दो प्रश्र किन्हीं लोगों ने हमारे आर्य युवकों से पूछे हैं। हर वस्तु को बनाने वाला,जगत् को बनाने वाला और हमें बनाने वाला जब परमात्मा है तो फिर परमात्मा को बनाने वाला कौन है? यह प्रश्र इस्लाम, ईसाई मत से तो पूछा जा सकता है। हम वैदिकधर्मी तो ईश्वर, जीव व प्रकृति को अनादि मानते हैं। यह ऊपर बताया जा चुका है। श्री लाला हरदयालजी ने भी यह प्रश्र उठाया है। बनी हुई वस्तु (मिश्रित) का तो कोई बनाने वाला होता है। ईश्वर, जीव व प्रकृति (अपने मूल स्वरूप में) अमिश्रित हैं। इनको बनाने का प्रश्र ही नहीं उठता। पूरे विश्व में सारे वैज्ञानिक अब एक स्वर में यह घोषणा कर रहे हैं कि प्रकृति को न तो उत्पन्न किया जा सकता है और न ही इसका नाश होता है। इस युग में यह ऋषि की बहुत बड़ी वैचारिक विजय है। यह हमारी एक मूल मान्यता है।
दूसरा प्रश्र भी बड़ा विचित्र है। जब जीव व प्रकृति भी अनादि हैं, जैसे कि परमात्मा, तो फिर परमात्मा उनसे बड़ा कैसे? प्रभु इनको नियन्त्रण में कैसे करता है? प्रश्र तो अच्छा है, परन्तु पढ़े-लिखे प्रश्रकत्र्ता यह भूल जाते हैं कि नियन्त्रण करने का आयु से कोई सम्बन्ध ही नहीं। मौलवी लोग चाँदापुर शास्त्रार्थ के समय से यह कहते आ रहे हैं कि जब जीवों को प्रभु ने पैदा ही नहीं किया तो फिर वह हमारा मालिक (स्वामी) कैसे हो सकता है।
अध्यापक ने विद्यार्थियों को पैदा नहीं किया। शासक प्रशासक आयु में भले ही छोटे हों, बड़ी आयु की प्रजा पर उन्हीं का नियन्त्रण होता है। संसार में गुणों से, योग्यता से, बल से दूसरों को वश में रखा जाता है। अपने खेतों को, मकान को, सामान को क्या हमने पैदा किया है? हम उसके स्वामी कहलाते हैं। पूज्य देहलवी जी ने पानीपत के एक शास्त्रार्थ में अपने प्रतिपक्षी मौलवी के इसी प्रश्र के उत्तर में कहा था, क्या तुम्हारी बीवी को तुमने पैदा किया है? वह आपके वश में है। आप उसके मालिक कहलाते हो। ठाकुर अमरसिंह जी ने मौलवी सनाउल्ला को घेरते हुए कहा कि आप जॉर्ज छठे से आयु में बड़े हैं, परन्तु सम्राट् की प्रजा के नाते उसके नियन्त्रण में हैं। घोड़ा आयु में बड़ा होता है फिर भी छोटी आयु का सवार उससे काम लेता है। इन बातों पर विचार करने से शंका का समाधान हो जाता है।