“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 7″

चौथे, पांचवे, छठे व सोलहवे अध्याय का एकमुश्त जवाब

कोई क्या खाए, क्या ना खाए ये व्यक्ति की अपनी स्वतंत्रता है, मगर यहाँ ध्यान देने वाली बात है की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वो जो खाए उससे समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। क्योंकि एक कहावत है “जैसा खाए अन्न वैसा होए मन” और ये कोई लोकोक्ति नहीं एक यथार्थ सत्य है। यदि मांसाहार बहुत उत्तम वस्तु होती, जो समाज में सदैव ही प्रचलित रही होती, खासकर भारतीय परिवेश में तो इस पर कभी भी शंका और सवाल नहीं उठ सकते थे, मान लीजिये आप यज्ञ और हवन करते हैं, तो ये भारतीय संस्कृति का हिस्सा रहा है अतः इस विषय पर कभी कोई आक्षेप नहीं उठा, महिलाओ को आदर देना भारतीय संस्कृति का हिस्सा रहा है, इसपर कभी किसी ने आक्षेप नहीं किया, ऐसे अनेको क्रियाकलाप हैं, ऐसी अनेको सामाजिक गतिविधिया हैं जिनपर कभी किसी ने आक्षेप नहीं किया क्योंकि ये सनातन संस्कृति का अहम हिस्सा रही हैं। अब बात आती है मांसाहार की, यदि मांसाहार सनातन संस्कृति का हिस्सा रहा है तो इसपर आक्षेप क्यों लगाये जाते हैं ?

आक्षेप उन्ही संदिग्ध और विवादस्पद विषयो पर लगते हैं जो गलत, भ्रामक और निंदनीय होती हैं, जैसे सती प्रथा, भ्रूण हत्या, चाइल्ड मैरिज, गे रिलेशन, होमोसेक्सुअल्टी आदि। अब वो लोग जो सती प्रथा, भ्रूण हत्या, चाइल्ड मैरिज, गे रिलेशन, होमोसेक्सुँलिटी को प्रामाणिक और तार्किक मानते हैं, इनके लिए वो प्रमाण भी पेश करते हैं तो क्या इन्हे भी समाज में मान्यता दे दी जाए ? यदि किसी देश विशेष ने इन कुरीतियों को अपना रखा हो, मान्यता दे दी हो, तो क्या इस आधार पर ऐसी बुराइयो को समाज में अपना लिया जाए ? क्या ऐसी कुरीतियों पर तर्क, और प्रमाण देने पर भरोसा करा जा सकता है ?

नहीं, कदापि नहीं, क्योंकि जो लोग ऐसी कुरीतियों को मान्यता दे अथवा तर्क से सिद्ध करने की कोशिश करे उनको सभ्य समाज में कुतर्की और असभ्य ही कहा जाएगा, क्योंकि वो उसे सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं जो सिद्ध हो ही नहीं सकता, यदि सिद्ध हो सकता होता तो आज तक उसपर आक्षेप न लग रहे होते। यदि ये सिद्धांत और रीति सही होती तो आज समाज में मान्य होती, अमान्य नहीं करते। ऐसे ही कुछ तर्क और प्रमाण देकर कुछ मांसाहारी भ्रष्ट लोग मांस को भोज्य और गुणवत्ता वाला बता कर इसकी भूरि भूरि प्रशंसा करके लोगो को बहकाकर अपनी बात को सिद्ध करना चाहते हैं आइये एक नजर, धार्मिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और प्राकृतिक दृष्टिकोण से डाल कर सोच विचार करते हैं :

धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण : धर्म ये वो विषयवस्तु है जिसको ठीक ठीक विदित हो जाए तो वो जन्म मरण के चक्कर से छूटकर मोक्ष प्राप्त कर ले। मगर धर्म वो गूढ़ तत्त्व है जिसे समझना सबसे आसान कार्य भी है और सबसे मुश्किल भी, आसान उनके लिए जो मनुष्य हैं और मुश्किल उनके लिए जो मनुष्य रूप में भी पशु हैं, देखिये :

