ईश्वर के सानिध्य के बिना, ईश्वर की कृपा के बिना, ईश्वर के अनुभव -दर्शन के बिना मृत्यु-भय नहीं छूट सकता, भक्ति का वास्तविक आनंद प्राप्त नहीं हो सकता … इसलिए प्रभु को खोजो हमने खोजा , हमने संसार के पदार्थो को ईश्वर माना , उनके पास गए , किन्तु वहा आनंद न मिला , रस न मिला …. वेदो मे आया -रसेन तृप्त: वह ईश्वर तो रस से तृप्त है , किन्तु ये पदार्थ तो रस से खाली मिले । इनको ईश्वर समझना हमारा भ्रम था ….. फिर इन रस-रिक्त पदार्थो से साधक का मन विरक्त हो जाता है , ऊब जाता है परीक्ष्य लोकान् कर्म्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायात्रास्त्यकृत: कृतेन । (मुण्डकोप०) कर्म्म से संचित लोगो (भोगो) की परीक्षा करके ब्रह्मज्ञानी दुखी हो उठता है और कहता है – “विनाशी पदार्थो से वह अविनाशी नहीं मिल सकता” किन्तु अपने अध्ययन एवं अनुभव के परीक्षण एवं चिंतन के पश्चात उसे परमतत्व की ओर प्रस्थान करने के मार्ग की प्रेरणा मिलती है , आभास होता है तब वह यत्न करता है ,और पाता है – दिव्ये ब्रह्मपूरे हवोष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठित: (मु०) अंतरात्मा इस हदयाकाश रूपी दिव्य ब्रह्मपुर मे विराजमान है । जिसकी खोज को बाहर भटक रहे थे वह तो अंदर ही बैठा है अतः आत्मनाssत्मानमभिसंविवेश – वह आत्मा के द्वारा परमात्मा मे प्रवेश करता है शरीर इंद्रियादिक को छोडकर आत्मा को उसमे लगाने का प्रयत्न करना चाहिए उपनिषद में आता है – वह अंतरात्मा अनेक प्रकार से प्रकट होता हुआ अंदर विचर रहा है, ओ३म् पद के द्वारा उसका ध्यान करो भगवान के अनंत गुण है , अतः उनके प्रत्येक गुण का प्रकाशक उनका एक नाम है इस कारण भगवान के अनंत नाम है । किन्तु उनका निज नाम ॐ है ….गूंगा भी इस ॐ पद का उच्चारण कर सकता है एक उपनिषद मे कहा भी गया है —– भगवान का ज्ञान न आँख से होता है , न वाणी से, न ही अन्य इंद्रियो द्वारा इसका ज्ञान होता है । कोरे तप , थोथे जप और कर्म से भी उसका बोध नहीं होता । ज्ञान द्वारा जो अपनी आत्मा को शुद्ध कर उस निर्विकार का ध्यान करता है , वह उसके दर्शन कर पाता है एक ऋषि ने भी कहा – न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मन: —-वहा आँख नहीं जा पाती, न वाणी की वहा गति है । वह तो मन की पाहुच से भी बाहर है … अतः आत्मनात्मानमभिसंविवेश – मे अपनी आत्मा द्वारा उस अंतरात्मा मे प्रवेश करता हू अज्ञान के कारण ही मनुष्य अपने भीतर विद्यमान आनंद सागर परम पवित्र रस-सरोवर मे डुबकी न लगाकर बाह्य गंदभरे तालो मे डुबकी लगा रहा है , किन्तु फिर भी समझता है कि वह सही मार्ग है , किन्तु फिर भी समझता है कि वह भक्ति मे तल्लीन है …. अज्ञान के कारण नहीं समझ पाता कि जिस फीके पानी को ही मधु मान वह नित पान किए जा रहे है ,वह उस ईश्वरीय अमृतमयी रस का एकांश भी नहीं है । अतः सभी शास्त्रो मे कहा गया है कि बिना ज्ञान के मनुष्य जिसकी आराधना करनी चाहिए उसके स्वरूप का यथार्थ ज्ञान तथा उसके सच्चे आराधना का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता । वह नहीं समझ पाएगा कि किसकी आराधना कल्याण का मार्ग प्रशस्त करेगी। यथार्थ ज्ञान ही हमे विषय-विष से बचाकर ब्रह्मामृत की ओर प्रेरित करता है …. और यह यथार्थ ज्ञान बाह्य कारणो पर निर्भर नहीं है …. वेदो का वैदिक ग्रंथो का अध्ययन करना होगा, चिंतन करना होगा मनन करना होगा…तत्पश्चात साधना एवं आराधना करनी होगी….ईश्वर स्वयं तुम्हें सत्यज्ञान से अवगत कराएंगे….और तुम जानोगे कि ब्रह्मामृत का सरोवर अपनी आत्मा मे ही बह रहा है… अतः डुबकी लगाने को अंदर जाना होगा…बाहर ये सरोवर है ही नहीं …… और जिस दिन उधर जाने की भावना अन्तःकरण में बलवती होगी….तब तुम्हारे विकार स्वतः नष्ट होने लगेंगे….विकार नष्ट होने पर शुद्ध हो तुम शीघ्र ही उस अविनाशी परमात्मा के हो जाओगे…..ज्योतिष्मत: पथो रक्ष, अभयं ते अर्वाक्………।ओ३म्। ।