ऋषि जीवन विचारः–यह आनन्ददायक लक्षण है कि ‘परोपकारी’ ऋषि मिशन का एक ‘विचारपत्र’ ही नहीं, अब आर्य मात्र की दृष्टि में आर्यों का एक स्थायी महत्त्व का ऐसा शोधपत्र है, जिसने एक आन्दोलन का रूप धारण कर लिया है। इसका श्रेय इसके सपादक, इसके मान्य लेखकों व परोपकारिणी सभा से भी बढ़कर इसके पाठकों तथा आर्य समाज की एक उदीयमान युवा मण्डली को प्राप्त है। परोपकारी की चमक व उपयोगिता को बढ़ाने में लगी पं. लेखराम की इस मस्तानी सेना का स्वरूप अब अखिल भारतीय बनता जा रहा है।
ऋषि जीवन विषयक तड़प-झड़प में दी जा रही नई सामग्री पर मुग्ध होकर अन्य -अन्य पत्रों का प्रबल अनुरोध है कि ऐसे लेख- नये दस्तावेजों का लाभ, हमारे पाठकों को भी दिया करें। एक ऐसा वर्ग भी है, जिसका यह दबाव है कि ये दस्तावेज हमें भी उपलध करवायें। मेरा नम्र निवेदन है कि परोपकारिणी सभा के लिए इन पर कार्य आरभ हो चुका है। दिनरात ऋषि जीवन पर एक नये ग्रन्थ का निर्माण हो रहा है। दस्तावेज अब सभा की सपत्ति हैं। इनके लिये सभा के प्रधान जी व मन्त्री जी से बात करें। ये दस्तावेज अब तस्करी व व्यापार के लिए नहीं हैं। श्री अनिल आर्य, श्री राहुल आर्य, श्री रणवीर आर्य, श्री इन्द्रजीत का भी कुछ ऐसा ही उत्तर है। जिसे इस सामग्री के महत्त्व का ज्ञान है, जो इस कार्य को करने में सक्षम है, उसे सब कुछ उपलध करवा दिया है। वह ऋषि की सभा के लिये जी जान से इस कार्य में लगा है। ऋषि के प्यारे भक्त भक्तिभाव से सभा को आर्थिक सहयोग करने के लिए आगे आ रहे हैं।
पहली आहुति दिल्ली के ऋषि भक्त रामभज जी मदान की है। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी के मुलतान जनपद में जन्मे श्री रामभज के माता-पिता की स्मृति में ही पहला ग्रन्थ छपेगा। हरियाणा राजस्थान के उदार हृदय दानी भी अनिल जी के व मेरे सपर्क हैं। आर्य जगत् ऋषि का चमत्कार देखेगा। कुछ प्रतीक्षा तो करनी होगी। हमारे पास इंग्लैण्ड व भारत से खोजे गये और नये दस्तावेज आ चुके हैं। ऋषि के जीवन काल में छपे एक विदेशी साप्ताहिक की एक फाईल भी हाथ लगी है।
प्रो. मोनियर विलियस ने अपनी एक पुस्तक में आर्य सामाजोदय और महर्षि के प्रादुर्भाव पर लिखा है, ‘‘भारत में दूसरे प्रकार की आस्तिकवादी संस्थायें विद्यमान हैं। अभी-अभी एक नये ब्राह्मण सुधारक का प्रादुर्भाव हुआ है। वह पश्चिम भारत में बहुत बड़ी संया में लोगों को आकर्षित कर रहा है। वह ऋग्वेद का नया भाष्य करने में व्यस्त है। वह इसकी एकेश्वरवादी व्याया कर रहा है। उसकी संस्था का नाम आर्यसमाज है। हमें कृतज्ञतापूर्वक इन संस्थाओं के परोपकार के श्रेष्ठ कार्यों के लिए उनका आभार मानना चाहिये। ये मूर्तिपूजा , संर्कीणता, पक्षपात, अंधविश्वासों तथा जातिवाद से किसी प्रकार का समझौता किये बिना युद्धरत हैं। ये आधुनिक युग के भारतीय प्रोटैस्टेण्ट हैं।’’
प्रो. मोनियर विलियस के इस कथन से पता चलता है कि हर कंकर को शंकर मानने वाले मूर्तिपूजक हिन्दू समाज को महर्षि दयानन्द के एकेश्वरवाद ने झकझोर कर रख दिया था। जातिवाद पर ऋषि की करारी चोट का भी गहरा प्रभाव पड़ रहा था। अब पुनः अनेक भगवानों, अंधविश्वासों व जातिवाद को राजनेता खाद-पानी दे रहे हैं। हिन्दू समाज को रोग मुक्त कर सकता है, तो केवल आर्यसमाज ही ऐसा एकमेव संगठन है। इसके विरुद्ध कोई और नहीं बोलता।