आर्यसमाज की अन्तर्राष्ट्रीय संस्था-’सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा‘ के मुखपत्र ’सार्वदेशिक‘ का उसके जन्म काल (1927) से ही सम्पादन कर रहे, पं0 रघुनाथ प्रसाद पाठक (1901-1985) ने श्री डॉ0 अम्बेडकर के धर्म परिवर्तन पर अपनी सम्पादकीय टिप्पणी अंकित करते हुए उन्हें अपने निश्चय पर पुर्नविचार करने का सुझाव दिया था। श्री पाठकजी की टिप्पणी का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है-
’गत अक्टूबर (1956) में श्रीयुत डॉ0 अम्बेडकर ने दो लाख दलितों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म को स्वीकार किया। इस समाचार में हिन्दू जगत् में सनसनी फैल जाना स्वाभाविक था। और सनसनी फैली भी। डॉ0 अम्बेडकर पढ़े-लिखे, समझदार और देश के एक प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। यदि वे अकेले बौद्धमत से प्रभावित होकर उसमें दीक्षित होते, तो समाज को कोई विशेष चिन्ता न होती, परन्तु उनके साथ वे अधिकांश व्यक्ति दीक्षित हुए हैं, जिन्हें बौद्धमत का थोड़ा भी परिज्ञान नहीं है, इसलिए उनके धर्म परिवर्तन में हृदय की प्रेरणा न होने से वह स्वेच्छया धर्म परिवर्तन नहीं कहा जा सकता।‘
हमें भय है कि कहीं यह धर्म परिवर्तन राजनैतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रयुक्त न हो जाए। यदि ऐसा हुआ तो बौद्ध धर्म बने हुए ये लोग बौद्ध मत के अपयश का कारण बन जाएँगे। एक भय और भी है और वह यह कि उन नव बौद्धों के साथ अब भी मुख्यतया ग्रामों में अस्पृश्यों जैसा ही व्यवहार होगा। उनकी स्थिति में सुधार होना तो एक ओर उल्टे बौद्ध मत को जात-पाँत की एक नई बीमारी लग जाएगी।
अस्पृश्यता के निवारण का उपाय यह है कि सवर्णों के हृदयों में से प्रशिक्षण तथा समय की गति की पहचान के द्वारा अस्पृश्यता की भावना निकल जाए, और अस्पृश्यों के हृदयों में अपने को हेय समझने की मनोवृत्ति नष्ट हो जाए, इसलिए धर्म और विवके से काम लेने की आवश्यकता है। यह कार्य धीरे-धीरे हो रहा है और दोनों की ही मनोवृत्तियों में उत्तम परिवर्तन हो रहा है। आर्यसमाज इस कार्य में मार्ग-दर्शन कर रहा है। कांग्रेस ने अस्पृश्यता को कानूनी अपराध ठहरा दिया है।
इस प्रकार के सामूहिक परिवर्तन से न तो हिन्दुओं की मनोवृत्ति बदल सकती है और न अस्पृश्यों की स्थिति ठीक हो सकती है, अतः इनसे लाभ की अपेक्षा हानि की अधिक आशंका है, अस्पृश्य कहे जाने वाले भाइयों को अपने हित-अहित के प्रति सावधान रहना चाहिए, और अपने को भेड़-बकरी न बनने देना चाहिए। राजनीतिज्ञों की चाल का मुहरा बन जाने से उन्हें पहले ही लाभ की अपेक्षा सामूहिक हानि अधिक हुई है, और यदि वे सावधान न रहें तो और भी भयंकर हानि हो सकती है।
अन्त में हम यह प्रार्थना और आशा कर रहे हैं कि डॉ0 अम्बेडकर अपने निश्चय पर पुनर्विचार करेंगे। वे हिन्दुओं के हृदय परिवर्तन का ही काम हाथ में ले लें, तो बड़ी सफलता प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि उनके व्यक्तित्व और विद्वता के प्रति सवर्ण हिन्दुओं में आदर है। (सार्वदेशिक: मासिक, दिसम्बर 1956: पृष्ठ 511-512)