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हदीस : गुलामों की मुक्ति

गुलामों की मुक्ति

गुलामों की मुक्ति इस्लामपूर्व के अरब जगत में अज्ञात नहीं थी। गुलाम लोग कई तरह से आजादी हासिल कर सकते थे। एक रास्ता, जो बहुत सामान्य था, वह यह था कि उनके रिश्तेदार उन्हें निष्क्रय-मूल्य देकर छुड़ा लेते थे। एक दूसरा रास्ता यह था कि उनके मालिक उन्हें मुफ्त और बिना शर्त मुक्ति (इत्क़) दे देते थे। मुक्ति के दो अन्य रूप भी थे-”तदबीर“ और ”किताबाह“। पहले में मालिक यह घोषणा करता था कि उसकी मौत के बाद उसके गुलाम आजाद हो जाएंगे। दूसरे में वे गुलाम जिन्हें उनके रिश्तेदार निष्क्रय-मूल्य देकर नहीं छुड़ा पाते थे, अपने मालिक से यह इज़ाज़त ले लेते थे कि वे मज़दूरी द्वारा अपना निष्क्रय-मूल्य कमा कर उसे दे देंगे।

 

हम पहले देख चुके हैं कि हकीम बिन हिज़ाम ने किस प्रकार अपने ”एक-सौ गुलामों को मुक्त किया“ (225)। यह काम उन्होंने मुसलमान बनने से पहले किया था। हमने यह भी देखा कि अधिक श्रद्धापरायण अरबों में यह पुराना रिवाज था कि वे वसीयत करके अपनी मौत के बाद अपने गुलाम आजाद करें। मुहम्मद ने कुछ मामलों में इस प्रथा का विरोध किया। वे नहीं चाहते थे कि गुलाम-मुक्ति के फलस्वरूप वारिसों और रिश्तेदारों को नुकसान उठाना पड़े। फिर भी कुल मिला कर गुलाम-मुक्ति की प्रथा के प्रति मुहम्मद का रुख अनुकूल ही था। लेकिन इसी कारण वे गुलामों के मसीहा नहीं बन जाते। क्योंकि उन्होंने यह भी कहा कि दीन-हीन लोग जब दुनिया में छा जायेंगे तो वह दुनिया के खत्म होने के एक सूचना होगी। उनके अनुसार ”जब गुलाम लौंडी अपने मालिक को जन्म देने लगे, जब नंगे बदन और नंगे पांव वाले लोग जनता के मुखिया बनने लगें-कयामत की ये कुछ निशानियां हैं“ (4)।

 

मुहम्मद के लिए गुलाम की मुक्ति उसके स्वामी की उदारता की द्योतक थी, न्याय का मामला नहीं। बहरहाल, एक गुलाम को भागकर अपना उद्धार नहीं करना चाहिए। मुहम्मद कहते हैं-”जो गुलाम अपने मालिक के पास से भाग जायें, वे जब तक उसके पास वापस नहीं आ जाते, तब तक कुफ्र के गुनहगार होते हैं“ (129)।

author : ram swarup

 

हदीस : गुलाम की मुक्ति

गुलाम की मुक्ति

कारण स्पष्ट नहीं है, किन्तु शादी और तलाक़ वाली किताब के अंत में कुछ अध्याय गुलामों के विषय में है। वर्गीकरण की गलत विधि के कारण ऐसा हुआ है, या फिर इसलिए हो सकता है कि गुलाम की मुक्ति ’तलाक‘ का ही एक रूप मानी जाती है, क्योंकि ’तलाक‘ का अक्षरशः अर्थ है ’मुक्त करना‘ या ’गांठ खोलना‘। या फिर यह भी हो सकता है कि यह विषय अगली किताब से संबंधित हो जो कि व्यापार के सौदों से संबंधित है। आखिरकार, एक गुलाम एक चल संपत्ति से कुछ अधिक नहीं था।

 

