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अग्निहोत्र -रामनाथ विद्यालंकार

अग्निहोत्र

ज्योति से ज्योति मिले

-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता अग्निः । छन्दः जगती ।

अग्ने वेर्होत्रं बेर्दूत्युमर्वतां त्वां द्यावापृथिवीऽअव त्वं द्यावापृथिवी स्विष्टकृद्देवेभ्य॒ऽइन्द्रऽआज्येन हविषा भूत्स्वाहा सं ज्योतिष ज्योर्तिः॥

-यजु० २।९

( अग्ने ) हे विद्वन् ! तू ( वेः ) जानता है ( होत्रं ) अग्निहोत्र को, ( वेः ) जानता है ( दूत्यं ) अग्नि के दूतकर्म को। ( अवतां ) रक्षित करें ( त्वां ) तुझे ( द्यावापृथिवी ) राष्ट्र के पिता-माता। (अव) रक्षित कर ( त्वं ) तू ( द्यावापृथिवी ) राष्ट्र के पिता-माताओं को। (इन्द्रः ) ऐश्वर्यशाली यजमान ( आज्येन ) घृत से, तथा ( हविषा ) हवि से ( देवेभ्यः ) विद्वानों के लिए ( स्विष्टकृत् ) उत्तम यज्ञ का कर्ता तथा उत्कृष्ट अभीष्ट का साधक (भूत्) हुआ है, ( स्वाहा ) हम भी स्वाहापूर्वक यज्ञ करें। ( सं ) मिले ( ज्योतिषा) ज्योति के साथ ( ज्योतिः ) ज्योति।

हे अग्ने ! हे अग्रनायक विद्वन्!

आप अग्निहोत्र को जानते हो। कितना और कैसा घृत हो, अन्य कौन-कौन सा हविर्द्रव्य हो, घृत तथा अन्य हव्यों की कितनी मात्रा में आहुति दी जाए, किस ऋतु में कौन-सी हवन-सामग्री हो, समिधाएँ किन वृक्षों की हों, कब विशाल यज्ञों का आयोजन किया जाए, उनमें कितना आर्थिक व्यय हो, पुरोहित किसे बनाया जाए, दक्षिणा कितनी दी जाए इत्यादि यज्ञ-सम्बन्धी सब बातें आपको विदित हैं।

आप यज्ञाग्नि के दूत-कर्म के भी ज्ञाता हो। अग्नि को वेदों में देवों का दूत इस कारण कहा गया है कि वह यज्ञकर्ता और विद्वज्जनरूप देवों के बीच दूत-कर्म करता है। जब कोई किसी कार्य को सीधा स्वयं न करके उसे कार्य के लिए किसी को माध्यम बनाता है, तब उसे माध्यम बनने वाले को दूत और उसके द्वारा किये जाने वाले कार्य को दूत कर्म कहा जाता है।

यज्ञकर्ता घृत तथा अन्य हव्यों की रोगहर स्वास्थ्यप्रद सुगन्ध को स्वयं विद्वज्जनरूप देवों के पास न पहुँचा कर अग्नि को माध्यम बनाता है। वह अग्नि में हवि का प्रक्षेप करता है और अग्नि उस हव्य को सूक्ष्म करके उसकी सुगन्ध वायु की। सहायता से विद्वज्जनों के पास पहुँचाता है, इसलिए यज्ञाग्नि दूत है।

हे विद्वन् !

अग्नि के इस दूतकर्म को भी आप जानते हो, अर्थात् अग्नि हविर्द्रव्यों को ग्रहण करके कैसे उनकी सुगन्ध चारों और फैलाता है तथा कैसे परोपकार करता है, इस यज्ञविद्या को भी आप जानते हो। राष्ट्र के द्यावापृथिवी अर्थात् पिता-माताओं या पुरुषों और नारियों का कर्तव्य है कि वे आपको पुरोहित का आदर देकर गौरव प्रदान करें और आपका कर्तव्य है कि आप उनका यज्ञ करा कर यज्ञ से उनका स्वास्थ्य-वर्धन करके उनकी रक्षा करें। यजमान द्वारा यज्ञ में आज्य (घृत) और सुगन्धि, मिष्ट, पुष्टिकारक एवं रोगहर हव्यों की आहुति दी जाती है।

यजमान को ऐश्वर्यवान् होने के कारण इन्द्र भी कहते हैं । उसे यजमानरूप इन्द्र के लिए कहा गया है कि वह घृत तथा अन्य हवियों की यज्ञ में आहुति देकर देवजनों के लिए स्विष्टकृत्’ हो गया है। स्विष्टकृत्’ का अर्थ है साधु प्रकार से यज्ञ को अथवा अभीष्ट को सिद्ध करने वाला। यजमान यज्ञ को भी सिद्ध करता है और जिस अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए यज्ञ किया जाता है, उसे भी सिद्ध करता है। ‘इष्ट’ शब्द यज धातु तथा इच्छार्थक ‘इष्’ धातु दोनों से ही क्त प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। हम सबको भी कर्तव्य है कि हम ‘स्वाहा’ का उच्चारण करके यज्ञाग्नि में आहुति दें। उसका अन्य फलों के साथ एक फल यह भी होगा कि ‘ज्योति से ज्योति मिलेगी’। हम यज्ञाग्नि की ज्योति से परमात्माग्नि की बृहत् ज्योति का अनुमान करके परमात्माग्नि की ज्योति में ध्यान केन्द्रित करेंगे।

इस प्रकार हमारे आत्मा की ज्योति का परमात्मा की ज्योति से सम्पर्क होगा और हमारी आत्मज्योति उस विशाल ज्योति से ज्योति पाकर और भी अधिक ज्योतिर्मय हो उठेगी। आओ, ज्योति से ज्योति मिलाने के लिए हम यज्ञ करें ।

अग्निहोत्र

पाद-टिप्पणियाँ

१. वेः=अवेः । विद ज्ञाने, लङ् सिप्, अडागम नहीं हुआ।

२. दूतस्य कर्म दूत्यम्, ‘दूतस्य भागकर्मणी’ पा०, ४.४.१२१ से कर्म

अर्थ में यत् प्रत्यय । ।

३. द्यौष्पितः पृथिवि मातः। –ऋ० ६.५१.५

४. इन्द्रो वै यजमानः। -श० २.१.२.११

५. भूत्=अभूत् । भू सत्तायाम्, लुङ्। ‘बहुलं छन्दस्यमाड्योगेऽपि’ पा०६.४.७५ से अट् का आगम नहीं हुआ।

६. अग्नावग्निश्चरति प्रविष्टः । –अ० ४.३९.९

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