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मांस भक्षण और मनुस्मृति : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

( 1 ) मासं भक्षण सम्बधी- ऊपर बताया जा चुका है कि मनुस्मृति का मौलिक सिद्धान्त मासं भक्षण सम्बन्धी अहिसा है। वेद मे अहिसा पर विशेष बल क्षेपक दिया गया है। यजुर्वेद कहता है:-

मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।

अर्थात प्रत्येक प्राणी को मित्र की दृष्टि से देखना चाहिये। न केवल वैदिक किन्तु सभी धर्मो का आधार अहिंसा होनी चाहिये। यदि मनुष्य दूसरों  को कष्ट पहुॅचान में संकोच न करे तो सदाचार के किसी भाव का पालन नहीं कर सकता । मनुस्मृति ने इस बात को बहुत स्पष्ट रीति से वर्णन किया है, इसलिये जहाॅ कहीं पशु-वध का विधान है वह सब मिलावट है । कुछ लोग समझते है कि यज्ञों में पशु-वध विहित है। परन्तु मनुस्मृति के मौलिक सिद्धान्त इस बात की पुष्टि नही करते। देखिये:-

पन्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषयुपस्करः।                                                                                   कएडनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन्।।                                                                                                                                                                   (3।68)

यहाॅ गृहस्य के पाॅच ऐसे पातकों का उल्लेख किया जो प्रत्येक गृहस्थी को बिना जाने बूझे करने पडते है। जैसे, चूल्हा, चक्की, झाडू, ओखली, और घडौची। इनके  प्रयोग से छोटे छोटे कीडे दबकर मर जाते है । गृहस्थियों को यह हिंसा बिना इच्छा के ही करनी पडती है। वे नहीं चाहते कि किसी को पीडा दें, परन्तु पहुॅच जाती है। जिस धर्म में अनजाने चीटियों के मर जाने से भी मनुष्य दोषी ठहरता हो उसमे जान-बूझकर किसी को मार डलना कितना बडा पाप न होगा। इसी सूना दोष मिटाने के लिये एक प्रकार के दैनिक प्रायश्चित के रूप में महायज्ञों का विधान है:-

तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थ महर्षिभिः।

पन्च क्लप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम्।।

ये पाॅच महायज्ञ यह है:-

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्।

होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथि पूजनम्।।

ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, बलिवैश्वयज्ञ और नरयज्ञ। लोग यह समझते है कि यज्ञ और पशु वध का विशेष सम्बन्ध है। यज्ञ का अर्थ ही बहुत लोग मारना समझते हैं, और यही ’बलि‘ शब्द  का अर्थ समझा जाता है। दुर्भाग्य का विषय है कि यह दोनों शब्द अपनी उत्कृष्टता से गिरकर इस अधोगति को पहुॅच गये है। ‘यज्ञ’ यज धातु से निकलता है जिसका अर्थ है देव-पूजा, संगतिकरण तथा दान । इससे और मारने से क्या सम्बन्ध ? कुछ लोग यहाॅ तक समझते है कि नरयज्ञ वह यज्ञ है जिसमें मनुष्य को मारकर उसमें मासं की आहुति दी जाती है। इन भले आदमियो से पूछो कि क्या इसी प्रकार ब्रह्मयज्ञ में ब्रह्म को मारा जाता होगा। और पितृयज्ञ में माता-पिता को अर्थ अनर्थ करनेवालो के लिये क्या कहा जाय। नरयज्ञ का पय्र्याय अतिथियज्ञ है। मनुस्मृति कहती है कि नरयज्ञ का अर्थ है अतिथिपूजन। फिर भी लोग यज्ञ को हिंसापरक समझने लगे तो इसमें विचारे शब्द का क्या दोष ? इसी प्रकार बलि का अर्थ है ‘भूत-यज्ञ’ अर्थात  चीटी कौवे आदि को भोजन पहुॅचाना। इसलिये पितृयज्ञ में पशु-हिंसा करने का विधान स्पष्टतया पीछे की मिलावट है। जिस समय महात्मा बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार किया उस समय यज्ञों में पशुओं को मारकर चढाना एक साधारण बात थी। इसी अत्याचार से दुखी होकर महात्मा बुद्ध ने वैदिक यज्ञों का निषेध किया था क्योकि वस्तुतः वह यज्ञ वैदिक नही रह गये थे। वाम-मार्ग अर्थात उलटे मार्ग का प्रचार था। प्रतीत होता है कि उसी समय या उसके पश्चात् मनुस्मृति में यह मिलावट हुई।

मनुस्मृति और वेद : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

पाठकगण पश्र कर सकते है कि हमारे पास मिलावट जाॅचने की कौन सी तराजू है। इसलिये इस विषय मनुस्मृति और वेद में संक्षेप से कुछ लिख देना असंगत न होगा। मनुस्मृति कोई असम्बद्ध स्वतंत्र पुस्तक नहीं है। यह वैदिक साहित्य का एक ग्रन्थ है। वैदिक धर्म का प्रतिपादन ही इसका काय्र्य है । वेद ही इसका मूलाधार है यह बात कल्पित नहीं है, किन्तु मनुस्मृति से ही सिद्ध है। नीचे के श्लोक इसकी साक्षी है:-

(1)   वेदोऽखिलो धर्ममूलम्।                                                            ( 2।6 )

(2)   वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च पियमात्मनः।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्।।                     (2।12 )

(3)   प्रमाणं परमं श्रुतिः                                                      (2।13 )

(4)   वेदास्त्यागश्च…………………………………………             (2।97 )

(5)   वेदमेव सदाभ्यस्येत् तपस्तप्स्यन् द्विजोत्तमः।

वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते।।                         (2।166)

(6)   वेद यज्ञैरहीनानां प्रशस्तानां स्वकर्मसु।

ब्रह्मचार्याहरेद् भैक्षं गृहेभ्यः प्रयतोऽन्वहम्।।                         (2।183)

(7) वेदानधीत्य वेदौवा वेदं वापि यथाक्रमम्।।                              (3।2 )

(8) वेदाभ्यासोऽन्वहंशत्तया महायज्ञक्रिया क्षमा।

नशयन्त्याशु  पापानि महापातकजान्यपि।।                          (11।245 )

(9) आर्ष धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राऽविरोधिना।

यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्म वेद नेतरः।।                                   (12।106 )

कई सहस्त्र वर्षो से वैदिक धर्म में विक्ल्व उत्पन्न हो गये और सब से अधिक चोट वैदिक ग्रन्थो पर आई। प्रचीन वैदिक धर्म के सिद्धान्त एक ऐसी कसौटी है जिनके द्वारा वैदिक ग्रन्थों की मिलावट अधिकांश में कसी जा सकती है।

मनुस्मृति में क्षेपक : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

इस पाॅचवी बात के विषय में हम कुछ थोडा सा वर्णन करते हैं। मनुस्मृति का वर्तमान रूप कम मनुस्मृति में क्षेपक से कम दो सहस्त्र वर्ष पुराना है। इसमें क्षेपक बहुत हैं। परन्तु ये क्षेपक भी नये नही हैं। याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियों में इसी मनुस्मृति के उद्धरण मिलते है। मेघातिथि आदि ने जो भाष्य किये हैं वे सब के सब इसी मनुस्मृति के है। कुछ पाठ-भेद अवश्य है। श्लोकों में भेद भी है। बहुत से ऐसे श्लोक हैं जो मेघातिथि तथा कुल्लूक आदि के भाष्यों नहीं मिलते और पीछे के भाष्यों में इनका उल्लेख है। कुछ ऐसे भी श्लोक हैं जो पीछे से निकल गये हैं। इस प्रकार हस्ताक्षेप तो इधर भी रहा है, परन्तु अधिक नहीं। और न सिद्धान्तों में कुछ बहुत भारी उलट फेर ही है। परन्तु इससे यह नही समभना चाहिए कि इस प्राचीन मनुस्मृति मे कोई भारी हस्ताक्षेप नहीं हुआ। महात्मा बुद्ध से कुछ पहले जब शुद्ध वैदिक धर्म में विकराल विकृति उत्पन्न हो गई थी और महात्मा बुद्ध के कुछ पीछे जब अवैदिक बौद्ध धर्म और वैदिक पौराणिक धर्म घमासान युद्ध हुआ, भिन्न उद्देश्य रखने वाले साम्प्रदायिक विद्वान् मनमानी कतरनी चलाते रहे। जहाॅ जो चाहा मिला दिया और जहाॅ से जो चाहा निकाल दिया। इसने वैदिक सिद्धान्तों में बडी गडबड मचा दी।

क्या मनुस्मृति मे क्षेपक हैं ? हाॅ, अवश्य हैं। कोई निष्पक्ष विद्वान् इसको मानने में संकोच नहीं कर सकता। इसके प्रमाण पुष्कल हैं। सम्भव है कि इस विषय में मतभेद हो कि कितना क्षेपक है और कितना मौलिक। सब  से पहली बात तो यह है कि परस्पर विरोध बहुत है जिसको भाष्यकारों की प्रतिभासम्पन्न आलोचना भी दूर नही कर सकी। हम यहा कुछ का उल्लेख करते हैं।

(1) सवर्णाग्रे द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि।

कामतस्त प्रवृत्तानामिमाः स्युः क्रमशो वराः।।

शूदैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते।

ते च स्वा चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चाग्रजन्मनः।।

यहाॅ ब्रहम्णा को शूद्र भार्या विवाहने का पूरा अधिकार है। परन्तु इससे अगले ही श्लोक में बल-पूर्वक इसका निषेध किया गया हैः-

न ब्राहम्ण क्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः।

कस्ंमिश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भाय्र्योपदिश्यते।।

इसके आगे चार श्लोक हैं जिनमें  इसी बात पर बल दिया गया है कि कोई द्विज अपने से नीच वर्ण की स्त्री से विवाह न करे । यहाॅ तक कि आपत्काल में भी इसकी आज्ञा नहीं है। कुल्लूक लिखते हैं कि

”ब्राहम्णक्षत्रिययोर्गार्हस्थ्यमिच्छतोः सर्वथा सवर्णालाभे कस्ंमिश्चिदपि वृत्तान्ते इतिहासाख्यानेऽपि शूद्रा भाय्र्यां नाभिधीयते।”

इन दो विरोधों का समन्वय हो ही नहीं सकता। हमारी धारणा तो यह है कि मनु की आज्ञा शूद्रा से विवाह की अनुकूलता में स्पष्ट है। पिछले छः श्लोक जो वर्तमान मनुस्मृति के 3।14-19 श्लोक है उस समय की मिलावट है जब जाति बन्धन कडे हो गये और शूद्रों को सर्वथ त्याज्य ठहराया जा चुका। यदि मनुस्मृति के ये मौलिक श्लोक होते तो इतना विरोध हो नही सकथा था।

(2) मनु 3।21 में आठ प्रकार के विवाह सम्बन्धों का उल्लेख है:-

ब्राहम्णो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः।                                                                                                        गान्धर्वों राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः।।

अर्थात् ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य,आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच।

इसके पश्चात 3।26 से 3।34 तक इनके लक्षण दिये हैं। फिर 3।39 से 3।42 तक यह बताया है कि पहले चार अर्थात् ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, श्रेष्ठ और “शिष्टयम्मत” है, शेष चार विवाह कुत्सित हैं। उनकी सन्तान भूक्ठी और ब्रहम्धर्म दिूष” होती है। इसलिये अनिन्दि अर्थात चार प्रकार के विवाहों की ही आज्ञा है। शेष चार आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच “निन्द्य“ है।  इसलिये “निन्द्यान् विवर्जयेत्“ इनको नही करना चाहिये।                                               हमारी समझ में मनु महाराज की यही निज सम्मति है। स्वामी दयानन्द ने इन आठ विवाहों के विषय में यह सम्मति दी हैः-                                                                                                     “इन सब विवाहो में ब्राहम्ण विवाह सर्वोत्कृष्ट, दैव और प्राजापत्य मध्यम, आर्ष, आसुर और गान्धर्व निकृष्ट, राक्षस अधम और पैशाच महाभ्रष्ट है।”( सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 4) आर्ष विवाह को मनु ने अनिन्दित और स्वामी दयानन्छ  ने निकृष्ट बताया है। शेष चार तो निन्दित है ही।

परन्तु नीचे के श्लोक सर्वथा विरूद्ध है:-

षडानुपूव्र्या विप्रस्य क्षत्रस्य चतुराऽवरान्।

विट्शूद्रयोस्तु तानेव विद्याद् धम्र्यानराक्षसान्।।                                                                                                                                                                                                (मनु0 3।23)

यहाॅ पहले छः अर्थात ब्राह्म देव, आर्ष, प्राजापत्य, असुर और गान्धर्व को ब्राहम्णों के लिये धर्मानुकूल बताया। पिछले चार अथार्त् असुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच को क्षत्रियों के लिये “धर्म” बताया। वैश्य और शूद्रों के लिये राक्षस विवाह को छोडकर असुर, गान्धर्व, और पैशाच कों धर्म ठहराया गया। यह बात न केवल 3।49 से ही सर्वथा विरूद्ध है, किन्तु आश्चर्य-जनक भी है । क्षत्रियों को पहले चार विवाहों की आज्ञा क्यो नही ? उनको शेष चार की क्यों है ? ‘पैशाच’ विवाह में क्या गुण, हैं कि क्षत्रियों के लिये यह अच्छा है और वैश्य तथा शूद्रों के लिये बुरा । कोई बुद्धिमान पुरूष पैशाच विवाह को किसी के लिये भी अच्छा नही बता सकता। फिर क्षत्रिय राजाओं पर क्या कृपा हो गई कि उनके विवाह के लिये कोई नियम ही नहीं रक्खा गया। सभी कुछ विहित बता दिया गया। क्या इसके क्षेपक होने में कोई सन्देह हो सकता है ? कही किसी राजा के उच्छ खल व्यवहार को ’धर्म’ बताने के लिये ही तो यह करतूत नही की गई ? फिर गांधर्व विवाह तो व्यभिचार से कम नहीं। परन्तु इसकी ब्राहम्णों को छोडकर सभी को आज्ञा है। राजा दुष्यन्त जब शकुन्तला पर आसक्त हो जाता है तो वह मनुस्मृति का प्रमाण देकर ही एकान्त प्रसग्ड करने के लिये उसको बाधित करना है। राजे लोग मनुस्मृति के इस हथियार को पाकर क्या कुछ नही कर सकते ?

यही नहीं । इससे अगला श्लोक तो इसके भी विरूद्ध हैः-

चतुरो ब्राहम्णस्याद्यान् प्रशस्तान् कवयोविदुः।

राक्षसं क्षत्रियस्यैकमासुरं वैश्यशूद्रयोः।।

विद्वानों का कहना है कि पहले चार विवाह ब्राहम्ण के लिये प्रशस्त है। क्षत्रिय के लिये एक राक्षस विवाह । वैश्य और शूद्र के लिये एक असुर विवाह है, यह सभी बाते कैसे ठीक हो सकती हैं। राक्षस विवाह में क्या विशेषता है कि यह एक ही क्षत्रिय के लिये प्रशस्त बताया गया । इससे अगले दो श्लोक भी देखिये:-

पंचानां तु त्रयो धम्र्या द्वावधम्र्यौ स्मृताविह।                                                                   पैशाचश्चासुरश्चैव न कर्तव्यौ कदाचन।।                                                                                       पृथक् पृथग्वा मिश्रौ वा विवाहौ पूर्वचोदितौ।                                                                                  गान्धर्वौ राक्षसश्वैव धम्र्यौ क्षत्रस्य तौ स्मृतौ।।

कभी कुछ और कभी कुछ। काई बुद्धिमान् पुरूष ऐसी बहकी बहकी बाते न कहेगा। थोडा- सा भी देने से विदित होता है कि 3।23 से लेकर 3।26 तक पाॅच श्लोक मिला दिये गये । आठ विवाहों के नाम बताकर उनका लक्षण बताना स्वाभाविक बात थी। इसके बीच में ’धर्म‘ और ‘अधर्म’ विवाहों को गिना बैठना जब कि 3।41-42 में ’अनिन्द्य‘ और ‘निन्द्य’ विवाहों को फिर बताना था न केवल अस्वाभाविक किन्तु अयुक्त है। इसी प्रकार 3।36,37,38 भी बेतुके जोडे गये हैं। और उनमें  इक्कीस इक्कसी पीढियों के तरने की मन को लुभाने वाली बातें बताई गई हैं। यह मिलावट ऐसा पैवन्द है जो दूर से चमकती है रफूगरी ऐसी भद्दी रीति से की गई है  कि समस्त कपडा भद्दा दीखने लगता है।

(3) अध्याय 9 के 59 से 63 श्लोक तक चार श्लोको, में ”नियोग” की आज्ञा है और 63 वें श्लोक में कहा गया है कि ”नियोग विधि“ को त्यागकर जो अन्यथा व्यवहार करते हैं वे पतित हो जाते हैं। परन्तु 64 से 67 तक नियोग का निषेध है। 59 से 69 तक ये ग्यारह श्लोक पढने से तुरन्त ही पता चल जाता है कि कुछ दाल में काला है। महाशय पी0 वी0 काणे कहते हैंः-

In one breath Manu seems to permit niyoga (9.59-63) and immediately afterwards he strongly reprobates it .(9.64-69).

66 वें श्लोक में वेन राजा की कथा देने से भी  यही प्रकट होता है कि पीछे से यह श्लोक जोड दिये गये।  (4) अध्याय 5।48-50 में मांस-भक्षण का सर्वथा निषेध हैः-

 

नाकृत्व प्राणिनां हिसां मांसमुत्पद्यते कक्चित्।

न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान् मांस विवर्जयेत्।।

समुत्पत्ति च मांसस्य वध वन्धौ चे देहिनाम्।।

प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्।।

यहाॅ न केवल मांस का निषेध ही है, किन्तु प्रबल युक्ति दी गई अर्थात बिना प्राणियों की हिंसा किये मांस मिलता ही नही और प्राणियो की हिसा स्वर्ग का  साधन नहीं इसलिये मांस वर्जनीय भी हैं। इस युक्ति के अनुसार न केवल साधारण मांस भक्षण का ही निषेध है, किन्तु यज्ञ में भी मांस डालना या खाना निन्दित है क्योकि यज्ञ में बलि देने से भी तो प्राणियों की हिंसा होती है। फिर आगे चलकर मांस का सर्वथा ही निषेध किया है:-

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।

संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः।।

(मनु0 5।51)

अर्थात् मांस खाने वाले को ही हिंसा का पाप नही लगता, किन्तु उसमें मारने वाला, बेचने वाला, खरीदने वाला, पकाने वाला आदि सभी सम्मिलित हैं। इन स्पष्ट श्लोकों के होते हुए भी नीचे के श्लोकों में मांस का विधान हैं:-

यज्ञाय जग्धिर्मां सस्येत्येष दैवो विधिः स्मृतः ।

अतोऽन्यथा प्रवत्स्तिु राक्षसा विधिरूच्यते।।

(मनु0 5।31 )

अथार्त यज्ञ में मांस डालना ’दैव विधि’ है और बिना यज्ञ की मांस की प्रवृति राक्षस विधि है। क्या बिना प्राणियों को हिंसा पहुचाये यज्ञ में मांस डाला जा सकता है ? यदि नही तो ’दैव विधि‘ और ‘राक्षस विधि’ में क्या भेद ? इसी प्रकार 5।32 से 42 तक ऊटपंटाग बाते बताई गई हैं। 3।40 में विचित्र युक्ति दी गई है कि

यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः।।

अर्थात् जो पशु-पक्षी यज्ञ के लिये मारे जाते हैं उनको दूसरे जन्म में उत्कृष्ट योनि मिलती है। इसी प्रकार श्राद्ध में भी भिन्न भिन्न पशुओं के वध का उल्लेख है। (देखो अध्याय 3।268,269)

