही है। क्योंकि जब अल्प जीव में ब्रह्म के जानने की इच्छा होती है तो उसको उन साधनों की भी इच्छा होती है जो ब्रह्म के जानने की इच्छा होती है तो उसको उन साधनों की भी इच्छा होती है जो ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति में सहायक हैं। ब्रह्म-ज्ञान छू मन्तर से तो हो नहीं जाता। श्री षंकराचार्य जी ने स्वयं ‘अतः’ षब्द की व्याख्या करते हुये ब्रह्मजिज्ञासा के लिये चार साधनों को आवष्यक बताया है (1) नित्यानित्य साधन विवेकः (2) इहामुत्रार्थ भोग विरागः (3) षमदमादि साधन संपत् (4) मुमुक्षत्व। (पृश्ठ 5)

हम पूछते है कि ये चारों चीजें ब्रह्म-ज्ञान के लिये आवष्यक हैं या ब्रह्म-जिज्ञासा के लिये। यदि नित्य अनित्य का विवेक हो गया तो षेश क्या रहा? यदि इस लोक और परलोक के भोगों से वैराग्य हो गया तो आगे क्या रह गया? षमदम आदि साधन क्या ब्रह्म जिज्ञासा, उपासना आदि के बिना ही प्राप्त हो जायँगे? और क्या इनकी प्राप्ति में धर्मानुश्ठान यज्ञ आदि का कोई उपयोग नहीं? यदि इन साधन चतुश्टय के पष्चात् ही ब्रह्मजिज्ञासा का अधिकार है तो वेदान्त के चार अध्यायों का क्या उपयोग होगा जिनमें क्रमानुसार समन्वय, विरोधपरिहार, साधन और फल की मीमांसा बताई गई है?

छान्दोग्य उपनिशद् में जो यह वाक्य है ”तद्यथेह कर्मचितोलोकः क्षीयते एवमेवामुत्रपुण्यचितो लोकः क्षीयते“ (छा॰, 8।16) इत्यादि इस वाक्य को षांकर मत में बहुत बढ़ा चढ़ा कर वर्णन किया है और इसके आधार पर कर्मानुश्ठान यज्ञ, इश्टियों, कर्मकाण्ड, उपासना आदि का बलपूर्वक खण्डन किया गया है। परन्तु है यह उपनिशद्-वाक्य का दुरूपयोग। उपनिशद् का यह वाक्य तो केवल इतना बताया है कि कर्म का फल नित्य या अनन्त नहीं है कभी न कभी क्षीण होगा। क्योंकि कर्म भी तो सान्त है। इसका अनन्त फल कैसे, परन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि कर्म की अवहेलना की जाय। हम जीवन में जितने कर्म करते हैं वे सब सान्त हैं और उनके फल भी सान्त है। परन्तु इन सान्त कर्मो को छोड़ भी तो नहीं सकते। उन सब सान्त कर्माें का उपयोग है। अपनी जीवन यात्रा में मैं जो पग उठाता हूँ वह सान्त अवष्य है परन्तु सान्त होते हुए भी वह मुझे अपने निर्दिश्ट स्थान के निकटत्तर पहुँचाता है। यही इसका उपयोग है।

बादरायण के सूत्रों का षांकर-भाश्य अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण है। षंकर स्वामी की विवरण षक्ति गजब की है। और उनकी मौलिकता भी उनके विरोध में लिखे गये उन सब पर उनकी छाप भीर वे उन्हीं का अनुकरण करते हैं। परन्तु षांकर-चतुःसूत्री में वेदान्ताध्ययन के आरम्भ में ही दो बड़ी हानिकारक मनोवृत्तियां उत्पन्न कर दी जाती है एक तो जगत् की वास्तविकता के विरोध में और दूसरी कर्म के विरोध में। ये दोनों मनोवृत्तियां बादरायण के सूत्रों की स्पिरिट के विरूद्ध हैं। चतुःसूत्री इन्हीं दो बातों से भरी है। यद्यपि वेदान्त के बहुत से सूत्रों की षंकर स्वामी ने इन मनोवृत्तियों क विरूद्ध व्याख्या की हैं क्यांेकि सब स्थानों पर इस विचित्र प्रतिपत्ति को निबाहना कठिन था। और कहीं व्यावहारिक और कहीं प्रातिभासिक व्याख्या करके किसी न किसी प्रकार छुटकारा पाने का यत्न किया है। तथापि जो विशैलास वातावरण उत्पन्न कर दिया गया है उसने समस्त आर्य जीवन पर बुरा प्रभाव डाला है।

हम यह मानते हैं कि बौद्धों के वेद-विरोधी-वातावरण को हटा कर आचार्य षंकर जी ने वेदों की स्थापना की। परन्तु उपनिशदों को वेद से हटा कर एक ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दिया जिसमें वेदाध्ययन सर्वथा छूट गया। और संसार कार्य क्षेत्र को छोड़ कर लोग एक मनों-निर्मित कल्पित जगत् की तलाष में संलग्न रहे जिसकी काल्पनिक सत्ता कितनी ही रोचक क्यों न हो, वह वास्तविकता से बहुत दूर है।

षांकर भाश्य में कई आपत्तिजनक प्रतिपत्तयां हैं परन्तु उनका वर्णन चतुःसूत्री में नही है अतः उनका वर्णन मिलेगा।

Advaitwaad Khandan Series 3 : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

श्री स्वामी शंकराचार्य जी ने वेदान्त दर्षन का जो भाष्य  किया है उसके आरम्भ के भाग को चतुःसूत्री कहते है। क्योंकि यह पहले चार सूत्रों के भाश्य के अन्र्तगत है। इस चतुःसूत्री में भाश्यकार ने अपने मत की मुख्य रूप से रूपरेखा दी है। इसलिये चतुःसूत्री को समस्त षांकर-भाश्य का सार कहना चाहिये। वादराय-कृत चार सूत्रों के षब्दों से तो षांकर-मत का पता नहीं चलता। वे सूत्र ये हैंः-

(1) अथातो ब्रह्मजिज्ञासा-अब इसलिये ब्रह्म जानने की इच्छा है।

(2) जन्माद्यस्य यतः-ब्रह्म वह है जिससे जगत् का जन्म, स्थिति तथा प्रलय होती है।

(3) षास्त्रायोत्विात्-वह ब्रह्म षास्त्र की योनि है अर्थात् वेद ब्रह्म से ही आविर्भूत हुये है।

(4) तत्तु समन्वयात्-ब्रह्म-कृत जगत् और ब्रह्म-प्रदत्त वेद में परस्पर समन्वय है। अर्थात् षास्त्र में कोई चीज नही जो सृश्टि-क्रम के विरूद्ध हो। सृश्टि से षास्त्र का और षास्त्र से सृश्टि का बोध होता है। दोनों को ब्रह्म की रचना कहना चाहिये। षास्त्र को षब्द-रचना और जगत् को अर्थ-रचना।

षांकर-चतुःसूत्री को षांकर वेदान्त की भूमिका या नींव कहना चाहिये। श्री षंकराचार्य जी ने पहले इस भूमिका को दृढ़ किया है। फिर अपने मत का विषाल भवन बनाया है। इसलिये जो कोई षांकर-वेदान्त की मीमांसा करना चाहे पहले उसे चतुःसूत्री की भली भाँति मीमांसा करनी चाहिये। प्रष्न तीन हैं।

(1) क्या चतुःसूत्री मे जो प्रतिपत्तियाँ स्थापित की गई हैं वे निर्दोश हैं?

(2) क्या उनकी सिद्धि उपनिशदों से होती है?

(3)  क्या वादरायण के उन चार सूत्रों के षब्दों से यह प्रतिपत्तियाँ निकलती हैं?

ये प्रतिपत्तियाँ क्या है? उन्ही के षब्दों मे पहली प्रतिपत्ति सुनियेः-

1-पहली प्रपिपत्ति

अस्मत् प्रत्ययगोचरे विशयिणि चिदात्मके युश्मत्प्रत्यय गोचरस्यविशयस्य तद्धर्माणां चाध्यासः। तद् विपर्ययेण विशयिणस्तद्धर्माणं च विशयेऽध्यासों मिथ्येति भवितुं युक्तम्। तथाप्यन्तोन्यस्मिन्न न्योन्यात्मकतामन्योन्यधर्माष्चध्यस्तेरेतराविवेकेन, अत्यन्त विविक्तयोर्धर्मधर्मिणोर्मिथ्याज्ञानानमित्तः सत्यानृते मिथुनीकृत्य, अहमिदं ममेदमिर्ति नैसर्गिकोऽयं लोकव्यवहारः।

(उपोद्घात पृश्ठ 1)

अहंभाव के द्योतक चेतन विशयी मे तुम भाव के द्योतक विशय का तथा उसके धर्मो का अध्यास मिथ्या है। और विशय मे विशयी तथा उसके धर्मो का भी अध्यास मिथ्या है। परन्तु लोक में ऐसा नैसर्गिक व्यवहार है कि विवके-षून्यता के कारण मिथ्या द्वारा एक दूसरे में एक दूसरे के धर्माे का अध्यास करके ही ‘मैं यह हूँ’, ‘यह मेरा है’ आदि आदि का प्रयोग किया जाता है। इस प्रतिपत्ति को स्पश्ट करने की आवष्यकता है। संसार में दो चीजें है। एक विशयी और दूसरा विशय। ‘मैं सूर्य को देखता हूँ।’ इस व्यापार में ‘सूर्य’ विशय है और ‘मैं’ विशयी। मैं ‘अस्मत् प्रत्ययगोचर’ हूँ। ओर सूर्य ‘युश्मत्-प्रत्ययगोचर’ इसी प्रकार अन्य पदार्थो को लेना चाहिये। एक ज्ञाता और दूसरा ज्ञेय। श्री षंकराचार्य जी का कहना है कि विशयी और विशय अलग-अलग हैं। वे ‘अत्यन्त विविक्त’ है। उनमें तथा उनके धर्मो में कोई समानता नहीं। परन्तु अज्ञानवष लोग विशय में विशयी का और विशयी में विशय का अध्यास अर्थात् मिथ्या कल्पना कर लेते है। ‘मैं सूर्य को देखता हूँ’ भिन्न है। मैं सूर्य नही, सूर्य मैं नहीं। सूर्य के धर्म मेरे नहीं। मेरे धर्म सूर्य धर्म नहीं। फिर मुझमें और सूर्य में ऐसा सम्बन्ध ही कैसे हो सकता हे कि मैं सूर्य को देखता हूँ। अब यदि मंै यह कहता हूँ कि मैं सूर्य को देखता हूँ तो मानों मैं अपने में सूर्य का अध्यास (मिथ्या कल्पना) कर रहा हूँ।

इस प्रतिपत्ति के अनुसार जगत् का मिथ्यात्व सिद्ध है।

श्री षंकराचार्य जी ने गौड़पादीय निम्नकारिका का इस प्रकार स्पश्टीकरण किया हैः-

अन्तः स्थानात्तु भेदानां तस्माज्जागरिते स्मृतम्।

यथा तत्र तथा स्वप्ने संवृतत्वेन मिद्यते।।

जाग्रद् दृष्यानां भावानां वैतथ्यमिवि प्रतिज्ञा। दृष्यत्वादिति हेतुः। स्वप्न दृष्य भाववदिति दृश्टान्तः।

अर्थात् जागते में जो दृष्य देखते है वे मिथ्या हैं। हेतु यह है कि वे दिखाई पड़ते है। जैसे स्वप्ने में देखी हुई चीजे मिथ्या होती हैं इस प्रकार जागते में भी जो दृष्य दिखाई पड़ते हैॅं, वे मिथ्या है।

इससे क्या परिणाम निकला? सुनियेः-

(1) तमेतमेवं लक्षणामध्यासं पण्डिता अविद्येति मन्यन्ते।

(पृश्ठ 2)

(2) न चानध्यस्तात्मभावेन देहेन कष्चिद् व्याप्रियते।

(पृश्ठ 3)

(3) तस्मादविद्यावद् विशयण्येव प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि षास्त्राणि च।

(पृश्ठ 4)

अर्थात् (1) इस अध्यास को ही पण्डित लोग अविद्या कहते है।

(2) जब तक देह में आत्माभाव का अध्यास न किया जाय कोई व्यापार नहीं हो सकता।

(3) इसलिये प्रत्यक्ष आदि प्रमाण तथा षस्त्रा अविद्यावत् विशय ही हैं।

(4) एवमयमनादिरनन्तो नैसर्गिकोऽध्यासों मिथ्याप्रत्ययरूपः कर्तृत्वभोक्ृतत्व प्रवर्तकः सर्वलोक प्रत्यक्षः।

(पृश्ठ 4)

यह अध्यास मिथ्या है परन्तु अनादि अनन्त और नैसर्गिक है। इसी से मनुश्य की कर्तृत्व और भोक्ृतत्व में प्रवृत्ति है। यह सब लोक में प्रत्यक्ष है।

यह तो स्पश्ट ही है कि वादरायण के सूत्रों के किसी षब्द से इस प्रतिपत्ति की झलक तक नहीं मिलती। परन्तु हमारा कहना है कि इस प्रतिपत्ति की स्थापना में जो हेतु दिये है वे सब अयुक्त (गलत) है।

श्री षंकराचार्य इस हेतु से आरम्भ करते हैः-

युश्मदस्मत् प्रत्ययगोचर योर्विशय विशयिणोस्तमः प्रकाशवद् विरूद्ध स्वभावयोरितरेतभावानुपपत्तैत्तौ सिद्धायां तद्धर्माणामपि सुतरामितरेतरभावानुपपत्तिरिति।

अर्थात् जैसे अँधेरे और उजाले में परस्पर विरोध है। उसी प्रकार विशय और विशयी में भी विरोध है और उनके धर्माें में भी विरोध है। इसलिये एक दूसरे के भावों की अनुपपत्ति है।

यहाँ सब से भारी भूल है दृश्टान्त चुनने में। अन्धकार और उजाला परस्पर विरोधी हैं परन्तु विशय परस्पर विशयी नही। भिन्नता और विरोध है ऐसा ही विशय और विशयी में भी विरोध है। उजाला ओर प्रकाष मिल नहीं सकते। प्रकाश आते ही उजाला भाग जाता है परन्तु विशय आते ही विशयी नहीं भाग जाता। यह ठीक है कि मैं सूर्य नहीं। परन्तु मेरा और सूर्य का परस्पर विरोध भी नहीं है। यदि प्रकाष न हो तो अँधेरा होगा। यदि अँधेरा न हो तो उजाला होगा। अधेरा और उजाला साथ नहीं रह सकते परन्तु यदि विशयी न हो तो विशय न रहेगा और यदि विशय न हो तो विशयी न रहेगा। विशय और विशयी का परस्पर सम्बन्ध है। वह सम्बन्ध अँधेरे और उजाले में नहीं हॅै। सम्बन्ध दो भिन्न वस्तुओं में ही हो सकता है। एक ही वस्तु हो तो सम्बन्ध कैसा? सम्बन्ध न अध्यास है अध्यास जन्य।

जब भूमिका की सबसे पहली ईंट ही निर्बल है तो आगे दीवार कैसे ठहरेगी?

