(अ) प्राचीन मनुओं से भिन्न है डॉ. अम्बेडकर का मनु
डॉ. अम्बेडकर के साहित्य का मनु का समर्थनात्मक एवं सकारात्मक पहलू गत पृष्ठों में दिखाया गया है किन्तु दूसरा पहलू यह भी है कि उन्होंने अपने साहित्य में अनेक स्थलों पर ‘मनु’ का नाम लेकर कटु आलोचनााी की है। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि यदि वे किसी मनु का समर्थन कर रहे हैं तो आलोचना किस ‘मनु’ की कर रहे हैं?
इसका उत्तर उन्होंने स्वयं दिया है। डॉ0 अम्बेडकर के अनुयायी और मनु-विरोधियों को उस पर गभीरता से ध्यान देना चाहिए। उन्होंने मनुस्मृति-विषयक एक नयी मान्यता स्वीकृत की है। उस मान्यता को लेकर मतभेद हो सकता है, किन्तु उन्होंने इस स्वीकृति में यह स्पष्ट कर दिया कि मैं किस व्यक्ति का विरोध कर रहा हूँ। उनकी मान्यता है कि वर्तमान में उपलध मनुस्मृति आदिकालीन मनु द्वारा रचित नहीं है, अपितु पुष्यमित्र शुङ्ग (ई0 पूर्व 185) के काल में ‘मनु सुमति भार्गव’ नाम के व्यक्ति ने इसको रचा है और उस पर अपना छद्म नाम ‘मनु’ लिख दिया है। वही सुमति भार्गव उनकी निन्दा और आलोचना का केन्द्र है। इस बात को उन्होंने दो स्थलों पर स्वयं स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं-
(क) ‘‘प्राचीन भारतीय इतिहास में ‘मनु’ आदरसूचक संज्ञा थी। इस संहिता (मनुस्मृति)को गौरव प्रदान करने के उद्देश्य से मनु को इसका रचयिता कह दिया गया। इसमें कोई शक नहीं है कि यह लोगों को धोखे में रखने के लिए किया गया। जैसी कि प्राचीन प्रथा थी, इस संहिता को भृगु के वंश नाम से जोड़ दिया गया।……..इसमें हमें इस संहिता के लेखक के परिवार के नाम की जानकारी मिलती है। लेखक का व्यक्तिगत नाम इस पुस्तक में नहीं बताया गया है, जबकि कई लोगों को इसका ज्ञान था। लगभग चौथी शतादी में नारद स्मृति के लेखक को मनुस्मृति के लेखक का नाम ज्ञात था। नारद के अनुसार ‘सुमति भार्गव’ नाम के एक व्यक्ति थे जिन्होंने मनु-संहिता की रचना की।……इस प्रकार मनु नाम ‘सुमति भार्गव’ का छद्म नाम था और वह ही इसके वास्तविक रचयिता थे’’ (अंबेडकर वाङ्मय, भाग 7, पृ. 151)।
एक अन्य पुस्तक में वे लिखते हैं-‘‘मनु के काल-निर्धारण के प्रसंग में मैंने संदर्भ देते हुए बताया था कि मनुस्मृति का लेखन ईसवी पूर्व 185, अर्थात् पुष्यमित्र की क्रान्ति के बाद सुमति भार्गव के हाथों हुआ था।’’ (वही, भाग 7, पृ. 116)
(ग) ‘‘पाणिनि ईसा से 300 वर्ष पहले हुआ। मनु ईसा के 200 वर्ष पूर्व हुआ।’’ (वही, खंड 6, पृ0 59)
(घ) ‘‘मनु एक कर्मचारी था जिसे ऐसे दर्शन की स्थापना के लिए रखा गया था जो ऐसे वर्ग के हितों का पोषण करे जिस समूह में वह पैदा हुआ था और जिसका महामानव (ब्राह्मण) होने का हक उसके गुणहीन होने के बावजूदाी न छीना जाए।’’ (वही, खंड म्, पृ0 155)