यह हैं कुछ वे स्थल जिनमें परस्पर विरोध होने के कारण मानना ही पडेगा कि इनमें से एक मौलिक है और दूसरा क्षेपकः, क्योकि दो परस्पर बातें किसी एक ग्रन्थकार का मंतव्य नहीं हो सकतीं। परन्तु क्षेपक यही तक सीमित नहीं हैं। समय का प्रभाव प्रत्येक वस्तु पर पडता हैं। जो मकान बनाया जाता हैं वह कितना ही सुछढ क्यो न हो, वायु, धाम तथा जल का उस पर कुछ न कुछ प्रभाव पडता ही है। प्रत्येक मकान की आकृति को देखकर बता सकते है कि समय ने उसमें कितना परिवर्तन किया हैं। पहले पानी दीवारों पर धब्बे डाल देता है। फिर घर का स्वामी उस पर पुताई कर देता है। फिर वर्षा आती है और कुछ भाग धुल जाता है तथा कुछ काले धब्बे और पड जाते है। फिर घर वाले चून की एक बारीक तह और लगा देते हैं। इस प्रकार प्रत्येक दीवार पर पपडियाॅ पड जाती हैं। कभी कभी दीवारों को खुरचकर नये सिरे से पुताई कर दी जाती है। परन्तु फिर भी उस को मौलिक दीवार नहीं कह सकते। यह सब आदि से अन्त तक क्षेपक ही होते हैं। इसी प्रकार पुस्तकों का हाल है। जो पुस्तकें साधारण मनोरंजन की हैं उनमें लोग बहुत कम हम्ताक्षेप करते हैं और वह भी जान-बूझकर नही उनके क्षेपक इस प्रकार के होते हैं कि कहीं तो लेखकों के प्रमाद के कारण शब्द छूट गया या कोई पंक्ति की पंक्ति रह गई या कभी कभी ऊपर की आधी पंक्ति नीचे की आधी पंक्ति के साथ मिल गई। कभी कभी शब्द के छूट जाने पर पीछे से आने वाले लोगों ने संशोधन के उद्देश्य से अपनी और से कोई ऐसा शब्द जोड दिया जो खप सके । इस प्रकार पय्र्याय आते रहते हैं। इस प्रकार ये क्षेपक तो होते हैं परन्तु किसी को हानि नहीं पहुॅचाते । परन्तु धार्मिक पुस्तकों के क्षेपक बडे भयानक होते हैं। उनका उद्देश्य ही दूसरा होता हैं, जब किसी देश में धार्मिक बिक्लव होते हैं, तो सब से पहले धर्मग्रन्थों पर आक्रमण होता है। कोई धर्मसंस्थापक आज तक सर्वथा नया धर्म स्थापित नहीं कर सका। हर एक कहता है कि मै वही बता करता हूॅ जो पूर्व से चली आई है। ऐसा कहने पर दो दल हो जाते हैं और धर्मग्रन्थ दोनों दलों के हाथ में मोम की नाक बन जाते हैं। मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ में यह बात बहुत सुगम थी। अनुष्टुभ् छनद बहुत सीधा छनद है। स्पष्ट क्षेपकों के फिर मनुस्मृति की भाषा किल्ष्ट नहीं । दैनिक उदाहरण व्यवहार की बातें सरल से सरल भाषा में लिख दी गई है। इसमें मिला देना कौन कठिन था। उदाहरण के लिये ’नियोग‘ प्रकरण को लीजिये। जब लोगों ने किसी कारण से चाहा कि नियोग बन्द कर दिया जाय तो कुछ श्लोक बनाकर लगा दिये। और उसके लिये दो एक हेतु भी दे दिये ।हम आभी नियोग विषयक श्लोक दे चुके हैं। पहले कुछ श्लोक नियोग को विहित बताते हैं। उसके पश्चात् कहते है कि

नान्यस्मिन् विधवा नारी नियोक्तव्या द्विजातिभिः।

अन्यस्मिन् हि नियुंजाना धर्म हन्युः सनातनम्।।

(9।64)

अथार्त द्विजों में विधवा नारी अन्य के साथ नियोग न करें । इसका क्या अर्थ ? क्या विधवा को अन्य कुल में नियोग न करके अपने कुल में ही नियोग कर लेना चाहिये ? या विधवा नियोग न करे ? सधवा विशेष अवस्था में नियोग करे ? अथवा नियोग किसी अवस्था में किसी द्विज के लिये विहित नहीं ? इन तीनों में से किस निषेध का प्रतिपादन इस श्लोक द्वारा किया गया है ? आगे चलकर यह श्लोक हैः-

नोद्वाहिकेषु म्नत्रेषु नियोगः कीत्र्यते कचित्।

न विवाहविधायुक्तं विधवावेदनं पुनः।।

(9।65)

अथार्त विवाह सम्बन्धी मंत्रो में नियोग का उल्लेख नहीं और न विवाह-विधि में विधवा के पुनः-संस्कार की आज्ञा है। इस श्लोक का पहले श्लोक से क्या सम्बन्ध ? यदि कहीं भी और किसी प्रकार भी नियोग विहित नहीं तो ऊपर कहे हुए 9।59 का क्या अर्थ होगा ? यदि कहा जाय कि इस श्लोक में केवल इतना कहा गया है कि नियोग या विधवाः-संस्कार की विधि साधारण विवाह-विधि से अन्य है तो इससे अगले श्लोकों में इसको ’पशु-धर्म“ कहकर राजा वेन के समय के अत्यचारो का उल्लेख क्यों किया गया ? इससे प्रतीत होता है कि नियोग के विरूद्ध पहले एक श्लोक मिलाया गया। फिर मिलाने वाले को ज्यों ज्यों पकडे जाने का भय हुआ त्यों त्यों वह उसके उपाय-स्वरूप अगला श्लोक जोडता गया। इसी प्रकार अन्य क्षेपक भी बढ गये। पहले एक सिद्धान्त के निषेध में एक श्लोक मिलाया गया, इसको हम आक्रमण (Attack) कह सकते है। फिर उसके विरोधियों ने मौलिक सिद्धान्त की पुष्टि में आगे एक श्लोक मिला दिया। इसको प्रत्याक्रमण (Counter-attack) कहना चाहिये। इस प्रकार आक्रमण-प्रत्याक्रमणों का ताॅता बंध गया और अनेक स्थलों पर बहुत-से क्षेपक बढ गये। कहीं ऐसा भी हुआ कि विधि या निषेध की व्याख्या करने के लिये अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा में श्लोक बढाये गये, जिनका धर्मशात्र जैसे ग्रन्थ में लिखना उचित प्रतीत नही होता। ऐसे स्थल भी कई हैं। जैसे ब्रहमविवाह की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये लिख दिया कि इस प्रकार उत्पन्न हुई सन्तान से दस पीढियाॅ अगली, दस पिछली और एक वर्तमान- इक्कीस पीढियाॅ तर जाती हैं । इसमें सन्देह नही कि ब्रहमविवाह श्रेष्ठतम है, परन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि उससे इक्कीस पीढियाॅ तर जायॅ। यदि हम मनुस्मृति को आरंभ से देखें तो प्रथमे ग्रासे हि मक्षिकापातः अर्थात् पहले ही अध्याय बूहलर की साक्षी में क्षेपक का सामना पडता है। बूहलर महोदय लिखते हैंः-

The whole first chapter must be considered as a latter addition. No Dharma-Sutra begins with a description of its own origin, much less with an account of the creation. The former, which would be absurd in a Dharma-Sutra, has been added in order to give authority to a remodeled version. The letter has been dragged in, because the myths connected with Manu presented a good opportunity ‘to show the greatness of the scope of the work’ as Medhatithi says.

(Introduction ixvi)

“पहले सम्पूर्ण अध्याय को पीछे से मिलाया हुआ समझना चाहिये । कोई धर्म सूत्र अपने निकास की कहानी से आरंभ नहीं हो और न सृष्टि-उत्पति से । पहली बात जो धर्मसूत्र के लिये सर्वथा ही अनुचित है नये रूप् को प्रमाणित सिद्ध करने के लिये दी गई हैं । दूसरी बात बलात्कार इसलिये प्रविष्ट कर दी गई कि मनु के सम्बन्ध में जो गथा प्रसिद्ध है वह ग्रन्थ के मान को बढा दे जैसे किमेघातिथि का कथन हैं।“

जो बात बूहलर महोदय ने सूत्र के विषय में लिखी हैं वह वर्तमान संहिता के विषय में भी ठीक उतरती है। पहले अध्याय के 5 वें श्लोक से आगे जो सृष्टि-उत्पत्ति का वर्णन दिया है वह “मनु-प्रजापति”अर्थात् ईश्वर और मानव-धर्मशास्त्र के लेखक में झमेला उत्पन्न करने के लिये किया गया नारायण शब्द है। मनु को न केवल मानव-धर्मशास्त्र का ही पित बताया गया है, किन्तु समस्त सृष्टि का भी और जब कवि की प्रतिभा एक बार उत्तेजित हो गई तो कविता की तरंग मे उसने सभी कुछ लिख मारा। यक्ष, ऋक्ष, पिशाच, विद्युत् मेघ, इन्द्रधनुष, किन्नर, वानर, मत्स्य, कृमि, कीट, पतंग सब उत्पन्न हो गये। इसमें सन्देह नही कि कहीं कहीं पर बडी अच्छी बातें बताई गई हैं। जैसे-

आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।

ता यदस्पायनं पूर्व तेन नारायणः स्मृतः।।

(1।10)

अर्थ -’आप‘ अर्थात् जल का नाम नारा है क्योकि वे नर अर्थात् परमात्मा के पुत्र हैं (ता नराख्यस्य परमात्मनः सूनवोऽपत्यानि-इति कुल्लूकः)। यह जल जिसके अयन है इसलिये उस इश्वर का नाम नारायण है।

परन्तु पूर्वापर सम्बन्ध कुछ नहीं । नारायण शब्द पहले किसी श्लोक में तो था नहीं । फिर इसके अर्थ बताने की क्या आवश्यकता आ पडी ? इसमे ऊपर के श्लोक मे अन्डे के तेजस्वरूप हो जाने (तदण्डमभवद्धैमं) का वर्णन था। और दो श्लोक छोड कर फिर उस अन्डे के दो भागों में विभक्त हो जाने का वर्णन है। बीच में नारायण शब्द कहाॅ से कूछ पडा, समझ में नही आता । यदि कहा जाय कि श्लोक 1।12 में आये हुए भगवान् के नारायण नाम की यवव्यापक होने के हेतु व्याख्या की गई है, तो यह भी ठीक नहीं क्योकि इसके लिये तो नारायण शब्द की विशेषता सिद्ध नहीं होती।

इसी प्रकार ’शरीर ‘ शब्द  की बडी अच्छी शरीर शब्द व्युत्पत्ति की गई हैं:-

यन् मूत्र्यवयवाः सूक्ष्मास्तस्येमान्याश्रयन्ति षट्।

तस्माच्छरीरमित्याहुस्तस्य मूत्र्तिंमनीषिणः।।

अर्थात तन्मात्रा, अहंकार आदि छः को आश्रय देने के कारण शरीर का नाम शरीर पडा। शरीर शब्द साधारणतया ‘शृ’ धातु से निकाला जाता हैं जिसके अर्थ ‘हिंसा‘ के (शृ हिसायां ) हैं। परन्तु यहाॅ शरीर और आश्रय का व्युत्पत्ति-विषयक सम्बंध हैं, इसका मिलान न्यायदर्शन के इस सूत्र से होता हैंः-

चेष्टेन्द्रियार्थश्रयः शरीरम्।

इस श्लोक और इस सूत्र में अवश्य कुछ साहश्य हैं। सूत्रकार के मस्तिष्क में अवश्य ही ’शरीर’ शब्द के साथ ’आश्रय’ शब्द का सम्बन्ध रहा होगा, ऐसा जान पडता हैं । संभव हैं, ’शृ’ धातु का ’आश्रय’ अर्थ भी रहा हो। यह व्युत्पत्ति अवश्य ही अच्छी है परन्तु प्रसंग कुछ नहीं। जैसे ’नारायण’ शब्द की व्युत्पत्ति बीच में कूद पडी इसी प्रकार ’शरीर’ शब्द की भी । न प्रसंग न क्रम ।

एक और बात है। साधारणतया यह प्रतीत होता है कि सांख्य में जो सृष्टि व्युत्पत्ति का विधान है वही यहाॅ भी बताया गया है। श्री शंकररचाय्र्य जी ने मनु को प्रमाण माना है, इसलिये कुछ भाष्यकार तो अन्त में खीचतानी से उसको वेदान्त-पकर भी सिद्ध कर देते हैं। परन्तु वास्तविकता यह है कि वह सृष्टि-उत्पत्ति का वर्णन न सांख्य-मतानुसार ही है, न डा0 झ की साक्षी वेदान्त-मतानुसार। कुछ ऐसा गोल-माल है कि विचारे भाष्यकारों की भी नाक में दम कर देता है चोटी से एडी तक यत्र करने पर भी कुछ बडा भारी समन्वय नही हो पाता। यह ऐसी लम्बी कथा है जिसके वर्णन में  पोथा बन जाता है, परन्तु हम महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ झा का निम्न उद्धरण ही पर्याप्त समझते हैं। डाक्टर महोदय ने मनुस्मृति पर टिप्पणियाॅ (Manu-Smriti-Notes) दो जिल्दों में लिखी हैं जो कलकत्ता यूनीवर्सिटी की और से छपी हैं। दूसरी जिल्द में मनुस्मृति श्लोक 14 और 15 पर उन्होंने एक लम्बा नोट लिखा है। श्लोक यह है:-

उब्दबर्हात्मनश्चैव मनः सदसदात्मकम्।

मनश्चाप्यहंकारमभिमन्तारमीश्रवरम्।।

महान्तमेव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च।

विषयाणं गृहीतृणि शनैः पन्चेन्द्रियाणि च ।।

(मनु0 1।14-15 )

डा0 झा की टिप्पणी इस प्रकार हैं-

‘’ The confusion regarding the account of the process of creation in Manu is best exemplified by these two verses. The name of the various evolutes have been so promiscuously used, thet the commentators have been led to have recourse to various forced interpretation, with a view to bring tha statement herein contained into line with their own philosophical predilections. Medha ., Kullu, Govi, and Ragh take it as describing the three prin ciples  of the Sankhya-Mahat, Ahankara and Manad ; but finding that the production of Ahankara from Manas, or of Mahat (which is what they understand by the term ‘Mahantam Atmanm’) is not in conformity with the Sankhya doctrine.- they assert that the three evolutes have been mentioned here ‘in the inverted.’ Even so, how they can get over the statement that ‘Ahankar’ was produced ‘from manas’ , (Manasah’) it is not easy to  see. Similarly the ‘atman’ from which Manas is described as being produced, Medha explains as the Sankhya ‘Pradhana’ and Kulla, as the Vedantic  ‘Supreme solu.’

Buhler remarks that according to Medha, by the particle ‘cha’ ‘the subtle elements alone are to be understood.’ This dose not represent Medha-correctly. His words being-

Inorder to escape from the above difficulties Nandan has recurse to another method of interpretation- no less forced than the former. He takes ‘Manas’as standing for mahat, and ‘Mahantam Atmanam’ as the Manas.

Not satisfied with all this, Nandan remarks that the two verses uUnu dh lk{kh are not meant to provide an accurate account of the precise order of creation ; all that is meant to be shown is that all things were producedout of parts of the body of the Creator Himself.

इस उदाहरण का भावानुवाद

मनु में सृष्टि-उत्पत्ति वर्णन सम्बन्धी गडबड का सब से अच्छा उदाहरण यह दो श्लोक (1।14-15 ) हैं। भिन्न-भिन्न विकृतियों के नाम इस झमेले से प्रयुक्त हुये हैं कि भाष्यकारों को सृष्टि-उत्पत्ति  के इस वर्णन का अपने अपने धार्मिक सिद्धान्तों के साथ समन्वय करने में बहुत बडी खीचा-तानी की आवश्यकता पडी हैं। मेघातिथि, कुल्लूक, गोविन्दराज और राघवानन्द का मत है कि इसमें सांख्य के तीन तत्वों -महत्, अहंकार और मन का वर्णन हैं । परन्तु यह देखकर कि सांख्य सिद्धान्तानुसार मन से अहंकार या महत् की उत्पत्ति नही होती (महान्तं आत्मानं से वे महत् का ही अर्थ लेते हैं ), उनको कहना पडा कि तीनों विकृतियों को ’उलटे क्रम‘ से वर्णन किया गया है। इस पर भी मन से ( मनस् ) अहंकार पैदा हुआ इस अडचन का समझना सुगम नहीं हैं। इसी प्रकार ‘आत्मा’ जिससे मन की उत्पत्ति बताई जाती है मेघातिथि के मत में सांख्य का ‘प्रधान’ और  कुल्लूक के मत में वेदान्तियों का ‘ब्रह्म’ है। बूहलर का कथ हैं  कि मेघतिथि के मतानुसार च ‘से’ सूक्ष्म तत्व ही समझने चाहिये। परन्तु मेधातिथि के कथन का यह शुद्ध अनुवाद नहीं है। मेधातिथि के शब्द यह हैं:- ‘ चशब्देन विषयांश्च शब्दस्पर्श रूपरसगन्धान् पृथिव्ययदिनि च’।

इन कठिनाइयों से बचने के निमित्त नन्दन दूसरी ही रीति से व्याख्या करता है जो कुछ कम खीचा-तानी नहीं है। वह कहता है कि ’मन‘ का अर्थ है ’महत्‘ और ‘महत् आत्मान’ का मन।

इससे भी सन्तुष्ट न होकर नन्दन कहता है कि इन दो श्लोकों का यह उदेश्य नहीं है कि सृष्टि-उत्पित्त का ठीक-ठीक क्रम शुद्ध रीति से वर्णन किया जाय। इनका उद्देश्य केवल इतना है कि सब पदार्थ ब्रह्मा के शरीर के अवयवों से उत्पन्न हुए हैं। हमने यह लम्बा उद्धरण इसलिये दिया है कि पाठकगण सुष्टि-क्रम के इस मनोरंजक परन्तु अशुद्धि-पूर्ण वर्णन को समझ  सके और बूहलर के इस कथन की सत्यता को समझ सकें कि इतना भाग पीछे से मिलाया गया है। अपके दार्शनिक सिद्धान्त कुछ भी क्यो न हों, आप इस सृष्टि-उत्पत्ति वर्णन का ओर-छोर पाने में समर्थ न होगें। यदि नन्दन का यह कहना सत्य है कि इन श्लोकों का मुख्य उदे्श्य केवल ब्रह्मा के शरीर से सब पदार्थो की उत्पत्ति दिखाना है तो यहं उदे्श्य दो शब्दो या आधे श्लोक मे ही पूरा हो सकता था । इतने श्लोक बढाकर स्मृति का आकार व्यर्थ में ही क्यो बढा दिया गया। यदि पाठकगण इन श्लोकों को बार बार पढेगे और पूर्वापर प्रसंग मिलाने की चेष्टा करेंगे तो उनको अवश्य ही भूल-भुलइयों में होकर गुजरना पडेगा।

इसी अध्याय में एक और स्थल है जो है तो उत्तम परन्तु क्षेपक प्रतीत होता हैं। श्लोक 61 से मन्वन्तर लेकर 73 तक मन्वन्तरों, युगो, संध्या तथा संध्यांशों का वर्णन है जो सृष्टि-उत्पत्तिकाल पर अच्छा प्रकाश डालता है। परन्तु जिस स्थल पर यह वर्णन है वहाॅ काल की संख्या का कुछ भी प्रसंग नही है । 61 वाॅ श्लोक यह है।

स्वायंभुवस्यास्य मनोः षड्वंश्या मनवोऽपरे।

सृष्टवन्तः प्रजाः स्वा स्वा महात्मानो महौजसः।।

अर्थात् इस स्वायंभुव मनु के छः और वंशज मनु हुए जिन्होने अपनी अपनी प्रजायें उत्पन्न की। इस सिद्धान्त की सत्यता में बडा सन्देह है। मन्वन्तर का यह अर्थ नही कि प्रत्येक मनु के आरम्भ मे सृष्टि उत्पन्न हो और अन्त में प्रलय हो जाय और दूसरा मनु अपनी प्रजा फिर से उत्पन्न करे। जहाॅ सृष्टि के काल तथा ब्रह्म-दिन औार ब्रह्म-रात्रि का वर्णन है वहाँ मन्वन्तर  ब्रह्म-दिन अर्थात् सृष्टि-काल के ही भिन्न-भिन्न भाग है आगे कहा भी है:-

ब्रह्मस्य तु क्षपाहस्य यत् प्रमाणं समासतः।

एकैकशो युगानां तु क्रमशस्तन् निबोघृत।।

(मनु0 1।68)

जिस प्रकार मनु शब्द कही मनुष्य का वाचक और कही ईश्वर का वाचक है इसी प्रकार ‘मन्वन्तर‘ शब्द में ‘मनु’ काल की एक  विशेष इकाई का वचक है, न कि पुरूष-विशेष का । काल की इकाई को मनुष्य समझकर उसके वंशज नियत करना और उन वंशजों के द्वारा सृष्टि उत्पन्न कराना सर्वथा भ्रम-मूलक कल्पना है। मनु के वंशज मनुओं का अर्थ ? स्वायंभुव मन्वन्तर के मनु का स्वारोचिष मन्वन्तर वंश कैसे हो गया ? क्या यह शारीरिक वंश परम्परा थी ? क्या यह दूसरा मनु पुत्र, प्रपौत्र के सिलसिले से पहले मनु का वंशज था ? यदि था तो क्या दूसरे मन्वन्तर के आरंभ में सब मर गये, केवल एक ही मनु बचा जिसने प्रजा उत्पन्न की, और इस प्रकार अगले मन्वन्तरों में भी सब मरते गये, केवल एक मनु बचता गया ? यदि कहा जाय कि एक मन्वन्तर के अन्त में प्रलय हो जाती है और दूसरे मन्वन्तर के आदि में फिर सृष्टि उत्पन्न होती है, तो फिर ब्रह्मदिन का क्या अर्थ होगा क्योंकि प्रत्येक ब्रह्मदिन में 14 मन्वन्तर होने चाहिये। वस्तुतः बात यह है कि ’मनु’ शब्द के भिन्न भिन्न अर्थो में गडबडझाला उत्पन्न करके मनु द्वारा प्रजा उत्पन्न करने की बात गढ ली गई। श्लोक 1।62 में सात मन्वन्तरों के नाम गिनाये गये है:-

