“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 1″

“पहले अध्याय का जवाब पार्ट 1″

प्यारे मित्रो व बंधुओ, नमस्ते

अभी कुछ दिन से एक पुस्तक पढ़ रहा था “सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा” जिसके लेखक सतीश चंद गुप्ता हैं, कहने को तो उन्होंने महर्षि दयानंद की क़ुरान पर उठाई आपत्तियों और समीक्षाओं पर अपनी समीक्षाएं करने का दावा किया है मगर ये समीक्षाएं कितनी फिट बैठती हैं ये हम इस लेख में समझने का प्रयास करेंगे। अभी इस लेख में इनकी पुस्तक के पहले अध्याय में महर्षि दयानंद की क़ुरान पर उठाई वाजिब और अनूठी शंकाओ और टिप्पणियों पर इनकी समीक्षाओं का जायजा लेंगे बाकी अगले लेखो में भी इनके द्वारा की गयी समीक्षाओं की व्यवहारिकता और सार्थकता पर भी प्रकाश डालने का पूर्ण प्रयास करेंगे ताकि हमारे बंधू सतीश चंद गुप्ता जी ये न कहे की इन्हे जवाब न मिला। आइये इनकी एक एक समीक्षा को देखे और समझे :

सतीश चंद गुप्ता जी (हमारे बंधू) ये बात स्पष्ट तौर पर स्वयं मानते हैं की ऋषि का ज्ञान जो सत्यार्थ प्रकाश में फैला हुआ है वो लगभग ३००० पुस्तको को पढ़ने के बाद का निचोड़ है, मगर अगले ही पल सत्यार्थ प्रकाश को आर्य समाज की रीढ़ की हड्डी बता दिया, हमारे प्रिय बंधू को शायद ये ज्ञात नहीं है की प्रत्येक आर्य समाजी अथवा हिन्दू भाई की रीढ़ की हड्डी और मान्य धार्मिक ग्रन्थ केवल और केवल “वेद” हैं, महर्षि दयानंद ने भी वेदो और आर्ष ग्रंथो तथा पुराण क़ुरान आदि अनार्ष ग्रंथो के गहन अध्यन पश्चात ही “सत्यार्थ प्रकाश” जैसी अमूल्य निधि का निर्माण किया ताकि समस्त मानव जाति सत्य को जानकार असत्य को त्याग देवे, आर्य समाज भी ऋषि के सत्यार्थ प्रकाश को सत्य असत्य के निर्धारण हेतु पढ़ना और पढ़ाना मानता है बाकी स्वाध्याय तो वेद और अन्य आर्ष ग्रंथो का भी करना चाहिए, सत्यार्थ प्रकाश एक निर्देशिका है जो वेद और आर्ष ग्रंथो तथा प्राचीन ऋषियों मुनियो का जो धर्म के प्रति विचार थे उनका प्रकटीकरण करना और सत्य तथा असत्य के भेद को जानने में सहायता लेना।

धयान देने वाली बात है जब किसी मत या सम्प्रदाय की ऐसी बातो पर ध्यान दिलाया जाए जो मानव समाज के लिए हितकर न हो और उसकी समीक्षा समुचित तर्कपूर्ण आधार पर हो तो उस मत व सम्प्रदाय को थोड़ा बुरा लगना अथवा असहज हो जाना, ये सम्बंधित मत व सम्प्रदाय वाले मनुष्यो का स्वाभाव ही होगा, क्योंकि ऋषि ने सत्यार्थ प्रकाश के भूमिका में ही लिखा है :

“मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्य-सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्याऽसत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें।”

महर्षि का बड़ा ही सरल और सहज भाव था की जो सत्यान्वेषी होकर इस ग्रन्थ को पढ़े तो उसे सत्य को ग्रहण करने में कोई परेशानी न होगी,

“परन्तु इस ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रक्खी है और न किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्याऽसत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।”

ये महर्षि दयानंद कृत सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में ही लिख दिया गया है, पर खेद की जो विद्वान व आप्त लोग जैसे हमारे बंधू सतीश चंद जी महर्षि की उक्त बातो को ठीक से न समझकर केवल पूर्वाग्रह से ही शायद अपनी समीक्षा करते गए।

आइये अब एक एक शंका को देखते हैं की सतीश चंद जी की समीक्षा पर समीक्षा क्या है ?