आधुनिक मुस्लिम लेखक, इस्लाम को एक मानवीय विचारधारा ठहराने की कोशिश करते हुए, गुलामों की मुक्ति (इत्क) के बारे में मुहम्मद के शिक्षापदों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर सुनाते हैं। लेकिन असलियत यह है कि मुहम्मद ने मज़हबी युद्ध का विधान देकर और कैद किए गए गैर-मुस्लिमों के मानवीय अधिकार अस्वीकृत करके, गुलामी को एक अभूतपूर्व पैमाने पर प्रचलित कर दिया। इस्लाम-पूर्व के अरब सुखदतम स्वप्न में भी कभी यह कल्पना नहीं कर सकते थे कि गुलामी की संस्था इतने बड़े परिमाण में संभव हो सकती है। पैगम्बर का एक घनिष्ठ साथी, जुवैर, जब मरा तो उसके पास एक हज़ार गुलाम थे। खुद पैगम्बर के पास किसी न किसी अवसर पर कुल मिला कर कम से कम उनसठ गुलाम थे। उनके अड़तीस नौकर इनके अलावा थे। इनमें मर्द और औरतें, दोनों शामिल थे। 15वीं सदी ईस्वी में पैग़म्बर की जीवनी लिखने वाले मीरखोंद ने इन सबके नाम अपनी रौज़त अस्सफ़ा नाम की पुस्तक में दिए हैं। तथ्य यह है कि गुलामी, खि़राज और लड़ाई में लूटा गया माल, अरब के नए अमीरों का मुख्य अवलंब बन गये। गुलामों की पुरानी असमर्थताएं ज्यों-की-त्यों बनी रहीं। वे अपने मालिक (सैयद) की जायदाद थे। मालिक अपनी इच्छानुसार उनके विषय में निर्णय कर सकते थे-उन्हें बेच सकते थे, उपहार में दे सकते थे, किराये पर उठा सकते थे, उधार दे सकते थे, रहन रख सकते थे। गुलामों के कोई संपत्ति-संबंधी अधिकार नहीं थे। वे जो कुछ भी प्राप्त करते थे। वह सब उनके मालिकों की संपत्ति हो जाती थी। मालिक को अपनी उन गुलाम औरतों केा रखैल बनाने का पूरा अधिकार था, जो इस्लाम स्वीकार कर लेती थी, अथवा जो ”किताब वाले“ लोगों में से थीं। कुरान (सूरा 4/3, 4/24, 4/25, 23/6) ने इसकी इजाज़त दी। बिक्री, विरासत और शादी के इस्लामी कानूनों में गुलामी ओत-प्रोत हो गई। और यद्यपि गुलाम लोग अपने मुस्लिम मालिकों के लिए लड़ते थे, तथापि वे इस्लाम के मजहबी कानून के मुताबिक लड़ाई की लूट के हकदार नहीं थे।

author : ram swarup

 

HADEES : SPECULATION FORBIDDEN

SPECULATION FORBIDDEN

Muhammad forbids speculation.  �He who buys food grains should not sell it until he has taken possession of it� (3640).  During Muhammad�s own lifetime, as the control of Arabia passed into his hands, his injunctions became state policy.  SAlim b. �Abdullah reports: �I saw people being beaten during the lifetime of Allah�s Messenger in case they bought the food grain in bulk and then sold them at that spot before taking it to their places� (3650).

Because of their speculative nature, Muhammad also disallowed �futures� transactions.  He forbade �selling ahead for years and selling of fruits before they become ripe� (3714).  Transactions with the help of documents (probably the hundior bill of exchange system), were also made unlawful.  The injunction was implemented with the help of the police.  �I saw the sentinels snatching these documents from the people,� reports SulaimAn (3652).

author : ram swarup

हदीस : लियान (लानत भेजना)

लियान (लानत भेजना)