उक्त उद्धरणों की समीक्षा से ये निष्कर्ष सामने आता है कि सृष्टि का आदिकालीन मनु स्वायंभुव या मनु वैवस्वत किसी के कर्मचारी नहीं थे, वे स्वयं चक्रवर्ती राजा (राजर्षि) थे। डॉ. अम्बेडकर का यह कथन उन पर लागू नहीं होता। अतः स्पष्ट है कि यह कथन मनु नामधारी सुमति भार्गव के लिए है जो ई0 पूर्व 185 में राजा पुष्यमित्र शुङ्ग का कर्मचारी था। इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर प्राचीन मनुओं का विरोध नहीं करते अपितु वे वस्तुतः पुष्यमित्र-कालीन मनु छद्म नामधारी सुमति भार्गव का विरोध करते हैं।
(ङ) ‘‘बौद्ध धर्म के पतन के कारणों से सबन्धित तथ्यों को उस ब्राह्मण साहित्य से छान-बीन कर एकत्र किया जाना चाहिए, जो पुष्यमित्र की राजनीतिक विजय के बाद लिखा गया था। इस साहित्य को छह भागों में बांटा जा सकता है-(1) मनुस्मृति, (2) गीता, (3) शंकराचार्य का वेदान्त, (4) महाभारत, (5) रामायण और (6) पुराण।’’ (वही, खंड 7, ब्राह्मण साहित्य, पृ0 115)
डॉ0 अम्बेडकर यदि उपलध मनुस्मृति को ईसा पूर्व 185 की रचना मानते हैं और उसे ‘मनु’ छद्म नामधारी सुमति भार्गव रचित मानते है तो प्राचीन मनुओं ने कौन सा धर्मशास्त्र रचा? यह प्रश्न शेष रहता है। उसका उत्तराी उन्होंने स्वयं दिया है। उनका कहना है-
(च) ‘‘वर्तमान मनुस्मृति से पूर्व दो अन्य ग्रन्थ विद्यमान थे। इनमें से एक ‘मानव अर्थशास्त्र’ अथवा ‘मानवराजशास्त्र’ अथवा ‘मानव राजधर्मशास्त्र’ के नाम से एक पुस्तक बतायी जाती थी। एक अन्य पुस्तक ‘मानव गृह्यसूत्र’ के नाम से जानी जाती थी।’’ (वही, भाग 7, पृ. 152)
इस प्रकार स्पष्ट हुआ कि डॉ. अम्बेडकर ने अपने आदिपुरुषों और आदि विधिप्रणेताओं प्राचीन-मनुओं और उन द्वारा रचित साहित्य की आलोचना नहीं की है उन्होंने 185 ईस्वी पूर्व पुष्यमित्र शुङ्ग के काल में ‘मनु’ छद्म नामधारी सुमति भार्गव और उनके द्वारा रचित जाति-पांति विधायक स्मृति की आलोचना की है।
(आ) शोध निष्कर्ष
पाश्चात्य लेखकों की समीक्षा से प्रभावित होकर डॉ. अम्बेडकर ने मनुस्मृति का काल 185 ई0पृ0 माना और इसका आद्य रचयिता ‘सुमति भार्गव मनु’ को माना। प्राचीन वैदिक ग्रन्थों की परपरा का ज्ञान तथा उनका गभीर अध्ययन न होने के कारण डॉ0 अम्बेडकर इस विषय का तथ्यात्मक चिन्तन नहीं कर सके । उनसे यह भूल हुई है। गत पुष्ट प्रमाणों के आधार पर वास्तविकता यह है कि मनुस्मृति मूलतः स्वायभुव मनु की रचना है। यह आदिकालीन है। जैसा कि एक स्थान पर डॉ0 अम्बेडकर ने स्वयं लिखा है-
