अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द : सत्येन्द्र सिंह आर्य

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पंजाब प्रान्त के  जालन्धर जिले में तलवन ग्राम में एक प्रतिष्ठित परिवार में लाला नानकचन्द्र जी के गृह में विक्रमी सवत् 1913 में फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन जिस बालक का जन्म हुआ, उसका नाम पण्डित जी ने बृहस्पति रखकर भी प्रसिद्ध नाम मुंशीराम रख दिया। संन्यास ग्रहण करने के समय तक वे इसी नाम से वियात रहे। पिता जी पुलिस में इस्पेक्टर के पद पर राजकीय सेवा में थे। अतः जल्दी-जल्दी होने वाले स्थानान्तरण के कारण बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान पड़ना स्वाााविक था। परन्तु एक लाा भी हुआ। जिन दिनों श्री नानकचन्द्र जी बरेली में पद स्थापित थे, उन दिनों अंग्रेजी भाषा के व्यामोह में फंसे और नास्तिकता के भँवर में गोते लगाते मुंशीराम को स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के दर्शन करने का, उनके वेदोपदेश सुनने का, उनसे मिलकर अपनी शंकाओं का समाधान करने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी द्वारा प्रतिपादित वैदिक विचारधारा का मुंशीराम जी के जीवन पर प्रााव पड़ने में यद्यपि वर्षों का समय लगा, परन्तु अन्त में ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि वे ऋषि-मिशन के दीवाने हो गए। एक-एक करके इतने कार्य किये कि उनका सही मूल्यांकन कोई ऋषि-भक्त, तपस्वी, वैदिक विद्वान् ही कर सकता है।

जालन्धर में कन्या पाठशाला खोली जिसका स्थानीय लोगों ने घोर विरोध किया। उस युग में सब स्त्री-शिक्षा के शत्रु थे। पाठशाला चार लड़कियों से आरभ हुई, दो बेटियाँ इनकी स्वयं की थी और दो इनके साले की थीं। वही संस्था आज स्नातकोत्तर कन्या विद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित है जिसमें हजारों कन्याएँ शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। हरिद्वार के निकट काँगड़ी ग्राम में गुरुकुल की स्थापना की। अपने दोनों पुत्रों हरिशचन्द्र एवं इन्द्र को उसी में प्रविष्ट किया। वह संस्था भी आज एक विश्वविद्यालय के रूप में विद्यमान है। इस संस्था से आर्यसमाज को बड़ी संया में वेद के विद्वान्, उपदेशक, साहित्यकार, पत्रकार एवं समाजसेवी राजनेता प्राप्त हुए। पं. इन्द्र जी विद्यावाचस्पति एक आर्य पुरुष, साहित्यकार, पत्रकार के रूप में इसी संस्था की देन हैं।

वैदिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए मुंशीराम जी ने सद्धर्म प्रचारक पत्र निकाला। पहले उर्दु में और बाद में आर्य भाषा में। पत्र इतना लोकप्रिय था कि पाठकों को अगले अंक की सदैव प्रतीक्षा रहती थी। मुद्रण की सुविधा के लिए अपना प्रेस स्थापित किया। देश-दुनिया के समाचारों से आर्य जनता को परिचित कराये रखने का यह बड़ा सशक्त माध्यम था। अपनी पत्रकारिता में कुशलता के बल पर मुंशीराम जी ने उस युग में राष्ट्र की महती सेवा की।

