स्वतंत्रता-परतंत्रता

 

slavery

 

स्वंत्रता-परतंत्रता 

लेखक- स्वामी विष्वअंग् जी  , ऋषि उद्यान – अजयमेरू नगरी  

व्यक्तियों के अनेको सम्बन्ध होते है,जैसे माता-पिता के साथ, पति-पत्नी के साथ, सांस-बहु के साथ, श्वशुर-बहु के साथ, भाई-बहन के साथ, गुरु-शिष्य के साथ, पडोसी के साथ, व्यापारी-सेवक के साथ, समाज के साथ………….इस प्रकार अलग-अलग अन्रको सम्बन्ध है | इन संबंधो के साथ रहते हुए प्रत्येक व्यक्ति चाहते या न चाहते हुए अनेको कार्य करता है | ऐसा प्रतीत होता है की सारा जीवन पराधीनता से युक्त है | फिर भी यह कहा जाता है की मनुष्य स्वतंत्र है अर्थात करने, न करने या अन्यथा करने में स्वतंत्र है | क्या हम पराधीन है या स्वाधीन है ? अर्थात परतंत्र है या स्वतंत्र है ? यद्यपि  नासमझ व्यक्ति को लगता है की हम तो परतंत्र है, परन्तु ऐसा नहीं है, क्यों की पराधीन होता है तो स्वाधीन भी तो होता है | सर्व प्रथम यह समझना चाइये की स्वाधीनता-स्वतंत्रता किसे कहते है, और पराधीनता-परतंत्रता किसे कहते है ?

जैसा की स्वतंत्रता के विषय में कहा जाता है की करने, न करने या अन्यथा करने में मनुष्य स्वतंत्र है | ठीक इसके विपरीत करने, न करने या अन्यथा करने में परतंत्र है अर्थात मनुष्य अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं कर सकता | परन्तु ऐसा बिलकुल नहीं है, क्यों की मनुष्य अपनी इच्छा से बहोत कुछ करता है | जब वह बहोत कुछ अपनी इच्छा से कर रहा होता है तब स्वतंत्र होकर ही कर रहा होता है | इससे यह पता लगता है की मनुष्य स्वतंत्र है और जब-जब वह अन्यों के आश्रित होकर करता है तब-तब वह परतंत्र होता है | परन्तु यह परतंत्र किसे व्यवस्था के लिए होता है | व्यवस्थाए अलग-अलग होती है | जिस प्रकार हमारे अलग-अलग सम्बन्ध है, तो हमारी व्यवस्थाए भी अलग-अलग होंगी | व्यवस्था को बनाये रखने के लिए मनुष्य को परतंत्र बनाना पड़ता है | इसका यह अभिप्राय नहीं है की मनुष्य परतंत्र हो गया | केवल उस व्यवस्था को व्यवस्थित बनाये रखने के लिए परतंत्र हुआ है, उससे मनुष्य स्वाभाव से परतंत्र नहीं हुआ | वह व्यवस्था के लिए परतंत्र होता हुआ भी स्वतन्त्र ही रहता है | क्यों की मनुष्य का स्वभाव ही स्वतंत्र रहना है | यहाँ यह समझना चाइये की मनुष्य अपने यथार्थ ज्ञान, विवेक से व्यवस्था को इसलिए स्वीकार करता है की जिससे, उसे सुख विशेष मिलता है | उस सुख-विशेष को समझ कर जानकर अपनी इच्छा से, अपनी स्वतंत्रता से, उस व्यवास्स्था के लिए परतंत्रता को स्वीकार करता है |

यदि मनुष्य यथार्थ ज्ञान-विवेक नहीं रखता अर्थात मूर्खता-अज्ञान रूपी अविद्या से ग्रस्त रहता है, तो उसे व्यवस्था से सुख-विशेष मिलेंगा, यह बोध ही नहीं रहता, इसलिए वह व्यवस्था चाहे माता-पिता, गुरु-आचार्य, पुलिस, समझ या राष्ट्र की व्यवस्था हो, उसको भंग करता है, और दुःख विशेष को प्राप्त करता है | ऐसे-ऐसे स्थानों में मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करता है | यहाँ स्वतंत्रता का उपयोग तो कर रहे है, परन्तु उस स्वतंत्रता से मनुष्य को दुःख-विशेष प्राप्त हो रहा है | ऐसी स्वतंत्रता से दुःख ही मिलेंगा | इसलिए मनुष्य को समझना चाइये की स्वंत्रता और परतंत्रता क्या है ? अर्थात स्वतंत्रता से सुख और परतंत्रता से दुःख मिलता है ? क्या यही स्वतंत्रता या परतंत्रता है ? यदि ऐसा माना जाए तो स्वतंत्रता से सुख और दुःख दोनों मिलते है और परतंत्रता से भी सुख और दुःख दोनों मिलते है | इसलिए मनुष्य को अपनी स्वतंत्रता को समझकर-जानकार उसका सदुपयोग करना चाइये |

मनुष्य स्वतंत्रता का दुरूपयोग तब कर सकता है जब उसके पास यथार्थ ज्ञान-विवेक होंगा | यथार्थ ज्ञान वेद आदि सत्य शास्त्रों के अध्यन करने से या उनको पढ़े हुए विद्वानों के माध्यम से या और किसी भी माध्यम से जानकारी प्राप्त करने से मनुष्य को हो जाता है | यथार्थ ज्ञान से मनुष्य अपने स्वतंत्रता का सदुपयोग करता है | कहा, कब, किस परिस्थिति में स्वतंत्र रहकर सुख लिया जायेंगा और कहा, कब, किस परिस्थिति में अन्यों के आधीन परतंत्र रहकर भी सुख लिया जायेंगा, यही मनुष्य की बुद्धिमता है | यदि मनुष्य के पास बुद्धि-ज्ञान नहीं है अर्थात मूर्खता-अविद्या है, तो स्वतंत्र होता हुआ भी अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग करता हुआ सर्वत्र दुःख सागर में गोता लगाता रहेंगा | इसका यह भी अर्थ नहीं लेना चाइये की परतंत्र रहता हुआ सुख ही लेता रहेंगा हाँ ! यदि अविद्या से ग्रस्त रहकर परतंत्रता को स्वीकार करता है, तो दुःख सागर में गोता लगाता रहेंगा | परन्तु यथार्थ-ज्ञान-विद्या से युक्त रहेंगा, तो चाहे स्वतंत्र रहे चाहे परतंत्र रहे, दोनों की स्तिथियो में सदा सुखी ही रहेंगा | इसलिए विद्या-युक्त स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों ही लाभकारी है | परन्तु ध्यान रहे मनुष्य स्वभाव से स्वतंत्र है, परतंत्र नहीं |

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