‘‘इससे प्रकट होता है केवल मनु ने विधान बनाया। जो स्वायभुव मनु था।’’(अंबेडकर वाङ्मय, खंड 8, पृ0 283)
इस मनु तथा इसके धर्मशास्त्र का उल्लेख प्राचीनतम संहिताग्रन्थों, ब्राह्मणग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत, गीता, बौद्धसाहित्य, जैनसाहित्य, पुराणों और प्राचीन शिलालेखों में आता है जो ईसापूर्व की कृतियां हैं। अतः मनुस्मृति को मूलतः और पूर्णतः सुमति भार्गव की आद्य रचना मानना एक ऐतिहासिक भूल है तथा साहित्यिक परपरा के विपरीत है। वंश-परपरा और काल-परपरा की कसौटी पर भी यह स्थापना गलत सिद्ध होती है।
डॉ0 अम्बेडकर ने जिस सुमति भार्गव का उल्लेख किया है,उन्होंने लिखा है कि उसकी चर्चा नारद-स्मृति में आती है। यह अनुमान विश्वास किये जाने योग्य है कि बौद्ध धर्म के हृास के बाद, ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुङ्ग (185 ई0) के द्वारा अपने राजा की हत्या करके स्वयं को राजा घोषित करने के उपरान्त, उसके द्वारा जब ब्राह्मणवाद की पुनः स्थापना हुई, तब सुमति भार्गव ने मनुस्मृति में पर्याप्त परिवर्तन-परिवर्धन किये हों और उसका एक नया संस्करण तैयार किया हो जिसमें वर्णव्यवस्था पर जन्मना जातिवाद की स्थापना करने की कोशिश की गयी है। यही कारण है कि मनुस्मृति में दोनों सिद्धान्तों का विधान करने वाले परस्पर-विरोधी श्लोक साथ-साथ पाये जाते हैं।
डॉ0 अम्बेडकर यदि इस पक्ष का विशेष विचार कर लेते कि मनुस्मृति में एक ओर गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित व्यवस्था वाले, शूद्र और नारियों के पक्षधर, न्यायपूर्ण श्लोक हैं, जिनका कि स्वयं उन्होंनेाी समर्थन किया है तथा दूसरी ओर जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूत-अछूत वर्णक एवं पक्षपातपूर्ण श्लोक हैं; किसी विद्वान् की रचना में यह दोष संभव नहीं है, फिर मनुस्मृति में क्यों हैं? तब उन्हें स्वतः उत्तर मिल जाता कि इसमें बाद के लोगों ने प्रक्षेप किये हैं। डॉ0 अम्बेडकर ने वेदों में पुरुष-सूक्त को प्रक्षिप्त माना, रामायण, महाभारत, गीता, पुराणों में प्रक्षेप होना स्वीकार किया, किन्तु मनुस्मृति में प्रक्षेपों का होना नहीं माना। यह न केवल आश्चर्यपूर्ण है, अपितु रहस्यमय भी है!! उन्होंने ऐसा क्यों नहीं स्वीकार किया, यह विचारणीय है ! उन्होंने इस विसंगति का उत्तर भी नहीं दिया कि मनुस्मृति में प्रकरणविरोधी और परस्परविरोधी श्लोक क्यों हैं? यदि वे इस बात का उत्तर देने को उद्यत होते तो उन्हें प्रक्षेपों की सच्चाई को स्वीकार करना ही पड़ता। फिर उन्हें मनु का ‘विरोध के लिए विरोध’ करने का विचार त्यागना पड़ता। यदि ऐसा होता तो क्या ही अच्छा होता!
(इ) संदेश-सार
अस्तु, इस विषय को और अधिक लंबा न करके डॉ0 अम्बेडकर की पूर्वोक्त मान्यताओं पर आते हैं जिनसे हमें ये संदेश मिलते हैं-
- डॉ0 अम्बेडकर का नाम लेकर बात-बात पर मनु एवं मनुस्मृति का विरोध करने और मनुवाद का नारा देने वाले उनके अनुयायियों का कर्त्तव्य बनता है कि उनकी इस विषयक स्पष्ट मान्यता आने के बाद अब उसे ईमानदारी से स्वीकार करें और आचरण में लायें। उन्हें स्पष्ट करना चाहिए कि वे आदिपुरुष मनु का नहीं, अपितु छद्म नामधारी सुमति भार्गव का विरोध कर रहे हैं।
अब उन्हें ‘मनु’ और ‘मनुवाद’ शदों का प्रयोग छोड़कर ‘सुमति भार्गव’ और ‘सुमति भार्गववाद’ शदों का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि ‘मनु’ प्रयोग से भ्रान्ति फैलती है और निर्दोष आदि-पुरुषों का देश-विदेश में अपमान होता है। ऐसा करना अपने आदिपुरुषों के साथ अन्याय है। इस बात को यदि हम इस प्रकार समझें तो बात आसानी से समझ में आ जायेगी। जैसे, आज कोई व्यक्ति ‘अम्बेडकर ’ छद्म नाम रखकर जाति-पांति, ऊंच-नीच आदि कुप्रथाओं का समर्थक ग्रन्थ लिख दे, तो उसे संविधान प्रस्तोता अम्बेडकर का ग्रन्थ कहना और उस विचारधारा को ‘अम्बेडकर वाद’ कहना अनुचित होगा, उसी प्रकार जाति-पांति विषयक श्लोकों को ‘मनुरचित’ कहना या ‘मनुवाद’ कहना अनुचित है। क्योंकि आदिकालीन मनुओं के समय जाति-पांति नहीं थी, और जाति-पांति जब चली तब उन मनुओं का अस्तित्व नहीं था।
- उन्हें यह स्पष्ट बताना चाहिए कि हम उस ‘मनु’ छद्मनामधारी सुमति भार्गव रचित स्मृति के उन अंशों का विरोध कर रहे हैं जिसमें जातिवाद का वर्णन है और जो 185 ईसवी पूर्व लिखे गये थे। डॉ0 अम्बेडकर ने इसी सुमति भार्गव का विरोध किया है। साथ ही यह स्पष्ट कर दिया जाना चाहिए कि उन द्वारा प्रयुक्त ‘मनु’ नाम इसी व्यक्ति का छद्म नाम है।
- डॉ0 अम्बेडकर ने शूद्रों के भी ‘‘आदरणीय’’ ‘‘आदिपुरुष’’ मनु या मनुओं का कहीं भी विरोध कर उन्हें अपमानित नहीं किया, अपितु तत्कालीन व्यवस्था की प्रशंसा ही की है। डॉ0 अम्बेडकर का लक्ष्य यह नहीं था। डॉ0 अम्बेडकर के अनुयायियों को भी अपने ‘आदिपुरुष’ मनुओं का विरोध त्याग देना चाहिए।
- डॉ0 अम्बेडकर ने जिस छद्म नामधारी ‘मनु’ का विरोध किया है उस पर आरोप है कि उसने शूद्रों के लिए अत्याचार और अन्यायपूर्ण तथा अमानवीय व्यवस्थाएं निर्मित कीं, जिनके कारण शूद्र पिछड़ते चले गये और दलित हो गये। कोई कितनी भी निन्दा करे किन्तु जब भी दो विचारधाराओं में टकराव होता है तब विजेता विजित पर बदले की भावना से या आक्रोश में अमानवीय व्यवहार करता है और विपक्षी का भरसक दमन करता है। गत कुछ सहस्रादियों में ऐसा यदि ब्राह्मणों ने शूद्रों के साथ किया तो शूद्रों ने ब्राह्मणों के भी साथ किया। डॉ0 अम्बेडकर ने माना है कि‘‘इसके पश्चात् मौर्य हुए जिन्होंने ईसा पूर्व 322 से ईसा पूर्व 183 शतादी तक शासन किया, वे भी शूद्र थे।’’ ‘‘इस प्रकार लगभग 140 वर्षों तक मौर्य साम्राज्य रहा, ब्राह्मण दलित और दलितवर्गों की तरह रहे। बेचारे ब्राह्मणों के पास बौद्ध साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं था। यही विशेष कारण था, जिससे पुष्यमित्र ने मौर्यसम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया। (वही, भाग 7, ‘शूद्र और प्रतिक्रान्ति’, पृ0 323, ब्राह्मणवाद की विजय, पृ0 149)