अब अध्यास को लीजिये। अध्यास के जो लक्षण श्री षंकराचार्य जी ने किये है उन सब को हम माने लेते है, क्योंकि उनके कथनानुसार

सर्वथापि व्वन्यस्यान्यधर्मावभासतां न व्यभिचरति। (पृश्ठ 2)

अर्थात् अध्यास के विशय में कोई सिद्धान्त क्यों न ठीक हों एक बात तो सब लक्षणों में समान है अर्थात् अन्य में अन्य के धर्माे की प्रतीति। जैसे सीपी में चाँदी की प्रतीति।

परन्तु मुख्य प्रष्न तो यह है कि क्या अध्यास ‘अनादि,’ ‘अनन्त’ और ‘नैसर्गि’ है जैसे श्री षंकर स्वामी ने माना है। हमको सीपी में चाँदी की भी प्रतीति होती और सीपी की भी। सांप हमको सांप भी प्रतीत होता है और रस्सी भी। रस्सी कभी रस्सी ही दृश्ट पड़ती है और कभी सांप भी। ऐसा व्यवहार अनादि, अनन्त और नैसर्गिक क्यों माना जावे? यदि यह व्यवहार अनादि और अनन्त है तो इसका अन्त न हो सकेगा और श्री षंकराचार्य जी का यह कथन सर्वथा अनुपयुक्त होगा कि

अस्यानर्थहेतोः प्रहाणाय आत्मैकत्वविद्या प्रतिपत्तये सवेैवेदान्ता आरभ्यन्ते।

(पृश्ठ 4)

‘अनन्त’ का ‘प्रहाण’ कौन कर सकता है और वह भी नैसर्गिक का। अग्नि की उश्णता अनादि, अनन्त और नैसर्गिक है। इसका तिरोभाव तो हो सकता है परन्तु ‘प्रहाण’ कैसे होगा? दूसरी बात यह है कि अनादि, अनन्त और नेैसर्गिक व्यवहार मे अध्यास की सिद्धि कैसे होगी? यह रस्सी में सांप की प्रतीति अनादि, अनन्त और नैसर्गिक व्यवहार हो तो यह कैसे सिद्ध होगा कि वस्तुतः रस्सी है साँप प्रतीत हो रही है। क्योंकि जब देखा उसको साँप ही देखा। संदेह तो तब होता जब वही चीज कभी रस्सी दृश्ट पड़ती और कभी साँप। यदि एक वस्तु सदा ही साँप दिखाई पड़ती है तो न तो संदेह के लिये कोई स्थल है न कौनसी ख्याति है इसकी खोज की आवष्यकता।

श्री षंकराचार्य जी ने ‘अध्यास’ विशय में लोक के दो अनुभव दिये है। एकः

‘षुक्तिका हि रजतवदवभसते।’   (पृश्ठ 2)

सीपी चाँदी मालूम होती है। दूसरा

‘एकष्चन्द्रः सद्वितीयवत्’।  (पृश्ठ 2)

एक चाँदी के दो चाँद दिखाई पड़ते है।

क्या यह दोनों अनादि अनन्त और नैसर्गिक अध्यास के उदाहरण है? प्रायः तो सीपी सीपी ही मालूम होती है। यदि ऐसा न होता तो यह कह ही नहीं सकते थे कि वस्तुतः यह सीपी है चाँदी प्रतीत होती है। यदि चाँदी सदा दो दिखाई देते तो कौन कहता कि वस्तुतः एक है दो प्रतीत होते है। ‘सम्यक् ज्ञान’ और ‘प्रतीति’ में क्या भेद है? अनादि, अनन्त और नैसर्गिक तो सम्यक् ज्ञान ही हो सकता है अध्यास नही।

इस पर षंकर स्वामी ने बड़ा प्रबल पूर्णपक्ष उठाया है।

”कथं पुनः प्रत्यगात्मन्यविशयेऽध्यासो विशयतद्धर्माणाम्। सर्वो हि पुरोऽवस्थिते विशये विशयान्तरमध्यस्यति, युश्मत् प्रत्ययापेतस्य च प्रत्यगात्मनोऽविशयत्वं ब्रवीशि“ इति।

(पृश्ठ 2)

प्रष्न करते है कि ”अविशय में विशय का अध्यास कैसे हो सकता है? एक विशय में दूसरे विशय का अध्यास तो सभ मानते है। तुमने पहले ही कह दिया कि विशयी विशय सेे विरूद्ध है। अविशय है।“

प्रभु बड़ा स्पश्ट है और प्रबल है, इसका उत्तर सर्वथा असंगत और निर्बल है, सुनिये।

(1) पहला उत्तर –

न तावदयमेंकान्तेनाविशयः। अस्मत्प्रत्ययविशयत्वात्, अपररोक्षत्वाच्च प्रत्यगात्मप्रसिद्धेः।

(पृश्ठ 2)

आत्मा एकान्तेन (पूरा पूरा) अधिशय नहीं है ‘मैं हूँ’ यह ज्ञान भी तो विशय और विशयी हो गया। ‘मैं हूँ’ यह ज्ञान तो प्रत्यक्ष ही है। यदि यह बात है तो विशय और विशयी का अँधेरे उजाले का विरोध कहाँ रहा? वही विशयी भी है और विशय भी। ‘मैं हूँ’ इस बात का ज्ञान मुझको है। अर्थात् मैं ही विशय हूँ और मै ही विशयी। क्या मुझमें ‘अपनत्व’ का ज्ञान भी अध्यास कहा जायगा? यदि ऐसा हो तो अध्यास के लक्षण ”अतस्मिंस्तद्बुद्धिः“ न घट सकेंगे।

(2) दूसरा उत्तर और विचित्र है-

न चायमस्ति नियमः पुरोऽवस्थित एव विशयेविशयान्तरमध्यसितव्यमिति। अप्रत्यक्षेऽपि ह्याकाषे बालास्तलमलिनताद्यध्यस्यन्ति।      (पृश्ठ 2)

”यह नियम नही है कि जो विशय उपस्थित हो उसी में दूसरे विशय का अध्यास किया जाय। आकाष अप्रत्यज्ञ है फिर भी मूर्ख लोग उसमें रंग का अध्यास कर लेते हैं“ै।

यह दृश्टान्त सर्वथा दूशित है। जिस आकाष को मूर्ख लोग नीला नीला कहते है वह दार्षनिक आकाष तत्व व्यापक है उसको तो लोग जानते भी नहीं। और न उसका रंग नीला है। जो ‘आकाष’ तत्व व्यापक हे उसको तो लोग जानते भी नहीं। वह तो प्रत्यक्ष आकाष को ही नीला या मैला कहते हैं। एक षब्द के कई अर्थ होते है, दार्षनिक ‘आकाष’ और बोलचाल के ‘आकाष’ षब्द को एक दूसरे के अर्थ मे लेना और उसको दृश्टान्त बना कर उससे एक प्रपत्ति की स्थापना करना सर्वथा असंगत है।

यदि यह कहा जाय कि अनादित्व, अनन्त और नैसर्गिकत्व अध्यस्त उदाहरणों के लिये नहीं किन्तु आत्मा के अध्यासरूपी व्यापार के सामान्य स्वभाव के लिये है। जैसे आँख का काम है देखना। यह है नैसर्गिक। परन्तु किस विषेश वस्तु को देखना। यह दूसरी बात है। तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि यदि अध्यास आत्मा का अनादि, अनन्त ओर नैसर्गिक व्यापार हो तो उसका ‘प्रहाण’ कैसे हो सकेगा?

विशयी और विशय या ज्ञाता और ज्ञेय के सम्बन्ध मात्र को अन्धकार और प्रकाष से तुलना करना पहली मौलिक भूल है और उस सब को ‘अध्यास’ मानना दूसरी। वस्तुतः अन्धकार में कोई कभी प्रकाष में अन्धकार का।

श्री षंकराचार्य जी ने अध्यास के लक्षण किये हैः-

स्मृतिरूपः परत्र पूर्वदृश्टावभासः।       (पृश्ठ 1)

इस लक्षण को युश्मत् प्रत्यय और अस्मत् प्रत्यय में कैसे घटा सकते हैं। पूर्वदृश्ट (पहले देखा हुआ) क्या है और ‘परत्र’ क्या? अध्यास के लिये तीन चीजें चाहिये। (1) पूर्वदृश्ट (2) उसकी स्मृति (3) परत्र। मैंने पहले वास्तविक साँप देखा-यह हुआ पूर्वदृश्ट। मुझमें उसको स्मृति रही। दूसरा रस्सी ‘परत्र’ है जिसमें पूर्व दृश्ट स्मृति के कारण साँप का अध्यास हुआ। वर्तमान जगत् को मिथ्या सिद्ध करने के लिए आवष्यक है कि पहले कभी वास्तविक देखा गया हो। फिर उसकी स्मृति रही हो और उसके लिए ‘परत्र’ भी चाहिए। यदि वास्तविक जगत् पहले देखा था तो उस जगत् को सत्य मानना पड़ेगा। या आगे चलते जाओ तो अनवस्था दोश आयेगा। सारांष यह है कि यदि ”सत्य“ और ”अनृत“ का ”मिथुनीकरण“ नैसर्गिक लोकव्यवहार है तो इसके नैसर्गिकत्व का कोई कारण होना चाहिये। यदि कहो कि नैसर्गिक तो नैसर्गिक ही हेै। इसका कारण कैस? तो इससे छुटकारे का क्या अर्थ? और नैसर्गिक व्यवहार को मिथ्या कहने का क्या अर्थ ? यदि नैसर्गिक है तो ‘सत्यानृत’ का मिथुनीकरण नहीं। और यदि मिथुनिकरण है तो नैसर्गिक नहीं। यदि जल का जलतव नैसर्गिक है तो इसमें सत्य और अनृत का मेल कैसा?

प्रबल आक्षेपों का निर्बल उत्तर देखना हो तो षांकर चतुःसूत्री में मिलेगा। प्रष्न करते है-

”कथं पुनरविद्यावद्विशयाणि प्रत्यक्षादीनि प्रमाणानि षास्त्राणि चेति“।     (पृश्ठ 2)

अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाण और षास्त्र अविद्यावत् कैसे?

बड़ा कठिन प्रष्न है। यदि प्रत्यक्ष है तो अविद्यावत् नहीं और यदि अविद्यावत् है तो प्रत्यक्ष नहीं।

इसका उत्तर सुनियेः-

(1) देहेन्द्रियादिश्वहंममाभिमानरहितस्य प्रमातृत्वानुपपत्तौ प्रमाण प्रवृत्त्यनुपपत्तेः।    (पृश्ठ 2)

(2) नहीन्द्रियाण्यनुपादाय प्रत्यक्षादिव्यवहारः संभवति।                  (पृश्ठ 2)

(3) नचाधिश्ठानमन्तनरेणोन्द्रियाणां व्यवहारत् संभवति।                   (पृश्ठ 2)

(4) नचानध्यस्तात्मभावेन देहेन कष्चिद्व्याप्रियते।                पृश्ठ 3)

(5) न चैतस्मिन् सर्वस्मिन्नप्तति असंगत्यात्मनः प्रमातृत्वमुपपद्यते।          (पृश्ठ 3)

(6) न च प्रमातृत्वमन्तरेण प्रमाणप्रवृत्तिरस्ति।                  (पृश्ठ 3)

अर्थः-

(1) देह, इन्द्रिय आदि में ‘अहं’ ‘मम’ भाव नहीं है। इसलिये वह प्रमाता नहीे, जो प्रमाता नही उसकी प्रमाण में प्रवत्ति नहीं।

(2) बिना इन्द्र्रियो के प्रत्यक्षादि व्यवहार नहीं होते।

(3) बिना अधिश्ठान के इन्द्रियो का व्यवहार संभव नहीं।

(4) जिस देह में आत्मा का अध्यास न हो वह देह व्यापार नहीं कर सकती।

(5) और यदि यह सब न हो तो असंगत आत्मा प्रमाता कैसे होगा?

(6) प्रमाता के बिना प्रमाण की प्रवृत्ति कैसे होगी?

पहली तीन बाते ठीक हैं, परन्तु चैथी ठीक नहीें, और उसके द्वारा जो उत्तर दिया गया है वह भी ठीक नहीं।

यह ठीक है कि देह और इन्द्रियाँ प्रमाता नहीं हो सकतीं। परन्तु प्रमाता का साधन तो हो सकती है। इसलिये तो कहा है कि बिना इन्द्रियों के प्रत्यक्ष आदि व्यवहार नहीं हो सकते। उपकरण का अध्यास कहना भूल है। अध्यास के किसी लक्षण से इन्द्रियों का उपकरण होना अध्यास नहीं कहा जा सकता। ‘स्मृतिरूपः परत्र पूर्वदृश्टावभासः’ पर विचार किजिये, और फिर उसे प्रत्यक्ष पर घटाइये। ‘पूर्वदृश्ट’ क्या है? उसकी स्मृति क्या है? और परत्र क्या है? थोड़े से विचार से पता चल जायगा कि यह कहना नितान्त अयुक्त है कि ”न चानध्यस्तात्मभावेन देहेन कष्चिद् व्याप्रियते“। यह तो कह सकते है कि बिना इन्द्रियों की सहायता के आत्मा को प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। अर्थात् इन्द्रियाँ उपकरण है।

यदि ‘अतस्मिस्तद्बुद्धिः’ पर विचार करें तो प्रष्न यह है कि प्रत्यक्षादि व्यवहार में क्या इन्द्रियाँ अपने को आत्मा समझती है? या आत्मा अपने को इन्द्रिय समझता है? यह तो स्पश्ट है कि इन्द्रियाँ अपने को आत्मा नहीं समझतीं। उनमें स्वयं बुद्धि ही नहीं जो अपने में किसी अन्य वस्तु की बुद्धि कर सकें। आत्मा भी अपने को इन्द्रिय नहीं समझता। यदि ऐसा होता तो अन्धे को भी रूप का अवभास होता क्योंकि आँखें न होते हुए भी वह अपने में आँखों की बुद्धि कर सकता। वस्तुतः बात यह है कि जिसको षंकर स्वामी अध्यास बताते हैं वह आत्मा द्वारा आँख का प्रयोग है। दूसरे अध्याय के दूसरे पाद के दूसरे सूत्र ‘प्रवृत्तेष्च’ का भाश्य करते हुए षंकर स्वामी ने जो वर्णन किया है वह अधिक ठीक है। वह लिखते हैंः-

”न ब्रमो यस्मिन्नचेतने प्रवृत्तिर्दृष्यते न तस्य सेति। भवतु  तस्यैव सा। सातु चेतनाभ्दवतीति ब्रमः। तभ्दावे भावात्तदभावे चाभावात्।    (पृश्ठ 222)

यहाँ यह बताया गया है कि आत्मा ‘प्रवत्र्तक’ है, देह आदि इन्द्रियाँ ‘प्रवत्र्य’ हैं। और उनमें ‘प्रवृत्ति’ आत्मा द्वारा आती है। परन्तु यहाँ अध्यास नहीं है। इस सम्बन्ध में षंकराचार्यजी ने एक प्रबल पूर्वपक्ष खड़ा किया है ”एकत्वात् प्रवत्र्याभावे प्रवर्तकत्वानुपपत्तिरिति।“ अर्थात् षांकर मत में सब जगत् मिथ्या और केवल आत्मा ही सत्य है तो बिना ‘प्रवत्र्य’ के प्रवर्तकत्व कैसा और प्रवृत्ति कैसी? यह ऐसा प्रष्न है कि उससे अध्यासवाद का समस्त प्रासाद धराषयी हो गया है। षंकराचार्यजी ने इसका जो उत्तर दिया है वह सर्वथा खोखला है। वे कहते हैंः-

‘न। अविद्याप्रत्युपस्थापितनामरूपमायावेषवषेनासकृत् प्रत्युक्तवात्।        (पृश्ठ 223)

अर्थात् अविद्या के कारण नामरूप का मायाजाल बन जाता है।

यह प्रष्न का उत्तर नहीं है अपितु प्रष्न को और जटिल बना दिया है। यहाँ अविद्या और माया दोनों षब्द मिले-जुले प्रयुक्त किये गये है। यह उत्तर नहीं किन्तु उत्तराभास है। ऐसे उत्तर तो किसी प्रष्न के दिये जा सकते हैं। पूर्वपक्ष जैसा का तैसा उपस्थित रहता है।

अब षंकर स्वामी-प्रदत्त अध्यास के कुछ उदाहरणों की विवेचना कीजिये।

पुत्रभार्यादिशु विकलेशु सबलेशु वा अहमेव विकलःसकलो वेति वाह्यधर्मानात्मन्यध्यस्यति।

(पृश्ठ 3)

अर्थात् पुत्र भाई आदि के सुख-दुखः से आत्मा स्वंय अपने को सुखी या दुःखी मान लेता है यह अपने मे बाह्य धर्मों का अध्यास है।

(2) तथा देहधर्मान्-स्थूलोऽहं, गौरोऽहं, तिश्ठामि, गच्छामि, लघयानि चेति।  (पृश्ठ 3)

अर्थात् देह स्थूल है, गोरी है। आत्मा न स्थूल है न कृष न गौर। परन्तु जब आत्मा कहता है कि मैं स्थूल हूँ तो देह के स्थूलता धर्म का अपने में अध्यास करता है। इसी प्रकार देह चलती है न कि आत्मा।

(3) तथेन्द्रियधर्मान्-मूकः, काणः, लकीबः, बधिरः, अन्धोहमिति।

अर्थात् आत्मा काना नहीं, आँख कानी है परन्तु आत्मा कानेपन का अपने में अध्यास करता है।

(4) तथाऽन्तःकरणधर्मान् कामसंकल्पविचिकित्साध्यवसायादीन्।

अर्थात् काम संकल्प आदि अन्तःकरण के धर्म है। आत्मा अपने में उनका अध्यास करता है।

यहाँ चार उदाहरण दिये गये है। पहले उदाहरण में कुछ-कुछ अध्यास की झलक है, परन्तु यह दुःख सम्बन्ध के कारण है। यदि पुत्र के पेट में पीड़ा का अपने पेट में अध्यास कभी नहीं करता। उसको दुःख भिन्न है और पिता भिन्न। यह ”अतस्मिंस्तद्बुद्धि“ का लँगड़ा दृश्टान्त है।

‘मैं स्थूल हूँ’ का स्पश्ट अर्थ यह है कि मेरा षरीर स्थूल है। किसी को षरीर की स्थूलता में अपनी स्थूलता की बुद्धि नहीं होती। ‘मैं जाता हूँ’ यह उदाहरण तो सर्वथा अनुपयुक्त है। यदि रेल में बैठा हुआ मैं प्रयाग से काषी गया तो यह कहना कि वास्ताव में रेल मैं प्रयाग में ही बैठा रहा मैंने रेल के जाने का अपने में अध्यास कर लिया स्पश्ट तथा हास्यप्रद है। इसी प्रकार ‘अन्धोहम्’ का अर्थ यही है कि मेरे आँख नहीं। नेत्र तो अन्धे नहीं होते। जब नेत्र नश्ट हो जाते हैं तो मनुश्य अन्धे नहीं होते। जब नेत्र नश्ट हो जाते हैं तो मनुश्य अन्धा हो जाता है।

यहाँ षायद आप पूछेंगे कि यदि अध्यास कोई चीज ही नही ंतो भिन्न-भिन्न ख्यातियों का प्रष्न क्यों उठा ?