स्वारोचिषश्चोत्तमश्च तामसो रैवतस्तथा।

चाक्षुषश्च महातेजा विवस्वत्सुत एव च ।।

अर्थात स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्त और सबसे पहला स्वायंभुव जिसका वर्णन पहले आ चुका है, यहाँ प्रश्न होता है कि अगले सात मन्वन्तरों का उल्लेख क्यों नहीं किया गया। यहाॅ कहा जा सकता है कि मनुस्मृति में केवल भूतकाल का उल्लेख है भविष्य का नही । आजकल वैवस्स्वत मन्वन्तर है इसलिये आदि से लेकर आज तक के मन्वन्तर गिना दिये। परन्तु यह कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं है। यहाॅ पुराना इतिहास लिखना नहीं था किन्तु काल के विभाग देने थे। ऐसा करने के लिये अगले युगों के नाम भी आवश्यक थे। यदि कहा जाय कि इतिहात-मात्र दिया गया है तो भी ठीक नहीं । क्योकि यदि वर्तमान मन्वन्तर अर्थात वैवग्वत सर्वथा नया है और उसमें प्रजा नये सिरे से उत्पन्न की गई है तो यह मनुस्मृति वैवस्वत मनु की बनाई होनी चाहिये न कि भ्वायंभुव मनु की। ऐसा नही माना जाता । श्लोक 1।64 में काल का परिमाण बताने के लिये छोटी से छोटी इकाई अर्थात् ’निमेष‘ से आरंभ किया जाता है और अन्त को ‘युग’ तक का वर्णन आता है। इस क्रमशः वर्णन के पहले यकाग्रक मन्वन्तरों का नाम कहाॅ से कूद पडा। श्लोक 1।73 में समय का विभाग बताकर फिर आकाश वायु अग्नि आदि की उत्पत्ति का वर्णन आरंभ हो जाता है। श्लोक 1।81 से 1।86 मे समय का विभाग बताकर फिर आकाश, वायु, अग्नि, आदि की उत्पत्ति का वर्णन आरंभ हो जाता है। श्लोक 1।81 से 1।86 तक सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग की विशेषतायें बताई गई है जो सर्वथा कल्पित और भ्रममूलक है । कलियु्रग को हास-युग बताकर एक ऐसी शिक्षा का बीज बो दिया गया है जिसने भारत निवासियो को रसातल को पहुॅचा दिया । प्रत्येक भारतवासी के मस्तिष्क में यह भ्रम बैठ गया है कि कलियुग में उन्नति हो ही नही सकती, धार्मिक जीवन बन ही नही सकता । यह तो काल का प्रभाव है, इसमें उनका दोष नहीं । यह प्रवृत्ति कितनी भयानक है इस पर जितना कहा जाय थोडा है। काल के विभार्गा का धर्म से क्या सम्बन्ध ? बहुत – से लोग कहा करते है कि जैसे शिशिर ऋतु में लोग रजाई ओढते है और ग्रीष्म काल मे पंखा चलाते हैं, इसी प्रकार सतयुग मे सत्य और धर्म की प्रधानता होती है और कलियुग में उनका हृास हो जाता है। परन्तु यह लोग तनिक नहीं सोचते कि धर्म के लक्षण तो सार्वदेशिक और सार्वकालिक होते हैं। यदि काल धर्म और अधर्म के तल का भी निश्चित किया करे तो फिर मनुष्य क्या करे ? और किस प्रकार उसकी कर्म सम्बन्धी स्वतन्त्रता रह सके। अस्तु। यह तो रही सिद्धान्त की बात, परन्तु जिस क्रम-भंग का हमने ऊपर संकेत किया है उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह सब मिलावट है और कई बार की मिलावट है जिसका ठीक ठीक अनुसन्धान कठिन काम है।

मानव धर्म सूत्र और मनुस्मृति का सम्बन्ध: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यहाँ  यह प्रश्न रह जाता हैं कि क्या मनु के उपदेश आरंभ से ही इन रूप में थे ? इस विषय में भिन्न मानव-धर्म सूत्र भिन्न कल्पनायें की गई हैं। कुछ लोगों का और मनुस्मृति मत है कि पहले एक ग्रन्थ था जिसका नाम का सम्बन्ध था मानव-धर्म-सूत्र। यह सूत्र रूप में था । पीछे से इसको श्लोकों का रूप दिया गया और इस रूप् के देने वाले भृगु ऋषि है। हमने उपर महाभारत शान्तिपर्व के कुछ रूलोक उद्घृत किये हैं जिनमें मनुस्मृति को एक लाख रूलोकों का बताया गया है। इसका उल्लेख करते हुए काणो महोदय (P.V.Kane) लिखते हैं कि शान्तिपर्व अध्याय 59,श्लोक 80-85 में मनु का नाम नहीं है। उसमें धर्म, अर्थ और काम पर ब्रहम्मा द्वारा एक लाख अध्याय का ग्रन्थ बनायं जाने का उल्लेख है जिनको विशालात्य, इन्द्र बाहुदन्तक, बृहस्पति और काव्य ने 10000,5000,3000,और 1000 अध्यायों का कर दिया था। नारदस्मृति की भूमिका में लिखा हैं कि मनु ने एक धर्मशास्त्र बनाया था जिसमें एक लाख श्लोक 1080 अध्याय, तथा 24 प्रकरण थे नारद ने इसको 12000 श्लोकों का करके मारकण्डेय को सिखाया। मारकण्डेय ने इनके 8000 कर दिये। सुमति भार्गव ने फिर काट छाॅट करके इनके 4000 श्लोक कर दिये । इसके पश्चात् नारदस्मृति पहला यह श्लोक देती हैंः-

तत्रायमाद्यः श्लोकः । आसीदिदं तमोभूतं न प्राज्ञायत किंचन। ततः स्वयंभूर्भगवान् प्रादुरासीच् चतुर्मुखः।।

काणे महोदय का विचार है कि यह सव कथन माननीय नहीं हैं। नारदस्मृति आदि पुस्तकों का माना बढाने के लिये यह सब लिख दिये गये हैं। इसमें कुछ आश्चर्य नही हैं। क्योंकि एक लाख श्लोकों की स्मृति का इस प्रकार 4000 श्लोकों तक आना  और फिर उससे भी घटकर 3000 के लगभग हो जाना सन्देह उत्पन्न किये बिना नहीं रह सकता । हेमाद्रि, तथा संस्कारमयूख आदि गन्थों में भविष्य पुराणा का यह उद्धरण मिलता हैंः-

भार्गवीया नारदीया च बार्हस्पत्याडिग्रस्यपि।

स्वायंभुवस्य शास्त्रस्य चतस्त्रः संहिता मताः।।

अर्थात् मनुस्मृति की चार संहितायें प्रसिद्ध थीं। एक भृगु- संहिता, दूसरी नारद्संहिता, तीसरी बृहस्पतिसंहिता और चौथी आंगिरस-संहिता। पता नहीं कि यह कौनसी संहितायें हैं क्या यही भृगुसंहिता हमारी वर्तमान मनुस्मृति है जैसा कि प्रसिद्ध है? इसके विरूद्ध काणे महोदय ने चार सन्देहोत्पादक बातें कहीं हैंः-

(1) विश्वरूप् ने या याज्ञवल्क्य 2। 73,74,83,85 पर भाष्य करते हुए वर्तमान मनुस्मृति के 8। 68,70,71,105,106,340, श्लोक उद्धृत किये हैं, वे स्वयंभू-कृत बनाये गये है।

(2) परन्तु याज्ञवल्क्य 1। 187,252 के भाष्य में जो श्लोक भृगु के नाम से उद्घृत हैं वे  आजलक मनु में पायें नहीं जाते।

(3) अपसर्क ने जो श्लोक भृगु के नाम से उद्घृत किये हैं उनका मनुस्मृति में पता तक नहीं ।

(4) इन्हीं अपरार्क ने भृगु के नाम से यह श्लोक दिया है जिसमें मनु का नाम हैंः-

येषु पापेषु दिव्यानि प्रतिशुद्धानि यत्नतः।

करयेत्सज्जनैस्तानि नाभिशस्तं त्यजेन् मनुः।।

ठसमे पाया जाता है कि संभव है, कोई और भृगुसंहिता भी रही हो जिसमें से विश्वरूप् और अपरार्क ने अपने श्लोक लिये हों।

चहे इस मनुस्मृति को भृगुसंहिता कहा जाय या न, मनु स्मृति के प्राचिनत्व तथा गौरव में इससे कुछ भेद नहीं आता। हम माने लेते हैं कि यह भृगुसंहिता है। यद्यपि केवल मनुसंहिता कहना अधिक उपयुक्त हैं।

अब प्रश्न यह है, कि मानव-धर्म-सूत्र क्या चीज थे और कया उन्हीं का श्लोकरूप् वर्तमान मनुस्मृति है ? इसके लिये दो कल्पनाये की गई हैंः-

(1) पहले तो मान लिया गया है कि पहले ग्रन्थ सूत्र रूप् में हुए। फिर श्लोक रूप में।

(2) दूसरे मनुस्मृति जिस अनुष्ट्भ् छनद में है वह नया छन्द है।

हम तो इन दोनों युत्कियों में विशेष सार नहीं देखते । यह मान लेना कि सूत्र-युग से पहले श्लोक नहीं थे अत्यन्त कठिन है। योगेन्द्रचन्द्र घोष ने अपने Principles of Hindu Low Vol. I मे लिखा है:-

The old Dharm Shastras were composed in a form which was capable of being sung and were committed to memory……………………..in the form of Gathas, for we find such gathas mentioned in the Manu Sanhita and quoted in other Dharm Shastras.

अर्थात पुराना धर्मशात्र इस प्रकार बनाया गया था कि गाया जा सके और रटा जा सके।अर्थात् गाथा के रूप  में क्योंकि मनुसंहिता तथा अन्य धर्मशात्रों में इन गाथाओं का उल्लेख है।

हमको यह बात अधिक ठीक जॅंचती है। जिन विचारों को दर्शनकार तथा व्याकरणकारों ने सूत्रों में लिखा वह अवश्य ही सूत्र से पूर्व दूसरे रूप  में रहें होगे। सूत्र-युग वैदिक साहित्य का सबसे प्रथम युग नहीं है और न यह कहा जा सकता है कि सूत्र- युग एक निश्चित युग है जिसमें सिवाय सूत्र के कुछ नही लिखा गया या अन्य युगों में सूत्र नही लिख गये। आय्य जाति जैसी प्राचीन जाति के जीवन में अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। साहित्य की अनेक शैलियाॅ मरती और पुनर्जीवित होती रही हैं। आधुनिक यूरोपियन विद्वान् पहले तो कुछ ऐतिहासिक कल्पनायें बना लेते हैं और उन्हीं कल्पनाओं के आधार पर वैदिक ग्रन्थों के पौर्वापय पर विचार करते हैं। इससे अनेक भ्रम उत्पन्न हों जाते है। जिन मानव-धर्मसूत्रों को मनुस्मृति का आधार माना जाता हैं । उनकी प्रति भी तो हमारे समक्ष नहीं है जिनसे मिलान करके हम किसी निश्चय पर पहुॅच सकें । वाशिष्ठ-धर्मसुत्रों में उसके कुछ उद्धरण मिलते हैं जो गद्य-पद्य दोनो में मिले जुले है। मानव-गृहय-सूत्र इस समय भी प्राप्त है। इसका एक हिन्दी अनुवाद पं0 भीमसेन शर्मा ने इटावा से निकाला था। उसमें और मनुस्मृति में तो कोई समानता है नहीं। इसलिये उससे तो कुछ सहायता मिल नहीं सकती।

रही अनुष्टुभ् छन्द की बात । यह भी एक अटकल है।  अनुष्टुभ् छन्द की  उत्पत्ति वाल्मीकि से मानी जाती है। कहा जाता है कि सब से पहले वाल्मीकि ने यह श्लोक बनाया था ।

मा निषाद प्रतिष्ठाः त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

यत् क्रौन्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।

इसलिये उनको आदि कवि कहते है, परन्तु इसके लिये कोई अकाट्य प्रमाण नहीं है। अनुष्टुप् छन्द वेदों में अनेक स्थान पर आया है और यजुर्वेद अध्याय 40 का तीसरा मंत्र तो लौकिक अनुष्ट्भ् से कुछ भी भिन्न नहीं है। मैक्समूलर की कल्पना है कि लौकिक अनूष्टुभ् छन्द में बडे ग्रन्थ लिखने की प्रथा बहुत पीछे से चली। रामायण, महाभारत, मनुस्मृति तथा अन्य कई स्मृतियाॅ इसी छन्द में लिखी गई हैं। परन्तु इससे मनुस्मृति के युग का पता लगाना अटकल ही है। मैक्समूलर की कल्पना भी कल्पना-मात्र है। वह मान लेते है कि रामायण-महाभारत

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता।

तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।

श्लोके पष्ठं गुरू ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम्।

द्विचतुः पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः।।

तथा मनुस्मृति आदि सबएक युग के है कालिदास ने रघुवंश का आरम्भ अनुष्टुभ् से किया है। संभव है, आजकल कोई कवि अनुष्टुप् में कि मनुस्मृति रामायण, महाभारत, या रघुवंश से पीछे की चीज है। सम्भव है कि जो निषाद सम्बन्धी लोकोक्ति वाल्मीकि के विषय में प्रचलित है उसी के आधार पर मैक्समूलर ने यह कल्पना करली हो और अन्य संस्कृतज्ञों ने उसका अनुकरण किया हो।

अब हम ऐतिहासिक भक्तमेलों को विद्वान् अनुसन्धान- कर्ताओं के लिये छोडते हैं। यहाॅ हम केवल अपनी धारणा प्रकट करते है। वह यह है कि:-

(1) मनु ने उपदेश पहले किसी गाथा रूप  में थे।

(2) फिर मानव-धर्म-सूत्रों के रूप में आये।

(3) फिर वर्तमान मनुस्मृति के रूप  में परिवर्तन हो गये ।

(4) यह मनुस्मृति भी बहुत ही प्राचीन है।

(5) पीछे से इस मनुस्मृति में बहुत से क्षेपक बढा दिये गये।

प्रचलित मनुस्मृति का कर्ता : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

अब मनु के विषय में इतना कहकर मनुस्मृति पर आना चाहिए । प्रश्न यह है कि जो मनु इतना प्रसिद्ध है क्या प्रचलित मनुस्मृति भी उसी की बनाई है भी उसी की बनाई है यदि नही तो मनु के विषय मे इतना राग अलापने का क्या अर्थ हमारा ऐसा मत है कि वर्तमान मनुस्मृति में मनु के विचार है मनु के शब्द नही । और मानते भी सब ऐसा ही है । जिसको लोग मनुस्मृति कहते उसका नाम है भृगुसंहिता । कहते है कि भृगु और उनके शिष्यो ने इसको श्लोक बद्ध किया मनुस्मृति में भी लिखा है:-

एतद वोअयं भृगुः शास्त्रं श्रावयिष्यत्यशेषतः ।

एतद्धि मताअधिजरे सर्वषोअखिन मुनि ।।,

ततस्तथा स तनेक्तो महर्षिमनुना भृगुः।।

तानब्रवीहषीन सर्वान प्रीतात्मा श्रयतामिति

(मनु0 1।59 60)

इन श्लोको के आगे पीछे के जो श्लोक है उनका मिलान से यह निश्चय करना कठिन है कि यह संहिता भृगु की ही बनाई हुई है । परन्तु एक बात निश्चित है अर्थात मनुस्मुति आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको  आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको भृगु सहिता कहते है यह भी कोई नवीन पुस्तक नही है  ।

पातजलि ने अपने महाभाष्य मे एाणिनि के

एक: पूर्वपरया (अष्टाघ्यायी 6।1।84)

सूत्र पर भाष्य करते हुए एक श्लोक दिया है:-

ऊध्र्व प्राणा व्युत्का्रमन्तियून: स्थविर आयति।

प्रत्युत्धनाभिवादाभ्यां पुनस्नान प्रतिपधते ।।

यह श्लोक ज्यों का त्यो मनुस्मृति के दूसरे अघ्याय (2।120) में मिलता है । यघपि महाभाष्य मे मनु का नाम नही है परन्तु प्रतीत तो ऐसा ही होता है कि यह मनुस्मृति का ही उद्धरण है ।

किरातार्जुनीय 1।9 मे मानवो शब्द मनुस्मृति प्रतिपादित धर्म क लिए ही आया । बहलर महोदय ने अपनी पुस्तक Laws of Manu को भूमिका में लिखा है कि

Land grants foud in commencement of the vallabhi inscriptions of Dhruvaena I Guhasena and Dkarasena ii the oldest of them is dated Samvat 207 i.e not later than 526 A.D There it is said in tha description of Dronaasinhs the first Maharaja of Vallabhi and the Im mediate predecessor of Dharuvasena I That Like Dharmaraj (Yudhisthra )

He observed as his law the rules and ordinances taught by manu and othe (sages)

(page cxiv)

अर्थात बल्लमी लेख प्रस्तरों में जो ध्रवसेन प्रथम गहूसेन तथा द्वितीय धारसेन से सम्बन्ध रखते है और जिनमे सब से प्राचीन 207 सम्वत या 526 ई0 के पश्चात का नही है । बल्लभीवंश के प्रथम महाराज दो्रणसिंह के विषय में जो ध्रवसेन प्रथम से पूर्व राजगदी पर बैठा था लिखा है कि वह धर्मराज (युधिष्ठिर) के समान मनु आदि के उपदेशो पर चलता था (मन्वादि प्रणीत विधि विधान कर्मा )

जितनी स्मृतियाॅ आजकल मिलती है उनमे मनुस्मृति सब से प्राचीन है । विश्वरूप ने जो याज्ञवल्क्य मनुस्मृति की प्राचीनता स्मृति पर टीका लिखी है उसमे दो सौ के लगभग उन्ही श्लोको का उद्धत किया है जो इस समय मनुस्मृति में मिलते है । श्री शंकराचार्य ने अपने वेदान्त माष्य में मनु स्मृति च सूत्र की व्याख्या मे वे लिखते है:-

 

मनुव्यासप्रभृतयः शिष्टा

अर्थात मनु व्यास आदि शिष्ट पुरूषों के कथन स्मृति के अन्तर्गत आते है । कुमारिल की तंत्रवातिक तो मनु के आधार पर ही है । कुमारिल ने मनुस्मृति को न केवल सब स्मृतियो से ही किन्तु गोतम सूत्रो से भी अधिक विश्वसनीय और माननीय स्वीकार किया है । कुल्लूकभटट ने मन्वर्थमुक्तावली में मनुस्मृति के पहले अघ्याय के पहले श्लोक की व्याख्या करते हुए बृहस्पति के यह श्लोक दिये है:-

वेदार्थो पनिबद्धत्वात प्राधान्यं हि मनोः स्मृतम ।

मन्वर्थ विपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते ।।

तावच्छास्त्राणि शाभन्ते तर्कव्याकरणानि च ।

धर्मार्थमोक्षोपदेष्टा मनुर्यावत्र दृश्यते ।।

अर्थात मनुस्मृति का प्राघान्य इसलिये है कि वह वेदोक्त धर्म का प्रतिपादन करती है। जो स्मृति मनु के विपरीत है वह माननीय नही हो सकती । तर्क व्याकरणा आदि शास्त्रो की शोभा तभी तक है जब तक धर्म अर्थ और मोक्ष मे उपदेष्टा मनु पर दृष्टि नही जाती

अपरार्क ने याज्ञवल्क्य स्मृति के श्लोक 2।21 की व्याख्या करते हुए भी पहले श्लोक का उद्धरण किया है । अश्वघोष की वका्रसृची में मानवधर्म से कई श्लोक लिए गये है जो वर्तमान मनुस्मृति के ही है । कुछ ऐसे भी है जो इसमे नही मिलते ।

बाल्मीकीय रामायण किष्किन्धा काण्ड 18।30 32 में मनुस्मृति के दो निम्न श्लोको का उल्लेख है जो आठवे अध्याय मे है:-

राजभिः कृतदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः ।

निमलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकतिनो यथा ।।,

सासनाद्वा विमोचक्षाद वा स्तेनः स्नेयादविमुच्यते

अशासित्वा तु त राजा स्तेतस्याप्रोति किल्विषम।

पी0 वी0 काने ने अपनी पुस्तक History of Dharma-shastra  मे लिखा है कि मनुस्मृति का भारतवर्ष के बाहर प्रभाव भारत के बाहर भी पाया जाता है।

वे लिखते है:-

the infuence of the Manusmriti spread evan beyond the confines of india. In a Bergaigun Inscriptions Sanscrites de campaet du Cambodge (p.423) we have an inscriptions in which occur verses one of which is identical with Manu (11 136) and the other is a summary of manu (111. 77-80) The Bur

Mese are gouerned in modern times by the dhamma that; withch are based on Manu. Vide Dr. Ferchhammee’s Essay on Sources and Development of Burmese Law (1884.-goon). Dr. E. C. G. jonker (Leyden 1885) wrote a dissertation on an old Javanese law- book compared with Indian sources of low like the Manusmriti (which is still used as a lawbook in the island of Bali).

