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आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था उचित नहीं, क्यों? और विकल्प

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आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था उचित नहीं, क्यों? और विकल्प

 यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि इस संसार में मानव ऐसा प्राणी है जिसकी सर्वविध उन्नति कृत्रिम है, स्वाभाविक नहीं। शैशवकाल में बोलने, चलने आदि की क्रियाओं से लेकर बड़े होने तक सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने हेतु उसे पराश्रित ही रहना होता है, दूसरे ही उसके मार्गदर्शक होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि समय-समय पर विविध माध्यमों अथवा व्यवहारों से मानव में अन्यों के द्वारा गुणों का आधान किया जाता है। यदि ऐसा न किया जाये, तो, मानव ने आज के युग में कितनी ही भौतिक उन्नति क्यों न कर ली हो, वह निपट मूर्ख और एक पशु से अधिक कुछ नहीं हो सकता -यह नितान्त सत्य है। अतः सृष्टि के आदि, वेदों के आविर्भाव से लेकर आज तक मानव को जैसा वातावरण, समाज व शिक्षा मिलती रही वह वैसा ही बनता चला गया, क्योंकि ये ही वे माध्यम हैं, जिनसे एक बच्चा कृत्रिम उन्नति करता है और बाद में अपने ज्ञान तथा तपोबल के आधार पर विशेष विचारमन्थन और अनुसन्धान द्वारा उत्तरोत्तर ऊँचाइयों को छूता चला जाता है। इस जगतीतल में आज जितना बुद्धिवैभव और भौतिक उन्नति दृष्टिपथ में आती है, वह पूर्वजों की शिक्षाओं का प्रतिफल है। उसके लिए हम उन के ऋणी हैं। वे ही हमारे परोक्ष शिक्षक हैं। यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। अतः सामान्यतः कहा जा सकता है कि मानव की उन्नति की साधिका शिक्षा है। जिसका वैदिक स्वरूप इसप्रकार है- जिस से विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और अविद्यादि दोष छूटें उस को शिक्षा कहते हैं।(सत्यार्थप्रकाश के अन्त में दत्त स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में शिक्षा की परिभाषा।) ऐसे उत्कृष्ट स्वरूप वाली शिक्षा से एक व्यक्ति मानव बनता है और मानवों का समुदाय समाज कहलाता है। यदि शिक्षा समाज में रहकर दी जा रही है तो उसका प्रभाव शिक्षार्थी पर पड़ना अवश्यम्भावी है। वह वैसा ही बनता है जैसा समाज है। प्राचीन काल में शिक्षारूप यह उच्च कोटि का कार्य नगरों और गाँवों से दूर रहकर शान्त, स्वच्छ और सुरम्य प्रकृति की गोद में किया जाता था। दोनों में क्या भेद है, इसको समाजों के तुलनात्मक अध्ययन से समझा जा सकता है। अतः प्राचीन और आधुनिक समाज की संक्षेप में समीक्षा करते हैं, जिससे शिक्षा कहाँ और कैसे वातावरण में दी जानी चाहिए यह भी स्वतः स्पष्ट हो जायेगा। ततः आधुनिक शिक्षा के उद्देश्य आदि पर विचार कर उसका विकल्प सूच्य रहेगा।

प्राचीन समाज-

प्राचीन भारत की सामाजिक स्थिति को जानने के लिए तात्कालिक साहित्य ही एक मात्र शरण है। उस काल में संस्कृत ही बोलचाल और लेखन की भाषा थी, अतः उसमें उपलब्ध वेदेतर ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद् आदि वैदिकवाङ्मय और वाल्मीकिरामायण, माहाभारत आदि लौकिक साहित्य का विशाल भण्डार सहायक बनेगा। उन सभी से प्रमाणों की झड़ी लगाई जा सकती है, लेकिन दो तीन बहुश्रुत ग्रन्थों का ही उल्लेख हमारे अभीष्ट को सिद्ध करने में पर्याप्त होगा। उस समय शिक्षा के केन्द्र ऋषि, मुनियों के आश्रमस्थल होते थे, जो यजुर्वेदीय मंत्र उपह्वरे गिरीणां सङ्गमे च नदीनाम्। धिया विप्रो ऽ अजायत।। (यजुर्वेद २6.१५) के प्रतिबिम्बरूप थे, जिसके अनुसार पर्वतों के पार्श्ववर्तीभाग और नदियों के संगम स्थान पर प्राकृतिक स्वच्छ वातावरण में श्रेष्ठबुद्धि का विकास उत्तमोत्तम हुआ करता है। इसीलिए वहाँ के समाज की सर्वविध समृद्धि आज से भी उन्नत दिखाई देती है। राजा अश्वघोष की विचारोत्तेजक ये पंक्तियाँ- न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः। नानाहिताग्निर्नाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः।। (छान्दोग्योपनिषद् 5.11.5) प्राचीन भारत के गौरव को डिण्डिमघोष के साथ कहती हुई समाज की उन्नत स्थिति को ही स्पष्टतः वर्णित करती है। जिसमें अश्वघोष की गर्वोक्ति है कि मेरे किसी जनपद में कोई चोर, कृपण और शराबी नहीं है। न कोई अग्निहोत्र न करने वाला और अविद्वान् है। कोई स्वेच्छाचारी मनुष्य नहीं तो स्वेच्छाचारिणी स्त्री कहाँ से होगी? इसी प्रकार का समाज वाल्मीकिरामायण में भी उपलब्ध है। उदाहरणार्थ- तस्मिन् पुरवरे हृष्टा धर्मात्मानो बहुश्रुताः। नरास्तुष्टा धनैः स्वैः स्वैरलुब्धाः सत्यवादिनः।। कामी वा न कदर्यो वा नृशंसः पुरुषः क्वचित्। द्रष्टुं शक्यमयोध्यायां नाविद्वान् न च नास्तिकः।। नानाहिताग्निर्नायज्वा न क्षुद्रो वा न तस्करः। कश्चिदासीदयोध्यायां न चावृत्तो न संकरः।। (वाल्मीकिरामायणम् 1.6.6, 8, 12) अर्थात् उस श्रेष्ठ अयोध्यानगरी का असाधारण समाज था, जिसमें सभी प्रजाजन प्रसन्न, धर्मात्मा, बहुश्रुत विद्वान् थे। निर्लोभी, अपने-अपने धन से सन्तुष्ट रहने वाले और सत्यवादी थे। वहाँ कहीं कोई कामी, कंजूस, क्रूर व्यक्ति न था। न कोई मूर्ख और नास्तिक था। न ही अग्निहोत्र और पंच यज्ञ न करने वाला, न निम्न सोच वाला और चोर था। न ऐसा था जो सदाचारी न हो या वर्णसंकर हो।

आज के परिप्रेक्ष्य में कोई स्वप्न में भी शायद ऐसे समाज की परिकल्पना नहीं कर सकता! विचारने पर एतादृश समाज की उन्नति के मूल में उत्तम शिक्षाव्यवस्था और राजव्यवस्था ही दिखाई देती है।

ऐसा ही भारत का चित्र लॉर्ड मैकाले ने भी खींचा है, साथ ही लम्बे समय तक अपने अधीन करने के लिए यहाँ की शिक्षाव्यवस्था और संस्कृति को बदलने का सुझाव दिया, जिसमें वह कामयाब हुआ“I have travelled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is a thief. Such wealth I have seen in the country, such high moral values, people of such caliber; that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and cultural heritage, and therefore I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self-esteem, their native self-culture and they will become what we want them, a truly dominated nation.”- Lord Macaulay in his speech on Feb 2, 1835, British Parliament (पप्पू कैसे पास हुआ नामक डॉ0 धर्मवीर का सम्पादकीय, परोपकारी पाक्षिक पत्रिका, सितम्बर (प्रथम) 2010, पृ0 514, पर उद्धृत)। परिणामतः आधुनिक हमारा समाज वैसा ही बन गया जैसा अंग्रेज चाहते थे।