ईश्वर ने मनुष्य को सत्य ग्रहण करने की बुद्धि दी है, क्योंकि पशुओ में वो स्वाभाविक ज्ञान दिया है जो उनके लिए जरुरी है, लेकिन मनुष्यो में विवेक और स्वाध्याय का वो गुण दिया है जिससे मनुष्य मननशील होकर ज्ञान और विज्ञानं द्वारा नित नए आयाम प्राप्त करके समस्त मनुष्य और पशु पक्षी जाति का कल्याण कर सकता है, ये गुण पशुओ में नहीं देखे जाते इसीलिए मनुष्य पशुओ से श्रेष्ठ और उत्तम जाति है। लेकिन यही श्रेष्ठता और उत्तमता मनुष्य को पशु बनने की और भी प्रेरणा दे देती है, क्योंकि मनुष्य जब विवेक और स्वाध्याय को छोड़ कर मननशील नहीं रहता तब अपने दुर्व्यसन और उदर पूर्ति हेतु पापकर्म की और खींचा चला जाता है, तब ऐसी स्थति में अपनी वासनाओ और दुर्व्यसनों के चलते अपने पापकर्मों को सही सिद्ध करने हेतु तर्क और प्रमाण जुटाने लगता है। यही आकर मनुष्य, निकृष्ट और पशु योनि से भी निम्न स्तर पर चला जाता है, शायद इसीलिए धर्म शास्त्रो में स्थावर योनि का विधान है, क्योंकि स्थावर योनि ऐसी भोग्य योनि है जिसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, न उसे दर्द होता, न सोचने विचरने की क्षमता रहती, इसीकारण पेड़ पौधों में जीव होते हुए भी दर्द और सोचने विचरने की क्षमता नहीं पायी जाती, और जो मनुष्य मांसाहार करते हैं, अपने इस कुकृत्य को अपनी कपटी, थोति तर्क आधारित बातो से सही सिद्ध करने की कोशिश करते हैं वो मानो मनुष्य होते हुए भी स्थावर हैं, क्योंकि उनमे मननशीलता का गुण नहीं, वे कदापि मनुष्यता के लक्षण नहीं रखते अतः उन्हें मनुष्य कहलवाने का कोई अधिकार नहीं।

धार्मिक आधार और सैद्धांतिक तौर पर भोजन वो होना चाहिए जिससे न तो किसी का दोष लगा हो – ना पाप करके चोरी करके लाये हो – न ही हत्या अथवा हिंसा करके।

हिंसा कहते हैं – जो वैर भाव से किया गया कृत्य हो।” ऐसे में हमारे मस्तिष्क में सवाल उठता है आखिर फिर मनुष्य व पशु की भोजन व्यवस्था ईश्वर ने क्या दी है ? हमें क्या खाना चाहिए ?

ईश्वर की न्याय व्यवस्था में एक नियम है, ईश्वर ने मनुष्य और पशु बनाये तो उनकी खाद्य सामग्री भी अवश्य ही बनाई होगी। अतः हम आगे पढ़ेंगे की मनुष्य और पशु की खाद्य सामग्री क्या है। आइये देखिये

मांसाहारी पशु और शाकाहारी पशु तथा मनुष्य, इन सभी का निर्माण ईश्वरीय न्यायवेवस्था से होता है, जो पशु मर जाते हैं उनका मांस सड़कर प्रकृति में बिगाड़ पैदा करता है इसलिए वो बिगड़ पैदा न हो प्रकृति दूषित न हो इसलिए मांसाहारी पशुओ का सृजन होता है जैसे गिद्ध, चील, कौव्वा आदि।