अगर कोई आदमी अपनी बीबी को व्यभिचाररत पाता है तो वह व्यभिचारी पुरुष की हत्या नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करना मना है। न ही वह अपनी बीबी के खिलाफ आरोप लगा सकता है, क्योंकि जब तक चार गवाह न हों, औरत के सतीत्व पर झूठा लांछन लगाने पर उसे अस्सी कोड़े खाने पड़ेंगे। लेकिन अगर गवाह न मिल रहे हों, और ऐसे मामलों में अक्सर होता है, तो उसे क्या करना चाहिए ? मोमिनों को यह दुविधा मुश्किल में डाले हुए थी। एक अंगार (मदीना-निवासी) ने मुहम्मद के सामने यह मसला रखा-“अगर एक व्यक्ति अपनी बीवी को किसी मर्द के पास पाता है और वह उसके बारे में बोलता है, तो आप उसे कोड़े मारेंगे। और अगर वह मार डालता है तो आप उसे मार डालेंगे। और अगर वह चुप रह जाता है तो उसे गुस्सा पीना पड़ेगा।“ मुहम्मद ने अल्लाह से विनती की-“अल्लाह ! इस मसले को हल करो“ (3564)। और उन पर एक आयत (कुरान 246) उतरी जिसने लियान की प्रथा जारी की। इस शब्द का शाब्दिक अर्थ है “कसम“ लेकिन पारिभाषिक अर्थ में यह शब्द क़सम के उस विशिष्ट रूप के लिए प्रयुक्त होता है जो चार क़समों और एक लानत के जरिये ख़ाविंद को बीवी से अलग कर देता है। अकेले खाविंद की गवाही तब स्वीकार की जा सकती है, जब वह अल्लाह की कसम के साथ चार बार यह गवाही दे कि वह पक्के तौर पर सच बोल रहा हो तो उस पर अल्लाह का रोष प्रकट हो। इसी प्रकार कोई बीवी अपने ऊपर गले अभियोग को चार बार क़सम खा कर अस्वीकार कर सकती है और फिर अपने ऊपर लानत ले सकती है कि उस पर अभियोग लगाने वाले ने अगर सच बोला है तो उसके (बीवी के) ऊपर अल्लाह का रोष प्रकट हो। दोनों में से एक ने जरूर झूठ बोला होगा। लेकिन मामला यहीं खत्म हो जाता है और इसके बाद वे दोनों मियां बीवी नहीं रह जाते (3553-3577)।

author : ram swarup

हदीस : मातम

मातम

जिस औरत का पति मर गया हो उसे इद्दा की अवधि में साज-सिंगार से परहेज करना चाहिए। लेकिन दूसरे रिश्तेदारों के लिए तीन दिन से ज्यादा का मातम नहीं करना चाहिए (3539-3552)। अबू सूफियां मर गये। वे मुहम्मद की बीवियों में से एक, उम्म हबीबी, के पिता थे। उसने कुछ इत्र मंगाया और अपने गालों पर मला और बोली-“क़सम अल्लह की ! मुझे इत्र नहीं चाहिए। लगाया सिर्फ़ इसलिए कि मैंने अल्लाह के पैग़म्बर को यह कहते सुना-अल्लाह और बहिश्त पर यक़ीन रखने वाली मोमिन औरत को इस बात की इज़ाज़त नहीं है कि वह मृतकों के लिए तीन दिन से ज्यादा का मातम करे, किंतु पति की मृत्यु के मामले में चार महीने और दस दिन तक मातम करने की इज़ाज़त है“ (3539)।

author : ram swarup

HADEES : PROPER PEADING FOR MUHAMMAD�S DESCENDANTS

PROPER PEADING FOR MUHAMMAD�S DESCENDANTS

We close the �Book of Marriage and Divorce� by quoting one of the very last ahAdIs.  It is on a different subject but interesting.  �AlI, the Prophet�s son-in-law, says: �He who thinks that we [the members of the Prophet�s family] read anything else besides the book, of Allah and the SahIfa [a small book or pamphlet that was tied to the scabbard of his sword] tells a lie.  This SahIfa contains problems pertaining to the ages of the camels and the recompense of injuries, and it also records the words of the prophet. . . . He who innovates or gives protection to an innovator, there is a curse of Allah and that of his angels and that of the whole humanity upon him� (3601).

