मुस्लिम प्रार्थना मुख्यतः समूह-प्रार्थना है। उसकी अगुवाई एक इमाम द्वारा की जानी चाहिए। मुहम्मद आदेश देते हैं कि ”जब तीन व्यक्ति हों, तो उनमें से एक को उनका नेतृत्व करना चाहिए“ (1417)।
मुहम्मद अपने अनुयायियों से अपने इमाम का अनुसरण करने का आग्रह करते हैं-”जब वह सजदा करें, तुम्हें भी सजदा करना चाहिए; जब वह उठे तुम सबको भी उठना चाहिए“ (817)। वे यह भी वर्जित करते हैं कि इमाम से पहले कोई झुके और सजदा करे। ”इमाम से पहले अपना सिर उठाने वाला शख्स क्या डरता नहीं कि अल्लाह उसके चेहरे को गधे का चेहरा बना सकता है ?“ (860)। साथ ही, प्रार्थना कर रहे लोगों को इमाम से ताल मिलाकर बोलना चाहिए और ऐसे ऊंचे स्वर में नहीं बोलना चाहिए मानो वे इमाम से स्पर्धा कर रहे हों। एक बार किसी ने ऐसा किया, तो मुहम्मद उससे बोले-”मुझे लगा कि (तुम) मुझसे स्पर्धा कर रहे हो…..और मेरे मुंह का बोल मुझसे छीन रहे हो“ (783)। उपयुक्त कारण होने पर इमाम किसी को अपना नायब तैनात कर सकता है, जैसे कि मुहम्मद ने अपनी आखिरी बीमारी के दौरान अबू बकर को तैनात किया था (832-844)।
इस प्रकार हम देखते हैं कि योरोपीय साम्राज्यवाद के समस्त युक्तितर्क और दम्भ को इस्लाम ने उस साम्राज्यवाद के उदय से एक हजार वर्ष पूर्व ही प्रस्तुत कर दिया था। इतिहास का कोई युग ले लीजिए। उस युग में प्रवर्तित किसी भी साम्राज्यवाद के समस्त वैचारिक अवयव हमें इस्लाम में मिलते हैं-बर्बर कही जाने वाली जातियों अथवा अन्य धर्मावलम्बियों अथवा बहुदेववादियों का शोषण करने की दैवी अथवा नैतिक हिमायत; शोषित लोगों के देशों को आत्मप्रसार-प्रदेश समझना अथवा अपना अधिदेश मान कर हड़पना; और इस प्रकार दबाए हुए लोगों का ”सभ्य स्वामियों“ द्वारा अपने प्रश्रय में रखा जाना अथवा उनका दायित्व (जिम्मा) उठाना।
एक अन्य हदीस में कहा गया है कि मुहम्म्द को कयामत के दिन ”मध्यस्थता“ करने का जो सामथ्र्य मिला है वह दूसरे पैगम्बरों को नहीं मिला“ (1058)। अन्य हदीसों में अन्य बातें कही गई हैं। एक हदीस में मुहम्मद फरमाते हैं कि ”आतंक1 ने मेरा साथ दिया है और जब मैं सो रहा था तो संसार के सारे खजानों की कुंजियां मुझे सौंपी गई।“ इस हदीस को सुनाने वाले अबू हुरैरा बतलाते हैं कि पैगम्बर के अनुयायी ”उन खजानों को खोलने में लगे हुए हैं“ (1063)2।
अर्थात् मेरे शत्रु मुझ से इतने भयभीत हैं कि बिना लड़े हार मान लेते हैं। मुहम्मद के आतंकवादी व्यवहार के परिणाम-स्वरूप ही इस भय का प्रसार हुआ था-उनके द्वारा करवाई गई हत्याएं, उनके द्वारा किया गया जनसंहार और मुसलमानों द्वारा निरन्तर किए जाने वाले धावों में होने वाली लूटपाट। उदाहरण के लिए, मक्का के बाजार में जिस समय कुरैजा नामक यहूदी कबीले के आठ-सौ सदस्यों के सिर क्रूरता के साथ काटे गए, उस समय दोस्त तथा दुश्मन, दोनों ही सिहर उठे होंगे अर्थात् मुहम्मद का लोहा मानने लगे होंगे।
अबू हुरैरा का कथन विश्वसनीय है। वे दीर्घायु थे (मुहम्म्द के बाद पच्चीस बरस तक जिन्दा रहे)। उन्होंने मुसलमानों के उदीयमान राज्य को एक साम्राज्य में बदलते और मदीना की ओर प्रवाहमान प्रभूत कर-सम्पदा को देखा था। मुहम्मद की मृत्यु के बाद अबू बकर दो बरस तक खलीफा रहे। पहले बरस में कर-सम्पदा का जो बंटवारा हुआ उसमें मक्का तथा मदीना के प्रत्येक मुसलमान के हिस्से 9 दरहम आए थे। दूसरे बरस में प्रत्येक 20 दरहम मिले। तद्नन्तर दो दशकों में सब कुछ बहुत बदल गया। अरब के पड़ोस में अनेक अंचल मुसलमानों के उपनिवेश बने और कर-सम्पदा का परिमाण अत्यधिक बढ़ गया। खलीफा उमर ने एक दिवान अर्थात् भुक्ति-लेखा तैयार किया जिसके अनुसार मुहम्मद की विधवाओं को 12,000 दरहम प्रतिवर्ष मिलने लगे। बदर की लड़ाई के तीन-सौ से अधिक रणबांकुरों को 5,000 दरहम प्रतिवर्ष मिलने लगे। बदर के पूर्व जो लोग मुसलमान बने थे उनमें से प्रत्येक के लिए 4000 दरहम, और उनके बच्चों के लिए 2000 दरहम प्रतिवर्ष ठहराए गए। इस लेखे में प्रत्येक मुसलमान का नाम दर्ज होता था। साम्राज्य में फैली हुई छावनियों में जो अरब सेनाएं तैनात थीं उनके अफसरों को 6000 से 9000 दरहम प्रतिवर्ष मिलने लगे। छावनियों में जन्म लेने वाले प्रत्येक बालक को जन्म के समय से ही 100 दरहम प्रतिवर्ष दिये जाते थे। दीवान का पूरा विवरण तारीख तबरी के द्वितीय भाग में पृष्ठ 476-479 पर मिलता है।
Muhammad tells us: �I sought [Allah�s] permission to beg forgiveness for my mother, but He did not grant it to me. I sought permission from Him to visit her grave, and He granted it to me� (2129). This was a fine gesture on Muhammad�s part after sending his mother to hell in fulfillment of the demand for theological consistency.
मुस्लिम प्रार्थना किसी एक शांत मुद्रा में खड़े होकर या बैठकर सम्पन्न नहीं होती। वह कई अंग-संचालनों के साथ की जाती है। मुहम्मद के व्यवहार और निर्देशों के आधार पर इन संचालनों की विधि निश्चित की गई है। इस विषय पर अनेक अहादीस हैं। एक वृत्तांतकार ने देखा कि ”प्रार्थना शुरू करने के समय मुहम्म्द ने कंधों के सामने अपने हाथ उठाये और नीचे झुकने के पहले तथा झुकने के उपरांत सीधे खड़े होने के बाद भी उन्हें हाथ उठाये देखा। लेकिन दो सजदों के बीच में हाथ उठे हुए नहीं दिखे“ (758)। दूसरे ने देखा कि ”उनके हाथ कानों के सामने तक उठे हुए थे।“ उसने यह भी देखा कि ”फिर उन्होंने अपने हाथ अपने कपड़ों से ढक लिये, और अपना दाहिना हाथ अपने बायें हाथ के ऊपर रखा और जब वे झुकने को हुए तो हाथों को कपड़ों से बाहर निकाल कर ऊपर उठाया…….और सजदा करते समय उन्होंने दो हथेलियों के बीच सिर रखकर सजदा किया“ (792)।
अल्लाह ने मुहम्मद को हुक्म दिया कि ”उन्हें सात हड्डियों सहित सजदा करना चाहिए और केश तथा वस्त्र पीछे की तरफ नहीं बांधने चाहिए।“ सात हड्डियां ये हैं-”दोनों हाथ, दोनों घुटने, पैरों के दो छोर और माथा“ (991)। पर मुहम्मद ने अपने अनुयायियों से कहा कि ”सजदे में संयम बरतें“ और ”अपनी बाहें जमीन पर कुत्ते की तरह न पसारें“ (997)।
प्रारम्भ में दस्तूर था कि एक हाथ को दूसरे पर हथेली से हथेली सटा कर जांघों के बीच में रखा जाय। पर बाद में यह प्रथा रद्द कर दी गई और अनुयायियों को ”हुक्म दिया गया कि हाथों को घुटनों पर रखा जाय“ (1086-1092)।
एक और एहतियात-”लोगों को नमाज के समय दुआ करते वक्त अपनी आंखें आकाश की ओर नहीं उठानी चाहिए, नहीं तो उनकी आंखें नोच डाली जायेंगी“ (863)।
