आर्य समाज के मन्तव्य: त्रैतवाद शिवदेव आर्य गुरुकुल पौंधा, देहरादून

आर्य समाजः- श्रेष्ठ व्यक्ति का नाम आर्य है। जिसके कर्म अच्छे हों उसे श्रेष्ठ कहते हैं। सभ्य मनुष्यों के संगठन को समाज कहते हैं। संगठन अज्ञान, अन्याय, अभाव को दूर करने के लिए बनाया जाता है। आर्य समाज एक प्रजातान्त्रिक संगठन है जिसकी स्थापना महर्षि दयानन्द जी ने मुम्बई में सन् १८५७ ई॰ में की थी।

उद्देश्यः- संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

आर्य समाज के मन्तव्य:

त्रैतवाद –आर्य समाज ईश्वर, जीव, प्रकृति इन तीनों को अनादि मानता है। किसी वस्तु के निर्माण में तीन कारणों का होना आवश्यक है।

१.उपादान कारण,             २. निमित्त कारण,         ३.साधारण कारण

१.उपादान कारणः- वस्तु के निर्माण में जो मूल तत्व है उसे उपादान कारण कहते हैं। जैसे घड़े का निर्माण में मिट्टी और आभूषण में सोना-चान्दी आदि उपादान कारण हैं।

२.निमित्त कारणः- जिसके बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने, प्रकारान्तर से दूसरे को बना दे उसे निमित्त कारण कहते हैं। इसके दो भेद हैं-

क. मुख्य निमित्त कारण- परमात्मा

ख. साधारण निमित्त कारण – आत्मा

३.साधारण कारणः-निमित्त और उपादान कारण के अतिरिक्त अन्य अपेक्षित कारण साधारण कारण कहलाते हैं। जैसे घड़े के निर्माण में मिट्टी उपादान कारण कुम्भकार निमित्त कारण और दण्ड, चक्रादि साधारण कारण है। वैसे ही सृष्टि निर्माण में प्रकृति साधारण कारण, ईश्वर निमित्त कारण और दिशा, आकाशादि साधारण कारण हैं।

उपादान कारण प्रकृति:- प्रकृति जगत् का उपादान कारण है जिससे कार्य जगत् उत्पन्न होता है। उपादान कारण में निम्न बातें पाई जाती हैं-

१. उपादान कारण परिणामी, नित्य और जड़ होता है। चेतन कभी भी उपादान कारण नहीं हो सकता है।

२. उपादान कारण के गुण कार्य में किसी न किसी रूप में आते हैं।

३. उपादान कारण से ही कार्य बनता है और उसी में लीन भी होता है।

४. उपादान कारण असत्य, मिथ्या और अमान रूप नहीं होता।

५. उपादान बनाने से कार्य रूप में बनता है और न बनाने से नहीं बनता।

यें सभी बातें प्रकृति में पाई जाती हैं अतः प्रकृति जगत् का उपादान कारण है। प्रकृति त्रिगुणात्मक सत्त्व रजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः सांख्य दर्शन, जड़ और अनादि है। क्योंकि कारण का कारण नहंी होता। प्रकृति के अनादि होने में हेतु

१.अभाव से भाव उत्पन्न नहंीं होता। जगत् भाव रूप है अतः उसका कारण भी भाव रूप होना चाहिये और वह प्रकृति है।

२. जगत् कार्य रूप होने से उसका कारण प्रकृति ही उपादान कारण सिध्द होती है।

३. कार्य अपने उपादान कारण में विद्यमान रहता है। जगत् कार्य है और उसकी विद्यमानता प्रकृति में है।

४. कार्य अपने कारण में लय को प्राप्त होता है अतः जगत् का उपादान कारण प्रकृति होना ही चाहिये।

५. कोई कार्य तभी सम्पन्न होता है जब उसके कारण में कार्य रूप में परिणत होने की शक्ति हो अतः प्रकृति रूपी कारण में जगत् रूप में परिणत होने की शक्ति विद्यमान रहती है।

६. किसी भी वस्तु का सर्वथा विनाश नहीं होता वह सूक्ष्म रूप हो अपने कारण में विलीन हो जाती है। प्रलयावस्था में जगत् अपने कारण प्रकृति में विद्यमान रहता है।

७. बीज के होने पर उससे अंकुर का प्रादुर्भाव होता है। प्रकृति ही जगत का मूल कारण होने से उसका अनादि होना सिध्द होता है।