कुछ पशु अपना पेट भरने हेतु हिंसक गतिविधि करते हु शिकार करते हैं यथा शेर, चीता, जंगली कुत्ता, लोमड़ी आदि इनमे प्रमुख हैं, अधिकतर मांसाहारी मनुष्य इन्ही पशुओ का दृष्टान्त देते हुए कहते हैं देखिये यदि मांसाहार ठीक नहीं होता तो ईश्वर मांसाहारी पशु नहीं बनाता, लेकिन इस कुतर्क के पीछे का ज्ञान कभी नहीं समझते, ईश्वर ने माँसाहारी पशुओ को हिंसक ही बनाया है और वो हिंसा करके ही अपना भोजन प्राप्त करते हैं, ये सर्वमान्य तथ्य है, तो क्या मांसाहारी मनुष्य ये बात स्वीकार करते हैं की वे भी हिंसक, जंगली और हिंसा करके ही उदार पूर्ति करते हैं ? ये सवाल पूछते ही वो कहते हैं नहीं हम तो अहिंसक है, मनुष्य हैं। भाई वाह ! कार्य करते हो जंगली और पशुता वाले, कहते हो खुद को मनुष्य ? आइये आपको वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझाते हैं, देखिये :

वैज्ञानिक दृष्टिकोण : सात्विक भोजन से न्यूरो इनहीबीटरी ट्रान्समीटर्स उत्पन्न होते हैं, जिनसे मस्तिष्क शांत रहता है। वहीं असात्विक (मॉस) भोजन से मस्तिष्क में उत्तेजक तंत्रिका संचारक (न्यूरो इक्साइटेटरी ट्रान्समीटर्स) उत्पन्न होते हैं जिससे मस्तिष्क अशांत रहता है। गाय, बकरी, भेड़ आदि शाकाहारी जन्तुओं में सिरोटोगिन की अधिकता के कारण ही उनमें शांत प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं जबकि माँसाहारी जन्तुओं जैसे शेर आदि में सिरोटोनिन के अभाव से उनमें अधिक उत्तेजना, अशांति एवं चंचलता पायी जाती है। इसी परिप्रेक्ष्य में सन् 1993 में जर्नल ऑफ क्रिमिनल जस्टिक एज्युकेशन में फ्लोरिडा स्टेट के अपराध विज्ञानी सी.रे.जैफरी का वक्तव्य भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि वह चाहे कोई भी हो, मस्तिष्क में सिरोटोनिन का स्तर कम होते ही व्यक्ति आक्रामक और क्रूर हो जाता है। शिकागो ट्रिब्यून में प्रकाशित अग्रलेख भी बताता है कि मस्तिष्क में सिरोटोनिन की मात्रा में गिरावट आते ही हिंसक प्रवृत्ति में उफान आता है।

यहाँ यह बताना उचित होगा कि मॉस से जिनमें ट्रिप्टोपेन नामक अमीनों अम्ल नहीं होता है, मस्तिष्क में सिरोटोनिन की कमी हो जाती है एवं उत्तेजक तंत्रिका संचारकों की वृद्धि हो जाती है। इसी से योरोप के विभिन्न उन्नत देशों में नींद ना आने का एक प्रमुख कारण वहाँ के लोगों को माँसाहारी होना भी हैं उपरोक्त सिरोटोनिन एवं अन्य तंत्रिका संचारकों की क्रिया विधि पर काम करने से श्री पॉल ग्रीन गार्ड को सन् 2000 का नोबल पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है।

अतः विज्ञानं भी मानता है की मांस भक्षण से मनुष्य में क्रूरता, हिंसा और अपराध करने की प्रवृति जागती है, इसीलिए इस मांस भोजन को तामसी भोजन कहा जाता है। यहाँ ध्यान देने वाली बात है की पशुओ में तो मननशील स्वाभाव नहीं होता इसलिए पशुता निभाते हुए, अपने कर्मफल भोग करके हिंसा द्वारा मांसाहारी होते हैं, लेकिन मनुष्य जिसका कर्तव्य ही मनुष्यता है क्या वो ऐसी हिंसा करके अपना भोजन करे तो उसे मनुष्य कहा जा सकता है ?

