ओ३म्
संसार के इतिहास में सबसे प्राचीन इतिहासिक ग्रन्थ महर्षि वाल्मीकि रामयण है। इस ग्रन्थ में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम सहित भरत जी के पावन जीवन का भी चरित्र चित्रण है। राम के अनुज भरत जी ने भी भ्रातृत्व वा भ्रातृ-प्रेम की ऐसी मर्यादायें स्थापित की हैं कि उसके बाद संसार के इतिहास में अन्य कोई उसका पालन नहीं कर सका। यद्यपि महाभारत में युधिष्ठिर जी के चारों भाईयों व माता द्रोपदी ने अपने बड़े भाई के लिए अनेक कष्ट सहन किये हैं, जो कि आदर्श हैं, परन्तु भरत का आदर्श देश काल व परिस्थितियों के भिन्न होने के कारण कुछ अलग व महत्तम है। श्री राम व भरत जी से सम्बन्धित घटनायें वैदिक काल में घटी थी। यह घटनायें सहस्रों व लाखों वर्ष पुरानी हैं। आज वैदिक धर्म व संस्कृति अपने मूल व यथार्थ स्वरूप में देश व संसार में विद्यमान नहीं है। आज वेद कथित मानव मूल्यों का कितना पतन हुआ है, यह हम सभी जानते हैं। वर्तमान समय में बड़े शिक्षित लोग बड़ी सफाई के साथ झूठ बोलते हैं और प्रमाणों के अभाव में सत्य को जानते हुए भी उन्हें सहन करना पड़ता है। आज पद व प्रतिष्ठा तथा धन ही लोगों के लिए सब कुछ हो गया है। जिनसे देश की रक्षा की अपेक्षा की जाती है वह भी अपने स्वार्थों के कारण सच्ची बातों को तोड़ते मरोड़ते हैं। राष्ट्र के हित में भी सभी एकमत नहीं हो पाते और एक दूसरे की टांग खींचना आम बात दिखाई देती है। ऐसे समय में श्री राम व श्री भरत जी की बातें करना कुछ लोगों को हो सकता है कि उचित प्रतीत न लगे। इस पर भी देश के सामान्य अल्पशिक्षित वा अशिक्षित लोग आज भी श्री राम व भरत जैसे भाई के महान व्यक्तित्व से प्रभावित व प्रेरित होकर जीवन व्यतीत करते हैं। यह सत्य की ही विजय कही जा सकती है। आज हम आर्यसमाज के उच्च कोटि के विद्वान व संन्यासी स्वामी ब्रह्ममुनि जी की पुस्तक ‘रामायण की विशेष शिक्षाएं’ के आधार पर भरत जी के जीवन की कुछ महत्वपूर्ण एवं स्तुत्य चारित्रिक घटनाओं को प्रस्तुत कर रहे हैं।
आद्यकवि महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में ‘‘भरत” जी का स्थान बहुत ऊंचा है। भरत जी में मर्यादा का, धार्मिकता, राम के प्रति आदर व स्नेह और ज्येष्ठानुवृति अत्यधिक थी। जिस भरत को राज्य दिलाने के लिये कैकेयी ने राम को वनवास दिलाया, पुनः राम के वनवास-शोक में दशरथ का प्राणान्त हो जाने पर मन्त्रियों ने राजसिंहासन पर बैठाने के लिये राम के वनवास आदि वृतान्त को गुप्त रख पिता दशरथ की ओर से भरत को मातुलगृह से बुलाया, पुनः भरत के अयोध्या पहुंचने पर मंत्रियों ने उसे राम के वनवास और पिता के देहान्त को सुनाकर राजसिंहासन पर बैठने की अनुमति दी तो वह भरत राज्य-प्राप्ति में प्रसन्न नहीं होते किन्तु विलाप करते हुए अचेत हो भूमि पर गिर पड़ते हैं। महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है- ‘अभिषेक्ष्यति रामं तु राजा यज्ञं नु यक्ष्यते। इत्यहं कृतसंकल्पो हृष्टो यात्रामयासिषम्।।’ अर्थात् मेरा पिता राजा दशरथ राम का राज्याभिषेक करने के हेतु राजसूय यज्ञ करेगा यह संकल्प मन में रखकर प्रसन्न हो रहा मैं चला था। हाय ! यह क्या हुआ। यह है भरत के सौजन्य का प्रथम दृश्य। राज्यश्री को प्राप्त करने के लिये आजकल लोग भ्राता का वध तक कर देते हैं, परन्तु जिसमें निरपराध भरत ऐसे राज्य प्राप्ति में भी प्रसन्नता के स्थान पर विलाप करता है, अचेत हो जाता है, पुनः चेतना प्राप्त करके अपनी माता कैकेयी को धिक्कारते हुए कहता है कि ‘हे माता ! तूने दुःख में दुःख दिया, घाव पर नमक छिड़का, पिता को मृत्यु के मुख में पहुंचाया और राम को वनवासी बनाया। इस कुल के नाशार्थ तू काल–रात्रि बनी।’ अब भरत केवल इतने पर ही सन्तोष करके नहीं रह जाता कि जो होना था सो हो गया, राम तो चले गये, राज्यभार तो संभालना ही पड़ेगा। परन्तु भरत तो राम की खोज में घर से बाहर निकल पड़ता है, मार्ग में एक स्थान पर गंगा के किनारे इंगुदिवृक्ष के नीचे घास पर राम के रात बिताने-सोने के सम्बन्ध में विलाप करता है जिसका वर्णन कर बाल्मीकि जी लिखते हैं कि ‘हा ! मैं मरा। मैं हत्यारा हूं जो मेरे कारण पत्नीसहित राम अनाथ की भांति ऐसी धरती रूप शय्या पर सोता है।’
भरत का कार्य केवल विलाप करने तक ही समाप्त नही होता किन्तु उसने राम की खोज कर उनकी सेवा में पहुंच अयोध्या लौटने का बहुत आग्रह किया, पर अति प्रयत्न करने पर भी राम नहीं लौट पाए तब भरत विवश हो क्या राज्यलक्ष्मी का उपभोग करता है? नहीं, नहीं, किन्तु राम की पादुकाएं प्रतिनिधिरूप में लेकर स्वयं वानप्रस्थी का रूप धारण कर नन्दी–ग्राम नाम के आश्रम में राम के लौटने की प्रतीक्षा करता हुआ 14 वर्ष बिताता है। (यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि भरत की इस स्थिति के लिए कौन उत्तरदायी है? इसका उत्तर हमें यही प्रतीत होता है कि भरत की इस स्थिति के लिए भी उनकी अपनी सगी माता कैकेयी जो भरत को अयोध्यापति के रूप में देखना चाहतीं थी, वही उत्तरदायीं हैं। भरत की इस स्थिति का अनुमान कैकेयी ने स्वप्न में भी नहीं किया होगा। विपरीत परिस्थितियों से बचने के लिए हमें अपने जीवन में महर्षि दयानन्द के इस नियम का पालन करना ही चाहिये कि ‘सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये।’-लेखक) वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड 1/2/23-25 में कहा गया है कि भरत ने राम की चरण–पादुकाएं लेकर कहा कि हे राम! चैदह वर्ष तक जटावल्कलधारी वानप्रस्थ बन कर फल, मूल खाता हुआ आपके आगमन की आकांक्षा रखता हुआ नगर से बाहर वसता हुआ रहूंगा, चैदहवें वर्ष के पूर्ण होने के दिन यदि मैं आपको न देख सका तो अग्नि में जल जाऊंगा।
राम के आगमन की प्रतीक्षा में भरत की क्या दशा थी यह हनुमान् के मुख से भी सुनिये जब कि लंका विजय कर श्रीराम ने अयोध्या लौटते हुए हनुमान को भरत का हाल जानने के लिये भेजा था। इसका वर्णन करते हुए वाल्मीकि जी युद्धकाण्ड 125/27, 29, 31 श्लोकों में कहते हैं कि अयोध्या नगरी से कोश भर की दूरी पर वल्कल और कृष्णाजिन धारण किये हुए दुःखी, कृश, जटिल, धूलिधूसरित, श्रृगारहीन, भातृशोक में व्याकुल, फलमूलाहारी, दयानीय, तपस्वी, धर्मचारी, खुले केश वाले, वृक्षछाल और अजिन पर बैठे हुए, नियतेन्द्रिय, भावुक, ब्रह्मर्षिसदृश भरत को राम के आदेश से हनुमान ने देखा। यहां भरत का आदर्श कितना ऊंचा है?, राम ने राज्य त्यागा और वनवास लिया बलात् अर्थात् पिता की आज्ञा से परन्तु भरत ने राज्यश्री को त्यागा और वानप्रस्थी बना स्वेच्छा से, राम के प्रति ज्येष्ठानुवृत्तिधर्म एवं मर्यादा के पालनार्थ भरत का त्याग राम के त्याग से कम नहीं है किन्तु इस दृष्टि से ऊंचा ही है।
इतना ही नहीं, भरत के विचार तो और भी ऊंचे थे जैसे वह अपनी माता कैकेयी को सम्मुख कर कहते हैं कि हे पापे, मैं उस महाबलवान् राम को लाकर स्वयं वन में चला जाऊंगा, तूने बड़ा पाप किया है, मैं आंसूभरे प्रजाजनों के दृष्टिपथ होते हुए राम को छोड़ नहीं सकता, वह तू अग्नि में प्रविष्ट हो जा या स्वयं दण्डक वन में चली जा या कण्ठ में रज्जु बान्ध कर फांसी ले ले। भरत में राम के प्रति भक्तिप्रेम व ज्येष्ठानुवृति का परिचय इससे भी मिलता है कि जब लंकाविजय कर हनुमान् राम के आगमन का कुशल सन्देश भरत को देने आता है। इसका वर्णन करते हुए वाल्मीकि जी ने लिखा है कि इस प्रकार राम के आगमन-कुशल-सन्देश को सुनकर भरत प्रसन्न एवं हर्ष से मोहित हो भूमि पर गिर पड़ा, पुनः कुछ देर में संभल कर आश्वासन के साथ प्रियवादी हनुमान् को आलिंगन कर आदर से बोला और हर्षजनक प्रीतिभरे बहुत आंसुओं से उसे सिंचित किया।
यहां तक तो भरत ऊंचे जीवन वाला है। यह उसके निजी जीवन वृतान्तों से स्पष्ट हुआ। अब इसके सम्बन्ध में साक्षी रूप से राम तथा दशरथ के वचन भी सुनिये। ‘न भ्रातरस्तात भवन्ति भरतोपमाः।’ (वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड 18/15)। राम सुग्रीव से कहते हैं कि भरत जैसे भ्राता सभी नहीं होते। कैकेयी को समझाते और मनाते हुए दशरथ (वा.रा. अयो. 12/62 में) कहते है कि ‘न कथंचिद् ऋते रामाद् भरतो राज्यमावसेत्। रामादपि हि तं मन्ये धर्मतो बलवत्तरम्।।’ ऐ कैकेयी ! तू जिस भरत के लिये राज्य के निमित्त राम को वनवास दिला रही है वह विना राम के किसी प्रकार भी राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकता क्योंकि वह राम से भी धर्म में अधिक प्रबल है, ऐसा मैं मानता हूं। इस प्रकार भरत का जीवन राम से कम आदर्श नहीं था। राम के जीवन की विशेषताएं और ही हैं। भरत जैसे भाई यदि परिवार में हों तो परिवार बहुत सुखमय बन सके और कभी भी दुःख तथा कलह का स्थान न मिले। स्वामी ब्रह्मुनि जी ने यह भी ऐतिहासिक तथ्य सूचित किया है कि भरत के दो पुत्र थे एक ‘तक्ष’ दूसरा ‘पुष्कल।’ तक्ष ने तक्षशिला (पंजाब में रावलपिण्डी के अन्तर्गत टैक्सिला नाम से प्रसिद्ध) और पुष्कल ने गन्धर्व (गान्धार-कन्धार) देश में पुष्कलावत नगर को बसाया था वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड का श्लोक 101/11 प्रमाण देते हुए कहता है कि ‘तक्षं तक्षशिलायां पुष्कलं पुष्कलावते। गन्धर्वदेशे रुचिरे गन्धारनिलये च सः।।’
भरत जी का जीवन भी श्री राम की ही तरह महान व अनुकरणीय है। वह भी सभी देशवासियों के आदर, सम्मान, पूजा, अनुकरण, व्रत व संकल्प के अधिकारी हं। हमें श्री रामचन्द्र जी को स्मरण करते हुए उनके साथ भरतजी को भी स्मरण करते हुए उनका गुणानुवाद करना चाहिये जिससे हमारा जीवन भी उन जैसा बन सके। आशा है कि पाठक लेख को पसन्द करेंगे। हम पाठको से निवेदन करेंगे कि वह स्वामी ब्रह्ममुनि जी की पुस्तक ‘रामायण की विशेष शिक्षाएं’ इसके प्रकाशक ‘मैसर्स विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, 4408 नई सड़क, दिल्ली-110006’ फोन संख्या 011-23977216, 65360255 या इमेलः ajayarya16@gmail.com से मंगाकर लाभान्वित हों। 104 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य मात्र 30.00 रूपये है।
–मनमोहन कुमार आर्य
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