अर्थात् ब्रहम्देश और बाली द्वीप के धर्मशास्त्र मनुस्मृति से बहुत कुछ साहस्य रखते हैं। एक प्रस्तर लेख में दी श्लोक दिये हैं जिसमें से एक तो ज्या कात्यों मनुस्मृति का हैं, दूसरा मनु के  एक श्लोक का सार मात्र हैं। वे श्लोक ये हैः-

आचार्यवद् गृहस्थोपि माननीयो बहुश्रुतः ।

अभ्यागतगुणानां च पराविद्येति मानवम्ं ।।

वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पंचमी।

एतानि मान्य स्थानानि गरीयो यद् यदुत्तरम्।।

ब्रहम्देश तथा भारत के निकटस्थ टापुओं में भारत की सभ्यता प्रचलित थी अतः इनकी पुस्तकों में मनुस्मृति का साहश्य मिलना आश्यर्चयजनक नहीं हैं। परन्तु इतना अवश्य सिद्ध होता हैं कि मनुस्मृति उस समय भी थी जब इन टापुओं का भारतवर्ष से घनिष्ट सम्बन्ध था

 

डॉ अम्बेडकर द्वारा मनुस्मृति एवं आर्य (हिन्दू) साहित्य के विरोध के कारण और उनकी समीक्षा: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

डॉ. अम्बेडकर के समग्र वाङ्मय को पढ़ने के उपरान्त यह निष्कर्ष सामने आता है कि डॉ0 अम्बेडकर आरभ में प्राचीन भारतीय साहित्य के शोधात्मक और समीक्षात्मक ध्येय को लेकर चले थे और वे प्राचीन समाजव्यवस्था की मौलिकता को, विशेषतः उस अवस्था में शूद्रों की वास्तविक स्थिति को पाठकों के समक्ष रखकर जातिवादी समाज में विचार-परिवर्तन करना चाहते थे। यह उनका पहला चरण था। फिर दूसरा चरण शुरू हुआ जिसमें अकस्मात् उनका ध्येय घोर विरोधी स्वर में परिवर्तित हो गया और वे उसी को अपना पक्ष मानकर केवल खण्डनात्मक व प्रतिशोधात्मक लेखन करने लगे। इसके कुछ मनोवैज्ञानिक एवं परिस्थितिजन्य कारण रहे हैं।

डॉ0 भीमराव रामजी अम्बेडकर का जब जन्म हुआ, उस समय पौराणिक हिन्दू समुदाय जन्मना जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूआछूत, सामाजिक भेदभाव जैसी कुप्रथाओं से ग्रस्त था। उसके कारण उन्होंने अपने जीवन में अनेक भेदभावपूर्ण असमानताओं, अन्यायों, उपेक्षाओं और यातनाओं को भोगा। यह स्वाभाविक ही है कि प्रत्येक जागरूक एवं स्वाभिमानी व्यक्ति के मन में ऐसे व्यवहार के प्रति आक्र ोश जन्म लेता है। डॉ0 अम्बेडकर के मन में ऐसे व्यवहार की प्रतिक्रिया में आक्रोश का एक स्थायी भाव बन गया था। उन्होंने जिन-जिन कारणों को इस भेदभावपूर्ण व्यवस्था का उत्तरदायी समझा, उनके प्रति उनका आक्रोश विभिन्न रूपों में प्रकट हुआ। उनका यह आक्रोश जीवनभर बना रहा और अवसर पाकर प्रकट होता रहा। दलितों के साथ गत दो-तीन सहस्रादियों में जो व्यवहार हुआ वह सर्वथा अमानवीय और निन्दनीय था। अब उसमें कठोरता से सुधार किया जाना चाहिए। किन्तु विगत व्यवहार के प्रति प्रतिशोधात्मक भावना रखकर वैसा व्यवहार करना भी उतना ही अनुचित है। प्रतिशोधात्मक भावना से सुधार की आशा रखना व्यर्थ है जबकि वर्गविद्वेष की आशंका का पनपना निश्चित है। यदि यह स्थिति बनेगी तो वह निश्चित रूप से समाज और राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध होगी। अतीत के व्यवहार का प्रतिशोध लेना वर्तमान में कभी संभव नहीं हो सकता, हाँ, स्थिति में सुधार अवश्य संभव हो सकता है।

डॉ0 अम्बेडकर जैसे सुशिक्षित लेखकाी आक्रोश के इतने वशीभूत हो गये कि वे प्रतिशोधात्मक प्रतिक्रिया से बच नहीं सके। आगे उन्हीं कारणों पर विचार किया जा रहा है।

  1. सत्य के शोध का दावा : केवल दिाावा

डॉ0 अम्बेडकर के आरभिक लेखन में यह दावा प्राप्त होता है कि वे प्राचीन भारतीय साहित्य का अध्ययन-मनन-अन्वेषण करके उसमें वर्णित समाजव्यवस्था के मौलिक स्वरूप को और शूद्रों की प्राचीन स्थिति को पाठकों के सामने रखकर यह बताना चाहते हैं कि वर्तमान में जो व्यवस्था और व्यवहार प्रचलित है यह एक विकृत रूप है और उसको सुधारा जाना जरूरी है। डॉ0 अम्बेडकर अपने ध्येय को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं-

(क) ‘‘मैंने एक इतिहासवेत्ता की हैसियत से अनुसन्धान किया है। इतिहासवेत्ता धार्मिक पुस्तकों और अन्य पुस्तकों में कोई भेद नहीं मानते। उनका काम तो सत्य की खोज है।’’

‘‘इतिहासवेत्ता का तरीका दूसरा है। इतिहासवेत्ता को सही, निष्पक्ष, निष्काम, बेधड़क और सत्य का प्रेमी होना चाहिए। उसको निष्पक्षभाव से छोटी से छोटी चीज की जांच करनी चाहिए। अपने अनुसन्धान में मैंने अपने को निष्पक्ष रखा है।’’(शूद्रों की खोज, प्राक्क्थन, पृ0 5-6, समता प्रकाशन नागपुर)

(ख) ‘‘इस आलेख का प्राथमिक उद्देश्य यह बताना है कि अनुसन्धान का सही मार्ग कौन-सा है, ताकि एक सत्य उजागर हो। हमें इस विषय के विश्लेषण में पक्षपातरहित रहना है। भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए, बल्कि इस विषय पर वैज्ञानिक और निष्पक्ष रूप से विचार किया जाए।’’ (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 1, भारत में जातिप्रथा, पृ0 36)

    समीक्षा-सत्य के अनुसन्धान का यह दावा कुछ सीमा तक ‘हू वर द शूद्राज्?’ (शूद्रों की खोज) नामक पुस्तक में सही माना जा सकता है। उसके बाद रचे गये साहित्य में यह दावा कहीं सत्य नहीं दिखायी पड़ता। पाठक देख रहे हैं कि डॉ0 अम्बेडकर का प्रायः सारा लेखन भावनात्मक विरोध पर टिका हुआ है। वह भी निष्पक्ष न होकर एकपक्षीय है। उसमें ‘विरोध के लिए विरोध’ का लक्ष्य स्पष्ट झलकता है। डॉ0 साहब सत्य-अनुसन्धान और निष्पक्ष विचार की प्रतिज्ञा को नहीं निभा सके। सत्य-अनुसन्धान का लक्ष्य राह में ही कहीं भटक गया? इसकी आड़ में उन्होंने केवल विरोध ही विरोध किया है। यह दावा केवल दिखावा बन कर रह गया है।

  1. दलित राजनीति के लिए मनु और मनुस्मृति का अन्धविरोध

ऐसा प्रतीत होता है कि डॉ0 अम्बेडकर के आक्रोशपूर्ण मानस को केवल शोधात्मक समालोचना से सन्तोष नहीं हुआ। उन्होंने स्वयं को दलितों के संरक्षक और सामाजिक नेता के रूप में स्थापित करना आरभ किया। तब वे शोधात्मक समीक्षा को छोड़कर विरोधात्मक आलोचना पर उतर आये। इस दूसरे स्तर पराी वे वैदिक साहित्य तथा वैदिक वर्णव्यवस्था को अपेक्षाकृत उपयोगी एवं तर्कसमत मानते रहे। जातिवाद और उसके उतरदायी घटकों का, विशेषतः मनु और मनुस्मृति का उन्होंने एकपक्षीय विरोध करना आरभ कर दिया। ब्राह्मणवाद पर उन्होंने तीखे प्रहार करने शुरू किये और ब्राह्मणवाद को ही जातिवाद का जनक एवं उत्तरदायी माना। मनुस्मृति को डॉ. अम्बेडकर ने केवल इसी पहलू से देखा और समझा था, इस कारण मनु और मनुस्मृति के अन्धविरोध को उन्होंने अपना लक्ष्य बना लिया। वे स्वयं अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-

(क) ‘‘मुझ पर मनु का भूत सवार है और मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि मैं उसे उतार सकूं। वह शैतान की तरह जिन्दा है।’’ (डॉ0 अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड 1, पृ0 29)

(ख) ‘‘भारत के विधिनिर्माता के रूप में यदि मनु का कोई अस्तित्व रहा है, तो वह एक ढीठ व्यक्ति रहा होगा।……..यदि वह क्रूर न होता, जिसने सारी प्रजा को दास बना डाला, तो ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वह अपना आधिपत्य जमाने के लिए इतने अन्यायपूर्ण विधान की संरचना करता, जो उसकी ‘व्यवस्था’ में साफ झलकता है।’’ (अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय, खंड 1, पृ0 29)

(ग) ‘‘सामाजिक अधिकारों के सबन्ध में मनु के कानून से ज्यादा बदनाम और कोई विधि-संहिता नहीं है।’’ (वही खंड 1, पृ0 85 तथा वही, खंड 6, पृ0 93)

(घ) ‘‘मनु एक ऐसा भाड़े का दलाल था, जो एक विशेष समुदाय में जन्मे लोगों के स्वार्थ की रक्षा करने के लिए रखा गया था।’’ (वही, खंड 6, पृ0 100)

(ङ) ‘‘नीत्शे की तुलना में मनु के महामानव का दर्शन अधिक नीच तथा भ्रष्ट है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 101)

पाठक अब इन कथनों को ध्यान से पढें

(च) ‘‘एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूं कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया और न वह ऐसा कर सकता था। जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी। वह तो उसका पोषक था।’’ (वही, खंड 1, पृ0 29)

(छ) ‘‘कदाचित् मनु जाति के निर्माण के लिए जिमेदार न हो, परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश दिया है।…….वर्णव्यवस्था जाति की जननी है और इस अर्थ में मनु जातिव्यवस्था का जनक न भी हो परन्तु उसके पूर्वज होने का उस पर निश्चित ही आरोप लागया जा सकता है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 43)

(ज) ‘‘तर्क में यह सिद्धान्त है कि ब्राह्मणों ने जाति-संरचना की।’’ (वही, खंड 1, पृ0 29)

(झ) ‘‘जातिव्यवस्था का जनक होने के कारण विभिन्न जातियों की उत्पत्ति के लिए मनु को स्पष्टीकरण देना होगा।’’ (वही, खंड 7, पृ0 57)

(ञ) ‘‘मनु ने जाति का सिद्धान्त निर्धारित किया है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 228)

    समीक्षा-उक्त वाक्यों में हृदय का सच फूट पड़ा है। वस्तुतः डॉ0 अम्बेडकर पर मनु का भूत सवार हो चुका था। भूत सवार होने पर मनुष्य की असामान्य मनःस्थिति, असंतुलित विचार, अनिश्चयात्मक समीक्षा और अस्थिर चित्त हो जाते हैं। उपर्युक्त उद्धरणों में तीन-तीन परस्पर-विरोध हैं और मनु के लिए अपशदों की बौछार है। कोई भी कथन निश्चयात्मक नहीं, जिसको प्रामाणिक माना जा सके। यह केवल अविचारित और अन्धविरोध मात्र है। विडबना देखिए, एक ही मुंह से तीन-तीन बातें कही गयी हैं-1. मनु जातिनिर्माता नहीं, 2. मनु जातिनिर्माता है, 3. जातिनिर्माता ब्राह्मण हैं।

प्रश्न यह है कि यदि मनु जातिनिर्माता नहीं हैं और ब्राह्मण जातिनिर्माता हैं तो मनु का अन्धविरोध और अपमान क्यों किया गया है? यह ऐतिहासिक तथ्य है कि सभी चौदह मनु क्षत्रिय थे, ब्राह्मण नहीं; अतः उन पर ब्राह्मण या ब्राह्मणवादी होने का मिथ्या आरोप कैसे लग सकता है? स्वायंभुव मनु एक चक्रवर्ती सम्राट् था, अतः किसी का ‘भाड़े का दलाल’ भी नहीं हो सकता। यदि यह कथन मनु सुमति भार्गव (185 ई0 पूर्व) के लिए है तो उस बात को स्पष्ट करना चाहिए था। वह मनुस्मृति का रचयिता है ही नहीं। उसके कारण प्राचीन आदरणीय मनुपरपरा का अपमान करना एक साहित्यिक अपराध है। पाठक देख सकते हैं कि उपर्युक्त वाक्यों में कितनी आक्रोशपूर्ण और प्रतिशोधात्मक भावना भरी है। यह किसी सत्यानुसन्धाता या साहित्यिक समीक्षक का लेखन-स्तर नहीं कहा जा सकता।

पूर्व अध्यायों के उद्धरणों में डॉ. अम्बेडकर ने स्पष्ट शदों में स्वीकार किया है कि वर्णव्यवस्था की रचना वेदों से हुई। मनु इसके निर्माता नहीं, केवल प्रसारक हैं। वेदों की वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित है, जो बुद्धिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है। वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्परविरोधी हैं। मनु जातिव्यवस्था के निर्माता भी नहीं हैं। इस प्रकार मनु वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था, दोनों के निर्माता के आरोप से मुक्त हो जाते हैं। वर्णव्यवस्था के पोषक होने के कारण उन पर यह भी आरोप नहीं बनता कि उन्होंने जन्मना जातिवाद का पोषण किया। यदि वर्णव्यवस्था बुद्धिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है, तो अव्यवस्था के समय में व्यवस्था का पोषण करके उन्होंने उत्तम कार्य ही किया है, अपराध नहीं किया। मनु वैदिक धर्मावलबी होने से वेदों को परमप्रमाण मानते हैं। अपने धर्मग्रन्थों के आदेशों का पालन करते हुए उन्होंने उसकी अच्छी व्यवस्थाओं का प्रचार-प्रसार किया तो यह कोई दोष नहीं। सभी धर्मावलबी ऐसा करते हैं। बौद्ध बनने के बाद डॉ. अम्बेडकर ने भी बौद्ध विचारों का प्रचार-प्रसार किया है। यदि उनका यह कार्य उचित है, तो मनु का भी उचित था। इतनी स्वीकारोक्तियां होने के उपरान्त भी, आश्चर्य है, कि अपने ही कथनों के विरुद्ध जाकर डॉ. अम्बेडकर मनु को स्थान-स्थान पर जातिवाद का जिमेदार ठहरा कर उनकी निन्दा करते हैं। परवर्ती सामाजिक व्यवस्थाओं को मनु पर थोपकर उन्हें कटु वचन कहना कहां का न्याय है?

संविधान में पचास वर्षों में छियासी के लगभग संशोधन किये जा चुके हैं, जिनमें कुछ संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल हैं, जैसे-अंग्रेजी की अवधि बढ़ाना, आरक्षण की अवधि बढ़ाना, मुसलमानों में गुजाराभत्ता की शर्त हटाना आदि। क्या इन परवर्ती संशोधनों का, और भावी संशोधनों का जिमेदार डॉ. अम्बेडकर को ठहराया जा सकता है? यदि नहीं, तो हजारों वर्ष परवर्ती विकृत-व्यवस्थाओं के लिए मनु को जिमेदार कैसे ठहराया जा सकता है?

जो यह कहा गया है कि ‘अकेला मनु न तो जातिव्यवस्था को बना सकता था और न लागू कर सकता था।’ यह तो स्वयं ही डॉ. अम्बेडकर ने मान लिया कि इन दोनों बातों के लिए मनु जिमेदार नहीं है। डॉ0 अम्बेडकर के अनुसार, इसका अर्थ यह निकला कि पहले से ही समाज में वर्णव्यवस्था प्रचलित थी और समाज ने उसे स्वयं स्वीकृत किया हुआ था। वह लोगों के दिल-दिमाग में रची-बसी व्यवस्था थी, लोगों द्वारा उत्तम मानी हुई व्यवस्था थी, और सर्वस्वीकृत थी। मनु द्वारा थोपी नहीं गयी थी। जब समाज द्वारा स्वीकृत व्यवस्था थी, तो उसमें मनु का क्या दोष? आपने जनता द्वारा स्वीकृत वर्तमान व्यवस्था का पोषण किया है, मनु ने समाज द्वारा स्वीकृत अपने समय की वर्णव्यवस्था का पोषण किया था। इसमें दोष या अपने-अपने समय में दोनों के दोषी होने का अवसर ही कहां है?

डॉ. अम्बेडकर का एक कथन में (दूसरे एक में नहीं) मानना है कि वर्णव्यवस्था जातिव्यवस्था की जननी है, क्योंकि वर्णव्यवस्था का मनु ने पोषण किया था, इसलिए मनु दोष के पात्र हैं। कितना अटपटा और लचीला तर्क है यह! ठीक जातिवाद जैसा! जैसे-किसी ने श्राद्ध नहीं किया तो वह पिछली छह पीढ़ियों के पूर्वजों सहित नरक में जायेगा, क्योंकि वे उसके जनक और पोषक थे। किसी ने श्राद्ध किया तो उसकी पिछली छह-पीढ़ियां तर जायेंगी, क्योंकि वे उसके जनक थे। ऐसे ही डॉ0 साहब कहते हैं कि जातिव्यवस्था दोषपूर्ण है, अतः उसकी पूर्वव्यवस्था और उसके पोषक मनु भी दोषी हैं। आश्चर्य तो यह है कि एक कानूनवेत्ता एक काूननदाता के लिए ऐसे आरोपों का प्रयोग कर रहा है! संविधान में तो डॉ. अम्बेडकर ने ऐसा कानून नहीं बनाया कि किसी अपराधी क ो दण्ड देने के साथ-साथ उसके माता-पिता, दादा, परदादा आदि को भी अपराधी घोषित कर दिया जाये, इसलिए कि वे उसके ‘जनक’ हैं।

विगत को अपराधी घोषित करके उन्हें दण्डित और नष्ट-भ्रष्ट करने के इस सिद्धान्त को यदि कुछ राष्ट्रीय मामलों के लिए भी संविधान में लागू कर देते तो उससे उन राष्ट्रवादियों को सन्तोष होता, जिनकी यह विचारधारा रही है कि देश स्वतन्त्र होने के बाद उन लोगों को अपराधी घोषित करके दण्डित किया जाना चाहिए, जिन्होंने विगत में राष्ट्रदोह और स्वतन्त्रताप्राप्ति का विरोध किया था; जिन्होंने विदेशी शासकों का सहयोग किया, गुप्तचरी की, देशभक्तों को फांसी दिलवायी। वे लोग जमीन, पद-पैसे पाकर तब भी सपन्न-सुखी थे, आज भी हैं; और स्वतन्त्रतासेनानी और उनके परिजन दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं! शायद ही ऐसी छूट किसी व्यवस्था-परिवर्तन ने दी हो! यदि वैसा होता तो गद्दारों को सबक मिलता और भावी राष्ट्रीय एकता-अखण्डता और स्वतन्त्रता के हित में होता।

वर्ण को जाति का जनक मानकर मनु को इस तरह दोषी ठहराया जा रहा है, जैसे मनु पहले ही जानते थे कि भविष्य में वर्ण से जाति का जन्म होगा, और इस आशा में वे जानबूझकर वर्ण का पोषण कर रहे थे। डॉ. अम्बेडकर ने वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था का पोषण किया है। क्या वे जानते थे कि इससे भविष्य में कौन-सी व्यवस्था का जन्म होगा? बिल्कुल नहीं। इसी प्रकार मनु को भी नहीं पता था कि वर्णव्यवस्था का भविष्य में अच्छा या बुरा क्या रूप होगा।

डॉ. अम्बेडकर वर्तमान जाति-पांति रहित संविधान के लेखक एवं पोषक हैं। दुर्भाग्य से, सैकड़ों वर्षों के बाद यदि यह जातिवादी रूप ले जाये तो क्या डॉ. अम्बेडकर उस के जनक होने के जिमेदार बनेंगे? सभी कहेंगे-नहीं, वे तो जातिवाद के विरोधी हैं, उन्हें जनक क्यों कहा जाये? इसी प्रकार जातिव्यवस्था भी वर्णव्यवस्था की विरोधी व्यवस्था है। मनु को अपनी वर्णव्यवस्था की विरोधी जातिव्यवस्था का जनक कैसे कहा जा सकता है? इस प्रकार उन पर जातिव्यवस्था का जनक होने का आरोप सरासर गलत है। सच यह है कि बाद के समाज ने मनु की वर्णव्यवस्था को विकृत कर दिया और उसे जातिव्यवस्था में बदल दिया; अतः वही परवर्ती समाज इसका जनक भी है, दोषी भी।