मांसाहारी मनुष्यो का दूसरा कुतर्क होता है पेड़ पौधों में जीव होता है, जिससे उन्हें भी दर्द होता है, यहाँ तक की पशु तो चीखचिल्ला कर अपना दर्द प्रकट करते हुए जिबह (मरते) हैं। लेकिन बेचारे पेड़ पौधे तो ऐसा भी नहीं कर सकते, उनकी चीख तो सुनाई भी नहीं देती, ये बड़ा अपराध है।

अब देखिये कुतर्क, जिन पशुओ की चीख, दर्द, चिल्लाहट प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे उनपर दया का रत्ती भर प्रभाव नहीं, लेकिन जो पेड़ पौधों की चीख तक सुनाई नहीं देती उनपर दया और रहम की पट्टी बंधने को तैयार हैं। खैर इनके कुतर्क का जवाब देना हमारी जिम्मेदारी है, देखिये एक भारतीय वैज्ञानिक हुए थे जगदीश बासु जी, जिन्होंने ऐसा कोई तथाकथित विज्ञानिक यंत्र ईजाद किया था जिससे पेड़ पौधों की चीख सुनाई देती थी, लेकिन हम आधुनिक विज्ञानं में जी रहे हैं भाइयो, आधुनिक विज्ञानं के अनुसार, न तो पेड़ पौधों को दर्द होता है, न ही उन्हें कुछ महसूस होता है क्योंकि दर्द की अनुभूति और कुछ भी महसूस करने हेतु बुद्धि और नर्वस सिस्टम होना जरुरी है मगर पेड़ पौधों में ये नहीं पाया जाते (Bhalla, US; Iyengar, R (1999). “Emergent properties of networks of biological signaling pathways”. Science 283 (5400): 381–7)

ऐसी अनेको रिसर्च से आधुनिक विज्ञानं का पिटारा भरा हुआ है जो सिद्ध करता है की पेड़ पौधों में बुद्धि और नर्वस सिस्टम नहीं होता इसलिए उन्हें दर्द की अनुभूति नहीं हो सकती। लेकिन यहाँ ध्यान देने वाली बात है की पेड़ पौधे सजीव होते हैं, जैसे आज मांसाहारी स्थावर हो चुके हैं उन्हें पशुओ का दर्द और पीड़ा आदि कुछ नहीं सूझ रहा ऐसे ही वो पेड़ पौधों में भी ईश्वरीय व्यवस्था से यही गुण दे दिए जाते हैं अतः मांसाहारी मनुष्य अगले जन्म में स्थावर या फिर हिंसक पशु उत्पन्न होंगे इसमें कोई शक नहीं। वैसे भी इस जन्म में मांसाहारी मनुष्य हिंसक और स्थावर तो हैं ही अतः ये भी अतिश्योक्ति नहीं की ये पेड़ पौधों व मांसाहारी पशुओ से मनुष्य श्रेणी में आये हो इसलिए ये गुण पाये जाते हो।

प्राकृतिक दृष्टिकोण : विगत कुछ वर्षों से विश्वव्यापी खाद्यान्न समस्या चर्चा का विषय बनी हुयी है। इस समस्या का समाधान निम्नांकित वैज्ञानिक तथ्य करके दिखाते हैं :— (अ) एक किलोग्राम जन्तु प्रोटीन (माँस) हेतु लगभग ८ किलोग्राम वनस्पति प्रोटीन की आवश्यकता होती है। सीधे वनस्पति उत्पादों का उपयोग करने पर माँसाहार की तुलना में सात गुना व्यक्तियों को पोषण प्रदान किया जा सकता है।

(आ) किसी खाद्य शृंखला में प्रत्येक पोषक स्तर पर ९० प्रतिशत ऊर्जा का खर्च होकर मात्र १० प्रतिशत ऊर्जा ही अगले पोषक स्तर पर पहुँच पाती है। पादप प्लवक, जन्तु प्लवक आदि से होते हुए मछली तक आने में ऊर्जा का बड़ा भाग नष्ट हो जाता है और ऐसे में एक चिंताजनक तथ्य यह है कि विश्व में पकड़ी जाने वाली मछलियों का चौथाई भाग माँस उत्पादक जानवरों को खिला दिया जाता है।