प्रमाण-

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषष्वजाते।

                                                तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यवश्न्नन्यो अभि चाकशीति।।       ऋ॰ १/१६४/२॰)

(द्वा) ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों से कुछ सदृश (सयुजा) व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त (सखाया) परस्पर मित्रता युक्त (समानम्‍) वैसा ही (वृक्षम्द्ध प्रलय में छिन्न भिन्न होने वाले संसार रूप वृक्ष का (परिषष्वजाते) आश्रय लिये हुए हैं। (तयोरन्यः) इनमें से जो जीव है वह इस वृक्ष रूपी संसार में पाप-पुण्य रूप फलों को (स्वाद्वत्ति) स्वाद लेकर खा रहा है, भोग रहा है ओर दूसरा परमात्मा (अनश्नन्) न भोगता हुआ (अभि चाकशीति) चारों ओर विराजमान हो उसे देख रहा है।

अजामेकां लोहित शुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां स्वरूपाः।

                                                अजो हयेको जुषमाणोऽनुशेते जहाव्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः। (श्वेता॰उप॰ ४१५)

प्रकृति, जीव और परमात्मा ये तीनों अज अर्थात् इनका जन्म कभी नहीं होता। प्रकृति रजोगुणयुक्त, सत्त्वगुणात्मक और कृष्ण अर्थात् तमोगुणी होने से उससे विभिन्न पदार्थों की उत्पत्ति होती है। इसे अजन्मा जीवात्मा भोग रहा है और दूसरी अविनाशी, जन्म मरण से रहित ईश्वर जीवों द्वारा भोग्य होने के कारण इसका परित्याग अर्थात् भोग से पृथक है।

सृष्टि की उत्पत्ति में मूलतत्त्वों की गणना:-

१. एकत्ववाद एकत्ववाद का सिध्दान्त कहता है कि जड़ या चेतन तत्त्व से ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। जड़ से सृष्टि का निर्माण हुआ है। जड़ से सृष्टि की उत्पत्ति चार्वाक और वर्तमान भौतिक वादियों (वैज्ञानिकों) की है।

चेतन तत्व से ही सृष्टि का निर्माण हुआ यह मान्यता शंकराचार्य, यहूदी, ईसाई, मुसलमानों की है। इनका कहना है कि एक ईश्वर ही अनादि तत्व है जिसने अभाव से अर्थात् अपनी माया से जीव तथा जगत् की उत्पत्ति की है।

२. द्वैतवाद द्वैतवादियों का कहना है कि मूलभूत सत्ता दो हैं चेतन जीव तथा भौतिक द्रव्य प्रकृति। यह धारणा सांख्य दर्शन की मानी जाती है।

३. त्रैतवाद इस सिध्दान्त को मानने वाले ईश्वर, जीव, प्रकृति को मूलभूत सत्ता मानते हैं रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य और महर्षि दयानन्द जी इसी सिध्दान्त को मानने वाले थे।

समीक्षा:-एकत्ववादियों का मानना है कि भौतिक द्रव्य से ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। जैसे दही और गोबर को मिला देने से उसमें कुछ समय पश्चात् बिच्छू उत्पन्न हो जाते हैं। इसी भांति मदिरा बनाने के लिये कुछ पदार्थों को मिला देने से कालान्तर में उनमें गति उत्पन्न हो जाती है। वर्तमान समय में बैटरी का निर्माण भी तेजाब और जस्ता की प्लेट का संयोग होने पर विद्युत प्रवाहित होने लगती है। इसी भांति जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी के तत्वों का संयोग होने से सृष्टि का निर्माण स्वयमेव होता है और इन तत्वों के क्षीण हो जाने पर प्रलय भी अपने आप होती है। सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय का यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है।

समाधान:-यदि गोबर या दही को सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखें तो उसमें सूक्ष्म जीव पहले से विद्यमान दिखाई देंगे जो उचित वातावरण में बिच्छू के शरीर में परिणत हो गये। दही और गोबर को मिलाकर अनुकूल वातावरण में रखने वाली चेतन सत्ता का होना आवश्यक है।

यदि सृष्टि का बनना और बिगड़ना स्वभाव से माने तो स्वभाव से ही उत्पन्न पदार्थ का विनाश नहीं होगा। यदि विनाश को स्वाभाविक माने तो फिर उत्पत्ति नहीं होगी। दोनों अर्थात् उत्पत्ति और विनाश यदि स्वाभाविक माने जायें तो अनवस्था दोष आ जायेगा।

