पन्द्रह-सोलह वर्ष पुरानी बात है। अजमेर में ऋषि-मेले के
अवसर पर मैंने पूज्य स्वामी सर्वानन्दजी से कहा कि आप बहुत
वृद्ध हो गये हैं। गाड़ियों, बसों में बड़ी भीड़ होती है। धक्के-पर-धक्के
पड़ते हैं। कोई चढ़ने-उतरने नहीं देता। आप अकेले यात्रा मत किया
करें।
स्वामीजी महाराज ने कहा-‘‘मैं अकेला यात्रा नहीं करता।
मेरे साथ कोई-न-कोई होता है।’’
मैंने कहा-‘‘मठ से कोई आपके साथ आया? यहाँ तो मठ
का कोई ब्रह्मचारी दीख नहीं रहा।’’
स्वामीजी ने कहा-‘‘मेरे साथ गाड़ी में बहुत लोग थे। मैं
अकेला नहीं था।’’
यह उत्तर पाकर मैं बहुत हँसा। आगे क्या कहता? बसों में,
गाड़ियों में भीड़ तो होती ही है। मेरा भाव तो यही था कि धक्कमपेल
में दुबला-पतला शरीर कहीं गिर गया तो समाज को बड़ा अपयश
मिलेगा। मैं यह घटना देश भर में सुनाता चला आ रहा हूँ।
जब लोग अपनी लीडरी की धौंस जमाने के लिए व मौत के
भय से सरकार से अंगरक्षक मांगते थे। आत्मा की अमरता की
दुहाई देनेवाले जब अंगरक्षकों की छाया में बाहर निकलते थे तब
यह संन्यासी सर्वव्यापक प्रभु को अंगरक्षक मानकर सर्वत्र विचरता
था। इसे उग्रवादियों से भय नहीं लगता था। आतंकवाद के उस
काल में यही एक महात्मा था जो निर्भय होकर विचरण करता
था। स्वामीजी का ईश्वर विश्वास सबके लिए एक आदर्श है।
मृत्युञ्जय हम और किसे कहेंगे? स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज
‘अपने अंग-संग सर्वरक्षक प्रभु पर अटल विश्वास’ की बात अपने
उपदेशों में बहुत कहा करते थे। स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज के
उस कथन को जीवन में उतारनेवाले स्वामी सर्वानन्दजी भी धन्य
थे। प्रभु हमें ऐसी श्रद्धा दें।
लेख व इसमें वर्णित घटना पढ़कर अच्छा लगा। हार्दिक धन्यवाद।