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दलित विमर्शः दयानन्दीय दृष्टि

दलित विमर्शः दयानन्दीय दृष्टि

डॉ ज्वलंत कुमार

प्राचीन भारतीय समाज वर्णाश्रम-व्यवस्था पर-आधारित था।वर्ण चार हैं-ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। वस्तुतः किसी भी समाज के मनुष्यों को इन चार वर्णों में विभक्त किया जा सकता है। जो व्यक्ति पठन-पाठन, अनुसन्धान तथा धर्म-मार्ग का अनुपालन करने के लिए लोगों को प्रेरित करने का कार्य करें, उसे ब्राहमण कहा जा सकता है। समाज में शान्ति-व्यवस्था, प्रशासन तथा देश को शत्रुओं से रक्षित रखना क्षत्रिय का कार्य है। कृषि, पशुपालन, उद्योग एवं व्यापार का कार्य करने वाला वैश्यवर्ग है। जो उपर्युक्त तीनों प्रकार के कार्यों को करने की क्षमता न रखता हो, उसे तीनों वर्णों की सेवा परिश्रमपूर्वक करनी चाहिए। यह वर्ग शूद्र नाम से अभिहित किया जा सकता है। अत्यन्त प्राचीनकाल में आर्यों की वर्ण-व्यवस्था इसी नियम पर आधारित थी।

वर्ण का निर्धारण उस व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर किया जाता था। कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता, तप-त्याग, धर्माचरण तथा विद्वत्ता के कारण ब्राहमण पद को प्राप्त कर सकता था। यदि ब्राहमण और क्षत्रिय अन्य लोगों की अपेक्षा ऊँचे माने जाते थे, तो उसका कारण केवल यह था कि उनके कार्यों की सम्पन्नता के लिए उत्कृष्ट प्रकार की योग्यता आवश्यक थी। सम्पूर्ण आर्य जनता एक है, यह भावना प्राचीनकाल में भली-भाँति विद्यमान थीं। जन्म के कारण किसी को न ऊँचा माना जाता था और न नीचा। शिक्षा का सबको समान अवसर था। वेद पढ़ने एवं यज्ञ करने का सबको समान अवसर था। वेद पढ़ने एवं

यज्ञ करने का सबको समान अधिकार है, यह विचार तब भली-भाँति बद्धमूल था।

पर महाभारत युद्ध के पश्चात् इस दशा में परिवर्तन आना प्रारम्भ हो गया। वर्ण भेद का आधार गुण, कर्म और स्वभाव के स्थान पर जन्म होने लगा और ब्राहमणों की स्थिति अन्य वर्णों की तुलना में ऊँची मानी जाने लगी । ऊँच-नीच का भेद भी पूरी तरह विकसित हो गया। सूत्र ग्रन्थों की रचना के समय तक तो यह दशा आ गई थी कि शूद्रों को अत्यन्त हीन व नीच समझा जाने लगा था। एक ही अपराध करने पर विविध वर्णों के

व्यक्तियों के लिए विभिन्न दण्डों का विधान था। गोतम धर्मसूत्र के अनुसार ब्राहमण का अपमान करने पर क्षत्रिय पर १०० कार्षापण जुर्माना किया जाता था। पर यदि ब्राहमण क्षत्रिय का अपमान करे, तो उसपर केवलं ५० कार्षापण जुर्माना किया जाता था। ब्राहमण द्वारा वैश्य को अपमानित करने पर केवल २५ कार्षापण दण्ड का विधान था। शूद्रों की स्थिति दासों के सदृश थी। गोतम धर्मसूत्र में कहा गया है कि उच्चवर्णों के लोगों के जो जूते, वस्त्र आदि जीर्ण-शीर्ण हो जाएं उन्हें शूद्रों के प्रयोग के लिए दे दिया जाए और उनके भोजन पात्रों में जो जूठन बच जाए शूद्र उसके द्वारा ही अपनी क्षुधा शान्त कर ले। यही बात मनुस्मृति में भी कही गई है। शुद्रों की हीनतम स्थिति का अनुमान इस दण्ड नियम से लगाया जा सकता है कि ‘‘बिल्ली, नेवला, नीलकण्ठ, मेंढक, कुत्ता, गोह, उल्लू और कौए की हत्या में जितना पाप होता है, उतना ही शूद्र की हत्या में होता है।’’ शूद्र यदि वेद को सुन ले तो उसके कानों में पिंघला हुआ सीसा और राख डाल देना चाहिए । यदि ‘‘शूद्र वेद-मन्त्र का उच्चारण करे तो उसकी जीभ कटवा देनी चाहिए। यदि वेद को याद करे तो उसका शरीर चीर डालना चाहिए’’

किसी भी प्रकार की विद्या शिल्पशिक्षा प्राप्त न कर सकने के कारण शूद्रों के लिए यही एकमात्र मार्ग रह जाता था कि वे उच्चवर्ग के घरों में उनकी सेवा का काम करें या खेतों में अनपढ़ मजदूर की भाँति कार्य कर

