पुस्तक – परिचय
पुस्तक का नाम – वेद प्रतिष्ठा
लेखक –आचार्य सत्यजित्
प्रकाशक–वैदिक पुस्तकालय, दयानन्द आश्रम केसरगंज, अजमेर- 305001
पृष्ठ– 334 मूल्य – 100/- रु. मात्र
समस्त ऋषियों ने वेद की प्रतिष्ठा को सर्वोपरि रखा है और वेद को स्वतः प्रमाण माना है। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है, ईश्वर प्रदत्त होने से यह निर्भ्रम और पूर्ण ज्ञान है। वेद मानव मात्र के कल्याण का उपदेश करता है, क्योंकि सर्व कल्याणमय तो ईश्वर ही है, उसके द्वारा बताया गया ज्ञान भी कल्याणमय क्यों न होगा? वेद को मानव मात्र के हितार्थ ईश्वर ने आदि सृष्टि में उत्पन्न किया। आदि सृष्टि से लेकर जब तक मनुष्य समाज वेद के अनुसार अपने जीवन के चलाता रहा, तब तक मानव का आध्यात्मिक भौतिक विकास होता रहा, क्योंकि वेद ही एक ऐसा ज्ञान है, जिसमें सब प्रकार की सत्य विद्याएँ हैं। उन विद्याओं से व्यक्ति अपने अध्यात्म को चरम तक बढ़ा सकता है, ऐसे ही भौतिक विकास को भी चरम तक ले जा सकता है।
वेद स्वतःप्रमाण है, वेद को प्रमाणित करने के लिए किसी और प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, जैसे सूर्य को दिखाने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती। इतना सब होते हुए भी कुछ लोग वेद को ठीक से समझ नहीं पाते, वेद के न समझने में वेद दोषी नहीं है, अपितु वह व्यक्ति ही दोषी है, जो वेद की शैली को नहीं समझा पा रहा। उसके पीछे उसका अपना अज्ञान, हठ, स्वार्थसिद्धि व नास्तिकपना हो सकता है।
आर्य समाज ऋषि की मान्यतानुसार वेद को सर्वोपरि मानता है, वेद के प्रति श्रद्धा रखता है। आर्य समाज में भी कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जो अपने को कहते तो आर्य समाजी हैं, किन्तु वेद के प्रति अन्यथा भाव रहते हैं। उनमें से दो व्यक्ति श्री उपेन्द्रराव व श्रीआदित्यमुनि जी थे, दोनों वेद को न तो ईश्वरकृत मानते और न ही वेद को समस्त सृष्टि के लिए मानते। इन लोगों ने वेद पर लगभग 100 आक्षेप किये थे, जिनका उत्तर कुछ विद्वान् जैसे-तैसे देते रहे अथवा कुछ चुप रहे। जो विद्वान् जैसे-तैसे उत्तर देते रहे, उनसे ये दोनों चुप नहीं हुए, अपितु और अधिक मुखर होकर वेद के विरुद्ध बोलते-लिखते चले गये।
उपेन्द्ररावजी व आदित्यमुनि जी की बोलती तब बन्द हुई, जब परोपकारी पत्रिका में वेद व ऋषि के प्रति आगाध श्रद्धा रखने वाले, ऋषि के मन्तव्यों को जीवन में जीने वाले दर्शनशास्त्रों के मर्मज्ञ, साधनामय जीवन के धनी आचार्य श्री सत्यजित्जी ने ‘‘चतुर्वेद विद्आमने-सामने’’ लेख माला चला कर उनके एक-एक प्रश्न का उत्तर देना प्रारमभ किया। जब परोपकारी में इनको उत्तर दिये जाने लगे, तब ये दोनों बहाने बनाकर बचने लगे, आक्षेप न लगाकर अपने बचाव करने में भलाई समझने लगे। आचार्य श्री सत्यजित् जी की इन लेखमालाओं का प्रभाव यह हुआ कि वे दोनों इन उत्तरों की समालोचना तो दूर, अपनी रक्षा भी नहीं कर पाये। परोपकारी के ‘‘चतुर्वेद विद्आमने-सामने’’ लेखों से उन वेद प्रेमिओं को अपार सन्तोष हुआ जो इनके आक्षेपों से आहत होते रहते थे।