(इ) समुद्र की खाद्य श्रंखला को देखने पर पता चलता है कि वहाँ पादप प्लवकों द्वारा संचित 31080 खरब ऊर्जा बड़ी मछली तक आते—आते मात्र 126 खरब बचती है। समुद्री शैवालों का विश्व में र्वािषक जल संवर्धन उत्पादन लगभग ६.र्५ १००, ००,००० टन है। जापान तथा प्रायद्वीपों सहित दूरस्थ पूर्वी देशों में इसके अधिकांश भाग का सब्जी के रूप में उपयोग किया जाता है। समुद्री घासों में प्रोटीन काफी मात्रा में पायी जाती है। इसमें पाये जाने वाले एमीनो अम्ल की तुलना सोयाबीन या अण्डा से की गयी है। अतएव मछली पालन के स्थान पर पादप प्लवक पल्लवन से अहिंसा , ऊर्जा एवं धन तीनों का संरक्षण किया जा सकता है।
(ई) विश्व में प्रतिवर्ष २० लाख लोग कीटानाशी विषाक्तता से ग्रसित हो जाते हैं, जिनमें से लगभग २० हजार की मृत्यु हो जाती है। कीटनाशक जहर जैसे होते हैं और ये खाद्य शृंखला में लगातार संग्रहीत होकर बढ़ते जाते हैं। इस प्रक्रिया को जैव आवर्धन कहते हैं। उदाहरण के लिये प्रातिबंधित कीटनाशक डी. डी. टी. की मात्रा मछली में अपने परिवेश की तुलना में १० लाख गुना अधिक हो सकती है और इन मछलियों को खाने वालों का स्वाभाविक रूप से अत्यधिक जहर की मात्रा निगलनी ही पड़ेगी।
यही प्रक्रिया अन्य माँस उत्पादों के साथ भी लागू होती है। कीटनाशकों, रसायनों से मुक्त आधुनिक जैविक कृषि आज सारे विश्व का ध्यान आर्किषत कर रही है। इसके अलावा वृक्ष खेती तथा मशरूम खेती भी खाद्यान्न समस्या के शानदार समाधान है।

विश्व के करीब १.२ अरब व्यक्ति साफ पानी (पीने योग्य) के अभाव में जी रहे हैं। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि वर्ष २०२५ तक विश्व की करीब दो तिहाई आबादी पानी की समस्या से त्रस्त होगी। विश्व के ८० देशों में पानी की कमी है। इस समस्या के संदर्भ में जहाँ १ किलोग्राम गेहूँ के लिये मात्र ९०० लीटर जल खर्च होता है वहीं गोमाँस के उत्पादन में १ लाख लीटर जल खर्च होता है। इस तथ्य से जल समस्या का समाधान भी शाकाहार में दिखायी देता है।

मानव मस्तिष्क में हुयी सबसे बड़ी वृद्धि का कारण हार्वर्ड विश्वविद्यालय के रिचर्ड रेंधम और नेन्सील कांकलिन ब्रिटेन तथा मिनेसोटा विश्वविद्यालय के ग्रेग लेडन के अनुसार पका हुआ शाकाहारी भोजन है। अतः प्राकृतिक दृष्टिकोण से भी मांसाहार अनुचित है।

मांसाहार से सम्बंधित कुछ अन्य विचार : विश्व स्वास्थ्य संगठन की बुलेटिन संख्या ६३७ के अनुसार माँस खाने से शरीर में लगभग १६० बीमारियाँ प्रविष्ट होती हैं। अधिकांश औषधियाँ वनस्पतियों से ही प्राप्त होती है।