अपना जीवन बिताएँ।

बुद्ध के प्रादुर्भाव तक (ईं० पूं० छठी शताब्दी) भारत के सामाजिक संघटन का रूप अत्यन्त विकृत हो चुका था। इसी कारण बौद्ध साहित्य में वर्ण भेद की कटु आलोचना की गई है। जन्म के स्थान पर कर्म को महत्त्व दिया गया है और सामाजिक ऊँच-नीच के विरुद्ध आवाज उठाई गई है बुद्ध का कथन था कि जन्म से न कोई ब्राहमण है, न चाण्डाल। कर्म के आधार पर ही किसी को ब्राहमण या चाण्डाल मानना उचित है। जैन धर्म के प्रवर्तक वर्धमान महावीर ने भी जन्म की तुलना में गुण-कर्म को ही मनुष्यों की सामाजिक स्थिति का निर्धारक प्रतिपादित किया था। बौद्ध और जैन धर्मों ने भारत के सामाजिक जीवन की बुराइयों को दूर करने में कुछ अंश तक सफलता अवश्य प्राप्त की। कौटिलीय अर्थशास्त्र की रचना चौथी शती ईं० पूर्व में हुई थी। उसके अनुशीलन से प्रतीत होता है कि बौद्ध और जैन नेताओं के प्रयत्न से उसकाल तक शूद्रों की स्थिति में सुधार अवश्य हो गया था। परन्तु चौथी शती ईस्वी पूर्व में भी ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-चारों वर्णों के लोगों की स्थिति समान नहीं हो पाई थी। न्यायालयों द्वारा अपराधियों को दण्ड देते हुए तथा बाद में शपथ दिलाते हुए वर्ण की दृष्टि से भेद भाव किया जाता था।

बौद्ध और जैन धर्मो के उत्कर्ष के युग में भी सनातन वैदिक धर्म का लोप नहीं हो पाया था। भारत के अनेक प्रदेशों में वह फूलता-फलता रहा, यद्यपि उसके स्वरूप में कुछ परिवर्तन होता गया और वेदों में आस्था न

रखने वाले इन नये सम्प्रदायों (बौद्धो तथा जैनों) से वह अप्रभावित नहीं रह सका। मौर्य वंश के पतन के पश्चात् शुंग वंश के शासनकाल में प्राचीन वैदिक धर्म में नई शक्ति का संचार होना आरम्भ हुआ और गुप्तयुग में वह एक बार फिर भारत का प्रधान धर्म बन गया।शुंग काल में जिस वैदिक धर्म का पुनरुत्थान हुआ, वह प्राचीन आर्यधर्म से अनेक अंशों में भिन्न था। यह भिन्नता केवल पूजा-विधि में ही नहीं थी।

सामाजिक व्यवस्था में भी अब अनेक ऐसे परिवर्तन हुए जो प्राचीन समाज से बहुत भिन्न थे। जैसा कि लिखा जा चुका है कि आर्यो का प्राचीन सामाजिक संघटन वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था। छठी शती ईं० पूर्व से पहले ही वर्ण-व्यवस्था में बहुत विकृतियाँ आ चुकी थीं और ब्राहमण, क्षत्रिय आदि वर्णों का आधार गुण, कर्म, स्वभाव के स्थान पर जन्म को माना जाने लगा था। बुद्ध ने उसके विरुद्ध आवाज उठाई थी और उनके अनुयायी जन्म कारण किसी को ऊँच या नीच नहीं मानते थे। होना तो यह चाहिए था कि बौद्ध धर्म के प्रभाव से सनातन आर्यधर्म (जिसका कि अब परिवर्तित रूप में पुनरुत्थान हुआ था) के सामाजिक संगठन में भी ऊँच-नीच का कोई भेद न रहता। पर ऐसा हुआ नहीं। बौद्ध धर्म के प्रभाव से सनातन आर्य धर्म मे मूर्तिपूजा का अवश्य प्रवेश हुआ, पर सामाजिक संगठन को वह प्रभावित नहीं कर सका। वर्ण-व्यवस्था का रूप अब पहले की तुलना में भी अधिक विकृत हो गया।

महर्षि पतनजलि (२०० ईं०पूं०) शुंग काल में हुए थे। यही वह समय था जब बौद्ध धर्म के विरुद्ध प्रतिक्रीया होकर प्राचीन धर्म का पुनरुत्थान प्रारम्भ हुआ था। उनके महाभाष्य में अनेक ऐसे संकेत विद्यमान हैं जिनसे यह भली-भाँति जाना जा सकता है कि प्राचीन धर्म में पुनरुत्थान के इस काल में वर्णव्यवस्था का स्वरूप

