महर्षि दयानंद सरस्वती जी के देहावसान का कारण जहाँ जोधपुर राज्य सहित अनेक कुचक्र गामी रहे, वहां दूध में विष भी उनके बलिदान का मुख्य कारण रहा | जब से महर्षि का देहावसान हुआ है , तब से ही जोधपुर के राज परिवार का यह प्रयत्न रहा है कि किसी प्रकार से जोधपुर राजघराने से एक ऋषि की हत्या का दोष हटाया जा सके | इस कड़ी में अनेक प्रयास हमारे सामने आते है जो उस राज परिवार के द्वारा हुए हैं तथा हो रहे हैं | इन पंक्तियों में मैं उन प्रयासों का तो वर्णन नहीं करने जा रहा किन्तु इस प्रयास के किसी न किसी रूप में जो आर्य ही सहभागी बनते हुए दिखाई देते हैं , समय समय पर ऐसे आर्यों की कलम से आर्यों के ही विरोध में किये जा रहे कुप्रयास को दूर करने का यतन आर्य समाज के महान लेखकों ने किया है , इन पंक्तियों में मैं भी कुछ एसा ही प्रयत्न करने का साहस कर रहा हूँ |
लगभग चालीस वर्ष पूर्व एसा ही एक प्रयास श्री लक्ष्मीदत दीक्षित जी ने किया था, जिसका मुंह तोड़ उत्तर अबोहर से प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने अनेक लेखों के माध्यम से देते हुए यह सप्रमाण सिद्ध किया था कि महर्षि के देहांत का कारण विष ही था | इस अवसर पर उन्हों ने एक पुस्तक भी तैयार की थी महर्षि का विषपान अमर बलिदान | यह पुस्तक आर्य युवक समाज अबोहर ने प्रकाशित की थी | इस का प्रकाशन उस समय हुआ था , जब मैं आर्य युवक समाज अबोहर के प्रकाशन विभाग का मंत्री होता था अर्थात इस पुस्तक का प्रकाशन मैंने ही किया था | इस पुस्तक में स्वामी जी के देहावसान का करण विषपान सटीक रूप से सिद्ध किया गया था तथा इससे पंडित लक्ष्मी दत दीक्षित जी की बोलती ही बंद हो गई थी | वह इस आधार पर जो पुस्तक लिखने जा रहे थे , उसे लिखने का विचार ही उनहोंने त्याग दिया | हमारे विचार में इतने सटीक प्रमाण आने के बाद आर्य समाज में यह विवाद खड़ा करने का प्रयास बंद हो जाना चाहिए था किन्तु आर्य जगत दिनांक २५ मई से ३१ मई २०१४ के पृष्ट ९ पर श्री कृष्ण चन्द्र गर्ग पंचकुला का लेख जगन्नाथ ने महर्षि को दूध में विष दिया – एक झूठी कहानी के अंतर्गत यह लिखने का यत्न किया है कि महर्षि को विष देने की कथा झूठी है , के माध्यम से एक बार फिर यह विवाद खड़ा करने का यत्न किया है | मैं नहीं जानता कि गर्ग जी ने किस पूर्वाग्रह के कारण यह लिखा है किन्तु मैं बता देना चाहता हूँ कि इस लेख के लेखक को संभवतया या तो महर्षि के देहावसान के समबन्ध में कुछ ज्ञान ही नहीं है , या फिर वह जान बूझ कर इस विवाद को बनाये रखना चाहते हैं ताकि कुछ उल्लू सीधा किया जा सके |