हम कहते हैं कि हम अध्यास का खण्डन नहीं करते। अध्यास होता है। परन्तु वह उत्सर्ग नहीं उपवाद मात्र है। हम प्रायः रस्सी को रस्सी ही देखते हैं। कभी-कभी रस्सी में साँप की प्रतीति हो जाती है। इस प्रतीति का कारण ढूँढने के लिये ही ख्यातियों की षरण ली जाती है। इस प्रतीतियों को अपवाद मानने से समस्त जगत् मिथ्या सिद्ध नहीं होता। और यदि इनको उत्सर्ग माना जावे तो अध्यास के लक्षण नहीं बनते जैसा हम ऊपर कह चुके हैं। यदि कभी साँप का सत्यज्ञान हुआ ही नही हो रस्सी में साँप की प्रतीति भी नहीं हो सकती।

षंकराचार्यजी जगत् में समस्त व्यवहार को अध्यास परक कहते हैं यही भूल है। उन्होनें मनुश्यो के व्यापार की पषुओं के व्यापार से तुलना करके मनुश्यों को पषुओं के समान अविवेकी बताया है। परन्तु दृश्टान्त के लिये पषुओं का वह व्यवहार चुना हैं जिसको अविवेक नहीं विवके ही कहना पड़ेगा। वे लिखते हैंः-

”पष्चादिमिष्चाविषेशात्। यथा हि पष्वादयः षब्दादिभिः श्रोत्रादीनां सम्बन्धे सति षब्दादिविज्ञाने प्रतिकूले जाते ततो निवर्तनतं अनुकूले च प्रवतन्ते यथा दण्डोद्यतकृरं पुरूशमभिमुखमुपलभ्य मां हन्तुमयमिच्छतीति पलायितुमारभन्ते, हरिततृण्पूर्णपाणिमुपलभ्य तं प्रत्यभिमुखीभवन्ति, एवं पुरूशा अपि व्युत्पन्नचित्ताः क्रूरदृश्ट नाक्रोषतः खड्गोद्यतकरान् बलवत उपलभ्य ततो निवर्तन्ते, तद्विपरीतान् प्रति प्रवर्तन्ते, अतः समानः पष्चादिभिः पुरूशाणां प्रमाणप्रमेयव्यवहारः। पष्चादीनां च प्रसिद्धोऽविवेक पुरःसरः प्रत्यक्षादिव्यवहारः। तत्सामान्यदर्षनाद्व्युत्पत्तिमतामपि पुरूशाणां प्रत्यक्षादिव्यवहारस्तत्कालत् समान इति निष्चीयत।“   (पृश्ठ 3)

यहाँ श्री षंकराचार्यजी को सिद्ध करना है कि जैसे पषु मूर्ख होते हैं उसी के समान पुरूश भी मूर्ख होते है। इनकी युक्ति सुनिये। बड़ी विचित्र है। पषु यदि किसी को लकड़ी हाथ में लिये देखे तो उसकी और आता है कि कहीं मार न दे। और हरी घास हाथ में देखे तो उसकी ओर आता है। ऐसा ही व्यवहार पुरूश करते है। पषु अविवेकी है अतः पुरूश भी उसके समान व्यवहार करके अविवेकी हो गये। यहाँ पषुओं की अविवेकता दिखाने के लिये जो व्यापार चुना गया वह सर्वथा विवके सूचक है। लकड़ी से डरना और घास से प्रेम करना पषुओं के विवके सूचक द्योतक हे अविवेक का नहीं। यह तो पषुओं को बड़े अनुभव से प्राप्त हुआ है। और यदि पुरूश भी इसका अनुकरण करते है। तो विवेकी हैं अविवेकी नहीं। हाँ, यदि पषुओं के किसी विवेकषून्य व्यवहार का दृश्टान्त दिया जाता तो ठीक था। पषु भी किसी-किसी बात में भ्रान्त हो जाते हैं ओर मनुश्य भी। इससे उनके समस्त व्यवहारों को भ्रम-युक्त कहकर समस्त संसार को अविद्यावत कहना ठीक नहीं।

फिर षास्त्र को अविद्यावत् कहना तो और भी बड़ी भूल है। इन्द्र-जाल की पुस्तक और षांकर-भाश्य को किसी प्रकार भी एक कोटि में नहीं रख सके। पहली चीज नितान्त धोखा है। दूसरी में तो कहीं-कहीं भूल हो सकती है। इसी प्रकार उपनिशद् आदि भी षास्त्र है ओर उनकी कथा या व्याख्या जगत् के व्यापार के अन्तर्गत हैं। वे अविद्यावत् कैसे हो सकती है!

इस सम्बन्ध में एक बात विचारणीय है। रस्सी में साँप की ही प्रतीति क्यों होती है? हाथी की प्रतीति क्यों नहीं होती? मृगतृश्णिका में जल की ही प्रतीति क्यों होती है रेलगाड़ी की प्रतीति क्यों नहीं होती? जिस प्रकार रस्सी में साँप का अभाव है उसी प्रकार हाथी का भी अभाव है। ठूँठ को भ्रम से चोर तो समझ सकते हैं परन्तु सूरज नहीं समझ सकते।

हम यह नहीं कहते कि संसार में धोखा नहीं है। धोखा है। परन्तु उस धोखे की बुनियाद भी सत्य पर है। लोग दुध में पानी मिला देते हैं जिससे लेने वालों को पानी में दूध-बुद्धि हो जाय, परन्तु दूध में मक्खी डाल कर कोई धोखा नहीं दे सकता। क्या कारण है कि मनुश्य पानी में तो दूध-बुद्धि कर लेता है और मक्खी में नहीं। संसार की समस्त प्रकार की भ्रान्तियों को इकट्ठा करके उनके कारण का विचार कीजिये। और जता चल जायगा कि सभी प्रत्याक्षादि व्यापार अध्यास नहीं हैं और न यह ‘अविद्यावत्’ हैं। अविद्या के दो कारण होते हैंः-

इन्द्रियदोशात्संस्कारदोशाच्चाविद्या।

पहला दन्द्रिय-दोश, दूसरा संस्कार-दोश। यदि ब्रह्म ही केवल सत्य है और समस्त जगत् मिथ्या, तो न इन्द्रिय-दोश का प्रष्न उठता है न संस्कार-दोश का। न उपनिशदों के किसी वाक्य से इसकी सिद्धि होती है।

ब्रह्म की जिज्ञासा का आरम्भ अध्यास से करके श्री षंकराचार्यजी ने बादरायण के साथ न्याय नहीं किया। और न और लोगों के साथ। यदि बादरायण के जगत् और षास्त्र दानों को अविद्या मानतेे तो ब्रह्म की जिज्ञासा का उन्हीं से आरम्भ न करते जैसा कि उन्होंने दूसरे और तीसरे सूत्रों में किया है। सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म के लिये यह कोई प्रषंसा की बात नहीं है कि उससे अविद्यावत् जगत् का जन्म, स्थिति अथवा प्रलय हो और उसको अविद्यावत् षास्त्र की योनि कहा जाय। षंकर स्वामी स्वयं भी तो कहतेे हैंः-

”तद्ब्रह्म सर्वज्ञं सर्वषक्ति जगदुपत्तिस्थितिलयकारणं वेदान्तषास्त्रादेवावगम्यते।“

(षां॰ भा॰ 1।1।4 आरम्भिक वाक्य)

सर्वज्ञ ब्रह्म अविद्यावत् जगत् का कारण कैसा? और अविद्यावत् षास्त्र से (चाहे वह वेद हो या वेदान्त) उसकी प्राप्ति कैसी?

दूसरी प्रतिपत्ति

(1) न च तेशां कर्तृस्वरूप प्रतिपादन परतावसीयते, ‘तत्केन कं पष्येत्’ इत्यादि क्रियाकारकफलनिराकरणश्रुतेः। (1।1।4 पृश्ठ 11)

श्रुति के वाक्यों से कत्र्ता के स्वरूप का प्रतिपादन नहीं होता। अर्थात् ब्रह्म को कत्र्ता नहीं माना। वृहदारण्यक 2।4।13 में कहा है कि ‘किसको कौन देखे’। उससे क्रिया, कारक और फल तीनों का खण्डन होता है।

(2) यत् तु हेयोपादेयरहितत्वादुपदेषानर्थक्यमिति, नैप दोशः, हेयोपादेयषून्य ब्रह्मात्मतावगमादेव सर्वक्लेषग्रहाणात् पुरूशार्थसिद्धेः।  (1।1।4 पृश्ठ 11)

यदी कहो कि हेय और उपादेय के बिना उपदेष का कुछ  अर्थ नही  तो यह ठीक नहीं क्योंकि यदि यह ज्ञान हो जाय कि ब्रह्मात्मा न हेय है न उपादेय है तो इसी ज्ञान से सब क्लेष दूर हो जाते हैं और यही पुरूशार्थ की सिद्धि है।

अर्थात् श्रुति में यह उपदेष नहीं है कि यह छोड़ो और यह करो। केवल यह ज्ञान हो जाना चाहिये कि ब्रह्म न हेय है न उपादेय।

(3) न तु तथा ब्रह्मण उपासनाविविधषेशत्वंु संभवति एकत्वे हेयोपादेयषून्यतया क्रियाकारकादिद्वैतविज्ञानोपमर्दोपपत्तेः। न ह्येकत्वविज्ञानेनोन्मथितस्य द्वैतविज्ञानस्य पुनः संभवोऽस्ति, येनोपासनाविधिषेशत्वं ब्रह्मणः प्रतिपद्येत।     (1।1।4 पृश्ठ 11)

जब द्वैत ज्ञान नश्ट हो गया तो हेय उपादेय, क्रिया, कारक आदि का प्रष्न ही नहीं रहता। उस समय ब्रह्म की उपासना भी सम्भव नही रहती। जब एक बार एकत्व का ज्ञान हो गया और द्वैत-ज्ञान नश्ट हो गया तो ब्रह्म की उपासना के लिये कोई स्थान ही नहीं रहता। इससे कर्म और उपासना दोनों का खण्डन हो गया।

(4) ‘अषरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृषतः’।  (छा॰ 8।12।1) इति प्रियाप्रियस्पर्षनप्रतिशाधाच्चोदनालक्षणधर्मेकार्यत्वं मोक्षाख्यस्याषरीरत्वस्य प्रतिशिध्यत इति गम्यते।     (1।1।4 पृश्ठ 14)

षरीर रहने पर प्रिय और अप्रिय भी स्पर्ष नहीं करते। ऐसा छान्दोग्य में लिखा है। इससे सिद्ध होता है कि षरीर रहित मोक्ष के लिये वेदोक्त कर्म का प्रतिशेध है।

यहाँ वेदोक्त कर्म की अवहेलना की गई है।

(5) अषरीरत्वभेव धर्मकार्यमितिचेत्र, तस्य स्वाभाविकत्वात्।           (1।1।4 पृश्ठ 14)

यदि कोई ऊपर के आक्षेप का समाधान करता हुआ कहे कि धर्म के कारण ही षरीर से छुटकारा मिलता है तो स्वाभाविक है।

(6) अतएववानुश्ठेयकर्मफलविलक्षणं मोक्षाख्यमषरीरत्वं नित्यमिति सिद्धम्।     (1।1।4 पृश्ठ 14)

इसलिये सिद्ध है कि षरीर से छुटकारा पाकर जो मोक्ष मिलता है वह अनुश्ठेय कर्म के फल से सर्वथा विलक्षण है।

(7) अब कहते हैं कि ब्रह्म की मोक्ष हैः-

इदं तु पारमार्थिकं कूटस्थनित्यं, व्योमवत्सर्वव्यापि, सर्वविक्रियारहितं, नित्यतृप्तं, निरवयवं, स्वयंज्योतिः स्वभावम्। यत्र धर्माधर्मौ सह कार्येण कालत्रयं च नोपवर्तेते। तदेतद् अषरीरत्वं मोक्षाख्यम्।    (1।1।4 पृश्ठ 14)

”यह जो पारमार्थिक कूटस्थ नित्य, आकाषवत् सर्वव्यापी, सर्वविकार रहित, नित्यतृप्त, अवयवषून्य, स्वयं ज्योति स्वभाव है जहाँ धर्म अधर्म कार्य के साथ तीनों कालों में स्पर्ष नहीं करते वही यह अषरीरत्व मोक्ष है।

यहाँ मोक्ष को नित्य और अनादि माना है क्योंकि कालत्रय अर्थात् तीनों कालों का संस्पर्ष वहाँ होता। यह स्वभाव है। यह मान कर ही षंकराचार्य जी मोक्ष के लिये कर्म का निशेध करते है।

(8) यह युक्ति (युक्ति-आभास) विचारणीय है।

अतस्तद्ब्रह्म यस्येयं जिज्ञासा प्रस्तुता, तद् यदिकत्र्तव्यषेशत्वे नोपदिष्येत, तेन च कर्तव्येन साध्यष्चेनमोक्षोऽभ्युपगम्येत, अनित्य एव स्यात्।

जिस ब्रह्म की जिज्ञासा वेदान्त दर्षन में की गई हैं। वह यदि किसी कर्तव्य विषेश का फल हो और उसी के द्वारा उसकी प्राप्ति मानी जावे तो वह ब्रह्म अनित्य हो जावे।

इस युक्ति का स्पश्टीकरण आवष्यक है। षंकरजी पहले सिद्ध कर चुके हैं कि धर्म करने से सुख होता है। सुख अनित्य होता है। मोक्ष नित्य है इसलिये उसके लिये धर्मानुश्ठान की आवष्यकता नही। यदि ब्रह्म भी कर्मानुश्ठान का फल हो तो वह अनित्य हो जायगा। अब तक तो हमने आठ उद्धरण किये है वे सब इसी बात को सिद्ध करने के लिये हैं कि पूर्व मीमांसा में जो कर्म का विधान बताया गया और वेद का सार्थत्व इसी पर आधारित किया गया वह ठीक नहीं है।

इस युक्ति में दोश निकालना कठिन भी हो तो भी किसी मनुश्य को यह युक्ति ठीक प्रतीत नहीं होती। प्रथम तो मोक्ष में और ब्रह्म में भेद है। मोक्ष जीव की अवस्था विषेश है ब्रह्म जीव नहीं। चैथे अध्याय में कई स्थानों पर मुक्त जीवों का वर्णन षंकरजी ने भी इस प्रकार किया है मानो वह मोक्ष और ब्रह्म में भेद करते हैं ‘अभाव बाहरिराह ह्येवम्’ (4।4।10) पर भाश्य करते हुए षंकरजी लिखते हैंः-

यदि मनसा षरारन्द्रियैष्च विहरेन् मनसेति विषेशणं न स्यात् तस्मादभावः षरीरेन्द्रियाणां मोक्षे।      (पृश्ठ 508)

‘मनसैतान् कामान् पष्यन् रमते’

अर्थात् मुक्त पुरूश ‘मन से’ मनोरथों को देखता हुआ रमण करता है। इस पर षंकरजी कहते हैं कि यदि षरीर और इन्द्रियों का भी साथ अभीश्ट होता तो ‘मनसा’ ऐसा न कहते। इससे सिद्ध है कि मोक्ष में षरीर और इन्द्रियों का अभाव है। इससे सिद्ध है कि मोक्ष में षरीर और इन्द्रियों का अभाव है। इससे सिद्ध है कि मुक्त जीव ब्रह्म नहीं। वह तो

”मनसा एतान् कामान् पष्यन् रमते।“

 

इस सूत्र की संगति चतुःसूत्री से नहीं लगती।

परन्तु युक्ति में दोश भी है। वह स्पश्ट है।

यह ठीक है कि धर्मानुश्ठान से जो सुख जीव को होता है वह नित्य नहीं। परन्तु जिस ब्रह्म के ज्ञान से वह सुख होता है उसकी नित्यता का बोध कैसे हो सकता है। धर्मानुश्ठान से ज्ञान होगा। वह ज्ञान होता ब्रह्म का। यदि ज्ञान अनित्य हो तो ज्ञेय भी अनित्य हो ऐसा तो नियम नहीं है। ज्ञान ज्ञेय के आश्रित है ज्ञेय ज्ञान के अश्रित नहीं। ‘ब्रह्म जिज्ञासा’ में जिज्ञासु जीव है। ज्ञान अनित्य हो सकता है परन्तु जिज्ञासा अर्थात् ज्ञेय तो ब्रह्म है वह अनित्य कैसे होगा? 24 का 8 गुणा 192 होता है। यह नित्य सचाई एक बालक जो इस सचाई को याद करता है कई बार भूल जाता है। वह ज्ञान अनित्य हुआ। परन्तु ज्ञान के अनित्य होने से ज्ञेय का अनित्य होना तो ठीक नहीं। यह युक्ति तो सर्वथा दोशयुक्त है। परन्तु इसको इतने वाक्यों के झुण्ड में डाल दिया गया है कि साधारणतया पढ़ने से वह दोश प्रतीत नहीं होता है। एक प्रकार की भूलभुलय्याँ हैं। जो बिना थोड़े परिश्रम के स्पश्ट नहीं हो सकती।

(9) इत्येवमाद्याः श्रुतयो ब्रह्मविद्यानन्तंर मोक्षं दर्षनन्तयो मध्ये कार्यान्तरं वारयन्ति।

(1।1।4 पृश्ठ 15)

