हनुमान जी बन्दर नहीं थे : आचार्य डा० श्रीराम आर्य
हनुमान जी जिनको महावीर जी भी कहा जाता है हिन्दू समाज में एक विशेष स्थान रखते हैं। राम के साथ वे रामायण के सर्वप्रमुख पात्र हैं। राम को यदि हनुमान जी का सहयोग प्राप्त न हुआ होता तो राम को सीता का पता लगाना भी सम्भव नहीं था तथा रावण के साथ युद्ध में राम का विजय होना भी संदिग्ध हो जाता। लक्ष्मण शक्ति के बाद संजीवनी बूटी की खोज करना और उसे लाकर उसको पुनर्जीवित करना हनुमान जी के ही उद्योग का फल था अन्यथा राम को लक्ष्मण जी के जीवन की आशा ही नहीं रह गयी थी।
हनुमान जी को अकेले लंका में जाकर वहां सीता जी का पता लगाना, रावण के द्वारा बन्दी बनाये जाने पर सारी लंका में हल-चल मचा देना जिसे कवियों ने अपनी भाषा में आग लगा देना लिखा है जो हनुमान जी की वीरता, धीरता, राजनीतिज्ञता, चतुरता एवं शारीरिक बल का अद्भुत प्रमाण उपस्थित करता है।
भारतीय आर्य जाति में हनुमान जी का अत्याधिक आदर है। उनकी मूर्तियाँ व चित्र सर्वत्र इस देश में प्रतिष्ठा के साथ लगाये व पूजे जाते हैं। उनके महान् ब्रह्मचर्य की गाथायें बालकों को सुनाकर सच्चरित्रवान बनने के उपदेश दिये जाते हैं। सारे संस्कृत साहित्य में उनको महान् आदित्य ब्रह्मचारी के रूप में आदर के साथ स्मरण किया गया है। महर्षि बाल्मीकि ने संस्कृत में तथा अन्य भाषाओं की रामायणें भी राम के साथ-साथ हनुमान जी के शौर्य पर्ण वर्णन की गाथाओं से भरी पड़ी हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि महावीर हनुमान आर्य जाति के परममान्य आदरणीय एवं अनुकरणीय चरित्रवान् महान व्यक्ति हुए हैं तथा सम्पूर्ण समाज उनको अपना पूर्वज गौरव के साथ स्वीकार करता है।
महावीर हनुमान जी का कोई जीवन चरित्र पृथक् कभी नहीं लिखा गया है। कुछ एक छोटी जीवनियां उनकी एक दो स्थानों से छपी थीं किन्तु वे अधूरी एवं बिना विशेष खोज के साथ लिखी गयी थी। पौराणिक साहित्य में भी हनुमान जी के विषय में अनेक पुराणकारों अनेक प्रकार के परस्पर विरुद्ध विवरण प्रस्तुत किये गये हैं, जिनमें हनुमान जी के उज्जवल रूप करने के स्थान पर उनको कलंकित करने का प्रयत्न किया गया है। साथ ही वे विवरण इतने बुद्धि विरुद्ध भी हैं कि उनको पढ़कर उनके लेखकों की बुद्धि पर तरस भी आता है। हनुमान जी को तुलसीदास जी ने तो स्पष्टतया “कपि” लिखकर पशु अर्थात् बन्दर ही घोषित कर दिया है जबकि दूसरे रामायण लेखकों ने उनको वैदिक आदर्शों से ओत-प्रोत महामानव प्रतिपादित किया है। हम प्रथम हनुमान जी की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न पौराणिक ग्रन्थों के कुछ विवरण उद्दधृत करते हैं।
शिव पुराण में हनुमान जी की उत्पत्ति
शिव पुराण शतरुद्र संहिता अध्याय २० में हनुमान जी की उत्पत्ति निम्न प्रकार से लिखी हुई है।
एकस्मिन्समये शम्भुरभ्द तोतिकरः प्रभुः। ददशं मोहिनीरूपं विष्णोस्स हि वसद्गुणः॥३॥
चक्रे स्वं क्षुभितं शम्भुः काम बाण हतो यथा। स्वम्वीय॑म्पातयामास रामकार्यार्थमीश्वरः।।४॥
तद्वीर्य स्थापयामासुः पत्रे सप्तर्षयश्च ते। प्रेरिता मानसातेन रामकार्यार्थं मादरात्॥५॥
तैगौतम सुतायां तद्वीर्य शम्भौः महर्षिभि। कर्ण द्वारा तथाजन्यां राम कार्यार्थ माहितम्॥६॥
ततश्च समये तस्माद्धनूमानित नामभा। शम्भुर्जज्ञे कपितनुर्महाबल पराक्रमः॥७॥
(शिवपुराण)
