ओ३म्
प्रतिदिन प्रातः व सायं सूर्योदय व सूर्यास्त होता हैं। यह किसके ज्ञान व शक्ति से होता है? उसे जानकर उसका ध्यान करना सभी प्राणियों मुख्यतः मनुष्यों का धर्म है। यह मनुष्य का धर्म क्यों है, इसलिए है कि सूर्याेदय व सूर्यास्त करने वाली सत्ता से सभी प्राणियों को लाभ पहुंच रहा है। जो हम सबको लाभ पहुंचा रहा है उसके प्रति कृतज्ञ होना निर्विवाद रूप से कर्तव्य वा धर्म है। यदि सूर्योदय व सूर्यास्त होना बन्द हो जाये तो हमारी क्या दशा व स्थिति होगी, इस पर हमें विचार करना चाहिये। ऐसा होगा नहीं, परन्तु यदि सूर्योदय होना बन्द हो जाये तो हमारा जीवन दूभर हो जायेगा। एक स्थान पर यदि दिन है तो वहां दिन ही रहेगा और रात्रि व सायं का समय है तो वहां हमेशा अर्थात् प्रलय काल तक वैसा ही रहेगा जिससे मनुष्यों का जीवन किंचित आगे चल नहीं सकता। वैज्ञानिक दृष्टि से ऐसा होने पर संसार की प्रलय हो जायेगी और सब कुछ नष्ट हो जायेगा। यह तो हमने एक ही दृष्टि से विचार किया परन्तु यदि हम सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर वनस्पति व प्राणी जगत की उत्पत्ति तक के, सृष्टि के सभी अपौरूषेय कार्यों पर विचार करें तो हमें इस सृष्टि को बनाने, चलाने, वनस्पति व प्राणी जगत को उत्पन्न करने, सृष्टि की आदि में वेद ज्ञान देने, समय पर ऋतु परिवर्तन करने, सृष्टि में मनुष्यों व अन्य प्राणियों के नाना प्रकार के सुख वा भोग के पदार्थ बनाकर बिना किसी मूल्य के हमें देने के लिए हमें स्रष्टा ईश्वर का ऋणी तो होना ही है। इस ऋण को चुकाने के लिए हमारे पास अपनी कोई वस्तु नहीं है जिसे ईश्वर को देकर हम उऋण हो सकते हों। इसके लिए तो बस हमें ईश्वर की प्रतिदिन प्रातः व सायं स्तुति, प्रार्थना व उपासना ही करनी है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की सत्य व लाभकारी विधि चार वेद व वैदिक साहित्य में ही मिलती है जिसके आधार पर महर्षि दयानन्द ने ईश्वर उपासना के लिए ‘‘सन्ध्या पद्धति” का निर्माण कर हमें प्रदान की है। यदि हम इस विधि से ईश्वर का ध्यान न कर अन्य प्रचलित पद्धतियों को अपनाते हैं, तो हमारा मानना है कि इससे हमें वह लाभ नहीं होगा जो कि वैदिक सन्ध्या पद्धति से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना उपासना करने से होता है। अतः अन्य पद्धतियां हमारे लिए लाभकारी कम हानिकारक अधिक सिद्ध होंगी।
सन्ध्या क्या है? यह ईश्वर के स्वरूप का चिन्तन करते हुए उसके द्वारा हमारे निमित्त किये गये सभी उपकारों को स्मरण करना और उसकी स्तुति अर्थात् उसके सत्य गुणों का वर्णन करते हुए उससे ज्ञान, सद्बुद्धि, सद्गुणों, स्वास्थ्य, बल, ऐश्वर्य आदि की प्रार्थना करना और साथ हि सभी उपकारों के लिए उसका धन्यवाद करना है। यह सन्ध्या व ईश्वर का सम्यक् ध्यान सूर्यादय से पूर्व व सायं सूर्यास्त व उसके बाद लगभग 1 घंटा व अधिक करने का विधान है। इसके लिए सभी दिशा निर्देश महर्षि दयानन्द ने ‘पंचमहायज्ञ विधि’ पुस्तक में किये हैं। सन्ध्या में ईश्वर का ध्यान करने से मनुष्य की आत्मा व उसके स्वभाव के दोष दूर होकर ईश्वर के समान गुण, कर्म व स्वभाव सुधरते व बनते हैं। ईश्वर सकल ऐश्वर्य सम्पन्न है, अतः सन्ध्या करने से जीवात्मा वा मनुष्य भी अपनी अपनी पात्रता के अनुसार ईश्वर द्वारा ऐश्वर्यसम्पन्न किया जाता है। अतः ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिीए सभी मनुष्यों को प्रतिदिन सन्ध्या अवश्य ही करनी चाहिये। यदि सन्ध्या नहीं करेंगे तो हम कृतघ्न ठहरेंगे और यह कृतघ्नता महापातक वा महापाप होने से किसी भी अवस्था में मननशील व बुद्धिजीवी मनुष्य के लिए करने योग्य नहीं है। आप कल्पना कर सकते हैं कि यदि ईश्वर एक क्षण भी अपने कर्तव्य कर्मों में किंचित असावधानी व व्यवधान पैदा कर दे, तो सारे संसार में प्रलय की स्थिति आ जायेगी। ऐसी अवस्था में उस अपने प्रियतम ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्य ‘‘सन्ध्या” का आचरण न करना घोर अवज्ञा, कृतघ्नता और दण्डनीय कार्य हो जाता है। इससे सभी को बचना चाहिये।