लेखक ने स्वामी जी के रसोइये के नाम का विवाद पैदा करने का यत्न किया | स्वामी जी को दूध देने वाला जगन्नाथ था , धुड मिश्र था या कोई अन्य | नाम के विवाद में पड़ने की आवश्यकता नहीं है | नाम चाहे कुछ भी हो , प्रश्न तो यह है कि क्या स्वामी जी को विष दिया गया या नहीं ? लेखक ने बाबू देवेन्द्र नाथ मुखोपाध्याय जी ,पंडित लेखराम जी , पं. गोपालराव हरि जी द्वारा लिखित स्वामी जी के जीवन चरितों का वर्णन करते हुए लिखा है कि इन सब ने स्वामी जी को दूध पी कर सोते हुए दिखाया है किन्तु इस दूध में विष था या नहीं , यह स्पष्ट किये बिना ही लिख दिया कि यह दूध था न कि विष अथवा कांच | लेखक को शायद यह पता ही नहीं कि राजस्थान में विष को कांच भी कहते हैं तथा दूध में भी विष हो सकता है |
जोधपुर के उस समय के राजा की कुटिलता को देखते हुए स्वामी जी को यह कहा भी गया था कि वह जोधपुर न जावें क्योंकि वहां का राजा कुटिल है , कहीं एसा न हो कि स्वामी जी को कोई हानि हो जावे | इससे भी स्पष्ट होता है कि जोधपुर जाने से पूर्व ही स्वामी जी की हानि होने की आशंका अनुभव की जा रही थी | अभी अभी प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने एक पुस्तक अनुवाद की है | पुस्तक का नाम है महर्षि दयानंद सरस्वती सम्पूर्ण जीवन चरित्र लेखक पंडित लक्षमण जी आर्योपदेशक | यह विशाल काय पुस्तक मूलरूप में उर्दू में लिखी गई थी तथा प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने इसका अनुवाद कर सन २०१३ में ही दो भागों में प्रकाशित की है | इस पुस्तक में जिज्ञासु जी ने वह सामग्री भी जोड़ दी है , जो अब तक अनुपलब्ध मानी जाती थी | इस के साथ ही इस पुस्तक के अंत में महर्षि का विषपान अमर बलिदान नामक पुस्तक भी जोड़ दी है | प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु इस काल के आर्य समाज के सब से प्रमुख शोध कर्ता हैं , इस पर कहीं कोई दो राय नहीं है | इसलिए जब वह लिख रहे हैं महर्षि का विषपान अमर बलीदान तो यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी जी के देहावसान का कारण , बलिदान का कारण विषपान ही था | जिज्ञासु जी की पुस्तक के इस शीर्षक मात्र को देख कर ही कहीं अन्य किसी प्रकार की संभावना नहीं रह जाती | तो भी मैं यहाँ कुछ् प्रमाण देकर स्पष्ट करना चाहूँगा कि स्वामी जी के बलिदान का कारण केवल और केवल विष ही तो था अन्य कुछ नहीं |
स्वामी जी को मृत्यु का भय न था
महर्षि का विषपान अमर बलीदान के आरम्भ के दूसरे पहरे में जिज्ञासु जी लिख रहे हें कि स्वामी जी मृत्यु से डरते न थे | वह मरना ओर जीना समान जानते थे | प्रसंग दिया है कि विष दिए जाने से थोडा समय पहले ही एक महाराजा की रानी का देहांत हो गया | कुछ व्यक्ति दूरदर्शिता दिखाते हुए प्रेमपूर्वक कहते हैं कि आप भी थोडा शौक प्रकट करने चले जाएँ | ऋषि कहते हैं कि मैं इस समय सांसारिक बंधन अपने पर कैसे लाद लूँ ? मेरे लिए जीवन व मृत्यु एक सामान है |
इतने वर्ष कैसे जी पाए ?
