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योग किया नहीं जाता, जीया जाता है: आचार्य धर्मवीर

योग किया नहीं जाता, जीया जाता है

वर्तमान समय में योग एक बहुत प्रचलित शब्द है, परन्तु अपने अर्थ से बहुत दूर चला गया है। योग के सहयोगी शब्दों के रूप में समय-समय पर कुछ शब्दों का प्रयोग होता रहता है- योगासन, योग-क्रिया, योग-मुद्रा आदि। इसी प्रकार कुछ अलग-अलग क्रियाएँ, जिनसे प्रयोजन की सिद्धि हो सकती है, उनका भी योग नाम दिया गया है- राजयोग, मन्त्रयोग, हठयोग आदि। इनसे परमात्मा की प्राप्ति होना अलग-अलग ग्रन्थों में बताया गया है। मूलत: योग शब्द का अर्थ जोडऩा है। जोडऩा गणित में भी होता है, अत: संख्याओं के जोडऩे को योग कहते हैं। जिस कार्य से प्रयोजन की सिद्धि न हो, उसे वह नाम देना निरर्थक है। योग में किसी से जुडऩे का भाव अवश्य है। हम समझते हैं, योग प्रात:काल-सायंकाल करने की चीज है। योग चाहे आसन के रूप में किये जायें, चाहे साधना के रूप में। आसन के रूप में योगासन स्वास्थ्य के लिए किये जाते हैं, किन्तु पूरे दिन स्वास्थ्य-विरोधी आचरण करते हुए योगासन करके कोई स्वस्थ नहीं हो सकता, क्योंकि प्रात:काल-सायंकाल योगासन करके शरीर को सक्रिय तो कर लिया, परन्तु भोजन और विश्राम के द्वारा ऊर्जा का संग्रह किया जाता है। भोजन, विश्राम यदि ठीक नहीं तो आसन व्यर्थ हो जाते हैं। व्यायाम, आसन, प्राणायाम आदि से तो तन्त्र को दृढ़ता और सक्रियता प्रदान की जाती है। उसी प्रकार योग-साधना का प्रयोजन परमेश्वर से मिलना है, उससे जुडऩा या उस तक पहुँचना है। यदि योग परमेश्वर तक पहुँचने के उपाय का नाम है, तो विचार करने की बात यह है कि उस परमेश्वर की प्राप्ति का यत्न तो प्रात:काल सायंकाल घण्टा-दो-घण्टा किया जाये, उससे दूर होने के काम सारे दिन किये जायें तो कल्पना कर सकते हैं कि हम कब तक परमेश्वर को मिल सकेंगे? यह तो ऐसा हुआ जैसे प्रात:काल-सायंकाल अपने गन्तव्य की ओर दौड़ लगाना और दिनभर उसके विपरीत दिशा में दौडऩा। ऐसा व्यक्ति जन्म-जन्मान्तर तक भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार पूरे जीवन प्रात:-सायं सन्ध्या, योग करते रहने वाला कभी भी परमेश्वर तक नहीं पहुँच सकता, क्योंकि वह उद्देश्य की ओर थोड़े समय चलता है, उद्देश्य के विपरीत अधिक समय चलता है। ऐसा व्यक्ति लक्ष्य से दूर तो हो सकता है, परन्तु लक्ष्य तक कभी भी नहीं पहुँच सकता।

योग परमेश्वर तक पहुँचने का उपाय है, तो यह कार्य कुछ समय का नहीं हो सकता। जैसे कोई व्यक्ति यात्रा पर निकलता है, तो सभी कार्य करते हुए भी उसकी यात्रा, उसी दिशा में निरन्तर आगे-आगे बढ़ती रहती है। मार्ग में वह सोता है, खाता है, बात करता है, किन्तु उसकी न तो यात्रा की दिशा बदलती है, न यात्रा पर विराम लगता है और वह देरी से या जल्दी गन्तव्य तक पहुँच ही जाता है। इसी कारण वेदान्त दर्शन में साधना कब तक करनी चाहिए- इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है- आ प्रायणात्तत्रापि दृष्टम्। लक्ष्य की प्राप्ति तक साधना करने का विधान किया गया है, अत: योग केवल प्रात:काल-सायंकाल की जाने वाली क्रिया नहीं है। यह जीवनरूपी यात्रा है, जिसका प्रयोजन परमेश्वर तक पहुँचना या उसे प्राप्त करना है। यह यात्रा तब तक समाप्त या पूर्ण नहीं हो सकती, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये। यह जीवन-यात्रा कैसे सम्भव है? इसको बताने वाले अनेक शास्त्र हैं, परन्तु योगदर्शन इसका सबसे अधिक व्यवस्थित, उपयोगी एवं सरल शास्त्र है। इस सारे योगदर्शन को संक्षिप्त किया जाये, तो तीन सूत्रों में बाँधा जा सकता है, शेष शास्त्र तो इन सूत्रों का व्याख्यान है।