कैंसर—अमरीकी वैज्ञानिकों की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार यदि लोग अधिक भुने हुये माँस तथा सड़ी चर्बी न खाये तो उन्हें कैंसर होने की आशंका बहुत कम रहेगी। इंटरनेशनल एजेन्सी ऑफ रिसर्च ऑन कैंसर के निर्देशक पॉल क्लीहाज के अनुसार पश्चिमी देशों में १० में से १ मरीज फल और सब्जी नहीं खाने की वजह से इस बीमारी की चपेट में आता है। केलिर्फोिनया विश्वविद्यालय के जीव रसायन विभाग के अध्यक्ष श्री ब्रूस एन एम्स ने बताया कि भोजन पकाने की प्रक्रिया में खाद्य तेल और चर्बी गोश्त में विकृति बढ़ाते हैं जिससे इनके सेवन में कुछ ऐसी विकृत स्थितियाँ बनती हैं जिनसे आनुवांशिकी द्रव्य क्षतिग्रस्त होते हैं और शरीर में कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। संतरे के रस और हरी सब्जियाँ में फोलेट नामक तत्व होता है जो स्तन कैंसर के खतरों को कम करता है। प्रमुख कैंसर रोधी औषधियाँ इविंनग प्राइमरोज के बीज, लंदूसी नामक बूटी की पत्तियों का सलाद इत्यादि शाक पात हैं।

शाकाहार से सम्बंधित कुछ अन्य विचार : हरी सब्जियों में उपस्थित पोषक तत्व तथा विटामिन ई एवं सी प्रति ऑक्सीकारकों की तरह कार्य करते हैं। अल्जाइमर रोग से बचाने में इन प्रति आक्सीकारकों की ही भूमिका होती है, शरीर से मुक्त मूलकों की सफाई में प्रति आक्सीकारक अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मुक्त मूलक कैंसर सहित अनेक घातक रोगों के लिये उत्तरदायी होते हैं।

टी. बी. हमारी सफेद रक्त कोशिकाओं एवं रोगाणु का पेगोसोम बंद करवाती है फिर इसे लाइसोसोम के संपर्क में लाकर नष्ट करवा देती है परन्तु टी.बी. का कीटाणु पेगोसोम को लाइसोसोम से जुड़ने नहीं देता है और अंदर बैठा—बैठा बढ़ता रहता है।
यूरोपियन मालिक्यूलर बायोलॉजिकल रिसर्च सोसायटी जर्मनी के एक अनुसंधान के अनुसार वनस्पति तेलों में पाई जाने वाली वसाएँ एरेचिडोनिक अम्ल और सेरेमाइड पेगोसोम को लाइसोसोम से जुड़ने नहीं देता है और अंदर बैठा—बैठा बढ़ता रहता है।

यूरोपियन मालिक्यूलर बायोलॉजिकल रिसर्च सोसायटी जर्मनी के एक अनुसंधान के अनुसार वनस्पति तेलों में पाई जाने वाली वसाएँ एरेचिडोनिक अम्ल और सेरेमाइड पेगोसोम को लाइसोसोम से जोड़ने में मदद करती हैं जबकि मछली के तेल में पाई जाने वाली वसाएँ इस क्रिया में बाधक होती हैं। अर्थात् शाकाहार टी. बी. को रोकता है जबकि माँसाहार इस मारक रोग को बढ़ाता है। इस शोध के प्रमुख गेरेथ ग्रिफिथ्स के अनुसार शायद इसीलिए खूब मछली खाने वाले इनुइट लोग टी. बी. से जल्दी ग्रसित हो जाते हैं। इस संदर्भ में यह तथ्य ध्यान देने योग्य हैं कि भारत में प्रतिवर्ष लगभग ५ लाख लोग टी. बी. से मर रहे हैं।

वेदादि सत्य आर्ष ग्रंथो और ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध होता है की आर्य जाती पूर्णतया शाकाहारी है देखिये

