परमात्मा का स्वरुप

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परमात्मा – अर्थात परम याने पूज्यनीय,आत्मा याने सर्वत्र उपलब्ध पूरा अर्थ है, जो पूजने लायक है, उपासना के योग्य है उस जैसा दूसरा कोई नहीं | आत्मा का दूसरा भी अर्थ है – जो सर्वत्र विचरण करता है, यह दोनों ही अर्थ एक दूसरे के विपरीत है और किसी भी एक तत्त्व में विपरीत योग्यता नहीं हो सकती | व्यापक भी होना और विचरण भी करना ऐसा नहीं हो सकता, इसलिए आत्मा दो है – एक आत्मा परमात्मा कहलाता है, जो व्यापक है और दूसरा जीवात्मा कहलाता है जो विचरण करता है जन्म – मृत्यु के द्वारा अनंत जन्मो में और लाखो योनियों में विचरता है |

 

परमात्मा सर्वत्र व्यापक है, उससे रहित यहाँ न कोई वस्तु है, न कोई स्थान रिक्त ( वास्तव में “स्थान” नाम से यहाँ यह कहना है की रिक्त कुछ नहीं है ) है | परमात्मा सीमा रहित, अखंड, एक रस, एक रूप, अर्थात कही कोई छेद नहीं है, उसमे कोई बदलाव नहीं, उसका कोई परिणाम नहीं, उसका कोई परिमाण नहीं | न वह घटता है न वह बढता है | न वह सुक्ष्म है और न वह स्थूल है | परमात्मा किसे कहा है, वह कैसा है इस बात को समझना ( पर समझना जरा कठिन ही है ) है | तो हम इसे ऐसा समझ सकते है, की जो अनंत सृष्टि का पसारा है, अर्थात यह करोडो सूर्य मंडल, आकाश गंगाये जिसमे बनती बिगड़ती है जिसको सब,जगह कहते है | वास्तव में वह जगह नहीं है परमात्मा ही है | उस परम आत्मा में ऐसी विशेषता है, की वह इस सृष्टि के मूल  परमाणुओं को नित्य क्रियाशील रखता है, गति प्रधान करता है | अर्थात उसके ही कारण ये मूल परमाणु गति करते है और इस स्रष्टि का निर्माण और विनाश होता है | क्योंकि विरोधी शक्ति रहे बिना क्रिया संभव नहीं | कोई दो रहे बिना निर्माण संभव नहीं, और विनाश भी संभव नहीं |

 

स्व का स्व पे कोई असर नहीं होता इसलिए दो सिद्ध होते है | जैसे स्त्री-पुरुष के मिलन से संतान का निर्माण होता है ऐसे ही परमात्मा और प्रकृति ( मूल प्रकृति ) से ब्रह्मांडो का निर्माण-विनाश नित्य होता रहता है, जैसे यह सम्बन्ध नित्य है, तो सृष्टि रूपी कार्य भी नित्य है | उत्पत्ति और विनाश परस्पर विरोधी कार्य नहीं है, विनाश का अर्थ है अपने कारण मूल में जाना और फिर निर्माण होना | इसलिए इसे विशेष नाश कहा है सर्वथा नाश नहीं, यही सृष्टि का चक्र है | चक्र में जैसा कोई छोर नहीं होता, शुरवात या अंत नहीं होता वैसे ही यह सृष्टि रूपी चक्र है जो घूमता है | यही सुक्ष्म रूप परमाणु स्थूल रूप में आते है और फिर सुक्ष्म रूप में जाते है क्योंकि यही इनकी योग्यता है | ऐसी योग्यता परमाणुओं में नहीं होती तो यह रचना भी संभव न  होती, क्योंकि परमात्मा किसी के सामर्थ्य को बढाता भी नहीं और घटाता भी नहीं, यह तो प्रकृति में ही योग्यता है की वह परमात्मा के नित्य संपर्क से या स्पर्श से या संभंध से नित्य क्रियाशील बनी हुई है |

 