1. महर्षि को संस्कृत का प्रकांड विद्वान भी मानते हैं और उन्ही महर्षि के द्वारा लिखी गयी समीक्षा को भाषा शैली अनुसार घिनौनी और शर्मनाक भी कहते हैं, पर क्या सच में ऐसा है ? आइये एक नजर डाले :

देखो इन गवर्गण्ड पोपों की लीला : ये शब्द महर्षि ने किस कारण और प्रकरण पर उपयोग किया जरा पूरा देखिये :

“अर्थात् देखो इन गवर्गण्ड पोपों की लीला जो कि वेदविरुद्ध महा अधर्म के काम हैं उन्हीं को श्रेष्ठ वाममर्गियों ने माना। मद्य, मांस, मीन अर्थात् मच्छी, मुद्रा पूरी कचौरी और बड़े रोटी आदि चर्वण, योनि, पात्रधार, मुद्रा और पांचवां मैथुन अर्थात् पुरुष सब शिव और स्त्री सब पार्वती के समान मान कर” (एकादश समुल्लास)

बताइये जो वेद विरुद्ध कर्म हो ऐसे हीन और लज्जामय कर्म को यदि कोई धार्मिक कार्य बतावे तो क्या उसकी बढ़ाई होगी ?

आगे देखिये :

“रक्तबीज के शरीर से एक बिन्दु भूमि में पड़ने से उस के सदृश रक्तबीज के उत्पन्न होने से सब जग्त में रक्तबीज भर जाना, रुधिर की नदी का बह चलना आदि गपोड़े बहुत से लिख रक्खे हैं। जब रक्तबीज से सब जगत् भर गया था तो देवी और देवी का सिह और उस की सेना कहां रही थी? जो कहो कि देवी से दूर-दूर रक्तबीज थे तो सब जगत् रक्तबीज से नहीं भरा था? जो भर जाता तो पशु, पक्षी, मनुष्यादि प्राणी और जलस्थ मगरमच्छ, कच्छप, मत्स्यादि, वनस्पति आदि वृक्ष कहां रहते? यहां यही निश्चित जानना कि दुर्गापाठ बनाने वाले पोप के घर में भाग कर चले गये होंगे!!! देखिये! क्या ही असम्भव कथा का गपोड़ा भंग की लहरी में उड़ाया जिसका ठौर न ठिकाना।” (एकादश समुल्लास)

अब देखिये यहाँ भी सतीश चंद जी ऐसे ही अन्य आक्षेप भी बिना प्रकरण को पूरी तरह से पढ़े केवल पूर्वाग्रह के कारण अपनी समीक्षाओं में लिखते गए यदि पूरी समीक्षाएं इसी प्रकार आपके समक्ष रखता जाउ तो बहुत बड़ा लेख हो जावेगा इसलिए आप एक बार स्वयं भी सत्यार्थ प्रकाश की समीक्षाओं को पढ़कर सतीश चंद जी की समीक्षाओं पर खुद नजर डाले की वो आखिर किस हद तक वाजिब हैं

जबकि महर्षि दयानंद सत्य के कितने बड़े मान्यकर्ता थे वो आपको हम दिखाते हैं :

ऋषि ने जहाँ जहाँ क़ुरान में जो थोड़ा बहुत सत्य पाया है उसपर अपने विचार भी प्रकट किये हैं :

१३७-उतारना किताब का अल्लाह गालिब जानने वाले की ओर से है।। क्षमा करने वाला पापों का और स्वीकार करने वाला तोबाः का।।

-मं० ६। सि० २४। सू० ४०। आ० १। २। ३।।

(समीक्षक) यह बात इसलिये है कि भोले लोग अल्लाह के नाम से इस पुस्तक को मान लेवें कि जिस में थोड़ा सा सत्य छोड़ असत्य भरा है और वह सत्य भी असत्य के साथ मिलकर बिगड़ा सा है। इसीलिये कुरान और कुरान का खुदा और इस को मानने वाले पाप बढ़ाने हारे और पाप करने कराने वाले हैं। क्योंकि पाप का क्षमा करना अत्यन्त अधर्म है। किन्तु इसी से मुसलमान लोग पाप और उपद्रव करने में कम डरते हैं।।१३७।। (चतुर्दश समुल्लास)