क्या था और उसमें शूद्रों की स्थिति किस प्रकार की थी। पतनजलि ने ‘जाति ब्राहमण’ संज्ञा ऐसे लोगों के लिए प्रयुक्त की थी, जो ब्राहमण वर्ण के लिए सर्वथा अनुपयुक्त थे। पतंजलि ने शूद्रों के दो भेद किये हैं-‘‘ एक अबहिष्कृत और दूसरा बहिष्कृत या अनिरवसित हैं। जो द्विजों के पात्रादि नहीं छू सकते थे, वें चाण्डाल और मृतप आदि निरवासित या बहिष्कृत शूद्र हैं।’’ दोनों प्रकार के शूद्रों को यह अधिकार नहीं था कि वे वानप्रस्थ तथा संन्यासी बन सकें। उनका उपनयन-संस्कार भी नहीं होता था। मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति ने इस काल में जो रूप प्राप्त किया, उसके अनुसार ब्राहमण के अतिरिक्त अन्य वर्णों के लोग न वेदों को अध्ययन कर सकते हैं, न यज्ञ कर सकते हैं और न दान ग्रहण कर सकते हैं। उनके लिए यही पर्याप्त था कि वे देवताओं का स्मरण कर उनके प्रति नमस्कार निवेदन कर दें। महा कवि भास विरचित ‘‘प्रतिमा नाटक’’ में उल्लिखित प्रसंग के अनुसार शूद्र देवार्चन के समय वेद मन्त्रों का उच्चारण किए बिना ही देवताओं को प्रणाम करते थे। शूद्रों को अस्पृश्य माना जाता था। इसलिए लोग शूद्रों का सान्निध्य स्वीकार नहीं करते थे। भास काल ईं०पूं० चतुर्थ शताब्दी माना जाता है।शूद्रक रचित ‘मृच्छकटिक’ (ईस्वी पूर्वं० २००) में ‘अधिकरणिक शकार’ (शूद्रा स्त्री से उत्पन्न) से कहता कि तुम मूर्ख होकर वेदार्थों का उच्चारण करते हो तथापि तेरी जिहवा नहीं गिरी। इस युग में वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत ने जो प्रवर्वितरूप प्राप्त किया, उसके अनुसार भी शूद्रों की निम्न स्थिति का पता चलता है। राक्षसियों के प्रति सीता का कथन है कि- ‘‘ जैसे द्विज शूद्रों को

वेदमन्त्र नहीं देते, उसी प्रकार मैं अपना अनुराग किसी को नहीं दूँगी।’’ बालकाण्ड तथा उत्तरकाण्ड में विशेषतः

शूद्रों के अध्ययन एवं भजन का निषेध है। उन्हें तप करने तथा स्वर्ग प्राप्त करने से वंचित बताया गया है।

महाभारत के अनुसार भी कोई शूद्र विद्याध्ययनके निमित्त आचार्य के आश्रम में प्रविष्ट नहीं हो सकता था। विदुर ने यह स्वयं स्वीकार किया है कि वे शूद्र होने के कारण शिक्षा प्रदान करने के अधिकारी नहीं हैं। इसी प्रकार शूद्रों के यजनादि का निषेध भी प्राप्त होता है। महाकवि कालिदास (ईं पूं प्रथम शताब्दी) विरचित रघुवंश में शूद्र तपस्वी के तप कर्म को अनाचार कह कर उसके वध की प्रशंसा की गई है। इस स्थल को उदधरीत कर

भगवतशरण उपाध्याय का कहना है कि कालिदास का दृष्टिकोण यथार्थ में ब्राहमणत्व परायण है और वे जान बूझकर रामायण द्वारा की गई शूद्र की निन्दा को दुहराते हैं, जिसने प्रचलित वर्ण-व्यवस्था की सुरक्षा की धमकी दी थी। दूसरी सदी ईस्वी पूर्व में चातुर्वर्ण्य का जो स्वरूप विकसित होना प्रारम्भ हुआ था, गुप्त युग तथा मध्यकाल में भी वह प्रायः इसी प्रकार कायम रहा। यही कारण है कि ईंपूर्व चौथी शताब्दी से १२वीं

शताब्दी ईवी तक के संस्कृत महाकवियों की रचनाओं (नाटकों तथा काव्यों) में शूद्रों की निम्नदशा का ही उल्लेख है। क्रमशः शूद्रों के लिए दण्ड व्यवस्था अत्यन्त कठोर हो गई। उदाहरणार्थ ‘‘यदि शूद्र द्विजातियों को कड़ी अर्थात् चुभनेवाली बात कहे तो उसकी जीभ काट डालनी चाहिए। यदि द्रोह पूर्वक कठोर वचन कहे तो जलती हुई दश अंगुल लम्बी लोहे की शलाखा मुख में डाल देनी चाहिए। यदि अहंकार से ब्राहमण को धर्मोपदेश करे तो राजा तपा हुआ तेल उसके मुँह और कान में डलवा दें। यदि उच्च जातियों के साथ एक आसन पर बैठने की कोशिश करे तो उसकी कमर दाग कर उसे देश से निकाल दे अथवा उसके एक चूतड़ को कतरवा दे। यही नहीं शूद्र द्विज स्त्री से समागम करे तो दण्ड के रूप में राजा उसकी लिंगेन्द्रिय को कटवा दे और उसका धन छीन लेवे। यदि वह अपनी रक्षा करता हो तो उसका वध करा दे। मनु अनुसार ब्राहमण जाति की कन्या से समागम करने वाले शूद्र वध के योग्य हैं ब्राहमणी के साथ गमन करने वाले शूद्र को आग में फेंक देना चाहिए। शूद्र के प्रति यह अन्याय उस समय बहुत अखरने लगता है, जब हम स्मृतिकारों द्वारा एक ही प्रकार