सत्य का प्रचार करते हुए ऋषि के अनेक विरोधी बन गए | अनेक बार उन्हें विष दिया गया , पत्थर फैंके गए, सांप फैंके गए और न जाने क्या क्या हुआ किन्तु फिर भी वह इतने वर्ष तक जीवित रहे , यह भी एक आश्चर्य है | स्वामी जी को म्रत्यु से लगभग दो वर्ष पूर्व ही अपनी मृत्यु का पूवानुमान हो गया था इस सम्बन्ध में उनहोंने एक पात्र के माध्यम से बारम्बार कर्नाला अल्काट को मेरठ में कहा था कि मैं सन १८८४ का वर्ष कदापि नहीं देख सकता |
जोधपुर का स्वागत
जोधपुर जाते समय २८ मई १८८३ को शाह्पुराधिश को पात्र में लिखा था किबिचके स्टेशनों पर पुकारने पर भी कोई गाड़ीवान अथवा सिपाही नहीं था | यदि ऐसे व्यक्ति हैं तो राजकाज की हनी होगी | स्वामी जी के साथ चारण अमरदास थे | पं. कमलनयन का कथन है कि जाते समय किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति ने स्वामी जी को सचेत करते हुए कहा भी था कि महाराज वहां कुछ नरमी से उपदेश करना क्योंकि वह क्रूर देश है |
गर्ग जी ध्यान से पढ़िए यहाँ लक्षमण जी की कृति का अनुवाद करते हुए जिज्ञासु जी भी लिख रहे हैं कि प्रतिश्याय हो गया था | २९ सितम्बर अर्थात चतुर्दशी की रात्री को धौड मिश्र रसोइये से ( जो शाहपुरा का रहने वाला था ) दूध पीकर सोये | उसी रात उदर शूल तथा जी मिचलाने लगा ……………३० सितम्बर को बहुत दिन निकले उठे | उठते ही पुन: वमन व जोर का शूल होने लगा , दस्त भी होने लगे | संदेह होने पर अजवायन का काढा पीया | वैद्यक वाले बताते हैं कि अजवायन विष का प्रभाव दूर करने के लिए होती है | …..सत्यरूपी अमृत की चर्चा करते करते महर्षि को सांसारिक मनुष्यों से विषपान करना पडा | आह ! वह २९ की रात्री वाला दूध क्या था , मृत्यु का सन्देश था | दूध में चीनी के साथ संखिया को बारीक पिस कर दिया गया था | इस रोग का जुयों ज्यों उपचार किया गया त्यों त्यों बढ़ता गया | गर्ग जी क्या आपने कभी एसा प्रतिश्याय देखा है जो वामन, दस्त व पेट शूल का कारण हो ? नहीं तो फिर एसा झूठ क्यों घड रहे हो ?
इस रोग की जानकारी मिलने पर अच्छे चिकित्सक होते हुए भी अली मरदान खान को चिकित्सा का कार्य सौंप दिया गया | कहते हैं कि वह भी शत्रुओं की टोली का ही भाग था | ……जो ओषध दी गई उसके लिए बताया गया था कि तीन चार दस्त आवेंगे किन्तु रात्री भर तीस से भी अधिक दस्त आ गए तथा दिन में भी आते रहे | दस्तों से स्वामी जी इतने क्षीण हो गए कि उन्हें मूर्च्छा आने लगी | पाच अक्तूबर तक अवस्था यहाँ तक पहुँच गई कि श्वास के साथ हिचकियाँ भी आने लगी | जब स्वामी जी ने छः अक्तूबर को कहा कि अब तो दस्त बंद होने चाहियें तो डाक्टर ने कहा कि दस्त बंद होने से रोग बढ़ने का भय है | बार बार कहने पर भी दस्त बंद न होने दिए गए | इस प्रकार अली मरदान खान की चिकित्सा १६ अक्तूबर तक चली | इस मध्य दस्तों के कारण स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया | मुख , कंठ, जिह्वा, तालू,शिर तथा माथे पर छाले पड़ गए | बोलने में भी कष्ट होने लगा | बिना सहायता के करवट लेना भी कठिन हो गया | चिकित्सा काल में उसका प्रतिपल प्रतिक्षण बढ़ते रहना किसी बिगाड़ उत्पन्न करने वाले पदार्थ का काम था तथा वह किस संयोग से श्री महाराज की काया में जो पूर्ण ब्रह्मचर्य ताप व सुधारणाओं सुघथित था , प्रविष्ट हुआ ?