यहाँ कुछ श्रुतियाँ देकर कहते है कि ब्रह्मविद्या की प्राप्ति पर ही मोक्ष हो जाती है। बीच में कुछ और कार्य की आवष्यकता नही पड़ती ।

यह वाक्य अकेला तो कुछ हानि नहीं करता परन्तु जिस प्रसंग में इसका प्रयोग हुआ है वह अवष्य ही आपत्ति-जनक है। श्री षंकराचार्यजी का मुख्य अभिप्राय हैं धर्मानुश्ठान अर्थात् कर्माें की निःसारता दिखाना। प्रष्न यह है कि क्या धर्मानुश्ठान ब्रह्मविद्या प्राप्ति के लिये आवष्यक नहीं? फिर यदि ब्रह्मविद्या की प्राप्ति हो गई तो क्या उसी क्षण से कत्र्तव्यों का अन्त हो गया? फिर जीव-मुक्ति सम्बनधी सूत्रों का क्या बनेगा? क्योंकि ज्ञान होते ही मोक्ष और अषरीरत्व प्राप्त हो जायगा। इनके मत में ब्रह्मविद्या प्राप्ति का अर्थ ही यह है कि जीव में जीव-बुद्धि न रहकर ब्रह्म-बुद्धि प्राप्त हो हो जावे। तृतीय अध्यास के तृतीय पाद है 9वें सूत्र ”व्याप्तरेष्च समंजसम्“ का भाश्य करते हुए श्री षंकराचार्य ने स्वयं हमारे आक्षेप की पुश्टि की है और अपने मत का विरोध। वे लिखते हैं

”मिथ्याज्ञाननिवृत्तिः पलमिति चेत्। न । पुरूशार्थाेंपयोगानवगम त्“।

(पृश्ठ 383)

अर्थात् यदि मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति ही फल हो तो पुरूशार्थ का क्या उपयोग होगा? अर्थात् मनुश्य को जब तक षरीर है अवष्य ही धर्मानुश्ठान करते रहना चाहिये।

षंकराचार्यजी का एक और हेत्वाभास सुनियेः-

न च तद्विज्ञानं कमणां प्रवर्तक भवति प्रत्युत्त कर्माण्युच्छिनत्तीत वक्ष्यति ‘उपमर्दं चं ’

(ब्र॰ सू॰ 3।4।16)

(देखो षां॰ भा॰ 6।4।8, पृश्ठ 435)

षंकराचार्यजी कहते हैं कि ब्रह्म का ज्ञान कर्मो का प्रवर्तक नहीं, किन्तु उच्छेदक है। अतः ज्ञान कर्म का साधक नहीं। यहाँ ‘कर्म’ को दो अर्थों में लिया गया है। जब हम कहते हैं कि अमुक वस्तु कर्म का प्रवर्तक है तो इसका अर्थ होता है कि वह कर्म करने में प्रवृत्ति कराती है। इस अर्थ में ब्रह्मज्ञान कर्म का उच्छेदक नहीं। ब्रह्मज्ञानी संसार के उपकार में रत रहता है। निश्काम कर्म करता है। परन्तु जब हम कहते हैं कि ब्रह्मज्ञान कर्म का उच्छेदक है तो वहाँ कर्म करने से तात्पर्य नहीं किन्तु कर्म का फल भोगने से है। ”क्षीयन्ते चास्यकर्माणि के फलभोग का बोधक है। और ”कुर्वन्नेवेह कर्माणि“ में कर्म से तात्पर्य है निश्काम कर्म करने से। इसलिये इस प्रकार की भूल भुलैयों से यह नहीं समझना चाहिये कि धर्मानुश्ठान श्रुति को अभीश्ट नहीं या धर्मानुश्ठान से ब्रह्मज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं।

(10) न चेदं ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानं संपद्रूपम्।

न चाध्यास रूपम्।

नापि विषिश्टक्रियायोगनिमित्तम्।

नाप्याज्यावेक्षणादिकमवत् कर्मांगसंस्काररूपम्।

संपदादिरूपे हि ब्रह्मात्मैकत्वविज्ञानेऽभ्युपगभ्यमाने ‘तत्त्वमसि’

(छा॰, 6।8।7)

‘अहं ब्रह्मास्मि’         (बृ॰ 14।10)

‘अयमात्मा ब्रह्म’      (बृ॰ 2।5।19)

इत्येवमादीनां वाक्यानां ब्रह्मात्मैकत्ववस्तुप्रतिपादनपरः पदसमन्वयः पीड्येत।

तस्मान्न संपदादिरूपं ब्रह्मात्मैकत्व विज्ञानम्। (1।1।4। पृश्ठ 15,16)

षंराचार्यजी कहते है कि ”ब्रह्म और आत्मा के एक होने का ज्ञान“ जिसको मोक्ष कहते है न तो सम्पत है  अर्थात् यह किसी धर्म आदि कर्माे से प्राप्त नहीं होती। न अध्यास है। न विषिश्ट क्रियायोग से प्राप्त होती है। न किसी कर्मांग का संस्कार है। क्योंकि यदि इसको सम्पत् आदि माना जाय तो ‘मैं ब्रह्म हूँ’ आदि आदि श्रुतियों का समन्वय न हो सकेगा।

(11)अतोे न पुरूश व्यापारतत्रा ब्रह्मविद्या। कि वर्हि प्रत्यक्षादि-प्रमाणविशयवस्तुज्ञानवद्वस्तुतन्त्रा।  एवभुतस्य ब्रह्माणस्यज्ज्ञानस्य च न कयाचिक्ष्युक्त्या षक्याः काय्र्यानुप्रवेषः कल्र्पायतुम्।

इसलिये ब्रह्मविद्या पुरूश के व्यापार के आश्रित नहीं हैं। अपितु वस्तु-आश्रित है जैसे प्रत्यक्षादि विशय होते है। इसलिये इस प्रकार के ब्रह्म या उसके ज्ञान का किसी युक्ति से भी कार्य के साथ सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकता।

श्री षंकराचार्यजी ने विभिन्न युक्तियों द्वारा यह सिद्ध किया है कि ब्रह्म का ”ब्रह्मज्ञान“ का कार्य से कोई सम्बन्ध नहीं, और इससे वह धर्मानुश्ठान का खण्डन करते हैं। यह सब परिश्रम पूर्वमीमांसा के कर्मवाद के विरोध में है। परन्तु यह प्रतिपत्ति न तो वेदान्त के इन चार सूत्रों से सिद्ध होती हॅै न उपनिशद् वाक्यों से।

”ब्रह्म का कार्य से सम्बन्ध नहीं“ इसका क्या अर्थ? यदि कहो कि ब्रह्म कोई ऐसा कार्य नहीं करता कि जिससे उसे सुख दुःख हो तो ठीक है। परन्तु इसका प्रसंग नहीं। पुरूश क्रियाओं द्वारा ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त करते हैं। जितना धर्मानुश्ठान है वह जीव मे मल, विक्षेप और आवरणों को दूर करने के लिये हैं। इसलिये षंकराचार्यजी का प्रयत्न या तो निरर्थक है या प्रसंग-विरूद्ध।

श्री षंकराचार्य जी को ‘कार्य’ या ‘कर्म’ से कहाँ तक द्वेश है इसका उदाहरण नीचे के पदों से सुनियेः-

न च विदिक्रियाकर्मत्वेन काय्र्यानुप्रयवेषो ब्रह्मणः, ‘अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि’।   (केन॰ 1।3)

इति विदिक्रियाकर्मत्वप्रतिशेधात्।      (1।1।4, पृश्ठ 16)

”ब्रह्म विदि क्रिया का कर्म नहीं हो सकता क्योंकि केन उपनिशद् में लिखा है कि ब्रह्म विदित और अविदित दोनों से अलग है।“ क्या अच्छी युक्ति है। यदि विदि क्रिया का कर्म न हुआ तो ‘ज्ञा’ क्रिया का हुआ। बात क्या हुई। स्वयं षंकराचार्य जी पहले सूत्र की व्याख्या में लिखते हैं।

”तच्च कर्मणि शश्ठी परिग्रहे सूत्रेणानुगतं भवति।“

जो समाधान ‘ज्ञा’ का दिया जा सकता है वही ‘विदि’ का भी हो सकता है। विदितात्’ ‘अविदितात्’ के स्थान में ‘ज्ञातात्’ और ‘अज्ञातातत्’ कह सकते है। उपनिशद् में तो ‘पूर्ण अज्ञान’ से तात्पर्य था। परन्तु श्री षंकराचार्यजी ने उसको खींच कर अपनी युद्ध-स्थली में ला डाला। क्योंकि वे पूर्वमीमांसा का विरोध करने पर तुले हुए है।

(12) तथोपास्तिक्रियाकमत्वप्रतिशेधोऽपि भवति। ‘यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते’ इत्यविशयत्वं ब्रह्मण उपन्यस्य ”तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते“ इति।     (केन॰ 1।4)

भविशयत्वे ब्रह्मणः षास्त्रयोनित्वानुपपत्तिरितिचेत्।

न। अविद्याकल्पितभेदनिवृत्तिपरत्वाच्छास्त्रस्य।।

”इसी प्रकार उपासना-विधि का कर्मत्व भी ब्रह्म में नहीं, क्योंकि लिखा है कि वह वाणी का विशय नहीं। वाणी उससे कार्य करती है। इस प्रकार ब्रह्म को अविशय बता कर कहा गया है कि ‘उसी को तुम ब्रह्म जानो’ न कि उसको जिसकी जगत् उपासना करता है।“

इस पर आक्षेप उठाते है कि यदि ब्रह्म उपासना का भी विशय नही तो षास्त्र से उसकी प्राप्ति कैसी? इसका उत्तर देते है कि षास्त्र का काम तो यह है कि अविद्या के द्वारा हुए भेद-भाव को मिटा दे। वह प्रतिपत्ति भी न तो सूत्र से सिद्ध है न उपनिशद् के वचनों से। माना कि ब्रह्म के कल्पित स्वरूप का निराकरण ही षास्त्र का उद्देष्य हुआ, तो भी ब्रह्म की उपासना का खण्डन कहाँ हुआ?

(13) अब षंकराचार्यजी ‘मुक्ति की नित्यता’ को हेतु बना कर कर्म का विरोध करते हैंः-

अतऽविद्याकल्पितसंसारित्वनिवर्तनेन नित्यमुक्तात्मस्वरूप-समर्पणान्न मोक्षस्यानित्यत्वदोशः।

अर्थात् षास्त्र का उपदेष अविद्या-कल्पित संसार की निवृत्ति है। आत्मा नित्यमुक्त है ही। अतः मोक्ष भी नित्य ही हुआ। इसमें कोई दोश नहीं।

(14) यस्त तूत्पाद्यो मोक्षस्तस्य मानसं, वाचिकं, कायिकं वा कार्यमपेक्षत इति युक्तम्। तथा विकार्यत्वे च तयोः पक्षयोर्मोक्षस्य नित्यं दृश्टं लोके। नचाप्यत्वेनापि काय्र्यापेक्षा, स्वात्मस्वरूपत्वे सत्यनाप्यत्वात्। स्वरूपव्यतिरिक्तत्वेऽपि ब्रह्मणो नाप्यत्वं, सवगतत्येन निव्याप्तस्वरूपत्वात् सर्वेणब्रह्मणः, आकाषस्येव। नापि संस्कार्यो मोक्षः, येन व्यापारनयनेन वा। न तावद्गुणाधानेन संभवति, अनाधेयातिषयब्रह्मस्वरूपत्वान्मोक्षस्य। नापि दोशपनयनेन, नित्यषुद्धब्रह्मस्वरूपत्वान्मोक्षस्य।

(1।1।4, पृश्ठ 16-17)

यहाँ पाँच विकल्प उठाये गये।

(अ) यदि मोक्ष उत्पाद्य (पैदा की हुई) वस्तु है तो मानसिक, वाचिक या कायिक कार्य की आवष्यकता होगी। और मोक्ष अनित्य हो जायगा। जैसे घड़ा।

(आ) यदि विकार्य वस्तु है जैसे दही दूध का विकृत रूप है, तो भी मोक्ष अनित्य होगा।

(इ) यदि मोक्ष आप्य (प्राप्त होने वाली) वस्तु है तो भी कार्य की आवष्यकता नहीं क्योंकि ब्रह्म तो स्वात्मस्वरूप है। क्यों? स्वयं अपने ही को प्राप्त करने का क्या अर्थ?

(ई) यदि जीव-ब्रह्म में भेद भी हो तो भी कर्म की जरूरत नहीं क्योंकि जैसे आकाष सर्वत्र व्याप्त है और उसकी प्राप्ति का प्रष्न नहीं उठता। इसी प्रकार ब्रह्म भी सर्वत्र व्याप्त है। व्याप्त की ‘आप्यता’ का क्या प्रष्न?

(उ) यदि मोक्ष संस्कार्य है तब भी व्यापार की आवष्यकता नहीं क्योंकि संसार में या तो कोई गुण बढ़ाते हैं या कोई दोश दूर करते हैं। ब्रह्म के साथ यह दोनों नहीं हो सकते। ब्रह्म नित्य है। इसलिये मोक्ष भी नित्य है।

इन हेतुओं में कितनी भूल भुलैयाँ हैं! श्री षंकराचार्यजी को अभीश्ट है कर्म का विरोध। इसके लिये पहले तो यह मान लिया कि मोक्ष नित्य (अनादि और अनन्त) है। इसके लिये लिख दिया।

‘नित्यष्च मोक्षः सर्वैर्मोक्ष वादिभिरम्युपगम्यते’

अर्थात् सभी मोक्षवादी मोक्ष को नित्य मानते है। यह कल्पना भी गलत थी। मोक्ष को चाहे लोग अनन्त भले ही मानें, अनादि मानने वाले तो बहुत कम होंगे। नित्य वस्तु अनादि और अनन्त दोनों होती है। केवल अनन्त को नित्य नहीं कह सकते। मोक्ष को अनन्त मानना उत्पाद्य, विकार्य या संस्कार्य तीनों विकल्पों से नहीं टकराता। रही ‘आप्य’ की बात। सो जो ब्रह्म को जीव मानते हैं उनका विरोध ‘आप्य’ से भले ही होता हो, भेद मानने वालों के लिये ‘आप्य’ का क्या विरोध है? क्योेंकि आप्य न केवल देष या काल की अपेक्षा से होता है किन्तु ज्ञान की अपेक्षा से भी। यद्यपि देष और काल की अपेक्षा से आकाष सब को आप्य है परन्तु ज्ञान की अपेक्षा से नहीं। यदि जीव और ब्रह्म भिन्न हैं तो ब्रह्म ज्ञान की अपेक्षा से आप्य है। प्राप्ति के लिये कार्य की अपेक्षा स्पश्ट ही है। ज्ञान बिना कर्म के संभव नहीं, यदि षांकर भाश्य को अविद्या के निराकरण और ज्ञान की प्राप्ति का साधन मान लिया जाय तो षांकर भाश्य की प्राप्ति और पढ़ने तथा समझने की योग्यता पाने तक कितने व्यापारों की अपेक्षा होगी? फिर कर्म का तिरस्कार कैसा?

(15) स्वात्मधर्म एव संस्तिरोभूतो मोक्षः क्रिययात्मनि संस्क्रियमाणोऽमिव्यज्यते, यथाऽऽदर्षे निधर्शणाक्रियय संस्क्रियमाणो भास्वरत्वं धर्म इति चेत्। न, क्रियाश्रयत्वानुपपत्तेरात्मनः।

(1,1,4, पृश्ठ 17)

अब कार्य-वाद कार पोशक पूर्वपक्षी धर्म का दूसरा अर्थ करके कार्य के लिये स्थान तलाष करना चाहता है परन्तु षंकराचार्यजी उसको तिल भर स्थान देने को राजी नहीं। वह कहता है कि माना कि मोक्ष आत्मा का स्वात्मधर्म है जैसे दर्पण का सफाई धर्म है। परन्तु जैसे दर्पण पर मैल आ जाता है तो उसे कपड़े से रगड़ते है। इसी प्रकार आत्मा का मैल रगड़ने के लिये तो व्यापार की आवष्यकता है।

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यन्नित्यं कर्म वैदिकमग्रिहोत्रादि तत् तत् कार्यायैव भवति, ज्ञानस्य यत् कार्यं तदेवास्यापि कार्यमित्यर्थः।

(षां॰ भा॰ 4।1 16 पृश्ठ 475)

यहाँ अग्निहोत्रादि नित्यकार्म का वही फल माना है जो ज्ञान का। यह मुख्य प्रतिपत्ति के विरूद्ध है। इसी स्थल पर षंका उठाकर इसका समाधान करते हैंः-

षंका–ज्ञान कर्मणोर्विलक्षणकार्यत्वान् कार्यैकत्वानुपपत्तिः।

ज्ञान और कर्म के फलों में भेद हैं फिर दोनों का एक सा फल क्यों कहा?

