श्री धर्मवीर जी ने ‘परोपकारी’ में इतिहास के ‘हस्ताक्षर’ शीर्षक से एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी रूप-लेख आरम्भ किया था। जिसके दूरगामी परिणाम निकले। साहित्यकारों ने इसकी महत्ता व उपयोगिता का लोहा माना। इसी के अन्तर्गत बनेड़ा के राजपुरोहित श्री नगजीराम की डायरी के कुछ पृष्ठ, वीर भगतसिंह, स्वामी वेदानन्द जी के हस्ताक्षर और श्री सुखाडिय़ा का आर्यसमाज ब्यावर के नाम पत्र छापे। इनमें से कुछ सामग्री कई विद्वानों के ग्रन्थों में स्थान पा चुकी है।
आर्यसमाज के अग्रि-परीक्षा काल के एक अभियोग पटियाला के महाशय रौनक राम जी शाद के केस के बारे में पूज्य महाशय कृष्ण जी का १०२ साल पुराना एक ऐतिहासिक पत्र परोपकारी में छपा। मेरे पास ऐसे कई महापुरुषों के पत्र व दस्तावेज हैं। परोपकारी में इनके प्रकाशन से इतिहास की सुरक्षा हो जायेगी।
पं. मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या का पत्र:- परोपकारिणी सभा के आरम्भिक काल के मन्त्री श्री पण्ड्या मथुरा निवासी का एक पत्र मई १८८६ के आर्य समाचार मेरठ के पृष्ठ ४५-४८ तक छपा मिलता है। सभा ने व समाजों ने पण्डया जी को ऋषि-जीवन के लिखने का कार्य सौंपा। आपने इस दायित्व को लेकर ऐसे कई पत्र तत्कालीन आर्यपत्रों में प्रकाशित करवाये। पण्ड्या जी मन से तो पोप ही थे, ऊपर से वैदिक धर्मी व ऋषि-भक्त बने हुये थे। एक भी पृष्ठ नहीं लिखा। ऋषि जीवन की खोज के लिये घर से निकलकर भटकना, कष्ट सहन करना ऐसे लोगों के बस में कहाँ। कोई लेखराम ही धर्म-रक्षा व धर्मप्रचार के लिए जान जोखिम में डाल सकता है। बाबू लोग घर में कुर्सी पर बैठे-बैठे लेख लिखकर रिसर्च की धौंस जमाते हैं। वर्षों तक समाजों के अधिकारी रहने वाले कभी अड़ोस-पड़ोस में किसी ग्राम में नये स्थान पर जाकर कभी धर्मप्रचार करने का कष्ट नहीं उठाते। इस प्रकार से तो इतिहास नहीं बना करता।