आधुनिक समाज-

आज के समाज की दशा कुकृत्यों से शोचनीय है। न जाने कितने नरपिशाच अपने स्वार्थों के कारण सामाजिक व्यवस्था को तार-तार कर रहे हैं। प्रायः सर्वत्र अकर्मण्यता, स्वार्थपरायणता, निर्धनता, कामुकता, विषयासक्ति, दुराचार, भ्रष्टाचार, बलात्कार, परधनहरण, आतंकवाद, जातिवाद, अशिक्षा, नैतिकपतन, कुटिलराजनीति इत्यादि दोष पद-पद पर देखे जा रहे हैं। अद्यतनीय शिक्षासंस्थानों से प्रतिवर्ष लाखों, करोड़ों छात्र स्वकीय शिक्षा पूर्ण कर सामाजिकक्षेत्र में आते हैं, किन्तु क्या वहाँ किंचित् मात्र भी माता पिता में भक्ति, गुरुजनों में आदरभाव, स्वदेश में अनुरक्ति, कर्त्तव्य कार्य के प्रति अनुराग है? नहीं। परन्तु केवल अर्थासक्ति है और तद्द्वारा कामनापूर्ति तथा व्यसनों में अत्यादर। यही नहीं जिस शहरी समाज में नित्य बच्चों तक के साथ बलात्कार कर गन्दे नाले में फेंक देने की वहसी निठारी, नोयडा की और किडनी बेचने की गुड़गाँव जैसी घृणित अनैतिक आचरणों की घटनाएँ हैं। लूटपाट और डकैतियाँ हैं। बच्चों के अपहरण और फिरौतियाँ हैं। दूसरों की सम्पत्तियों पर अधिकार जमाने की कोशिशे हैं। असहिष्णुता है। आत्महत्याएँ हैं। असमानता ऐसी कि एक तरफ कठोर परिश्रम है, परन्तु भर पेट पूरे परिवार के लिए रोटी नहीं, दूसरी और गगनचुम्बी कोठियाँ हैं, जिनमें भोग और विलासिता है। शराब और जूए का दुश्चक्र है। आलस्य, प्रमाद है। स्वार्थी राक्षसी वृत्ति है। अर्थासक्ति ऐसी कि उसके सामने कोई पिता, भाई, बहन आदि का सम्बन्ध कुछ नहीं। प्राणीमात्र के लिए दया का अभाव है। प्रकृति का दोहन इतना कि पर्यावरण कितना ही अशुद्ध हो उससे कुछ लेना देना नहीं। न देशप्रेम है। न दयाधर्म है। सत्यवादिता, परोपकार आदि गुण कोसों दूर हैं। राष्ट्र की सम्पत्ति को अपनी माँगो को लेकर कूड़े के ढ़ेर के समान अग्निसात् कर दिया जाता है। केवल अधिकारों की बात होती है, कर्त्तव्यभावना की नहीं। परिवार और समाज टूट रहे हैं। समाज में पनप रहे ऐसे अनेक दोष नित्य समाचार पत्रों की मुख्य पंक्तियाँ बनते हैं। आज के समाज को देखते हुए यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से किया जा सकता है कि जितना अधिक आज की शिक्षा का प्रभाव बढ़ रहा है, घर-घर विद्यालय खुल रहे हैं, उतना ही मानव का मानसिक प्रदूषण बढ़ रहा है। आज के शिक्षित व्यक्तियों की गाँव के बीस वर्ष पूर्व के अनपढ़ व्यक्तियों से तुलना करें तो वे एक दूसरे से प्यार करने वाले, सुख दुःख को बाँटने वाले, परोपकारी आदि गुणों वाले थे और ये शिक्षित होकर अधिक बेईमान, छलकपटी, चोर, स्वार्थी, ईर्ष्यालु हो गये हैं। अब वहाँ भी भौतिकता के प्रभाव में नित्य नवीन अपराधों का उदय हो रहा है। इसीलिए आज की गर्हित सामाजिक स्थिति और शिक्षाव्यवस्था अन्योन्याश्रित हुई प्रमुखतः वर्तमान विसंगतियों का परिणाम कही जा सकती हैं- जिसे अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यहाँ हृदयविहीन भावशून्य मशीनी मानव बनाने की शक्ति तो है, परन्तु मानवनिर्मात्री शक्ति नहीं।

आधुनिक शिक्षा के उद्देश्य

उक्त सामाजिक स्थिति के विवेचन से यह स्पष्ट है कि आधुनिक शिक्षापद्धति में वह शक्ति वा उद्देश्यों की पूर्ति की योग्यता प्रतीत नहीं होती जिससे मानव में मनुष्यता के बीज अर्थात् श्रेष्ठता के विचार आरोपित किये जा सकें। साथ ही शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल भी बढ़ाया जा सके। वर्तमानयुगीन शिक्षा के उद्देश्य तो केवल ऐसी शिक्षा को देना है जिससे अधिक से अधिक अर्थ का आगम हो और उसी के लिए बौद्धिक विकास की परिकल्पना है। उस विकास के साधन उचित हैं अथवा अनुचित यह सोचना आज की शिक्षापद्धति के एजेण्डे में नहीं है। एक छात्र प्रशासक, डॉक्टर या इंजीनियर आदि आदि कुछ भी किन्हीं भी तरीकों से बने, परन्तु बने अवश्य यह आज के शिक्षाविद् और राजनेता चाहते हैं, उसमें नैतिकता प्रभृति श्रेष्ठ मानवोचित गुणों का समावेश हुआ वा नहीं -यह उनकी परिकल्पना से दूर है। आचरणहीन, स्वार्थ की पराकाष्ठा के मूर्त रूपधारी, पैसा कमाने की मशीन बने डॉक्टर, इंजीनियर आदि से कितना ही व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, भौतिक पर्यावरण दूषण हो -इसकी चिन्ता उन्हें नहीं। इसीप्रकार के अन्य उद्देश्यों में मल्टीनेशनल कम्पनियों में नौकरी और तद्द्वारा आजीविका को प्राप्त करना या कहिए भौतिकसंसाधनों को जुटाना मुख्य है और उसी से समस्त लोगों को सुख शान्ति प्राप्त करवाने के उपाय किये जाते हैं। भौतिक संसाधनों को जुटाने के लिए नित नये कारखाने खोले जा रहे हैं। नई-नई तकनीकों को खोजा जा रहा है। अर्थ का अधिक से अधिक आगम कैसे हो उसी की चिन्तनायें देश और विश्वस्तर पर की जा रही हैं। आज शिक्षा का उद्देश्य केवल मानव को साक्षर करना और तद्द्वारा भोजन, वस्त्र तथा मकान किंचित् सुविधा से प्राप्त हो जायें -यह चिन्तन हर आधुनिक शिक्षाशास्त्री को उद्वेलित करता है। वह उसी चिन्तनधारा पर कार्य करता हुआ उसे और अधिक श्रेष्ठ और रुचिकर बनाने के उपायों पर मनःस्थिति को केन्द्रित किये है और सुधार के उपाय सुझाता है। इसी मानसिकता के अनुरूप प्रत्येक गाँव तक में विद्यालय की सुविधा सरकारी व निजी स्तर पर है अथवा की जा रही है। निजी विद्यालयों, महाविद्यालयों और बहुत से विश्वविद्यालयों ने इसे एक व्यवसाय के रूप में स्वीकार किया है और भारीभरकम शुल्क (Fee) के द्वारा उससे खूब कमाई भी कर रहे हैं। किसी समय में महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द), महामना मदनमोहन मालवीय, सर सैयद अहमद खाँ जैसे शिक्षाविदों ने शिक्षणसंस्थानों को विशेष उद्देश्यों से खोला था। आज शिक्षणसंस्थान कुकुरमुत्तों की तरह हर स्थान पर उग आयें हैं, जिनके कर्ताधर्ता ईंटभट्टे के व्यापारी या व्यवसायी हैं। उनके उद्देश्य मोटी फीस से धन कमाना है। समाज का भला करने के ऊँचे लक्ष्य नहीं? उन्हें शिक्षा से लेना देना भी क्या है, अपना व्यवसाय करना है, जिसमें वे कुशल हैं। अब सर्वशिक्षा अभियान के रूप में हमारी सरकार ने ही स्वयं शिक्षा क्षेत्र को एक व्यापारिक क्षेत्र के रूप में घोषित कर वैदेशिकों के लिए भी दरवाजे खोल दिये हैं। अतः शिक्षा के उद्देश्य अर्थप्राप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं, यही बतलाने की कोशिश परोक्ष और साक्षात् रूप में देखी जा सकती है। सत्यं वद, धर्मं चर, स्वाध्यायप्रवनाभ्यां न प्रमदितव्यम् जैसे वाक्यों से शिक्षा देकर मानव बनाने की परिकल्पना आज की शिक्षा में नहीं है।

आधुनिक शिक्षा की पद्धति

भारतीय साम्प्रतिक शिक्षाप्रणाली में पूर्णतः पाश्चात्त्य शिक्षाव्यवस्था का अन्धा अनुकरण है। जहाँ बच्चा नित्य विद्यालय जाता है और कुछ अक्षर ज्ञान कर लौट आता है। आकर्षित करने के लिए बाह्य चमक दमक को विशेष महत्त्व प्राप्त है। विशेषकर निजी विद्यालयों (Public Schools) में अभिभावकों और बच्चों को आकृष्ट करने के लिए साजसज्जा पर विशिष्ट ध्यान दिया जाता है। बच्चों के स्वास्थ्य, भोजन, वस्त्र और पाठशाला की सफाई सुचारु हो इसकी चिन्ता की जाती है। बच्चों पर कितना भी बोझा विद्यालय और ट्यूशन आदि के द्वारा अक्षर ज्ञान के लिए लादना पड़े, लेकिन वे मुख्य प्रश्नों के माध्यम से या अन्य प्रकार से अधिक से अधिक अंक परीक्षा में कैसे अर्जित करें, वे उपाय अभिभावकों और अध्यापकों या स्वयं बच्चों द्वारा किये जाते हैं तथा उसी के माध्यम से आजीविका प्राप्ति के उपायों की खोज भी होती है। विद्यार्थी ने अपने अध्ययन काल में विद्यालय और ट्यूशन में धन के महत्त्व को देखा है। अतः अधिक धनलाभ कैसे, किससे और आसानी से होगा। अच्छी से अच्छी सर्विस कैसे प्राप्त की जा सकती है, इसके लिए मन मस्तिष्क के घोड़े दौड़ाये जाते हैं। इस स्थिति में बालक का बौद्धिक विकास किस दिशा में होगा यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। वह अपना हित छोड़कर सार्वजनिक हित नहीं करेगा, यह सिद्ध है और यदि करेगा तो आधुनिको के द्वारा मूर्ख कहा जायेगा। यही विचार कर आजकल पढ़ने हेतु मुख्य विषय विज्ञान और गणित को ही सीखने के लिए बल दिया जाता है। अन्य विषयों को भी स्पर्श किया जाता है लेकिन सब को एक साथ। भाषाओं को महत्त्व किंचित् ही दिया जाता है। ऐसे में बच्चों के कोमल मनों पर शिक्षा को लेकर कैसा प्रभाव होगा यह विचारा जा सकता है।

