प्रश्न १.–
पितर संज्ञा मृतकों की है या जीवितों की ? यदि जीवितों की है तो मृतक श्राद्ध व्यर्थ होगा। यदि मृतकों की हैं तो – आधत्त पितरो गर्भकुमार पुष्करसृजम”।
| (यजुर्वेद २-३३) “ऊर्ज वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम् ।। स्वधास्थ तर्पयतमे पितृन्’ ।।
(यजुर्वेद २-३४) “आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽग्निष्वात्तः पथिभिर्देवयानैः ।
(यजुर्वेद १८-५८) इत्यादि वेद मंत्रों से पितरों का गर्भाधान करना, अन्नजलं, दृ आदि का सेवन करना, आना-जाना-बोलना आदि क्रियायें करने वाला बताया गया है, जोकि मृतकों में संभव नहीं है।
इससे पितर संज्ञा जीवितों की ही सिद्ध है। अतः मृतकों का श्राद्ध करना अवैदिक कर्म है ।
प्रश्न २.– | जीवात्मा की गति जब निजकर्मानुसार होती है तो मृतक श्राद्ध की क्या आवश्यकता है ?
प्रश्न ३.– | जब जीवात्मा में लिंगभेद नहीं होता है तो शरीर त्यागने के बाद उसे पितर आदि मानना कैसे बनेगा ? उपनिषद में जीवात्मा को
| “नैव स्त्री न पुमानेषु न चैवायं नपुंसकः। / यद् यच्छरीरं आधत्ते तेन तेन स युज्यते ।।
| (श्वेताश्वेतर उपनिषद ५-१०) अर्थात् जीवात्मा स्त्री, पुरुष या नपुंसक भेद वाला नहीं है। वह जिस-जिस शरीर में जाता है, वैसा ही कहलाता है ।
प्रश्न ४.–
शरीर त्याग के पश्चात् जीवात्मा के लौकिक सम्बन्ध पिता-पुत्रादि के नष्ट हो जाते हैं तो उनके पुत्रादि के दिये पदार्थ वे कैसे प्राप्त करते हैं ?
प्रश्न ५.–
जो अविवाहित रहते हुए मर जाते हैं उनके पितर (मरने के बाद पौराणिक कल्पनानुसार उनकी आत्मा के) न बनने से उनकी मोक्ष कैसे होगी ? भीष्म पितामह व शुकदेव जी की क्या गति हुई होगी ?
प्रश्न ६.–
जिनका वंशनाश हो जाता है, क्या वे पितर भूखे ही मरते रहते हैं ? यदि हां तो क्यों ?
प्रश्न ७.– | किन जीवों का पुनर्जन्म होता है किनका नहीं होता है, किनकी मोक्ष हो जाती है इसका पता लगाने का क्या साधन आपके पास है ? और बिना पता लगाये मृतक का श्राद्ध करना निरर्थक क्यों नहीं है ?
प्रश्न ८.–
मरने पर स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, सूक्ष्म शरीर को भूख-प्यास से कोई सम्बन्ध नहीं होता है न उसे भोजनादि का ग्रहण होता है, तब
आपके पितर भोजन कैसे करते है ?
. प्रश्न ९.– | श्राद्ध में जो पदार्थ दिया जाता है; यदि वह पुनर्जन्म प्राप्त जीवों की यानियों के स्वाभाविक भोजन के अनुकूल न हो तो श्राद्ध से क्या लाभ होगा ?
प्रश्न १०.–
यदि एक पुरुष के चार बेटे चार दूरस्थ नगरों में एक ही दिन, एक ही समय उनका श्राद्ध करें तो उनकी आत्मा चारों स्थानों पर श्राद्ध ग्रहण करने व खाने को कैसे जा सकेंगी ? क्योंकि एक देशीय जीव एक समय पर एक ही स्थान पर विद्यमान हो सकता है ?
प्रश्न ११.–
श्राद्ध का अधिकार सभी जातियों को क्यों नहीं है ?
प्रश्न १२.– | जिन जातियों को श्राद्ध का अधिकार नहीं होता है उनके पितर तो भूखे ही मरते होंगे या दूसरों का माल छीनकर खाते होगे ? उस दशा में उनके झगड़े-फिसाद की शान्ति कौन कैसे करता होगा ? मरने के बाद भी जीवों में ऊँच-नीच का भेद कायम रहना आप क्यों मानते हैं ?
प्रश्न १३.– | मरने के बाद लापता जीवात्माओं के पास पण्डित जी श्राद्ध का मालटाल पहुँचा देते हैं इसका प्रमाण क्या है ?
प्रश्न १४.–|
जब लापता शरीर विहीन जीवात्माओं के पास आप माल पहुँचाना मानते हैं तो परदेश गये लोगों के नाम पर भोजनों का थाल भी क्यों नहीं पहुँचाकर
उन्हें भूख-प्यास से तृप्त कर देते हैं ?