वास्तव में ऐसी कोई जगह यहाँ खाली नहीं है | जिसे हम खाली जगह समजते है या कहते है ( जिसमे इन ब्रह्मांडो का निर्माण और विनाश हो रहा है ) | कोई उसे शुन्य कहता है, वास्तव में वह परमात्मा ही है | परमात्मा कोई दो हाथ और दो पैर वाला नहीं, कही उसका कोई दरबार नहीं | वह एक ऐसा विशेष पदार्थ है, जिसे किसी भी तरह से देखा नहीं जा सकता, सुना नहीं जा सकता, स्पर्श नहीं किया जा सकता, चखा नहीं जा सकता, पकड़ा नहीं जा सकता | वह तो सिर्फ और सिर्फ बुद्धि से ही जाना जा सकता है, तर्क से ही जाना जा सकता है, शुद्ध विचारों से ही जाना जा सकता है, की सृष्टि से परे, मूल जड़ परमाणुओं से परे ऐसा कोई तत्व है जो इन जड़ परमाणुओं को क्रिया दे रहा है और इन ब्रह्मांडो को धारण कर रहा है | इस जड़ संसार से परे कोई शक्ति है जो इसे निरंतर गतिशील रख रही है | मै फिर से कहता हू की संसार का नियम है, की विरोधी दूसरी शक्ति रहे बिना उत्पन्न की क्रिया संभव नहीं | यही नियम मूल तक कार्य करता है, या यु कहिये जो मूल में कार्य कर रहा है वही ऊपर  प्रगट हो रहा है | उत्पत्ति के लिए दो या दो से ज्यादा तत्वों की आवश्यकता होती है | अकेला क्या कोई उत्पन्न करेंगा, चाहे जड़ हो या चेतन इसमें से किसी का खुद पर क्या असर होंगा असर तो एक का दूसरे पर होंगा और परिवर्तन होता है | संसार में कोई एक भी उदाहरण ऐसा दे सकता है की स्व का स्व पर असर होता हो ? आज का विज्ञानं भी ऐसी कोई क्रिया साबित नहीं कर सकता | न ऐसा कोई उदहारण मौजूद है | विरोधी शक्ति को, आश्रय की आवशयकता होती ही है, इसके बिना कोई भी कार्य संभव नहीं | ऐसे हम कैसे कह सकते है, की मूल में एक ही है कोई दो नहीं | क्या एक बिना किसी सहारे के बिना किसी दूसरे के कारण अनेक हो सकते है ? और यह जो दूसरा है वही परमात्मा है और खास बात वह दूसरा व्यापक ही हो सकता है एक देशी नहीं | मूल कण सर्वत्र है तो उसे गति देनेवाला भी सर्वत्र होना चाइये और जो उसके भीतर भी हो और बाहर भी तब ही तो कण क्रियाशील होंगे |  कण के भीतर और बाहर होने से उसकी व्यापकता सिद्ध होती है | सर्वव्यापक ही सर्वत्र कणों को गति दे सकता है, क्रियाशील रख  सकता है | संसार के इस रूप को, आकार को, सुंदरता को, निर्माण करने की या बिजो की योग्यता स्वयं प्रकृति में है |

 

परमात्मा को माने बिना, समझे बिना इस सृष्टि की पहेली भुज नहीं सकती, इस प्रश्न का हल नहीं हो सकता, परमात्मा को समझे बिना पूर्णता को पा नहीं सकता | परमात्मा को समझे बिना प्रकृति को कोई समझ नहीं सकता | जो मूल परमाणु है वह अव्यक्त होते है वही अव्यक्त परमाणु परमात्मा के संभंध से गतिशील होकर इस संसार रूप में व्यक्त होते है | अव्यक्त से व्यक्त, व्यक्त से अव्यक्त इसका जो मूल कारण है वही परमात्मा है | जो सदा अव्यक्त रहता है |

 

2 thoughts on “परमात्मा का स्वरुप”

  1. Jo manav krodh me ya ya dukhi hoker atmhatya karlete h ya jinki hatya kar di jati h vo atma kitne din baad janm leti h

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