आज का विज्ञान यह मानता है कि सृष्टि की अन्तिम सत्ता आत्मा-परमात्मा न होकर ऊर्जा अर्थात् वे सूक्ष्म विद्युत तरंगे हैं जो मेंढक की गति से प्रवाहित हो रही है। ये तरंगें तीन प्रकार के विद्युत कणों से बनी हैं जिन्हें इलेक्ट्राॅन, प्रोटाॅन, न्यूट्राॅन कहा जाताहै।

समाधान- यदि विद्युत तरंगों का प्रवाह विच्छेद युक्त है अर्थात् मेंढक की भांति कुदान मार-मार कर प्रवाहित होता है और फिर बन्द हो जाता है तो उसके बन्द या विच्छेद होने पर उसे दोबारा गति किससे प्राप्त होती है। जड़ पदार्थ अपने आप गतिशील नहीं हो सकता।

जिन परमाणुओं से सृष्टि का निर्माण होता है वहां पर भी व्यवस्था है। प्रत्येक परमाणु के केन्द्र में न्यूट्राॅन होता है और उसके समीप ही प्रोटाॅन के कण रहते हैं। जितने प्रोटाॅन के कण होते हैं, उतने ही इलेक्ट्राॅनों की संख्या होती है। इलेक्ट्राॅन विपरीत दिशा में गतिशील रहते हैं। उनमें गति एवं निश्चित अनुपात में प्रोटाॅन, इलेक्ट्राॅन की विद्यमानता किसी दूसरी सत्ता द्वारा ही सम्भव है। जड़ में स्वयं यह गुण नहंी आ सकता।

‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ परमाणु सौरमण्डल की एक छोटी इकाई का ही नमूना है। सूर्य के चारों ओर हमारी पृथ्वी सहित दूसरे ग्रह-उपग्रह घूम रहे हैं। सूर्य भी अपनी कक्षा में गति कर रहा है। हमारी आकाश गंगा में सूर्य सदृश लाखों नक्षत्र एवं लोक लोकान्तर हैं जो अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण कर रहे हैं। ऐसी करोड़ों आकाशगंगाओं देखी जा चुकी हैं। इनहें कौन गति दे रहा है इसका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है।

शंकर का अद्वैतवाद:- शंकराचार्य का मत है कि सृष्टि की मूल सत्ता केवल एक चेतन ईश्वर है। ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या। जैसे मकड़ी अपने में से ही जाला बुनने के लिए तन्तु निकालती है और फिर उसे समेट भी लेती है वैसे ही ब्रह्म अपनी माया से सृष्टि की उत्पत्ति कर अपने में ही समेट लेता है। माया ब्रह्म की शक्ति है जो न सत् न ही असत् अर्थात अनिर्वचनीय है। जैसे अज्ञान के कारण रज्जु में सर्प और सीप में रजत का भ्रम हो जाता है वैसे ही यह जगत् स्वप्न के समान मिथ्या है। जैसे एक ही मूर्ख का प्रतिबिम्ब सहस्रों दर्पणों में अवभाषित हो अनेक रूपों में दिखाई देता है वैसे ही एक ब्रह्म अनेक अन्तः करणों से युक्त हो बहुत दिखाई दे रहा है।

समाधान:-जब अकेला ब्रह्म ही था तो उससे यह जड़ संसार कैसे उत्पन्न हो गया। यदि यह ब्रह्म की माया है तो फिर ब्रह्म और माया दो हो गये। यदि माया सत् है तो एकत्व का सिध्दान्त नहीं टिकता असत् मानने पर उसकी प्रतीति कैसे होगी। यदि उसे सत् असत् दोनों ही मान लिया जाये तो परस्पर विरोध उत्पन्न हो जायेगा। उसे सत्असत से भिन्न अनिर्वचनीय मानना निरर्थक है। मकड़ी और उसका सूत्र निकालना दो हो गये। क्योंकि सूत्र तो मकड़ी के शरीर से निकलता है और शरीर का निर्माण प्रकृति के पदार्थों से होता है। सीप में रजत और रज्जु में सर्प का भ्रम होना भी द्वैत को सिध्द करता है। जिसका भ्रम हो रहा है वह वस्तु दूसरी है। ऐसे ही स्वप्न भी देखे सुनें विषयों से सम्बन्धित होता है और जागने पर उन पदार्थों की सत्ता समाप्त हो जाती है परन्तु संसार तो दिखाई दे रहा है।