अर्थ-एक समय गुण युक्त लीला करने वाले प्रभु शिवजी ने विष्णु का मोहिनी रूप देखा ॥३॥ तो कामदेव के बाणों से ताड़ित हुए शिवजी ने अपने आपको काम से व्याकुल किया और रामचन्द्र जी के कार्य के निमित्त अपना वीर्य गिराया ॥४॥ तब आदर से रामचन्द्र जी के कार्य के अर्थ मन से शिवजी के द्वारा प्रेरणा किये हुए उन सप्त ऋषियों ने उस वीर्य को पत्ते पर स्थापित किया ॥५॥ उन महर्षियों ने वह शिवजी का वीर्य गौतम की पुत्री अन्जनी में (उसके कान में घुसेड़ कर ) रामचन्द्र जी के कार्यार्थ प्रवेश किया ॥६॥ उस समय उस वीर्य से महाबली तथा पराक्रम युक्त बानर के शरीर वाले हनुमान नामक शिवजी उत्पन्न हुए ॥७॥
इस कथा में हनुमान जी को शिवजी के वीर्य से उत्पन्न होने के कारण उन्हें शिवजी का अवतार बताया गया है किन्तु जो तरीका ऊपर लिखा है वह सर्वथा मिथ्या है। अंजनी के साथ शिवजी का विषय भोग होकर यदि गर्भाध न दिखाकर हनुमान जी की उत्पत्ति पुराणकार ने दिखाई होती तब तो बात कुछ ठीक-ठीक बन भी जाती, किन्तु शिवजी का मोहनी स्त्री रूपधारी विष्णु को देखकर वीर्यपात हो जाना और सप्तर्षियों का उस वीर्य के झरते ही उसे पत्ते या दौने में जमा कर लेना तथा उसे अंजनी के कान में घुसेड़ कर अंजनी के गर्भाधान हो जाना यह बात बताना व उस गर्भ से हनुमान बालक की पैदायश का लिखना स्पष्ट चन्डूखाने की गल्प है। स्त्री के न तो कान में होकर गर्भाध न हो सकता है और न भागते हुए शिवजी के वीर्यपात होने पर उस वीर्य को जमा करने के लिए लोटा, कटोरा या दौना लिए पहले ही से सप्तर्षियों के वहाँ तैयार रहने की बात ही सच्ची मानी जा सकती है तथा यह भी नहीं हनुमान जी बन्दर नहीं थे माना जा सकता है कि शिवजी को कोई भयंकर प्रमेह का रोग होगा।
भागवत में हनुमान जी की उत्पत्ति इस कथा के मिथ्या होने की पुष्टि भागवत पुराण से ही हो जाती है उसमें तथा एक स्थान पर स्कन्द पुराण अध्याय ८, श्लोक १२ में लिखा है कि एक बार विष्णु के मोहिनी अवतार के सुन्दर रूप को देखकर शिवजी कामातुर होकर मोहिनी को पकड़ने के लिए उसके पीछे भाग पड़े। मोहनी भी भागी, भागते-भागते वह नंगी हो गयी इसी दौड़ में एक बार तो शिवजी ने उसे पीछे से पकड़कर अपनी जांघों पर गिरा लिया किन्तु वह फिर भी छूटकर भाग निकली और शिवजी उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भागते चले गये। शिवजी का उसी कामातुर अवस्था में भागते-भागते वीर्यपात हो गया।
यत्र यत्र पतन्ह्यां रेतस्तस्य महात्मनः । तानि रूप्यश्च हेम्नश्च क्षेत्रण्यां सन्महीपते ॥ ३३॥
वह वीर्य जहां-जहां भी पृथ्वी पर गिरा वहां-वहां सोने व चाँदी की खानें बन गईं।।
भागवत की यह कथा विस्तार से हमने अपनी पुस्तक हनुमान जी बन्दर नहीं थे “शिवलिंग पजा क्यों*?” में शिव वीर्य से सोने चाँदी की उत्पत्ति नामक शीर्षक से दी है, वहां देखी जा सकेगी। इस कथा में शिवजी के वीर्यपात होने की बात तो लिखी है तथा उसमें सोना चाँदी की उत्पत्ति का विवरण भी दिया है, न कि सप्तर्षियों के द्वारा उसे कटोरा, गिलास या पत्तों पर जमा करके अन्जनी के कान में डालकर हनुमान को पैदा कराने की बेतुकी घटना दी है।
इस प्रकार उपरोक्त हनुमान जी की उत्पत्ति की शिव पुराण की कथा भागवत के विरुद्ध होने से हम गल्प (गपोड़ा) मानते हैं। वह ऐतिहासिक तथ्य नहीं मानी जा सकती है। आकाश में सप्तर्षि मण्डल सात तारों के समूह ‘का नाम है जो उत्तर दिशा में ध्रुव के चारों ओर आकाश में घूमा करता है। वह आदमी नहीं जो किसी का वीर्य या रज इकट्ठा करने को शिवजी के साथ-साथ घूमता फिरता था।