देश हितैषी पत्र अजमेर
यह पत्र लिखता है कि ”भ्रात्रिवृन्द ! यह विचारने का स्थान है | ण जाने यह किस प्रकार का विरेचन तथा ओषधि थी | इस पर बहुधा मनुष्य कई प्रकार की शंका करते हैं और कहते हैं कि स्वामी जी ने भी कई पुरुषों और महाराजा प्रताप सिंह जी से इस विषय में स्पष्ट कह दिया था , परन्तु अब क्या हो सकता है ? लाख यत्न करो | स्वामी जी महाराज अब नहीं आ सकते | जो हुआ, सो हुआ परन्तु हम को इतनाही शोक है कि स्वामी जी महाराज ने किसी आर्य समाजको सूचित न किया | यदि यह वृत्तांत उस समय जाना जाता तो यह रोग इतनी प्रबलता को प्राप्त न होता |”
जब स्वामी जी का स्वास्थ्य गिरता ही चला गया तो पं. देवदत लेखक तथा लाला पन्नालाल अध्यापक जोधपुर ने स्वामी जी से कहा की यह स्थान छोड़ देना चाहिए | स्वामी जी ने इस संबंधमें महाराज को लिखा | महाराज ने कहा की इस दिशा में यहाँ से जाने से जोधपूर की अपकीर्ति होगी किन्तु स्वामी जी के न मानने पर वह चुप हो गया | स्वामी जी की चिकित्सा शुश्रुषा करने वाले लोग तो वाही जो उनकी मौत ही चाहते थे | यदि जेठमल न जाते तो स्वामी जी का देहांत तो जोधपुर में ही हो जाता और संस्कार की सूचना भी आर्यों को न होती | जेठमल जी ने अजमेर जा कर सभासदों को सूचित किया | पीर जी हकीम को सब बताया , उनहोंने कुछ औशध दि तथा बताया की स्वामी जी को संखिया दिया गया है | (देखें महर्षि का विषपान अमर बलिदान ) पीर जी की ओषध से कुछ लाभ मिला | मूर्छा और हिचकी कम हो गई | हस्ताक्षर करने लगे | आबू में डा. लक्षमण दास जी के उपचार स्वे भी लाभ हुआ | हिचकिया व दस्ता बंद हो गए किन्तु २३ अक्तूबर को त्यागा पत्र देने पर भी कड़ी बरतते हुए अजमेर भेज दिया | मार्ग में मिलाने वालों को आप सजल नेत्रों से स्वामी जी का हाल सुनाते थे | यहाँ से स्वामी जी को अजमेर लाया गया | स्वामी जीके पुरे शारीर पर छले पद गए थे तथा सर्दी में भी गर्मी अनुभव करते थे |
अजमेर आने पर पीर जी ने जांच करके स्पष्ट कहा कि विष दिया गया है | स्वामी जी ने जल पीया , कटोरे में मूत्र किया जो कोयले के सामान काला था | प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी इस जीवन चरित्र के इतिहा दर्पण के अंतगत पृष्ट ६५५ पर लिखते हैं कि
१. ऋषि जब जोधपुर जाने लगे तो सभी शुभचिंतकों ने वहां जाने से रोका | प्राणों के निर्मोही दयानंद ने किसी की एक न सुनी | शीश तली पर रखकर जोधपुर जानेकी ठान ली|
२. ऋषि के जोधपुर पहुँचाने के २६ दिन बाद जसवंतासिह महाराजा जोधपुर दर्शनार्थ पधारे | यह भी एक समझाने वाला तथ्य है |
३. शाहपुरा के श्री नाहर सिंह तथा अजमेर के कई भक्तों ने कहा कि आप वहां जा रहे हैं | वेश्यागमन ,व्यभिचार का खंडन मत करना | यह तथ्य भी सामना रखना होगा |