आधुनिक शिक्षागत समस्याएँ –

अद्यतनीया शिक्षाप्रणाली और समाज का एक ही दिशा- अर्थासक्ति में अहर्निश चिन्तन है। विशाल उदारवृत्ति यहाँ नहीं है, अतः स्वार्थीवृत्ति कार्य करती है। ऐसी स्वार्थीवृत्ति, जो खूब कमाओ और मौज उड़ाओ की संस्कृति की पोषिका है। सात पीढ़ियों तक के लिए भण्डार भरने की प्रवृत्ति यहाँ है। ऐसे में जहाँ स्वार्थ होगा वहाँ समाज, राष्ट्र वा पर्यावरण गौण हो जाते हैं। जिसके प्रभाव से सामाजिक ताना बाना विखण्डित हो रहा है। समाज में रहकर दी जा रही इस शिक्षा से जन्मा यह वैचारिक प्रदूषण भौतिक, सामाजिक, वैयक्तिक और सांस्कृतिक रूप से अनेकविधदूषणों का कारक है। जिससे किसी भी रूप में इस व्यवस्था के रहते बचा नहीं जा सकता, क्योंकि विकृत समाज के साथ ही शिक्षार्थी को भी रहना पड़ता है। ऐसे में यह शिक्षा अनेकविध समस्याओं का कारण बनती है, जिन्हें निम्नप्रकार समझा जा सकता है।

भौतिक समस्या – वातावरण में विष घोलने का कार्य यह शैक्षिक व्यवस्था कैसे करती है, इसे देखिए-

  • आधुनिक शिक्षा प्रणाली में प्रतिदिन विद्यालय जाना आना होता है, अतः आवागमन के लिए एक हजार की संख्या वाले विद्यालय में अनुमानतः चार बसों, चालीस से पचास ऑटो या अनेकों निजी वाहन विशेषों से उगले जाने वाले धुँए से वायु, जल, ध्वनि प्रदूषण कितना अधिक होता है, यह वर्णनातीत है। दो से तीन, चार हजार बच्चे जिस विद्यालय में पढ़ते हैं वहाँ की स्थिति गुणित होकर कैसी होगी, उसकी कल्पना की जा सकती है! मध्य में कहीं वाहनों का जाम लगा तो और भी समस्या। अबोध बच्चों के द्वारा न चाहते हुए भी प्रतिदिन कितना धुँआ पिया जाता है, और राष्ट्र को उसके बदले में रोगादि को दूर करने में कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, वह अनुमानगम्य नहीं! यह स्थिति बाहरवीं तक के छात्रों की है। बच्चे बड़े हुए तो स्वयं अपने वाहनों से या सार्वजनिक वाहनों से ऐसी ही यात्रायें शहरों में विद्यमान महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों में जाने आने के लिए बसों में लटककर या छतों के ऊपर करते हैं। इसप्रकार की व्यवस्था में प्रत्येक दिन भारत में ही नहीं, विश्व में बच्चों को विद्यालय तक पहुँचाने और लाने में अनगणित वाहन प्रयुक्त होकर वायुमण्डल को कितनी हानि देते हैं, वह विचारणीय है।

सामाजिक समस्या – समाज में अनेक विसंगतियों की जनक भी यह प्रणाली है, वे इसप्रकार हैं-

  • विद्यालय में आवागमन को सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो इसमें राष्ट्र के अर्थ और समय के अपव्यय का कोई मूल्य नहीं। अर्थहानि और समयहानि इस दृष्टि से कि प्रत्येक प्रातः शहरों में बच्चों को माता पिता विद्यालय में भेजने के लिए तैयार करते हैं, उसमें समय लगाते हैं, फिर विद्यालय में जाने के लिए बस स्थानकों पर वाहनों की प्रतीक्षा में न्यून से न्यून पन्द्रह मिनट से आधा घण्टा या अधिक, बच्चे के विद्यालय जाने और आने के समय अभिभावक ही प्रतिदिन नष्ट करते हैं। बच्चों के समय की हानि भी आवागमन में कई घण्टों में प्रत्येक दिन होती है। कई माता पिता स्वयं बालक को विद्यालय में छोड़ने और लाने का कार्य करते हैं। इसप्रकार प्रतिदिन के समय की हानि एक राष्ट्र के लिए कितनी महंगी पड़ती है! इसके अतिरिक्त विद्यालय की फीस का खर्च, वाहनों का खर्च और उनसे होने वाला वायु और ध्वनि प्रदूषण प्रतिदिन की दृष्टि से एक ही छोटे से शहर में ही लाखों का पड़ता है, मास और वर्षों की गणना अरबों, खरबों में होगी जिसका सही अनुमान लगाना भी कष्टसाध्य है।
  • अपने वाहनों तथा सार्वजनिक वाहनों से विद्यालय में आने जाने वाले छात्रों की अनेक बार दुर्घटनाएँ भी होती हैं, जिसमें हर वर्ष न जाने कितनी जानें जाती हैं और कितने अपंग होते हैं। समाज को यह असह्य क्षति प्रायः उठानी पड़ती है।
  • विद्यालयों की मोटी फीस, जिसे सभी नहीं दे सकते उससे समाज में समरसता नहीं होती। कोई बड़ी गाड़ी में आ रहा है तो कोई साइकिल द्वारा ऐसे में ऊँच नीच का भाव समाज में पनपता है। उच्च शिक्षा भी मोटी फीस के द्वारा खरीदी गई होती है, अतः पैसे का ही मूल्य है यह कोमल मनों पर आज की शिक्षा पद्धति के कारण छाया रहता है और वे बड़े होकर स्वयं वैसा ही व्यवहार करते हैं।
  • आज की शिक्षाव्यवस्था में समानता और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार न होने से सैंकड़ों वर्षों से दबे कुचले सामाजिकजन वहीं के वहीं उसी दुरवस्था में जी रहे हैं। क्योंकि वे अच्छे कहे जाने वाले पब्लिक विद्यालयों में धनाभाव के कारण अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेज नहीं सकते या शिक्षा के महत्त्व को वे जानते नहीं। आजीविका के लिए नित्य बाहर निकल जाने के बाद उनके बच्चों का भगवान् ही मालिक होता है, अतः उनके बालक गलियों में खेलते रहते हैं। पढ़ाई में मन नहीं लगा तो शीघ्र ही पढ़ाई छोड़ देते हैं और बालमजदूरी (Child Labour) के चंगुल में फँस जाते हैं। सरकार की ओर से उन्हें पढ़ने के लिए शक्ति से आदेश नहीं दिया जाता। इस व्यवस्था में सम्पत्तिशाली तो आगे निकल जाते हैं और निर्धन साधनों के अभाव में वहीं के वहीं, गली सड़ी जिन्दगी गुजारने को मजबूर रह जाते हैं। परम्परया उनके बच्चों को भी उन्हीं के साथ रहने से वैसा ही वातावरण मिला होता है, अतः पूर्ववत् निम्नसमाज में बने रहने के अतिरिक्त कुछ परिवर्तन उनमें नहीं आ पाता। साथ ही बच्चों के घर में रहने से बालस्वभाव के कारण नित्य कोई माँग बच्चों की होती है। माँ बाप भी अपने कार्यों को निश्चिन्त हो ठीक से नहीं कर पाते जिससे घर की आय पर भी गलत प्रभाव पड़ता है।
  • इस शिक्षापद्धति के अनुसार आज का विद्यार्थी पाँच, छः घण्टे विद्यालय में रहकर शेष पूरा दिन अपने घर में रहता है। गृहस्थ अपने कार्यों में व्यापृत रहते हैं। ऐसे में बच्चों का संरक्षण करने वाला कोई नहीं। घर में अब वे स्वतत्र है, चाहे तो कुछ भी करें। मन का स्वभाव चंचल है। एक स्थान पर बंध कर कदाचित् पढ़ा नहीं जा सकता। पढ़ना भी चाहेगा तो महापुरुषों की जीवनी या सही दिशा देने वाली अच्छी पुस्तकें नहीं, अपितु मन को अच्छी लगने वाली किस्से कहानियों की पुस्तकें। ऐसे में समाज को अच्छे नागरिक मिलेंगे यह परिकल्पना नहीं करनी चाहिए।
  • इस व्यवस्था में पढ़ने वाले बच्चों का गृहस्थियों के साथ घर में अधिक समय व्यतीत होता है। घर में जो कुछ भी अच्छा या बुरा हो रहा है उसका प्रभाव उसके जीवन पर पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो प्रायः चाय, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, शराब आदि मादक पदार्थों का सेवन प्रत्येक घर में होता है। केवल शराब की ही बात करें तो दैनिक जागरण समाचार पत्र में प्रकाशित एक सरकारी आँकड़े के अनुसार अल्कोहल उत्पादों पर कर से साल 2007-08 के दौरान राज्य सरकारों को करीब 26 हजार करोड़ रुपये की आमदनी हुई थी।….बेंगलूर स्थित नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एण्ड न्यूरो साइंसेज (नीमहंस) के एक अध्ययन में पता चला है कि देश में अल्कोहल की बिक्री से हर साल 216 अरब रुपये के राजस्व की उगाही होती है। जबकि इसके ठीक विपरीत अल्कोहल के घातक दुष्परिणामों से हर साल करीब 244 अरब रुपये की क्षति उठानी पड़ती है। (दैनिक जागरण समाचार पत्र (हरिद्वार संस्करण), दिनांक 15 फरवरी, 2010, पृ0 2) ये आँकड़े समाज के शराबी होने की सत्यता को प्रमाणित कर रहे हैं। सरकार को राजस्व की चिन्ता है। समाज गर्त में गिर रहा है तो उसकी चिन्ता नहीं। ऐसे में शराब पीने से हानियाँ भी पाठ्य पुस्तकों में पढाई जाती हैं तो उसका प्रभाव होने वाला नहीं, क्योंकि बच्चे उसी समाज के साथ अधिक समय व्यतीत करते हैं। अतः बड़ों को देखते हुए वे गलत आदतें शनैः शनैः उनमें भी घर कर जाती हैं और वह भी वैसा ही बन जाता है। बाद में स्वभाव में आने से रोकने से नहीं रुकतीं। ऐसे ही अन्य बुराइयों के नित्य प्रत्यक्ष होने से मन की अनुकूलता के आते ही बच्चा बड़ा होते-होते उसे स्वीकार कर लेता है। अतः निरन्तर पीढ़ी दर पीढ़ी ये बुराइयाँ समाज में आती रहती हैं।
  • जातिवाद समाज के लिए एक अभिशाप है, भयंकर रोग है, मानव-मानव के बीच विद्वेष और ऊँच नीच का विष घोलने का कार्य करता है, जिसे इस शिक्षाव्यवस्था के रहते समाज से दूर नहीं किया जा सकता, क्योंकि आरक्षण और वोटबैंक की राजनीति का कुचक्र भी इसी जातिप्रथा की धुरि पर चक्कर लगा रहा है। नित्य बच्चे उसी समाज में रहते हैं जहाँ प्रतिदिन उन शब्दों का प्रयोग होता है और अब विद्यालयों में जाति का लिखना अनिवार्य हो गया है। इस व्यवस्था में जाति विशेष के लिए आगे बढ़ने के लिए तो आरक्षण है, लेकिन अन्य जातियों में भी गरीबों की कोई कमी नहीं। आरक्षित जातियों में भी उसका लाभ वे ही लोग उठा रहे हैं, जो पहले से लाभ ले कर स्वयं में राजनीति, प्रशासन, शिक्षाक्षेत्र या विविधप्रकार के उच्च पदों पर पहले से होने से सामर्थ्यशाली हैं, जिन्हें आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं। साठ वर्षों से ग्रामीणों अथवा शहरों की झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वालों की सुध लेने वाला कौन है? प्रथम तो वे बेचारे आरक्षण के महत्त्व को ही नहीं समझते होंगे। यदि जानते होंगे तो बच्चों को पढ़ाने के लिए वह योग्यता और धन कहाँ से लायें? क्योंकि घरों में पढ़ाने के बिना आजकल की पढ़ाई में आगे निकलना सम्भव नहीं, जिसे वे कर नहीं सकते!