भविष्य पुराण में हनुमान जी की उत्पत्ति
शिवोऽपि च स्वपूर्वार्द्धान्जातो वै सानसोत्तरे। गिरो यत्र स्थितादेवी गौतमस्य तनूद्भवा॥३१॥
अन्जना नाम विख्याता कीण केसरि भोगिनी॥३२॥
रौद्रं तेजस्तदा धोरं मुखे केसरिणो ययौ। स्मरातुर कपन्द्रस्तु बुभुजे तां शुभाननाम्॥३३॥
एतस्मिनन्तरे वायुः कपीन्द्रस्य तनौ गतः। वांछितामंजना शुभ्रं रमयामास वै बलात्॥३४॥
द्वादशाब्दगतो जातं दंपत्योर्मे थुनस्थयो:। तदनु भ्रूणमांसाद्य वर्षमात्र हि सादधत्॥३५॥
पुत्रौ जातस्सरागातमा स रुद्र वानरानन। कुरुपाच्च ततोमात्रा प्रक्षिप्तोऽभुग्दिरेरधः॥३६॥ बलादागत्य बलवान्दृष्टवा सूर्यमुपस्थितम्। विलिख्य भगवान्द्रो देवस्तत्र समागतः॥३७॥
वज्रसन्ताडितो वापि न तत्याज तदा रविम्। भयभातस्तदा प्रांशुस्सूर्यं त्राहोति जल्पितः॥३८॥
श्रुत्वा तदात वचनं रावणो लोक रावणः। पुच्छे गृहीत्वा त कीशं मुष्टियुद्धमचीकरत्॥३९॥
तदा तु केसरि सुनो रवि त्यक्त्वा रुषन्वितः। वर्ष मात्रं महाघोरं मल्लयुद्धं चकार ह॥४०॥
श्रमितो रावणस्तत्र भयभीतस्समंततः। पलामनपरौ भूतः कीशरुद्रेण ताडितः॥४१॥
( भविष्य पुराण प्रति सर्ग पर्व ४ अध्याय १३)
अर्थ-एक बार शिवजी मानसोत्तर वर पर्वत पर गये। वहाँ केसरी की पत्नी अन्जना रहती थी। शिवजी का तेज (वीर्य) केसरी के मुंह में चला गया और उससे कामातुर हनुमान जी बन्दर नहीं थे होकर केसरी अन्जना से भोग करने लगा। इसी बीच में वायु ने भी केसरी के शरीर में प्रवेश किया और वह बलपूर्वक उसके प्रभाव से बारह वर्ष तक अन्जना से विषय भोग करता रहा। इस लम्बे मैथुन से अन्जना के गर्भ रह गया और एक वर्ष बाद उसने वानर की सी शक्ल वाले हनुमान जी को जन्म दिया, जोकि अत्यन्त कुरूप था इससे माता ने उसे त्याग दिया। हनुमान बालक ने बलपूर्वक सूर्य को निगल लिया। महादेव जी देवताओं के साथ वहाँ आ गये किन्तु वज्र से ताड़ित होने पर भी उन्होंने सूर्य को नहीं छोड़ा। तब सूर्य ने भयभीत होकर बचाओ बचाओ (त्राहि त्राहि ) की, तब उसके दीन वचनों को सुनकर रावण ने हनुमान जी की पूँछ पकड़कर खींचा। इस पर हनुमान ने सूर्य को तो छोड़ दिया परन्तु क्रोधित होकर रावण से युद्ध करने लगे और एक साल तक मल्ल युद्ध उससे करते रहे। रावण थक गया और डरकर तथा हनुमान जी से पिटकर वहाँ से भाग गया। ___ भविष्य पुराण की इस कथा में शिवजी का वायु (तेज) केसरी के मुंह में घुसने की बात लिखी है तथा वायु ने भी केसरी के शरीर से प्रविष्ट होकर अन्जनी को केसरी के साथ-साथ भोगा था। इस प्रकार भविष्य पुराण, हनुमान जी के तीन बाप बताता है। शिवजी, वायु तथा केसरी जी। पैदा होते ही हनुमान ने जमीन से भी १३ लाख गुना बड़े सूर्य को निगल लिया जो कि ९ करोड़ मील दूर है। वहाँ रावण भी न जाने कहाँ से टपक पड़ा और सूर्य के मुकाबले में पिद्दी-सा रावण एक साल तक बालक हनुमान से मल्ल युद्ध करता रहा, यह सारी की सारी पुराणकार की कोरी गप्प है। इस कथा से हनुमान जी के बारे में एक ही बात सार रूप में मिलती है कि वह केसरी पिता से अन्जनी माता के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। केसरी, अन्जनी तथा हनुमान जी तीनों मनुष्य थे, पशु नहीं थे, यह बात भी इससे इसलिए स्पष्ट है कि रावण मनुष्य था उसका एक वर्ष तक किसी भी पशु के साथ लगातार मल्लयुद्ध सम्भव नहीं था, मल्ल युद्ध मनुष्यों की कला है, बन्दरों की नहीं है। दूसरी बात यह है कि बन्दरियाँ एक दर्प अथवा ९ या ८ माह तक गर्भ धारण नहीं किये रहती है। समस्त बन्दर जाति का गर्भ काल ६ महीने से अधिक नहीं होता है। पुराण के अनुसार अन्जनी ने हनुमान का गर्भ एक वर्ष तक धारण किया था जोकि स्त्रियों के औसत काल ९ या १० माह के समीप है। विशेष अवस्था में स्त्रियों का गर्भकाल ११ या १२ माह तक खिंच जाता है। इस आधार से भी अन्जनी मानव जाति की स्त्री थी।