यदि ब्रह्म अपने में से ही जगत् का निर्माण करता है तो विकार वाला हो गया और उससे निर्मित जगत् भी चेतन स्वरूप वाला होना चाहिये। जो यह कहते हैं कि खुदा ने कुन कहा और सृष्टि रचना हो गई सो अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती। कार्य से पहले उसके कारण का होना आवश्यक है।

द्वैतवाद:- यह पहले कहा जा चुका है कि अकेला जड़ या चेतन सृष्टि की उत्पत्ति करने में समर्थ नहीं हो सकता। जब तक चेतन उसका निमित्त कारण नहीं बने तब तक जड़ स्वयं बन या बिगड़ नहीं सकता। इसलिए सृष्टि उत्पत्ति के लिये दो सत्ताओं का मानना अनिवार्य है। सांख्य दर्शन में इसे प्रकृति पुरूष कहां है ओर गीता ने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ। शरीर, मन, बुध्दि, इन्द्रियाँ क्षेत्र है और पुरूष इनका स्वामी।

सांख्य दर्शन के प्रमाण:-

संहत परार्थत्वात्।।१।१४॰।।

संहत शरीरादि पृथिव्यादि विभिन्न तत्वों के योग से निर्मित हैं ओर संघात दूसरों के लिए होता है। जैसे खट्वादि पुरूष के लिए निर्मित किये जाते हैं वैसे ही जीवात्मा के लिये यह शरीर प्राप्त हुआ है ओर वह इससे भिन्न है।

अधिष्ठानात्।।१।१४२।।

रथ तभी चलता है जब इसका चलाने वाला हो। शरीर भी एक रथ है। (आत्मानं रथं विध्दि शरीरं रथमेव च) जिसका अधिष्ठाता चेतन आत्मा है।

भोक्तृभावात् ।।१।१४३।।

संसार के सब विषय भोग्य और पुरूष उनका भोक्ता है।

कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च।।१।१४४।।

सब जीवों की मोक्ष अर्थात् सांसारिक दुःखों से छूटने की प्रकृति देखी जाती है। बन्धन में कोई नहीं रहना चाहता। यदि आत्मा नहीं है तो दुःख से छूटना कौन चाहता है?

षष्ठी व्यपदेशादपि सांख्य ६/३

मेरा शरीर, मेरा मन इत्यादि व्यवहार से शरीर से भिन्न आत्मा सिध्द होता है।

अस्त्यात्मा नास्तित्व साधनाभावात् (सांख्य ६/१)

आत्मा है क्योंकि उसके न होने में कोई प्रमाण नहीं है। जो मैं कहता हुॅं वह शरीर से पृथक चैतन्य स्वरूप आत्मा ही जानना चाहिए।

अन्य प्रमाण:-

१. कोई भी मरना नहीं चाहता। यह मरने से बचने वाला चेतन आत्मा ही है जिसने अनेक जन्मों में मृत्यु दुःख का अनुभव किया है।

२. यदि जीव का पृथक अस्तित्व न माना जाये तो जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं का अभाव होगा। ये अवस्थायें होती है अतः जीव का अस्तित्व भी सिध्द है।

३. इच्छा, द्वेष, प्रधान, ज्ञान आदि से भी जीव प्रकृति से भिन्न सिध्द होता है।

४. जड़ का प्रकाशक, जड़ से भिन्न होता है, शरीर, इन्द्रिय, मन-बुध्दि को प्रकाश गति देने वाला जीव इससे भिन्न है।

       बालादेकर्मणायस्कमुतैकं नैव दृश्यते।

     ततः परिष्वजीयसी देवता सा मम प्रिया।।

(अथर्व॰ १॰/८/२५)

एक (जीवात्मा) बाल से भी अधिक सूक्ष्म है और एक (प्रकृति) मानो दीखती ही नहीं। उससे भी अधिक सूक्ष्म और व्यापक जो परमात्मा है वही मेरा प्रिय है।

आत्मा का परिणामः-

बालाग्र शत भागस्य शतधा कल्पितस्य च।

                                                                             भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते।।

(श्वेता॰ ५/९)

बाल के अगले भाग के सौ टुकड़े कर दिये जायें, उसके सौवें भाग के भी सौ हिस्से कर दिये जायें, उस सूक्ष्म भाग के समान जीव का प्रमाण दें किन्तु उसमें सामथ्र्य बहुत है। जीव स्व, सूक्ष्म पदार्थ है जो एक परमाणु में भी रह सकता है। उसकी शक्तियाँ शरीर में प्राण, बिजली और नाड़ी आदि के साथ संयुक्त होकर रहती है, उनसे सब शरीर का वर्तमान जानता है।

(सत्यार्थ प्रकाश द्वादश समुल्लास)

प्रश्न: जीव शरीर में विभु है या परिच्छिन्न?

