महर्षि मनु ने अपनी स्मृति में यह प्रतिज्ञापूर्वक घोषणा की है कि धर्म का मूलस्रोत वेद हैं और मेरी स्मृति वेदों पर आधारित है। देखिए, कुछ प्रमाण-
(क) ‘‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’’ (2.6)
अर्थात्-सपूर्ण वेद धर्म के मूलस्रोत हैं।
(ख) ‘‘प्रमाणं परमं श्रुतिः’’ (2.13)
अर्थात्-धर्म निश्चय में सर्वोच्च प्रमाण वेद हैं। इसलिए-
‘‘श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान् स्वधर्मे निविशेत वै।’’ (2.8)
अर्थात्-विद्वान् वेद को प्रमाण मानकर अपने धर्म का पालन करे।
इन घोषणाओं से स्पष्ट है कि मनु के धर्मवर्णन का आधार वेद हैं और वेद ही परमप्रमाण हैं। वेदों में शूद्रों और स्त्रियों के लिए संध्या, यज्ञ, वेदाध्ययन, उपनयन आदि धार्मिक अनुष्ठानों का स्पष्ट विधान है। उसके विरुद्ध मनु कभी नहीं जा सकते। फिर भी जो शूद्रों और स्त्रियों के वेदाध्ययन, संध्या, यज्ञ आदि निषेधक श्लोक मनुस्मृति में मिलते हैं, वे स्पष्टतः किसी अन्य व्यक्ति द्वारा बाद में मिलाये गये हैं। मनु का तो वही मन्तव्य है जो वेदों में है। वेद में शूद्रों और स्त्रियों के लिए स्पष्ट विधान इस प्रकार हैं-
(ञ) यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेयः।
ब्रह्मराजन्यायां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय॥
(यजुर्वेद 26.2)
अर्थात्-परमात्मा कहता है कि मैंने इस कल्याणकारिणी वेद वाणी का उपदेश साी मनुष्यों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य, स्वाश्रित ी-भृत्य आदि और अतिशूद्र आदि के लिए किया है।
(घ) यज्ञियासः पञ्चजनाः मम होत्रं जुषध्वम्। (ऋग्0 10.53.4)
‘‘पञ्चजनाः=चत्वारो वर्णाः, निषादः पञ्चमः।’’ (निरुक्त 3.8)
अर्थात्-‘यज्ञ करने के पात्र पांच प्रकार के मनुष्य अग्निहोत्र किया करें।’ निरुक्त शास्त्र में कहा है कि चार वर्ण और पांचवां निषाद, ये पञ्चजन कहलाते हैं।
(ङ) मनु की प्रतिज्ञा है कि उनकी मनुस्मृति वेदानुकूल है, अतः मनु की भी वेदोक्त मान्यताएं हैं। यही कारण है कि उपनयन-प्रसंग में कहीं भी शूद्र के उपनयन का निषेध नहीं किया है, क्योंकि शूद्र तो तब कहाता है, जब कोई उपनयन नहीं कराता अथवा उपनयन करने के बाद विधिवत् अध्ययन नहीं करता। वेद के बहुत स्पष्ट आदेश के बादाी जो लोग शूद्रों के लिए वेदाध्ययन और धर्मपालन का निषेध करते हैं, वे वैदिक नहीं हैं, वेद विरोधी हैं और मानवताविरोधी हैं। वर्तमान मनुस्मृति में इस मत के विरुद्ध यदि कोई विधान पाये जाते हैं तो वे परस्परविरुद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं।