पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि जितने भी संसार में प्राणी हैं, सब अपने-अपने स्वभाव भोजन को भली-भांति जानते तथा पहचानते हैं । अपने भोजन को छोड़कर दूसरे पदार्थों को सर्वथा अभक्ष्य समझते हैं, उनको न देखते हैं, न सूंघते हैं । अतः अपने आपको सब प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ समझने वाले इस मनुष्य से तो सभी अन्य प्राणी ही अच्छे हैं । जैसे जो पशु घास आदि चारा खाते हैं, वे मांस की ओर देखते भी नहीं और जो मांसाहारी पशु हैं, वे घासफूस की ओर खाने के लिये दृष्टिपात तक नहीं करते । उसी प्रकार कन्दमूल और फलफूल भक्षी प्राणी इन पदार्थों को छोड़कर घास-फूस नहीं खाते । इसी प्रकार पेय पदार्थों की वार्ता है । भयंकर से भयंकर प्यास लगने पर भी कोई पशु मद्य, शराब, सोडावाटर, चाय, काफी और भंग आदि नहीं पीते । परन्तु यह अभिमानी मनुष्य संसार का एक विचित्र प्राणी है, इसको भक्ष्य-अभक्ष्य का कोई विचार नहीं, पेय-अपेय की कोई मर्यादा नहीं । यह खान-पान में सर्वथा उच्छृंखल है, खानपान में इसका कोई नियम नहीं । यह सर्वभक्षी बना हुवा है । पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि सबको चट कर जाता है । इसका उदर (पेट) सभी प्राणियों का कब्रिस्तान बना हुआ है । निरपराध निर्बल प्राणियों को मारकर खाने में इसने न जाने कौन सी वीरता समझ रक्खी है । राष्ट्रीय कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी पुस्तक भारत-भारती में इसका अच्छा चित्र खींचा है –
वीरत्व हिंसा में रहा जो मूल उनके लक्ष्य का,
कुछ भी विचार उन्हें नहीं है आज भक्ष्याभक्ष्य का ।
केवल पतंग विहंगमों में, जलचरों में नाव ही,
बस भोजनार्थ चतुष्पदों में चारपाई बच रही ॥
अर्थात् जो अपने शत्रुओं का वध (हिंसा) युद्ध में करके अपनी वीरता दिखाते थे, आज वे भक्ष्याभक्ष्य का कुछ विचार न करके निर्दोष प्राणियों को मारकर अभक्ष्य भोजन करने के लिये अपनी वीरता दिखाते हैं । पापी मनुष्य ने सब प्राणी खा लिये । केवल आकाश में उड़ने वालों में कागज के पतंग, जल में रहने वालों में लकड़ी की नाव और चौपाये पशुओं में केवल चारपाई को यह नहीं खा सका । यही इसके भक्ष्य नहीं बने । इन तीनों को छोड़कर शेष सबको इसने अपने पेट में पहुंचा दिया । इसी के फलस्वरूप मनुष्य सभी प्राणियों की अपेक्षा अधिक रोगी वा दुःखी रहता है ।
महर्षि दयानन्द जी ने इस सत्य को इस प्रकार प्रकट किया है –
“क्योंकि दुःख का पापाचरण और सुख का धर्माचरण मूल कारण है । जो कोई दुःख को छुड़ाना और सुख को प्राप्त होना चाहें वे अधर्म को छोड़, धर्म अवश्य करें । क्योंकि जिन मिथ्या भाषणादि पापकर्मों का फल दुःख है उनको छोड़ सुख रूप फल को देने वाले सत्यभाषणादि धर्माचरण अवश्य करें ।”
महर्षि दयानन्द जी ने दुःख का कारण असत्य भाषणादि कर्मों को लिखा है । अहिंसा का स्थान यमों में सत्य से प्रथम है । क्योंकि –
“तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः”
अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी त्याग), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – पांच यमों में महर्षि योगिराज पतञ्जलि ने अहिंसा को सर्वप्रथम स्थान दिया है । इसे सार्वभौम धर्म माना है ।
महर्षि दयानन्द जी ने बहुत बलपूर्वक लिखा है –
“जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आके गौ आदि पशुओं को मारने वाले मद्यपानी राज्याधिकारी हुये हैं तब से क्रमशः आर्यों के दुःख की बढ़ोतरी होती जाती है ।”
“जब आर्यों का राज्य था तब ये महोपारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे, तभी आर्यावर्त वा अन्य भूगोल देशों में बड़े आनन्द में मनुष्य आदि प्राणी वर्तते थे ।”
क्योंकि सभी पृथिवी के मनुष्य वेदाज्ञा तथा ऋषियों के धर्मोपदेशानुसार चलते थे । इसीलिए सुखस्य मूल धर्मः सुख का मूल धर्म है, महर्षि चाणक्य की इस आज्ञानुसार धर्माचरण करने से सब सुखी थे, रोगरहित और पूर्ण स्वस्थ थे । स्वस्थ मानव ही पूर्णतया सुखी होता है । स्वस्थ रहने के लिये ऋषियों ने भोजन के विषय में तीन नियम बनाये हैं ।
एम बार ऋषियों की शरण में जाकर किसी ने जिज्ञासा की और तीन बार प्रश्न किया कि रोग रहित पूर्ण स्वस्थ कौन रहता है ?
प्रश्न – “कोऽरुक्, कोऽरुक्, कोऽरुक्”
उत्तर – “ऋतभुक्, हितभुक्, मितभुक्”
कौन नीरोग रहता है ? कौन नीरोग रहता है ? कौन नीरोग रहता है ?
उत्तर (१) जो धर्मानुसार भोजन करता है, (२) हितकारी भोजन करता है, (३) और जो मितभोजन – भूख रखकर अल्पाहार करता है, वह सर्वथा रोगरहित और पूर्ण स्वस्थ वा सुखी रहता है ।
मांसाहार कभी धर्मानुसार मनुष्य का भोजन नहीं हो सकता । मांसाहारी ऋतभुक् नहीं हो सकता क्योंकि बिना किसी प्राणी के प्राण लिये मांस की प्राप्ति नहीं होती और किसी निरपराध प्राणी को सताना, मारना, उसके प्राण लेना ही हिंसा है और हिंसा से प्राप्त हुई भोग की सामग्री भक्ष्य नहीं होती । महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं – “जितना हिंसा और चोरी, विश्वासघात, छलकपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है, वह अभक्ष्य और अहिंसा, धर्मादि कर्मों से प्राप्त होकर भोजनादि करना भक्ष्य है ।”
(२) हितभुक् – जो हितकारी पदार्थों का भोजन करता है, वह हितभुक् सदा स्वस्थ रहता है ।
(३) जो भूख रखकर थोड़ा मिताहार करता है, वह पूर्ण स्वस्थ होता रहता है । इस विषय में महर्षि दयानन्द जी सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं –
“जिन पदार्थों से स्वास्थ्य, रोगनाश, बुद्धिबल, पराक्रमवृद्धि और आयुवृद्धि होवे, उन तण्डुल, गोधूम, फल, मूल, कन्द, दूध, घी, मिष्ट आदि पदार्थों का सेवन यथायोग्य पाक मेल करके यथोचित समय पर मित आहार भोजन करना, सब भक्ष्य कहाता है । जितने पदार्थ अपनी प्रकृति से विरुद्ध विकार करने वाले हैं, उन उन का सर्वथा त्याग करना और जो जो जिसके लिये विहित हैं, उन उन पदार्थों का ग्रहण करना यह भी भक्ष्य है ।”
अतः जो पदार्थ हिंसा से किसी को सताकर, मारकर, छल कपट, अधर्म से प्राप्त हों, उनका कभी सेवन नहीं करना चाहिये । ईश्वर सभी प्राणियों का पिता है । सब उसके पुत्र तुल्य हैं, वह सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य को अपने पुत्र पशु पक्षी आदि की हिंसा करके खाने की आज्ञा कैसे दे सकता है, तथा अपने पुत्रों की हिंसा से कैसे प्रसन्न हो सकता है ? महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं –
“क्या एक को प्राण कष्ट देकर दूसरों को आनन्द कराने से दयाहीन ईसाइयों का ईश्वर नहीं है ? जो माता पिता एक लड़के को मरवाकर दूसरे को खिलाते तो महापापी नहीं हो ? इसी प्रकार यह बात है क्योंकि ईश्वर के लिये सब प्राणी पुत्रवत् हैं, ऐसा न होने से इनका ईश्वर कसाईवत् काम करता है और सब मनुष्यों को हिंसक भी इसी ने बनाया है ।” – सत्यार्थप्रकाश
वे आगे लिखते हैं –
“जिसको कुछ दया नहीं और मांस के खाने में आतुर रहे वह बिना हिंसक मनुष्य के कभी ईश्वर हो सकता है ? मनुष्य का स्वाभाविक गुण दया है और दयाहीन हिंसक होकर ही मनुष्य मांस
खाने के लिये अन्य प्राणियों के प्राण लेता है तथा इसको मांस खाने को मिलता है । मांसाहारी अपने इस स्वाभाविक गुण दया, प्रेम, सहानुभूति को तिलाञ्जलि देकर शनैः शनैः सर्वथा अत्याचारी, निष्ठुर, निर्दयी, कसाई बन जाता है । फिर उन को हजारों पशुओं के गले को छुरी से काटते हुए तनिक भी दया नहीं आती ।”
मनु जी महाराज ने तो आठ कसाई लिखे हैं –
अनुमन्ता, विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥५१॥
सम्मति देने वाला, अंग काटने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला, खाने वाले – ये सब घातक हैं । अर्थात् मारने वाले आठ कसाई होते हैं । ऐसे हिंसक कसाई अधर्मियों के लोक परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं । मनु जी लिखते हैं –
योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया ।
स जीवंश्च मृत्श्चैव न क्वचित् सुखमेधते ॥
जो अहिंसक निर्दोष प्राणियों को खाने आदि के लिये अपने सुख की इच्छा से मारता है वह इस लोक और परलोक में सुख नहीं पाता । क्योंकि पापी अधर्मी को कभी सुख नहीं मिलता । पाप का ही तो फल दुःख है । हिंसक से बढ़कर पापी कोई नहीं होता । इसलिये अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा को परम धर्म कहा है और इसीलिये यमों में अहिंसा का सर्वप्रथम स्थान है ।
नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित् ।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ॥
प्राणियों की हिंसा किये बिना मांस उत्पन्न नहीं होता है अर्थात् मांस की प्राप्ति नहीं होती और प्राणियों का वध वा हिंसा स्वर्गकारक नहीं है अर्थात् दुःखदायी है । निरपराध प्राणियों के प्राण लेकर अपने पेट को भरना अथवा अपनी जिह्वा का स्वाद पूर्ण करना घोर अन्याय और महापाप है और पाप का फल दुःख है । सभी महापुरुषों, सन्त-साधु, महात्माओं तथा धार्मिक ग्रन्थों में मांसाहार की निन्दा की है तथा इसे वर्जित तथा निषिद्ध ठहराया है ।