  1. दलित नेतृत्व और धर्मपरिवर्तन की आड़ में प्रतिशोधात्मक भावना

    उनके विरोध का तीसरा चरण तब शुरू होता है जब उन्होंने स्वयं को सामाजिक नेता से राजनेता स्थापित करने की ओर कदम बढ़ाये। राजनेताओं की प्रायः यह नीति होती है कि अपने समर्थकों और अनुयायियों का संयाबल बढ़ाने के लिए, उनकी प्रिय और हितकर बातों को बार-बार तथा तीव्र स्वर में उठाते हैं, और केवल उन्हीं एकपक्षीय बातों को कहते रहते हैं। डॉ0 अम्बेडकर भी ऐसा ही कहने और करने लगे। उन्होंने साहित्यिक-ऐतिहासिक तथ्यों और तर्कों-प्रमाणों पर तटस्थ विचार करना छोड़ दिया।

यह चरण कई कदम आगे तब बढ़ा जब उन्होंने हिन्दू धर्म को त्यागकर बौद्धधर्म को ग्रहण करने का मन बनाया। जैसी कि पन्थों की रीति होती है, जब व्यक्ति अपने अभीष्ट पन्थ को स्थापित, सुदृढ़ एवं विकसित करना चाहता है और प्रतिपक्षी पन्थ को निर्बल देखना चाहता है तब वह अपने अभीष्ट पन्थ की प्रशंसा करता नहीं अघाता और प्रतिपक्षी पन्थ की निन्दा करते-करते संतुष्ट नहीं होता। उसी प्रकार डॉ0 अम्बेडकर ने भी वैदिक धर्म सहित हिन्दू धर्म पर उग्र प्रहार करने प्रारभ कर दिये जबकि बौद्ध पन्थ की महिमा का गुणगान शुरू कर दिया। तब उन्होंने एक धार्मिक प्रतिपक्षी के समान वेदों, वैदिक साहित्य एवं वैदिक व्यवस्था सहित समस्त हिन्दू व्यवस्था का घोर एवं अविचारित विरोध करना अपना लक्ष्य बना लिया। इस चरण में उन्हें हिन्दुत्व और मनुस्मृति की प्रत्येक अच्छाई भी बुराई नजर आने लगी। वे एक-एक छिद्र को ढूंढ-ढूंढ कर ऐसे विरोध करने लगे जैसे केवल विरोध से ही उन्हें संतुष्टि मिलती हो। अब वे समीक्षक-आलोचक से कहीं दूर हटकर, केवल राजनीतिक और घोर धार्मिक विरोधी की भूमिका में आ गये। अपनी घोर धार्मिकविरोधी की भूमिका के बारे में वे स्वयं लिखते हैं। पाठक उन्हीं के शदों में पढ़ें-

(क) ‘‘वेद बेकार की रचनाएं हैं। उन्हें पवित्र या सन्देह से परे बताने में कोई तुक नहीं है।’’ (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 13, पृ0 111)

(ख) ‘‘ऐसे वेदशास्त्रों के धर्म को निर्मूल करना अनिवार्य है।’’ (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ0 95)

(ग) ‘‘यदि आप जातिप्रथा में दरार डालना चाहते हैं तो इसके लिए आपको हर हालत में वेदों और शास्त्रों में डायनामाइट लगाना होगा। …..आपको श्रुति और स्मृति के धर्म को नष्ट करना ही चाहिए।’’ (वही खंड 1, पृ0 99)

(घ) ‘‘जहां तक नैतिकता का प्रश्न है, ऋग्वेद में प्रायः कुछ है ही नहीं, न ऋग्वेद नैतिकता का ही आदर्श प्रस्तुत करता है।’’ (वही, खंड त्त्, पृ0 47, 51)

(ङ) ‘‘यह (ऋग्वेद) आदिम जीवन की प्रतिच्छाया है, जिनमें जिज्ञासा आधिक है, भविष्य की कल्पना नहीं है। इनमें दुराचार अधिक, गुण मुट्ठी-भर हैं।’’ (वही, खंड 8, पृ0 51)

(च) ‘‘अथर्ववेद मात्र जादू-टोनों, इन्द्रजाल और जड़ी-बूटियों की विद्या है। इसका चौथाई जादू-टोनों और इन्द्रजाल से युक्त है।’’ (वही, खंड 8, पृ0 60)

(छ) ‘‘वेदों में ऐसा कुछ नहीं है जिससे आध्यात्मिक अथवा नैतिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त होता हो।’’ (वही,ांड 8, पृ0 62)

(ज) ‘‘ब्राह्मणों ने नियोजित अर्थ-व्यवस्था के उद्देश्य से आश्रम प्रणाली बनाई। यह इतनी बड़ी मूर्खता है कि उसका कारण और उद्देश्य समझ पाना एक बहुत बड़ी पहेली है।’’ (वही खंड 8, ‘परिशिष्ट-1’, पृ0 265)

(झ) ‘‘हिन्दूधर्म अपवित्रता के भय से व्याकुल है।……उसे धर्म कहना ही गलत है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 120)

(ञ) ‘‘इसीलिए डंके की चोट पर मैं यह कहा करता हूं कि ऐसे धर्म (हिन्दूधर्म) को निर्मूल करना अनिवार्य है और इस कार्य में कोई अधर्म नहीं है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 98)

(ट)  ‘‘मेरे जैसे व्यक्ति को जो हिन्दूधर्म का इतना विरोधी और अन्त्यज है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 24)

यहां डॉ0 अम्बेडकर के वे वचन और निष्कर्ष उद्धृत नहीं किये जा रहे हैं जो उन्होंने वैदिक संस्कृति और ऋषि-मुनियों के बारे में लिखे हैं। वे इतने घृणित, असय और कुत्सित हैं कि उन्हें सय पाठकों के समक्ष नहीं रखा जा सकता।

    समीक्षा- उपर्युक्त कथन और भाषा, उस लेखक की है जो अपने बारे में सत्य-अनुसन्धाता, पक्षपातरहित, निष्काम तथा तटस्थ इतिहासकार होने का दावा करता है। डॉ0 अम्बेडकर को अपनी भावनाओं के आहत होने का कष्ट है किन्तु वैदिक और हिन्दू धर्मियों की आस्था पर क्रूरता से कुठाराघात करने का कोई दुःख नहीं है। स्वयं को वेद और वैदिक एवं हिन्दू धर्मविरोधी घोषित करने में जिसको गर्व का अनुभव हो रहा है, उस लेखक से पक्षपातरहित विवेचन की आशा करना मृगतृष्णा मात्र है।

वैदिक धर्म के विषय में जो सबसे अधिक आपत्तिपूर्ण दुर्भावयुक्त और खतरनाक बात डॉ0 अम्बेडकर ने कही है, वह है- ‘‘यदि आप जातिप्रथा में दरार डालना चाहते हैं तो इसके लिए आपको हर हालत में वेदों और शाों में डायनामाइट लगाना होगा।’’ (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ0 99)। एक ओर वे मानते हैं कि वेदों में जातिव्यवस्था न होकर वर्णव्यवस्था है और वर्णव्यवस्था गुण-कर्म पर आधारित होने से बुद्धिमत्तापूर्ण है, घृणास्पद नहीं, फिर भी धर्मग्रन्थ वेदों में डयनामाइट लगाने की अनुचित और उत्तेजक बात कहते हैं!! कितना अनुचित और परस्परविरोधी वक्तव्य है उनका! वेद, धर्मशा, रामायण, महाभारत, पुराण, गीता सभी को नष्ट-भ्रष्ट करने और उनसे नाता तोड़ने की बात कही है उन्होंने! धर्मशास्त्र धर्मजिज्ञासा, साहित्य, संस्कृति, सयता, आचार-व्यवहार, जीवनमूल्य सभी के आश्रय और प्रेरणा स्रोत होते हैं। उनको नष्ट करने का अभिप्राय है आर्य (वैदिक) संस्कृति-सयता, धर्म, इतिहास साहित्य आदि सब कुछ को नष्ट करना। क्या डॉ0 अम्बेडकर यही चाहते थे? यदि डॉ0 अम्बेडकर हिन्दू धर्म में रहकर पीड़ित थे और उन्हें वह छोड़ना था, तो वे उसे छोड़कर केवल ‘मनुष्य’ के नाते भी रह सकते थे, किन्तु धर्म के आश्रय के बिना वे नहीं रह सके। उन्होंने बौद्ध मत का आश्रय लिया और बौद्ध-शाों को प्रमाण माना, जबकि हिन्दुओं को वे धर्म और धर्मशाों का त्याग करने के लिए कहते हैं।

डॉ0 अम्बेडकर और दलितवर्ग द्वारा झेली गयी पीड़ाएं अन्यायपूर्ण थीं, किन्तु किसी सपूर्ण समुदाय के धर्म और धर्मशास्त्रों को अपमानपूर्वक नष्ट करने की बात कहना, क्या अन्यायपूर्ण और पीड़ाजनक नहीं है? प्रतिशोध-भावना से इस प्रकार की अनुचित और आघातकारक बातें कहना बहुत ही आपत्तिजनक है। उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि यह बात संभव भी है या नहीं?

डॉ0 अम्बेडकर की उक्त सोच ठीक वैसी ही है जैसे किसी के हाथ-पैर में फोड़ा हो जाये तो उसका आप्रेशन कर उसको निकाल देने के बजाय उस आदमी को जान से ही मार दिया जाये! यहां मैं महात्मा गांधी द्वारा उस समय दिये गये उत्तर को उद्धृत करना चाहूंगा- ‘‘जैसे कोई कुरान को अस्वीकार कर मुसलमान कैसे बना रह सकता है और बाइबल को अस्वीकार कर कोई ईसाई कैसे बना रह सकता है। (अंबेडकर वाङ्मय खंड 1, पृ0 110) वैसे वेदों-शाों को अस्वीकार कर कोई हिन्दू कैसे हो सकता है?’’

वेदों में जातिव्यवस्था का नामोनिशान तक नहीं है। फिर भी डॉ0 अम्बेडकर ने वेदों की अकारण आलोचना की, उनको नष्ट करने की बात कही, उनके महत्त्व को अंगीकार नहीं किया। बौद्ध होकर भी उन्होंने ऐसा ही किया है। उन्होंने बौद्ध-शाों की और अपने गुरु की अवज्ञा की है, क्योंकि बौद्ध शाों में महात्मा बुद्ध ने वेदों और वेदज्ञों की प्रशंसा करते हुए धर्म में वेदों के महत्त्व को प्रतिपादित किया है। कुछ प्रमाण देखिए-

(अ) ‘‘विद्वा च वेदेहि समेच्च धमम्।

         न उच्चावचं गच्छति भूरिपज्जो।’’      (सुत्तनिपात 292)

    अर्थात्-महात्मा बुद्ध कहते हैं-‘जो विद्वान् वेदों से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है, वह कभी विचलित नहीं होता।’

(आ) ‘‘विद्वा च सो वेदगू नरो इध, भवाभवे संगं इमं विसज्जा।

    सो वीतवण्हो अनिघो निरासो, अतारि सेा जाति जरांति ब्रूमीति॥’’                               (सुत्तनिपात 1060)

    अर्थात्-‘वेद को जानने वाला विद्वान् इस संसार में जन्म और मृत्यु की आसक्ति का त्याग करके और इच्छा, तृष्णा तथा पाप से रहित होकर जन्म-मृत्यु से छूट जाता है।’ सुतनिपात के वेदप्रशंसा विषयक अन्य श्लोक द्रष्टव्य हैं- 322, 458, 503, 846,1059 आदि।

डॉ0 अम्बेडकर की मनु-विरोध परपरा में डॉ0 भदन्त आनन्द कौसल्यायन द्वारा ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ के नाम से किया गया मनुस्मृति-विरोध केवल ‘विरोध’ के लिए ही है, जो अत्यन्त सतही है। उसमें न तर्क है, न सयक् विश्लेषण। अपव्याया और अपप्रस्तुति का आश्रय लेकर अच्छे को भी बुरा सिद्ध करने का प्रयास है। उन्हें जहां इस बात पर आक्रोश है कि मनु ने नारियों की निन्दा की है, तो इस बात पर भी दुःख है कि उन्हें ‘‘पूजार्हा=समानयोग्य’’ क्यों कहा गया? इसी को कहते हैं ‘चित भी मेरी पट भी मेरी।’ उनकी स्थिति विरोधाभासी है। महात्मा गांधी के प्रशंसक हैं, किन्तु उनके निष्कर्षों को नहीं मानते। बौद्ध हैं, किन्तु बौद्ध साहित्य में वर्णित वेद-वेदज्ञ आदि के महत्त्व को स्वीकार नहीं करते। स्वयं को गर्व से अवैदिक = अहिन्दू घोषित करते रहे, किन्तु हिन्दुओं के शाों के तथाकथित उद्धार में और हिन्दुओं में पूज्य महापुरुषों मनु, राम आदि की निन्दा-आलोचना में आजीवन लगे रहे।

  1. संस्कृत भाषा एवं शैली के ज्ञान का अभाव

मनु, मनुस्मृति तथा वैदिक साहित्य सबन्धी गभीर, व्यापक एवं तथ्यात्मक जानकारी न होने का एक कारण डॉ0 अम्बेडकर का संस्कृत भाषा के ज्ञान का अभाव रहा है। यद्यपि उन्होंने एक गर्वोक्ति में इस कारण को अस्वीकार किया है तथापि परोक्ष शैली में उन्होंने इस वास्तविकता को स्वीकार भी कर लिया है। यह सत्य है कि वे संस्कृत भाषा के गभीर ज्ञाता नहीं थे। उन्होंने प्राचीन भारतीय साहित्य एवं व्यवस्था सबन्धी जो कुछ पढ़ा, समझा और लिखा, वह अंग्रेजी रूपान्तरणों और समीक्षाओं के माध्यम से ही समझा है। डॉ0 अम्बेडकर इस तथ्य को स्वयं स्वीकार करते हुए लिखते हैं-

(क) ‘‘यदि यह कहा जाय कि मैं संस्कृत का पंडित नहीं तो मैं मानने को तैयार हूं।’’

‘‘परन्तु संस्कृत का पंडित न होने से मैं इस विषय पर लिख क्यों नहीं सकता? संस्कृत का बहुत-थोड़ा अंश है जो अंग्रेजी भाषा में उपलध नहीं है। इसलिए संस्कृत न जानना मुझे इस विषय पर लिखने का अनधिकारी नहीं ठहरा सकता। अंग्रेजी अनुवादों का पन्द्रह साल अध्ययन करने के बाद यह अधिकार मुझे अवश्य प्राप्त है।’’ (शूद्रों की खोज, प्राक्कथन पृ0 2, समता प्रकाशन नागपुर)

    समीक्षा-आलोच्य ग्रन्थों की भाषा एवं शैली तथा परपरा का गभीर ज्ञान न होने के कारण कोई भी लेखक उस भाषा की प्रकृति, शैली, अर्थपरपरा, वक्ता का अभिप्राय, अन्तर्विरोध आदि को नहीं समझ पाता। डॉ0 अम्बेडकर द्वारा उद्धृत सभी सन्दर्भ दूसरे लेखकों के हैं, अतः यह मानना पड़ेगा कि मूलतः निष्कर्ष भी उन्हीं के हैं। वे स्वयं मनुस्मृति आदि ग्रन्थों के श्लोकों पर विचार नहीं कर सके। यदि वे संस्कृत भाषा के ज्ञाता होते तो निश्चय ही स्थिति कुछ अलग होती।

संस्कृत ज्ञान के अभाव में डॉ0 अम्बेडकर न तो मनु के श्लोकों के सही अर्थ का निर्णय कर सके, न परस्परविरोध का और न मनुस्मृति की प्रक्षिप्तता एवं मौलिक स्थिति का। जहां तक प्रक्षिप्तों के अस्तित्व का प्रश्न है, अब इसमें कोई मतभेद नहीं रह गया है कि उपलध मनुस्मृति में मौलिक व प्रक्षिप्त, दोनों प्रकार के श्लोक प्राप्त हैं। अनेक श्लोकों में परस्परविरोध और प्रसंगविरोध आदि हैं। डॉ0 अम्बेडकर के समय तक इस विषय पर शोध नहीं हुआ था, अतः उन्हें यह निर्णय उपलध नहीं हुआ और संस्कृत भाषा का ज्ञान न होने से वे स्वयं इनका निर्णय कर नहीं सके। उनके जितने विरोध और आपत्तियां हैं वे या तो प्रक्षिप्त श्लोकों पर केन्द्रित हैं, या फिर अर्थभेद या अशुद्ध अर्थ पर आधारित हैं। आपत्तिपूर्ण श्लोकों अर्थात् प्रक्षिप्तों पर आलोचना प्रस्तुत करते हुए उन्होंने इस तथ्य का उत्तर नहीं दिया कि आलोचित श्लोक का विरोधी जो श्लोक मनुस्मृति में उपलध है, जो कि आपत्तिरहित, उत्तम मान्यता का वर्णन करने वाला है, उसको वे क्यों नहीं स्वीकार करते? या एक साथ दो विरोधी श्लोक एक ग्रन्थ में क्यों है? यदि वे इस तथ्य पर चिन्तन कर लेते तो उन्हें मनुस्मृति का अन्धविरोध करने का विचार ही छोड़ देना पड़ता।

डॉ0 अम्बेडकर ने मनुस्मृति की मौलिक और प्रक्षिप्त स्थिति पर पृथक् से विचार नहीं किया। न मौलिक श्लोकों को पृथक् विचारा, न प्रक्षिप्तों को, उन्होंने सारी मनुस्मृति की अलोचना की है; जो केवल प्रक्षिप्तों पर आधारित है। इस प्रकार डॉ0 अम्बेडकर ने अच्छे श्लोकों के साथ सारी मनुस्मृति की निन्दा कर डाली, जो ऐतिहासिक तथ्य के विपरीत मत है। यह रहस्यपूर्ण बात है कि डॉ0 अम्बेडकर ने वेदों, रामायण, गीता, महाभारत, पुराण, सूत्रग्रन्थ सभी में प्रक्षेपों का अस्तित्व घोषित किया है, किन्तु मनुस्मृति में स्वीकार नहीं किया। ऐसा क्यों? स्पष्ट है कि यदि वे मनुस्मृति में भी मौलिक व प्रक्षेप के अस्तित्व को ईमानदारी से स्वीकार कर लेते तो उनका ‘विरोध के लिए विरोध’ का अभियान चल ही नहीं पाता। (प्रमाणों के लिए द्रष्टव्य है अध्याय संया छह)

  1. वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति-प्रक्रिया तथा व्यावहा-रिकता को न समझ पाना

वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति-प्रक्रिया एवं व्यावहारिकता के वास्तविक स्वरूप को न समझना अथवा समझे हुए सही स्वरूप पर स्थिर न रहना, विरोध का एक अन्य कारण है।

समीक्षा-डॉ0 अम्बेडकर ने जब-जब चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को सही समझा है, तब-तक उन्होंने उसकी प्रशंसा की है। जब ठीक नहीं समझा, तब निन्दा की है। कभी-कभी ठीक समझकर भी वे अपने मत पर स्थिर नहीं रहे। यदि स्थिर रहते तो महर्षि मनु के उग्र और अविचारित विरोध के सारे अवसर समाप्त हो जाते अर्थात् डॉ0 साहब को मनु का विरोध करने का अवसर ही नहीं मिलता।

वर्णव्यवस्था को समझने में भूल तब होती है जब हम वर्ण को जाति के समान जन्म से मान लेते हैं। वर्ण जन्म से निर्धारित नहीं होता था जबकि जाति जन्म से निर्धारित होती थी और होती है। वर्ण का अभिप्राय यह था कि किसी भी कुल में उत्पन्न होने के उपरान्त व्यक्ति अपने गुण, कर्म, योग्यता के अनुसार किसी भी वर्ण का चयन करके उस वर्ण को धारण कर सकता था। यह व्यवस्था ठीक ऐसी ही थी जैसे आज किसी भी कुल का व्यक्ति किसी भी नौकरी का कार्य कर सकता है। जब डॉ0 अम्बेडकर वर्ण के इस मौलिक और सही स्वरूप को त्यागकर उसको जन्म पर आधारित मान लेते हैं तब वे चातुर्वर्ण्य का विरोध करते हैं और चातुर्वर्ण्य-विधायक वेदमन्त्रों की तथा मनुस्मृति के श्लोकों की जन्माधारित व्याया प्रस्तुत करते हैं। यह निर्विवाद है कि वे भलीभांति जानते थे, और जैसा कि उन्होंने अनेक बार लिखा भी है कि वैदिक चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में वर्ण गुण-कर्म-योग्यता से निर्धारित होते थे। उनके द्वारा किये गये बारंबार विरोध को पढ़कर यह संदेह होता है कि चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के सही स्वरूप की जानकारी रखते हुए भी डॉ0 अम्बेडकर द्वारा जो उसका विरोध किया जाता रहा है, वह जानबूझकर और योजनाबद्ध है। शायद वे राजनीति से प्रेरित स्थिति में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के सही स्वरूप को जानबूझकर मानना नहीं चाहते थे क्योंकि फिर वे ‘विरोध के लिए विरोध’ नहीं कर सकते थे। तब तर्क उन्हें विरोध के मार्ग पर नहीं बढ़ने देता। इसलिए उन्होंने वर्णव्यवस्था के सही स्वरूप को अनेक स्थलों पर प्रस्तुत करने के बावजूद चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को जन्म से जोड़कर भ्रामक रूप में प्रस्तुत किया है और उसकी आड़ लेकर मनु, मनुस्मृति तथा आर्य (हिन्दू) शास्त्रों का खुलकर विरोध किया है। (इसके उदाहरण द्रष्टव्य हैं-‘डॉ0 अम्बेडकर के ग्रन्थों में परस्परविरोध’ शीर्षक आगामी अध्याय आठ में)