प्रथम योग कैसे होता है, यह सूत्र में कहा गया है- योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। चित्त की वृत्तियों के निरोध-अवरोध करने का नाम योग है। जब चित्त की वृत्तियाँ अर्थात् उनका बाह्य व्यापार रुक जाता है, तो प्रयोजन की प्राप्ति हो जाती है। अगले सूत्र में बतलाया गया है, वह प्रयोजन क्या है, जो चित्त के बाह्य व्यापार को रोकने से सिद्ध होता है? तो पतञ्जलि मुनि कहते हैं- तदा द्रष्टु: स्वरूपे अवस्थानम्। चित्त का कार्य ही आत्मा को संसार से जोडऩा है, जब उसे संसार से जोडऩे के काम से रोक दिया जाता है तो वह बाहर के व्यापार को छोड़ कर भीतर के व्यापार में लग जाता है। उसके भीतर का व्यापार आत्मदर्शन कहलाता है, जब वह स्वयं में स्थित होता है तो अपने में स्थित परमात्मा का भी उसे सहज साक्षात्कार होता है, अत: योग परमात्मा के साक्षात्कार करने का नाम है। जब हमारा चित्त हमारी आत्मा में नहीं होता तो निश्चित रूप से विपरीत दिशा में लगा होता है। क्योंकि मन एक क्षण के लिए भी निष्क्रिय नहीं रहता, अत: मनुष्य के सोते, जागते, वह कार्य में लगा रहता है, तब यदि वह अन्तर्मुखी नहीं होगा तो निश्चित रूप से बहिर्मुखी होगा। उसी को बताने के लिये पतञ्जलि मुनि ने सूत्र बनाया है- वृत्तिसारूप्यमितरत्र चित्त की वृत्तियों का निरोध न करने की दशा में चित्त सांसारिक व्यापार में ही लगा रहता है। यह स्वाभाविक और अनिवार्य है।

योग एक यात्रा है, जो जीवन के प्रयोजन को प्राप्त करने के लिए की जाती है। इस योग को समझने के लिए एक और विधि हो सकती है। संक्षेप में योग क्या है- जैसे एक शब्द में योग को समझाना हो तो कैसे समझा जाये? एक शब्द में योग को जानना हो तो वह शब्द है- ईश्वरप्रणिधान। प्रणिधान शब्द का अर्थ है- समर्पण। जब कोई साधक सिद्ध बन जाता है, अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, तब वह ईश्वर के प्रति अपना समर्पण कर देता है। जब व्यक्ति में समर्पण आता है, तब उसे अपना कुछ भी पृथक् रखने की इच्छा नहीं रहती, सब कुछ उसे उसका ही लगता है, जिसके प्रति वह समर्पित होता है। इसकी व्याख्या करते हुए व्यास जी कहते हैं- ऐसे साधक के कर्मों में- ईश्वरार्पणं तत्फलसंन्यासो वा, जैसे वह या तो स्वामी से पूछ कर कार्य करता है, उसके आदेश का पालन करता है और स्वयं कोई कार्य करता है तो उसे स्वामी के अर्पण कर देता है अर्थात् किये हुए कार्य के फल की इच्छा नहीं करता। ईश्वर और उसके मध्य स्वामी-सेवक का सम्बन्ध होता है, जैसे- श्रेष्ठ सेवक सदैव स्वामी को प्रसन्न करना चाहता है, सदा स्वामी के हित साधन में तत्पर रहता है, उसी प्रकार उपासक अपने उपास्य को प्रसन्न करने में तत्पर रहता है। स्वामी के आदेश की प्रतीक्षा करता है, आज्ञा पालन कर प्रसन्न होता है, अपने को धन्य समझता है, कृत-कृत्य मानता है।