के अपराध के लिए शूद्र को बहुत कठोर और ब्राहमण के साथ समागम करने वाली कन्या को कुछ भी दण्ड न दे। शूद्र स्त्री के साथ व्यभिचार करे, उसे प्राण दण्ड दिया जाए।

समय के साथ-साथ भारत में वर्णभेद अधिकाधिक संकीर्ण व कठोर होता गया। यह तो अब सम्भव ही नहीं रहा था कि गुणों और कर्मो के आधार पर नीच वर्ण में उत्पन्न कोई व्यक्ति ऊँच वर्ण प्राप्त कर सके। किसी विदेशी और विधर्मी व्यक्ति का अपने समाज का अंग बन सकना असम्भव होता जा रहा था। चौथी शती ईस्वी पूर्व से ईसा की सातवीं शती तक यवन, शक, कुषाण, हूणआदि अनेक जातियाँ भारत में प्रविष्ट हुईं

और गुण, कर्म के अनुसार उन्हें भारत के चातुर्वर्ण्य में स्थान प्रदान कर दिया गया। पर सामाजिक संकीर्णता में वृद्धि के कारण मध्यकाल में इस स्थिति में परिवर्तन हुआ। दशवीं शती के अन्त मे जब तुर्क लोग भारत में

प्रविष्ट हुए, तो भारतीय समाज उन्हें आत्मसात् न कर सका। अलबरूनी ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि-‘‘हिन्दुओं की कट्टरता का शिकार विदेशी जातियाँ हैं।’’ तेरहवीं शती में भारत पर तुर्क-अफगानों की राजनीतिक सत्ता का आधिपत्य हुआ और कुछ ही समय में उत्तरी भारत का बड़ा भाग उनके प्रभुत्व में आ गया। इन नए ‘यवनों’ या ‘हूणों’ को भारतीय समाज का अंग नहीं बनाया जा सका और इनका एक पृथकवर्ग बन गया। इसमें वे हिन्दू या आर्य भी सम्मिलित हुए जो तुर्क अफगानों के सम्पर्क में आकर इस्लाम को अपना लेते थे। इस प्रकार भारत का समाज जहाँ हिन्दू मुस्लिम दो वर्गों में विभक्त हो गया वहाँ वर्ण भेद या जाति भेद के कारण हिन्दू समाज में ऐसा संगठन नहीं रह गया, जिसके कारण उसे एक जाति समझा जा सके। हिन्दुओं की यह बहुत बड़ी निर्बलता थी। मुसलमानों में ऊँच-नीच का वैसा भेद नहीं था, जैसा कि हिन्दुओं में था। नीच व अस्पृश्य समझे जाने वाले हिन्दू इस्लाम को अपना कर अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा बना सकते थे।हिन्दू धर्म के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती थी।

इस दशा में अनेक ऐसे हिन्दू नेता और धार्मिक आचार्य उत्पन्न हुए, जिन्होंनें जहाँ एक और हिन्दू धर्म की

विकृतियों को दूर कर धार्मिक सुधार का प्रयत्न किया, वहाँ साथ ही हिन्दू समाज से ऊँच-नीच का भेद भाव

हटाकर सबको सामाजिक दृष्टि से समान स्थिति प्रदान करने के पक्ष में आन्दोंलन किया। इन धार्मिक नेताओं

का कहना था कि भगवान कि दृष्टि में न कोई मनुष्य नीच है न उच्च। अपने गुण, कर्म, सदाचार व भक्ति द्वारा ही मनुष्य ऊँचा पद प्राप्त कर सकता है। मध्य युग के इन धार्मिक नेताओं में रामानन्द, चैतन्य,नानक, कबीर आदि प्रमुख थे। पर मध्य युग के सन्त-महात्मा हिन्दू समाज से ऊँच-नीच और छूत-अछूत के रोग का निवारण करने में असमर्थ रहे। सामाजिक दृष्टि से न रैदास ऊँची स्थिति प्राप्त कर सके न कबीर और न सेन तथा चोख मेला। रैदास के चरित्र और भक्ति से उच्च वर्णों के लोग प्रभावित अवश्य हुए, पर उन्हें वैष्णव धर्म

में ब्राहमण आचार्यो के  समकक्ष स्थिति प्राप्त नहीं हुई। रैदास के अनुयायी सजातीय लोग एक पृथक् पन्थ के रूप में परिवर्तित हो गए और हिन्दू समाज में उनकी स्थिति नीची ही मानी जाती रही। यही बात कबीर आदि अन्य सन्तों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।