वैयक्तिक समस्या – व्यक्तिगत दोष को देने वाली भी यह प्रणाली है। यथा-

  • इस प्रणाली में यह व्यक्तिगत दोष है कि घर में रहने वाले छात्र की किसी प्रकार की कोई दिनचर्या बहुत से कारणों से नहीं बन पाती। कभी वह प्रातः पाँच बजे बिस्तर छोड़ता है तो कभी सात और आठ बजे। रविवार को तो वह उठना ही नहीं चाहता और जहाँ शरीर को बलिष्ठ होना चाहिए था, वह रोगग्रस्त होता चला जाता है। न शारीरिक व्यायाम, प्राणायाम या आत्मचिन्तन में कोई रुचि हो पाती। परिणामस्वरूप मानसिक, शारीरिक बीमारियों को नित्य निमंत्रण। दिनचर्या न होने की यह बीमारी बड़े छात्रों के छात्रावासों में और भी अधिक है।
  • प्रतिस्पर्धा के इस दौर में ट्यूशन की बीमारी भी इस शिक्षापद्धति की एक बहुत भयंकर देन है। ऐसे में बच्चे विद्यालय और ट्यूशन के बीच में कितना समय, शक्ति और धन बर्बाद करते हैं, वह किसी से छुपा नहीं। ऐसे बच्चों का बचपन भी नष्टप्रायः हो जाता है, उनका ठीक से शारीरिक और मानसिक विकास भी नहीं हो पाता, युवा होते-होते बूढ़े हो जाते हैं।
  • अधिकांश में देखा जाता है कि गलत संगत के कारण बच्चे विद्यालयों में न जाकर आवारागर्दी करते रहते हैं और माता पिता सोचते हैं, वह विद्यालय या ट्यूशन में पढ़ने गया है। पॉकेट मनी भी गलत आदतों को पालने में एक कारण बनती है। उसी से बच्चे चाऊमीन, बर्गर, चॉकलेट आदि खाकर अपनी आदतों को बिगाड़ते हैं और टॉफी या मीठी वस्तुएँ खाकर अपने दान्तों तथा पेट को।
  • स्वावलम्बन का अभाव इस शिक्षाप्रणाली में बच्चों में इतना अधिक देखने को मिलता है कि वे स्वयं कुछ कार्य करना नहीं चाहते। यहाँ तक कि बनियान आदि छोटे वस्त्र भी स्नानागार में दूसरों के लिए प्रक्षालित करने हेतु छोड़ देते हैं। कालान्तर में पूर्णतः पराश्रित हो जाते हैं।
  • यह सब जानते हैं कि सभी के घर विलासिता के  आगार भी होते हैं। घरों में कुछ झगड़ा भी होता है। इन सब का साथ में रहने वाले बच्चों के कोमल मन पर गलत गहरा प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। वे विलासिता के रंग में भी रंगते हैं, जिसकी अभी उन्हें कोई आवश्यकता नहीं, जिससे कुण्ठाग्रस्त होते जाते हैं।
  • जो माता पिता अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते उनके बच्चे घर पर टी0 वी0, वीडियो आदि के रोग से ग्रस्त हो जाते हैं। जो नहीं देखा सुना जाना चाहिए वह सब उसके माध्यम से अबोध बालक जानने लगते हैं। जिससे पढ़ाई में विशेष ध्यान नहीं दे पाते और उसी में सुख की अनुभूति करने लगते हैं।
  • प्रकृति के प्रति किसी प्रकार का कोई प्रेम आज की इस पद्धति के कारण नहीं बन पाता, क्योंकि वैसे वातावरण में वे रहते ही नहीं। ईंट, पत्थरों के जंगलों में रहते-रहते उनमें प्रकृति के प्रति सम्वेदनशीलता नहीं आ पाती।

सांस्कृतिक समस्या – भारतीयसंस्कृति से सम्बन्धित जीवन आधायक गुणों का नितान्त अभाव का दोष इस व्यवस्था में है। यथा-