तीसरी बात यह भी समझने की है कि किसी बन्दर ‘ का नाम केसरी तथा बन्दरिया का नाम अन्जनी नहीं होता है। नाम रखने की परम्परा बोलचाल के लिए सम्बोधन के रूप में केवल मनुष्य जाति में ही होती है पशुओं में न तो वाणी अथवा स्पष्ट उच्चारण की सामर्थ्य होती है और न उसकी एक-दूसरे को पुकारने के लिए सम्बोधन के रूप में नाम रखने की परम्परा होती है। एक-एक बन्दर के साथ कई-कई दर्जन बन्दरियाँ भोगने को उसकी मण्डली में होती हैं जबकि केसरी व अन्जनी पति-पत्नी थे। लगन के साथ कामातुर होकर पत्नी के साथ रमण करने और दीर्घकाल तक रहते रहने की बात मनुष्य जाति में ही सम्भव है। कवि ने उस दीर्घकाल की अवधि को अपनी कल्पना से १२ वर्ष बढ़ाकर लिख दी है यह केसरी की मैथुन शक्ति को बढ़ाकर दिखाने के लिए किया गया है। बन्दर का मैथुन अवधि लिखने की न तो आवश्यकता होती है और न ही इतनी अवधि की सीमा हो सकती है। पशु योनि में शिवजी का जन्म हुआ तो उससे शिवजी की महत्ता नहीं बढ़ेगी। अत्यन्त पाप कर्म करने वाले महापापी मनुष्यों को उनके अशुभ कर्मों का फल भोग कराने तथा कुसंस्कारों का विनाश करने के लिए पशु आदि निकृष्ट योनियों में जन्म धारण परमात्मा कराता है। बन्दरों की योनि में शिवजी ने जन्म लेकर मानव जाति अथवा बन्दरों की कोई सेवा पथ प्रदर्शन किया हो ऐसी भी कोई बात हनुमान जी के जीवन में देखने में नहीं आई है। उनके जीवन की प्रमुख घटना सीता जी का लंका में जाकर पता लगाना और रामचन्द्र जी की ओर से युद्ध करना मात्र रही है।
एक बार लक्ष्मण जी के युद्ध में मूर्च्छित हो जाने पर संजीवनी बूटी नाम की औषधि खोज कर लाने का काम उन्होंने किया था। उनके जीवन की केवल वही घटनायें हैं जो किसी अवतार के लिए शोभाजनक नहीं। सीता जी की खोज करना एक गुप्तचर का कार्य था, लड़ना सैनिक का पेशा होता है, औषधि लाना सेवक का धर्म है, इनमें अवतारपन की कोई बात नहीं थी।
राम ने भी हनुमान जी को वेदादि शास्त्रों तथा व्याकरण एवं संस्कृत विद्या का महान विद्वान् माना था। जब राम लक्ष्मण सीता के हरण पर वियोग से व्यथित सुग्रीव के स्थान की ओर जा रहे थे तो सुग्रीव ने दूर इन अजनबी नवागन्तुकों को देखकर इनकी वास्तविकता का पता लगाने के लिए हनुमान जी को उनके पास भेजा। हनुमान जी ब्रह्मचारी का रूप धारण करके राम जी के पास गये और उनसे वार्तालाप करके उनका परिचय पूछा तो राम ने लक्ष्मण से कहा था
हनुमान जी वेदज्ञ तथा राजमन्त्री थे
सचिवोऽयं कपीन्द्रस्य सुग्रीवस्य महात्मनः। तमेव कांक्षमाणस्य ममान्तिक मिहागतः॥२६॥
ना ऋग्वेद विनीतस्य ना यजुर्वेदधारिणः। ना सामवेदविदुषः शक्यमेव विभाषितम्॥२८॥
नूनं व्याकरण कृत्सनमनेन बहुधा श्रुतम्। बहुल्याहारतानेन नकिञ्चिदपशब्दितम्॥२९॥
(बाल्मीकि रामायण किष्किन्था काण्ड सर्ग-३)