वेद प्रेमियों के लिए प्रसन्नता की बात यह है कि वेद पर किये गये जिन आक्षेपों के उत्तर आचार्य सत्यजित् जी ने दिये, वे उन सब आक्षेपों और उनके उत्तरों को इकट्ठा कर ‘‘वेदप्रतिष्ठा’’ नाम से पुस्तकाकार दे दिया है। इस पुस्तक में उपेन्द्ररावजी द्वारा किये गये 100 प्रश्नों में 28 प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं। पुस्तक में 39 विषय व तीन परिशिष्ट हैं। पाठक इस पुस्तक को पढ़कर वेद की प्रतिष्ठा के गौरव को अनुभव करेंगे। यथार्थ में यह पुस्तक वेद को प्रतिष्ठित करने वाली मिलेगी।
पुस्तक में लेखक आचार्य ने अपने विचार रखे- ‘‘पिछले कुछ दशकों से वेदों को अप्रतिष्ठित करने के प्रयास नये तरीके से किये, मूल आक्षेप तो पूर्ववत् ही थे। इनके समाधान भी किये गये, प्रवचनों, लेखों व पुस्तकों के माध्यम से ये समाधान प्रायः परमपरागत शैली में रहे। आक्षेपकों ने यह दुष्प्रचारित किया कि ये समाधान हमारे आक्षेपों का उचित समाधन करने में असमर्थ हैं। आक्षेपकों ने दुराग्रह पूर्वक हठ कर रखी थी कि आक्षेपों के उत्तर मात्र वेद व तर्क युक्ति से दिया जाएँ, अन्य ग्रन्थों का प्रमाण उन्हें स्वीकार्य नहीं है। ऐसे में विचार हुआ कि क्यों न इन्हें इन्हीं की शैली में उत्तर दिये जाए। साथ ही इनकी इस शैली को इन पर भी लागू करके आक्षेपों की भी समालोचना की जाए। इन्हें इसका बोध कराया जाए कि तर्क-युक्ति की बातें करने वाले आप लोग अपने विचारों-निर्णयों-आक्षेपों में कितने अधिक तर्क हीन व अयुक्ति युक्त हो जाते हैं। उन्हें भी तर्क युक्ति के आधार पर अपने गिरेबान में झँकवाया जाए, अपने मुख को दर्पण में दिखवाया जाए।’’
यह पुस्तक वेद की प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए है, जिसे पढ़कर पाठक लेखक की वेद के प्रति श्रद्धा व उनकी बौद्धिक क्षमता का अनुभव करेंगे। विशेषकर यह पुस्तक वेद प्रेमियों को अत्यधिक रुचिकर लगेगी, वेद के प्रति अधिक श्रद्धा पैदा करनेवाली लगेगी, वेद की शैली का परिचय कराने वाली मिलेगी। सुन्दर आवरण से युक्त, उत्तम छपाई व कागजयुक्त यह पुस्तक प्रत्येक वेद प्रेमी के लिए पठनीय है। गुरुकुलों व पुस्तकालयों के लिए आवश्यक है। आशा है, इस पुस्तक को प्राप्त कर पाठक वेद की प्रतिष्ठा बढ़ाएँगे।
-आ. सोमदेव, ऋषि उद्यान, अजमेर
मुझे ये पुस्तक चाहिए तो दिल्ली में कैसे मिल सकती हे।
Namste
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नमस्ते,
मै हाल कतार मे हू , मुझे येह पुस्तक कैसे प्राप्त हो सक्ता है ?
कृपया सहयोग करें , बहुत आभारी रहुंगा .
नमस्ते जी
आप डाक से मंगा सकते हैं
क़तर में काफी और भी आर्य समाजी हैं उनसे भी संपर्क कर सकते हैं
NAMASTE,
JAWAAF KE LIYE BAHOOT DHANYAVAAD AUR JAANKAARI KI APEKSHAA HAI, DAAK SE KAISE AUR KAHAAN SAMPARK KAROON?
YEH JAANKAR BAHOOT KHUSHI HUI KI QATAR ME BHI AARYA-SAMAAJI HAI, LEKIN UN KAA KOI PATAA MILTAA TO SAMPARK KARNE ME SULABH HOTI,
KRIPAA KAR SAKTE HAI TO YEK NIVEDAN KARUNGAA KI KOI SAMPARK NUMBAR UPALABDH KARAA SAKTE HAI KYAA?
AAP KAA SHUBHA-CHINTAK: PREM BAHADUR KC
Nasmte ji
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NAMASTE,,,
BAHOOT BAHOOT DHANYAVAAD