समाधान-नैशदोश। ज्वरमरणकाय्र्ययोरपि दधिविशयो र्गुडमन्त्रसंयुक्तयोस्तृप्ति पृश्टि कार्य दर्षनात्, तद्वत् कर्मणोऽपि ज्ञान संयुक्तस्य मोक्ष कार्योपपत्तेः।

यह दोश नहीं। दही खाने से ज्वर हो जाता है और विशखाने से मृत्यु। परन्तु दही में गुड़ मिला दिया जाय तो तृप्ति हो जाती है। और

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(16) ननु देहाश्रयया स्नानाचमन यज्ञोपवीतादिकया क्रिययादेही संस्क्रियमाणो दृश्टाः। न। देहादि संहतस्यैवाविद्यागृहीतस्यात्मनः संस्क्रियमाणत्वात्। प्रत्यक्ष हि स्नानाचमनादेर्देह समवायित्वम्। तया देहाश्रवयया तत्संहत एव कष्चिदविद्ययात्मत्वेन परिगृहीतः संस्क्रियत इति युक्तिम्।

प्रष्न है कि स्नान आचमन, यज्ञोपवीत आदि क्रिया भी तो देही की षुद्धि के लिये होती हे। षंकरजी कहते है कि वह तो केवल देह की षुद्धि के लिये हैं और इनसे वही देही षुद्ध होता है जिसने अविद्या के कारण अपने को देह से संयुक्त समझ रक्खा है। औशध खाकर एक मनुश्य कहता है कि मैं अब अच्छा हो गया। यह अध्यास अविद्या के कारण है आगे का वाक्य और भी प्रबल हैः-

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विश को मन्त्र के साथ (विषेश विधि के साथ) खाया जाय तो पुश्टि होती है। इसी प्रकार कर्म और ज्ञान के संयोग से मुक्ति हो सकती है। यहाँ कर्म की उपयोगिता बताई है। परन्तु चतुःसूत्री के कर्म का खण्डन किया है। वहां तो केवल ज्ञान को ही मोक्ष का साधन माना है। यदि केवल गुड़ से ही तृप्ति हो जाय तो दही में गुड़ कौन मिलावे? यदि बिना अग्निहोत्रादि के केवल ज्ञान से ही मुक्ति हो जाय तो अग्निहोत्रादि की आवष्यकता नहीं। परन्तु ‘अग्निहोत्र’ तो व्यास सूत्र में दिया हुआ है। उसका निराकरण कैसे हो सकता था? यदि षंकर स्वामी आरम्भ से ही ज्ञान और कर्म का सहयोग मान लेते तो षारीरिक भाश्य तथा उपनिशद्-भाश्यों में कई स्थानों पर जो उन्होंने कर्म का खण्डन किया है वह न करते।

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(17) तस्माज्ज्ञानमेकं मुक्त्वा क्रियया गन्धे मात्रस्याप्यनु प्रवेष इह नोपपद्यते।

अर्थात् ज्ञान को छोड़ कर क्रिया की गन्ध मात्र भी इस विशय में प्रवेष नहीं पा सकती।

कैसा गजब का विरोध है। ‘गन्ध’ षब्द को नोट कीजिए।

(18) अब क्रिया का पक्षपाती कहता है।

ननु ज्ञानं नाम मानसी क्रिया  (1।1।4 पृश्ठ 18)

अरे ज्ञान भी तो क्रिया ही है। षरीर की न सही, मन की।

इसका उत्तर षंकर स्वामी देते है।

न, वैलक्षण्यात्। (1।1।4 पृश्ठ 18)

नहीं। बड़ा भेद है।

क्या भेद है? सुनिये।

(19) ध्यानं चिन्तनं यद्यपि मानसं तथापि पुरूशेण कर्तुमकर्तुमन्यथा वा कर्तु षक्यं, पुरूशतन्त्रत्वात्। ज्ञानं तु प्रमाणजन्यम् प्रमाणं च यथाभूतवस्तुविशयमतो ज्ञानं कर्तुमकर्तुमन्यथावा कर्तुमषक्यं केवलं वस्तुतन्त्रमेव तत्। न चोहनातन्त्रम्। नापि पुरूशतन्त्रम्। तस्मान्मानसत्वेऽपि ज्ञानस्य महद्वैलक्षण्यम्।    (पृश्ठ 18)

ध्यान और ज्ञान में भेद है। यद्यपि ध्यान मानसिक है परन्तु पुरूश के अधिकार में है करे, न करे। अन्यथा करे, ज्ञान प्रमाण जन्य है। ज्ञान वस्तु के आधीन है। उसमें पुरूश का करने, न करने अथवा अन्यथा करने का अधिकार नहीं। ज्ञान व्यापार के आधीन नहीं। न पुरूश के आधीन है। इसलिये मानसतव होने पर भी ज्ञान ध्यान से सर्वथा विलक्षण है।

ज्ञान और ध्यान के भेद का स्पश्टीकरण बड़ी सुन्दरता से किया गया है। परन्तु इसका प्रयोग जिस उद्देष्य से किया गया है वह ठीक नहीं, ज्ञान का क्रिया से इतना विरोध नहीं। क्योंकि विरोध नहीं। क्योंकि क्रिया ज्ञान का साधन है, और कर्म और ज्ञान सहयोगी है।

एक विचित्र बात है। यहाँ तो षंकर जी ”ज्ञानं तु प्रमाणजन्य“ बताते हैं। यह ‘चोदनातन्त्रम्’ है ‘न पुरूशतन्त्रम्’। परन्तु अध्यास की मीमांसा करते हुये प्रमाण को अविद्यावत् बताते हैंः-

” तमेतमविद्याख्यमात्मानात्मनोरितराध्यासं पुरस्कृत्य सर्वेप्रमाण प्रमेय व्यवहारा लौकिका वैदिकाष्च प्रवृत्तः। सर्वाणि च षास्त्राणि विधि प्रतिशेध मोक्षपराणि।  (1।1।1। पृश्ठ 2)

जब प्रमाणों को अविद्यावत् सिद्ध कर चुके तो वह ज्ञान के जनक कैसे होंगे? यह प्रष्न है।

(20) या तु प्रसिद्धेऽग्नावग्निबुद्धिर्न सा चोदहनातन्त्रा। नापि पुरूशतन्त्रा। किं तर्हि प्रत्यक्ष विशय वस्तुतन्त्रैवेति ज्ञानमेवैतन्न क्रिया। (पृश्ठ 18)

अग्नि में जो अग्नि बुद्धि है वह न तो क्रिया के आधीन है न पुरूश के किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण के।

यदि यह ठीक है तो ऊपर कहे अनुसार यह अध्यास और अविद्या का परिणाम होगा।

(21) अब प्रष्न होता है कि वेद में ‘लिङ्’ लकार का प्रयोग क्यों है जब विधि या निशेध का प्रष्न ही नहीं उठता।

इसका उत्तर विलक्षण हैः-

तद्विशये लिङादयः श्रूयमाणा अप्यनियोज्यविशयत्वात् कुण्ठी भवन्ति, उपलादिशु प्रयुक्तक्षुरतैक्षण्यादिवत्।     (पृश्ठ 19)

अर्थात् जैसे पत्थर पर चलाने से क्षुरे की धार कुंठित हो जाती है ऐसे ही लिङ् लकार आदि प्रयुक्त होकर भी ब्रह्म के विशय में कुण्ठिन हो जाते हैं।

उपमा कितनी अच्छी है। परन्तु यह लागू कैसे हो सकती है? क्षुरे की धार को कुण्ठित करने के लिये पत्थर पर चलाना मूर्खता ही तो है। क्या लिङ् लकार का प्रयोग उसको कुण्ठित करने के लिये किया गया है? क्या यह उपनिशत् कारों की प्रषंसा है। या बुराई?

(22) किमर्थानि तर्हि ‘आत्मा वाऽरे द्रश्टव्यः श्रोतव्यः’ इत्यादीनि विधिच्छायानि वचनानि।

स्वाभाविक प्रवृत्तिविशय विमुखी करणार्थानीति ब्रूमः।

(पृश्ठ 19 )

अच्छा विधि के तुल्य प्रतीत होने वाले उन विधि वाक्यों का क्या अर्थ होगा जिनमें कहा है कि आत्मा को ही देखना या सुनना चाहिये?

हमारा (शंकराचार्यजी का) उत्तर है कि विशयों में जो स्वाभाविक प्रवृत्ति है उसको विमुखी करने के लिये यह वाक्य कहे गये हैं?

पाठक थोड़ा सा विचार करें। इसी को तो द्राविड़ी प्राणायाम कहते हैं, नाक सीधी न पकड़ी सिर के पीछे हाथ करके पकड़ी, स्वाभाविक प्रवृत्ति से विमुख करना भी तो निशेध है। और निशेध चोदना तंत्र हुआ। और पुरूश तंत्र भी। फिर यह कहना कि श्रुति में क्रिया का गन्ध मात्रा भी नहीं; देखते हुये न देखने के समान है। दूसरे सर्व साधारण में तो यह उपदेष लोगों को अकर्मण्य ही बनाते हैं जैसा कि षांकर-वेदान्त ने भारतवर्श को बना दिया है।

(23) अब पूर्वमीमांसा का स्पश्ट खण्डन करते हैं।

यदपि केचिदाहुः प्रवृत्ति निवृत्ति विधि तच्छेशव्यतिरेकेण केवल वस्तुवादी वेदामार्गो नास्ति’ इति तन्न औपनिशदस्य पुरूशस्यानन्यषेशतवात्। (पृश्ठ 19)

जो कहते है कि वेद केवल वस्तु वादी नहीं है उसमें प्रवत्ति और निवृत्ति की विधि है। तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि उपनिशदों का पुरूश किसी विधि या निशेध का साधन नहीं।

यहाँ ‘केवल’ षब्द पर ध्यान दीजिये और क्रिया के गन्ध मात्र न होने पर ध्यान दीजिये।

आगे के प्रष्नोत्तर से स्पश्ट हो जायगा कि ऊपर जिस बात का खण्डन किया गया है उसी को माना है।

(24) पूर्व मीमांसा का सिद्धान्त है कि

”अ म्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम्।“

अर्थात् वेद का मुख्य प्रयोजन है क्रिया। इसलिए जो श्रुति इस प्रयोजन को सिद्ध न करे वह निरर्थक होगी।

इस सूत्र का स्वाभाविक अर्थ यह है कि वेद-षास्त्र षासन का पुस्तक है। उसमें जो ज्ञान की बातें दी हुई हैं वह इसलिये कि मनुश्य कर्तव्य अकर्तव्य समझ सके। और उसी का अनुश्ठान करे। यजुर्वेद के 40 अध्याय के दूसरे मंत्र में भी कहा है किः-

कुवन्नेवेह कर्माणि जिजीविशेच्छत समाः।

अर्थात् मनुश्य को चाहिये कि सौ वर्श तक वैदिक कर्म करते हुये जीने की इच्छा करे। इसका यह तात्पर्य नहीं कि किसी वस्तु का ज्ञान ही षास्त्र में नहीं है। ज्ञान है तो परन्तु है इसीलिये कि उसकी उपलब्धि से मनुश्य कर्तव्य का पालन और अकर्तव्य का त्याग करे।

परन्तु षंकराचार्य जी को षास्त्र की यह पोजीषन प्रिय नहीं। वह जैमिनि के इस सूत्र का खण्डन करते हैं।

(25) पहले तो उन्होंने कहाः-

एतदेकान्तनाभ्युपगच्छतां भूतोपदेषानर्थक्य प्रसंगः।    (1।1।3 पृश्ठ 20)

अर्थात् इस सूत्र का पूरा-पूरा षाब्दिक अर्थ लेने से तो वह भाग जिसमें वस्तुज्ञान (भूत-उपदेष) दिया है निरर्थक हो जायगा।

(26) परन्तु जब उनसे कहा गया कि महाराज!

प्रवृत्तिनिवृत्ति विधितच्छेशव्यतिरेकेण भूतं चेद् वस्तूपदिषति भव्यार्थत्वेन।    (1।1।4 पृश्ठ 20)

अर्थात् वस्तु का ज्ञान विधि और निशेध का साधक होगा। तो इस पर आक्षेप करते है।

कूटस्थनित्यं भूतं नोपदिषतीति को हेतुः।     (1।1।4 पृश्ठ 20)

परन्तु इतने से यह तो नहीं कहा जा सकता कि वस्तु उपदिश्ट नहीं हैं।

क्रियाथत्नवेऽपि क्रियातिवर्तन षक्ति मद् वस्तूपदिश्टमेव। क्रियाथत्वं तु प्रयोजनं तस्य। (त॰ 1।4 पृश्ठ 20)

चाहे वह क्रिया के उद्देष्य से ही कही गई हो। परन्तु वस्तु का उपदेष तो हो गया।

ठीक! मेरा कहना यह है कि यदि यह सिद्धान्त पहले से ही स्वीकार होता तो श्री षंकराचार्य जी को इसके खण्डन की क्या आवष्यकता थी। वह तो ‘क्रिया’ का गन्धमात्र भी सहन नहीं कर सकते थे। यह तो कोई नहीं कहता कि वेद में कूटस्थनित्य ब्रह्म का ज्ञान नहीं। मन्त्र के मन्त्र भरे पड़े हैं। जैमिनी सूत्र का अभिप्राय तो केवल इतना है कि षास्त्र कर्तव्य अकर्तव्य के पालन के लिये हैं। मेरी समझ में तो श्री षंकराचार्यजी ने व्यर्थ का वाद खड़ा कर दिया। क्रिया का गन्घ मात्र तो मानना ही पड़ा। जैमिनी की ‘धर्म जिज्ञासा’ और वादरायण की ‘ब्रह्म जिज्ञासा’ एक दूसरे के विरूद्ध नहीं है। परन्तु श्री षंकराचार्य जी ने अपनी युक्ति-संतति के द्वारा इसको ऐसा बना दिया है।

समस्त वाद वेदान्त सूत्रों से सर्वथा असंगत है।

(27) जैमिनी जी के उसी सूत्र के विरोध में और युक्तियाँ देखियेः-

अपिच ‘ब्रह्मणो न हन्तव्यः’ इति चैवमाद्या निवृत्तिरूपदिष्यते। न च सा क्रिया। नापि क्रिया साधनम्।। अक्रियार्थानामुपदेषोऽनर्थकष्चेत् ”ब्रह्मणो न हन्तव्यः“ इत्यादिनिवृत्युप देषानामानर्थक्यं प्राप्तिम्।     (पृश्ठ 21)

कहते हैं कि यदि क्रिया-षून्य श्रुतियाँ अनर्थक हों तो ब्राह्मण को न मारना चाहिये इत्यादि श्रुतियाँ भी निरर्थक हो जायेगी क्योंकि यहाँ ‘निवृत्युपदेष’ है। किसी काम का करना नहीं बताया गया किन्तु ”न करना“ बताया गया है। यह न तो क्रिया का साधन“

जैमिनी के पोशक कह सकते हैं कि ”स्वभावप्राप्तहन्तर्थानुरागेण न´ाः षक्यमप्राप्त क्रियार्थत्वम्।“ (1।4 पृश्ठ 21)

‘हन्तव्य’ इस क्रिया के साथ निशेधार्थक ‘न´ा्’ लगाने से ऐसी क्रिया का अर्थ आया जो अभी प्राप्त नहीं है। क्रिया का सम्बन्ध तो रहा ही। आनन्द गिरि ने इस युक्ति को इन षब्दों में प्रकाषित किया है।

”ननु ‘न हन्तव्यः’ इत्यत्र हननं न कुर्यादिति न वाक्यार्थः हि त्वहननं कुर्यादिति। ततो हननविरोधिनी संकल्पक्रिया हननं न कुर्यामित्येव रूपा कायतया विधीयते तेन निशेध वाक्यमपि नियोगनिश्ट मेव।“

अर्थात् जब कहते है कि ‘न मारना चाहिये’ तो केवल निशेध वाक्य नहीं है। नियोग-वाक्य भी है क्योंकि हत्या की विरोधिनी क्रिया का संकल्प करना होता है।

यह पूर्व पक्ष बड़ा प्रबल है। और जैमिनी के सूत्र की पुश्टि करता है परन्तु श्री षंकराचार्य जी ने इसके खण्डन में जो युक्ति दी है वह स्पश्टतया खींचातानी प्रतीत होती है। वे कहते हैं।

”न´ाष्चैश स्वभावो यत् स्वसंबन्धिनोऽभावं बोधयतीति। अभाब बुद्धिष्चैदासीन्यकारणम्। सा च दग्धेन्धनाग्रि वत् स्वयमेवोपषाम्यति।“     (1।1।4 पृश्ठ 21)

‘न´ा्’ का यह स्वभाव है कि जिस क्रिया के साथ जुड़ता है उसके अभाव को बताता है। जैसे ‘न मारो’। यहाँ ‘न कार’ ”मारो“ क्रिया के साथ लग कर ‘मारो’ क्रिया के अभाव को बतातो है। अभाव बुद्धि का अर्थ है ‘उदासीनता।’ उदासीनता क्रिया नहीं है। किन्तु क्रिया की अन्तक है। जैसे अग्नि ईंधन को पहले क्रिया के प्रति अभाव बुद्धि स्थापित करके स्वयं भी नश्ट हो जाता है। यह युक्ति श्रृखला सुदृढ़ नहीं है। इसकी एक कड़ी बड़ी कमजोर है। वह है यह ”अभाव बुद्धिष्चदासीन्यकारणम्।“ ‘अभाव बुद्धि उदासीनता का कारण है।’ यह ठीक नहीं। यदि ऐसा हो तो पतंजलि के ‘अ$हिंसा’, ‘अ$स्तेय’, अ$परिग्रह’ आदि षब्द अनर्थक हो जायगे । यही नहीं, यदि नहीं, यदि वस्तुतः देखा जाय तो ‘ब्रह्मचर्य’ का उपदेष भी निशेधात्मक है। अर्थात् अपने वीर्य का नाष मत करो। इनसे उदासीनता प्रकट नहीं होती।