  • इस शिक्षा पद्धति में भारतीय जीवन मूल्यों से द्वेष सा है, अतः वहाँ त्याग, तपस्या, ब्रह्मचर्य, अध्यात्म का स्पर्श भी जीवन में नहीं करवाया होता, अतः सामान्य से कष्टों के आने मात्र से ही आत्महत्या की भावना आती है। सहिष्णुता का अभाव वहाँ मुख्य होता है। इसीलिए आर्थिक दृष्टि से सुखद भविष्य की सम्भावना होते हुए भी आई0 आई0 टी0, आई0 आई0 एम0 जैसे संस्थानों के छात्र आत्महत्या कर लेते हैं। कहीं परस्पर ईर्ष्या, द्वेष के कारण अपने साथियों का संहार करने तक का जघन्य कार्य भी कर डालते हैं। ऐसे कृत्य पूर्ण विकसित कहे जाने वाले समृद्धिशाली जर्मनी, अमेरिका जैसे देशों में भी देखे जाते हैं। 11 मार्च, 2009 को दक्षिण जर्मनी के विन्नण्डन (Winnenden) नगर के अल्बर्टविले (Albertville) स्कूल में ही एक 17 वर्ष के बच्चे ने विद्यालय के तीन अध्यापकों, नौ लड़कियों सहित 15 जनों को गोलियों से भून डाला था। बचपन में ही ऐसी उग्रता समाज के लिए घातक है जो नैतिक मूल्यों से ही दूर की जा सकती है और उसके लिए इस पद्धति में अवकाश नहीं।
  • हजारों की संख्या में शिक्षार्थी विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों से निकलते हैं, परन्तु सभी अपने तक ही सीमित होते जा रहे हैं। किसी में माता, पिता, परिवार, समाज, देश, राष्ट्र के प्रति कोई भक्तिभाव नहीं, उदारता नहीं। कारण आदर, सम्मान, सौहार्द, सहानुभूति, सम्वेदना आदि का अभाव। विद्यालयों में केवल गणित, विज्ञान, इतिहास अथवा कला-सम्बन्धी विचारों को बच्चे में सम्प्रेषित करने का अधिकतम कार्य किया जाता है, जबकि बच्चों का अधिक समय तो पाठशालाओं से बाहर आराम की जिन्दगी के सान्निध्य, गलियों में खेलने या टी0 वी0, वीडियोगेम, अथवा नेट पर चैट आदि में व्यतीत होता है। जीवन जीने की कला की शिक्षा इस मध्य में लुप्त हो जाती है। इन नकारात्मक भावों से विपरीत श्रेष्ठ भावों का बीजारोपण करने के लिए आन्तरिकभावों को जागृत करना होता है, जो आध्यात्मिकता में निहित हैं, वे आचार व्यवहार से सिखाए जा सकते हैं और उनके लिए आज की शिक्षाव्यवस्था में किसी के पास समय नहीं।
  • भाषा का अध्ययन अध्यापन मानसिक भावों को जागृत करता है, विचारों की नई स्फूर्ति जीवन में लाता है, लेकिन आज कल की शिक्षा प्रणाली में भाषा की मुख्यता न होने से इसका भी अभाव देखा जा रहा है, अतः नई पीढ़ी भावशून्य हो रही है। दया, परोपकार, सत्यवादिता जैसे भाव गुजरे जमाने की बात होती जा रही है। अपनी राष्ट्र भाषा या संस्कृति पर किसी को गौरव नहीं। यही कारण है कि एक पब्लिक स्कूल का बच्चा शुद्ध हिन्दी भी नहीं लिख पाता। संस्कृत जैसी वैज्ञानिक भाषा को तो आज का छात्र विषधर की भांति हेय मानता है।
  • कामवासना ऐसा रोग है, जो प्रत्येक को पीड़ित करता है, लेकिन आजकल की शिक्षाव्यवस्था में उस पर काबू पाने का कोई उपाय ब्रह्मचर्य आदि के रूप में निर्दिष्ट नहीं किया जाता। अतः युवावस्था आने पर सहशिक्षा के कारण थोड़े से भी अनुकूल वातावरण के मिलते ही बच्चों को बहकने का खुला आमंत्रण मिलता है। भारतीय समाज में संस्कारों के कारण कुछ उस से बच जाते हैं तो कुछ नीचे ही नीचे संलिप्त हो जाते हैं। दूसरी ओर विकसित राष्ट्रों के विकास की गति देखिए, जहाँ सोलह वर्ष की शायद ही कोई लड़की गर्भपात करवाने से बचती हो। अब ऐसा ही प्रभाव भारतीय समाज के बड़े-बड़े शहरों में भी देखने को मिल रहा है। यह भारतीय संस्कृति को शिक्षाप्रणाली में महत्त्व न देने का ही परिणाम है।
  • आज की परिस्थितियों में ऐसा कौन सा घर है जहाँ भारतीय संस्कृति में मानव के आन्तरिक षड्रिपु कहे जाने वाले काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष जैसे कीटाणुओं का प्रवेश न हो। जन्म जन्मान्तर की वासनाओं से ये दोष बच्चों में भी अनुकूल अवसर पाकर घरों और समाज के सान्निध्य में रहने के कारण प्रविष्ट होते हुए देर नहीं लगाते। जिससे अध्ययन में बाधा आती है और जो उपलब्धि होनी चाहिए वह नहीं हो पाती।
  • अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच यम और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान रूप पाँच नियम- ये दोनों मनुष्य के इन्द्रियघोड़ों में लगाम का कार्य करते हैं। आधुनिक शिक्षा पद्धति में इनका कोई नाम लेने वाला भी नहीं। अतः मानव बेलगाम घोड़े के समान अर्थ के पीछे दौड़ लगा रहा है। ये जानते हुए भी कि यह सब यहीं रह जाना है और अनैतिक कार्यों में मानो प्रतिस्पर्धा करके जुटा है।

अन्य अनेक दोष भी विचार करने पर इस शिक्षा पद्धति में संकेतित किये जा सकते हैं, जिनके चलते आज स्थिति यह हो गई है कि साधन साध्य हो गया है। विश्व के समस्त शैक्षणिक संस्थानों में आज प्रायः इसी की अन्धी दौड़ है और उसी का परिणाम है कि मानव अर्थलिप्सु हुआ येन केन प्रकारेण शिक्षित कहलाता हुआ भी भ्रष्टाचार, अनैतिक आचरणों के दलदल में आकण्ठ डूबा जा रहा है। सुख शान्ति यदि धन ऐश्वर्य में होती तो विश्व के चोटी के धनाढ्यों में अशान्ति देखने को न मिलती। लेकिन, आज की शिक्षा व्यवस्था इसी धुरी पर चक्कर लगा रही है, जो मानव की ऐकान्तिक और आत्यन्तिक सुख की अवाप्ति का साधन नहीं। ऐसी स्थिति में आज की सामाजिक विसंगतियों, स्थितियों को देखते हुए प्रश्न खड़ा होता है कि क्या आज की शिक्षाव्यवस्था उचित है? कोई भी विचारक उत्तर में नहीं ही कहेगा और उसको सुधारने की बात करेगा। 20 फरवरी 2010 के दैनिक जागरण समाचारपत्र के सम्पादकीय पृष्ठ पर श्री राजीव शुक्ला (राज्यसभा सदस्य) के लेख में भी मैकाले की दी हुई शिक्षा पद्धति को बहुत पुराना कहा है और उसमें बदलाव पर बल दिया है। जिसकी आज नितान्त आवश्यकता है।

समस्याओं के जाल से निकलने का विकल्प आश्रमव्यवस्था

          उक्त विकट समस्यारूप तमःपुंज को ध्वस्त करने की एकमात्र प्रकाशज्योति भारतीय आश्रमव्यवस्था में निहित है, जो वेदादिशास्त्रों के आविर्भाव से लेकर रामायणकाल तक समृद्धि को प्राप्त हुई दिखाई देती है तथा महाभारत काल के आते-आते क्षीण हो गई और आज प्रायः लुप्त है। जिसे आधुनिक काल में पूरे विश्व के कल्याण की इच्छा रखने वाले महान् शिक्षाशास्त्री दयानन्द ने अपने उपदेशों और ग्रन्थों से पुनः स्थापित करने की कोशिश की। उन्हीं से प्रेरणा लेकर अनेक गुरुकुलों ने आश्रमव्यवस्था को अपनाया और आज भी समाज के द्वारा प्राप्त करवाये गये स्वल्प संसाधनों के बीच कार्य कर ख्याति अर्जित कर रहे हैं। प्रमुखतः प्राच्य संस्कृत ग्रन्थों के ही अध्ययन अध्यापन में पूर्ण निष्ठा से ये संस्थान कार्य कर रहे हैं, यदि उन पाठ्यक्रमों के साथ अर्वाचीन ज्ञान विज्ञान को भी पठन पाठन का अंग बना दिया जाये तो संसार में इनसे उत्तमकोटि का कोई शिक्षण संस्थान सम्भवतः न होगा। ग्रामों और नगरों से दूर होने के कारण समाज में पनप रहा दूषण भी वहाँ नहीं है और यही दूषण मानव मस्तिष्क से हटाने का उद्देश्य लिए वे कार्य कर रहे हैं, उसमें सफलता भी किसी हद तक प्राप्त हो रही है, क्योंकि यहाँ जीवन के अन्तरंग स्वरूप शारीरिक, मानसिक और आत्मिक को प्रबलता प्रदान करवाते हुए जीने की कला भी है और अध्ययन अध्यापन के द्वारा बौद्धिक विकास का भी पूर्ण प्रबन्ध। इन्हीं गुणों के कारण स्वामी श्रद्धानन्द की तपःस्थली गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय ने अपने शैशव काल में ही विश्व में कीर्ति अर्जित की थी। अब भी यदि इस आश्रमव्यवस्था को निकट से देखना चाहें तो तीरन्दाजी में ओलम्पिक तक भारत की ध्वजा को उत्तोलित करने वाले, लड़कों के गुरुकुल प्रभात आश्रम, मेरठ और लड़कियों के गुरुकुल चोटीपुरा, अमरोहा को देख लीजिए, जो विना किसी सरकारी सहायता के देश की सेवा कर रहे हैं और अपनी संस्कृति के आराधक हैं। गत दो तीन वर्षों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित संस्कृत में NET/JRF परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने वाले यहीं के सर्वाधिक विद्यार्थी रहे हैं। शायद किसी एक संस्था के इतने बच्चों की इस परीक्षा में सफलता आश्रमव्यवस्था की ही उत्कृष्टता को स्पष्टतः कह रही है। कहने का तात्पर्य यह है कि भारतवर्ष में ऐसे अनेकों लड़के, लड़कियों के अलग- अलग गुरुकुलस्थल हैं, जिनमें समर्पणभाव और अच्छी मानसिकता से बच्चों का निर्माण प्राच्यपद्धति से किया जा रहा है। यदि यहाँ अच्छे साधन उपलब्ध करवाये जायें, सरकारी सहयोग भी हो तो आधुनिक वैज्ञानिक अनुसन्धानों को भी नई दिशाएँ दी जा सकती हैं। थोड़े प्रयास से भी बच्चों को बहुत उन्नत अवस्था तक पहुँचाया जा सकता है।

