मनुष्य का व्यवहार जड़ वस्तुओं से भी होता है तथा चेतन पदार्थों से भी होता है। जड़ वस्तुओं से व्यवहार करते हुए वह जैसा चाहता है, वैसा व्यवहार कर सकता है। जड़ वस्तु को तोडऩा चाहता है, तोड़ लेता है, जोडऩा चाहता है, जोड़ लेता है, फेंकना चाहता है, फेंक देता है, पास रखना चाहता है, पास रख लेता है। वह पत्थर को भगवान् बनाकर उसकी पूजा करने लगता है, वह पत्थर उसका भगवान् बन जाता है। व्यक्ति उस पत्थर को अपनी सीढिय़ों पर लगाकर उन पर जूते रखता है, उसे उसमें भी कोई आपत्ति नहीं होती। अत: जड़ वस्तु के साथ मनुष्य का व्यवहार अपनी इच्छानुसार होता है, अपनी मरजी से होता है, जड़ वस्तु क ी कोई मरजी इसमें काम नहीं करती।
चेतन पदार्थों से मनुष्य सर्वथा अपनी इच्छानुकूल व्यवहार नहीं कर सकता। चेतन में पशु-पक्षी आदि प्राणियों के साथ अपना व्यवहार बलपूर्वक करता है। यद्यपि प्राणियों में चेतन पदार्थों में इच्छा होती है, उन्हें अच्छा बुरा लगता है, परन्तु मनुष्य अपनी इच्छा उन पर थोपता है। उन्हें अपनाता है, दूर करता है, प्रेम करता है, हिंसा करता है, उसमें अपनी इच्छा को ऊपर रखता है। दूसरे प्राणी प्रतिकार करते हैं, प्रतिक्रिया करते हैं, परन्तु जितना उनका सामथ्र्य है, वे उतने ही सफल हो सकते हैं। अधिकांश में मनुष्य अपने बल से उनको अपने वश में करने का प्रयास करता है और सफल रहता है।
मनुष्य का मनुष्य के साथ इस प्रकार व्यवहार करना संभव नहीं होता। मनुष्य अज्ञानी, दुर्बल, निर्धन भी हो सकता है, इसके विपरीत ज्ञानवान्, सबल और साधन सम्पन्न भी हो सकता है। इस कारण मनुष्यों का परस्पर व्यवहार किसी एक प्रकार का या एक नियम से होने वाला नहीं होता। जो मनुष्य दुर्बल या निर्धन है, उसे अपने साधनों से मनुष्य अपने अनुकूल करने का प्रयास करता है, परन्तु जो कुछ समझ सकते हैं, उनको वश में करने के लिए ये उपाय निरर्थक हो जाते हैं। ज्ञानवान् व्यक्ति को अपने अनुकूल बनाने के लिए मनुष्य दो उपाय काम में लाता है। यदि वह किसी का अपने लिए उपयोग करना चाहता है अपने स्वार्थ के लिए उन्हें काम में लेना चाहता है तो वह उनको बहकाता है, भडक़ाता है और अपना स्वार्थ सिद्ध करता है।
इन सबसे अलग भी एक उपाय मनुष्य अपनाता है, जिनसे वह दूसरे मनुष्यों को अपने अनुकूल बनाता है। यह परिस्थिति मनुष्य की सबसे ऊँची स्थिति होती है, जब वह अपनी बुद्धि और अपने ज्ञान से दूसरे को अपने साथ चलने के लिए सहमत कर लेता है। इसमें किसी का स्वार्थ नहीं होता। इस प्रकार सबका हित सबका लाभ मुख्य उद्देश्य होता है।
यह उपाय सबसे उत्तम होने के साथ-साथ सबसे कठिन भी है। जहाँ जड़ वस्तु मनुष्य की इच्छा के विरुद्ध नहीं चल सकती, पशु-पक्षी उसके बल से उसके बन्धन में पड़े रह सकते हैं, परन्तु मनुष्य ज्ञानवान् या साधन सम्पन्न होकर दूसरे मनुष्य के विरुद्ध चला जाता है। इसलिए एक कम बुद्धि और कम सामथ्र्य वाले व्यक्ति को अपने आधीन रखने का प्रयास करता है। वह यह प्रयास भी करता है कि उसके आधीन काम करने वाला उससे कम बना रहे। इसी भावना ने समाज में कुछ वर्गों को कमजोर बनाकर रखा है।