भारत के सामाजिक जीवन से ऊँच नीच और छूत-अछूत के भेद को दूर करने के लिए अनेक बार प्रयत्न हुए। गौतम बुद्ध और वर्धमान महावीर ने भी इस सम्बन्ध में अनर्थक प्रयत्न किया था और आंशिक सफलता प्राप्त की थी। उनकी अल्प सफलता का कारण यह था कि इन धर्मो की मान्यताएँ भारत की परम्पराओं के अनुकूल

नहीं था। ये न वेदों की प्रामाणिकता में विश्वास करते थे, न सृष्टि के कर्त्ता, धर्त्ता और संहर्त्ता ईश्वर की सत्ता को ही स्वीकार करते थे। इसलिए ये भारतीय जनता को स्थायी व गहन रूप में अपने प्रभाव में नहीं रख सके और समाज में ऊँच-नीच आदि के भेद भाव को दूर कर सकने में भी असफल रहे। अतः ये दोनों

धार्मिक आन्दोलन भारतीय जनता के बड़े भाग को प्रभावित कर सकने मे असमर्थ रहे। मध्यकाल के सन्त

महात्मा भक्ति मार्ग के प्रतिपादक थे और भगवान् की भक्ति में ऊँच-नीच के भेद भाव को भूल जाते थे। भक्ति की सीमित मण्डली में नीच समझे जानेवाले लोगों से उन्होंने प्रेम अवश्य किया, पर सामाजिक जीवन में शूद्रों की स्थिति को परिवर्तित करने के लिए वे कुछ ठोस कार्य नहीं कर सके। इनके दिमाग में वर्ण परिवर्तन की भी बात नहीं आई। अर्थात् शूद्र अपने अच्छे गुण, कर्म, सदाचार तथा भक्ति से भी भगवान् को प्राप्त कर सकता है, परन्तु शूद्र से ब्राहमण नहीं बन सकता। श्रेष्ठगुण, कर्म, सदाचार का पालन करने वाले शूद्र जब तक ‘शूद्र’ नाम से ही कहे जाते रहेंगे, तब तक उनकी सामाजिक निम्नतम स्थिति समाप्त नहीं हो सकेगी। इस तथ्य की ओर मध्यकालीन सन्त-महात्माओं का ध्यान नहीं गया।

उन्नीसवीं शती के पूर्वाद्ध में भारत में नवजागरण का सूत्रपात हुआ। इसकाल मे समाज सुधार के लिए स्थापित संस्थाओं में ब्राहमसमाज, प्रार्थनासमाज तथा थियोसोफिकल सोसाइटी प्रमुख थे। ब्राहमसमाज का प्रभाव बंगाल में ही सीमित रहा और प्रार्थनासमाज का बम्बई में। इसके साथ ही इन संस्थाओं के प्रवर्तकों तथा संचालकों ने

सामाजिक प्रथाओं का आधार प्रायः धर्म होता है। हिन्दुओं में यदि कुछ जातियों को ऊँचा या नीचा और कुछ को अछूत माना जाता था तो उसका आधार भी धर्म को ही प्रतिपादित किया जाता था। पण्डित लोग स्मृतियों और धर्मशास्त्रों के आधार पर यह निरूपित करते थे कि ब्राहमणों की उत्कृष्ट स्थिति और शूद्रों की हीन दशा शास्त्र सम्मत है। इन बुराइयों को तभी सफलतापूर्वक दूर किया जा सकता है, जबकि वेद शास्त्रों के प्रमाणों से यह सिद्ध किया जाए कि ये बातें न धर्मानुकूल हैं और न शास्त्र सम्मत। इस दिशा में महर्षि दयानन्द के

अतिरिक्त अन्य किसी ने भी प्रयत्न नहीं किया। इसके विपरीत ब्राहमसमाज में श्रीदेवेन्द्रनाथ के समय तक वेदों की प्रमाणिकता तक से इन्कार कर दिया गया था। केशवचन्द्र सेन के प्रभाव से यज्ञोपवीत को तिलाजलि दे दी गई। क्रमशः ब्राहमसमाज पाश्चात्त्य जीवन प्रणाली पर आधारित होता गया।१८६६ ईस्वी में श्रीकेशवचन्द्र सेन ने ब्राहमसमाज से पृथक् अपना नया समाज ‘नव विधान समाज’ नाम से बनाया। फ़्रांसीसी मनीषी रोम्याँ रोलाँ ने लिखा है-‘‘ ईसा ने केशवचन्द्र सेन के अन्तःस्थल को स्पर्श किया था।उनके जीवन का लक्ष्य बन गया था कि वे ईसा को ब्राहमसमाज में प्रविष्ट कराएँ। इसके साथ ही श्रीसेन उस समय बड़े जोर से उद्बुद्ध हो रही राष्ट्रिय चेतना के प्रतिकूल चल रहे थे।’ ’ इन कारणों से ‘ब्राहमसमाज’ हिन्दुओं की सामाजिक दशा में विशेष परिवर्तन नहीं ला सका और चिर स्थायी भी नहीं रह सका। १८६७ ई० में ‘प्रार्थनासमाज’ की स्थापना हुई प्रार्थनासमाज के लोग जाति-प्रथा के उच्छेद, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री शिक्षा के प्रबल प्रोत्साहन तथा बालविवाह-निषेध के सुधारों पर बल देते थे। इस समाज का संघठन कुछ निश्चित नियमों के आधार पर नहीं हुआ था। यह केवल ऐसे व्यक्तियों को समूह बना रहा, जो हिन्दू धर्म की अनेक कुरीतियों के विरुद्ध आन्दोलन करते थे,

हिन्दू समाज में सुधार चाहते थे किन्तु व्यवहार में हिन्दू कर्मकाण्ड व रूढ़ियों का पालन करते थे। यही कारण है कि प्रार्थनासमाज का प्रभाव सामाजिक जैसा भी बंगाल के समान बम्बई को प्रभावित न कर सका और न दीर्घजीवी हुआ। थियोसोफी के नेता १८६९ ईं० में मैडम ब्लेवेत्स्की तथा कर्नल अल्काट भारत पहुँचे। पहले इन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शरण ली किन्तु भारत में फैले अन्धविश्वास को देखकर अनेक स्थानों पर चमत्कार दिखाकर लोगों का ध्यान थियोसोफी की ओर आकर्षित किया। इस प्रकार प्राचीन धर्मों की सम्पूर्ण रूढ़ियों, विश्वासों एवं क्रीयाकलापों का कथित वैज्ञानिक समर्थन इन लोगों द्वारा किया जाने लगा। ऐसी परिस्थिति में प्रचलित जातिभेद को दूर करना थियोसोफी के बलबूते की बात नहीं थी। वर्णव्यवस्था पर आधारित भारत के सामाजिक संगठन की मूलभूत बुराइयों को दूर करने के लिए जो सबसे अधिक सशक्त आन्दोलन उन्नसवीं शती में चला, वह आर्यसमाज का था और उसके प्रवर्त्तक महर्षि दयानन्द थे।

सर्वप्रथम भारतीय वर्णव्यवस्था में शूद्रों की हीन स्थिति के बने रहने के जो आधार धर्मशास्त्र थे, उन्हें महर्षि दयानन्द ने चुनौती दी। उन्होंने वर्ण-व्यवस्था को गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर व्यवस्थित करने के वैदिक नियम को उपस्थित किया। मध्यकाल में विकसित धर्मशास्त्रों तथा धार्मिक मान्यताओं के कपोलकल्पित तथा

वेद शास्त्रादि का विरोधी बताया। धार्मिक व्यवस्था तथा उस पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के लिए उन्होनें

वेदों की प्रामाणिकता की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। चार वेद की संहिताओं को निर्भ्रान्त स्वतः प्रमाण तथा अन्य वैदिक आर्ष ग्रन्थों को परतः प्रमाण घोषित किया। स्मृतियों में केवल मनु की स्मृति के प्रक्षेप से रहित भाग को ही प्रामाणिक तथा शेष सभी स्मृतियों को त्याज्य, अनार्ष एवं वैदिक व्यवस्था का विरोधी निरूपित किया। स्वामी जी के अनुसार वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत आर्ष काव्य हैं और उनमें जो जन्मगत वर्णव्यवस्था के पोषक प्रमाण मिलते हैं, वे परवर्त्ती मिश्रण हैं। इन काव्यों के अतिरिक्त जितने भी संस्कृत के काव्य या नाटकादि लिखे गये उनमें वर्णित धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था वेद विरोधी होने के कारण माननीय नहीं है। इन ग्रन्थों से केवल तत्कालीन धर्म तथा समाज की स्थिति का पता लगाने में सहायता मिल सकती हैं। वेद के आधार पर धार्मिक मान्यताओं तथा समाज व्यवस्था को प्रचलित करने में इन अनार्ष ग्रन्थों की कोई उपयोगिता नहीं हैं। ‘‘स्त्रीशूद्रौ नाधीयतामिति श्रुतेः’’ को उन्होंने कपोलकल्पित कहा और इसके प्रचारकों को ‘कुएँ में पड़ो’ जैसी कठोर बात कही। उन्होंने स्त्री, शूद्रादि सहित मनुष्यमात्र के लिए वेदादि शास्त्र पढ़ने का प्रमाण वेदों से उद्धरीत किया। स्वामी जी के इस महत्तवपूर्ण कार्य का औचित्य पाश्चात्त्य विद्वानों तथा सत्यव्रत सामश्रमी जैसे परम्परागत भारतीय विद्वानों ने भी स्वीकार किया। वस्तुतः वेदों में वर्णगत ऊँच-नीच की भावना का लेश भी नहीं है। ‘पंचजनाः मम होत्रं जुषध्वम्’ तथा ‘पाजजन्यः पुरोहितः’ प्रभृति वेद मन्त्रों में सभी के लिए यज्ञ-यागादि धार्मिक कृत्यों का विधान है। पज्जजनाः का अर्थ निरुक्त के अनुसार ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण तथा पाँचवाँ निषाद है। वेदों में कहीं छूत-अछूत, स्पृश्यास्पृश्य या ऊँच-नीच की अवधारणा नहीं हैं। इसके पक्ष में अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। महर्षि दयानन्द तथा उनके अनुयायी विद्वानों ने इस सम्बन्ध में कई प्रमाण दिये हैं एवं उपयोगी ग्रन्थ लिखे हैं। महर्षि दयानन्द तथा आर्य समाज के विद्वानों को इन वचनों की शास्त्रीय प्रमाणवत्ता को लेकर परम्परावादी, रूढ़िवादी पौराणिक विद्वानों से कई शास्त्रार्थ करने पड़े हैं और कड़ा संघर्ष एवं विरोध झेलना पड़ा है। अब लगभग शास्त्रार्थ की परम्परा समाप्त हो गई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि सनातनी विद्वान्