इस आश्रमव्यवस्था में मुख्यता आचार्य की होती है। आचार्य एक समर्पित व्यक्तित्व का नाम है, जो सत्यनिष्ठ, त्यागी, तपस्वी, अपरिग्रही हो और जिसमें उत्कृष्टता का बीजारोपण करने वाले ज्ञान, कर्म, श्रेष्ठ विद्वानों और ईश्वर की उपासना, शम, दम, दया आदि गुण हों- ज्ञानकर्मोपासनाभिर्देवताराधने रतः। शान्तो दान्तो दयालुश्च ब्राह्मणश्च गुणैः कृतः।। (शुक्रनीतिसार 1.40) आचार्य संज्ञा से भी स्पष्ट है आचार्य अपने आचरण व्यवहार से बच्चों को अधिक शिक्षित करता है, जिसका मूल संकेत अथर्ववदीय मंत्र- आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः। तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः।। (अथर्ववेद 11.5.3) देता है, जिसका ऐसा उत्कृष्ट तात्पर्य है, जिसकी संसार में तुलना नहीं की जा सकती । जिसके अनुसार ब्रह्मचारी को उपनीत कर आचार्य अपने गर्भ में धारण करता है। गर्भ में धारण करने का निर्देश दे वेदभगवान् यह संकेत देना चाहते हैं कि आचार्य के कुल में उपनीत ब्रह्मचारी किसी भी और कैसे भी उच्च राजा, महाराजा अथवा निम्न निर्धन कुल से आया हो उसके साथ आचार्य वैसा ही व्यवहार करे जैसा माता गर्भस्थ शिशु का लालन, पालन करते हुए करती है अर्थात् माता उदरस्थ शिशु कैसा और क्या है? ऐसा भेद न रखते हुए समान दृष्टि से स्नेह की वर्षा करते हुए परिपालना करती है और सम्पूर्ण निर्मिति होने पर वह शिशु बाह्य जगत् का दर्शन करने के लिए बाहर आता है। ऐसे ही आचार्य कुल में विद्यार्थी समानरूप से गुरु के स्नेहिल छत्र के नीचे विद्यार्जन से हर प्रकार के तमस् को दूर करता हुआ आध्यात्मिक, मानसिक, शारीरिक, भौतिक विभिन्न प्रकार की उन्नतियाँ कर सम्पूर्णता को प्राप्त हो समाज में पदार्पण करे। ऐसे में देवजन उसका स्वागत करते हैं। वेद के इन निर्देशों की परिपालना कठिन नहीं है। सभी स्वीकार भी करेंगे कि इससे उत्कृष्ट, मानव के निर्माण के लिए शायद कुछ नहीं हो सकता। अतः केन्द्र और राज्य सरकारों को आगे आकर इसकी पहल करनी चाहिए।

सरकारों और सामाजिक संगठनों के लिए करणीय

भारत को स्वतत्र हुए छः दशक से अधिक का काल हो गया। कितनी बड़ी विडम्बना है कि इतने लम्बे समय के बाद भी हमारा कहने को कुछ नहीं। न अपनी राष्ट्रभाषा, न संस्कृति, न संविधान, न शिक्षाव्यवस्था, जिसे भारतीय कहा जा सके। सब उधार का माल है। मैं समझता हूँ कि इन मामलों में वे हमारे से श्रेष्ठ भी नहीं हैं। हाँ, यदि हों तो स्वीकार करने में भी किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। हमारी अपनी मान्यता है विषादपि अमृतं ग्राह्यम् अर्थात् विष से भी अमृत मिले तो ले लेना चाहिए। वेद भी कहता है- नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः (यजुर्वेद 25.14) सभी और से कल्याणकारक बुद्धिबल अर्थात् जो भी बुद्धिग्राह्य हो वह हमें प्राप्त हो। योग्य नहीं, फिर भी यदि हम उसे ढ़ोये चले जा रहे हैं तो उसके दो कारण हो सकते हैं। प्रथम ये कि हमें अपनी श्रेष्ठता की जानकारी नहीं और द्वितीय ये कि हम जानबूझ कर ऐसा कर रहे हैं। द्वितीय सम्भवतः होना नहीं चाहिए, क्योंकि हम ऐसे कृतघ्न नहीं। प्रथम के अनुसार जानकारी नहीं, तो हमारा दायित्व बनता है कि हम अपने को पहचानें। भारतवर्ष का अपना गौरवपूर्ण इतिहास और संस्कृति है। साथ ही संस्कृत जैसी वैज्ञानिक भाषा हमारी अपनी कही जाती है और उसमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति करने के लिए अथाह ज्ञानसम्पत्ति है, जिसका दोहन होना चाहिए। प्राकृतिक सम्पदा भी ऐसी कि विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं, लेकिन दुःखद है उसको समझा नहीं गया और समुचित उपयोग नहीं किया। प्रत्येक क्षेत्र में परमुखापेक्षी रहे। समाज को सुव्यवस्थित रखने के लिए यहाँ की आश्रम व्यवस्था और वर्णव्यवस्था की विश्व में कोई तुलना नहीं। संक्षेप में कह सकते हैं कि किस आयुवर्ग के व्यक्ति को कहाँ पर रहकर अपने जीवन का योगदान समाज के लिए देना है यह बतलाना आश्रमव्यवस्था का कार्य है और सब आलस्य प्रमादों को छोड़कर कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः (यजुर्वेद 40.2) मंत्र के अनुरूप श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कर्म करने की सदिच्छा के साथ समाज में एक दूसरे से आगे निकलने की प्रतिस्पर्धा का नाम वर्णव्यवस्था है। उस प्रतिस्पर्धा में समान अवसर होते हुए जो व्यक्ति अपने बुद्धिकौशल के अनुसार जिस कर्म पर आकर ठहर जाता है, उस कर्म के अनुसार उसका वर्ण निर्धारण हो जाता है। इसप्रकार वर्णव्यवस्था में कर्म की ही तो प्रधानता है किसी को समाज में हीन दिखाने का कार्य नहीं। जो कर्म नहीं करता वह दस्यु है और दस्यु को सत्प्रेरणाओं से समाज की निर्मल धारा में लाना उपदेशकों का या दण्ड के द्वारा रास्ते पर लाना राजा का दायित्व है। बचपन से कोई दस्यु बने ही नहीं कर्मकौशल से, पुरुषार्थ से सब प्राप्य प्राप्त करे, यह बतलाना शिक्षा का कार्य है। ऐसी उत्कृष्ट शिक्षा के बीजारोपण समाज की भागदौड़ से दूर आश्रमव्यवस्था में निहित हैं, जिसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता है। ब्रह्मचारी आचार्यकुल में प्राप्त अबोध बच्चे की वैदिकी संज्ञा है। यही उसमें मुख्य केन्द्रबिन्दु होता है, जिसका सदुपदेशों से कच्चे घड़े के समान निर्माण करना होता है। उसे आचार्य अपने सान्निध्य में रखते हुए अपनी ज्ञानाग्नि से जैसा स्वरूप देता है वैसा ही मजबूत बनकर गुरुकुलरूपी तप की भट्टी से वह बाहर आता है। निषेधात्मक सोच लिए हुए जैसे आजकल उग्रवादी जेहादी तैयार करते हैं वैसे ही सकारात्मक सोच के साथ समाज के लिए अपना सब कुछ आहुत कर देने वाले सदाचरणशील, कर्त्तव्यनिष्ठ, समर्पितव्यक्तित्व के धनी आचार्य या गुरु यदि समाज को बदलना चाहें तो वास्तव में बदल सकते हैं। बस, आवश्यकता है उत्तम वातावरण बनाने की। फिर वे भी जेहादी मानव का निर्माण कर फौज खड़ी कर सकते है, लेकिन यह जेहाद समाज को दिशा देने वाले सत्कर्मों के लिए होगा विध्वंस के लिए नहीं। ऐसे व्यक्तित्व की धनी यह फौज अनेक कष्टों के आने पर भी कदाचित् उचित सत्यनिष्ठ मार्ग से विचलित न होगी। यही ध्येय प्राचीन काल में आश्रमों का होता था। जैसे चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का निर्माण किया। अधुनातन उदाहरण देश के  पिछड़े प्रदेश बिहार की राजधानी पटना का है, जहाँ एक Super 30 के नाम से ऐसा संस्थान चल रहा है जिसकी गत तीन वर्षों की उपलब्धि है कि वह निर्धन तीस बच्चों को, जो IIT-JEE की कोचिंग को पैसा देकर नहीं खरीद सकते, उन्हें निःशुल्क समर्पणभाव से शिक्षण देता है। बच्चों की श्रद्धा और गुरुओं के समर्पण व विश्वास से लगातार तीसरी बार तीस के तीस बच्चों ने IIT की कठिनतम परीक्षा को उत्तीर्ण करने का अनुकरणीय कार्य किया है, द्र0 (The Times Of India, New Delhi, Page 01, May 27, 2010)। बस, यह समर्पण का नमूना है, यही शिक्षा के क्षेत्र में होना चाहिए। तुच्छ धन के बदले अमूल्य शिक्षा के विक्रय से बचना चाहिए। यही सन्देश Super 30 ने शिक्षा का बाजारीकरण करने वालों को जोर का झटका देकर दिया है। अब ऐसी व्यवस्थाओं को मूर्तरूप देने के लिए शासन को आगे आना चाहिए और निम्नलिखित योजनाओं को कार्यान्वित करवाकर समाज को सुसमृद्ध और सुसंगठित करने में योगदान देना चाहिए।

