एक आर्यवीर ने चलभाष पर प्रश्न पूछा है कि पादरी जॉनसन से पं. गणपति शर्मा जी का शास्त्रार्थ महाराज रणवीरसिंह के समय में हुआ अथवा महाराजा प्रतापसिंह के काल में? हमने तड़प-झड़प में कुछ मास पूर्व इस शास्त्रार्थ का प्रामाणिक वृत्तान्त उस समय के सद्धर्म प्रचारक से उद्धृत करते हुए दिया था। प्रश्नकर्त्ता ने श्री कुन्दनलाल जी चूनियाँ वाले की पुस्तक में इसका उल्लेख पढ़कर उसे भ्रामक समझकर यह प्रश्न पूछा है। उन्हें श्री रामविचार जी बहादुरगढ़ से इसका समाधान करवाना चाहिये। वह उक्त पुस्तक के बारे में हमसे उलझ चुके हैं। परोपकारी की फाईल निकालकर सद्धर्म प्रचारक का उद्धरण देखकर यथार्थ इतिहास को जाना जा सकता है। हम इतिहास के विद्यार्थी हैं। इतिहास प्रदूषण कोई भी करे, उसे पाप मानते हैं। यदि फिर भी पाठक चाहेंगे तो दोबारा उस घटना पर प्रकाश डालने में हमें कोई ननूनच नहीं होगा।
हाँ! यह नोट कर लें कि यह कथन सर्वथा भ्रामक व इतिहास प्रदूषण है कि जम्मू कश्मीर में आर्यसमाज पर प्रतिबन्ध था। पोंगापंथी पौराणिक ब्राह्मण तो आर्यसमाज के घोर विरोधी थे, परन्तु राज्य की ओर से कोई वैधानिक प्रतिबन्ध कतई नहीं था। पं. लेखराम जी के साहित्य से तथा हमारे द्वारा प्रकाशित जम्मू शास्त्रार्थ के अवलोकन से इस मिथ्या कथन की पोल खुल जाती है। राज्य का सबसे बड़ा डॉक्टर आर्यसमाजी था। राज्य का प्रतिष्ठित न्यायाधीश जाना पहचाना आर्य-पुरुष था। प्रतिबन्ध की गप प्रचारित करने वालों ने आर्यसमाज का अवमूल्यन ही किया है।
arya jee maine aapki rantideva waali post pe comment kia tha uska jawab chaiye
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