अछूतोद्धार का कार्य उनकी प्राथमिकता में था। राजनैतिक रूप से उस समय कांग्रेस एक पार्टी के रूप में देश की आजादी के लिए कार्य कर रही थी। मुंशीराम जी (और अप्रैल 1917 में संन्यास ग्रहण के पश्चात् स्वामी श्रद्धानन्द जी) उस समय देश के अग्रणी नेताओं में थे उनके जीवन की एक-एक घटना उनकी महानता की साक्ष्य है। वर्ष 1917 ईसवी में अप्रैल मास में उत्सव के समाप्त होने के पश्चात् अगले दिन उन्हें संन्यास लेना था। संन्यास-ग्रहण संस्कार के समय वहाँ हजारों की भीड़ थी। आर्य समाज के बहुत से संन्यासी, पण्डित और अधिकारी साक्षीरूप से उपस्थित थे। संस्कार में सबसे विशेष बात यह हुई कि, मंशीराम जी ने किसी संन्यासी महानुााव को अपना आचार्य न बनाकर परमात्मा को ही आचार्य माना और जो प्रक्रिया आचार्य द्वारा पूरी होनी थी, वह स्वयं ही पूरी कर ली। क्षौर कराकर और भगवावस्त्र पहनकर वे यज्ञ-मण्डप में आए और खड़े होकर उन्होंने निम्नलिखित आशय की घोषणा की-

‘‘मैं सदा सब निश्चय परमात्मा की प्रेरणा से श्रद्धापूर्वक ही करता रहा हॅूँ। मैंने संन्यास भी श्रद्धा की भावना से प्रेरित होकर ही लिया है। इस कारण मैंने श्रद्धानन्द नाम धारण करके संन्यास में प्रवेश किया है। आप सब नर-नारी परमात्मा से प्रार्थना करें कि वे मुझे अपने इस नए व्रत को पूर्णता से निभाने की शक्ति दे।’’

सन् 1919 में बैसाखी के दिन अमृतसर में जलियाँवाला बाग में भीषण हत्याकाण्ड हुआ। उसी वर्ष कुछ माह पश्चात् अमृतसर में ही कांग्रेस का महा-अधिवेशन होना था, परन्तु बैसाखी वाली भयावह घटना लोगों के मन-मस्तिष्क पर छाई हुई थी। निर्भीकता की प्रतिमूृर्ति स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने स्वागताध्यक्ष का कार्य भार ग्रहण करके सारे आयोजन को सहज और सरल बना दिया।

अछूतोद्धार एवं शुद्धि सभा स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज आर्य पुरुष थे और कांग्रेसी भी थे। उस समय कांग्रेस में आर्यों की संया काफी अधिक थी। उन्होंने समाज में अछूत कहे जाने वाले लोगों के लिए विशेष कार्य किया। संस्थागत रूप में इस कार्य को आगे बढ़ाया। जन्मना जाति-प्रथा को यथावत् बनाए रखने वाले हिन्दुओं एवं मठाधीशों का उस समय दबदबा था। अछूत कहे जाने वाले नर-नारियों की बात तो दूर रही, उस समय के हिन्दू मठाधीश, सन्त-महन्त तो मजबूरी में या प्रलोभनवश ईसाइयों -मुसलमानों द्वारा हिन्दू वर्ग से धर्मान्तरित किये गए सवर्ण हिन्दुओं को भी शुद्ध करके पुनः अपने में मिलाना शास्त्र-विरुद्ध और पूर्णतः निषिद्ध मानते थे। हिन्दू (आर्य) जाति एक प्रकार से कच्चे माल की खान बनी हुई थी। सूक्ष्म राजनीतिक सूझबूझ वाले ईसाई मिशनरी और मुल्ला मौलवी इसी खान में से विशेषकर अछूत कहे जाने वाले वर्ग में से हमारे ही भाई-बहनों को बहला-फुसलाकर, प्रलोभन देकर, धोखाधड़ी से ईसाई-मुसलमान बना रहे थे। हिन्दू जाति के विघटन की यह चरम स्थिति थी। ऐसे में दूरदर्शी आर्य नेता एवं इस हिन्दू जाति के परम शुभचिन्तक स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने अछूतोद्धार एवं शुद्धि का कार्य एक आन्दोलन के रूप में किया। शुद्धि के काम से महात्मा गाँधी के चहेते अलीबन्धु बौखला गए और उन्होंने गाँधी जी से स्वामी श्रद्धानन्द जी के शुद्धि-कार्य के विरुद्ध शिकायत की। गाँधी जी द्वारा एतद्विषयक चर्चा किये जाने पर स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कहा कि आप अली बन्धुओं को कहकर इस्लाम द्वारा जारी तबलीग (धर्मान्तरण के लिए इस्लाम मतावलबियों द्वारा निरन्तर चलाई जाने वाली प्रक्रिया) का काम रुकवा दीजिए, मैं शुद्धि का काम बन्द कर दूँगा। भला यह कार्य मुस्लिम तुष्टिकरण के जनक और मसीहा महात्मा गाँधी के बूते का कहाँ था। अतः स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज कांग्रेस से अलग हो गये। शुद्धि के कार्य को करने के मूल्य के रूप में स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज को अपने प्राण आहूत करने पड़े।