प्रश्न १५.– | कौवों और पितरों का श्राद्ध से क्या सम्बन्ध है जो श्राद्धों में कौवों को भोजन कराया जाता है ? क्या वे पितरों के प्रतिनिधि हैं ?
प्रश्न १६.:
वर्षा ऋतु में क्वार में जब नदी-तालाबों में सर्वत्र जल भरा रहता है, आकाश में बादल पानी लिये खड़े रहते हैं तब जलदान पितरों को करने की क्या
आवश्यकता है ? ग्रीष्म की प्रचण्ड गर्मी में ज्येष्ठ-वैसाख में जलदान क्यों नहीं किया जाता है जबकि पानी की सभी का सख्त जरूरत होती है ?
प्रश्न १७.–
वर्ष भर में केवल एक बार खिला करके पितरों को साल भर तक भूखा मारना और अपना पट दिन में तीन बार रोजाना भर पेट भोजन करके भरते रहना अपने बुजुर्ग पितरों के साथ निकृष्टतम मजाक नहीं है ?
क्या पितरों का हाजमा इतना खराब होता है कि एक बार वाकर साल भर तक उसे हजम भी नहीं कर पाते हैं ?
प्रश्न १८.– | महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय ३२ में लिखा है कि – ‘‘चिकित्सक, मन्दिर का. पुजारी, दूध बेचने वाला, गायत्री जाप व संध्या करने वाला, वेतन लेकर पढ़ाने वाला, इन ब्राह्मणों को यज्ञदान व श्राद्ध में नहीं बुलाना चाहिये । यदि इनको बुलाया जावेगा तो दान का फल नष्ट हो जावेगा तथा यज्ञ-दान व श्राद्ध करने वाले के पितर घोर नरक में जाते हैं।
प्रश्न यह है कि क्या उपरोक्त कर्म करना, पुराण पढ़ना आदि महापाप
कर्म है जो वैसा करने वालों को महापापी माना है ? इनको श्राद्धादि में बुन्नाने का पाप तो श्राद्ध कर्ता द्वारा किया जाता है तो उसके कुकर्म का फल स्वयं विना किये पितरों को क्यों भोगना पड़ता है ?
प्रश्न १९.–
जबकि महाभारत वन पर्व अध्याय १३ श्लोक ७७ (गीता प्रेस) में स्पष्ट लिखा है –
आयुषोऽन्ते प्रहादेव क्षीण प्रायः कलेवरम् ।
सम्भवत्येव युगपदयोनो नास्त्यन्तराभवः’ ।। अर्थात् – एक शरीर त्यागकर दूसरे शरीर को जीव तत्क्षण ग्रहण कर लेता है । वह विना स्थूल शरीर के आश्रय बिना एक क्षण भी नहीं रहता है। गीता २-२२ ने भी जीव के तुरन्त पुनर्जन्म की पुष्टि की है। तब पुनर्जन्म प्राप्त जीवों के लिए श्राद्ध करना मिथ्या कर्म क्यों नहीं है ? क्योंकि प्रत्यक्ष में जन्मे हुए वालको व वड़ों को किसी को भी उनके पूर्व जन्म के स्थान में दिया हुआ श्राद्ध पदार्थ नहीं पहुँचता है ।
प्रश्न २०.–
बतादें कि पितर से तात्पर्य आपका जीवात्मा से हैं या शरीर से है। अथवा जीव संयुक्त शरीर से है ? यदि जीवात्मा से है तो मरने के बाद रिश्ता ही समाप्त हो जाता है । यदि शरीर से है तो वह भस्म होकर समाप्त हो जाता है । यदि जीव संयुक्त शरीर से है तो पितर जीवित पुरुष हुए न कि मृतक ! तब श्राद्ध मुर्दो के नाम पर गलत होगा ।
प्रश्न २१.–
भविष्य पुराण ब्राह्म पर्व अध्याय १८४ श्लोक ५६ में लिखा है
| ‘‘मृतान्न मधु माँसं च यस्तु भन्जीथ ब्राह्मणः ।।
स त्रीण्यहान्युपवसेदेका – हं चोदके वसेत् ।। अर्थात् – जो ब्राह्मण मुर्दे के निमित्त (श्राद्ध का) अन्न, शराब व मांस का सेवन करे वह तीन दिन उपवास करे और एक दिन जल में बैठा रहे तब शुद्ध होगा। इससे स्पष्ट है कि श्राद्ध भोजन किसी भी ब्राह्मण को नहीं करना चाहिए । तब क्या पौराणिक ब्राह्मण श्राद्ध खाकर उक्त प्रकार से प्रायश्चित करते हैं ?
‘‘लाजपतराय अग्रवाल” नोट – | श्री आचार्य डा० श्रीराम आर्य जी द्वारा रचित समस्त खण्डन मन्डनात्मक