‘सम्पूर्ण जीवन चरित्र-महर्षि दयानन्द’ को क्यों पढ़ें?:- गत वर्ष ही इस विनीत ने श्रीयुत् धर्मेन्द्र जी जिज्ञासु तथा श्री अनिल आर्य को बहुत अधिकार से यह कहा था कि आप दोनों इस ग्रन्थ के गुण-दोषों की एक लम्बी सूची बनाकर कुछ लिखें। मुद्रण दोष के कारण कहीं-कहीं भयङ्कर चूक हुई है। जो इस ग्रन्थ में मौलिक तथा नई खोजपूर्ण सामग्री है, उसको मुखरित किया जाना आवश्यक है। विरोधियों, विधर्मियों ने ऋषि की निन्दा करते-करते जो महाराज के पावन चरित्र व गुणों का बखान किया है, वह Highlight मुखरित किया जाये। लगता है, आर्य जगत् या तो उसका मूल्याङ्कन नहीं कर सका या फिर प्रमादवश उसे उजागर नहीं करता। वे तो जब करेंगे सो करेंगे, आज से परोपकारी में इसे आरम्भ किया जाता है। पाठक नोट करते जायें।
१. महर्षि की मृत्यु किसी रोग से नहीं हुई। उन्हें हलाक ((Killed)) किया गया। नये-नये प्रमाण इस ग्रन्थ में पढिय़े। अंग्रेज सरकार के चाटुकार मिर्जा गुलाम अहमद ने अपने ग्रन्थ हकीकत-उल-वही में बड़े गर्व से महर्षि के हलाक किये जाने का श्रेय (Credit) लिया है। यह प्रमाण पहली बार ही ऋषि जीवन में दिया गया है।
२. काशी शास्त्रार्थ से भी पहले उसी विषय पर मेरठ जनपद के पं. श्रीगोपाल शास्त्री ने ऋषि से टक्कर लेने के लिये कमर कसी। घोर विरोध किया। विष वमन किया। अपनी मृत्यु से पूर्व उसने अपने ग्रन्थ ‘वेदार्थ प्रकाश’ में ऋषि के पावन चरित्र की प्रशंसा तो की ही है। ऋषि को गालियाँ देने वाले, ऋषि के रक्त के प्यासे इस विरोधी ने एक लम्बी $फारसी कविता में ऐसे लिखा है:-
हर यके रा कर्द दर तकरीर बन्द
हर कि खुद रा पेश ऊ पण्डित शमुर्द
दर मुकाबिल ऊ कसे बाज़ी न बुर्द
उस महाप्रतापी वेदज्ञ संन्यासी ने हर एक की बोलती बन्द कर दी। जिस किसी ने उसके सामने अपनी विद्वत्ता की डींग मारी, उसके सामने शास्त्रार्थ में कोई टिक न सका। सभी उससे शास्त्रार्थ समर में पिट गये।
३. ऋषि की निन्दा में सबसे पहली गन्दी पोथी जीयालाल जैनी ने लिखी। इस पोथी का नाम था ‘दयानन्द छल कपट दर्पण’ यह भी नोट कर लें कि यह कथन सत्य नहीं कि इस पुस्तक के दूसरे संस्करण में इसका नाम ‘दयानन्द चरित्र दर्पण’ था। हमने इसी नाम (छल कपट दर्पण) से छपे दूसरे संस्करण के पृष्ठ की प्रतिछाया अपने ग्रन्थ मेें दी है। इस ग्रन्थ में जीयालाल ने ऋषि को महाप्रतापी, प्रकाण्ड पण्डित, दार्शनिक, तार्किक माना है। विधर्मियों से अंग्रेजी पठित लोगों की रक्षा करने वाला माना है। कर्नल आल्काट के महर्षि दयानन्द विषयक एक झूठ की पोल खोलकर ऋषि का समर्थन किया। कर्नल ने ३० अप्रैल १८७९ को ऋषिजी की सहारनपुर में थियोसो$िफकल सोसाइटी की बैठक में उपस्थिति लिखी है। जीयालाल ने इसे गप्प सिद्ध करते हुए लिखा है कि ऋषि ३० अप्रैल को देहरादून में थे। वे तो सहारनपुर में एक मई को पधारे थे। यह प्रमाण इसी ऋषि जीवन में मिलेगा।
४. ज्ञानी दित्त सिंह की पुस्तिका सिखों ने बार-बार छपवाकर दुष्प्रचार किया कि दित्त सिंह ने शास्त्रार्थ में ऋषि को पराजित किया। हमने दित्त सिंह की पुस्तक की प्रतिछाया देकर सिद्ध कर दिया कि वह स्वयं को वेदान्ती बताता है, वह सिख था ही नहीं। वह स्वयं लिखता है कि तेजस्वी दयानन्द के सामने कोई बोलने का साहस ही नहीं करता था। यह प्रमाण केवल इसी जीवन चरित्र में मिलेंगे। (शेष फिर)