अर्थ-हे लक्ष्मण! यह (हनुमान जी) सुग्रीव के मन्त्री हैं और उनकी इच्छा से यह मेरे पास आये हैं। जिस व्यक्ति ने ऋग्वेद को नहीं पढ़ा है, जिसने यजुर्वेद को धारण नहीं किया है, जो सामवेद का पण्डित नहीं है वह व्यक्ति, जैसी वाणी यह बोल रहे हैं वैसी नहीं बोल सकता है। इन्होंने निश्चय पूर्वक सम्पूर्ण व्याकरण पढ़ा है क्योंकि इन्होंने अपने सम्पूर्ण वार्तालाप में कोई भी अशुद्ध शब्द नहीं बोला है॥२९॥ इससे स्पष्ट है कि हनुमान जी वेदों एवं व्याकरण के प्रकाण्ड पंडित थे।
हनुमान जी शब्दशास्त्र (व्याकरण) के महान पण्डित थे
श्रीरामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैनं बटूरूपिणाम। शब्दशास्त्रमशेषेण श्रुतं नूनमनेकधा॥१७॥
अनेकभाषितं कृत्सनं न किञ्चिदपशब्दितम्। ततः प्राह हनूमन्तं राघवो ज्ञान विग्रहः॥१८॥
(अध्यात्म रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग १)
राम ने कहा “हे लक्ष्मण! इस ब्रह्मचारी को देखो। अवश्य ही इसने सम्पूर्ण शब्दशास्त्र (व्याकरण) कई बार भली प्रकार पढ़ा है॥१७॥ देखो! इसने इतनी बातें कहीं किन्तु इसके बोलने में कहीं कोई एक भी अशुद्धि नहीं हुई। विदिता नौ गुणा विद्वान् सुग्रीवस्य महात्मनः॥३७॥
( बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३)
लक्ष्मण जी ने हनुमान जी को कहा कि हे विद्वान्! हमको महात्मा राजा सुग्रीव के गुण ज्ञात हैं।
हनुमानजी सर्व शास्त्रों के पण्डित थे
महर्षि अगस्त ने रामजी से कहा पराक्रमोत्साहमति प्रताप, सौशील्यमाधुर्य्य नया नयैश्च। गम्भीर्य चातुर्य सुचीर्य्यधैर्खे:, हनूमंतः कोऽस्ति लोके॥४३॥
अमौ पुनर्व्याकरणं ग्रहीष्यन्, सुर्योन्मुखः पृष्टमना कपीन्द्रः। उद्यग्निरेरस्त गिरि जगाम, ग्रन्थं महद्वारयन प्रमेयः॥४४॥
ससूत्र बृत्यर्थपदं महार्थ, स संग्रह सिध्यति वैकपीन्द्रः। हास्य कश्चित्सद्धशोऽस्ति शास्त्रे, वैशारदे छन्द गतौ तथैव।॥४५॥
सर्वासु विद्यासु तपो विधाने, प्रस्पर्धतेऽयंहि गुरु सुराणाम्॥४६।।
(बाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ३६ )
अर्थ-पराक्रम, उत्साह, बुद्धि, प्रताप, सुशीलता, नम्रता, न्याय, अन्याय का ज्ञान, गम्भीरता, चतुरता, बल और धैर्य में हनुमान जी के समान लोक में कोई भी मनुष्य नहीं है॥४३॥
अध्ययन काल में वे व्याकरण पढ़ते हुए इतने व्यस्त रहते थे कि सूर्य सामने होकर पीछे चला जाता था अर्थात् प्रात:काल से सायंकाल हो जाता था, तब तक वह पढ़ते ही रहते थे। और इतने समय में जितने में सूर्य उदयाचल से अस्ताचल पर्वत तक पहुंचता था वे एक दिन में बड़े-बड़े ग्रन्थ को कण्ठस्थ करने में अनुपम थे।॥४५॥
हनुमान जी ने सूत्र, वृत्ति, वार्तिक भाष्य, साधन और संग्रह सहित सब पढ़ा है। व्याकरण के अतिरिक्त अन्य शास्त्रों ( वेदांगों ) छन्द आदि में भी वे अद्वितीय विद्वान् हैं। समस्त विद्याओं तथा तपस्या में यह हनुमान जी गुरु बृहस्पति के समान हैं॥४६॥
बाल्मीकि रामायण के उपरोक्त उद्धरण हनुमान जी को बन्दर सिद्ध नहीं करते हैं वरन् वे उनको मनुष्य, ब्रह्मचारी, विद्वान्, सर्वशास्त्रों के ज्ञाता, महान वैयाकरण व धुरन्धर वेदज्ञ घोषित कर रहे हैं। यह गुण बन्दर में नहीं हो सकते हैं। बन्दर का गला इतना सिकुड़ा हुआ होता है कि वह स्पष्ट शब्दोउच्चारण नहीं कर सकता। इसीलिए आवश्यकता होने पर बन्दर केवल किलकारी मारता है। चीखता है। अत: महान् विद्वान् राजा सुग्रीव के सचिव (मन्त्री) को बन्दर बताना उनका ही नहीं अपितु, आर्य सभ्यता का अपमान करना है तथा अपनी बुद्धि हीनता का परिचय देना है बन्दर राजा लोगों के मन्त्री नहीं हुआ करते हैं। राज्य मन्त्री मनुष्य ही होते हैं।
