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स्तुता मया वरदा वेदमाता- डॉ धर्मवीर जी

 

देवा इवामृतं रक्षमाणाः सायं प्रातः सौयसो वोस्त।

संज्ञान सूक्त के अन्तिम मन्त्र की दूसरी पंक्ति में दो बातों पर बल दिया गया है। एक में कहा है कि परिवार में प्रेम का वातावरण सदा ही रहना चाहिए। यहाँ दो पद पढ़े गये हैं, सायं प्रातः, अर्थात् हमारे परिवारिक वातावरण में प्रेम का प्रवाह प्रातः से सायं तक और सायं से प्रातः तक प्रवाहित होते रहना चाहिए। यह प्रेम सौमनस्य से प्रकाशित होता है। हमारे मन में सद्भाव का प्रवाह होगा, सद्विचारों की गति होगी तो सौमनस्य का भाव बनेगा। प्रेम के लिये शारीरिक पुरुषार्थ तो होता ही है। जब हम किसी की सहायता करते हैं, सेवा करते हैं, छोटों से स्नेह और बड़ों का आदर करते हैं, तब हमारे परिवार में सौमनस्य का स्वरूप दिखाई पड़ता है।

हम यदि सोचते हैं कि प्रेम हमारे परिवार के सदस्यों में स्वतः बना रहेगा, कोई हमारा भाई है, बेटा है, पिता या पुत्र है, इतने मात्र से परस्पर प्रेम उत्पन्न हो जायेगा, यह अनिवार्य नहीं है। हम पारिवारिक सबन्धों में प्रेम की सहज कल्पना करते हैं, परन्तु परिवार का प्राकृतिक सबन्ध प्रेम उत्पन्न करने की सहज परिस्थिति है। इसमें प्रेम के अंकुर निकलते हैं, जिन्हें विकसित किया जा सकता है।

प्रेम का अंकुरण विचारों से होता है, मनुष्य अपनी सेवा सहायता चाहता है, अपना आदर, समान चाहता है, अपनी प्रशंसा की इच्छा करता है। यह विचार हमें सुख देता है, कोई व्यक्ति दृष्टि सेवा सहायता करता है, समान देता है। ऐसे सुख की कामना सभी में होती है, अतः जो भी किसी के प्रति ऐसा करने का भाव रखेगा, उसके मन में इसी प्रकार आदर के भाव उत्पन्न होंगे। आप किसी का आदर करते हैं, दूसरा व्यक्ति भी आपका आदर करता है। आप किसी की सहायता करते हैं, दूसरे व्यक्ति के मन में भी आपके प्रति सहानुभूति उत्पन्न होती है। आवश्यकता पड़ने पर वह भी आपकी सेवा के लिये तत्पर रहता है।

मनुष्य के मन में स्वार्थ की पूर्ति की इच्छा स्वाभाविक होती है। स्वार्थ पूर्ण करने के लिये उपदेश करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। परोपकार, धर्म, सेवा, आदर आदि में कार्य बुद्धिपूर्वक सोच-विचार कर ही किये जा सकते हैं, अतः ये विचार हमारे हृदय में सदा बने रहें, इसका प्रयत्न करना पड़ता है। इसी के उपाय के रूप में कहा गया है कि हमें सौमनस्य की निरन्तर रक्षा करनी होती है, तभी सौमनस्य सपूर्ण समय बना रह सकता है।

