यह मन गढ़न्त गायत्री!: प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज अपने व्याख्यानों  में

अविद्या की चर्चा करते हुए निम्न घटना सुनाया करते थे। रोहतक

जिला के रोहणा ग्राम में एक बड़े कर्मठ आर्यपुरुष हुए हैं। उनका

नाम था मास्टर अमरसिंहजी। वे कुछ समय पटवारी भी रहे। किसी

ने स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज को बताया कि मास्टरजी को एक

ऐसा गायत्री मन्त्र आता है जो वेद के विज़्यात गायत्री मन्त्र से न्यारा

  1. रावण जोगी के भेस में (उर्दू) है। स्वामीजी महाराज गवेषक थे ही। हरियाणा की प्रचार यात्रा

करते हुए जा मिले मास्टर अमरसिंह से।

मास्टरजी से निराला ‘गायत्रीमन्त्र’ पूछा तो मास्टरजी ने बताया

कि उनकी माताजी भूतों से बड़ा डरती थी। माता का संस्कार बच्चे

पर भी पड़ा। बालक को भूतों का भय बड़ा तंग करता था। इस

भयरूपी दुःख से मुक्त होने के लिए बालक अमरसिंह सबसे पूछता

रहता था कि कोई उपाय उसे बताया जाए। किसी ने उसे कहा कि

इस दुःख से बचने का एकमात्र उपाय गायत्रीमन्त्र है। पण्डितों को

यह मन्त्र आता है।

मास्टरजी जब खरखोदा मिडिल स्कूल में पढ़ते थे। वहाँ एक

ब्राह्मण अध्यापक था। बालक ने अपनी व्यथा की कथा अपने

अध्यापक को सुनाकर उनसे गायत्रीमन्त्र बताने की विनय की।

ब्राह्मण अध्यापक ने कहा कि तुम जाट हो, इसलिए तुज़्हें गायत्री

मन्त्र नहीं सिखाया जा सकता। बहुत आग्रह किया तो अध्यापक

ने कहा कि छह मास हमारे घर में हमारी सेवा करो फिर

गायत्री सिखा दूँगा।

बालक ने प्रसन्नतापूर्वक यह शर्त मान ली। छह मास जी

भरकर पण्डितजी की सेवा की। जब छह मास बीत गये तो अमरसिंह

ने गायत्री सिखाने के लिए पण्डितजी से प्रार्थना की। पण्डितजी का

कठोर हृदय अभी भी न पिघला। कुछ समय पश्चात् फिर अनुनयविनय

की। पण्डितजी की धर्मपत्नी ने भी बालक का पक्ष लिया तो

पण्डितजी ने कहा अच्छा पाँच रुपये दक्षिणा दो फिर सिखाएँगे।

बालक निर्धन था। उस युग में पाँच रुपये का मूल्य भी आज

के एक सहस्र से अधिक ही होगा। बालक कुछ झूठ बोलकर कुछ

रूठकर लड़-झगड़कर घर से पाँच रुपये ले-आया। रुपये लेकर

अगले दिन पण्डितजी ने गायत्री की दीक्षा दी।

उनका ‘गायत्रीमन्त्र’ इस प्रकार था-

‘राम कृष्ण बलदेव दामोदर श्रीमाधव मधुसूदरना।

काली-मर्दन कंस-निकन्दन देवकी-नन्दन तव शरना।

ऐते नाम जपे निज मूला जन्म-जन्म के दुःख हरना।’

बहुत समय पश्चात् आर्यपण्डित श्री शज़्भूदज़जी तथा पण्डित

बालमुकन्दजी रोहणा ग्राम में प्रचारार्थ आये तो आपने घोषणा की

कि यदि कोई ब्राह्मण गायत्री सुनाये तो एक रुपया पुरस्कार देंगे,

बनिए को दो, जाट को तीन और अन्य कोई सुनाए तो चार रुपये

देंगे। बालक अमरसिंह उठकर बोला गायत्री तो आती है, परन्तु गुरु

की आज्ञा है किसी को सुनानी नहीं। पण्डित शज़्भूदज़जी ने कहा

सुनादे, जो पाप होगा मुझे ही होगा। बालक ने अपनी ‘गायत्री’ सुना

दी।

बालक को आर्योपदेशक ने चार रुपये दिये और कुछ नहीं

कहा। बालक ने घर जाकर सारी कहानी सुना दी। अमरसिंहजी की

माता ने पण्डितों को भोजन का निमन्त्रण भेजा जो स्वीकार हुआ।

भोजन के पश्चात् चार रुपये में एक और मिलाकर उसने पाँच रुपये

पण्डितों को यह कहकर भेंट किये कि हम जाट हैं। ब्राह्मणों का

दिया नहीं लिया करते। तब आर्यप्रचारकों ने बालक अमरसिंह को

बताया कि जो तू रटे हुए है, वह गायत्री नहीं, हिन्दी का एक दोहा

है। इस मनगढ़न्त गायत्री से अमरसिंह का पिण्ड छूटा। प्रभु की

पावन वाणी का बोध हुआ। सच्चे गायत्रीमन्त्र का अमरसिंहजी ने

जाप आरज़्भ किया। अविद्या का जाल तार-तार हुआ। ऋषि दयानन्द

की कृपा से एक जाट बालक को आगे चलकर वैदिक धर्म का एक

प्रचारक बनने का गौरव प्राप्त हुआ। केरल में भी एक ऐसी घटना

घटी। नरेन्द्रभूषण की पत्नी विवाह होने तक एक ब्राह्मण द्वारा रटाये

जाली गायत्रीमन्त्र का वर्षों पाठ करती रही

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