हनुमान जी के श्वेत वस्त्र ततः शाखान्तरे लीनं दृष्ट्वा चलित मानसा। वेष्टतार्जुन वस्त्र तं विद्युत्सघांत पिंगलम्॥१॥
(बाल्मीकि रामायण सुन्दर काण्ड ३१)
ऊपर वृक्ष की शाखाओं में छिपे हुए हनुमान जी को देखकर जानकी जी घबरा गईं। हनुमान जी उस समय श्वेत वस्त्र पहने हुए गोरे शरीर वाले ऐसे लगते थे जैसे बिजली चमकती है। ___मनुष्य ही वस्त्र पहिनते हैं बन्दर कभी वस्त्र नहीं पहना करते हैं। हनुमान जी का वस्त्र पहिनना उन्हें मनुष्य बताता सुग्रीव मनुष्य था अरयश्च मनुष्येण विज्ञेयाश्छद्म चारिणः॥२२॥
( बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग २)
अपने बारे में सुग्रीव ने कहा कि कपट वेष में घूमने वाले शत्रुओं का मनुष्यों को अवश्य ही भेद जानना चाहिए।
सुग्रीव का अपने को मनुष्य बताना यह प्रमाणित करता है कि समस्त वानर जाति मनुष्य थी।
सुग्रीव का सिंहासन ततः सुग्रीव मासीन कांचने परमासने। महार्हास्तरणोपेते ददर्शा दित्य यन्निभम्॥६३॥
(बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३३)
अर्थ-राजा सुग्रीव सुन्दर स्वर्ण के सिंहासन पर बैठा हुआ था। और उस पर बहुमूल्य सुन्दर बिछौना बिछा हुआ था।
सोने के घड़े अप: कनक कुम्भेषु निधाय विमला जलः॥३३॥
शुभंषभश्रृनगैश्च कलशश्चैव कांचनेः॥३४॥
अभ्यषिन्चन्त सुग्रीवं प्रसन्नेक सुगन्धिना॥३५॥
सलिलेन सहस्त्राक्ष बसवा वासवं यथा॥३६॥
( बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग २६)
स्वर्ण के कलशों में पवित्र जल भर कर सुगन्धित जल से सुग्रीव को बानर लोग इस तरह स्नान कराने लगे जैसे बसुगण इन्द्र को स्नान कराते हैं।
सोने के छत्र और चंवर तस्य पाण्डुरमाजु हृश्छत्रंहेम परिष्कृतम्। शुक्ले च वाल व्यंजने हेम दण्डे यशस्करे॥२३॥
(बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग २६)
जब सुग्रीव का राज्याभिषेक हुआ तब कुछ बानरों ने उसके ऊपर स्वर्ण से जड़ा हुआ धवल छत्र लगाया और कुछ ने सोने की डण्डी वाला चंवर और पंखा भी ढुलाया। उपरोक्त चन्द प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि बानर लोग बन्दर नहीं थे, वे मनुष्य थे, आभूषण तथा वस्त्र पहिनते थे, राजसिंहासन पर बैठते थे, स्वर्ण का प्रयोग करते थे, जबकि बन्दरों को इन सबकी कोई आवश्यकता नहीं होती है।
बानरों का यज्ञोपवीत धारण करना ततोऽग्नि विधिवद्दत्वसोप सव्यं चकार ह॥५॥
(बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग २५) __
अंगद ने बाली के शव को विधिवत् अग्नि देकर अपना वज्ञोपवीत दाहिने कन्धे पर रख लिया। ___ “अपसव्य” का अर्थ होता है यज्ञोपवीत को दाहिने कन्धे पर लेना। यज्ञोपवीत हमेशा बायें कन्धे पर रहता है उसे दायें पर लेने को “अपसव्य” करना कहते हैं। ___बन्दर जाति के पशु यज्ञोपवीत नहीं पहन सकते हैं। यह केवल यज्ञ के अधिकारी मनुष्यों को ही धारण करने का शास्त्रीय अधिकार है। इससे सिद्ध है कि बानर जाति मनुष्यों की क्षत्रीय वंश की दक्षिणीय शाखा थी।
मृतक पुरुषों का ही अन्त्येष्टि संस्कार किया जाता है, बानर जाति के मनुष्यों में यह प्रथा होना भी उनको मनुष्य प्रमाणित करती है।
तारा ने बालि को “आर्य पुत्र” कहा :
समीक्ष्य व्यथिता भूमौ सश्भ्रान्तानिपपातह। सप्त्वेव पुनरुत्थाय आर्य पुत्रेति वादिनी॥२८॥
(बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग १९)