(28) अब यह प्रष्न है कि क्या हमारा षरीर हमारे पूर्व जन्मकृत धर्म अधर्म के अनुकूल हैं? कर्म-सिद्धान्त की यह एक प्रसिद्ध प्रतिपत्ति है। षंकराचार्य जी इसका भी खण्डन करते हैंः-

”तत्कृतधर्माधर्मनिमित्त सषरीरत्वभिति चेन्न, षरीरसंबन्धनस्यासिद्धत्वाद् धर्माधर्मयोरात्मकृत्वा सिद्धेः। षरीरसंवन्धस्य धर्माधर्मयोस्तत्कृतत्वस्य चेतरेतराश्रयत्वप्रसंगदन्ध्परम्परैशाऽनादित्व कल्पना।   (1।1।4 पृश्ठ 22)

यदि कहो कि सषरीरत्व आत्मकृत धर्म अधर्म के कारण है तो ठीक नहीं। क्योंकि जब षरीर का सम्बन्ध ही सिद्ध नही ंतो आत्मकृत धर्म और अधर्म कैसे सिद्ध होंगे? षरीर के सम्बन्ध और आत्मकृत धर्म-अधर्म के एक दूसरे के आश्रय होने से अन्ध-परम्परा चल कर अनादित्व की कल्पना हो जायेगी।

यह वही दलील है जो ईसाई और मुसलमान पुनर्जन्म के विरूद्ध दिया करते है कि कर्म पहले है या षरीर। परन्तु श्री षंकराचार्य जी तो पुनर्जन्म को मानते है। वे ईषोपनिशत् के तीसरे मन्त्र के भाश्य में लिखते हैः-,

”अन्धेनादर्षनात्मकेना ज्ञानेन तमसा ऽऽवृता आच्छादितास्तान् स्थावरान्तान् पे्रत्य त्यक्त्वेमंसेहहमभिगच्छन्ति यथाकम यथाकम यथाश्रुतम्।

अर्थात् ”कर्म और षास्त्र विधान के अनुकूल अन्धकार से आच्छादित स्थावर आदि योनियों को षरीर छोड़ने के पष्चात् प्राप्त होते है“ यहाँ स्थावर आदि योनि भी मानी और कर्म के अनुकूल मानी। जब कर्म के अनुकूल योनि मिलती है तो प्रष्न यह होता है कि किसके कर्म के अनुकूल? उत्तर स्पश्ट है ”जो करेगा वह पायेगा।“ यहाँ आत्मकृत धर्म-अधर्म का खण्डन तो नहीं होता। फिर दूसरे अध्याय के पहले पाद के 35वें सूत्र की व्याख्या में तो इसको स्पश्ट ही कर दिया। देखियेः-

सृश्टयुक्तकालं हि षरीरादिविभागापेक्षं कर्म, कर्मापेक्षष्च षरीरादिविभाग इतीतरेतराश्रयत्वं प्रसज्येत। अतो विभागादूध्र्वं कर्मापेक्ष ईष्वरः प्रवर्ततां नाम। प्राग्विभागद। वैचित्र्यनिमित्तस्य कर्मणोऽभावात् तुल्येैवाद्या सृश्टिः प्राप्नोतीति चेत्। नैश दोशः। अनादित्वात् संसारस्य। भवेदेश दोशो यद्यादिमान् संसारः स्यात्। अनादौतु संसारे बीजांकुरवद्धेतुमभ्दावेनकर्मणः संगवैशम्यस्य च प्रवृत्तिर्न विरूध्यते।ः

(षां॰ भा॰ 2।1।35 पृ॰ 218)

”प्रष्न करते हैं कि सृश्टि उत्पन्न होने के पष्चात् षरीर आदि। इसमें तो इतरेतराश्रय दोश आ गया। उत्तर देते है कि ”नहीं। यह दोश नहीं है। क्योंकि संसार अनादि है। यदि संसार आदिमान् होता तो यह दोश होता। संसार के अनादि होने पर बीज और अंकुर के तुल्य यह भी विरोध नहीं आता।“

क्या इसको परस्पर विरोध नहीं कहते? क्या यह अपने ही सिद्धान्त का खण्डन नहीं है? जिस ‘अनादित्व कल्पना’ को षंकर जी ने चतुः सूत्री में अन्ध परम्परा कहा उसी को दूसरे अध्याय में स्वयं माना। महद्वैचित्र्यम्।

(29) और चलियेः-

क्रिया समवायाच्चात्मः कर्तृत्वानुपपत्तेः।

आत्मा का कर्ता होना सिद्ध ही नहीं हो सकता। क्यों? क्रिया और आत्मा का समवाय-सम्बन्ध नहीं।

संनिधानमात्रेण राजप्रभृतीनां दृश्टं कर्तृत्वमिति चेन्न, धन-दानद्युपार्जित भृत्य संबधित्वात् तेशां कृर्तृत्वोपपत्तेः। न त्वान्मनो धनदानादिवच्छरीरादिभिः स्वस्वामिसंबन्धनिमित्तं किंचिच्छक्यं कल्पयितुम्।   (1।1।4 पृश्ठ 22)

यदि कहो कि जैसे राजे आदि भृत्यों से काम करा लेते हैं इसी प्रकार आत्मा का कर्तृव्य है सो भी ठीक नहीं क्योंकि राजे आदि तो धन देकर भृत्यों से काम ले लेते हैं। आत्मा और षरीर आदि का एकसा सम्बन्ध कल्पना में नहीं आता।

श्री षंकराचार्य जी का यह सब प्रयास क्रिया के विरोध में है। परन्तु अध्याय 2, पाद 1 से सूत्र 34 के भाश्य में क्या कहंेगे?

प्रष्न था कि ईष्वर ने किसी को सुखी किसी को दुःखी बना कर विशमता क्यों कि ओर इससे ईष्वर निर्दयी क्यों नही, इसका विस्तृत वर्णन करके उत्तर देते है।

एवं प्राप्ते ब्रूमः-वेशम्यनैर्घृण्ये नेष्वरस्य प्रसज्येते। कस्मात्? सापेक्षत्वात्। यदि हि निरीपेक्षः केवल ईष्वरो विशमां सृश्टिं निर्मिमीते। स्यातामेतौ दोशौ वैशम्यं नैर्घृण्यं च। नतु निरपेक्षस्य निर्मातृत्वमस्ति। सापेक्षो हीष्वरो विशयां सृश्टिं निर्मिमीते। किमपेक्षत इति चेत्। धर्माधर्मावपेक्षतः इति वदामः।   (पृश्ठ 217)

श्री षकंराचार्य जी कहते है कि हमारा उत्तर यह है कि ईष्वर मे विशमता या निर्दयता का दोश नहीं आता क्यों? अपेक्षा से। यदि ईष्वर निरपेक्ष भाव से सृश्टि बनाता तो ये दोनों दोश आते। परन्तु सृश्टि-उत्पत्ति निरपेक्ष तो नहीं है। अच्छा तो किसकी अपेक्षा है? धर्म और अधर्म की! अब कहिये। दोनों को मिला कर न्याय कीजिये। कौन ठीक है? वस्तुतः है तो यही ठीक। परन्तु दोश है उस प्रवृत्ति का जो चतुःसूत्री में ओतप्रोत है।

(30) अब प्रष्न करते है आत्मा और षरीर का सम्बन्ध गौण क्यों नही। मिथ्या क्यों है? यदि गौण मान लिया जाय तो क्रिया का खण्डन न हो। ”देहादावहं प्रत्ययो मिथ्यैव न गौणः“ परन्तु षरीर के मिथ्या होने के लिये कोई प्रबल हेतु नहीं दिया गया। यदि मान भी लिया जाय तो श्री षंकराचार्य जी के नीचे के वाक्य का क्या अर्थ होगा?

तस्मान्मिथ्यांप्रत्यय निमित्तत्वात् सषरीरत्वस्य सिद्धं जीवतोऽपि विदुशोऽषरीरत्वम्।    (पृश्ठ 22)

अर्थात् षरीर का भाव मिथ्या है। इसलिये जिसको ज्ञान हो गया (कि मैं ब्रह्म हूँ, षरीर मिथ्या है) उसका जीवन में भी अषरीरत्व सिद्ध है। ”जीवतोऽपि अषरीरत्वम्“ का क्या अर्थ है? षरीर या तो सत्य है या मिथ्या। यदि मिथ्या है तो मिथ्या ज्ञान के दूर होते ही जीवन का भी अन्त हो गया और षरीर का भी। यह नहीं हो सकता कि षरीर का अन्त हो और जीवन का न हो। यदि मैं मिथ्या मुकुट पहने हूँ अर्थात् मुकुट तो नहीं है परन्तु की प्रतीति होती है तो जिस समय वह मिथ्या ज्ञान दूर होगा मुकुट और राज-पन दोनों ही निवृत्त हो जायेंगे। यह कैसे होगा कि मुकुट न रहे और राजा बना रहूँ।

दूसरी बात यह है कि यदि षरीरादि मिथ्या हैं और जीव वस्तुतः ब्रह्म ही है और मिथ्याज्ञान के निवारण का नाम ही मुक्ति है तो ज्योंही जीव को ज्ञान होगा वह मुक्त हो जायगा अर्थात् वह ब्रह्म हो जायगा। फिर मुक्त जीवों की मुक्त अवस्था का अलग वर्णन कैसा? परन्तु ”संकल्पादेव तु तच्छृ ªतेः“ (4-4-8) के भाश्य में श्री षंकराचार्य जी लिखते हैंः-

एवं प्राप्ते ब्रूमः संकल्पादेव तु केवलात् तु केवलात् पित्रादि समुत्थानमिति।

कुतः? तच्छु ªतेः ‘संकल्पादेवास्य पितरः समुत्तिश्ठन्ति“।

(छा॰ 8।2।1) (4।4।8, पृ॰ 507)

अर्थात् मुक्त जीवों के पितर संकल्प से ही उठ बैठते हैं। यदि मुक्ति मे भी जीव ब्रह्म नहीं हो जाता तो भेद स्पश्टतया सिद्ध है और श्री षंकर जी की कोई युक्ति इसका खण्डन नहीं कर सकती। चतुः सूत्री में वृहदारण्यक का जो उदाहरण दिया गया है उससे भी षरीर का मिथ्यात्व नहीं होता:-

”तद् यथाऽहिनिल्र्वयनी वल्मीके मृताप्रत्यस्ता षयीतैवमेवेदं षरीरं षेते।“            (बृह॰ 4।4।7, पृश्ठ 23)

जैसे बांबी में साँप की केंचुली निर्जीव और तिरस्कृत पड़ी रहती है वैसे ही मुक्त आत्मा का षरीर पड़ा रहता है। इस उद्धरण से षरीर का आत्मा से इतर होना तो सिद्ध है परन्तु मिथ्या होना नहीं।

(31) अब प्रष्न करने वाला कहता है कि उपनिशद् कहती है कि आत्मा श्रोतव्य है, मन्तव्य है और निदिध्यासितव्य है। इससे सिद्ध होता है कि पहले सुनो, फिर मनन और निदिध्यासितव्य है। इससे तो ब्रह्म के साथ विधिवाक्य की संगति मिलती है।

इस स्थापना का निशेध तो हो नहीं सकता, ठीक ही है। ब्रह्म के विशय में उपनिशद् कहती है सुनों, फिर विचार और ध्यान करो। परन्तु षंकराचार्य जी इस कथन को निजषैली के अनुसार वर्णन करके कुछ का कुछ कर देते हैं। वे बीच में ‘विधिषेशत्व’ डाल कर पूर्वपक्ष के इस प्रकार वर्णन करते हैंः

”विधिषैशत्वं ब्रह्मणो न स्वरूप पर्यवसायित्वमिति।“ (पृश्ठ 23)

”इससे ब्रह्म का विधिषेशत्व तो सिद्ध होता है परन्तु ‘स्वरूपपर्यवसायित्व’ न सिद्ध हो सकेगा अर्थात् ब्रह्म विधि के आश्रित न होगा। स्वरूप से सिद्ध रहेगा। पूर्वपक्षी के मुख में एक ऐसा षब्द डाल देना जिससे उसका पक्ष हास्यजनक प्रतीत हो और फिर बलपूर्वक उसका निशेध करना तिनके का षत्रु बना कर फिर वीरता से उसका बध करने के समान है। कोई पूर्वमीमांसा का पक्षपाती यह न कहेगा कि इससे ब्रह्म का विधिषेशत्व है स्वरूपपर्यावसायित्व नहीं, सुनने वाला, मनन करने वाला और ध्यान करने वाला तो जीव है। जीव सुनेगा ब्रह्म के विशय में और उसी का मनन या ध्यान करेगा। जीव द्वारा ‘मनव्य’ या ‘निदिध्यासितव्य’ होने के कारण ब्रह्म की स्वरूप सिद्धि में क्या बाधा हो सकती है। दुखती हुई आँख सूर्य को देखने का यत्न करे तो इससे सूर्य में तो कोई दोश नहीं आता। विधिषेशत्व का क्या अर्थ है? भामती में लिखा है:

विधयो हि धर्मप्रमाणम्, ते च साध्यसाधनेतिकर्तव्यता भेदाधिश्ठाना धर्मोत्पादिनष्च तदधिश्ठाना न ब्रह्मात्मैक्ये सति प्रभवन्ति, विरोधादित्यर्थः।

”धर्म में विधियाँ प्रमाण हैं। क्योंकि उनमें साध्य, साधन, इति कर्तव्यता भेद होते हैं। जब ब्रह्म और जीव एक हैं तो उसमें विधि का क्या प्रभाव? वहाँ तो विरोध है, फिर कहा है:

अद्वैते हि विशयविशयिभावो नास्ति। न च कर्तृत्वं, कार्याभावात्। न च करणत्वम् अतएव।

अर्थात् अद्वैत में विशय-विशय तो हैं नहीं न कार्य है। अतः कर्तृव्य है न करणत्व।

यदि ऐसा है तो ‘जन्माद्यस्य यतः’ अर्थात् ईष्वर जगत् का कत्र्ता है इसका क्या अर्थ होगा?

वेदान्त कल्पतरू में इसी सम्बन्ध में कहा हैः-

त्र्यंषा भावना हि धर्मः। तद्विशय विधयः साध्यादिभेदाघिश्ठानास्तद्विशयाः। अपि चैतेऽनुश्ठेयं धममुपदिषन्तस्तदुत्पादिनः पुरूशेण तमनुश्ठापयन्तीति साध्यधर्माधिश्ठानास्तत्प्रमाणानीति यावत्। अतो नित्यसिद्धद्वैतब्रह्मावगमे तेशांविरोध इति।

अर्थात् विधि का सम्बन्ध धर्म से है ब्रह्म से नहीं। धर्म की भावना में तीन अंष होते हैं साध्य, साधन, इति कर्तव्यता। नित्यसिद्ध अद्वैज ब्रह्म में साध्य, साधन का प्रष्न ही नहीं उठतरा। ब्रह्म तो सिद्ध है, नित्य सिद्ध है, कभी साध्य की कोटि में नहीं आता। अतः षास्त्र में विधि वाक्यों की गुंजायष नहीं।

इस प्रकार बाल की खाल निकाल कर जैमिनि की ‘मीमांसा’ और कर्म का विरोध किया गया है। यह ठीक है कि ब्रह्मज्ञान के पष्चात् जीव को कुछ षेश नहीं रहता। परन्तु अल्प जीव को ब्रह्म-ज्ञानी होने और मुक्ति प्राप्त करनेक तक तो कर्म का आश्रय लेना ही पड़ेगा। अतः धर्मानुश्ठान और ज्ञान में सहयोग तो है परन्तु विरोध नहीं। श्री षंकराचार्य जी ने वेदान्त सूत्रों से पूर्व-मीमांसा की अनुपयोगिता दिखाई है यह ठीक नहीं हैं।

षंकर स्वामी ने वेदान्त 3, 2, 21 के भाश्य में बिना प्रसंग के ही इस प्रष्न को फिर छोड़ा है और बड़ी लम्बी चैड़ी व्याख्या करके बताया हैः-

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वेदान्त 3।3।33 सूत्र तथा उसके भाश्य से स्पश्ट है कि वादरायण जैमिनि के विरूद्ध न थे। उसमें पूर्वमीमां न थे। उसमें पूर्वमीमां 3।3।8 की ओर संकेत है।

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‘तस्मादवगतिनिश्ठान्येव ब्रह्म वाक्यानि न नियोगनिश्ठानि।’                               (पृश्ठ 363)

अर्थात् ब्रह्मवाक्य ज्ञान-निश्ठ नहीं।

”द्रश्टव्यादिषब्दा अपि परविद्याधिकारपठितास्तत्वाभिमुखी करण प्रधाना न तत्वावबोधविधि प्रधाना भवन्ति।’                (पृश्ठ 362)

अर्थात् यहाँ कहा कि आत्मा को देखना चाहिये इत्यादि। वहाँ तत्व के ज्ञान की विधि नहीं बताई गई तत्व की ओर ध्यान दिला दिया गया है।

यह दलील भी विचित्र ही है। ‘विधि’ से न जाने क्यों चिढ़ है? ”ध्यान दिलाया गया है। ज्ञान प्राप्ति की विधि नहीं बताई गई।“ यह बात क्या हुई?