तथा ऋषि ने इन्हें जो उतर दिया वह भी ध्यान में लाना होगा |
४. महाराजा प्रताप सिंह के जीवन चरित्र में भी स्वामी जी का कहीं वर्णन तक न होना भी इस बात को बल देता है | यहाँ तक कि उनके किसी लेख मेंस्वामी जी का नाम तक नहीं मिलता |
५. सर प्रताप सिंह अंग्रेज का पिट्ठू था , ऋषि भक्त नहीं | अन्ग्रेजने अपने सब से बड़े चाटुकार निजाम हैदराबाद से भी कहीं अधिक उपाधियाँ सर प्रताप सिंह को दीं | ऋषि भक्त पर तो अंग्रेज मोहित नहीं हो सकता था |
६. राजा के सब चाकर आज्ञाकारी और विश्वस्त होते हैं | मह्रिषी तो शाहपुरा के दिए सब चाकरों को निकम्मा बताते हैं | (यह बात ऋषि दयानंद के पात्र और विज्ञापन के पृष्ट ४२२-४२३ पर अंकित है |
७. जिस डा. अलीमर्दान खान से जोधपुर में उपचार कराया गया था , वह चाटुकार तथा तृतीय श्रेणी का सहायक डाक्टर था | उसने जान बुझ कर एसा उपचार किया कि स्वामी जी बच न सकें |
८. ऋषि की रुग्णता का समाचार बाहर न निकालने देना भी उनके दोष का कारण रहा | महर्षि की साड़ी योजना बनाने वाला राजपरिवार मजे से महलों में सोता रहा | स्वामी जी को रोग शैय्या पर छोड़ महाराज प्रताप सिंह घुड दौड़ के लिए पूना चले गए |
९. स्वामी जी को अंतिम समय अजमेर लाने वाले जेठमल जी ने कविता में लिखा रोम रोम में विष व्याप्त हो गया | यह तो साक्षात सत्य है जिसने अपनी आँखों से देखा उसका ही लिखा है |
१०. जब पंडित लेखराम जी स्वामी जी के जीवन की खोजा में जोधपुर गए तो राजा के गुप्तचर छाया की तरह पंडित जी के पोइछे क्यों रहे ? खोज में बाधाक्यों डाली ?
११. सर प्रताप सिह स्वयं कहते थे …….. कोई नन्हीं को भगतन व वैष्णव बताकर सिद्ध्कराने में लगा है तो कोई जोधपुर में विष देने की घटना को सिरे से खारिज कर रहा है | राजपरिवार का एक ट्रस्ट है | उनहोंने मुठ्ठी में कई लेखक कर रखे है | एसा सुनाने में आया है | एक दैनिक में विषपान की घटनाक प्रचारित करने का दोष पंजाब के महात्मा दल पर लगाया गया | लिखा गया की पंडित लेखराम जी का ग्रन्थ छपने लाहौर मांस पार्टी के स्तम्भ प्रताप सिंह की निंदा के लिए यह प्रचार किया गया |
झूठ झूठ ही होता है
जब राजस्थान के एक दैनिक में यह लेख छापा तो राजस्थान के किसी व्यक्ति ने इस मिथ्या कथन का प्रतिवाद नहीं किया | तब प्र. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा की पं. ल्लेख्रम जी का ग्रन्थ छपने से पूर्व जोधपुर में अकाल पड़ा था | तब लाला लाजपत राय जी ने लाला दीवानचंद को जोधपुर सहायता कार्य के लिए भेजा | उस समय सर प्रताप सिंह ने स्वयं जोधपुर में ऋषि जी को विष देने की घटना पर बड़ा दू:ख प्रकट किया था | यह बात लाला दीवानचंद जी की आत्मकथा मानसिक चित्रावली में दी गयी है |इस दीवान चाँद ने दुनिया के नोऊ महापुरुष नामक उर्दू पुस्तक में ऋषि को जोधपुर में विष दिए आने की चर्चा की है नन्हीं को भी वैश्य लिखा है |