ईश्वरप्रणिधान का महत्त्व समझने के लिये योगदर्शन के सूत्रों पर चिन्तन करना अच्छा रहता है। सूत्रों पर विचार करने से पता लगता है कि योग के अंगों में सबसे महत्त्वपूर्ण शब्द ईश्वरप्रणिधान है। योग दर्शन में साधना, समाधि की सिद्धि के बहुत सारे उपायों में पहला मुख्य उपाय बताया है, ईश्वरप्रणिधान। पतञ्जलि ने सूत्र लिखा है- समाधिसिद्धिरीश्वर- प्रणिधानात्- ईश्वरप्रणिधान से समाधि सिद्ध हो जाती है। व्यास कहते हैं- ईश्वरप्रणिधान से परमेश्वर प्रसन्न होकर तत्काल उसे अपना लेता है।

कुछ विस्तार से योग समझाते हुए योगदर्शन के दूसरे पाद में, जिसे साधन पाद कहा गया है, उसमें क्रिया योग और अष्टांग योग का व्याख्यान किया है। इन दोनों स्थानों पर ईश्वरप्रणिधान का उल्लेख किया गया है। क्रिया योग का पहला सूत्र है- तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:। तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान क्रिया योग के तीन अङ्ग हैं। इसी प्रकार अष्टांग योग में सर्वप्रथम यम-नियमों की चर्चा की गई है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि। इन आठ अंगों में प्रथम दो हैं- यम और नियम। यम हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। नियम हैं- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान। इस प्रकार नियमों में अन्तिम है- ईश्वरप्रणिधान। विस्तार से जब योग का कथन किया जाता है तो उसे अष्टांग योग कहते हैं। इसमें भी ईश्वरप्रणिधान है। कुछ कम विस्तार से योग के अंग बतलाये गये हैं- तप: स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोग:। इसमें भी ईश्वरप्रणिधान है तथा समाधि पाद में एक शब्द में जब योग की बात की गई है तो भी कहा गया- समाधिसिद्धिरीश्वर- प्रणिधानात्। अर्थात् एक शब्द में योग ईश्वरप्रणिधान है। यही उपासना है।

उपासना का अर्थ समझने के लिए उपनिषद् में एक सुन्दर दृष्टान्त आया है। वहाँ कहा गया है- जैसे भूखे बच्चे माँ की उपासना करते हैं, उसी प्रकार देवता अग्निहोत्र की उपासना करते हैं। उपासना ऐच्छिक नहीं है, जब इच्छा हुई की, जब इच्छा हुई नहीं की। समय मिला तो कर ली, नहीं समय मिला तो नहीं की। उपासना एक आन्तरिक भूख है, एक आवश्यकता है, जिसे पूरा किये बिना रहा नहीं जा सकता। एक भूख से पीडि़त बालक को माँ की जितनी आवश्यकता लगती है, उतनी ही तीव्र उत्कण्ठा एक उपासक के मन में उपास्य के प्रति होती है। तब उपासना सार्थक होती है। मनुष्य जिससे प्रेम करता है, जिसे चाहता है उसके निकट रहना चाहता है, उसी प्रकार परमेश्वर को उपासक अपने निकट देखना चाहता है। सदा अपने प्रिय की निकटता की इच्छा करना ही उपासना है।