Muhammad discouraged weeping over the dead: �The dead is punished because of his family�s weeping over it� (2015). He also taught haste in the disposal of dead bodies. �If the dead person was good, it is a good state to which you are sending him on: but if he was otherwise it is an evil of which you are ridding yourself� (2059).
Muhammad himself wept over the death of his loyal followers. Weeping over the dying Sa�d b. UbAda, he said: �Allah does not punish for the tears that the eye sheds or the grief the heart feels, but He punishes for this [pointing to his tongue], meaning loud lamenting� (2010). Muhammad also sobbed aloud, according to certain traditions, over his expiring child, who was only eighteen months old. His followers tried to comfort him by reminding him of his own exhortation not to weep. Muhammad replied: �It is not this that I forbade, but loud wailing and false laudation of the dead.�
मोमिन जब मुअज्जिन की आवाज सुनें, तो उन्हें उस की आवाज दुहरानी चाहिए और मुहम्मद के लिए आर्शीवाद की याचना करनी चाहिए। मुहम्मद कहते हैं कि उन्हें ”अल्लाह से मेरे लिए अल-वसीला मांगना चाहिए, जो कि जन्नत में अल्लाह के सेवकों में से सिर्फ एक के लिए नियत पद है। अगर कोई मेरे लिए यह दुआ करता है कि मुझे वसीला दिया जाय तो उसे मेरी मध्यस्थता का आश्वासन है“ (747)।
इस प्रतिपादन का एक अन्य विवरण भी है। यदि कोई व्यक्ति मुअज्जिन को सुनकर यह घोषित करते हुए प्रत्युत्तर देता है कि वह ”अल्लाह को अपना आराध्य, मुहम्मद को रसूल और इस्लाम को अपना दीन (मज़हब) मानकर संतुष्ट हैं, तो उसके पाप माफ कर दिये जायेंगे“ (749)।
अपने लिए आशीष चाहते समय मुहम्मद अपने बीवी-बच्चों को नहीं भूलते। मुहम्मद से पूछा गया- ”अल्लाह के रसूल ! हम आपको आशीष किस प्रकार दें ?“ उन्होंने बतलाया-”ऐ अल्लाह ! मुहम्मद पर कृपा करो और उसकी बीवियों और उसके बच्चों पर कृपा करो……जो मुझे एक बार आशीष देता है, उस पर अल्लाह दस बार कृपा करता है“ (807-808)।
There are also prayers for the dead and the dying. The dying must be treated to a bit of theology. �Exhort to recite, �There is no god but Allah,� to those who are dying,� says the Prophet (1996).
When you visit the sick or the dead, supplicate for good, because �angels may say amen to whatever you say.� Umm Salama tells us: �When AbU Salama died, I went to the Apostle of Allah and said: Messenger of Allah, AbU Salama has died. He told me to recite: �O Allah! forgive me and him [AbU Salama] and give me a better substitute than he.� So I said this, and Allah gave me in exchange Muhammad, who is better for me than him [AbU Salama]� (2002).
Umm Salama was the widow of AbU Salama, to whom she had borne many children. He died at Uhud, and Muhammad married her four months later.
