सस्कृति की नींव के पत्थर
– मधुर गंज मुरादाबादी
गूँजता अब तक समय के वाद्य पर,
आस्था का इन्द्रधनुषी स्वर।
मृत्यु की नीर व परिधि में खो गये व्यक्तित्व सबके,
किन्तु उनके कर्म-सुमनों से महकती हैं दिशाएँ।
पाँच तत्वों से बनी यह देह मिलती फिर उन्हीं में,
शेष रह जातीं जगत में सद्गुणों की ही कथाएँ।।
प्रश्न अगली पीढ़ियों के कर रहीं हल,
देर ही सब के सफल उत्तर।
ये सुखों के साज सारे नष्ट हो जाते निमिष में,
काल तो जैसे कुटी वैसे महल को भी मिटाता।
आज इसको कल उसे मिटना सभी को एक दिन है,
नाश ही निर्माण की भी भूमिका नूतन रचाता।
धूल में मिलती महल की रूपरेखा,
महल बनते आज के खँडहर।
दुःख-सुख,जीवन-मरण के द्वन्द से ऊपर उठे जो,
कर्मरत रहते, मगर करते न फल की याचनाएँ।
वर्ण-भाषा-क्षेत्र के हर भेद से रहते परे जो,
विश्व उनकी सूक्तियों को मानता निर्मल ऋचाएँ।।
लाख बदलें युग मगर हिलते नहीं ये,
संस्कृति की नींव के पत्थर।
– गंजमुरादाबाद, उन्नाव, उ.प्र.