(5) जोकुछ हुआ, वह वैचारिक वर्गसंघर्ष का परिणाम था। अपने-अपने समय में दोनों ने एक-दूसरे को ‘दलित’ बनाने में कोई कसर नहीं रखी। लेकिन दोनों को आज उस अतीत को भुलाकर लोकतान्त्रिक ढंग से रहना होगा। आज भारत में लोकतन्त्र-प्रणाली है और शासन-प्रशासन एक नये संविधान के अनुसार चलता है। इस प्रणाली में सभी समुदायों और महापुरुषों के लिए समान स्थान है। बात-बात पर किसी समुदाय या महापुरुष का विरोध करना और असहनशीलता का प्रदर्शन करना, कदापि उचित नहीं माना जा सकता। इससे एक नये वर्गसंघर्ष की आशंका बढ़ती जायेगी जो समरसता, सुधारीकरण की प्रक्रिया और लोकतन्त्र-प्रणाली के लिए अशुभ सिद्ध होगी।
- जो लोग अपने को ‘शूद्र’ समझते हैं और आी तक किसी कारण से स्वयं को ‘शूद्रकोटि’ में मानकर मानवीय स्वाभाविक अधिकारों से वंचित रखा हुआ है, मनु को धर्मगुरु मानने वाला और मनु के सिद्धान्तों तथा व्यवस्थाओं पर चलने वाला महर्षि दयानन्द द्वारा प्रवर्तित ‘आर्यसमाज’ योग्यतानुसार किसी भी वर्ण में दीक्षित होने का उनका आह्वान करता है और उन्हें व्यावहारिक अवसर देता है। जब आज का संविधान नहीं बना था, उससे बहुत पहले महर्षि दयानन्द ने मनुस्मृति के आदेशों के परिप्रेक्ष्य में छूत-अछूत, ऊंच-नीच, जाति-पांति, नारी-शूद्रों को न पढ़ाना, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, बहु-विवाह, सतीप्रथा, शोषण आदि को समाजिक बुराइयां घोषित करके उनके विरुद्ध संघर्ष का आह्वान किया था। नारियों के लिए गुरुकुल और विद्यालय खोले। अपनी शिक्षा संस्थाओं में कथित शूद्रों को प्रवेश दिया। परिणामस्वरूप वहां से शिक्षित सैकड़ों दलित युवक-युवतियां संस्कृत एवं वेद-शास्त्रों के विद्वान् स्नातक बन चुके हैं।
दलित जाति के लोग क्यों भूलते हैं कि उनकी अस्पृश्यता को मिटाने के लिए मनु के अनुगामी ऋषि दयानन्द के शिष्य कितने ही आर्यसमाजी स्वयं ‘अस्पृश्य’ बन गये थे, किन्तु उन्होंने अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्ष को नहीं छोड़ा। आज आर्यसमाज का वह संघर्ष स्वतन्त्रभारत का आन्दोलन बन चुका है। आज भी आर्यसमाज का प्रमुख लक्ष्य जातिभेद-उन्मूलन और सबको शिक्षा का समान अधिकार दिलाना है। दलित जन आर्यसमाज की शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश लेकर भेदभाव रहित परिवेश में वेदादिशास्त्रों का अध्ययन कर सकते हैं। आर्यसमाज सिद्धान्त और मानवीय, दोनों आधारों पर दलित एवं पिछड़े वर्गों का स्वाभाविक हितैषी है। जो दलित या अन्य लेखक दलितोत्थान में आर्यसमाज के योगदान से अनभिज्ञ रहकर आर्यसमाज पर भी संदेहात्मक प्रतिक्रिया करते हैं, यह उनकी अकृतज्ञता ही कही जायेगी।
बुद्धिमानी इसी में है कि दोनों को मिलकर अमानवीय व्यवस्थाओं, सामाजिक कुप्रथाओं, रूढ़- परपराओं तथा कुरीतियों के विरुद्ध प्रयत्न जारी रखने चाहियें। बहुत-सी कुप्रथाएं नष्ट-ा्रष्ट हो चुकी हैं, शेष भी हो जायेंगी। परस्पर आरोप-प्रत्यारोप में उलझने तथा प्रतिशोधात्मक मानसिकता अपनाने के बजाय, आइए, उस रूढ़-विचारधारा के विरुद्ध मिलकर संघर्ष करें। जिस विचारधारा ने संस्कृति और मानवता को कलंकित किया है, समाज को विघटित किया है, राष्ट्र को खण्डित किया है और जिसने असंय लोगों के जीवन को असमानता के नरक में धकेल कर नारकीय जीवन जीने को विवश किया है। आइए, उस नरक को स्वर्ग में बदलने का संकल्प लें।