निश्चिन्त सिद्धांत

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निश्चित सिद्दांत

 

१. किसी भी तत्व में परस्पर विरोधी गुण नहीं होते है |

 

२. किसी एक तत्व का स्वयं पर बिना किसी दुसरे तत्व के परिणाम नहीं होता |

 

३. किसी भी तत्व को स्वयं के स्वरूप (गुणों) की प्रतीति नहीं होती |

 

४. जड़ तत्व को स्वयं की या किसी दुसरे तत्व की अनुभूति नहीं होती है ! जिसे अनुभूति होती है वह तत्व चेतन  है |

 

५. जिस वस्तु का सर्वथा अभाव है उस वस्तु का कभी भाव नहीं हो सकता |

 

६. कोई भी मूल तत्व अपने गुणों (स्वभाव) का त्याग नहीं करता है |

 

७. कोई भी तत्व अपने स्वाभाविक गुणों (स्वभाव) का त्याग करता है, तो वह तत्व अपना अस्तित्व अथवा स्वरूप खो देता है |

 

८. व्यापक तत्व का अंष नहीं हो सकता ,क्यों की अंष होने के लिए कही जगह नहीं है |

 

९. किसी भी तत्व में उस तत्व से सुक्ष्म तत्व रह सकता है या रहता है पर स्थूल तत्व नहीं रह सकता |

 

१०. जिस तत्व का भाव है,उस तत्व का सर्वथा कभी अभाव नहीं हो सकता |

 

११. कारण के गुणों का या स्वभाव का कार्य में अभाव नहीं होता |

 

१२. जिस वस्तु का सर्वथा अभाव है,उस वस्तु का कभी भ्रम नहीं होता और उस वस्तु का कभी स्वप्न भी नहीं आता है |

 

१३. एक मूल तत्व में दुसरे मूल तत्व का मिश्रण(एकाकार)नहीं हो सकता है |

 

१४. किसी (जड़ या चेतन) मूल तत्व का कभी सर्वथा नाश नहीं होता | जड़ का अपने कारण में लय होता है और चेतन एकरूप,अपरिवर्तनशील रहता है |

 

१५. किसी भी प्राणी के स्वयं के विचारो (भाव) के कारण उसकी संतति में आकृति परिवर्तन नहीं होता है | जाती भले ही नष्ट हो जाये पर किसी प्रकार का असाधारण परिवर्तन नहीं आता है |

 

१६. प्रत्येक कार्य अपने योग्य कारण से उत्पन्न होता है , शुन्य में से नहीं या दुसरे वस्तु से नहीं | जैसे तिल से ही तेल निकलता है रेत से नहीं |

 

१७. जो मूल कारण होगा वह निश्चित रूप से अव्यक्त होगा | यदि उसे व्यक्त कहा जाय तो वह मूल कारण नहीं माना जा सकता | कार्य रूप में परिणित होना व्यक्त का स्वरूप है  |

 

१८. किसी भी प्राणी को भोग प्राप्ति की तीव्र इच्छा होती है और यह तीव्र इच्छा होना ही प्रमाणित करता है की भोग तत्व से इच्छा करनेवाला तत्व दूसरा है,क्यों की भोग स्वयं का नहीं हो सकता |

 

१९. कोई भी ऐसा पदार्थ जिसका किसी रूप में विश्लेषण अथवा विच्छेदन हो सकता हो वह तत्व मूल तत्व होना संभव नहीं | वह अवश्य किन्ही तत्वों अथवा अवयवो के संगठन का परिणाम कहा जा सकता है |

 

२०. जन्मांद व्यक्ति को कभी रूप का स्वप्न नहीं आता है |

 

२१. कोई भी तत्व स्वयं के स्वरूप का भोक्ता नहीं होता है | भोग से भोक्ता अन्य तत्व ही होता है |

 

२२. जो कर्ता है वाही भोक्ता है |

 

२३. भ्रम और स्वप्न से किसी वस्तु की उत्पति नहीं होती है ,यह प्रत्यक्ष देखा जाता है |

 

२४. व्यक्ति के स्वप्न का आधार जाग्रत अवस्था में देखि हुई वस्तु ही होती है | स्वप्न की यह वस्तुए अस्त-व्यस्त होते हुए भी जाग्रत में देखे हुए का ही प्रतिभिम्ब है |

 

२५. एक व्यक्ति की अनुभूति से अथवा तृप्ति से दुसरे व्यक्ति या अर्थात आत्मा की तृप्ति या अनुभूति नहीं होती |

 

२६. किसी प्रमाण,तर्क,या दृष्टान्त के आधार पर यह सिद्ध नहीं किया जा सकता, की कोई मूल तत्व स्वयं किसी रूप या कार्य में परिणित हो जाये |

 

२७. ब्रह्मांडो की उत्पत्ति से पहले किसी भी तत्व का अस्तित्व नहीं था और यह जगत शुन्य में से निर्मित हुआ, ऐसा विचार किसी तर्क या प्रमाण से सिद्ध नहीं किया जा सकता |

 

२८. एक मात्र तत्व ही उपादान,वही निमित ,वही कार्य,वही कारण,वही जड़ और वही चेतन आदि.. ऐसा किसी भी तर्क या प्रमाण से सिद्ध नहीं किया जा सकता |

 

२९. कोई भी कार्य अथवा विकार बनता और बिगड़ता रहता है |

 

३०. चट्टानों या अन्य पदार्थो का संयोग और वियोग यह सिद्ध कर्ता है की जगत का भी संयोग और वियोग होता है क्यों की जगत छोटे छोटे परमाणु से बना सिद्ध होता है |

 

संसार में कोई ज्ञात तत्व स्वत: परिणित होते नहीं देखा जाता है |

 

३१. जिसे ज्ञान होता है, प्रतीति होती है,जो प्रयत्नशील है,जिसे सुख दुःख की अनुभूति होती है उसे आध्यात्मिक भाषा में आत्मा कहते है और जिसे ऐसे प्रतीति नहीं होती है उसे जड़ कहते है|

 

३२. कोई भी मूल तत्व स्वत: कार्य रूप में परिणित होने में असमर्थ है | अत: उसे कार्य रूप में परिणित होने में एक चेतन के प्रेरणा चाहिए |

 

३३. कोई भी अनुभव चेतन (आत्मा) के होने का प्रमाण है | चेतन के अस्तित्व के बिना अनुभव हो ही नहीं सकता |

 

३४. प्रत्येक वस्तु की सत्ता अथवा असत्ता का तथा उनके स्वरुप का निश्चय प्रमाणों के द्वारा किया जा सकता है इस तरह से मूल तत्व तक पंहुचा जा सकता है |

 

३५. कार्य कारण परंपरा से विचार करते हुए मूल तत्व तक पंहुचा जा सकता है |

 

३६. दुःख किसी तत्व का स्वाभाविक गुण नहीं है , दुःख प्रतिकूल परिस्तित्यो से उत्तपन होता है अथवा प्रतिकूल परिस्तिती दुखदायी होती है |

 

३७. एक आत्मा (जीवात्मा) को दुसरे आत्मा की अनुभूति शरीर के माध्यम से होती है अन्यथा नहीं हो सकती है |

 

३८. अँधियारा या अँधेरा कोई तत्व नहीं है,जहा प्रकाश का अभाव है उसे अँधियारा या अँधेरा कहते है |

 

३९. किसी भी कार्य का अस्तित्व कारण को छोड़कर अतिरिक्त पृथक नहीं हो सकता |

 

४०. दुःख की प्रतीति और उसकी निवृति के लिए प्रयत्न चेतन तत्व अर्थात जीवात्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को सिद्ध करता है |

 

४१. अगर चेतना अर्थात आत्मा प्रकृति के विशेष अवस्था से उत्पन्न हुई होती, तो उसे प्रकृति से उत्पन्न होने वाले दुःख की प्रतीति न होती और वह उससे छुटने का प्रयत्न न करता |

 

४२. कोई भी परिणामी तत्व अपने लिए किसी प्रयोजन को सिद्ध नहीं करता है | और प्रत्येक परिणामी तत्व अचेतन है | इससे सिद्ध होता है की परिणामी तत्व किसी दुसरे परिणामी तत्व का अनुमान कराता है,जिसके लिए उस परिणामी तत्व का अस्तित्व है |

 

४३. जैसे शरीर के रहते हुए रोज नहाने से भी शरीर मल नाश्ता नहीं होता| ऐसे ही कामना के रहते हुए दुःख नष्ट नहीं होता |

 

४४. संसार का हर प्राणी इस संसार का भोग अपनी शारीरिक रचना और अपनी बुद्धि अनुसार अलग अलग भोग करता है | दुःख सुख का अनुभव करता है,पर एक का दुःख सुख दूसरा अनुभव नहीं कर सकता | इससे यह सिद्ध होता है की हर देह का आत्मा अलग है,सब देह का आत्मा एक नहीं प्राणी रूप से अनेक है |

 

४५. कोई भी परिणामी तत्व अपने मूल उपादान के बिना नहीं हो सकता यह नियम है |

 

४६. कोई भी कार्य अस्तित्व में आने से पहेले अपने कारण में लिन रहता या विद्यमान रहता है |

 

४७. चित्त वृतियो का निरोध होना ही “ध्यान” है. सास की फु फा नहीं |

 

४८. प्रत्येक व्यक्ति “मै हु” इस सोच से आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करता है | मिट्टी,अग्नि,जल इत्यादि तत्व नहीं कहते मै हु |

 

४९. यदि अचेतन प्रकृति कल्पना मात्र है, उसकी वास्तविक सत्ता कुछ भी नहीं है तो जीवात्मा के भोग,तृप्ति,मुक्ति,प्रयत्न,आदि भी यहाँ संभव नहीं |

 

५०. पहेले संभंध,संभंध से इच्छा,इच्छा के बाद संकल्प,संकल्प के बाद प्रवृति!इसी क्रम से मनुष्य कर्म करने में प्रवृत होता है |

 

 

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