१२ राजस्थान के यशस्वी इतिहासकार गौरिश्नकर हिराचंद ओझा ने भी ऋषि के बलिदान का कारण विषपान ही माना है | यह सब दयानंद क्मेमोरेश्ना वाल्यूम के पृष्ट ३७० पर देखें | राधास्वामी मत दयालबाग के गुरु हुजुर जी महाराज भी लिखते हैं कि जसवंत सिंह की बद्खुला तवायफ नन्ही जान |…… नन्ही जान के प्रतिशोध का परिणाम था कि दयानंद के दूध में विष पिस कर शक्कर डाल कर दिया गया और वह घातक सिद्ध हुआ |
१२. अजमेर के हकीम पीर अमाम अली जी ने स्पष्ट कहा था की संखिया दिया गया है |
१३. राजस्थान के तत्कालीन इतिहासकार जगदीश सिंह गहलोत, मुंशी देवी प्रसाद , नैनुरम ब्रह्म्भात्त आदि सब एक स्वर से ऋषि के बलिदान का कारण विष मानते हैं } चाँद के प्रसिद्द मारवाड़ अंक से ऋषि के विषपान के प्रमाण जिज्ञासु जी ने दिए थे |
१४. ऋषि को मारने के षड्यंत्र में कई व्यक्ति सम्मिलित थे | इन में से एक व्यक्ति खुल्लामाखुक्का ऋषि की हलाकत ( हत्या ) का श्रेय लेते हुवे गर्व से लिखता है कि उसे तो अल्लाह से ऋषि के मारे जाने की पहले से जानकारी मिल चुकी थी | मिर्जई मत का पैगम्बर मिर्जा गुलाम अहमद कादियानी ऋषि की हकालत को अपनी नुब्बुवत का आसमानी निशाँ प्रमाण आ था | उसने अपनी आसमानी किताब “हकीकत उल वाही “ के ५१-५२ पृष्ठों की निर्देशिका के पृष्ट २४ पर दो बार मह्रिषी के मरवाने का श्रेय बड़ी शान से लेता है | इस पंथ का पालन पौषण अंग्रेज सर्कार ने किया |
१५. वारहट क्रिशन सिंह जी का जीवन और राजपुताना इतिहास अभी छपा है इस में इस प्रकार लिखा है : ब्राह्मणों ने इनके रसोइदर को मिला कर स्वामी दयानंद सरस्वती को जहर दिलाया |……
१६. डा.भवानी लाल भारतीय जी ने नन्ही को महाराज की उप पत्नि कहा है | यदि इसे सत्य मान लें तो भी जोधपुर महाराज की उपपत्नी के इसा अपराध में शामिल होना सिद्ध होता है क्योंकि सब ने माना है कि एक मुख्य पात्र सबने माना है तो राजपरिवार विष दिए जाने के षड्यंत्र से अलिप्त कैसे हो गया ? यदि वह उप पत्नी थी तो सर प्रताप सिंह ने उसे जसवंत सिंह के निधन पर राजभवनों से उसे क्यों निकलवाया |
१७. श्री राम शर्मा ने कुतर्क दिया की गोपालराव हरी ने ऋषि जीवन में विष देने की चर्चा नहीं की | क्या इससे एक सरकारी अधिकारी किविवाश्ता नहीं दिखाती , जबकि मौके के इतिहासकार जो उस समय जोधपुर व अजमेर में थे , की साक्षी असत्य हो जाती है क्या ?
१८. लाखों की सम्पदा रखने वाली नन्ही पर जब विष देने का आरोप लगाया गया , इस आरोप लगाने वालों में महात्मा मुंशी राम, मास्टर आत्माराम , लक्षमण जी, महाशय क्रिअष्ण जी अदि पर उसने मानहानि का अभियोग क्यों न किया ?