  • सर्वप्रथम यदि सरकार वा अन्य सामाजिक संस्थाएँ मानव मात्र का कल्याण चाहती हैं। गरीब से गरीब के बच्चे को पढ़ाई कर सम्मानित जीवन जीने के लिए प्रेरित करना चाहती है। जातिप्रथा के अभिशाप को निर्मूल कर समाज के लिए कैन्सर बने आरक्षण को समाप्त करने का ध्येय रखती है। मानसिक और भौतिक प्रदूषण से समाज को छुटकारा दिलाना चाहती है, तो उन्हें तुरन्त आश्रमव्यवस्था के द्वारा विद्या अध्ययन को लागू करवाना चाहिए। ऐसा होते ही आधुनिक शिक्षाव्यवस्था में दिखाए उपर्युक्त दोष पलायन करने में देर नहीं लगायेंगे।
  • यह प्रकृति सिद्ध है कि उत्कृष्ट वस्तु का निर्माण श्रेष्ठ शिल्पी के ही हाथों द्वारा होता है। आप श्रेष्ठ मानव बनाना चाहें तो उसके लिए सिद्धहस्त को ढ़ूँढना होगा। शिक्षा के लिए सामान्य या आरक्षण से कार्य नहीं चलेगा। आज की व्यवस्था में प्रायः समस्त बुद्धि का वैभव अन्य क्षेत्रों में जा रहा है और यहाँ शिक्षा का कार्य विशेषकर प्राथमिकस्तर पर कामचलाऊ शिक्षकों से चलाया जाता है। जब कि होना विपरीत चाहिए। शिक्षकों से ही उनकी योग्यता से विपरीत चुनाव कार्य, जनगणना, पशुगणना इत्यादि सामाजिक कार्य करवाये जाते हैं। अतः प्रथम त्यागी, तपस्वी समर्पणभाव वाले योग्यतम शिक्षकों का चयन अपेक्षित होगा। शिक्षा के क्षेत्र में भी शिक्षकों का चयन आज कल की जल, थल और वायु सेना के अधिकारियों की चयन प्रक्रिया के अनुरूप अनेकों परीक्षणों और बाधाओं को पार करने वाले सबसे अधिक बुद्धिमान् का किया जाना चाहिए, जिससे वे अपना श्रेष्ठतम योगदान मनुष्यता के निर्माण में दे सकें। ये शिक्षक मातृवत् वात्सल्यभाव, सदाचारी, आध्यात्मिक, विभिन्न विद्याओं में निष्णात, कर्त्तव्यनिष्ठ, बहुभाषाविद् आदि गुणों से युक्त हों तथा इन्हें देश या समाज के अन्य दायित्वों से पूर्णतः मुक्त कर चौबीस घण्टे बच्चों के निर्माण में ही समर्पित करना चाहिए। इन्हें सब अभीष्ट सुविधाएँ भी प्राप्त करवाई जानी चाहिए। समाज उन पर पूर्ण विश्वास और श्रद्धा रखे। प्राचीन समय में शिक्षा देने का कार्य गृहस्थधर्म के समस्त दायित्वों से निर्मुक्त हुए वानप्रस्थी निर्वहन करते थे, अतः शिक्षा विना किसी शुल्क के दी जाती थी। अब भी ये व्यवस्था बनाई जा सकती है, इससे बच्चों को वृद्धजनों के जीवन का पूर्ण अनुभव और प्यार शिक्षा के साथ प्राप्त हो सकेगा। बच्चे भी उनकी सेवा शुश्रूषा कर सकेंगे। एक दूसरे को परस्पर सम्बल प्राप्त हो सकेगा। वृद्धजन अपनी योग्यता के अनुसार इन आश्रमों में कुछ भी सेवायें दे सकते हैं।
  • साम्प्रतिक काल में भी उक्त निर्देशों के अनुसार ग्राम और शहरों से दूर प्रकृति की गोद में छात्रावास, क्रीडास्थल आदि सब सुविधाओं से सुसज्जित आश्रम/विद्यालय/गुरुकुल जो भी नाम दें, स्थापित किये जाने चाहिए। इन का निर्माण जनसहयोग और सरकार द्वारा हो सकता है। इन आश्रमों में बच्चे के खान, पान और पढ़ने की हर प्रकार की चिन्ता श्रेष्ठ, निःस्पृह, समर्पित शिक्षकों के द्वारा की जायेगी, अतः माता पिता निर्द्वन्द्व हो अपने गृहस्थ जीवन को सुन्दरतम बना सकते हैं। आश्रम में रहने वाले बच्चों आदि के भोजन आदि की व्यवस्था भी जरा सी उदारता पर साल भर के लिए फसल के समय दिए गए एक-एक बोरी अन्न से ही सम्भव हो सकती है। जनसंख्या के अनुसार वह अनेक ग्रामों या एक ग्राम वा नगर का हो सकता है।
  • आश्रम में गरीब और धनवान् का अन्तर किये बगैर समानरूप से बच्चे का प्रवेश पाँच से आठ वर्ष की आयु में अनिवार्यरूप से हो जाये यह राजनियम होना चाहिए। जो माता पिता ऐसा न करें वे समाज या शासन के द्वारा दण्डनीय हों। गाँवों में यह दायित्व पंचायत को सौंपा जा सकता है और नगरों में नगरपालिका को, जिससे किसी का बच्चा घर में न रहने पाये। बच्चे माता, पिता और समाज में साक्षात् मोह न रखें जब तक पूर्ण शिक्षा न हो, इससे विना किसी घर आदि की चिन्ता के निरन्तर अध्ययन करना और करवाने का उद्देश्य पूर्ण होगा, विद्यार्जन में किसी प्रकार की बाधा न आने पायेगी। यह सबको शिक्षित करने का सीधा और सरल उपाय है। सभी को पढ़ाई करने और आगे निकलने के समान अवसर उपलब्ध करवा देने से समाज में किसी को आरक्षण देने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। न समाज में विद्वेष फैलेगा। समाज से दूर आश्रमों में बच्चों के होने से बालश्रम (Child Labour) जैसे कलंक का प्रश्न ही नहीं उठेगा। बच्चे भी समाज में पनपने वाले अनेक प्रकार के रोगों से बचे रह सकेंगे।
  • इस आश्रम व्यवस्था में राजा या रंक, सम्प्रदाय आदि के भेद के विना सब बच्चों के साथ समान व्यवहार, खान-पान, वस्त्र आदि से पोषण होने से वास्तविक साम्यवाद अनायास ही आयेगा। जातिवाद का दुश्चक्र भी समाज से शनैः शनैः समाप्त हो जायेगा।
  • समयानुसार नियमित दिनचर्या की परिपालना करवाना भी बच्चों के भविष्य और स्वास्थ्य आदि के लिए उत्तम होगा। ऐसे स्थल पर स्वयं कार्य करने की प्रवृत्ति का भी उदय होगा और बच्चा स्वावलम्बी बनेगा।
  • शारीरिक बल की उन्नति और विभिन्न खेलों में विश्व स्तर पर ख्याति अर्जित करवाने के भी आश्रम स्थल साधन बन सकते हैं। क्योंकि क्रीड़ायें सामूहिक रूप में प्रातः सायम् ही की जाया करती हैं।
  • नित्य प्रातः सायं आसन प्राणायाम, खेलकूद के द्वारा शारीरिक पोषण और मन, आत्मा की प्रबलता के लिए सन्ध्योपासना द्वारा अध्यात्म का पाठ पढ़ाना तथा वातावरण की शुद्धि के लिए अग्निहोत्र करना करवाना अपेक्षित होगा। अग्निहोत्र इसलिए कि अग्नि में पड़ी हुई आहुतियाँ इदन्न मम के द्वारा त्यागभावना को सिखाती हुईं सूक्ष्म हो सम्पूर्ण प्रकृति को सुवासित कर नई ऊर्जा का संचार वातावरण को शुद्ध और पवित्र करने में करती हैं। वस्तुतः गोघृत और प्रकृतिप्रदत्त वनस्पतियों में वह शक्ति मालूम होती है जो यज्ञीय अग्नि के माध्यम से प्रदूषण को समूल नष्ट करने की क्षमता रखते हैं। वेद आदि सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय, वाल्मीकिरामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ इसकी पुरजोर वकालत करते हैं। आधुनिक विचारक दयानन्द भी पर्यावरण की शुद्धता के लिए यज्ञ को ही उत्तम मानते हैं, वे सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में क्या होम न करने से पाप होता है? के उत्तर में लिखते हैं- हाँ, क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर में जितना दुर्गन्ध उत्पन्न हो के वायु और जल को बिगाड़ कर रोगोत्पत्ति का निमित्त होने से प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है, उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है। इसलिये उस पाप के निवारणार्थ उतना सुगन्ध वा उससे अधिक, वायु और जल में फैलाना चाहिये। प्रत्येक को अग्निहोत्र करने के लिए प्रेरित करते हुए पुनः वहीं अन्य प्रश्न के उत्तर में लिखते हैं- प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुति और छः-छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिये और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है। इसीलिये आर्यवरशिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे, महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा, तब तक आर्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये। इन विचारों से यह सिद्ध होता है कि यज्ञ के धूम से वातावरण सुगन्धित होता है और यह अनुभव सिद्ध भी है। यदि यह आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर भी निरीक्षित हो योग के समान प्रचार प्रसार पा जाए तो सम्भव है, भौतिक प्रदूषणों से और विभिन्न प्रकार के रोगों से मानव समाज मुक्त हो जाए। अतः इस दिशा में अनुसन्धान करने के लिए आधुनिक वैज्ञानिकों और याज्ञिकों के सम्मिलित प्रयास होने चाहिए, जिसकी आज के युग में नितान्त आवश्यकता है।
  • साथ ही प्रातः सायं के समय सदुपदेशों के द्वारा विभन्न विषयों जैसे धर्म वास्तव में किसे कहते हैं? ईश्वर, जीव, प्रकृति क्या हैं? इत्यादि पर चर्चाएँ श्रेष्ठ मानव का निर्माण करने में सहयोगी होंगी। ब्रह्मचर्य आदि का पाठ पढ़ा कर विषय वासना और विलासिता के रोगों से समाज को दूर किया जा सकता है। इसप्रकार एक स्थान पर रहने वाले बच्चों का एक साथ चहुँमुखी विकास होना सम्भव है। जिसे परिवारों में प्राप्त करना कथमपि सम्भव नहीं।
  • एक स्थान पर रहने और नियम बना देने से विभिन्नभाषाओं को भी थोड़े ही परिश्रम से बच्चे जान सकते हैं, क्योंकि भाषा बोलने और व्यवहार से आती है। ऐसे में बच्चे का विकास भी सही तरीके से होगा और श्रवण परम्परा से कथाओं के साथ श्रेष्ठ सूक्तियों आदि का स्मरण करवाना भावी जीवन के लिए फलदायक।
  • पाठ्यविषयों में भी शैशव काल के प्रथम तीन चार वर्ष में भाषाओं का पूर्ण ज्ञान करवाना ही उपयोगी हुआ करता है। जिससे समझ विकसित होने पर विषयों को बाद में ठीक से जाना जा सकता है। अन्य विषयों को आनुपूर्वीक्रम से एक-एक विषय को पढ़ाना उत्तम रहेगा। जिससे समय की उपलब्धि होने से अन्य मानसिक और आत्मिक उन्नति के मार्ग भी प्रशस्त होंगे।
  • आश्रमों में श्रेष्ठ, आचारवान्, अध्यात्मनिष्ठ गुरुओं के सान्निध्य में रहकर उनके जीवन से बहुत कुछ सीखने का यथासमय अवसर मिलता है और शिक्षा कkeo परम उद्देश्य श्रेष्ठ मानव का निर्माण करना सम्भव होता है। फिर कार्य कुशलता और योग्यता के अनुरूप बच्चे स्वयं या आचार्य के निर्देशानुसार अपनी आजीविका ग्रहण कर सकते हैं।
  • यहाँ यह भी अवधेय है कि कन्याओं के लिए आश्रम अलग और लड़कों के लिए अलग होना वैयक्तिक और सामाजिक दोनों दृष्टियों से शीघ्र उन्नति करने में लाभदायक सिद्ध होगा। परस्पर आसक्ति में नहीं पड़ेंगे। दिखावा करने का भूत सवार नहीं होगा। जिससे अनेक प्रकार की असहज प्रवृत्तियों से बचा जा सकता है।
  • पहाड़ों पर तो आश्रम व्यवस्था में पढ़ाना आर्थिक आदि सभी पहलुओं में और भी उपयोगी है। सुना जाता है उत्तराखण्ड जैसे प्रान्त में सोलह ऐसे महाविद्यालय हैं, जहाँ प्रत्येक में सौ सौ की भी छात्र संख्या नहीं है। ऐसे में आश्रम व्यवस्था बहुत उपयोगी होगी।