डॉ0 अम्बेडकर सहित वर्णव्यवस्था के समीक्षकों को एक भ्रान्ति यह है कि वे मुख, बाहु, जंघा, पैर से सीधे वर्णस्थ व्यक्तियों की उत्पत्ति मानते हैं जबकि उन प्रसंगों में वर्णों की आलंकारिक उत्पत्ति है, व्यक्तियों की नहीं। पहले वर्ण बने हैं फिर उनमें कर्मानुसार व्यक्ति दीक्षित हुए हैं (द्रष्टव्य – ‘वर्णव्यवस्था का यथार्थ स्वरूप’ शीर्षक अध्याय तीन)। पहले व्यवस्था बनती है, पुनः व्यक्तियों पर लागू होती है। अतः पैर से शूद्रवर्ण की आलंकारिक उत्पत्ति दर्शाई है, शूद्रों की नहीं। इस सही प्रक्रिया को समझ लेने पर यह आक्रोश स्वतः समाप्त हो जाता है कि शूद्रों की उत्पत्ति पैर से क्यों कही गयी है? क्योंकि चारों वर्णों में से अयोग्यता के कारण किसी भी कुल का व्यक्ति शूद्र होकर शूद्रवर्ण में समाविष्ट हो सकता था।

संसार की सभी व्यवस्थाएं शतप्रतिशत मान्य और खरी नहीं होती। अतः कुछ कमियों के आधार पर परवर्ती जातिव्यवस्था (हिन्दू व्यवस्था) की निन्दा और अपमान करना कदापि उचित नहीं माना जा सकता। हाँ, उसमें निहित कुप्रथाओं पर प्रहार होना ही चाहिए। आज की संवैधानिक व्यवस्था, जिसका न्याय, समानता आदि का दावा है, क्या सपूर्ण है? अभी ही वह न जाने कितने विवादों से घिरी है। सामयिक आवश्यकता के आधार पर आरक्षण का प्रावधान किया गया है, फिर भी आज उस पर उग्र विवाद है। आज के सैकड़ों वर्ष पश्चात् जब ये परिस्थितियां विस्मृत हो जायेंगी, तब जो इस व्यवस्था का इतिहास लिखा जायेगा, शायद वह आरक्षित जातियों के लिए भी वैसा ही लिखा जायेगा, जो ब्राह्मणों के सन्दर्भ में आज प्राचीन धर्मशाों का लिखा जा रहा है।

वर्तमान संवैधानिक व्यवस्थाओं में, उच्चतम अधिकारी से लेकर निनतम कर्मचारी तक के लिए परीक्षाओं-उपाधियों के अनुसार नियुक्ति का प्रावधान है। कुछ स्थान मनोनयन से भरे जाते हैं। थोड़े से वर्षों में ही स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पदों के मनोनयन में, सत्ता में बैठे नेताओं, अधिकारियों के सबन्धी या सिफारिशी ही अधिकांशतः ले लिये जाते हैं; योग्यता का पैमाना भुला दिया गया है। योग्यता की जांच के लिए साक्षात्कार आयोजित होते हैं, किन्तु तब भी हजारों नौकरियां सिफारिश और पैसे के आधार पर दी जा रही हैं। न्यायालयों द्वारा रद्द अनेक चयनसूचियां इसके सत्यापित प्रमाण हैं। राजनीतिक स्तर पर होने वाले ‘राज्यपाल’ आदि पदों के मनोनयन में योग्यता नाम की कोई वस्तु दिखायी नहीं पड़ती। वहां अपने-पराये का नग्न रूप है। कल्पना कीजिए, जिसकी कि संभावनाएं प्रबल दिखायी पड़ रही हैं, सैकड़ों वर्ष बाद ये व्यवस्थाएं और अधिक विकृत होकर यदि जन्माधारित रूप ले गयीं तो क्या उसकी जिमेदारी डॉ0 अम्बेडकर और संविधान-सभा की मानी जायेगी? क्या उन द्वारा प्रदत्त व्यवस्था उस भावी विकृत व्यवस्था की जननी मानी-जानी जायेगी? यदि नहीं, तो मनु को भी जाति-व्यवस्था का जनक और जिमेदार नहीं कहा जा सकता।

  1. प्राचीन धर्मशास्त्रों एवं मान्यताओं के ज्ञान का अभाव

आर्य (हिन्दू)-शास्त्रों की मौलिक परपराओं और मान्यताओं को भी डॉ0 अम्बेडकर भारतीय परपरा के अनुसार नहीं समझ सके। अंग्रेजी अनुवादों पर निर्भर होने के कारण उन्होंने शास्त्रों का स्वरूप और काल वही समझा, जो पाश्चात्य लेखकों ने कपोलकल्पना से स्थापित किया था। परिणामस्वरूप डॉ0 अम्बेडकर का आर्य (हिन्दू) शास्त्रों का विवेचन एकपक्षीय रहा। इस स्थिति को वे अनुभव भी करते थे। उन्होंने इस विवशता को इन शदों में स्वीकार किया हैं-

(क) ‘‘हिन्दू धर्मशास्त्र का मैं अधिकारी ज्ञाता नहीं हूं।’’ (जातिभेद का उच्छेद, पृ0 101, बहुजन कल्याण प्रकाशन, लखनऊ)

(ख) ‘‘महात्मा जी (गांधी जी) की पहली आपत्ति यह है कि मैंने जो श्लोक चुने हैं, वे अप्रमाणिक हैं। मैं यह मान सकता हूं कि मेरा इस विषय पर पूर्ण अधिकार नहीं है।’’ (वही, पृ0 120)

    समीक्षा-डॉ0 अम्बेडकर ने वैदिक मान्यताओं, स्थापनाओं एवं परपराओं को प्राचीन भारतीय मतानुसार नहीं समझा, या समझकर स्वीकार नहीं किया। उनके प्रायः सभी निष्कर्ष अंग्रेजी अनुवादों और समीक्षाओं पर निर्भर हैं। इस कारण उन द्वारा प्रस्तुत मान्यताएं गड्ड-मड्ढ हो गयी हैं। जैसे, डॉ0 अम्बेडकर ने लिखा है कि मनुस्मृति का रचयिता मनु नामधारी सुमति भार्गव है जो ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुङ्ग (185 ईस्वी पूर्व) का समकालीन है। इससे स्पष्ट हुआ कि वे उसी की आलोचना कर रहे हैं, प्राचीनतम मनुओं की नहीं। किन्तु उन्होंने इस तथ्य को स्पष्ट नहीं किया। विरोध में सभी मनुओं को घसीटा है।

भारतीय प्राचीन मतानुसार ‘मनुस्मृति’ मूलतः मनु स्वायंभुव की रचना है, जो ब्रह्मा के पुत्र थे। उसी मनुस्मृति का उल्लेख सपूर्ण प्राचीन वैदिक एवं लौकिक संस्कृत वाङ्मय में है। वही प्राचीन काल से भारतीय समाज में प्रचलित है। उस मनुस्मृति में मूलतः गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित चातुर्वर्ण्य व्यवस्था विहित है। यह संभव है कि उस मनुस्मृति में प्रक्षेप के रूप में जो जातिव्यवस्था के श्लोक मिलाये हैं वे मनु सुमति भार्गव ने मिलाये हो। इस तथ्य का स्पष्टीकरण न किये जाने से प्राचीन मनु भी अनावश्यक रूप से निन्दा के शिकार हो रहे हैं।

मनु का काल मनुष्यों की सृष्टि का प्रारभिक काल है (देखिए आरभ में वंशावली)। उस समय कर्मणा वैदिक व्यवस्था ही थी। स्वयं डॉ0 अम्बेडकर का भी मत है कि जन्मना जाति व्यवस्था तो महाभारत के बाद और बौद्धकाल से पूर्व प्रारभ हुई और ईसापूर्व की शतादियों में ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुङ्ग के काल में सुदृढ़ हुई। मनु के काल में जन्मना जातिव्यवस्था थी ही नहीं तो उसका मनु द्वारा वर्णन कैसे संभव है? स्पष्ट है कि मनुस्मृति में ऐसे श्लोकों का प्रक्षेप जन्मना जातिवाद के उद्भव के बाद हुआ है। उनका जिमेदार प्राचीनतम महर्षि मनु स्वायभुव को कैसे माना जा सकता है? इस तथ्य पर न तो पाश्चात्य लेखकों ने ईमानदारी से विचार किया और न डॉ0 अम्बेडकर ने किया। यदि डॉ0 अम्बेडकर ऐसा करने का अवसर पाते तो आज स्थिति भिन्न और सुखद होती। अब, डॉ0 अम्बेडकर के अनुयायियों को इस तथ्य पर अवश्य ही विचार करना चाहिये कि जो आदिपुरुष एवं राजर्षि मनु जब निर्दोष एवं आरोपरहित हैं तो उनको दोषी और आरोपी कहने का अन्याय क्यों किया जाये? यदि वे विरोध करना ही चाहते हैं तो डॉ0 अम्बेडकर द्वारा कथित ईसापूर्व द्वितीय शती के ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुङ्गकालीन ‘मनु सुमति भार्गव’ का विरोध करें, जो अनुमानतः मनुस्मृति में ब्राह्मणवादी विचारधारा का प्रक्षेपकर्त्ता है, आदिपुरुष मनु का विरोध नहीं करें।

क्या मनुस्मृति में प्रक्षेप हैं?: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

प्राचीन भारतीय साहित्य की यह एक प्रमाणित ऐतिहासिक सच्चाई है कि उसमें समय-समय पर प्रक्षेप होते रहे हैं। इस विषयक प्रमाण पांडुलिपियों पर आधारित पाठान्तर और लिखित साक्ष्य के रूप में उपलध हैं। अतः अब यह विषय विवाद का नहीं रह गया है। मनुस्मृति के प्रक्षेपों पर विचार करने से पूर्व अन्य संस्कृत साहित्य के प्रक्ष्ेाप-विषयक इतिहास पर एक दृष्टिपात किया जाता है जिससे पाठकों को प्रक्षिप्तता की अनवरत प्रवृत्ति का ज्ञान हो सके।

(अ) वाल्मीकीय रामायण-वाल्मीकीय रामायण के आज तीन संस्करण मिलते हैं-1. दाक्षिणात्य, 2. पश्चिमोत्तरीय, 3. गौडीय या पूर्वीय। इन तीनोंसंस्करणों में अनेक सर्गों और श्लोकों का अन्तर है। गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित दाक्षिणात्य संस्करण में अभी भी अनेक ऐसे सर्ग समाविष्ट हैं, जो मूलपाठ के साथ घुल-मिल नहीं पाये, अतः अभी तक उन पर ‘‘प्रक्षिप्त सर्ग’’ लिखा मिलता है (उदाहरणार्थ द्रष्टव्य, उत्तरकाण्ड के 59 सर्ग के पश्चात् दो सर्ग)।

नेपाल में, काठमांडू स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार में नेवारी लिपि में वाल्मीकीय रामायण की एक पांडुलिपि सुरक्षित है जो लगभग एक हजार वर्ष पुरानी है। उसमें वर्तमान संस्करणों से सैकड़ों श्लोक कम हैं। स्पष्टतः वे एक हजार वर्ष की अवधि में मिलाये गये हैं। समीक्षकों का मत है कि वर्तमान रामायण में प्राप्त बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड के अधिकांश भाग प्रक्षिप्त हैं। आज भी रामायण के आरभ में तीन अनुक्रमणिकाएं प्राप्त हैं, जो समयानुसार परिवर्धन का प्रमाण हैं। उनमें से एक में तो स्पष्टतः ‘षट्काण्डानि’ कहा है (5.2)। अवतारविषयक श्लोकअवतार की धारणा पनपने के उपरान्त प्रक्षिप्त हुए।

इस संदर्भ में एक बौद्ध ग्रन्थका प्रमाण उल्लेखनीय है। बौद्ध साहित्य में एक ‘अभिधर्म महाविभाषा’ग्रन्थ मिलता था। इसका तीसरी शतादी का चीनी अनुवाद उपलध है। उसमें एक स्थान पर उल्लेख है कि ‘‘रामायण में बारह हजार श्लोक हैं’’(डॉ0 फादर कामिल बुल्के, ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’’, पृ0 94)। आज उसमें पच्चीस हजार श्लोक पाये जाते हैं। यह एक संक्षिप्त जानकारी है कि प्राचीन ग्रन्थों में किस प्रकार प्रक्षेप होते रहे हैं।

(आ) महाभारत

अब मैं महााारत के संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण उद्घृत करने जा रहा हूँ। यह इस तथ्य की जानकारी दे रहा है कि लगभग दो हजार वर्ष पूर्व महाभारत में होने वाले प्रक्षेपों के विरुद्ध तत्कालीन साहित्य में आवाज उठी थी। यह प्रमाण इस बात का भी ज्वलन्त प्राचीन साक्ष्य है कि प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रक्षेप बहुत पहले से होते आ रहे हैं। गरुड़ पुराण (तीसरी शती) का निनलिखित श्लोक अमूल्य प्रमाण है जो यह बताता है कि दूसरी संस्कृति के जो लोग वैदिक संस्कृति में समिलित हुए, उन्होंने अपने स्वार्थ-साधन के लिए भारतीय ग्रन्थों में प्रक्षेप किये हैं-

दैत्याः सर्वे विप्रकुलेषु भूत्वा,

कलौ युगे भारते षट्सहस्र्याम्।

निष्कास्य कांश्चित्, नवनिर्मितानां

निवेशनं तत्र कुर्वन्ति नित्यम्॥

(ब्रह्मकाण्ड 1.59)

    अर्थात्-‘कलियुग के इस समय में महाभारत में परिवर्तन-परिवर्धन किया जा रहा है। दैत्यवंशी लोग स्वयं को ब्राह्मणकुल का बताकर कुछ श्लोकों को निकाल रहे हैं और उनके स्थान पर नये-नये श्लोक स्वयं रचकर निरन्तर डाल रहे हैं।’

इसी प्रकार की एक जानकारी महाभारत में दी गयी है कि स्वार्थी लोगों ने वैदिक-परपराओं को विकृत कर दिया है और उसके लिए उन्होंने ग्रन्थों से छेड़छाड़ की है। महाभारतकार की पीड़ा देखिए –

सुरा मत्स्याः पशोर्मांसम्, आसवं कृशरौदनम्।

धूर्तैः प्रवर्तितं यज्ञे नैतद् वेदेषु विद्यते॥

अव्यवस्थितमर्यादैः विमूढैर्नास्तिकैः नरैः।

संशयात्मभिरव्यक्तैः हिंसा समनुवर्णिता॥

(शान्तिपर्व 265.9,4)

    अर्थात्-‘मदिरा-सेवन, मत्स्य-भोजन, पशुमांस-भक्षण और उसकी आहुति, आसव-सेवन, लवणान्न की आहुति, इनका विधान वेदों में (वैदिक संस्कृति में) नहीं है। यह सब धूर्त लोगों ने प्रचलित किया है। मर्यादाहीन, मद्य-मांसादिलोलुप, नास्तिक, आत्मा-परमात्मा के प्रति संशयग्रस्त लोगों ने गुपचुप तरीके से वैदिक ग्रन्थों में हिंसा-सबन्धी वर्णन मिला दिये हैं।’

महाभारत-महाकाव्य की कलेवर-वृद्धि का इतिहास स्वयं वर्तमान महाभारत में भी दिया गया है। महाभारत युद्ध के बाद महर्षि व्यास ने जो काव्य लिखा उसका नाम ‘जयकाव्य’ था ‘‘जयो नामेतिहासोऽयम्’’ (आदि0 1.1; 62.20) और उसमें छह या आठ हजार श्लोक थे-‘‘अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च’’

व्यासशिष्य वैशपायन ने उसको बढ़ाकर 24000 श्लोक का काव्य बना दिया और उसका नाम ‘भारत संहिता’ रख दिया-‘‘चतुर्विंशती साहस्रीं चक्रे भारतसंहिताम्’’ (आदि0 1.102)। सौति ने इसमें परिवर्धन करके इसे एक लाख श्लोकों का बना दिया और इसका नाम ‘महाभारत’ रखा- ‘‘शतसाहस्रमिदं काव्यं मयोक्तं श्रूयतां हि वः’’ (आदि0 1.109 )। यह ‘जय’ से महाभारत बनने की महाभारत में वर्णित कथा है। लोग अपना पृथक् काव्य बनाने के बजाय उसी में वृद्धि करते गये। इससे उसकी प्रामणिकता का ह्रास हुआ, और ऐतिहासिकता विनष्ट हो गयी।

    (इ) गीता-गीता महाभारत का ही अंश है। उसकी वर्तमान विशालता व्यावहारिक नहीं है। युद्धभूमि में कुछ मिनटों के लिए दिया गया उपदेश न तो इतना विस्तृत हो सकता है और न प्रकरण के अनुकूल। यदि उसको ‘संक्षेप का विस्तार’ कहा जायेगा तो वह व्यास या कृष्णप्रोक्त नहीं रह जायेगा। प्रत्येक दृष्टि से वह परिवर्धित अर्थात् प्रक्षिप्त रूप है।

    (ई) निरुक्त-आचार्य यास्ककृत निरुक्त के 13-14 अध्यायों के विषय में समीक्षकों का यह मत है कि वे अभाव की पूर्ति के लिए बाद में जोड़े गये हैं। उन सहित निरुक्त परिवर्धित संस्करण है।

    (उ) चरकसंहिता – महर्षि अग्निवेश प्रणीत चरकसंहिता में भी उनके शिष्यों ने अन्तिम अध्यायों का कुछ भाग अभाव की पूर्ति की दृष्टि से संयुक्त किया है। किन्तु वहां यह स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि यह भाग अमुक का है। फिर भी उससे परिवर्धन की प्रवृत्ति और इतिहास की जानकारी मिलती है।

    (ऊ) मनुस्मृति-इसी प्रकार मनुस्मृति में भी समय-समय पर प्रक्षेप हुए हैं। अपितु, मनुस्मृति में अधिक प्रक्षेप हुए हैं क्योंकि उसका सबन्ध हमारी दैनंदिन जीवनचर्या से था और उससे जीवन व समाज सीधा प्रभावित होता था, अतः उसमें परिवर्तन भी किया जाना स्वाभाविक था। जैसे भारत के संविधान में छियासी के लगभग संशोधन आवश्यकता के नाम पर आधी शती में हो चुके हैं। इसी प्रकार मनुस्मृति में निनलिखित प्रमुख कारणों के आधार पर परिवर्तन-परिवर्धन किये जाते रहे-

  1. अभाव की पूर्ति के लिए
  2. स्वार्थ की पूर्ति के लिए
  3. गौरव-वृद्धि के लिए
  4. विकृति उत्पन्न करने के लिए

ये प्रक्षेप (परिवर्तन या परिवर्धन) अधिकांश में स्पष्ट दीख जाते हैं। महर्षि मनु सदृश धर्मज्ञ और विधिप्रदाता की रचना में रचनादोष नहीं हो सकते, किन्तु प्रक्षिप्तों के कारण आ गये हैं। वे प्रक्षिप्त कहीं विषयविरुद्ध, कहीं प्रसंगविरुद्ध, कहीं परस्परविरुद्ध, कहीं शैलीविरुद्ध रूप में दीख रहे हैं। आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, खारी बावली, दिल्ली-6 से प्रकाशित मेरे शोध और भाष्ययुक्त ‘सपूर्ण मनुस्मृति’ संस्करण में मैंने उनकी पहचान निनलिखित सात साहित्यिक मानदण्डों के आधार पर की है। वे हैं-

  1. विषयविरोध
  2. प्रसंगविरोध
  3. अवान्तरविरोध
  4. पुनरुक्ति
  5. शैलीविरोध
  6. वैदविरोध

प्रक्षिप्तानुसन्धान के इन साहित्यिक मानदण्डों के आधार पर मनुस्मृति के उपलध 2685 श्लोकों में से 1471 प्रक्षिप्त सिद्ध हुए हैं और 1214 मौलिक। विस्तृत समीक्षा के लिए मनुस्मृति का उक्त संस्करण पठनीय है। उसमें प्रत्येक प्रक्षिप्त-सिद्ध श्लोक पर समीक्षा में उपर्युक्त तटस्थ मानदण्डों के आधार पर प्रक्षेप का कारण दर्शाया गया है।

मनुस्मृति में प्रक्षेप होने की पुष्टि अधोलिखित प्रमाण भी करते हैं और प्रायः सभी वर्गों के विद्वान् भी करते हैं-