विडबना देखिए कि जिस हत्यारे अदुल रसीद ने स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज को गोली मारी और जिसे रंगे हाथों पकड लिया गया उसी के बचाव के लिए महात्मा गाँधी के दायाँ और बाँया हाथ (जैसा कि अली बन्धुओं-मौलाना मोहमद अली, मौलाना शौकत अली को कहा करते थे) ये अली बन्धु न्यायालय में उपस्थित रहा करते थे और गाँधी जी इस बात को जानते थे। मुस्लिम प्रेम के आगे महात्मा गाँधी को सत्य दिखाई नहीं पड़ता था जैसे रतौन्धी (आँखों की एक बीमारी) वाले व्यक्ति को रात्रि में कुछ नहीं दिखाई पड़ता। इस्लाम मतावलबियों की करतूतों का वर्णन करने लगे तो पोथे पर पोथे बनते चले जायेंगे परन्तु उन करतूतों का किनारा नहीं पा सकते। उदाहरण के लिए एक घटना देते हैं।

वाजा हसन निजामीकृत ‘दाइये इस्लाम’- वाजा हसन निजामी अपने समय के मौलवियों, पीरों, सूफियों और मुस्लिम नेताओं में सर्वोच्च स्थान रखते थे। इस्लामी साहित्य और इतिहास के वे बहुत बड़े आलिम माने जाते थे। वह अपना अखबार निकालते थे और अपना रोजनामचा (दैनन्दिनी) भी लिखते थे। देहली की निजामी दरगाह में उनका मुय निवास था। वह सदा यही सोचते रहते थे कि किस प्रकार भारत के हिन्दुओं को इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाए और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उचित-अनुचित की चिन्ता किये बिना वे किसी भी सीमा तक जाने को तैयार थे। जहाँ उन्होंने और अनेक उपाय इस बात के लिए मुसलमानों को जताये थे, वहीं हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित करने का एक बड़ा विषैला और गुप्त उपाय भी निकाला था। सब मुसलमानों में उस उपाय का गुप्त रूप से प्रचार किया गया। जितने धन्धे-पेशे मुसलमान करते थे जैसे नाई, धोबी, लुहार आदि उन्हीं के अनुसार उनको उपाय समझाए गए थे। यहाँ तक कि बाजारू औरतों (वेश्याओं) को भी हिदायत दी गई थी कि वे अपनी सुन्दरता में फँसा कर हिन्दुओं को मुसलमान बनाएँ। इन सब उपायों को एक पुस्तक में लिखा गया था और पुस्तक का नाम था- ‘दाइये इस्लाम’। इस पुस्तक को गुप्त रूप से न केवल भारत भर के मुसलमानों में पहुँचाया गया, अपितु भारत से बाहर के इस्लामी देशों में भी भेजा गया था।