सौमनस्य बनाना पड़ता है, उसके लिये बहुत सावधानी सतर्कता की आवश्यकता होती है। मनुष्य में स्वार्थ की वृत्तियाँ सदा सक्रिय रहती हैं। उनपर नियन्त्रण रखने के लिये सदा सजग रहने की आवश्यकता है। इसके लिये वेद में उदाहरण दिया गया है, जैसे देवता लोग अमृत की रक्षा में तत्पर रहते हैं, वैसे मनुष्य को भी अपने वातावरण में सदाव सौमनस्य की रक्षा करने के लिये तत्पर रहना चाहिए। पुराणों में कथा आती है- देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया और सोलह पदार्थ प्राप्त किये। जब समुद्र से अमृत निकला तो देवताओं ने उस पर अपना अधिकार कर लिया। इस बात का जैसे ही असुरों को ज्ञान हुआ, वे अमृत प्राप्त करने के लिये देवताओं से संघर्ष करने लगे। जहाँ-जहाँ इस संघर्ष के कारण अमृत के बिन्दु गिरे, वहाँ-वहाँ अच्छी-अच्छी चीजें बनीं, उत्पन्न हुईं उन पदार्थों में कोई न्यूनता है तो असुरों के स्पर्श के कारण, जैसे लशुन की अमृत से उत्पत्ति मानी गई है, परन्तु इसमें दुर्गन्ध का कारण इससे असुरों का स्पर्श कहा गया है।

प्रकृति में देवता निरन्तर नियमपूर्वक कार्य करते हैं, तभी संसार नियमित रूप से चल रहा है। यदि एक क्षण के लिये भी देवता अपना काम छोड़ दें तो संसार में प्रलय उत्पन्न हो जायेगी। हम सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, वायु आदि को देखकर इस बात का निश्चय भली प्रकार कर सकते हैं। इसी कारण व्रत धारण करते समय देवताओं के व्रत धारण को उदाहरण के रूप में स्मरण किया जाता है, ‘अग्ने व्रतपते’ हे अग्नि! तू व्रत पति है तेरा व्रत भी नहीं टूटता मैं भी तेरे समान व्रत पति बनूँ कहा गया है।

देवताओं का एक नाम अनिमेष है। वे कभी पलक भी नहीं झपकाते, सदा सतर्क, सावधान रहते हैं। वैसे भी परिवार समाज में सौमस्य बनाये रखने के लिये मनुष्य को सदा सावधान रहना चाहिए, सौमनस्य बना रह सकता है। देवताओं का देवत्व अमृत से ही है, अमृत नहीं है तो उनका देवत्व ही समाप्त हो जाता है। और अमरता है- व्रत न टूटना। व्रत टूटते ही मृत्यु है…….. हमें देवताओं के समान अपने सदविचारों की सदा रक्षा करनी चाहिये, तभी सौमनस्य की प्राप्ति सभव है।

सोम रस ओर शराब

कई पश्चमी विद्वानों की तरह भारतीय विद्वानों की ये आम धारणा है ,कि सोम रस एक तरह का नशीला पदार्थ होता है । ऐसी ही धारणा डॉ.अम्बेडकर की भी थी ,,डॉ.अम्बेडकर अपनी पुस्तक रेवोलुशन एंड काउंटर  रेवोलुशन इन असिएन्त इंडिया मे निम्न कथन लिखते है:-ambedkar

यहाँ अम्बेडकर जी सोम को वाइन कहते है ।लेकिन शायद वह वेदों मे सोम का अर्थ समझ नही पाए,या फिर पौराणिक इन्द्र ओर सोम की कहानियो के चक्कर मे सोम को शराब समझ बेठे ।

सोम का वैदिक वांग्मय मे काफी विशाल अर्थ है ,सोम को शराब समझने वालो को शतपत के निम्न कथन पर द्रष्टि डालनी चाहिए जो की शराब ओर सोम पर अंतर को स्पष्ट करता है :-

शतपत (5:12 ) मे आया है :-सोम अमृत है ओर सूरा (शराब) विष है ..