पति (बाली) को हत्त देखकर तारा अति दुखी होकर मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी। कुछ देर बाद चैतन्य होने पर वह बाली को ‘आर्य पुत्र’ कहकर रुदन करने लगी।
इससे स्पष्ट है कि बानर लोग आर्य पुत्र (आर्य जाति के) मनुष्य ही थे, पशु नहीं थे। __ बानर जाति आज भी विद्यमान है। वनों में विचरण करने वाले, वनों में रहने वाले लोग बानर कहे जाते थे।
राजस्थान के बाड़मेर क्षेत्र में आज भी बानर जाति के क्षत्रीय लोग निवास करते हैं, रांची (मध्य प्रदेश) के आसपास उरांव और मुण्डा नाम की दो जातियां निवास करती हैं जिनके गोत्र वानर और भुल्लूक हैं ये उन्हीं रामायण और भुल्लक कालीन उस देश की मानव जातियों के वंशज हैं।
“कपि” शब्द का अर्थ संस्कृत के प्रसिद्ध कोषकार आप्टे ने अपने कोष में ‘कपि’ शब्द का अर्थ -सुगन्धि, हाथी, सूर्य और शिलारस लिखे हैं। सम्भव है सूर्यवंशी क्षत्रिय जाति के वंशज होने से इन वनवासी एवं पर्वतीय जाति के लोगों को बानर या कपि शब्द से सम्बोधित किया जाने लगा हो, जिसे ठीक प्रकार से न समझने के कारण बन्दरों की भाँति पशु जाति का मान लिया गया है।
हनुमान जी अपने समाज के अत्यन्त प्रतिष्ठित, महान विद्वान् महान शूरवीर योद्धा, सेनापति तथा सुग्रीव के राजमन्त्री थे। उनकी अद्भुत योग्यता की सर्वत्र बड़ी धाक थी। सव ओर उन्हीं की पुकार होती थी। प्रत्येक कार्य में उनसे परामर्श लिया जाता था। राजा तथा प्रजा में उनकी अत्यन्त पूछ होने के कुछ लोगों ने यह समझ लिया है कि उनके जानवरों जैसी लम्बी पूंछ (दुम) लगी हुई थी। वास्तविक अर्थ का अनर्थ लोगों ने अपनी नासमझी से कर दिया है। मनुष्य और पशुओं में पूंछ भेदक चिन्ह है पशुओं की पूंछ (दुम) होती है। मनुष्यों के दुम नहीं होती है। कहा जाता है कि विद्वानों की बड़ी भारी पूछ होती है सर्वत्र वे पूछे जाते हैं, उनका महान यश तथा विद्वता उनकी पूछ का कारण होती है। भाषा के शब्दों को समझना चाहिए।
जब हनुमान जी लंका में सीता से मिलने के बाद पकड़ लिए गए तो वे अपनी बुद्धि व शारीरिक बल से सारी लंका में एक प्रबल हलचल (क्रांति) पैदा कर आये थे जिससे सारी लंका जलने लगी थी। यह बात करने का एक प्रकार है। यदि यह कहा जाये कि चीन ने आक्रमण करके सारे भारत में आग लगा दी सर्वत्र क्रोध की लहर दौड़ने लगी थी, तो इसका यही अर्थ होगा कि जनता की विचारधारा में एक तीव्र आक्रोश तथा बदला लेने की भावना पैदा हो गई थी। यह अर्थ नहीं होगा कि चीन ने दियासलाई जलाकर मिट्टी का तेल डालकर सारे भारत में जगह-जगह भौतिक आग लगा कर लपटें पैदा कर दी थीं। जिन लोगों ने हनुमानजी को पशु तथा उनको पूंछवाला लिखा है, उन्होंने उनका अपमान किया है।
तारा की योग्यता
यह यहां एक प्रमाण बानरों की स्त्रियों के विषयों में उनकी योग्यता को दिखाने के लिए प्रस्तुत करते हैं, तारा की योग्यता के विषय में लिखा है :
सुषेण दुहिता चेयम अर्थ सूक्ष्म विनिश्चये। औत्यातिके च विविधे सर्वत परिनिष्ठता॥१३॥
यदेषा साध्विति ब्रूयात्कार्य तन्मुक्त सशम्य। नहि तारामत किंचिदन्यथा परिवर्तते॥१४॥
( बाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड सर्ग २२)