सन्ध्या के लिए यदि हमें किसी महापुरुष का उदाहरण लेना हो तो हम कौशल्या-दशरथ नन्दन मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, देवकी-वसुदेव नन्दन योगेश्वर श्री कृष्ण व कर्षनजी तिवारी के पुत्र महर्षि दयानन्द सरस्वती को ले सकते हैं। यह तीनों ईश्वर भक्त व उपासक थे। इनका जीवन पूर्णतया ईश्वरीय ज्ञान वेद की पालना में ही व्यतीत हुआ है। आज तक भी इनका यश है जबकि सृष्टि में विगत समय में अगणित मनुष्यों का जन्म व मृत्यु हो चुका है जिनका नाम किसी को स्मरण नहीं। हमें लगता है कि विस्मृत महापुरूषों के जीवनों के अतिरिक्त यह तीनों ही महापुरूष मानवता के सच्चे आदर्श व मुक्तिगामी महापुरूष थे। यदि हम इनका अनुकरण करेंगे तो हमारा जीवन भी इनके अनुरूप ही यशस्वी व सफल होगा अन्यथा हम भी एक सामान्य व साधारण मनुष्य की तरह कालकवलित होकर विस्मृत हो जायेंगे। इन महापुरूषों का अनुकरण करने के लिए हमें वेद व योगदर्शन सहित समस्त वैदिक साहित्य, बाल्मिकी रामायण, महाभारत, गीता, महर्षि दयानन्द जी के पं. लेखराम, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द रचित जीवन चरित्र व सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि उनके ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इस अध्ययन से मनुष्य ईश्वर व जीवात्मा का ज्ञान प्राप्त कर अभ्युदय व निःश्रेयस प्राप्त कराने वाली जीवन शैली को प्राप्त कर, निःशंक एवं निभ्र्रान्त होकर, मनुष्य जीवन को सफल कर सकता है।
जिस परिवार में वैदिक पद्धति से नियमित सन्ध्या होगी वह परिवार आजकल के प्रदूषित सामाजिक वातवारण में भी सच्चा आस्तिक परिवार होगा और उसमें अन्यों की तुलना में सुख, शान्ति व कल्याण की स्थिति अधिक अच्छी होगी। माता-पिता व वृद्ध जन अपने छोटो को सुशिक्षित करने के लिए प्रयत्नरत रहेंगे और इस प्रकार से निर्मित संस्कारित सन्तानें भी माता-पिता व परिवार के वृद्धों के प्रति अपने कर्तव्यों को जानकर उनकी सेवा श्रुशुषा करेंगीं। आजकल के समाज की भांति माता-पिता व सन्तानों के विचारों में जीवन शैली के प्रति मत-भिन्नता व बिखराव नहीं होगा। सन्ध्या के अन्त में उपासक ध्याता ईश्वर को समर्पण करते हुए कहता है कि ‘हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः।’ अर्थात् ‘हे परमेश्वर दयानिधे ! आपकी कृपा से जप और उपासना आदि कर्मों को करके हम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि को शीघ्र प्राप्त होवें।’ सन्ध्या करने से होने वाले अनेक लाभों में से एक लाभ आत्मा को ईश्वर का साक्षात्कार होना है। महर्षि दयानन्द ने स्वानुभूत विवरण देते हुए बताया है कि जब जीवात्मा शुद्ध (अविद्या, दुर्गुण व दुव्यस्नों से मुक्त) होकर परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है, उस को उसी समय दोनों, ईश्वर व आत्मा, प्रत्यक्ष होते है। सन्ध्या से हमारा जीवन व आचरण श्रेष्ठ बनेगा, हम आर्थिक रूप से सुखी व समृद्ध होंगे और इससे हम अपने सभी सत्य स्वप्नों, कामनाओं व इच्छाओं को पूर्ण कर सकेंगे, साथ ही मृत्यु के बाद बार-बार जन्म व मृत्यु के बन्धन से भी छूट जायेंगे।
वैदिक धर्म में मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य ‘मोक्ष’ की प्राप्ति है। जीवात्मा के इस मोक्ष की किसी भी मत में तार्किक चर्चा नहीं है। यह केवल वैदिक व आर्य धर्म में ही है जिसे तर्क व युक्तियों से महर्षि दयानन्द सहित उनके पूर्ववर्ती दर्शनकारों ने सिद्ध किया है। वेदों में भी इसकी चर्चा है। मोक्ष का ही अन्य नाम ‘‘अमृत” है। अमृत का अर्थ है मृत्यु को प्राप्त न होने वाला वा मृत्यु से छूट जाने वाला। वैदिक धर्म व जीवन पद्धति पर चलकर ही मनुष्य को अमृत व मोक्ष की प्राप्ति होती है जिससे वह सदा-सदा के लिए जन्म-मरण रूपी दुःखों व कर्मों के बन्धनों से छूट जाता है। आईये, वैदिक धर्म की शरण लें और ईश्वर की सन्ध्या सहित अन्य उपादेय यज्ञ आदि अनुष्ठानों को करके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कर उसे सिद्ध करें।
–मनमोहन कुमार आर्य
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