उत्तर: परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जागृत, स्वप्न सुषुप्ति, मरण, जन्म, संयोग, वियोग, जाना, आना कभी नहीं हो सकता। इसलिए जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प अर्थात् सूक्ष्म है। सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास।

आत्मा के गुण, कर्म स्वभाव

प्रश्न: जीव और ईश्वर का स्वरूप, गुण कर्म और स्वभाव कैसा है?

उत्तर: दोनों चेतन स्वरूप है। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि हैं। परन्तु परमेश्वर के सृष्टि उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय सबको नियम में रखना, जीवों को पाप-पुण्य रूप फलों को देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं और जीव के सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन, शिल्प विद्या आदि अच्छे-बुरे कर्म हैं।

इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगभूति      (न्याय द॰ १/१/१॰)

प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवन मनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः सुख दुःखे इच्छाद्वेषौ प्रयत्नश्चात्मनो लिंगानि।।                                                 (वैशेषिक दर्शन ३/२/४)

दोनों सूत्रों में (इच्छा) पदार्थों के प्राप्ति की अभिलाषा (द्वेष) दुःखादि की अनिच्छा, वैर, (प्रयत्न), पुरूषार्थ, बल, (सुख) आनन्द (दुःख) विलाप, अप्रसन्नता (ज्ञान) विवेक, पहिचानना। ये तुल्य हैं परन्तु वैशेषिक में (प्राण) को बाहर निकालना (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना, (निमेष) आंख मींचना (उन्मेष) आंख का खोलना (जीवन) प्राण का धारण करना (मन) निश्चय, स्मरण और अहंकार करना (गति) चलना, (इन्द्रिय) सब इन्द्रियों को चलाना (अन्तरविकार) भिन्न-भिन्न क्षुधा, तृष्णा, हर्ष, शोकादि का होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं है।

जब तक आत्मा देह में होता है तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं और जब शरीर छोड़ कर चला जाता है, तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिसे होने से जो हों और न होने से न हों, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप एवं सूर्यादि के होने से प्रकाशादि का होना और न होने से न होना है, वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान गुण द्वारा होता है।

पुरूष बहुत्व:-

जन्मादि व्यवस्थातः पुरूष बहुत्वम् (सांख्य १.१४९)

संसार में देखा जाता है किसी का जन्म हो रहा है और किसी की मृत्यु हो रही है। जन्म-मरणादि अवस्थायें तभी सम्भव है जब अनेक जीवात्मा होंवे। इसमें प्रश्न उठता है कि मुक्ति का साधन करके बहुत सारे लोग मुक्त हो जायेंगे। इसका उत्तर अगले सूत्र में दिया है-

  इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः (सांख्य १/१५९)

हम देख रहे हैं कि वर्तमान समय में पुरूषों का सर्वथा उच्छेद नहीं है। कोई मरता है तो दूसरा जन्म लेता है। मुक्ति की अवधि समाप्त होने पर आत्मा फिर शरीर     धारण करता है। इसलिये सर्वथा उच्छेद का प्रश्न ही नहीं उठता। आवागमन का यह चक्र चलता ही रहता है।

त्रैतवाद:-

ईश्वर:  जिस प्रकार घड़े को बनाने में मिट्टी उपादान कारण और कुभ्म्भकार निमित्त कारण है वैसे ही सृष्टि की उत्पत्ति में प्रकृति उपादान कारण और ईश्वर निमित्त कारण है। जीव साधारण निमित्त कारण है। जड़ पदार्थ में यह सामथ्र्य नहीं कि वह स्वयं योजनाबध्द हो जगत् रूप हो जाये। जीव का भी सामथ्र्य इतना नहीं कि इस विशाल सृष्टि की रचना कर सके। तब केवल ईश्वर ही रह जाता है जो निराकार, सर्व व्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान होने के कारण परमाणु में भी व्याप्त हो उसे गति प्रदान कर सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कर रहा है।