कात्यान्न श्रोतसूत्र मे आया है-
दुष्टस्य हविषोSप्सवहरणम् ।।२५ ,११५ ।।
उक्तो व मस्मनि ।।२५,११६ ।।
शिष्टभक्षप्रतिषिध्द दुष्टम।।२५,११७ ।।
अर्थात होमद्र्व्य यदि दुष्ट हो तो उसे जल मे फेक देना चाहिए उससे हवन नहीं करना चाहिए ,शिष्ट पुरुषो द्वारा निषिध मांस आदि अभक्ष्य वस्तुयें दुष्ट कहलाती है ।

शतपत में मॉस भोजी को यज्ञ का अधिकार नही दिया है देखिये :-
“न मॉसमश्रीयात् ,यन्मासमश्रीयात्,यन्मिप्रानमुपेथादिति नेत्वेवैषा दीक्षा ।”(श. ६:२ )
अर्थात मनुष्य मॉस भक्षण न करे , यदि मॉस भक्षण करता है अथवा व्यभिचार करता है तो यज्ञ दीक्षा का अधिकारी नही है

मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोक देकर अपने मांसभक्षण को सही सिद्ध करने वालो की ऐसा मालूम होता है इन लोगो की बुद्धि कहीं घास चरने चली गयी है, अन्यथा वे ऐसा कभी न कहते क्योंकि देखिये मनु महाराज ने “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का क्या अर्थ दिया है –

या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे। अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ।। योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया। स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।। (५.४४-४५)

अर्थात, जो विश्व संसार में दुष्टो – अत्याचारियो – क्रूरो – पापियो को जो दंड – दान रूप हिंसा वेदविहित होने से नियत है, उसे अहिंसा ही समझना चाहिए, क्योंकि वेद से ही यथार्थ धर्म का प्रकाश होता है। परन्तु इसके विपरीत जो निहत्थे, निरपराध अहिंसक प्राणियों को अपने सुख की इच्छा से मारता है, वह जीता हुआ और मरा हुआ, दोनों अवस्थाओ में कहीं भी सुख को नहीं पाता। दुष्टो को दंड देना हिंसा नहीं प्रत्युत अहिंसा होने से पुण्य है, अतएव मनु ने (8.351) में लिखा है –

गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्। आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन।। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवती कश्चन। प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति।।

अर्थात, चाहे गुरु हो, चाहे पुत्र आदि बालक हो, चाहे पिता आदि वृद्ध हो, और चाहे बड़ा भरी शास्त्री ब्राह्मण भी क्यों न हो, परन्तु यदि वह आततायी हो और घात-पात के लिए आता हो, तो उसे बिना विचार तत्क्षण मार डालना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्षरूप में सामने होकर व अप्रत्यक्षरूप में लुक-छिप कर आततायी को मारने में, मारने वाले का कोई दोष नहीं होता क्योंकि क्रोध को क्रोध से मारना मानो क्रोध की क्रोध से लड़ाई है।

““यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा”

ये वृतांत महाभारत में शांतिपर्व के अंतर्गत अध्याय २७२ में आता है – केवल इतना ही नहीं – यहाँ ये भी बताया गया है की यदि कोई यज्ञ में पशु वध करता है – तो निश्चय ही उसका सब तप नष्ट हो गया।

तस्य तेनानुभावेन मृगहिसात्मनस्तदा।
तपो महत समुच्छिन्नं, तस्माद्धहिंसा न यज्ञिया।।
अहिंसा सकलो धर्मोहिंसा धर्मस्तथाविधः।
सत्यंतेहं प्रवक्ष्यामि, यो धर्मः सत्यवादिनाम्।।