(32) अब लिखा हैः-

तस्मान्न प्रतिपत्तिविधि विशयतया षास्त्र प्रमाणकत्वं ब्रह्मणः संभवतीत्यतः स्वतन्त्रमेव ब्रह्म षास्त्रप्रमाणकं वेदान्तवाक्य समन्वतीत्सतः स्वतन्त्रेव ब्रह्म षास्त्रप्रमाणकं वेदान्तवाक्य समन्वयादिति सिद्धम्। एवं च सति ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ इति तद्विशयः पृथक षास्त्ररम्भः उपपद्यते। प्रतिपत्तिविधिपरत्वे हि ‘अथातो धर्मजिज्ञासे त्येवारब्धत्वात्र पृथक् षास्त्रमारभ्येत। आरभ्यमाणं चैवमारभ्येत-‘अथातः परिषिश्ट धर्मजिज्ञासेति’ ‘अथातः क्रत्वर्थपुरूशार्थयोर्जिज्ञसा“ (जै॰ 4।1।1) इतिवत्।      (पृश्ठ  23)

यह तो ठीक है कि भिन्न-भिन्न विशयों का प्रतिपादन करते हैं। परन्तु वे विशय एक दूसरे के विरोधी नहीं होते। और न बादरायण का अभिप्राय जैमिनि-विरोध है। ‘ब्रह्म-जिज्ञासा’ लिखने से ‘धर्म-जिज्ञासा’ का विरोध नहीं, वस्तुतः ब्रह्म जिज्ञासा भी क्रत्वर्थ और पुरूशार्थ की जिज्ञासा ही है। क्योंकि जब अल्प जीव में ब्रह्म के जानने की इच्छा होती है तो उसको उन साधनों की भी इच्छा होती है जो ब्रह्म के जानने की इच्छा होती है तो उसको उन साधनों की भी इच्छा होती है जो ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति में सहायक हैं। ब्रह्म-ज्ञान छू मन्तर से तो हो नहीं जाता। श्री षंकराचार्य जी ने स्वयं ‘अतः’ षब्द की व्याख्या करते हुये ब्रह्मजिज्ञासा के लिये चार साधनों को आवष्यक बताया है (1) नित्यानित्य साधन विवेकः (2) इहामुत्रार्थ भोग विरागः (3) षमदमादि साधन संपत् (4) मुमुक्षत्व। (पृश्ठ 5)

हम पूछते है कि ये चारों चीजें ब्रह्म-ज्ञान के लिये आवष्यक हैं या ब्रह्म-जिज्ञासा के लिये। यदि नित्य अनित्य का विवेक हो गया तो षेश क्या रहा? यदि इस लोक और परलोक के भोगों से वैराग्य हो गया तो आगे क्या रह गया? षमदम आदि साधन क्या ब्रह्म जिज्ञासा, उपासना आदि के बिना ही प्राप्त हो जायँगे? और क्या इनकी प्राप्ति में धर्मानुश्ठान यज्ञ आदि का कोई उपयोग नहीं? यदि इन साधन चतुश्टय के पष्चात् ही ब्रह्मजिज्ञासा का अधिकार है तो वेदान्त के चार अध्यायों का क्या उपयोग होगा जिनमें क्रमानुसार समन्वय, विरोधपरिहार, साधन और फल की मीमांसा बताई गई है?

छान्दोग्य उपनिशद् में जो यह वाक्य है ”तद्यथेह कर्मचितोलोकः क्षीयते एवमेवामुत्रपुण्यचितो लोकः क्षीयते“ (छा॰, 8।16) इत्यादि इस वाक्य को षांकर मत में बहुत बढ़ा चढ़ा कर वर्णन किया है और इसके आधार पर कर्मानुश्ठान यज्ञ, इश्टियों, कर्मकाण्ड, उपासना आदि का बलपूर्वक खण्डन किया गया है। परन्तु है यह उपनिशद्-वाक्य का दुरूपयोग। उपनिशद् का यह वाक्य तो केवल इतना बताया है कि कर्म का फल नित्य या अनन्त नहीं है कभी न कभी क्षीण होगा। क्योंकि कर्म भी तो सान्त है। इसका अनन्त फल कैसे, परन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि कर्म की अवहेलना की जाय। हम जीवन में जितने कर्म करते हैं वे सब सान्त हैं और उनके फल भी सान्त है। परन्तु इन सान्त कर्मो को छोड़ भी तो नहीं सकते। उन सब सान्त कर्माें का उपयोग है। अपनी जीवन यात्रा में मैं जो पग उठाता हूँ वह सान्त अवष्य है परन्तु सान्त होते हुए भी वह मुझे अपने निर्दिश्ट स्थान के निकटत्तर पहुँचाता है। यही इसका उपयोग है।

बादरायण के सूत्रों का षांकर-भाश्य अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण है। षंकर स्वामी की विवरण षक्ति गजब की है। और उनकी मौलिकता भी उनके विरोध में लिखे गये उन सब पर उनकी छाप भीर वे उन्हीं का अनुकरण करते हैं। परन्तु षांकर-चतुःसूत्री में वेदान्ताध्ययन के आरम्भ में ही दो बड़ी हानिकारक मनोवृत्तियां उत्पन्न कर दी जाती है एक तो जगत् की वास्तविकता के विरोध में और दूसरी कर्म के विरोध में। ये दोनों मनोवृत्तियां बादरायण के सूत्रों की स्पिरिट के विरूद्ध हैं। चतुःसूत्री इन्हीं दो बातों से भरी है। यद्यपि वेदान्त के बहुत से सूत्रों की षंकर स्वामी ने इन मनोवृत्तियों क विरूद्ध व्याख्या की हैं क्यांेकि सब स्थानों पर इस विचित्र प्रतिपत्ति को निबाहना कठिन था। और कहीं व्यावहारिक और कहीं प्रातिभासिक व्याख्या करके किसी न किसी प्रकार छुटकारा पाने का यत्न किया है। तथापि जो विशैलास वातावरण उत्पन्न कर दिया गया है उसने समस्त आर्य जीवन पर बुरा प्रभाव डाला है।

हम यह मानते हैं कि बौद्धों के वेद-विरोधी-वातावरण को हटा कर आचार्य षंकर जी ने वेदों की स्थापना की। परन्तु उपनिशदों को वेद से हटा कर एक ऐसा वातावरण उत्पन्न कर दिया जिसमें वेदाध्ययन सर्वथा छूट गया। और संसार कार्य क्षेत्र को छोड़ कर लोग एक मनों-निर्मित कल्पित जगत् की तलाष में संलग्न रहे जिसकी काल्पनिक सत्ता कितनी ही रोचक क्यों न हो, वह वास्तविकता से बहुत दूर है।

षांकर भाश्य में कई आपत्तिजनक प्रतिपत्तयां हैं परन्तु उनका वर्णन चतुःसूत्री में नही है अतः उनका वर्णन मिलेगा।

Advairwaad Khanadan Series 2 : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

पर और अपर ब्रह्म

एतावानस्य महिमाता ज्यायाँष्च पूरूशः। पादोऽस्य विष्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।

(यजुर्वेद 31।3)

अर्थः-इस ब्रह्म की इतनी महिमा हुई। ब्रह्म तो इससे भी बड़ा है। उसके एक पाद में सब भूत (जगत्) आ जाते हैं। और इसके अमृत रूपी तीन पाद द्यौ में अर्थात् इस लोक के परे हैं।

तात्पर्य यह है कि सृश्टि को देख कर ब्रह्म का पार नहीं पा सकते। यह सृश्टि तो ब्रह्म की छोटी सी कृति है। ब्रह्म का पूर्णस्वरूप तो इससे भी परे है। अपार है, अनन्त है, और अचिन्त्य भी।

यह उपचार की भाशा है गणित की नही। अर्थात् इसका यह तात्पर्य नहीं कि ईष्वर के चार पाद है एक पाद सृश्टि है और तीन पाद द्यौलोक। ईष्वर अखंड है। उसके पाद कैसे? वैदिक साहित्य की षैली है कि पूर्ण वस्तु को चतुश्पात् कह कर पुकारा जाय। मनुश्य जब ईष्वर की महिमा पर विचार करता है तो केवल थोड़े से ही अंष को देख सकता है। जैसे अपने घर के आँगन में खड़े होकर भी अनन्त क्षितिज की भावना हो जाती है। जिस क्षितिज को हम देखते हैं वह सान्त है। परन्तु उसकी सान्तता ही अनन्तता की द्योतक है। मुण्डक उपनिशद में इस सान्तता के भाव को अपरा विद्या और अनन्तता के भाव को परा विद्या कहा गया है।

द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति पराचैवापरा च। तत्रापरा ऋग्वेदों यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः षिक्षा कल्पो व्याकरणं निरूक्तं छन्दो ज्योतिशमिति। अथ परा यया तद्क्षरमधिगम्यते।

(मुण्डक उप॰ 1।1।5)

वेद-वेदांग अपराविद्या हैं क्योंकि इस लोक की बात बताते हैं। सान्त है। अनन्त नहीं। परन्तु इनकी सान्तता ईष्वर की अनन्तता की बोधक हे। यह नहीं कि वेदादि षास्त्र अविद्यावत् हों और उनसे ईष्वर के जानने में सहायता न मिले। केवल कहना इतना है कि ईष्वर को इतना ही मत समझो। वह उससे कहीं बड़ा है। उसकी जो कृतियाँ हमको दीखती हैं वह सान्त हैं अपर है। वह पर हैं। महान् है।

परन्तु याद रखना चाहिये कि विद्या या ज्ञान के दो भेद हुये एक पर और दूसरा अपर। ईष्वर के दो भेद नहीं। वह तो एक ही है। जितने षास्त्र हैं वे सब परिमित हैं और मनुश्य की बुद्धि की अपेक्षा से है। फूल में रंग भी है और आकार भी। रंग रसायन का विशय है और आकार गणित का। परन्तु फूल के दो भेद नहीं कर सकते एक रासायनिक फूल और दूसरा गणित-सम्बन्धी फूल। केवल रासायनिक फूल तो संसार में देखने में नहीं आता। न केवल गणित सम्बन्धी ही।

जब हम ‘विष्वाभूतानि’ अर्थात् ईष्वर रचित सृश्टि पर विचार करते हैं तो ईष्वर के अनेको गुणों का बोध होता है। परन्तु जब हमारी बुद्धि सान्तता को पार करके आगे बढ़ना चाहती है तो कहना पड़ता है ‘नेति नेति’। अर्थात् इतना ही नहीं। तब तो कालिदास के षब्दों में उपासक के मुहँ से अनायास निकल उठता हैः-

तितीर्शुर्दुस्तरं मोहा दुडुपेनास्मि सागरम्।

अरे मैं तो छोटी सी डोंगी से महान् समुद्र को तैरना चाहता हूँ। यह है रहस्य ईष्वर की सगुणता और निर्गुणता का। ईष्वर सगुण भी है और निर्गुण भी। जब गुणो का विचार किया तो सगुण विचार हुआ और जब अचिन्तनीयता का विचार किया तो ‘नेति नेति’ कहने से निर्गुण विचार हो गया।

परन्तु भूल से लोगों ने पर ज्ञान और अपर ज्ञान के स्थान में परब्रह्म और अपरब्रह्म दो भेद कर दिये। इसी प्रकार सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म। मानो ब्रह्म दो प्रकार का है। या दो ब्रह्म है। मेरी समझ में यह अन्याय था और इसने अनेकों भ्रान्तियाँ उत्पन्न कर दी। हमने न केवल धार्मिक क्षेत्र में किन्तु दार्षनिक क्षेत्र में भी दो सम्प्रदाय उत्पन्न कर दिये। और मनुश्य जीवन को अकारण ही अषान्त बना दिया।

यहाँ हम इसका प्रभाव केवल शांकर -भाश्य पर देखना चाहते हैं। शांकर -मत में ब्रह्म के दो भेद हैं। एक तो परब्रह्म जो सर्वथा निर्गुण है। यह सत्ता मात्र है। और दूसरा अपरब्रह्म जो माया की उपाधि के कारण बन जाता है। इसका नाम ईष्वर है। अर्थात् ईष्वर ब्रह्म का एक निचला स्वरूप है जो माया के कारण हो जाता है। यह माया ब्रह्म को किस प्रकार अपने उच्च स्थल से गिरा देती है यह एक अलग प्रष्न है। हम यहाँ केवल एक बात पर विचार करना चाहते है वह यह कि क्या परब्रह्म और अपरब्रह्म का भेद जो शांकर -भाश्य में सर्वत्र ओत-प्रोत है वादरायण के वेदान्त सूत्रों में भी है और क्या उपनिशद् भी उसकी पुश्टि करती हैं।

वेदान्त का आरम्भ ‘ब्रह्मजिज्ञासा’ से होता है अर्थात् वेदान्त-दर्षन सबका सब ब्रह्मजिज्ञासा का निरूपण करता है। यहाँ यह प्रष्न नहीं उठाया गया कि जिस ब्रह्म की जिज्ञासा है वह अपरब्रह्म है या परब्रह्म। दूसरे और तीसरे सूत्रों में ब्रह्म के लक्षण दिये है। जन्माद्यस्यतः अर्थात् ब्रह्म वह है जिससे सृश्टि उत्पन्न स्थित और विलीन होती है। और ‘षास्त्रयोनित्वात्’ जो षास्त्र अर्थात् ज्ञान के स्त्रोत की योनि है। शांकर -भाश्य में तो यह अपर-ब्रह्म हुआ। परब्रह्म न तो सृश्टि को उत्पन्न करता न षास्त्र आदि के बखेड़े में पड़ता। समस्त वेदान्त सूत्रों में कोई एक भी ऐसा षब्द नहीं जिससे पता चल सके कि ब्रह्म दो प्रकार का है परब्रह्म और अपरब्रह्म। कहीं कहीं ‘पर’ षब्द तो आया है (परात् तु तच्छु ªतेः, 2।3।41) जिसका अर्थ ब्रह्म है। परन्तु उससे विभाग का द्योतन नहीं होता। यदि वादरायण दो प्रकार का ब्रह्म मानते होते तो आरम्भ में ही अपरब्रह्म का लक्षण न करते। या स्पश्ट कह देते।

यदि आप कहें कि अपरब्रह्म तो वास्तविक ब्रह्म नहीं। माया की उपाधि से अध्यस्त ब्रह्म है जैसे रज्जु का सर्प। तो दो प्रष्न उठते हैं। प्रथम तो ब्रह्म-जिज्ञासा को अध्यस्त ब्रह्म के बताने से क्या लाभ? और वादरायण ने यह क्यों किया? जल के प्यासे को मृगतृश्णिका की ओर संकेत कर देना या तो धोखा है या उपहास। दूसरे अतात्विक अध्यस्त ब्रह्म सृश्टि को उत्पन्न नहीं कर सकता। जैसे सीप की चाँदी का कोई कड़ा नहीं बनवा सकता, न मृगतृश्णिका के जल की बर्फ जमाई जा सकती है। पहले परिणाम होकर फिर विवर्त हो सकता है। जैसे सन की रस्सी बनाई, वह साँप प्रतीत होने लगी। या जल की बर्फ जमाई। वह दूर से रूई प्रतीत होने लगी। परन्तु पहले विवर्त हो और फिर गुण-परिणाम इसका तो कोई दृश्टान्त ही नहीं मिलता। यदि ऐसा हो तो उसे विवर्त न कहेंगे। रस्सी का साँप बच्चे उत्पन्न नहीं करता। न बिल खोदता है, न किसी को काटता है, न चूहों को खा सकता है।

केवल एक दृश्टान्त दिया जा सकता है। वह है स्वप्न का। स्वप्न में देखे हुये जल की स्वयं बर्फ भी बन सकती है। और उससे स्वप्न की प्यास भी बुझाई जा सकती है। परन्तु यह दृश्टान्त ठीक नहीं। स्वप्न में जागरित के देखे हुये जल, जागरित में देखे हुये जल से बर्फ बनना और जागरित अनुभूत प्यास का बुझना, इन सब की स्मृतियाँ ही तो रहती हैं। स्वप्न का देखा हुआ जल स्वप्न में लगी हुई प्यास को नहीं बुझाता। वस्तुतः वास्तविक प्यास को वास्तविक जल ने जागरित में बुझाया था उसकी स्मृति मात्र है।

दूसरे अध्याय के पहले पाद में छठे सूत्र के भाश्य में श्री शंकर स्वामी लिखतेः-

दृष्यते हि लोके चेतनत्वेन प्रसिद्धेभ्यः पुरूशादिभ्यो विलक्षणानां केषनखादीनामुत्पत्तिः। अचेतनत्वेन च प्रसिद्धेभ्यो ग्रोमयादिभ्यो वृष्चिकादीनाम्।

अर्थात् लोक के देखा जाता है कि पुरूश आदि चेतन से विलक्षण केष, नख आदि की उत्पत्ति होती है और अचेतन गोबर आदि से बिच्छू आदि की।

महाँष्चर्य पारिणामिकः स्वभावविप्रकर्शः पुरूशादीनां केषनखादीनां च स्वरूपादि भेदात्।