ऋग्वेद मे आया है :-” हृत्सु पीतासो मुध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् ।।

अर्थात सुरापान करने या नशीला पदार्थ पीने वाला अक्सर उत्पाद मचाते है ,जबकि सोम के लिए ऐसा नही कहा है ।

वास्तव मे सोम ओर शराब मे उतना ही अंतर है जितना की डालडा या गाय के घी मे होता है ,,निरुक्त शास्त्र मे आया है ”  औषधि: सोम सुनोते: पदेनमभिशुण्वन्ति(निरूकित११-२-२)” अर्थात सोम एक औषधि है ,जिसको कूट पीस कर इसका रस निकलते है । लेकिन फिर भी सोम को केवल औषधि या कोई लता विशेष समझना इसके अर्थ को पंगु बना देता है ।

सोम का अर्थ बहुत व्यापक है जिसमे से कुछ यहाँ बताने का प्रयास किया है :-

कौषितिकी ब्राह्मणों उपनिषद् मे सोम रस का अर्थ चंद्रमा का रस अर्थात चंद्रमा से आने वाला शीतल प्रकाश जिसे पाकर औषधीया पुष्ट होती है किया है ।

शतपत मे ऐश्वर्य को सोम कहा है -“श्री वै सोम “(श॰4/1/39) अर्थात ऐश्वर्य सोम है ।

शतपत मे ही अन्न को भी सोम कहा है -” अन्नं वै सोमः “(श ॰ 2/9/18) अर्थात इस अन्न के पाचन से जो शक्ति उत्पन्न होती है वो सोम है । कोषितिकी मे भी यही कहा है :-“अन्न सोमः”(कौषितिकी9/6)

ब्रह्मचर्य पालन द्वारा वीर्य रक्षा से उत्पन्न तेज को सोम कहा है .शतपत मे आया है :-“रेतो वै सोमः”(श ॰ 1/9/2/6)अर्थात ब्रहमचर्य से उत्पन्न तेज (रेत) सोम है .कौषितिकी मे भी यही लिखा है :-“रेतः सोम “(कौ॰13/7)

वेदों के शब्दकोष निघुंट मे सोम के अंनेक पर्यायवाची मे एक वाक् है ,वाक् श्रृष्टि रचना के लिए ईश्वर द्वारा किया गया नाद या ब्रह्मनाद था ..अर्थात सोम रस का अर्थ प्रणव या उद्गीत की उपासना करना हुआ । वेदों ओर वैदिक शास्त्रों मे सोम को ईश्वरीय उपासना के रूप मे बताया है ,जिनमे कुछ कथन यहाँ उद्रत किये है :-

तैतरिय उपनिषद् मे ईश्वरीय उपासना को सोम बताया है ,ऋग्वेद (10/85/3) मे आया है :-”  सोमं मन्यते पपिवान्सत्सम्पिषन्त्योषधिम्|
सोमं यं ब्राह्मणो विदुर्न तस्याश्राति कश्चन||” अर्थात पान करने वाला सोम उसी को मानता है ,जो औषधि को पीसते ओर कूटते है ,उसका रस पान करते है ,परन्तु जिस सोम को ब्रह्म ,वेद को जानने वाले ,व ब्रह्मचारी लोग जानते है ,उसको मुख द्वारा कोई खा नही सकता है ,उस अध्यात्मय सोम को तेज ,दीर्घ आयु ,ओर आन्नद को वे स्वयं ही आनन्द ,पुत्र,अमृत रूप मे प्राप्त करते है ।

ऋग्वेद (8/48/3)मे आया है :-”   अपाम सोमममृता अभूमागन्मु ज्योतिरविदाम् देवान्|
कि नूनमस्कान्कृणवदराति: किमु धृर्तिरमृत मर्त्यस्य।।” अर्थात हमने सोमपान कर लिया है ,हम अमृत हो गये है ,हमने दिव्य ज्योति को पा लिया है ,अब कोई शत्रु हमारा क्या करेगा ।

ऋग्वेद(8/92/6) मे आया है :-”  अस्य पीत्वा मदानां देवो देवस्यौजसा विश्वाभि भुवना भुवति” अर्थात परमात्मा के संबध मे सोम का पान कर के साधक की आत्मा ओज पराक्रम युक्त हो जाती है ,वह सांसारिक द्वंदों से ऊपर उठ जाता है ।