ईश्वर के कार्य:-

१. सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करना।

२. सब जीवों को कर्मानुसार यथायोग्य फल देना।

गुण:-ईश्वर सगुण और निगुण दोनों है।

स्वभाव:-ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप है।

ईश्वर की सिध्दि:-उदयनाचार्य ने न्याय कुसुमा´जलि में ईश्वर की सिध्दि में आठ प्रमाण दिये हैं-

कार्ययोजन धृत्यादेः पद प्रत्ययतः श्रुतेः।

                                                     वाक्यात् संख्याविशेषाच्च साध्यो विश्वकृदव्ययः।।

(न्याय कुसुमांजलि)

१. कार्य-सृष्टि की रचना कार्य है। अतः इसका कारण भी होना चाहिये। बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता।

२. आयोजन-सृष्टि रचना के समय परमाणुओं को मिलाने में क्रिया हुई होगी। उस क्रिया का कर्ता होना चाहिये।

३. धृत्यादि-सृष्टि रचना के अनन्तर भी उसका कोई धारण करने वाला होना चाहिये।

४. पद – पद गति का वाचक है। सृष्टि के प्रारम्भ में मनुष्यों को बुना, खेती करना और अन्य लौकिक व्यवहार पहले किसी ने सिखाये होंगे क्योंकि ये नैमित्तिक कर्म हैं।

५. प्रत्यय – वेदों में ज्ञान-प्रदान करने की शक्ति मन्त्रों के माध्यम से किसने दी?

६. श्रुतेः – वेदों का ज्ञान किसने दिया?

७. वाक्य – मनुष्यों को बोलना किसने सिखाया भाषा किसने दी?

८. संख्या- यह किसको सूझा कि दो परमाणुओं से द्वयणु और तीन द्वयणु से त्रसरेणु इत्यादि बनते हैं।

इन प्रमाणों के आधार पर ईश्वर की सिध्दि होती है।

अन्य प्रमाण

१. जीवों के किये हुये कर्म न स्वयं फल दे सकते हैं और न स्वयं जीवन ही फल की व्यवस्था अपने आप कर सकते हैं। अतः ईश्वर की सिध्दि कर्मफल के दाता के रूप में भी है।

२. जगत् में सर्वत्र नियम देखा जाता है अतः उसका नियामक भी होना चाहिये।

उत्पत्ति :-

                                                इयं विसृष्टिर्यत आबभूव ॰ १॰/१२९/७

जिससे यह सृष्टि प्रकाशित हुई है।

स्थिति :-

 स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम् ॰ १॰/१२१/१

जिसने पृथिवी से लेके सूर्यपर्यन्त जगत् को धारण किया हुआ है।

प्रलय :-

नहि ते अग्ने तन्वः क्रूरमानंश मत्र्यः।

कपिर्बभस्ति तेजनम्।।(अथर्व॰ ६/४९/१द)

हे परमेश्वर! मनुष्य तेरे क्रूर स्वरूप को नहीं जानते प्रलय के समय कम्पाने वाले आप प्रकाशमान सूर्य मण्डल को खा जाते हैं जैसे प्रसूता गो अपनी झिल्ली को खा लेती है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश  के सप्तम समुल्लास में इस विषय पर लिखा है-

प्रश्न-आप ईश्वर-ईश्वर कहते हो, उसकी सिध्दि किस प्रकार करते हो?

उत्तर-सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से।

प्रश्न-ईश्वर में प्रत्यक्ष प्रमाण कभी नहीं घट सकता?

उत्तर-इन्द्रियों का विषयों के साथ जो सीधा सम्बन्ध होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। अब विचारना चाहिये कि इन्द्रिय और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे शब्द, स्पर्श रूप, रस, गन्ध का ज्ञानेन्द्रियों से प्रत्यक्ष होता है वैसे ही इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। और जब आत्मा किसी गलत कार्य में प्रवृत्त होता है उस समय आत्मा के भीतर बुरे काम करने में भय, शंका, लज्जा तथा अच्छे कर्मों के करने में अभय, निशंकता और आनन्दोत्साह उठता है। यह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से है।

और जब जीवात्मा शुध्द होके शुध्दान्तकरण से युक्त योगी समाधिस्थ होकर आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है। तब उसको उसी समय दोनों (गुण और गुणी) प्रत्यक्ष होते हैं।

।। इत्योम्।।

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