१९. भक्त अमिन्चंद को यह क्यों लिखना पडा :
अमिन्चंद एसा होना कठिन है , धर्म न हारा
कष्ट उठाए , ण घबराये , उय्दी वश खाई ||
महर्षि का विषपान अमर बलिदान में दि कविता की अंतिम पंक्ति इस प्रकार है :
दियो विष हा हा हा स्वामी हमारो चली बसों ||
२० बम्बई की एक मेडिकल संस्था ने भारत सरकार के अनुदान से डा. सी के पारिख का एक ग्रन्थ सिम्पलिफाईड टेक्स्ट बुक आफ मेडिकल ज्युरुपुदेंस एंड टेक्नोलॉजी प्रकाशित करवाया है उसके पृष्ट ६४३,६७३,६७४ पर बड़े विस्तार से विष दिए जाने पर शारीर में होने वाली प्रतिक्रियाओं का वर्णन किया गया है | कोई भी सत्यान्वेषी उन्हें पढ़ कर यही निर्णय देगा कि मह्रिषी जी महाराज के अंतिम दिनोंमें जीना शारीरिक व्याधियों का कष्ट भोगना पड़ा वे सब विष दिए जाने के करण उतपन्न हुईं |
विस्वबंधू शास्त्री तथा श्रीराम शर्मा ,दोनों ही मूलराज को अपना गुरु मानते हैं किन्तु मूलराज जैसे कुटिल ऋषि द्रोही ने मरते दम तक कभी यह नहीं कहा व लिखा कि ऋषि को विष नहीं दिया गया | यहाँ तक कि मह्रसी को विष देने के विरोधी श्रीराम शर्मा द्वारा शोलापुर से प्रकाशित प्री. बहादुर मॉल की एक पुस्तक से विष दिए जाने के प्रमाण प्रकाशित किया| इससे भी उनके दोहरे चरित्र का पता चलता है | होश्यारपुर के विश्वबंधु, सूर्यभान कुलपति की पुस्तकों में भी विषपान की घटना निकला आई | महात्मा हंसराज की एक पुस्तक से भी इस सम्बन्ध में प्रमाण मिला |
प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आर्य जगत के एक सर्वोतम शोध करता हैं | उन्होंने पुस्तक लिखी महर्षि का विषपान अमर बलिदान | इस पुस्तक तथा इससे पूर्व लिखे लेखों के आधार पर श्रीराम शर्मा , लक्शामिदत दीक्षित आदि टिक न सके तो फिर अब गर्ग जी को यह विवादित कार्य फिर से आरम्भ करने की आवश्यकता क्यों हुई तथा इस झूठ को फिर से फैलाने का प्रयास क्यों किया गया तथा यह भी पुन: आर्य जगत में ही क्यों प्फकाषित किया गया ? , इस के पीछे अवश्य कोई साजिश है , इस साजिश का पर्दाफाश होना आवश्यक है ताकि भविष्य में कोई एसा अनर्गल प्रलाप पुन: लाने का साहस न कर सके | ऊपर मैंने जो कुछ लिखा है , वह्सब जिज्ञासु जी की पुस्तक के आधार पर ही लिखा है यदि विस्तार से जानाना चाहें तो इस पुस्तक तथा प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा अनुवाद की गई लक्षमण जी वाली ऋषि जीवन का अनिम भाग अवश्य पढ़ें | यह भी जाने की विष किसने दिया , उसके नाम का निर्णय करना हमारा काम नहीं है , हमारा काम है की वास्तव में विष दिया गया या नहीं | मुद्दे से न भटकते हुए विषपान तक ही सिमित रहते हुए जाने तो पता चलता हैकि स्वामी जी की म्रत्यु का कारण वास्तव में विषपान ही था जो जोधपुर राजघराने में एक साजिश के तहत दिया गया और इस साजिश में बहुत से लोग यहाँ तक कि अंग्रेज भी शामिल था |
डा. अशोक आर्य
१०४ शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी, २०१०१० गाजियाबाद
दूरभाष 01202773400 , 09718528068