देश विभाजन और हैदराबाद मुक्ति संग्राम के विकट काल में डॉ0
अम्बेडकरजी उत्सुकता से आर्यसमाजी नेताओं की प्रतीक्षा में थे ।
शुद्धि का योग्य समय:
किसी आर्यसमाजी नेता को मुझसे मिलाइए
जातिभेद व विषमता की उपेक्षा करके शुद्धि अभियान के पाखण्डी पक्ष पर आक्षेप होते हुए भी अन्य परिस्थितियों में इच्छानुसार शुद्धि अथवा धर्मांतर करने के विषय में बाबासाहब को आपत्ति होने का कोई कारण नहीं था, प्राचीन काल में हिन्दू धर्म यह मिशनरी धर्म था, इन शब्दों में उन्होंने उसकी प्रशंसा ही की थी (5-423)। स्वयं उन्होंने धर्मान्तर का निर्णय घोषित किया था, तब शुद्धि अथवा धर्मांतर के प्रति वे सरसरी तौर पर नफरत की दृष्टि से नहीं देखते, अपितु उसकी गुणवत्ता के आधार पर उसका विचार करते हैं, जब शुद्धि की, अर्थात् धर्मांतरित व्यक्तियों को अपने मूल धर्म में लाने की आवश्यकता प्रतीत हुई, तब उन्होंने उसका समर्थन ही किया था। देश-विभाजन के पश्चात् पाकिस्तान के अस्पृश्यों को जबर्दस्ती मुस्लिम बनाया जा रहा था। वैसी ही दुर्दशा निजाम के हैदराबाद रियासत में शुरु हो गई थी। दिनांक-18 नवम्बर 1947 को परिपत्र निकालकर बाबासाहब ने इन सबको भारत में या हिन्दू प्रान्त में आने का आह्वान किया था, इन सबकी शुद्धि कर फिर से हिन्दू धर्म में मिलाने की व्यवस्था करने की व पूर्ववत् उनके साथ आचरण करने का आश्वासन भी उन्होंने उन्हें दिया था (9-349)।
सन् 1947 में जब हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़के, हिन्दुओं की मार से बचने के लिए मुसलमान चोटी रखने लगे, माथे पर तिलक लगाने लगे, तो इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए श्री सोहनलाल शास्त्री से बाबासाहब ने कहा था-”किसी एक आर्यसमाजी नेता को मेरे पास ले आइए। मैं उन्हें समझाकर बतलाऊँगा कि, अब ऐसा समय आ गया है कि उन्हें (मुसलमानों को) हिन्दुओं में शामिल कर लेना चाहिए, वे बेचारे बच जाएँगे और हिन्दुओं की संख्या भी बढ़ेगी“ (41-172)।
’जाति विनाशक हिन्दू संगठन‘ को महत्त्व न देकर शुद्धि करनेवाले लोगों पर डॉ0 बाबासाहब टूटकर पड़ते हैं, दिनांक-15 मार्च 1929 के ’बहिष्कृत भारत‘ के अंक में ऐसे लोगों को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं-”संगठन व शुद्धि, अर्थात् संभाव्य लफंगेगिरी है“ (244)।“ स्पष्ट विरोध करनेवाले पुराण-मतवादी सह्म हैं, परन्तु शुद्धि संगठनवाले ढोंगी इनसे अधिक भयंकर हैं“ ऐसा वे उन पर आक्षेप करते हैं। ये ही (ढोंगी लोग) सम्प्रति संगठन में घुस गये हैं। स्वर्गीय स्वामी श्रद्धानन्दजी के पवित्र आन्दोलन को इन ढोंगियों ने विकृत कर दिया है-उन्हें लात मारकर बाहर निकालने के सिवाय इस शुद्धि आन्दोलन में वास्तविक जोर नहीं आ पाएगा (244)। 4, नवम्बर, 1927 के ’बहिष्कृत भारत‘ के अंक में ’आर्यसमाज व हिन्दू महासभेची गट्टी‘ (मित्रता) नामक बाबासाहब की टिप्पणी इस सन्दर्भ में पठनीय है। ”आर्यसमाज हिन्दू समाज को एकवर्णी करने के अपने मूल कार्य को भूलकर हिन्दू महासभा की तरह ही शुद्धि अभियान के पीछे लगा है।“ इस प्रकार की जो उसमें उन्होंने आलोचना की है, वह अत्यन्त मुखर और स्पष्ट है (112)। एकवर्णी हिन्दू समाज से उनका तात्पर्य हिन्दू संगठन से है। यह उनका समीकरण-सामंजस्य प्रत्येक पाठक को हरेक स्थान पर दिखलाई देगा।
सन्दर्भः- लेखक-श्री शेषराव मोरे: डॉ0 आम्बेडकरांचे सामाजिक धोरण-एक अभ्यास। प्रकाशक-राजहंस प्रकाशन 1025, सदाशिव पेठ, पुणे-411030, मराठी ग्रन्थ, प्रथमावृत्ति, जून-1998, मूल्य-350।