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पण्डित नरदेव शास्त्री
आर्य समाज के त्यागी व तपस्वी कार्यकर्ताओं में एसे अनेक महापुरुष हुए जिनका नाम शिक्शा, साहित्य तथा यहां तक कि रजनीति के क्षेत्र में भी समान रुप से रुचि लेते हुए देश की स्वाधीनता के लिए भर पूर योगदान किया । एसे आर्य समाजियों में पण्डित नरदेव शास्त्री भी एक थे । मात्र पं. नरदेव के नाम से एक भ्रम भी पैदा होता है क्योंकि आर्य समाज के विद्वानों में तीन व्यक्ति एसे हुए जो नरदेव के नाम से जाने गए । इन तीन में एक पं नरदेव वेदलंकार, दूसरे डा. नरदेव शास्त्री तथा त्रतीय हमारी इस कथा के कथानक पं. नरदेव शास्त्री, वेद तीर्थ । इस प्रकार एक के नाम के साथ वेदालंकार , दूसरे के नाम के साथ शास्त्री व तीसरे के नाम के साथ वेदतीर्थ होने से तीनों की पहचान अलग अलग हो पायी ।
पण्डित नरदेव जी का जन्म शैडम गाव , जो उस समय हैदराबाद की रियासत में था , मे दिनांक २१ अक्टूबर सन १८८० को हुआ । आप के पिता का नाम पं. निवास राव तथा माता का नाम श्री मती क्रष्णा बाई था , जो कि ब्राह्मण कुल से थे । जन्म के समय आप का नामकरण नरसिंहाराव के नाम से दिया गया किन्तु जब आप आर्य समाज के सम्पर्क में आये तो आप ने स्वयं ही अपना नाम बदल कर नरदेव कर लिया किन्तु मित्र मण्डली में आप राव जी के नाम से ही जाने जाते थे ।
इस राव जी की आरम्भिक शिक्शा पूणा में हुई । आरम्भिक शिक्शा पूर्ण कर आपके मन में संस्क्रत की उच्च शिक्शा प्राप्ति की इच्छा शक्ति उदय हुई , जिसकी पूर्ति के लिए आप लाहौर के लिए रवाना हो गये । लाहौर रहते हुए आपने सन १९०३ में शास्त्री परीक्शा उतीर्ण की । इस शास्त्री शिक्शा काल में ही आपका सम्पर्क आर्य समाज से हुआ । लाहौर उस काल में आर्य समाज का मुख्य केन्द्र था तथा यहां आर्य समाज के बडे बडे विद्वान आते ही रहते थे । इस विद्वानों से आपका सम्पर्क होता ही रहता था , उनसे चर्चा के अवसर मिलते ही रह्ते थे अत; आप जल्दी ही आर्य समाज की गतिविधियों में बडी रुचि के साथ भाग लेने लगे ।
एक संस्क्रत का विद्वान ओर वह भी आर्य समाजी , अत: उसके मन में वेदाध्ययन की इच्छा का होना स्वाभाविक ही है । इस कारण ही आप के मन में भी वेद का विस्तार से अधययन करने की इच्छा उत्पन्न हुई । इस कारण इस इच्छा की पूर्ति के लिए कलकता जा कर वहां के वेद के उच्च कोटि के विद्वान सामश्रमी जी से आप ने रिग्वेद की शिक्शा का मार्गदर्शन प्राप्त किया । इसी रिग्वेद की ही वेदतीर्थ परीक्शा आपने कलकता विश्व विद्यालय से उतीर्ण की तथा वेदतीर्थ नाम से प्रसिद्ध हुए । इन्हीं दिनों में ही आपने व्याकरण , दर्शन तथा साहित्य का भी भली प्रकार से अध्ययन कर इन पर भी पाण्डित्य प्राप्त किया ।
कलकता की शिक्शा पूर्ण कर आपकी नियुक्ति गुरुकुल कांगडी में निरुक्त के प्राध्यापक स्वरुप हुई किन्तु १९०६ – १९०७ तक की मात्र थोडी सी अवधि ही यहां टिक पाये तथा अगले वर्ष आपने फ़र्रुखाबाद के आचार्य स्वरुप कार्य किया । यह गुरुकुल आर्य प्रतिनिधि सभा संयुक्त प्रान्त द्वारा संचालित होता था । यहां भी आप अधिक समय न रुक सके तथा इस १९०८ के वर्ष में ही आप ज्वालापुर आ गये तथा यहां के गुरुकुल महाविद्यालय में नियुक्त हुए । यह स्थान आप को सुहा गया तथा लम्बे समय तक अर्थात सन १९५७ तक आप ने विभिन्न पदों पर इस गुरुकुल को अपनी सेवाएं दीं । इस गुरुकुल में आप मुख्याध्यापक, आचार्य , मुख्याधिष्टाता, मन्त्री , उप प्रधान ओर कुलपति आदि प्राय: विभिन्न पदों पर कार्य करते रहे ।
आप राजनीति के भी अच्छे खिलाडी थे । इस कारण देश के स्वाधीनता अन्दोलन में निरन्तर भाग लेते रहते थे । इस कारण अनेक बार कारावास भी हुआ किन्तु कभी घबराये नहीं । १९४७ में देश के स्वाधीन होने पर उतर प्रदेश में जो विधान सभा बनाई गयी आप १९५२ से १९५७ तक इस के सद्स्य रहे । संस्क्रत प्रेमी का हिन्दी प्रेम तो होना ही था । अत: हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्यों में अत्यधिक रुचि रही तथा इसका जो १९२४ में देहरादून में सम्मेलन हुआ , इसके आप स्वागताध्यक्श थे । इसके भरत पुर अधिवेशन में जिस पत्रकार सम्मेलन का आयोजन किया गया , उसके भी आप अध्यक्श बनाए गये तथा जब सन १९३६ में नागपुर में सम्मेलन हुआ तो आप को दर्शन सम्मेलन का सभापति बनाया गया ।
कुशल पत्रकार होने के नाते गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर के मासिक मुख पत्र भारतोदय के सम्पादक पं. पद्म सिंह शर्मा थे तो आप १९६६ वि. में इसके सह सम्पादक रहे । मुरादाबाद से शंकर नाम से जो मासिक निकलता था , उसके भी आप सम्पादक थे ।
आप ने अपने जीवन काल मेम अनेक पुस्तके लिख्ह कर भि देश व आर्य समाज का मार्ग दर्शन किया । इन पुस्तकों एम रिग्वेदालोचन, गीता विमर्श, आर्य समाज्का इतिहास , पत्र पुष्प , यग्ये पशुवधो वेद्विरुध:, सचित्र शुद्बोबोध (जीवन चरित), गुरुकुल महाविद्यालय का इतिहास, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती स्म्क्शिप्त जीवन, याग्य्वल्क्य चरित, कारावास की राम कहानी , अछूत मीमाम्सा तथा कालगति आदि |
इस प्रकार पण्डित जी ने समय समय पर विभिन्न प्रकार से आर्य समाज की सेवा की । अन्त में २४ सितम्बर १९६२ इस्वी को आप इस संसार को त्याग गये , सदा सदा के लिए छोड गये ।