अर्थात् इतना बड़ा परिणाम हो जाता है कि पुरूश के षरीर से विचित्र-विचित्र रंग रूप वाले केष नख आदि उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार ब्रह्म से विचित्र सृश्टि उत्पन्न होती है।

यहाँ प्रष्न यह है कि क्या यह भाशा विवर्दवाद की है, या सांख्य के परिणामवाद की? पुनः यदि परब्रह्म सृश्टि का उपादान माना जाता तो यह कहना ठीक था कि चेतन ब्रह्म से अचेतन सृश्टि उत्पन्न हो गई। अपरब्रह्म के तो दो भाग हैं। एक चेतन ब्रह्म और दूसरी जड़ माया। अपर ब्रह्म के चेमनत्व से तो आप सृश्टि की रचना मानते नहीं। माया रूपी जड़त्व से मानते हैं। फिर तो आपकी युक्ति संगति नहीं खाली। हाँ यदि माया का अर्थ सांख्य का प्रधान मानों जैसा ष्वेताष्वतर उपनिशद में हैः-

मायां तु प्रकृति विद्यात्।

(4।10)

तो ठीक है। परन्तु उस दषा में परब्रह्म और अपरब्रह्म का प्रष्न उठ जायगा। इसी पाद के 9वें सूत्र में

अपीतिरेव हि न संभवेद् यदि कारणे कार्य स्वधर्मर्गावावतिश्ठेत्।

(षां॰ भा॰ 2।1।9 पृश्ठ 190)

अर्थात् प्रलय मे भी कार्य अपने धर्म से कारण में लय नहीं होता। यहाँ भी वही बात है अर्थात् यदि यहाँ परब्रह्म को माना जाय तो आपकी युक्ति का कुछ अर्थ है अन्यथा नहीं। इससे अपरब्रह्म अर्थात् निचले ईष्वर की कल्पना मान कर षं॰ स्वा॰ स्वयं अपनी बात को सूत्रों के आधार पर निबाह नहीं सकते।

‘क्षीरवद् हि’ और ‘देवादिवदपि’ लोके (वेदान्त 2।1।24-25) के भाश्य में भी शंकर स्वामी ने संसार को मिथ्या या आभासवत् नहीं माना। दूध से दही बनान विवर्त का दृश्टान्त तो है नहीं। इसी प्रकार

यथा लाके देवाः पितर ऋशय इत्येवमादयो महाप्रभावाष्चेतना अपि सन्तोऽनपेक्ष्यैव किंचिद्वाह्यं साघनमैष्वर्य विषेश योगादिभिध्यानमात्रेण स्वत एव बहूनि नानासंस्थानाननि षरीराणि प्रासादादीनि च रथादीनि च निर्मिमाणा उपलभ्यन्ते मंत्रार्थवादेतिहासपुराण प्रामाण्यात्।

(षां॰ भा॰ 2।1।25 पृश्ठ 211)

देव ऋशि आदि बिना किसी की सहायता के मन्त्र के बल से राजभवन आदि बना देते हैं।

यहाँ क्या षं॰ स्वा॰ देवों के बनाये हुये राजभवनों को जादू के भवन समझते हैं? यदि नही तो यह दृश्टान्त व्यर्थ ही हुआ। यहाँ तो असत्य सृश्टि की ओर संकेत नहीं प्रतीत होता।

वेदान्त 1।4।26 (परिणामात्) से भी यही बात प्रकट होती है। तीसरे अध्यास के दूसरे पाद में कई सूत्रों के शांकर -भाश्य से यह

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नोट-यहाँ ‘लोके’ षब्द से स्पश्ट है कि देवों से ऋशि देवता आदि अभीश्ट नहीं है। क्योंकि यह तो लोक की बात नहीं। अलौकिक बात है। अग्नि, वायु आदि भौतिक देवों की तो हो भी सकती है। सांख्य के गुण परिणाम का यह अच्छा दृश्टान्त है।

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प्रतीत होता है कि परब्रह्म सर्वथा निर्गुण है। अर्थात् उसमे कोई गुण नहीं है। जैसेः-

(1) न स्थानतोऽपि परस्योळायलिंग सवत्र हि।

(वे॰ 3।2।11)

इसका छेद शांकर -मत मे इस प्रकार हैः-

स्थानोऽपि परस्य उभय लिंग न, सर्वत्र हि।

‘न तावत् स्वत एव परस्पर ब्रह्मण उभयलिंगत्वमुपपद्यते। न ह्येकं वस्तु स्वत एव रूपादि विषेशोपेतं तद् विपरीत चेत्यवधारयितु षक्यं विराधात्।

(षां॰ भा॰ 3।2।11 पृश्ठ 356)

परब्रह्म में स्वतः ही उभय लिंगत्व नहीं हो सकता। यह नहीं हो सकता कि एक वस्तु ही स्वतः रूप आदि विषेशता वाली भी हो और इसके विपरीत भी हो।

अस्तु तर्हि स्थानतः पृथिव्यादि उपाधि योगदिति। तदपि नोपपद्यते। न ह्यृपाधियोगादप्यन्यादृषस्य वस्तुनोऽन्यादृषः स्वभावः संभवति। न हि स्वच्छत् सन् स्फटिकोऽलक्ताद्युपाधियोगादस्वच्छो संभवति भ्रममात्रत्वादस्वच्छताभिनिवेषस्य। उपाधीनां चाविद्या प्रत्युपस्थापितत्वात्। अतष्वन्यतरलिंगपरिग्रहेऽपि समस्तविषेशरहित निर्विकल्पकमेव ब्रह्म प्रतिपत्तव्यं न तद् विपरीतं। सवत्र हि ब्रह्मस्वरूपप्रतिपादनपरेशुवाक्येशु। अषब्दमस्पषम रूपमव्ययम्’ (क॰ 3।15। मुक्तिको॰ 2।17) इत्येवमादिश्वपास्तसमस्तविषेशमेव ब्रह्मोपदिष्यते।

(षां॰ भा॰ 3।2।11 पृश्ठ 356)

यदि स्वतः उभयलिंग न हो तो क्या पृथिवी आदि की उपाधि के कारण होता है? नहीं। उपाधियाँ किसी के स्वभाव को नहीं बदल सकतीं। स्फटिक लाख की उपाधि से मैला नहीं हो जाता। मैलापन भ्रम मात्र है। उपाधियाँ तो अविद्या के द्वारा स्थापित होती हैं। इस लिये चाहे अन्यथा प्रतीति होगी तो भी ब्रह्म तो सब विषेशणों से रहित निर्विकल्प ही है। यही उपनिशदों ने माना है।

इससे सिद्ध है कि ब्रह्म न सगुण है न सगुण हो सकता है। परब्रह्म उपाधि भेद से भी अपरब्रह्म नहीं हो सकता।

श्री रामानुजाचार्य ने इस सूत्र का छेद भी अन्यथा किया हैः-

न स्थानतोऽपि परस्य, उभयलिंग सर्वत्र हि।

अर्थात् षं॰ स्वा॰ अर्द्धविराम लगाते हैं उभयलिंग के पष्चात। और उभयलिगत्व का प्रतिशेध करते है। रा॰ स्वा॰ लगाते है उभयलिंग से पहले। और उभयलिंगत्व को स्वीकार करते है। ‘उभयलिंग’ का अर्थ भी दोनों आचार्य भिन्न भिन्न ही करते है। शंकर स्वामी उभय लिंग का अर्थ लेते हैं ‘निरस्तनिखितदोशत्व कल्याणगुणाकरत्व लक्षणोपेतम्’ अर्थात् ब्रह्म में बुरे गुणों का अभाव और अच्छे गुणों का भाव है। जैसे ‘अपहतपाप्मा विजरो विमृत्यु विषोको विजिघत्सोपिपासः’ और ‘सत्यकामः सत्यसंकल्पः’। (छा॰ 8।1।5)

दोनों आचायों द्वारा उद्धृत उपनिशद् वचनों को मिलाने से शंकर स्वामी के अपरब्रह्म का तो लवलेष भी नहीं रहता। हाँ रामानुजाचार्य कथित उभयलिंगत्व सिद्ध हो जाता है क्योंकि ब्रह्म षुभ-गुण सहित (सगुण) और अषुभ-गुण रहित (निर्गुण) है। दो ब्रह्म (परब्रह्म और अपरब्रह्म) नहीं। स्वतः भी नहीं और उपाधि से भी नहीं। ब्रह्म एक ही है अर्थात् परब्रह्म। हाँ उसको दो प्रकार से सोच सकते हैं, उपस्थित-गुणों के सहित और अनुपस्थित अवगुणों से रहित।

(2) प्रकृतैतावत्त्वं हि प्रतिशेधति ततो ब्रवीति च भूयः।

(वेदान्त 3।2।22)

इस सूत्र का षाब्दिक अर्थ तो इतना ही है कि ‘प्रसंग में केवल इतने का ही प्रतिशेध है।’

‘केवल इतने का’ (एतात्वं) का क्या अर्थ है?

उपनिशद में ‘नेति नेति’ आया है (वृह॰ 2।3।6) ‘नेति’ का अर्थ है ‘इतना नहीं’। इसके सम्बन्ध में प्रष्न है।

शंकर स्वामी कहते हैंः-

न तावदुहायप्रतिशेध उपपद्यते षून्यवादप्रसंगत्। किंचिद्धि परमार्थामालम्ब्यापरमार्थः प्रतिशिध्यते यथा रज्ज्वादिशु सर्पादयः।

(षां॰ भा॰ 3।2।22 पृश्ठ 364)

अर्थात् परब्रह्म और अपरब्रह्म दोनों का प्रतिशेध तो हो नहीं सकता। अन्यथा षून्यवाद सिद्ध हो जायगा। कुछ लोग ‘नेति नेति’ से यह समझते है कि उपनिशद् ब्रह्म के अस्तित्व को ही अस्वीकार करती है। यह बात नहीं। यहाँ परमार्थ को स्वीकार और अपरमार्थ का प्रतिशेध किया गया है।

श्री रामानुजाचार्य ने ‘नेति नेति’ का अर्थ लिखा है ‘इयत्ता नहीं’। अर्थात् कोई कहे कि ब्रह्म इतना ही है। यह नहीं। ब्रह्म तो अनन्त है।

ये ब्रह्मणो विषेशा प्रकृतास्तद्विषिश्टतया ब्रह्मणः प्रतीयमानेयत्ता नेति नेति (वृ॰ 2।3।6) इति प्रतिपिध्यते।

(रा॰ भा॰ 3।2।22)

यहाँ भी दोनों भाश्यों के अर्थाें में भेद होते हुये भी परब्रह्म और अपरब्रह्म दो ब्रह्म सिद्ध नहीं होते।

(3) मायामात्रं तु कात्स्न्र्येनानभिव्यक्तस्वरूपत्वात्।

(वे॰ 3।2।3)

यहाँ यह बताया गया है कि स्वप्न की सृश्टि माया मात्र है। वेदान्त दर्षन में ‘माया’ षब्द केवल इसी स्थान पर आया है। शांकर  भाश्य में तो प्रायः हर पृश्ठ पर मिलेगा। ‘माया’ के बिना तो षं॰ स्वा॰ ने माया का अर्थ परमार्थ षून्य किया हैः-

मायैव संध्ये सृश्टिर्न परमार्थगन्धोऽप्यस्ति।

यहाँ यह बताया गया है कि स्वप्न की सृश्टि माया मात्र है। वेदान्त दर्षन में ‘माया’ षब्द केवल इसी स्थान पर आया है। शांकर  भाश्य में तो प्रायः हर पृश्ठ पर मिलेगा। ‘माया’ के बिना तो षं॰ स्वा॰ की लेखनी भी नहीं उठती। यहाँ षं॰ स्वा॰ ने माया का अर्थ परमार्थ षून्य किया हैः-

मायैव संध्ये सृश्टिर्न परमार्थगन्धोऽप्यसि।

रामानुजाचार्य कहते हैं ‘मायाषब्दो ह्याष्चर्यवाची’।

अर्थात् स्वप्न की सृश्टि आष्र्चयमय है।

‘माया’ षब्द के संस्कृत साहित्य में दोनों अर्थ ही मिलते है। परन्तु यहाँ हमको षं॰ स्वा॰ का अर्थ ठीक जँचता है। क्योंकि स्वप्न की सृश्टि और जागरित की सृश्टि की तुलना की गई है। परन्तु इससे एक बात स्पश्ट हो जाती है। अर्थात् स्वप्न माया मात्र है न कि जागरित। यदि जागरित को मायामात्र न मानो तो अपरब्रह्म के लिये स्थान ही नहीं रहता। क्योंकि माया की उपाधि से ही तो ब्रह्म ईष्वर के पद तक उतारा जाता है। इस सूत्र की समस्त व्याख्या पढ़ जाइये और स्पश्ट हो जायगा। कि यह सृश्टि मात्र परमार्थतः सत्य है। स्वप्न ही माया है।

अब चैथे अध्याय के दूसरे, तीसरे तथा चैथे पाद को लीजिये। इनमें जीवनमुक्ति तथा मुक्ति का वर्णन है। अर्थात् मुक्त जीव का मुक्ति के पहले और उपरान्त क्या होता है।

यहाँ भी षं॰ स्वा॰ ने बिना सूत्रों के आधार के दो भाग कर दिये। एक वह आत्मा जो अपरब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करके मुक्त हुये। व्यास-सूत्रों से ऐसा गन्ध नहीं मिलता और न उपनिशदों के उद्धरणों मे ही ऐसा ज्ञात होता है। परब्रह्म का ज्ञान होना और अपरब्रह्म हो भी जाय परन्तु मुक्ति तो तभी होगी जब अविद्या हटेगी। अविद्या हटने पर अपरब्रह्म का ज्ञान होना और परब्रह्म का ज्ञान न होना क्या अर्थ रखता है।

दूसरे पाद के 12-14 सूत्रों में षं॰ स्वा॰ ने निरूपण किया है कि

न तदस्ति यदुक्तं  परब्रह्मविदोऽपि देहादस्त्युत्क्रान्तिरूत्क्रान्ति प्रतिशेधस्य देह्यपादानत्वात् इति।

(षां॰ भा॰ 4।2।13 पृश्ठ 484-485)

अर्थः-परब्रह्म को पहचानने वाले भी देह को छोड़ते है ऐसी बात नहीं। देही के साथ नहीं (षारीरात् न तु षरीरात्)। अतः देही से प्राणों की उत्क्रान्ति का निशेध है, (यतः षारीरादात्मन एश उत्क्रन्तिप्रतिशेधः प्राणानां षरीरात्-षां॰ भा॰ 4।2।12 पृश्ठ 484)

यह हुआ पूर्व पक्ष। इसका उत्तर देते हैंः-

देहापादानैव सा प्रतिशिद्धाभवति, देहादुत्क्रान्तिः प्राप्ता न देहिनः।

अर्थात् देह के साथ अपादान का भाव मान कर ही निशेध किया है।

न च ब्रह्मविदः सर्वगतब्रह्मात्मभूतस्य प्रक्षीणकामकर्मण उत्क्रान्तिर्गतिर्वोपपद्यते निमित्ताभावात्।

अर्थः-जो ब्रह्मज्ञानी हैं, जिनमें कामनायें नहीं रहतीं उनकी उत्क्रान्ति या गति का कोई कारण नहीं अतः उनकी उत्क्रान्ति नहीं होती।

यहाँ यह तो कहा जा सकता है कि ब्रह्मज्ञान इसी षरीर में हो सकता हे जिसको जीवन्मुक्ति कहते हैं, परन्तु यह कैसे हो सकता है कि षरीर से कभी वियोग न हो।

इसी प्रकार चैथे अध्याय के चैथे पाद के 7वें सूत्र में वादरायण का मत प्रदर्षित करते हुए श्री षं॰ स्वा॰ लिखते हैं।

एवमपि पारमार्थिकचैतन्यमात्रस्वरूपाभ्युपगमेऽपि व्यवहारपेक्षयापूर्व स्याप्युपन्यासादिभ्योऽवगतस्य ब्राह्मस्यैष्वर्यरूपस्या प्रत्याख्यानादविरोधं वादरायण आचार्यो मन्यते।

(षं॰ भा॰ 4।4।7 पृश्ठ 506)

यद्यपि यह मान लिया गया है कि आत्मा का स्वरूप पारमार्थिक रूप से चैतन्य मात्र है फिर भी व्यवहार की अपेक्षा से ब्रह्म सम्बन्धी ऐष्वर्य का भी खंडन नहीं किया। यह कोई विरोध नहीं हैं।

यहाँ ‘व्यवहारापेक्षा’ अपनी ओर से मिलानी पड़ी। न सूत्र मंें है न उपनिशद् के वाक्यों में।

परन्तु जब षं॰ स्वा॰ परब्रह्म और अपरब्रह्म मान चुके तो जहाँ कहीं उनके सिद्धान्तों से और सूत्रों या उपनिशद् के वाक्यों से मेल न खाता हो वहाँ एक ही उपाय है अर्थात् ‘व्यवहारापेक्षा’ ऐसा कह दिया जाय। उन सूत्रों के शांकर  भाश्य पर अन्य भाश्यकारों ने आपत्ति उठाई है। यद्यपि इस स्थान पर यह मीमांसा नहीं की जा सकती कि कौन भाश्यकार किस अंष तक ठीक है परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि षं॰ स्वा॰ का परब्रह्म और अपरब्रह्म दो भेद करना सबको खटकता है।