हिन्दुओं के विरुद्ध किये जा रहे इस भीषण षड्यन्त्र की पौराणिकों के किसी सन्त-महन्त, मठाधीश, शंकराचार्य अथवा नेता को भनक तक न लगी। स्वामी श्रद्धानन्द जी तब मुय रूप से दिल्ली में ही रहा करते थे। नया बाजार के एक मकान के ऊपरी भाग में निवास करते थे। स्वामी जी महाराज बड़े ही विलक्षण आर्य नेता थे। वह आर्य समाज के साथ-साथ समस्त हिन्दुओं के बारे में खबरगीरी रखते थे। वह यह पूरा ध्यान रखते थे कि बेखबर सोती हिन्दू जाति की सब तरफ से रक्षा की जाए। इस बात को जानने के लिए चाणक्य मुनि द्वारा वर्णित उपायों को काम में लाते थे। उसी आधार पर उन्हें अत्यन्त सूक्ष्म और अतीव गुप्त रूप और अज्ञात द्वार से वाजा हसन निजामी द्वारा लिखित और प्रचारित ‘दाइये-इस्लाम’ पुस्तक की सूचना मिली। पुस्तक उर्दु में लिखी गयी, प्रैस में छपी। कातिबों ने काम किया, मशीनों पर छपी, बाइण्डरों ने जिल्दें बान्धी, दुकानों में बिक्री के लिए गयी। न जाने कितने हाथों में पहुँची। प्रैस एक्ट के अनुसार छपी पुस्तकों की प्रतियाँ सरकारी कार्यालय को भेजी जानी चाहिए। इतना सब कुछ होते हुए भी कानोकान किसी गैर-मुसलमान को जरा सी भी भनक सुनाई नहीं पड़ी। सारे भारत में गुप्त खोज करने पर इस पुस्तक की एक भी प्रति न मिल सकी। परन्तु स्वामी जी के हाथ भी बहुत लबे थे। अन्त में बहुत यत्न करने पर एक प्रति ब्रिटिश ईस्ट अफ्रीका में एक सज्जन के हाथ लगी और उस पुस्तक को दिल्ली स्वामी जी के पास पहँुंचा दिया गया। उन्होंने उसको पढ़ा और देखा कि हिन्दुओं को नाश के गहरे गड्ढ़े में गिराये जाने के लिए कैसे षड्यन्त्र किये और कराये जा रहे हैं। स्वामी जी ने उस पुस्तक को फिर से छपवाया और ‘आर्य-बिगुल’, ‘अलार्म’ नाम से उसका खण्डन और आलोचनाएँ भी प्रकाशित हुई। हिन्दुओं को सावधान किया गया। आज के तथाकथित आर्य नेता? तो अपनी सर्व-स्वीकार्यता का ग्राफ ऊँचा करने के लिए मुस्लिम नेताओं और ईसाई पादरियों की चापलूसी में जीवन गुजार देते हैं परन्तु नोबेल पुरस्कार (शान्ति के लिए) प्राप्त करने की उनकी इच्छा अपूर्ण ही रह जाती है। नोबेल पुरस्कार क्या, नई दिल्ली स्थित उप वैटिकन में दशकों तक मत्था टेकने के बाद राज्यसभा की सदस्यता भी नसीब न हुई। ऐसे लोग जाति की क्या सेवा करेंगे।

स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज के बलिदान की पहली कड़ी यह पुस्तक ‘दाइये इस्लाम’ कहीं जा सकती है। आज साधारण जनता और आर्यजनों की तो बात ही क्या है अपितु बड़े-बड़े नेताओं को इस पुस्तक का पता भी नहीं है, उसका पढ़ना तो दूर रहा। इन पंक्तियों के लेखक के पास उस पुस्तक के हिन्दी संस्करण की एक प्रति है जो परोपकारिणी सभा को पुस्तकालय हेतु सौंप दी जाएगी।

प्रतिवर्ष अमर हुतात्मा का बलिदान दिवस मनाया जाता है। धुआँ-धार व्यायान होते हैं। अखबारों में लेख लिखे जाते हैं। उनके अनेक उत्तम गुणों पर प्रकाश डाला जात है परन्तु उस जहरीली पुस्तक दाइये-इस्लाम का मानो किसी को पता ही नहीं। स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने अछूतोद्धार एवं शुद्धि का जो कार्य अपने जीवन में किया उनके बलिदान के बाद उसमें शिथिलता आ गई थी। आर्य समाज के लिए यह हानि की बात रही। स्वामी जी ने देश, जाति, धर्म की अहर्निश सेवा की, ऋषि मिशन के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और 23 दिसबर सन् 1926 को अपने प्राण भी दे दिये। उस नर-नाहर सर्वस्व-त्यागी आर्य पुरुष के प्रति मेरी विनम्र श्रद्धाञ्जलि।

– 751/6, जागृति विहार, मेरठ

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