इस प्रकरण में महाराज युधिष्ठर ने भीष्म पितामह से पूछा है की धर्म तथा सुख के लिए यज्ञ कैसा करना चाहिए ? उसके उत्तर में पितामह ने एक तपस्वी ब्राह्मण -ब्राह्मणी दंपत्ति का वृतांत देते हुए बतलाया है की किसप्रकार उस तपस्वी ब्राह्मण का महान तप, यज्ञ में पशुबलि देने के लिए एक वन्य मृग को मारने की इच्छा मात्र से विनष्ट हो गया। इसलिए यज्ञ में कभी हिंसा न करनी चाहिए। अहिंसा सार्वत्रिक और सारकालिक नित्य धर्म है। इस प्रमाण से ज्ञात होता है की न तो महाभारत काल में यज्ञ में पशु हिंसा का विधान था – न ही उससे पहले के काल में क्योंकि अथर्ववेद 11.7.7 में लिखा है –

राजसूयं वाजपेयमग्निष्टोमस्तदध्वरः।
अकार्श्वमेधावुच्छिष्टे जीव बर्हिममन्दितमः।।

राजसूय, वाजपेय, अग्निष्टोम, अर्कमेध, अश्वमेध आदि सब अध्वर अर्थात हिंसा रहित यज्ञ हैं, जोकि प्राणिमात्र की बुद्धि करने वाला और सुख शांति देने वाला है। एवं इस मन्त्र में राजसूय आदि सभी यज्ञो को “अघ्वर” कहा गया है जिसका एकमात्र सर्वसम्मत अर्थ “हिंसा रहित यज्ञ है” जोकि निषेधार्थक नञ पूर्वक ‘ध्वर’ हिंसायां धातु से बनता है। घ्वरो हिंसा तदभावोत्र सोध्वरः। अतः स्पष्ट है की वेदने किसी भी यज्ञ में पशुवध की आज्ञा नहीं दी, उल्टा पशुवध करने पर उसे यज्ञ ही नहीं माना। इसलिए वेद के नाम पर यज्ञो में पशुवध करना अपने को धोखा देना है, दुसरो को उल्टा रास्ता बतलाना, अथवा अपनी अज्ञानता प्रकट करना है। फिर यह भी देखिये की पशु वध करने पर प्राणिमात्र की क्या वृद्धि हुई और उसे क्या सुख शांति मिली, उल्टा प्राणी की हत्या करते समय उसे घोर यातना दी जाती है और उसका जीवन तक समाप्त कर दिया जाता है, तब वह कर्म “बर्हिममन्दितमः” कैसे रहा ?”

उपरोक्त मनु स्मृति के प्रमाण से भी स्पष्ट है की यज्ञ में पशु वध का निषेध है। वेद प्रमाणों से स्पष्ट है की वेदो में पशु वध निषेध है – जबकि वेदो में पशुओ को पालने का स्पष्ट निर्देश है – यहाँ तक की – गाय, घोड़ा आदि पशुओ की हत्या करने वालो को “प्राणदंड” तक का विधान है – मनु स्मृति भी इस बात की पुष्टि करती है – ब्राह्मण ग्रन्थ भी यही कहते हैं = महाभारत भी यही कहती है – तो इससे सिद्ध है – न तो वैदिक काल में यज्ञ में पशु वध होता था – ना ही महाभारत काल में – ये सब महाभारत युद्ध के ५००-१००० वर्ष बाद की उपज ही सिद्ध होती है –

मैं उन सभी बंधुओ को इस माध्यम से सूचित करना चाहता हु, जब वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, इतिहास, और मानवशास्त्र धर्मग्रन्थ आदि भी मांसाहार को पाप कर्म बताते हैं तब हमारे इतिहास के श्री राम आदि महापुरष किस प्रकार माँसाहारी हो सकते हैं ?

जो भी मनुस्मृति में मांसाहार सम्बंधित श्लोक हैं वे प्रक्षिप्त हैं क्योंकि महाभारत का श्लोक ऊपर दिया है, जिसमे इसी विषय पर संकेत किया गया है।

अतः सत्य सनातन वैदिक स्वरुप को पहचानिये, शाकाहार अपनाये, बीमारी दूर भगाए, शुद्ध सात्विक और सनातन संस्कृति हमारी पहचान

लौटो वेदो की और

नमस्ते

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