आज समाज में स्त्री और शूद्रों की स्थिति इसी भावना का परिणाम है। जो लोग सबको ज्ञान का अधिकारी नहीं मानते वे दूसरे पक्ष के ज्ञानवान् होने से डरते हैं। क्योंकि जो मनुष्य शिक्षित, समर्थ और स्वावालम्बी होता है, ऐसे मनुष्य को आधीन बनाकर रखना संभव नहीं है। अत: समाज के समर्थ लोगों ने स्त्री और शूद्र कहकर कमजोर लोगों को कमजोर बनाये रखने की व्यवस्था की और अपनी इच्छा को धर्म, समाज और शासन का नाम देकर कमजोर वर्ग को मानने, स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। आज जितने एक तरफा बन्धन हंै, उन पर लादे गये हैं। जैसे पर्दा, अशिक्षा, स्वतन्त्रता का अभाव। पिछले दिनों अफगानिस्तान में महिलाओं को शिक्षा से वञ्चित कर बुर्के मेें रहने के लिए बाध्य किया गया, कोई अंग बाहर दिखने पर उसे काट दिया गया। यह नृशंसता धर्म, सिद्धान्त और समाजिक व्यवस्था के नाम पर की गई, जो दूसरे पक्ष की अज्ञानता और दुर्बलता के कारण संभव है।
इसके विपरीत मनुष्य मनुष्य होने के नाते समान अधिकार और कत्र्तव्य का उत्तरदायी है। इस आदर्श को वैदिक-धर्म स्वीकार करता है। वेद मनुष्यों को पारस्परिक व्यवहार और सम्बन्ध समानता के आधार पर स्थापित करने का उपदेश देता है। वैदिक-धर्म ने सभी मनुष्यों को शिक्षा का अधिकार दिया है तथा समानता से कत्र्तव्य पालन करने की भी प्रेरणा की है। आचार्य शिष्य को अपने समान बनाने की इच्छा रखता है, पति-पत्नी परस्पर एक दूसरे को समान मानने की प्रतिज्ञा करते हैं। विवाह संस्कार की यह विधि ध्यान देने योग्य है-
मम व्रते ते हृदयं दधामि मम चित्तमनुचित्तं तेऽस्तु।
मम वाचमेकमना जुषस्व प्रजापतिस्त्वा नियुनक्तु मह्यम्।
विवाह संस्कार में वर-वधू एक-दूसरे के हृदय पर हाथ रखकर प्रतिज्ञा करते हैं, हम परस्पर एक दूसरे के व्रतों, कार्यों कत्र्तव्यों का बोध करेंगे, उनके पालन में सहयोगी बनेंगे, ऐसा करने के लिए परस्पर संवाद बनाकर रखेंगे, एक दूसरे की बात को ध्यान से सुनेंगे, गम्भीरता से लेंगे, इसके पालन में प्रभु से सहायता की याचना करेंगे।
यही मन्त्र उपनयन-वेदारम्भ संस्कार में आचार्य शिष्य को कहते हैं।
यहां किसी को बलपूर्वक अपनी बात मनवाने का प्रयास नहीं है, अपितु बात के औचित्य को समझकर उस बात को स्वीकार करने और सहमत होने का प्रयास है। इसके लिए दोनों पक्षों को समझदार और शिष्ट होना आवश्यक है।
समानता के अधिकार को वैदिक-धर्म कहाँ तक स्वीकार करता है, उसके लिए विवाह संस्कार का सप्तपदी प्रकरण ध्यान देने योग्य है, सप्तपदी की सात प्रतिज्ञाओं में अन्तिम और सप्तम प्रतिज्ञा है-
सरखे सप्तपदी भव….।
हम गृहस्थ जीवन में सखा=मित्र बनकर रहेंगे। किसी को भी ‘‘मैं बड़ा हँू’’ यह कहना नहीं पड़ेगा। अत: दोनों एक दूसरे को अपने से बड़ा मानने की पहल करेंगे। ऐसा तभी संभव होगा, जब दोनों शिक्षित हों और दोनों समझदार हों। इस समझदारी की पराकाष्ठा में वैदिक नारी कहती है-मेरे पुत्र शत्रु पर विजय पाने वाले हैं। मेरी पुत्री भी उन्हीं के समान तेजस्विनी है। वह किसी का भी मुकाबला करने में समर्थ है। पति उसका प्रशंसक है-
मम पुत्रा: शत्रुहणोऽथो में दुहिता विराट्।
उताहमस्मि संजया पत्यौ में श्लोक उत्तम:।।
-धर्मवीर