(क) मनुस्मृति-भाष्यकार मेधातिथि (9वीं शतादी) की तुलना में कूल्लूक भट्ट (12वीं शतादी) के संस्करण में एक सौ सत्तर श्लोक अधिक उपलध हैं। वे तब तक मूल पाठ के साथ घुल-मिल नहीं पाये थे, अतः उनको बृहत् कोष्ठक में दर्शाया गया है। अन्य टीकाओें में भी कुछ-कुछ श्लोकों का अन्तर है।

(ख) मेधातिथि के भाष्य के अन्त में एक श्लोक मिलता है, जिससे यह जानकारी मिलती है कि मनुस्मृति और उसका मेधातिथि भाष्य लुप्तप्रायः था। उसको विभिन्न संस्करणों की सहायता से सहारण राजा के पुत्र राजा मदन ने पुनः संकलित कराया। ऐसी स्थिति में श्लोकों में क्रमविरोध, स्वल्प-आधिक्य होना सामान्य बात है-

मान्या कापि मनुस्मृतिस्तदुचिता व्यायापि मेघातिथेः।

सा लुप्तैव विधेर्वशात् क्वचिदपि प्राप्यं न तत्पुस्तकम्।

क्षोणीन्द्रो मदनः सहारणसुतो देशान्तरादाहृतैः,

जीर्णोद्धारमचीकरत्तत इतस्तत्पुस्तकैः लेखितैः॥

(उपोद्घात, मेघातिथिभाष्य, गंगानाथ झा खण्ड 3, पृ0 1)

    अर्थात्-‘समाज में मान्य कोई मनुस्मृति थी, उस पर मेघातिथि काााष्य भी था किन्तु वह दुर्भाग्य से लुप्त हो गयी। वह कहीं उपलध नहीं हुई। सहारण के पुत्र राजा मदन ने विभिन्न देशों से उसके संस्करण मंगाकर उसका जीर्णोद्धार कराया और विभिन्न पुस्तकों से मिलान कराके यहााष्य तैयार कराया।

मनुस्मृति के स्वरूप में परिवर्तन का यह बहुत महत्त्वपूर्ण प्रमाण है।

(ग) आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में गत शती में सर्वप्रथम यह सुस्पष्ट घोषणा की थी कि मनुस्मृति में अनेक प्रक्षेप ऐसे किये गये हैं, जैसे कि ग्वाले दूध में पानी की मिलावट करते हैं। उन्होंने अपने ग्रन्थों में कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों का कारणपूर्वक दिग्दर्शन भी कराया है। उन्होंने घोषणा की थी कि मैं प्रक्षेपरहित मनुस्मृति को ही प्रमाण मानता हूं (ऋग्वेदादिााष्याूमिका, ग्रन्थप्रामाण्य विषय)

(घ) सपूर्ण भारतीय प्राचीन साहित्य में प्रक्षिप्तों के होने के यथार्थ को सुप्रसिद्ध सनातनी आचार्य स्वामी आनन्दतीर्थ ‘महाभारत तात्पयार्थ-निर्णय’ में स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं-

क्वचिद् ग्रन्थान् प्रक्षिपन्ति क्वचिदन्तरितानपि,

कुर्युः क्वचिच्च व्यत्यासं प्रमादात् क्वचिदन्यथा।

अनुत्सन्नाः अपि ग्रन्थाः व्याकुलाः सन्ति सर्वशः,

उत्सन्नाः प्रायशः सर्वे, कोट्यंशोऽपि न वर्तते॥ (अ02)

    अर्थ-‘कहीं ग्रन्थों में प्रक्षेप किया जा रहा है, कहीं मूल पाठों को बदला जा रहा है, कहीं आगे-पीछे किया जा रहा है, कहीं प्रमादवश अन्यथा लेखन किया जा रहा है, जो ग्रन्थ नष्ट होने से बच गये हैं वे इन पीड़ाओें से व्याकुल हैं (=क्षत-विक्षत हैं)। अधिकांश ग्रन्थों को नष्ट किया जा चुका है। अब तो साहित्य का करोड़वां भाग भी विशुद्ध नहीं बचा है।’

यही क्षत-विक्षत स्थिति मनुस्मृति की हुई है।

(ङ) प्रथम अध्याय में पृ0 12 पर चीन की दीवार से प्राप्त जिस चीनी भाषा के ग्रन्थ की जानकारी दी गयी है। उसमें कहा गया है कि मनुस्मृति में 680 श्लोक हैं। यह अत्यन्त प्राचीन सूचना है। यदि इसको सही मानें तो अभी मनुस्मृति के प्रक्षेपानुसन्धान की और आवश्यकता है।

(च) पाश्चात्य शोधकर्त्ता वूलर, जे. जौली, कीथ, मैकडानल आदि ने मनुस्मृति-सहित प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रक्षेपों का होना सिद्धान्ततः स्वीकार किया है। जे. जौली ने कुछ प्रक्षेप दर्शाये भी हैं।

(छ) मनुस्मृति के कुछ भाष्यकारों एवं समीक्षकों ने प्रक्षिप्त श्लोकों की संया इस प्रकार मानी है-

विश्वनाथ नारायण माण्डलीक      148

हरगोविन्द शास्त्री               153

जगन्नाथ रघुनाथ धारपुरे          100

जयन्त्तकृष्ण हरिकृष्णदेव          59

(ज) मनुस्मृति के प्रथम पाश्चात्त्य समीक्षक न्यायाधीश सर विलियम जोन्स उपलध 2685 श्लोकों में से 2005 श्लोकों को प्रक्षिप्त घोषित करते हैं। उनके मतानुसार 680 श्लोक ही मूल मनुस्मृति में थे।

(झ) महात्मा गांधी ने अपनी ‘वर्णव्यवस्था’ नामक पुस्तक में स्वीकार किया है कि वर्तमान मनुस्मृति में पायी जाने वाली आपत्तिजनक बातें बाद में की गयी मिलावटें हैं।

(झ) भारत के पूर्व राष्ट्रपति और दार्शनिक विद्वान् डॉ0 राधाकृष्णन्, श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि भी मनुस्मृति में प्रक्षेपों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं।

(ए) डॉ0 अबेडकर और प्रक्षेप

मैंने पहले दिखाया है कि डॉ0 अबेडकर ने अपने ग्रन्थों में मनुस्मृति के श्लोकार्थ प्रमाण रूप में उद्घृत किये हैं उनमें बहुत सारे परस्परविरोधी विधान वाले हैं (द्रष्टव्य ‘डॉ0 अबेडकर के लेखन में परस्परविरोध’ शीर्षक अध्याय 9)। आश्चर्य है कि फिर भी उन्होंने मनुस्मृति में परस्परविरोध नहीं माना। यदि वे मनुस्मृति में परस्पर -विरोध मान लेते तो उन्हें दो में से किसी एक श्लोक को प्रक्षिप्त मानना पड़ता। उस स्थिति में मनुस्मृति में प्रक्षेपों का अस्त्तित्व स्वीकार करना पड़ता। प्रक्षेपों की स्वीकृति से मनुस्मृति की विशुद्ध प्राचीन मान्यताएं स्पष्ट हो जातीं। तब न उग्र विरोध का अवसर आता और न विरोध का बवंडर उठता। किन्तु विडबना तो यह है कि डॉ0 अबेडकर ने प्रक्षेपों के अस्त्तित्व की चर्चा भी नहीं की। प्रश्न उठता है कि क्या उन्हें प्रक्षेपों की पहचान नहीं हो पायी?

यह विश्वसनीय नहीं है कि उन्हें परस्परविरोधी प्रक्षेपों का ज्ञान न हो, क्योंकि उन्होंने तो वेद से लेकर पुराणों तक प्रायः सभी ग्रन्थों में प्रक्षेप के अस्त्तित्व को स्वीकार किया है और उन पर दीर्घ चर्चा की है। देखिए-

(क) वेदों में प्रक्षेप मानना

‘‘पुरुष सूक्त के विश्लेषण से क्या निष्कर्ष निकलता है? पुरुष सूक्त ऋग्वेद में एक क्षेपक है।’’ (अबेडकर वाङ्मय, खंड ़13, पृ0 112)

‘‘ऐसा प्रतीत होता है कि वे दो मन्त्र (11 और 12) बाद में सूक्त के बीच जोड़ दिए गए। अतएव केवल पुरुष सूक्त ही बाद में नहीं जोड़ा गया, उसमें समय-समय पर और मन्त्र भी जुड़ते रहे। कुछ विद्वानों का तो यह भी मत है कि पुरुषसूक्त तो क्षेपक है ही, उसके कुछ मन्त्र और भी बाद में इसमें जोड़े गए।’’ (वही, खंड 13, पृ0111)

वेदों में प्रक्षेप मानने की अवधारणा इस कारण गलत है क्योंकि बहुत प्राचीन काल से वेदव्याया ग्रन्थों में वेदों के एक-एक सूक्त, अनुवाक, पद और अक्षर की गणना की हुई है, जो लिपिबद्ध है। कुछ भी छेड़छाड़ होते ही उससे पता चल जायेगा। इसी प्रकार जटापाठ, घनपाठ आदि अनेक पाठों की पद्धति आविष्कृत है जिनसे वेदमन्त्रों का स्वरूप सुरक्षित बना हुआ है।

(ख) वाल्मीकीय रामायण में क्षेपक मानना

‘‘महाभारत की तरह रामायण की कथा वस्तु में भी कालान्तर में क्षेपक जुड़ते गए।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 7, पृ0 120 तथा पृ0 130)

(ग) महाभारत में क्षेपक मानना

    ‘‘व्यास के ‘जय’ नामक लघु काव्यग्रन्थ में 8,800 से अधिक

श्लोक नहीं थे। वैशपायन के ‘भारत’ में यह संया बढ़कर 24000 हो गई। सौति ने श्लोकों की संया में विस्तार किया और इस तरह महाभारत में श्लोकों की संया बढ़कर 96,836 हो गई।’’

(वही, खंड 7, पृ0 127)

(घ) गीता में क्षेपक मानना

‘‘मूल भगवद्गीता में प्रथम क्षेपक उसी अंश का एक भाग है जिसमें कृष्ण को ईश्वर कहा गया है। ….. दूसरा क्षेपक वह भाग है जहां उसमें पूर्व मीमांसा के सिद्धान्तों की पुष्टि के रूप में सांय और वेदान्तदर्शन का वर्णन है, जो उनमें पहले नहीं था।………..तीसरे क्षेपक में वे श्लोक आते हैं, जिनमें कृष्ण को ईश्वर के स्तर से परमेश्वर के स्तर पर पहुंचा दिया गया है।’’(वही,खंड 7, पृ0275)

(ङ) पुराणों में क्षेपक मानना

‘‘ब्राह्मणों ने परपरा से प्राप्त पुराणों में अनेक नए अध्याय जोड़ दिए, पुराने अध्यायों को बदलकर नए अध्याय लिख दिए और पुराने नामों से ही अध्याय रच दिये। इस तरह इस प्रक्रिया से कुछ पुराणों की पहले वाली सामग्री ज्यों की त्यों रही, कुछ की पहले वाली सामग्री लुप्त हो गई, कुछ में नई सामग्री जुड़ गई तो कुछ नई रचनाओं में ही परिवर्तित हो गए।’’ (वही खंड 7, पृ0 133)

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि डॉ0 अबेडकर प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रक्षेपों की स्थिति को समझते थे। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि उन्होंने जानबूझकर मनुस्मृति में प्रक्षेप नहीं माने।

अब यह नया प्रश्न उत्पन्न होता है कि उन्होंने जानबूझकर प्रक्षेप क्यों नहीं माने? उसमें क्या रहस्य हो सकता है?

इसका उत्तर कठोर अवश्य है, किन्तु है सत्य। उन्होंने मनुस्मृति में प्रक्षेप इस कारण स्वीकार नहीं किये क्योंकि उसके स्वीकार करने पर उनका ‘विरोध के लिए विरोध’ का आन्दोलन समाप्त हो जाता। वे दलितों के सामाजिक और राजनीतिक नेता के रूप में स्वयं को स्थापित कर रहे थे। इसके लिए मनु और मनुस्मृति-विरोध का अस्त्र सफलता की गारंटी था। वे इसका किसीाी कीमत पर त्याग नहीं करना चाहते थे। मनु, मनुस्मृति और आर्य (हिन्दू) धर्म का विरोध दलितों का प्रिय विषय बन गया था क्योंकि दलित जन पौराणिक हिन्दू समुदाय के पक्षपातों और अत्याचारों से पीड़ित और क्रोधित थे। इसको सीढ़ी बनाकर डॉ0 अबेडकर भविष्य की उचाइयों पर चढ़ते गये।

कुछ लोग यहां यह कह सकते हैं कि दलितों के हित के लिए ऐसा करना आवश्यक था। किन्तु यह कथन दूरदर्शितापूर्ण नहीं है। डॉ0 अबेडकर का विरोध सकारात्मक कम, प्रतिशोधात्मक अधिक था। वह विरोध दलितों को उस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में ले गया जिससे भारत में एक नये वर्गसंघर्ष की परिस्थिति की आशंका उत्पन्न हो गयी है। डॉ0 अबेडकर अपने मन में हिन्दुओं के प्रति गहरी घृणा पाल चुके थे, हिन्दू धर्म को त्यागने का निश्चय कर चुके थे; अतः उन्होंने हिन्दू-दलित सौहार्द को बनाये रखने की चिन्ता की ही नहीं। यह स्थिति भारतीय समाज और राष्ट्र के लिए हितकर न थी, न रहेगी।

अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए डॉ0 अबेडकर ने मनुस्मृति की यथार्थ साहित्यिक स्थिति को, तर्क को, प्रमाण को, परपरा को, तथ्यों को, तटस्थ समीक्षा को, सत्य के अनुसन्धान के दावे को तिलांजलि दे डाली। उन्होंने विरोध करने के अतिरिक्त, सभी आपत्तियों-आरोपों के उत्तर देने के दायित्व से भी चुप्पी साध ली। उनके अनुयायियों ने उनका अनुकरण किया। आज भी स्थिति यह है कि उनके समर्थक या अनुयायी मनु और मनुस्मृति का विरोध तो करते हैं किन्तु किसी भी शंका का तर्क और प्रमाण से उत्तर नहीं देते। प्रक्षिप्त और मौलिक श्लोकों के अन्तर को वे समझना और मानना नहीं चाहते। सत्य-परिस्थिति से मुंह मोड़कर आज भी वे केवल ‘विरोध के लिए विरोध’ को अपना लक्ष्य मानकर चल रहे हैं।

सच्चाई यह है कि डॉ0 अबेडकर सहित मनुस्मृति-विरोधी साी लेखकों में कुछ एकांगी और पूर्वाग्रहयुक्त बातें समानरूप से पायी जाती हैं। उन्होंने कर्मणा वर्णव्यवस्था को सिद्ध करने वाले आपत्तिरहित श्लोकों, जिनमें स्त्री-शूद्रों के लिए हितकर और सदावपूर्ण बाते हैं, जिन्हें कि पूर्वापर प्रसंग से सबद्ध होने के कारण मौलिक माना जाता है, को मान्य ही नहीं किया । केवल आपत्तिपूर्ण श्लोकों, जो कि प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, को मान्य करके निन्दा-आलोचना की है। उन्होंने इस शंका का समाधान नहीं किया है कि एक ही लेखक की पुस्तक में, एक ही प्रसंग में, स्पष्टतः परस्परविरोधी कथन क्यों पाये जाते हैं? और आपने दो कथनों में से केवल आपत्तिपूर्ण कथन को ही क्यों ग्रहण किया? दूसरों की उपेक्षा क्यों की? यदि वे लेखक इस प्रश्न पर चर्चा करते तो उनकी आपत्तियों का उत्तर उन्हें स्वतः मिल जाता। न आक्रोश में आने का अवसर आता, न विरोध का, अपितु बहुत-सी भ्रान्तियों से बच जाते।

(च) निष्कर्ष

मनुस्मृति में समय-समय पर कांट-छांट, परिवर्तन-परिवर्धन के प्रयास हुए हैं। फिर भी मनु की मूल भावना के द्योतक श्लोक यत्र-तत्र संदर्भों में मिल जाते हैं। उनसे उनकी मौलिकता का ज्ञान हो जाता है।

संक्षेप में, प्रस्तुत विषय के मौलिक और प्रक्षिप्त श्लोकों का निर्णय इस प्रकार है-

  1. मनु की व्यवस्था ‘वैदिक वर्णव्यवस्था’ है (डॉ. अबेडकर ने भी पूर्व उद्धृत उद्धरणों में इसे स्वीकार किया है), अतः गुण-कर्म-योग्यता के सिद्धान्त पर अधारित जो श्लोक हैं वे मौलिक हैं। उनके विरुद्ध जन्मना जातिविधायक और जन्म के आधार पर पक्षपात का विधान करने वाले श्लोक प्रक्षिप्त हैं क्योंकि वह सारा प्रसंग परवर्ती है।

मनु के समय जातियां नहीं बनी थीं। यही कारण है कि मनु ने वर्णों की उत्पत्ति के प्रसंग में जातियों की गणना नहीं की है। इस शैली और सिद्धान्त के आधार पर वर्णसंकरों से सबन्धित सभी श्लोक प्रक्षिप्त हैं और उनके आधार पर वर्णित जातियों का वर्णन भी प्रक्षिप्त है क्योंकि वह सारा प्रसंग परवर्ती है।

  1. इस पुस्तक में उद्धृत मनु की यथायोग्य दण्डव्यवस्था, जो कि उनका ‘सामान्य कानून’ है, मौलिक है; उसके विरुद्ध पक्षपातपूर्णदण्डव्यवस्था-विधायक श्लोक प्रक्षिप्त हैं।
  2. इस पुस्तक में उद्धृत शूद्र की परिभाषा, शूद्रों के प्रति सद्भाव, शूद्रों के धर्मपालन, वर्णपरिवर्तन आदि के विधायक श्लोक मौलिक हैं; उनके विपरीत जन्मना शूद्रनिर्धारक, स्पृश्यापृश्य, ऊंच-नीच, अधिकारों के शोषण आदि के विधायक श्लोक प्रक्षिप्त हैं।
  3. इस लेख में उद्धृत नारियों के समान, स्वतंत्रता, समानता, शिक्षा के विधायक श्लोक मौलिक हैं, इसके विपरीत प्रक्षिप्त हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि मनु एवं मनुस्मृति को मौलिक रूप में पढ़ा और समझा जाये और प्रक्षिप्त श्लोकों के आधार पर किये जाने विरोध का परित्याग किया जाये। आदिविधिदाता राजर्षि मनु एवं आदि संविधान ‘मनुस्मृति’ गर्व करने योग्य हैं, निन्दा करने योग्य नहीं। भ्रान्तिवश हमें अपनी अमूल्य एवं महत्त्वपूर्ण आदितम धरोहर को निहित स्वार्थमयी राजनीति में घसीटकर उसका तिरस्कार नहीं करना चाहिये।

मनुस्मृति में स्त्रियों के शैक्षिक एवं धार्मिक अधिकार: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

अपनी स्मृति में वेद को परम प्रमाण मानने वाले महर्षि मनु का मन्तव्य वेदोक्त ही है। विश्व के सभी धर्मों में से केवल वैदिक धर्म में और सभी देशों में से भारतवर्ष में यिों को पुरुष के कार्यों में जो सहभागिता प्राप्त है वह अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती। यहां का कोई भी धार्मिक, सामाजिक या पारिवारिक आयोजन-अनुष्ठान ी को साथ लिए बिना सपन्न नहीं होता। यही मनु की मान्यता है। इसलिए उन्होंने प्रत्येक गृह-आयोजन और धर्मानुष्ठान के प्रबन्ध का दायित्व ी को सौंपा है और उसकी सहभागिता से ही प्रत्येक अनुष्ठान करने का निर्देश दिया है। वैदिक -काल में यिों को वेदाध्ययन, यज्ञोपवीत, यज्ञ आदि के सभी अधिकार प्राप्त थे। वे ब्रह्मा के पद को सुशोभित करती थीं। उच्च शिक्षा प्राप्त करके मन्त्रद्रष्ट्री ऋषिकाएं बनती थीं। वेदों को धर्म में परम-प्रमाण मानने वाले महर्षि मनु वेदानुसार यिों के सभी धार्मिक तथा उच्च शिक्षा के अधिकारों के समर्थक थे। तभी उन्होंने यिों के अनुष्ठान मन्त्रपूर्वक करना और धर्मकार्यों का अनुष्ठान यिों के अधीन रखना, घोषित किया है। प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

(अ) वेदों में स्त्रियों के धार्मिक अधिकार

वेदों के मन्त्रों पर लगभग 26 महिलाओं के नाम का उल्लेा ऋषिका के रूप में मिलता है जो इस तथ्य की जानकारी देता है कि अपनी विद्वत्ता से उन ऋषिकाओं ने उन-उन मन्त्रों का भाष्य अथवा प्रवचन किया था, अतः उनका नाम वहां उल्लिखित है। वे हैं-

घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू) अगस्त्यभगिनी, अदिति, इन्द्राणी, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा, नदी, यमी, शाश्वती, श्री, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्रि, सूर्या, सावित्री, अदिति (बृहद्देवता 2.82-84)। इनके अतिरिक्त ब्राह्मणग्रन्थों, उपनिषदों और महाभारत में दर्जनों वेदविदुषियों का वर्णन है। वेद तो स्पष्ट आदेश देता है –

‘‘ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्’’ (अथर्ववेद 3.5.18)

    अर्थात्-‘कन्या ब्रह्मचर्यपूर्वक वेद-शास्त्रों का अध्ययन कर, विदुषी बनकर अपने सदृश पति का वरण करती है, अर्थात् करे।’ वह परिवार फिर विद्वानों का, सुशिक्षितों का परिवार बनता है। फिर उस परिवार में शिक्षित, सय, उन्नत सन्तान होती है।

(आ) मनुस्मृति में स्त्रियों के धार्मिक अधिकार

मनु भी वैदिक परपरा के प्रवर्तक एवं संवाहक हैं। वैदिक परपरा के अनुसार, मनु ने भी स्त्रियों को धर्मानुष्ठान का अधिकार सौंपा है। घर में आयोजित होने वाले सभी धर्मानुष्ठानों का मुय दायित्व पत्नी को ही दिया है। स्पष्ट है कि उन दायित्वों को विदुषी पत्नी ही सपन्न कर सकती है, अशिक्षित पत्नी नहीं। अतः नारियों का शैक्षिक एवं धार्मिक अधिकार स्वतः सिद्ध है। मनु का विधान है-

(क) ‘‘अपत्यं धर्मकार्याणि………दाराधीनः’’ (9.28)

अर्थ-‘सन्तानोत्पत्ति और धर्मकार्यों का अनुष्ठान पत्नी के दायित्व के अन्तर्गत आता है। वही इन कार्यों की स्वामिनी है।’

(ख) ‘‘शौचे धर्मेऽन्नपक्त्यां परिणाह्यस्य वेक्षणे।’’  (9.11)

अर्थ-‘घर की सजावट-स्वच्छता, धर्मानुष्ठानों का आयोजन, भोजन-पाक, घर की संभाल-निरीक्षण, इन कार्यों को पत्नी के अधिकार में रखे।’

(ग) ‘‘तस्मात् साधारणो धर्मः श्रुतौ पत्न्या सहोदितः’’ (9.96)

अर्थ-‘वेदशास्त्रों में साधारण से साधारण कर्त्तव्य और धर्मपालन पत्नी को सहभागी बनाकर करने का आदेश दिया है। पत्नी के बिना धर्मानुष्ठान अधूरा है।’

मनु यहां वेद को प्रमाण रूप में घोषित कर रहे हैं और वेद में स्त्रियों के लिए शिक्षा व धर्म का अधिकार विहित है, अतः वेद का विधान ही मनु द्वारा स्वीकृत विधान है।

(घ) इसी प्रकार स्त्रियों की विवाहविधि बिना यज्ञानुष्ठान के सपन्न नहीं मानी जाती। यज्ञ में वेदमन्त्रोच्चारण पूर्वक भागीदारी का होना उनके यज्ञाधिकार का साधक है। दैवविवाह तो होता ही यज्ञ-क्रिया-पूर्वक है (3.28)। एक अन्य स्थान पर मनु कहते हैं कि बिना यज्ञ और वेदमन्त्र-पाठ के विवाहविधि सपन्न ही नहीं होती। उसके बिना पत्नी पर पति का ‘पतित्व’ अधिकार नहीं बनता-

मंगलार्थं स्वस्त्ययनं यज्ञश्चासां प्रजापतेः।      

प्रयुज्यते विवाहेषु प्रदानं स्वायकारणम्॥    (5.152)

    अर्थ-‘विवाह काल में स्वस्ति-परक मन्त्रों का पाठ और वैवाहिक यज्ञ का अनुष्ठान इन स्त्रियों के मंगल के लिए ही किया जाता है। उस यज्ञ में कन्यादान करने पर ही स्त्रियों पर पति का अधिकार बनता है, अन्यथा नहीं।’

(इ) स्त्रियों की शिक्षा तथा धार्मिक अनुष्ठान की वैदिक परपरा

(क) मनु वैदिक काल और परपरा के राजर्षि हैं। स्त्रियों के लिए शिक्षा तथा धार्मिक अनुष्ठानों का निषेध उस काल में नहीं था। अतः स्त्रियों के शिक्षा-निषेधपरक विधान मनुस्मृति के मौलिक विधान नहीं हो सकते। ये प्रक्षेप पौराणिक काल के हैं।

स्त्रियों की शिक्षा और धार्मिक अधिकारों की परपरा महाभारत काल के भी बहुत बाद तक मिलती है। आचार्य पाणिनि ने अष्टाध्यायी में ‘‘पत्युर्नो यज्ञ संयोगे’’ (4.1.33) सूत्र के द्वारा बतलाया है कि यज्ञानुष्ठान के द्वारा विवाह होने पर ही कोई स्त्री पत्नी कहलाती है। स्पष्ट है कि वह वैवाहिक यज्ञ के अनुष्ठान में भागीदारी करती है।

(ख) ब्राह्मण ग्रन्थों में बहुत ही स्पष्ट शदों में निर्देश दिया है कि गृहस्थ को पत्नी के साथ मिलकर ही यज्ञ करना चाहिए, अकेले नहीं। गृहस्थ होने के उपरान्त व्यक्ति अकेला यज्ञ करता है तो वह यज्ञ पूर्ण नहीं माना जाता –

    ‘‘अयज्ञियो वैष योऽपत्नीकः’’ (तैत्तिरीय ब्राह्मण 3.3.3.1)

अर्थ-‘पत्नी के बिना यज्ञ करने वाला गृहस्थ यज्ञ के अयोग्य है।’            ‘‘यद्वै पत्नी यज्ञे करोति तत् मिथुनम्’’

(तैत्तिरीय संहिता 6.2.1.1)

अर्थ-‘पत्नी यज्ञ में जो अनुष्ठान करती है वह दोनों के

(पति-पत्नी के) लिए है।’ इससे बढ़कर पत्नी द्वारा यज्ञ करने का स्पष्ट वर्णन क्या हो सकता है?

(ग) इसका कारण यह है कि विवाह होने के बाद पति-पत्नी एक इकाई बन जाते हैं, उन्हें कोई भी कार्य मिलकर करना चाहिए। एक-दूसरे की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। तैत्तिरीय ब्राह्मण इसलिए घोषणा करता है –

             ‘‘अर्धो वा एष आत्मनः यत्पत्नी’’  (3.3.3.5)

अर्थपत्नी पति का आधा भाग है।जैसे शरीर के आधे भाग की उपेक्षा नहीं की जाती, उसी प्रकार पत्नी की भी सर्वत्र बराबर भागीदारी होती है।

(घ) इसी आधार पर वैदिक परपरा में अकेला पति यजमानाी नहीं हो सकता। पत्नी के साथ मिलकर ही गृहस्थ यजमान की पूर्णता होती है-

   ‘‘अर्धात्मा वा एष यजमानस्य यत् पत्नी’’ (जैमिनीय ब्रा0 1.86)

अर्थपत्नी, यजमान पति का आधा भाग है। पूर्ण यजमान पति-पत्नी के संयुक्त रूप में कहाता है।इसी प्रकार पत्नी के बिना गृहस्थ का कोई भी धर्मानुष्ठान पूर्ण नहीं होता।

(ङ) यज्ञ में पत्नी का महत्त्व इतना अधिक है कि शास्त्र पत्नी को ही यज्ञ का आधा भाग घोषित करते हैं-

‘‘पूर्वार्धो वै यज्ञस्याध्वर्युः, जघनार्धः पत्नी’’ (शतपथ0 1.9.2.3)

‘‘जघनार्धो वा एष यज्ञस्य यत्पत्नी’’ (शतपथ 1.3.1.12)

अर्थ-दोनों वाक्यों का एक ही भाव है कि ‘यज्ञ का पूर्व भाग पति है तो उत्तर भाग पत्नी है।’ यज्ञ न केवल पति-पत्नी का संयुक्त कर्त्तव्य है अपितु वह दोनों के ऐक्य का प्रतीक है।

(ग) इस प्रसंग में एक ऐतिहासिक सन्दर्भ का उल्लेख बहुत महत्त्वपूर्ण है, जो मनुपत्नी द्वारा वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान और यज्ञ में सस्वर वेदपाठ करने का प्रमाण देता है। सातवें मनु राजर्षि मनु वैवस्वत (मनु श्रद्धादेव) एक बार अपने महल में पहुंचे तो देखते हैं कि उनकी पत्नी यज्ञानुष्ठान कर रही है और उसमें उच्च स्वर से यजुर्वेद के मन्त्रों का पाठ कर रही है। काठक ब्राह्मण इस घटना का उल्लेख इस प्रकार करता है-

‘‘तत् पत्नीं यजुर्वदन्तीं प्रत्यपद्यत। तस्याः वाग् द्यां आतिष्ठत्।’’

(3.30.1)

    अर्थात्-‘मनु जब महल में पहुंचे तो उनकी पत्नी यज्ञ में यजुर्वेद के मन्त्रों का उच्च स्वर से पाठ कर रही थी। उसकी वाणी आकाश में व्याप्त हो रही थी।’

यह मनुओं की परपरा थी। जो सातवें मनु तक स्पष्ट शदों में प्राप्त है। प्रथम मनु स्वायंभुव के समय तो ऐसी वैदिक परपराएं और भी सुदृढ़ रूप में रही होंगी। ऐसी परपरा का प्रारभकर्त्ता राजर्षि मनु स्त्रियों के लिए शिक्षा तथा धार्मिक अधिकारों का निषेध विहित नहीं कर सकता, जो स्वयं वेदानुयायी हो और यज्ञप्रवर्तक हो।

(घ) बृहदारण्यक उपनिषद् में ब्रह्मविद्या की ज्ञाता गार्गी वाचक्नवी नामक विदुषी का उल्लेख है। उसने ब्रह्मविद्या के सर्वोच्च ज्ञाता ऋषि याज्ञवल्क्य से संवाद किया था (3.6.2;3.8.1)। याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी भी ब्रह्मवादिनी थी (2.4.2; 4.5.2)।

(ङ) महाभारत में गार्गी सहित एक दर्जन से अधिक विदुषियों का वर्णन आता है। उनमें सुलभा का विशेष महत्त्व है। अन्य विदुषियां थीं शिवा, सिद्धा, श्रुतावली, विदुला आदि (शान्ति 320.82; उद्योग0 109.18; शल्य0 54.6; उद्योग0 133 आदि)

(च) आचार्य पाणिनि ने विदुषियों की अनेक उपाधियों का उल्लेख अष्टाध्यायी में किया है जो यह जानकारी उपलध कराता है कि तब तक उस स्तर की विदुषियां होती थीं। मीमांसा दर्शन की काशकृत्स्नि व्याया की विशेषज्ञा महिलाओं को ‘काशकृत्स्ना’ कहा जाता था। गुरुकुलों में ‘आचार्या’ और ‘उपाध्याया’ पदवीधारी अध्यापिकाएं हुआ करती थीं (4.1.49)। वेदों की शाखा-विशेष का अध्ययन करने के अनुसार कोई ‘कठी’ तो कोई ‘बह्वृची’ कहलाती थी (4.1.63)। युद्ध विद्या में पारंगत क्षत्रिया विदुषियों का उल्लेख भी पाणिनि ने किया है। ‘शक्ति’ नामक अस्त्र में प्रवीण ‘शाक्तिकी’ और लाठी चलाने में प्रवीण स्त्री को ‘याष्टिकी’ कहा गया है। गुरुकुलों के छात्रावास में रहकर अध्ययन करनेवाली छात्राओं के निवास को ‘छात्रिशाला’ कहा जाता था (6.2.86)।

(छ) यम स्मृति में कन्याओं के उपनयन और वेदाध्ययन का उल्लेख है-

‘‘पुराकल्पे तु नारीणां मौञ्जीबन्धनमिष्यते।

अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा॥’’

(ज) हारीत स्मृति में विदुषी महिलाओं के ‘ब्रह्मवादिनी’ वर्ग का वर्णन आता है (21.23)। वे वेदादिशास्त्रों का गभीर अध्ययन करके ही ब्रह्मवादिनी बनती थीं।

(झ) स्त्रियों के अध्ययन की परपरा तो बहुत अर्वाचीन काल तक चली है। शंकराचार्य प्रथम (लगभग 2500 वर्ष पूर्व) के समय मंडन मिश्र की पत्नी भारती ने शंकराचार्य से शास्त्रार्थ किया था। राजशेखर की पत्नी अवंतीसुन्दरी प्रसिद्ध विदुषी हुई है। कर्नाटक प्रदेश की राजकुमारी बिज्जिका वैदर्भी काव्यरीति की प्रसिद्ध विदुषी मानी गयी है, जिसका ‘कौमुदी महोत्सव’ नाटक सुवियात है। पांचाली काव्यरीति की विदुषी भट्टारिका का नाम तथा लाटी काव्यरीति के लिए देवी नामक विदुषी का नाम प्रसिद्ध है।

मनुस्मृति में पति-पत्नी को त्यागने की परिस्थितियों का वर्णन: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) मुयतः मनु का यही आदेश है कि विवाह सोच-विचार कर तथा पारस्परिक प्रसन्नता से समान, योग्य युवक और युवती से करें। विवाह के पश्चात् यह आदेश है कि पति पत्नी को और पत्नी पति को संतुष्ट और प्रसन्न रखे। इस प्रकार रहते हुए उन्हें निर्देश है कि वे सदा यह प्रयास रखें कि आजीवन एक-दूसरे से बिछुड़ने का अवसर न आये। मनु का यह प्रथम सिद्धान्त है-

(क) अन्योन्यस्याव्यभिचारो भवेदामरणान्तिकः।

       एषः धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्रीपुंसयोः परः॥ (9.101)

(ख)    तथा नित्यं यतेयातां स्त्रीपुंसौ तु कृतक्रियौ।

       यथा नाभिचरेतां तौ वियुक्तौ इतरेतरम्॥ (102)

    अर्थ-‘पति और पत्नी का संक्षेप में सबसे प्रमुख धर्म यह है कि दोनों सदा यह प्रयत्न करें कि मृत्युपर्यन्त दोनों का मर्यादा-अतिक्रमण और पार्थक्य (तलाक) न हो।’

‘विवाह करने के बाद स्त्री और पुरुष सदा ऐसा यत्न करें जिससे वे एक-दूसरे से पृथक् न हों और ऐसे कार्य तथा व्यवहार करें जिससे घर में पृथकता का वातावरण ही न बने।’

(आ) किन्तु इन्हीं श्लोकों की भाषा से यह ध्वनित होता है कि किन्हीं विशेष कारणों से अलग होने का अवसराी अपवाद रूप में होता था। कुछ स्थितियां मनुस्मृति में वर्णित भी हैं जब पति या पत्नी एक दूसरे को छोड़ सकते हैं-

(क) पत्नी को निम्न स्थितियों में छोड़ा जा सकता है-

वन्ध्याष्टमेऽधिवेद्यादे दशमे तु मृतप्रजा।        

एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी॥   (9.81)

    अर्थात्-‘स्त्री वन्ध्या हो तो आठ वर्ष पश्चात्, स्त्री को सन्तान होकर मर जाती हों तो दश वर्ष पश्चात्, और पत्नी कटुवचन बोलने वाली हो तो उसको शीघ्र ही छोड़ा जा सकता है।’

(ख) पति को निन स्थितियों में छोड़ा जा सकता है

       प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ नरः समाः।

       विद्यार्थं षट् यशोऽर्र्थं वा कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान्॥ (9.76)

    अर्थात्-‘यदि पति परदेस जाकर निनलिखित अवधि तक न लौटे तो पत्नी को दूसरा पति करने का अधिकार है-धर्मकार्य के लिए आठ वर्ष तक, विद्याप्राप्ति अथवा प्रसिद्धि प्राप्ति के लिए छह वर्ष तक, धन प्राप्ति के लिए तीन वर्ष तक।’

(इ) किन्तु निर्दोष अवस्था में एक-दूसरे को त्यागने पर दोषी व्यक्ति राजा द्वारा दण्डनीय है-

न माता न पिता न स्त्री न पुत्रस्त्यागमर्हति।      

त्यजन्नपतितानेतान्, राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट्॥       (8.389)

    अर्थ-‘बिना गभीर अपराध के माता, पिता, पत्नी, पुत्र का त्याग नहीं किया जा सकता। ऐसा करने पर राजा द्वारा त्यागकर्त्ता को छह सौ पण दण्ड देना चाहिए और त्यक्त परिजनों को साथ रखने का आदेश देना चाहिये।’

आन्तरिक प्रमाणों में धर्म और शिक्षा का विधान: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(क) विवाह में यज्ञ और मन्त्रोच्चारण-मनुस्मृति में चार वर्णों के लिए आठ विवाहों का वर्णन किया है जिनमें आर्यों के लिए चार विवाह श्रेष्ठ बताये हैं-ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य

(3.20-42)। ये चारों विवाह यज्ञीय विधि से वेदमन्त्रों के उच्चारणपूर्वक सपन्न होते हैं (‘‘मङ्गलार्थं स्वस्त्ययनं यज्ञश्चासां प्रजापतेः। प्रयुज्यते विवाहेषु’’ (5.152)=यज्ञानुष्ठान और स्वस्तिवाचक मन्त्रों का पाठ विवाह में किया जाता है)। इस प्रकार शूद्र का विवाह भी यज्ञानुष्ठान और वेदमन्त्रोच्चारणपूर्वक सपन्न करना मनु मतानुसार अनिवार्य है। स्पष्ट है कि इस मौलिक विधि में शूद्रों के लिए धार्मिक अनुष्ठानों का विधान है। मनुस्मृति में इस मौलिक विधान और मूल-भावना के विरुद्ध जो श्लोक वर्णित मिलते हैं, वे परस्पर विरुद्ध होने प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, जो कि बाद के लोगों ने मिलाये हैं।

(ख) मनु ने मनुस्मृति में शूद्रों को धर्म का अधिकार देते हुए कहा है-

               ‘‘न धर्मात् प्रतिषेधनम्’’ (10.126)

    अर्थात्-‘शूद्रों को धार्मिक कार्य करने का निषेध नहीं है’ यह कहकर मनु ने शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता दी है।

(ग) शूद्राी गुरु हो सकता है-इस तथ्य का ज्ञान इस श्लोक से होता है जिसमें मनु ने कहा है कि ‘शूद्र से भी उत्तम धर्म को ग्रहण कर लेना चाहिए।’ देखिए, कितना स्पष्ट प्रमाण है-

             ‘‘आददीत-अन्त्यादपि परं धर्मम्॥’’  (2.238)

यदि अन्त्य अर्थात् शूद्र को धर्मपालन का अधिकार नहीं होता तो उससे धर्म-ग्रहण करने का उल्लेख मनु क्यों करते? और कैसे उससे धर्म सीखा जा सकता था? इससे पाठक एक और अनुमान लगा सकते हैं कि आर्यों की वर्णव्यवस्था इतनी उदारतापूर्ण और ज्ञानपिपासु थी कि नवीन व उत्तम शिक्षा प्राप्त करते समय उनके समक्ष छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच आदि कुछ भी आड़े नहीं आता था।

(ग) ब्राह्मणेतर भी गुरु होता है

    यद्यपि व्यावसायिक दृष्टि से अध्यापन कार्य ब्राह्मणों का कर्त्तव्य है किन्तु एकाधिकार नहीं। अन्य वर्णों के प्रशिक्षण के लिए या विशेष विद्या की प्राप्ति के लिए ब्राह्मणेतर भी गुरु हो सकता है। मनु कहते हैं-

       अब्राह्मणादध्ययनम्, आपत्काले विधीयते॥       (2.241)

    अर्थात्-‘ब्राह्मणेतर वर्णस्थ गुरु भी हो सकता है किन्तु उससे आपत्काल अर्थात् ब्राह्मण द्वारा न पढ़ाने पर अथवा गुरु के अभाव में शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।’ अध्यापन-कार्य ब्राह्मणों की आजीविका होने के कारण यह कथन है, सैद्धान्तिक दृष्टि से नहीं।

निष्कर्ष यह है कि शिक्षा तथा धर्मानुष्ठान का विधान शूद्रों के लिए भी है। किन्तु उनको वैधानिक शिक्षण तथा धर्मानुष्ठान का अधिकार इस कारण नहीं है क्योंकि वह विधिवत् शिक्षण एवं धर्मानुष्ठान का प्रशिक्षण नहीं लेता है। इसीलिए वह शूद्र कहाता है। इसे हम आज के डॉक्टरों के उदाहरण से समझ सकते हैं। सब डॉक्टर चिकित्सा तो कर सकते हैं किन्तु सब चिकित्सा प्रमाण पत्र देने के वैधानिक अधिकारी नहीं होते। शिक्षा आज भी सभी प्राप्त कर सकते हैं किन्तु सरकार केवल उन्हें ही नौकरी देती है जो विधिवत् शिक्षित-प्रशिक्षित होते हैं। यही नियम अन्य व्यवसायों पर लागू है। यही प्राचीन काल में शूद्र होने वालों पर लागू था।