गौपथ मे सोम को वेद ज्ञान बताया है :-  गोपथ*(पू.२/९) वेदानां दुह्म भृग्वंगिरस:सोमपान मन्यन्ते| सोमात्मकोयं वेद:|तद्प्येतद् ऋचोकं सोम मन्यते पपिवान इति|
वेदो से प्राप्त करने योग्य ज्ञान को विद्वान भृगु या तपस्वी वेदवाणी के धारक ज्ञानी अंगिरस जन सोमपान करना जानते है|
वेद ही सोम रूप है|

सोम का एक विस्तृत अर्थ ऋग्वेद के निम्न मन्त्र मे आता है :-”   अयं स यो वरिमाणं पृथिव्या वर्ष्माणं दिवो अकृणोदयं स:|
अयं पीयूषं तिसृपु प्रवत्सु सोमो दाधारोर्वन्तरिक्षम”(ऋग्वेद 6/47/4) अर्थात व्यापक सोम का वर्णन ,वह सोम सबका उत्पादक,सबका प्रेरक पदार्थ व् बल है ,जो पृथ्वी को श्रेष्ट बनाता है ,जो सूर्य आकाश एवम् समस्त लोको को नियंत्रण मे करने वाला है ,ये विशाल अन्तरिक्ष मे जल एवम् वायु तत्व को धारण किये है ।

अतः उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है की सोम का व्यापक अर्थ है उसे केवल शराब या लता बताना सोम के अर्थ को पंगु करना है ।चुकि डॉ अम्बेडकर अंगेरजी भाष्य कारो के आधार पर अपना कथन उदृत करते है ,तो ऐसी गलती होना स्वाभिक है जैसे कि वह कहते है “यदि यह कहा जाये कि मै संस्कृत का पंडित नही हु ,तो मै मानने को तैयार हु।परन्तु संस्कृत का पंडित नही होने से मै इस विषय मे लिख क्यूँ नही सकता हु ? संस्कृत का बहुत थोडा अंश जो अंग्रेजी भाषा मे उपलब्ध नही है ,इसलिए संस्कृत न जानना मुझे इस विषय पर लिखने से अनधिकारी नही ठहरया जा सकता है ,अंग्रेजी अनुवादों के १५ साल अध्ययन करने के बाद मुझे ये अधिकार प्राप्त है ,(शुद्रो की खोज प्राक्कथ पृ॰ २)

मह्रिषी मनु बनाम अम्बेडकर के पेज न 198 व् 202 पर सुरेन्द्र कुमार जी अम्बेडकर का निम्न कथन उदृत करते है -“हिन्दू धर्म शास्त्र का मै अधिकारी ज्ञाता नही हू …

अतः स्पष्ट है की अंग्रेजी टीकाओ के चलते अम्बेडकर जी ने ऐसा लिखा हो लेकिन वो आर्य समाज से भी प्रभावित थे जिसके फल स्वरूप वो कई वर्षो तक नमस्ते शब्द का भी प्रयोग करते रहे थे ,,लेकिन फिर भी अंग्रेजी भाष्य से पुस्तके लिखना चिंता का विषय है की उन्होंने ऐसा क्यूँ किया ।

लेकिन अम्बेडकर जी के अलावा अन्य भारतीय विद्वानों ओर वैदिक विद्वानों द्वारा सोम को लता या नशीला पैय बताना इस बात का बोधक है कि अंग्रेजो की मानसिक गुलामी अभी भी हावी है जो हमे उस बारे मे विस्तृत अनुसंधान नही करने देती है ।

संधर्भित पुस्तके एवम ग्रन्थ :-(१) ऋग्वेद -पंडित जयदेव शर्मा भाष्य

(२) बोलो किधर जाओगे -आचार्य अग्निव्रत नैष्टिक

(३) शतपत ओर कौषितिकी

(४)revoulation and counterrevoulation in acient india by dr.ambedkar

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