हे सुग्रीव! सुषेण की पुत्री तारा तुम्हारे सामने बैठी है। इनकी योग्यता तुमको ज्ञात ही है, यह अत्यन्त सूक्ष्म और पेचीदे राजकीय प्रश्नों का निर्णय करने में तथा अनेक राजनैतिक गुत्थियों को सुलझाकर राज्य को व्यवस्थित बनाने के कार्य में अत्यन्त कुशल है। जिस कार्य में यह अनुमति देवे उसे अवश्य करो उससे कभी असफलता नहीं मिलेगी। ___भारतवर्ष की महान स्त्रियों के अन्दर यह राज्य संचालन मंत्रणा देना पेचीदा बातों का निर्णय देना आदि गुण होते थे: यह गुण पशु जाति की बन्दरियों में कभी भी संभव नहीं थे और न कभी होंगे।
इस प्रकार हमने यह बताया है कि हनुमान जी मनुष्य थे, क्षत्रिय जाति के रत्ल थे, भारतीयों के गौरवमय पूर्वज थे। उनके बारे में जो भी भ्रम देश में पैदा कर दिए गए हैं उनका निवारण हो जाना चाहिए, हनुमान जी के विषय में बाल्मीकि रामायण ही सर्वाधिक प्रमाणिक ग्रन्थ है। उनके समकालीन महर्षि बाल्मीकि की रचना होने से ऐतिहासिक दृष्टि से माननीय है। तुलसी रामायण अकबर के राज्य में अब से लगभग ३०० वर्ष पूर्व की रचना होने से ऐतिहासिक महत्व की पुस्तक न होने से मान्य नहीं है।
महावीर हनुमान जी के पिता का नाम केसरी तथा माता का नाम अन्जनी देवी था। वे बानर क्षत्रीय वंश के आर्य मानव थे, आर्यों के वंशज थे।
हनुमान जी के विषय में सम्भवतः किसी जैन ग्रन्थ में हमने कहीं लिखा देखा है कि वे राजा सुग्रीव के दामाद थे। सुग्रीव की पुत्री पदमप्रभा से उनका विवाह हुआ था। पर इस विषय का कोई प्रमाण हमको संस्कृत साहित्य के अन्दर दृष्टि में नहीं आया है।
आध्यात्मिक रामायण में एक स्थान पर लिखा है कि जब रामचन्द्र जी चौदह वर्ष के वनवास की अवधि पूर्ण करके लंका विजय के पश्चात अयोध्या को वापिस लौटे थे तो उन्होंने भरत जी को अपने आने की सूचना देने के लिए हनुमान जी को आगे भेज दिया था। भरत जी को जब राम के आने का शुभ समाचार हनुमान जी ने दिया तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और हनुमान जी से बोले
आलिंगय भरतः शीघ्रं मारुति प्रियवादिनम्। आनन्दरश्रु जलै सिषेच भरतः कपिम्।।५९।।
देवौ वा मानुषोवात्वमनको शादिहागतः। , प्रियाख्यानस्य ते सौम्य ददामिब्रुवतः प्रियमम्॥५०॥
गवांशत सशस्त्रं ग्रामाणा च शतं वरम्। सर्वाभरण सम्पन्ना मुग्धाः कन्यास, षोडश॥६१॥
(अध्यात्म रामायण युद्ध काण्ड सर्ग १४)
अर्थ-भरत जी ने तुरन्त ही प्रियवादी हनुमान जी को हृदय से लगा लिया और आनन्द के कारण उमड़े हुए अश्रु जलों से उस बानर श्रेष्ठ को सींचने लगे।।५९॥
(वे वोले ) भैया! तुम कोई देवता हो या मनुष्य हो जो दया करके यहां आये हो? हे सौम्य! इस प्रिय समाचार के सुनाने के बदले मैं तुम्हें एक लाख गौ, अच्छे-अच्छे सौ गांव और समस्त आभूषणों युक्त परम सुन्दरी सोलह कन्यायें देता हूं।५०-६१॥
यहां भरत जी ने हनुमान जी को मनुष्य या देवता कहा था बन्दर या देवता नहीं माना था। यदि बन्दर माना होता तो इस प्रकार का दान कभी न देते। तभी तो उन्होंने गौए, गांव व कन्यायें उनको पुरस्कार में भेंट स्वरूप दी थी। यदि हनुमान जी बन्दर (पशु) होते तो गौओं के थन चंबा जाते, गांवों को उजाड़ डालते तथा औरतों के लंहगे, ब्लाउज फाड़-फाड़कर उनकी ऐसी दुर्गति बनाते कि देखने वालों को भी भरत जी की त्रुटि पर, ऐसा दान देने पर तरस आता, किन्तु बन्दर को तो औरतों की जगह पर सौ दो सौ बन्दरियां देना ही ठीक रह सकता था। गायें, ग्राम व कन्यायें मनुष्यों के ही प्रयोग की वस्तु हैं अतः भरत जी का हनुमान जी को यह दान देना भी उनको मनुष्य ही घोषित करता है।
इतने प्रमाणों की उपस्थिति में आशा है अब आगे कभी कोई व्यक्ति महानात्मा हनुमान जी को पूंछ वाला बन्दर वंशीय मानने का दुस्साहस नहीं करेगा।