आधुनिक शिक्षा में इसप्रकार के परिवर्तन कर समाज को वर्तमानकालिक नीतिनिर्धारक बहुत सारी विसंगतियों से बचा सकते हैं। आशा है इस दारुण स्थिति में उक्त महत्त्व को समझते हुए भारत सरकार और अन्य ऐसे ही समर्थ तथा सशक्त एन॰ जी॰ ओ॰, डी॰ ए॰ वी॰ संस्थान आदि सामाजिक संगठन आगे आयेंगे। भारत के सोये स्वाभिमान को जगायेंगे और भारतीय उच्च आदर्शों और परम्पराओं की पुनः स्थापना शिक्षाव्यवस्था के माध्यम से करवा कर भारतवर्ष के खोए हुए गौरव को प्राप्त करवाने में यथाशक्ति योगदान देंगे। क्योंकि शिक्षा ऐसा माध्यम है, जिससे शीघ्र और उचित दिशा में उन्नति होने में विलम्ब नहीं हुआ करता।

निष्कर्ष-

उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आधुनिक शिक्षापद्धति अनेक समस्याओं की जड़ है। जिसका मूलोच्छेद जब तक नहीं किया जायेगा तब तक समस्त समाज को शिक्षित और मानवोचित गुणों का उसमें आधान करवाना कथमपि सम्भव नहीं होगा। मनुष्य के केवल बाह्य स्वरूप को सुधारने का कार्य आज की शिक्षा का है। जबकि बाह्य से आन्तरिक स्वरूप अधिक महत्त्व रखता है परन्तु बाह्य और आन्तरिक समुदित हुए चार चाँद लगाने में समर्थ हैं। प्राचीन आश्रम व्यवस्था विचार शक्ति को शुद्ध कर उभयविध उन्नतियों को सिद्ध करती है। इसलिए यदि समाज में मानवता लानी है, प्रकृति के प्रदूषण को बचाना है, बच्चों के विद्यालय में आवागमन हेतु लगने वाले समय को बचाना है तो प्राच्य और अर्वाच्य दोनों के मेल से एक नई शिक्षापद्धति लागू करनी होगी जो सम्पूर्ण समाज को चाहे वह निर्धन से निर्धन हो या मध्यम या बहुत धनाढ्य सब को अध्ययन का समान अवसर देवे। जिससे समाज में स्वाभाविक साम्यवाद आयेगा, जातिवाद निर्मूल होगा, कर्त्तव्यकर्म को महत्त्व दिया जायेगा, आरक्षण की आवश्यकता न होगी। गुरुकुलीय शिक्षापद्धति में प्रकृति की गोद में पढ़ने से भौतिक संसाधनों के प्रति अधिक अनुराग न होगा, आसक्ति न होगी, दिखावा न होगा। विनयभाव आयेगा और व्यक्ति वित्त, बन्धु, वय, कर्म और विद्या को क्रमशः महत्त्वशाली समझेगा, जबकि अब केवल वित्त को ही महत्त्व दिया जा रहा है। आश्रमव्यवस्था में किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बद्ध न होने से केवल मनुर्भव (ऋग्वेद 10.53.6) अर्थात् मानव बन का पाठ पढ़ाया जायेगा। प्रातः सायं सन्ध्याकाल में शरीर को पूर्ण मानसिक और शारीरिकरूप से स्वस्थ रखने के लिए अग्निहोत्र और कुछ प्राणायामों के साथ अन्तर्ध्यान करवाना अपेक्षित होगा जिससे स्वदुर्गुण यदि हैं तो उन्हें दूर करने के लिए दृढ़संकल्प शक्ति तैयार की जा सकती है। इसप्रकार जीवन स्वयमेव धार्मिक बन जायेगा, क्योंकि धर्म पूजा पाठ का नाम नहीं है। न वह मन्दिरों में है, न गुरुद्वारों में, न मस्जिदों वा चर्चों में। वस्तुतः सही से कर्त्तव्य कर्मों को करना ही धर्म है। या जिससे समाज, प्रकृति की सम्यक् संस्थिति और मोक्षरूप परम आनन्द की प्राप्ति हो, वह धर्म है।

अन्त में संक्षेप में यदि यह कहा जाये कि सम्पूर्ण देश में नवोदय विद्यालयों की तरह छात्रावासों में रहकर ही पढ़ाई करवाना सुनिश्चित कर दिया जाये तो भी प्रतिदिन करोड़ों रूपये के पर्यावरण प्रदूषण, समयहानि, जनहानि, धनहानि से बचा जा सकता है और उक्तव्यवस्था मूर्तरूप धारण कर लेवे तो देश पुनः प्राचीन गौरव को प्राप्त करने में देर नहीं लगायेगा और कालिदास के रघुवंश के शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्। वार्द्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ।।जैसे वाक्य पुनः भारत के भाल का शृंगार बन जायेंगे।

(डॉ0 ब्रह्मदेवसंस्कृत-विभागगुरुकुलकांगड़ीविश्वविद्यालयहरिद्वार)

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