अपनी कई धार्मिक मान्यताओं को वेद-प्रामाण्य के आधार पर सिद्ध करने में सक्षम नहीं रह गये हैं। अद्यतन प्रकाशित होनेवाले शोध ग्रन्थों में सनातनी ब्राहमण विद्वानों ने ही यह प्रतिपादित कर दिया है कि अति

प्राचीनकाल में वर्ण-व्यवस्था जन्म पर आधारित नहीं थी और वेदादि प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों में गुण, कर्म,

स्वभाव के आधार पर ही चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था की गई थी। इन विद्वानों में प्रमुख हैं- क्षितिमोहन सेन, चिन्तामणि विनायक वैद्य, गौरीशंकर हीराचन्द्र ओझा, राजबलि पाण्डेय, भगवतशरण उपाध्याय तथा डाँ रामजी उपाध्याय इत्यादि।

दण्डव्यवस्था के सम्बन्ध में महर्षि दयानन्द का सिद्धान्त मध्यकालीन स्मृतियों तथा सूत्रग्रन्थों के बिल्कुल

विपरीत है। ‘‘जिस अपराध में साधारण मनुष्य को एक जैसा दण्ड हो, उसी अपराध में राजा को सहस्त्र गुणा,

मन्त्री को आठ सौ गुणा तथा छोटे से छोटे (राजकीय) भृत्य को आठ गुणे दण्ड से कम न होना चाहिए। ब्राहमण को गुणा वा सौ गुणा अथवा एक सौ अट्ठाइस गुणा दण्ड होना चाहिए अर्थात जिसका जितना अधिक ज्ञान और प्रतिष्ठा हो उसका अपराध में उतना ही अधिक दण्ड होना चाहिए।’’

गुणकर्मानुसार चातुर्वर्ण्य की स्थापना के लिए जो क्रीयात्मक पद्धति महर्षि ने प्रतिपादित की है उसकी मुख्य बातें निम्नलिखित हैं-(१) राजनियम तथा जाति नियम द्वारा सब बालक-बालिकाओं को आठ वर्ष की आयु हो जाने पर गुरुकुलों (आवासीय शिक्षणालयों) में भेज दिया जाए। शिक्षा सबके लिए अनिवार्य हो और एक समान, चाहे द्विज की सन्तान हो और चाहे शूद्र या अति शूद्र की। (२) गुरुकुल में सबको समान वस्त्र और समान भोजन मिले चाहे वे धनी माता-पिता की सन्तान हो और चाहे दरिद्र माता-पिता की। (३) शिक्षण काल में

विद्यार्थियों का सम्पर्क उनके माता-पिता से बिल्कुल न हो जिससे माता-पिता की आर्थिक स्थिति या वर्ण के

आधार पर उच्च या निम्न भावना उनमें न बने। (४) शिक्षण काल की समाप्ति पर आचार्यों द्वारा उनका वर्ण

गुण-कर्म-स्वभाव तथा योग्यता के आधार पर निर्धारित किया जाए। (५) गृहस्थ जीवन में पदार्पण के निमित्त

स्नातक तथा स्नातिकाओं का विवाह उनके आचार्य द्वारा निर्धारित वर्ण के अनुसार गुण, कर्म तथा स्वभावगत

आधार पर किया जाए।

इस प्रकार गुणकर्मानुसार चातुर्वर्ण्य स्थापना का यह क्रीयात्मक मार्ग स्वामी दयानन्द द्वारा प्रतिपादित किया

गया है। न इसकी ओर बुद्ध और महावीर का ध्यान भी नहीं गया, न मध्यकाल के सन्त-महात्माओं या धार्मिक तथा दार्शनिक आचार्यों का। इसकी ओर उन्नीसवीं सदी के उन सुधारकों का ध्यान भी नहीं गया जो पश्चिम से प्रेरणा लेकर भारत की सामाजिक दशा सुधारना चाहते थे। वस्तुतः भारत के इतिहास में अकेले महर्षि दयानन्द सरस्वती ही ऐसे चिन्तक हुए हैं जिन्होंने इस देश की भयंकर सामाजिक व्यवस्था की जातिगत बुराइयों की बीमारी के मूलकारणों का पता किया और उसके निवारण के लिए क्रीयात्मक और सशक्त उपाय प्रतिपादित किये।