“अब इस कुरान के विषय को लिख के बुद्धिमानों के सम्मुख स्थापित करता हूँ कि यह पुस्तक कैसा है? मुझ से पूछो तो यह किताब न ईश्वर, न विद्वान् की बनाई और न विद्या की हो सकती है। यह तो बहुत थोड़ा सा दोष प्रकट किया इसलिये कि लोग धोखे में पड़कर अपना जन्म व्यर्थ न गमावें। जो कुछ इस में थोड़ा सा सत्य है वह वेदादि विद्या पुस्तकों के अनुकूल होने से जैसे मुझ को ग्राह्य है वैसे अन्य भी मजहब के हठ और पक्षपातरहित विद्वानों और बुद्धिमानों को ग्राह्य है।” (चतुर्दश समुल्लास)

७३-मत फिरो पृथिवी पर झगड़ा करते।। -मं० २। सि० ८। सू० ७। आ० ७४।।

(समीक्षक) यह बात तो अच्छी है परन्तु इस से विपरीत दूसरे स्थानों में जिहाद करना काफिरों को मारना भी लिखा है। अब कहो यह पूर्वापर विरुद्ध नहीं है? इस से यह विदित होता है कि जब मुहम्मद साहेब निर्बल हुए होंगे तब उन्होंने यह उपाय रचा होगा और जब सबल हुए होंगे तब झगड़ा मचाया होगा। इसी से ये बातें परस्पर विरुद्ध होने से दोनों सत्य नहीं हैं।।७३।। (चतुर्दश समुल्लास)

उपर्लिखित सभी तथ्यों से ज्ञात हो जाता है की महर्षि दयानंद सत्य के प्रति कितने गंभीर थे, उन्होंने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में केवल सत्य को ग्रहण करवाने हेतु ही पुस्तक का सृजन किया, महर्षि ने अन्य मत मतांतरों, सम्प्रदायों में भी जो जो सत्य देखा उसे अपनी सत्यार्थ प्रकाश में समीक्षा के अंतर्गत लिखा है देखिये :

“और जो आप झूठा और दूसरे को झूठ में चलावे उसको शैतान कहना चाहिये सो यहां शैतान सत्यवादी और इससे उसने उस स्त्री को नहीं बहकाया किन्तु सच कहा और ईश्वर ने आदम और हव्वा से झूठ कहा कि इसके खाने से तुम मर जाओगे।” (त्रयोदश समुल्लास)

(समीक्षक) अब देखिये! ईसाइयों के ईश्वर की लीला कि प्रथम तो सरः का पक्षपात करके हाजिरः को वहां से निकलवा दी और चिल्ला-चिल्ला रोई हाजिरः और शब्द सुना लड़के का। यह कैसी अद्भुत बात है? यह ऐसा हुआ होगा कि ईश्वर को भ्रम हुआ होगा कि यह बालक ही रोता है। भला यह ईश्वर और ईश्वर की पुस्तक की बात कभी हो सकती है? विना साधारण मनुष्य के वचन के इस पुस्तक में थोड़ी सी बात सत्य के सब असार भरा है।।२५।। (त्रयोदश समुल्लास)

“खुदा ने शैतान से पूछा कहा कि मैंने उस को अपने दोनों हाथों से बनाया, तू अभिमान मत कर। इस से सिद्ध होता है कि कुरान का खुदा दो हाथ वाला मनुष्य था। इसलिए वह व्यापक वा सर्वशक्तिमान् कभी नहीं हो सकता। और शैतान ने सत्य कहा कि मैं आदम से उत्तम हूँ, इस पर खुदा ने गुस्सा क्यों किया? क्या आसमान ही में खुदा का घर है; पृथिवी में नहीं? तो काबे को खुदा का घर प्रथम क्यों लिखा? (१३५)” (चतुर्दश समुल्लास)

उपरोक्त शंकाए भी सत्यार्थ प्रकाश से ही उद्धृत हैं जिनमे ऋषि ने सत्य बात को सत्य ही कहा क्योंकि बाइबिल और क़ुरान में शैतान ने सच बोला जिसे ऋषि ने भी सत्य माना, मगर क़ुरानी खुदा और बाइबिल का यहोवा झूठ बोले ऐसा क्यों ?