author : ram swarup

हदीस : तलाक़शुदा के लिए गुज़ारा-भत्ता नहीं

तलाक़शुदा के लिए गुज़ारा-भत्ता नहीं

फ़ातिमा बिन्त क़ैस को उसके पति ने “जब वह घर से बाहर था“ तलाक़ दे दिया। वह बहुत नाराज हुई और मुहम्मद के पास पहुंची। उन्होंने उससे कहा कि ”अटल तलाक़ दे दिये जाने पर औरत को आवास और गुजारे के लिए कोई भत्ता नहीं दिया जाता।“ लेकिन पैग़म्बर ने कृपा करके उसके लिए दूसरा खाविंद खोजने में उसकी मदद की। उसके सामने दो दावेदार थे-अबू जहम और मुआविया। मुहम्मद ने दोनों के खि़लाफ राय दी। कारण, पहले वाले के ”कंधे से लाठी कभी नहीं उतरती थी“ (अर्थात् वह अपनी बीवियों को पीटता रहता था) और दूसरा ग़रीब था। उन दोनों की जगह उन्होंने अपने गुलाम और मुंह-बोले बेटे ज़ैद के लड़के उसाम बिन ज़ैद का नाम पेश किया (3512)।

 

बाद में एक अधिक उदार भावना उभरी। उमर ने व्यवस्था दी कि पतियों को अपनी तलाक़शुदा बीवियों के लिए इद्दा की अवधि में गुजारा-भत्ता देना चाहिए, क्योंकि फक़त एक औरत होने के कारण पैग़म्बर के लफ्जों का सच्चा मक़सद फातिमा ने गलत समझा। ”हम अल्लाह की किताब और अपने रसूल के सुन्ना को एक औरत के लफ्ज़ों की खातिर नहीं छोड़ सकते“ (3524)।

 

इद्दा इंतजार की वह अवधि है, जिसमें औरत दूसरी शादी नहीं कर सकती। सामान्यतः वह चार महीने और दस दिन की होती है। लेकिन उस बीच औरत अगर बच्चे को जन्म दे दे तो वह अवधि तुरन्त खत्म हो जाती है। एक बार इद्दा खत्म हो जाने पर औरत दूसरी शादी कर सकती है (3536-3538)।

 

चार महीने के लिए भत्ता देना बहुत मुश्किल नहीं था। इस प्रकार पतियों को भविष्य में किसी बोझ का कोई डर न होने से वे अपनी बीवियों से आसानी के साथ छुटकारा पा जाते थे। फलस्वरूप तलाक़ का डर मुस्लिम औरतों के सिर पर बुरी तरह छाया रहता था।

author : ram swarup

हदीस : तलाक़ की पसन्द तलाक़ नहीं

तलाक़ की पसन्द तलाक़ नहीं

ऐसा लगता है कि घरेलू कलह के अन्य मौके भी आते रहते थे, जिनमें से कुछ रुपए-पैसे को लेकर होते थे। ये मदीना-प्रवास के शुरू के दिनों में हुए होंगे, जबकि मुहम्मद के पास धन की कमी थी। एक बार अबू बकर और उमर मुहम्मद के पास गये और देखा कि वे “अपनी बीवियों से घिरे मायूस और खामोश बैठे हैं।“ उन दोनों पिताओं से उन्होंने कहा-“ये (पैग़म्बर की बीवियां और उन दोनों की बेटियां) मुझे घेरे हुए हैं, जैसा कि आप लोग देख ही रहे हैं, और मुझ से ज्यादा रुपये-पैसे मांग रही हैं।“ तब अबू बकर ”उठे और आयशा के पास गये और उसकी गर्दन पर थप्पड़ जमाया और उमर उठे और हफ़्जा को झापड़ लगाया“ (3506)।

 

इस अवसर पर पैग़म्बर ने अपनी बीवियों के सामने विकल्प रखा कि अगर वे ”दुनिया की जिंदगी और उसकी आराइशों की ख़्वास्तगार हों, बनिस्बत अल्लाह और उसके पैग़म्बर के और बनिस्बत बहिश्त के, तो वे (मुहम्मद) अल्लाह के रसूल उनको अच्छी तरह से रुख़सत कर देंगे“ (कुरान 33/28/29)। बीवियों ने पैग़म्बर और बहिश्त को चुना।

 

अनुवादक के अनुसार इस अहादीस (3498-3506) से यह सबक़ मिलता है कि “औरत की ओर से तलाक़ की पसंद जाहिर होने से ही तलाक़ लागू नहीं माना जाता। वह तभी मान्य होता है, जब सचमुच तलाक़ का इरादा हो।“