अज़ान एक बड़ा संकेत भी बन गई। जहां वह सुनाई पड़ती थी वहां के विषय में समझ लिया जाता था कि वहां केवल कुफ्र ही नहीं है। ”अल्लाह के रसूल पौ फटने के समय दुश्मन पर हमला करते थे। वे यदि उस ओर से अज़ान सुनते थे, तो रूक जाते थे“ (745)। भाष्यकार इसे मुहम्म्द का महान गुण बतलाते हैं। ”पाक पैगम्बर ने युद्ध की प्रणाली में जो महानतम योगदान दिया, वह यह है कि उन्होंने इसे अंधाधुंध वध या हत्या के स्तर से उठा कर, समाज में बुराई का उन्मूलन करने के लिए, मानवीकृत संघर्ष के स्तर तक पहुंचा दिया। इसीलिए पाक पैगम्बर अपने साथियों को यह अनुमति नहीं देते थे कि दुश्मनों पर रात के अंधेरे में उनकी असावधानी की दशा में टूट पड़ा जाय“ (टि0 600)।
There are prayers for rain, prayers for protection against windstorms or terrible dark clouds, prayers to be recited at the time of a solar eclipse (1966-1972). However, Muhammad had no friendly eye for nature. He regarded clouds and winds with terror. �When there was on any day windstorm or dark cloud its effect could be read on the face of the Messenger of Allah, and he moved forward and backward in a state of anxiety,� �Aisha tells us. She further says: �I asked him the reason of this anxiety and he said: I was afraid that it might be a calamity that might fall on my Ummah� (1961).
Muhammad deals with the problem with the help of an incantation. �Aisha tells us: �Whenever the wind was stormy, the Apostle of Allah used to say: O Allah! I ask Thee for what is good in it, and the good which it contains, and the good of that which it was sent for. I seek refuge with Thee from what is evil in it, what evil it contains, and the evil of that what it was sent for� (1962).
हमें बतलाया जाता है कि अज़ान की शुरूआत कैसे हुई। शुरू में मदीना के लोग मस्जिद में मिलते-जुलते रहते थे। प्रार्थना कब करनी है, यह जानकारी उन्हें नहीं होती थी। निश्चित समय पर प्रार्थना के लिए लोगों को बुलाने के लिए किसी ने घंटी बजाने का सुझाव दिया। ईसाई लोग घंटी बजाते थे। किसी ने यहूदियों की तरह तुरही बजाने का सुझाव दिया। किसी ने यह भी सुझाव दिया कि आग जलाई जाय। ये सभी तरीके अमान्य कर दिये गये। यहूदियों, ईसाइयों एवं अग्निपूजकों से मुसलमानी व्यवहार को अलग बनाने के लिए पुकारने की व्यवस्था प्रचलित की गई। बिलाल, जिनका कंठ-स्वर बहुत ऊंचा था, और अब्दुल्ला बिन उम्म मकतूम, जो बाद में अंधे हो गये, ये दो लोग पहले मुअज्ज़िन (पुकारने वाले) थे (735, 737, 741)।
अज़ान बहुत असरदार होती है। ”जब शैतान अज़ान सुनता है, तो वह रोहा के बराबर की दूरी तक दूर भाग जाता है“ (रोहा मदीना से 36 मील दूर है) (751)।
There are also prayers for the dead and the dying. The dying must be treated to a bit of theology. �Exhort to recite, �There is no god but Allah,� to those who are dying,� says the Prophet (1996).
When you visit the sick or the dead, supplicate for good, because �angels may say amen to whatever you say.� Umm Salama tells us: �When AbU Salama died, I went to the Apostle of Allah and said: Messenger of Allah, AbU Salama has died. He told me to recite: �O Allah! forgive me and him [AbU Salama] and give me a better substitute than he.� So I said this, and Allah gave me in exchange Muhammad, who is better for me than him [AbU Salama]� (2002).
Umm Salama was the widow of AbU Salama, to whom she had borne many children. He died at Uhud, and Muhammad married her four months later.