क्या सतीश चंद गुप्ता जी अब बताने का कष्ट करेंगे की ऋषि ने जो सत्य का मंडन किया उसपर तो आपने समीक्षा की समीक्षा बिनवजह कर डाली मगर जो क़ुरानी खुदा ने झूठ का प्रचार किया आदम और हव्वा से उसपर आपकी चुप्पी क्या पूर्वाग्रह से ग्रसित है अथवा मत सम्प्रदाय की असत्य बात को भी सच मान लेने से आप इस पर समीक्षा न करोगे ?

लेख लिखने को तो बहुत बड़ा हो जावेगा मगर अभी के लिए केवल इतना ही लिखते हैं इस से पाठकगण बहुत कुछ समझ और विचार लेंगे की सतीश चंद गुप्ता जी की सत्यार्थ प्रकाश पर समीक्षाएं कितनी वाजिब हैं और कितनी नहीं।

आइये लौटिए वेदो की और।

नमस्ते

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7 thoughts on ““सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 1″”

  1. आज तक इस सवाल से हर आर्य समाजी भागता रहा की वेद का ज्ञान ईश्वर द्वारा चार ऋषियों को समाधी अवस्था में दिया गया लगभग दो अरब वर्ष पूर्व वो भी सृष्टि की आदि में बिना माँ बाप के मात्र चार युवावस्था वाले ऋषि पैदा हुए उससे पहले कोई भाषा ज्ञान या कोई लिपी का विकास भी नहीं हुआ था उन चारों के ह्रदय में ईश्वर ने वेदों का प्रकाश दिया वो कौन सी तरकीब थी जिसने सीधे उनके हृदय में वेद ज्ञान उतारा जब वो पहले मनुष्य थे धरती पर उतरने वाले उनको समाधी में लीं होने का ज्ञान किसने दिया और आपस में उनका वार्तालाप कैसे हुआ उन्होंने आकाश से ही बोलना चलना समाधी लगाना सब सीख लिया था फिर उसके बाद मानव जगत की सृष्टि कैसे हुयी जब यही पहले मानव थे इसका कोई स्पष्ट विवरण नहीं दे सके स्वामी जी

    1. ऋषि ने तो जो उत्तर दिए वो आपको न चाहकर भी सुनाई नहीं देंगे शेख साहब
      हाँ ये अवश्य है कि ऋषि ने इस्लाम को झकजोर कर रख दिया
      आप गुलाम जिलानी साहब कि दो इस्लाम पढ़ें दो कुरान पढ़ें
      अनवर शेख साहब को पढ़ें
      सर सैयद अहमद साहब कि कुरान कि तफसीर पढ़ें क्या यह ऋषि कि आवाज नहीं हैं .
      सर सैयद साहब का जन्नत के उस अश्लील चित्रण जो नकारना और न जाने क्या क्या …….. ये किसका असर है जनाब
      जरा पढ़िए तो सही अपने पूर्वजों को

      1. प्रश्न का उत्तर प्रश्न नहीं हो सकता आपका जवाब ऊपर किये गए प्रश्न से मतलब नहीं रखता रही बात यदि आपके पास पूछे गए प्रश्न का उत्तर नहीं तो मत दीजिये या किसी अन्य आर्यसमाजी के पास उत्तर हो तो दें शंका का निवारण करे रही बात आपकी की ऋषि ने झकझोर के रख दिया तो इस्लाम ने ऋषि को झिंझोड़ डाला की कैसे एक अरब देश का विदेशी भाषा वाला धर्म जिसका हज़ार वर्ष पहले भारत में एक भी मानने वाला नहीं था उसकी संख्या इतनी अधिक कैसे फ़ैल गयी ( अगर आज की बात करे तो भारतीय उपमहाद्वीप जिसमे भारत पाक बांग्लादेश जो पहले भारत ही था में इस्लाम के अनुयाइयों की संख्या 55 करोड़ से अधिक हो चुकी है ) अरबी भाषा विदेशी होते हुए भी हर मुसलमानो के मुह से निकलने लगी और अरबी की आयते पूरे विश्व में दिन रात गूंजती रहती हैं जबकि वेदों की भाषा संस्कृत कितनी बुरी स्थिति में है बताने की ज़रूरत नहीं संस्कृत आम हिन्दू की जबान पर आने में फेल हो गयी कोई संस्कृत पढ़ना नहीं चाहता और वेद भी भूले बिसरे ग्रन्थ हो चुके हैं रामायण महाभारत तो हर घर में मिल जाएगी पर ढूंढने पर भी वेद न कभी किसी हिन्दू के घर में दिखेगी न ही कही आसानी से बिकती दिखेगी जबकि कुरान दुनिया में बेस्ट सेलर है जितनी कुरान की प्रति एक घंटे में लोग लेते हैं उतनी वेद शायद दस साल में भी नहीं बिक पति तो कहाँ से स्वामी जी सफल हुए और स्वामी जी के मत का और मिशन का इस्लाम के बढ़ने और फलने फूलने रत्ती भर भी का फर्क नहीं पड़ा वो तो अनवरत बढ़ता रहा है आज भी दुनिया में सबसे अधिक अपनाये जाने वाला धर्म है