विशेष– इस लेख में मनुस्मृति के कुछ ऐसे श्लोक भी उद्ध्रीत किये गये हैं जिन्हें ऋषि दयानन्द और आर्य समाज प्रामाणिक नहीं मानता। दलितों की हीनावस्था और उनके प्रति अन्यायपूर्ण इन श्लोकों के बावजूद आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द ‘मनुस्मृति’ को प्रामाणिक ग्रन्थ इसलिए मानता है कि मनुस्मृति में जन्मना (जाति पाँति व्यवस्था) वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध गुण-कर्म- स्वभावानुसार वर्ण-व्यवस्था के पोषक भी प्रमाण मिलते हैं। समानकर्तृक अथवा एककर्तृक ग्रन्थ में परस्पर विरोधी मान्यताएँ नहीं होती। इसलिए भी मनुस्मृति के जाति-व्यवस्था तथा पक्षपातपूर्ण श्लोकों की अप्रामाणिकता तथा प्रक्षेपयुक्तता सिद्ध होती है। इस सन्दर्भ में ऋषि दयानन्द के जीवन का एक उल्लेखनीय प्रसन्ग इस प्रकार है-

‘‘दयानन्द ने यह भी अनुभव किया कि ब्राहमणों ने जो अपना गढ़ खड़ा कर लिया है, वही हिन्दू धर्म में घुसी बुराइयों की जड़ है। अतः उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के स्पष्ट सत्य बोलकर इस गढ़ की जड़ों को हिला डालने का संकल्प लिया। उन्होंने केवल जन्म के आधार पर प्राप्त ब्राहमणों ने अपने अधिकारों को तर्कसंगत

बताने के लिए शास्त्रीय प्रमाण का सहारा लिया तो स्वामी जी ने स्वयं ही मनुस्मृति का प्रमाण देकर यह सिद्ध

किया कि ब्राहमण को वेदों का ज्ञान होना चाहिए और जो व्यक्ति इस स्तर तक नहीं पहुँच पाता, वह ब्राहमण कहलाने के योग्य नहीं।’’

काशी में एक दिन एक व्यक्ति ने वर्ण-व्यवस्था को जन्मगत सिद्ध करने के उद्देश्य से महाभाष्य का एक

श्लोग प्रस्तुत किया-

विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मण्यकारकम्।

विद्यातपोभ्यां यो हीनो जाति ब्राहमण एव सः ||

अर्थब्राहमणत्व के ३ कारक हैं- (१) विद्या, (२) तप, (३) योनि। जो विद्या और तप से हीन है वह जात्या

(जन्मना) ब्राहमण तो है ही।

स्वामी जी ने इसके खण्डन में मनु का यह श्लोक प्रस्तुत किया-

यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः।

यश्च विप्रोऽनधीयानऱ्यस्ते नाम बिभ्रति ||

अर्थजैसे काठ का कठपुतला हाथी और चमड़ का बनाया मृग होता है, वैसे ही बिना पढ़ा हुआ विप्र अर्थात्

ब्राहमण होता है। उक्त हाथी, मृग और विप्र ये तीनों नाममात्र धारण करते हैं। (तुलनीय-संस्कारविधिः, पृं० ८४); (देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय रचित ‘‘ स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन-चरित्र’’ भाग २ पृं ६०२, प्रथम संस्करण, १९९० विक्रमी)।

इस विषय में मनुस्मृति के अन्य प्रमाण भी द्रष्टव्य

हैं- योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

स जीवीन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ||

मनुं२/१६८

अर्थ-(१)जो द्विज वेद को न पढ़कर अन्य शास्त्रों में श्रम करता है, वह जीते जी अपने पुत्र-पौत्रों (वंश) सहित

शीघ्र ही शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है।

शूद्रो ब्राहमणतामेति ब्राहमणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च

मनुं १०/१०/६४

अर्थ(१) ‘शूद्र ब्राहमण हो जाता है और ब्राहमण भी शूद्र हो जाता है’ मनु के इस वाक्य का भी विचार करना

चाहिए। (ऋषि दयानन्द-पूना प्रवचन, पृं० २०)

(२) कर्मों के द्वारा ब्राहमण शूद्र होवे और शूद्र भी ब्राहमण हो जावे। यही पुरानी रीति है। यदि ब्राहमण दुश्चरित्र, मूर्ख और धर्महीन है तो उसे शूद्र बना देना चाहिए और शूद्र यदि ज्ञानी, सच्चरित्र और धार्मिक हो तो उसे ब्राहमण पद पर प्रतिष्ठित कर देना चाहिए।(स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, भाग-१, पृं० २३१)

-अध्यक्ष, संस्कृत-विभाग,

रणवीर रणञजय, पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज,

अमेठी, (उ.प्र.) २२७४०५