जनसामान्य के मन में उपासना करने को लेकर बहुत संशय रहता है। उपासना कैसे प्रारम्भ की जाये, चित्त की वृत्तियों को कैसे रोका जाये, मन परमेश्वर में कैसे लगे आदि-आदि। जो लोग उपासना के अभ्यासी हैं, उनके अनुभव नवीन साधक के लिये उपयोगी हो सकते हैं। जहाँ तक मन को एकाग्र करने का प्रश्न है, मन कभी खाली नहीं रहता, उसकी रचना प्रकृति से हुई है, अत: वह स्वाभाविक रूप से सांसारिक विषयों की ओर दौड़ता है। उसे हम रोकना चाहते हैं, वह रुकने का नाम नहीं लेता। ऐसी परिस्थिति में मन को नियन्त्रित करने का सरल उपाय है- अपने पूर्व कार्यों का चिन्तन करना। इसमें प्रतिदिन प्रात:-सायं अपने दिनभर, रातभर के कार्यों पर विचार करने का विधान तो है ही, यदि दिन में जब भी खाली समय मिले, अपने पिछले कार्यों के विचार में मन को लगाया जाये, तो मन सरलता से अपने कार्यों पर विचार करने में व्यस्त हो जाता है। आज के, कल के, सप्ताह के या मास के कार्यों पर चिन्तन करते-करते मन अनायास ही उपासक के नियन्त्रण में हो जाता है। मन अपेक्षा करने लगता है कि उसे किसी कार्य में लगाया जाये, उसी समय मन को वाञ्छित कार्य में लगाया जा सकता है। उपासना की सफलता और उपासना में गति लाने के कई सरल नियम हैं, उनमें उपासना के लिए स्थान और समय का निश्चित करना भी आता है। निश्चित स्थान और निश्चित समय उपासक को उपासना के  लिये प्रेरित करते हैं। उपासना में बैठने के बाद आसन को सहज भाव से बिना बदले उपासक कितने समय बैठ सकता है, यह महत्त्वपूर्ण है। वस्तुत: आसन में इन्द्रियों को एकाग्र करने में सबसे सहयोगी क्रिया यही है कि उपासक कितनी देर तक आँखें बन्द करके बैठ सकता है? इन सामान्य बातों से उपासना में रुचि और गति दोनों बढ़ती हैं।

अब हमारी समझ में आ सकता है कि योग केवल प्रात:काल और सायंकाल किया जाने वाला व्यायाम नहीं, अपितु चौबीस घण्टे आनन्द में रमण करने का नाम है। जब हम जागते हुये, प्रात:काल के समय ब्रह्ममुहूर्त में सन्ध्या करते हैं, तब आँख बन्द करके योग करते हैं। सूर्योदय के समय सबके साथ बैठकर घी, सामग्री, समिधा से अग्निहोत्र करते हैं, यह भी उपासना है। अग्निहोत्र के लाभ बतलाते हुए ऋषि दयानन्द कहते हैं- यज्ञ में मन्त्रों के पढऩे से परमेश्वर की उपासना भी होती है। हम कह सकते हैं- यह आँख खोलकर अग्निहोत्र करना उपासना ही है। इसी प्रकार चौबीस घण्टे के व्यवहार में भी उपासना होनी चाहिए, तब उपासना क्या होगी? तब उपासना यम-नियम का पालन करना, दुकान करना, खेती करना, मजदूरी करना, नौकरी करना, सब कुछ उपासना होगी। उस समय यम-नियमों का पालन हो रहा होगा। इस प्रकार अकेले उपासना करना सन्ध्या है, परिवार के साथ उपासना करना अग्निहोत्र है और पूरे दिन सबके साथ, सभी प्रकार का व्यवहार यम-नियम पूर्वक करना सार्वजनिक उपासना है। यही योग है।

सामान्यजन की धारणा रहती है कि मुक्ति तो परमेश्वर की वस्तु है, वह उसकी कृपा व उसकी उपासना से मिलती है। यह बात सब लोग मानते और समझते हैं परन्तु संसार के विषय में ऐसा समझते हैं कि यह ईश्वर की वस्तु नहीं है या उससे विपरीत वस्तु है, इसीलिए संसार की वस्तुओं को पाने के लिए हम ईश्वर के विपरीत चलना आवश्यक मानते हैं। जबकि सच तो यह है कि संसार भी उसी ईश्वर का है जिसकी मुक्ति है, फिर जिस योग की साधना से ईश्वर मुक्ति देता है, वही ईश्वर योग की साधना करने से संसार के सामान्य सुख से वञ्चित क्यों रखेगा? योग संसार से होकर मुक्ति तक जाने का मार्ग है, इसलिए संसार का सुख भी बिना योग के मिलने की कल्पना नहीं की जा सकती। इस प्रकार संसार योग का विरोधी नहीं, योग की प्रयोगशाला है।

योग जीवन की यात्रा है, इसमें कभी गति तीव्र होती है, कभी मध्यम और कभी मन्द। इतना ही सब उपासना काल के बीच अन्तर है। इसी भाव को कृष्ण जी ने गीता के निम्न श्लोकों में कहा है-

नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्।।

प्रलपन्विसृजन्गृöन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।।