        1. शेख साहब मेने तो आपके प्रश्न का उत्तर दिया है
          झकझोरने के प्रमाण भी आपको दिए आपने उसका उत्तर तो नहीं दिया
          रही बात इस्लाम को अपनाने कि तो ये कोई कसौटी नहीं
          इस्लाम कि क्या हालत हैं ये तो जग जाहिर है
          अफ़गानिस्तान इरान इराक यमन सीरिया इत्यादि देशों में क्या हो रहा है इस बात से आप शायद वाकिफ नहीं 🙂

        2. वेद ज्ञान और संस्कृत पढ़ने पढ़ाने की हानि भारत में मुस्लिम और अंग्रेज शासकों के कारण ही हुई। कितने ही ग्रंथ उनके द्वारा जला दिए गए और शिक्षा पद्धति में परिवर्तन कर दिया गया; लॉर्ड मेकॉले द्वारा शिक्षा पद्धति में परिवर्तन, तो सब को विदित ही है।
          परंतु ऋषि दयानंद के पूर्व प्रयासों के कारण ही आज विश्व, वेद और संस्कृत के महत्व को जानने लगा है, अनेक संस्कृत और वैदिक विश्वविद्यालय, विश्व में खुल गए हैं, भारत में तो हैं ही।
          रही बात वेद के अनुसार धर्म को अपनाने की, तो जिसने भी वेद पढ़े अथवा सत्यार्थप्रकाश पढ़कर इसके विषय में कुछ ज्ञान प्राप्त किया तब वह इस ज्ञान की विशालता और व्यापकता को देखकर, इसकी ओर झुक गया। इसी वेबसाइट में एक मुस्लिम मानव ने लिखा कि जब इस्लाम धर्म में पूर्व जन्म के अनुसार आगामी जन्मों का जीवन होने का प्रमाण नहीं मिला, तो उसने वेदानुसार धर्म ग्रहण कर लिया। यहां तक, मेरी जानकारी में एक गुरुकुल भी है, जिसे कि एक मुसलमान ने खोला है। परंतु यह सभी कार्य व्यापक और वैचारिक दृष्टि वाले लोग ही कर सकते हैं, संकुचित दृष्टि वाले नहीं। ऋषि दयानंद भी पहले पारिवारिक परंपरा से मूर्तिपूजक थे, परंतु जब उन्होंने वैदिक ज्ञान की महानता को देखा और मूर्ति पूजा की व्यर्थता को देखा, तो उन्होंने उसे त्याग कर, वेदानुसार धर्म ग्रहण किया।
          मानव को स्वयं प्रथम, ऋषिकृत वेद भाष्य पढ़ने चाहिए; बिना पढ़े उस पर अथवा तदानुसार धर्म पर टिप्पणी करना उचित नहीं।

    2. आपने पूछा परमात्मा ने किस तरकीब से ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया। परमात्मा के लिए कोई भी कार्य कठिन नहीं है, इसीलिए वह सबसे बड़ा, अल्ला अर्थात पूजनीय कहलाया जाता है। जब वह पूरी सृष्टि को बिना हाथ-पैर आदि के, केवल अपनी शक्ति मात्र से बना सकता है, तो क्या वह ऋषियों को वेद ज्ञान प्राप्त नहीं करा सकता। एक बालक अपने माता पिता से, केवल उनके संपर्क में रहने से, उनकी भाषा और ज्ञान को सीख जाता है, तो क्या ऋषि, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान ईश्वर के संपर्क से, भाषा और ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते।
      दूसरा आपने प्रश्न पूछा कि ऋषियों को समाधि लगाने का ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ। यह ऋषि लोग पूर्व सृष्टि के उत्कृष्ट मनुष्य थे, अतः उन्हें वैदिक ज्ञान दिया गया। क्योंकि पूर्व जन्म के संस्कार आगामी जन्मों में साथ जाते हैं, अतः समाधि लगाना, उनका पूर्व जन्म का अभ्यास होगा।
      अब समाधि लगा कर उन्हें किस प्रकार ईश्वर से ज्ञान प्राप्त हुआ, यह तो आंतरिक अनुभव का विषय है, इसके लिए तुम्हें स्वयं भी समाधि अवस्था में जाना पड़ेगा और उसके लिए बहुत अभ्यास और वैराग्य आवश्यक है।
      आदि सृष्टि में मानव कैसे हुए, यह तो ऋषि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में स्पष्ट कर दिया है।आदि सृष्टि में प्रथम मानव, युवावस्था में परमात्मा के द्वारा उत्पन्न होते हैं जिसे अमैथुनी सृष्टि कहा जाता है; उसके पश्चात उन्हीं मानवों से मैथुनी सृष्टि चलती है। अब पूछोगे कि परमात्मा ने किस तरकीब से युवा मानव उत्पन्न कर दिए। जब आजकल के वैज्ञानिक मानव से मिलता जुलता रोबोट तैयार कर सकते हैं, तो क्या सर्वशक्तिमान परमात्मा के लिए युवा मानव पैदा करना कठिन है?
      मानव और रोबोट में पूर्ण समानता तो नहीं करी जा सकती, क्योंकि रोबोट यंत्रों से बना है वह मानव मांस और अस्थि से बना है जिसमें आत्मा भी है। यह परमात्मा की विशेषता है कि वह यह सभी कार्य सहजता से कर लेता है, तभी तो उसे परमेश्वर, सबसे बड़ा, पूजनीय माना जाता है; यदि किसी मानव में यह शक्ति होती, तो उसे ही ईश्वर घोषित कर दिया जाता।

  2. शरीर वाली माँ एक बच्चे को जन्म दे कर उसके सारे कार्य करती है, जबतक एक बच्चा पढ लिख कर अपने पैरो पर खडे रहकर अपने बलबूते पर सही सही जीना सीख ले। पर एक माँ बिना शरीर वाली जीससे यह शरीर चलता फिरता और सारे कर्म जीससे हो पा रहे है। हरेक जीव और मनुष्य शरीर की वह है सारे जीवो की शक्ति। जो अच्छे बूरे इन्सान सभी के पास हो सकती है शक्ति। पर बिना शरीर वाला बाप सबके पास नहीं हो सकता वह एक समय पर एक ही के पास हो सकता है, वह है ईश्वर, आत्म ज्ञान। शक्ति शरीर में मनुष्य सारे शरीर मे कही भी अनुभव कर सकता है। पर ईश्वर अनुभूति उसे सिर्फ और सिर्फ संयम नियम, त्याग समर्पण, प्राणायाम होने के बाद निर्विचार स्थिती में ईश्वर अनुभूति होती है जीससे सारे ब्रह्मांड के खेल जारी है, जो अजन्मा है, जो अकाल पुरुष, स्त्री भी है। नोंध: ईश्वर को शरीर नही है ईश्वरसे शरीर और सारा कुछ है तो लिंग भेद का प्रश्न नही उठता है। जब भी कीसी मनुष्य शरीर में जीव को ईश्वर अनुभूति हूई है तब वह असल मे वास्तव वर्तमान मे ही रहता है और सबका सहारा छोड, सभी कुछ जीससे है उस ईश्वर परायण हो कर अमर हो जाता है। ईश्वर वही है जीसकी सत्ता के बगैर पता भी नही हिलता। धन्यवाद।🙏।। शुभ प्रभात।।🙏

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