नवजीवन-उत्पादक वैदिक शिक्षाये
लेखक – श्री डॉक्टर केशवदेव शास्त्री
भारतवर्ष की प्राचीन संस्कृति का प्रधान अंक ब्रह्मचर्य की शिक्षा था | ब्रह्मचर्य पर ही संस्कारो का आधार था | ब्रहमचर्य पर ही योग की ऋषि सिद्धियो का दारोमदार था | समय था जब विश्वास पूर्वक ऋषि महर्षि ब्रह्मज्ञान के जिज्ञासुओ को ब्रह्मचर्य के धारण करने और तदन्तर प्रश्नों के उत्तर मांगने का आदेश दिया करते थे | समय की निराली गति ने भारत वर्ष के निवासियों की वह दुर्दशा की कि जंहा नित्य प्रति लोग ब्रह्मचर्य के गीत गाते थे, वाही बाल विवाह का शिकार बन रहे है | सुश्रुत में बताया है कि यदि २५ वर्ष से न्यून आयु का पुरुष और १६ वर्ष से न्यून कि कन्या विवाह करेंगे तो प्रथम तो कुक्षि में ही गर्भ कि हानि होंगी | यदि बालक उत्पन्न हो भी जावे तो चिरकाल पर्यंत जीवेंगा नहीं और यदि जीता भी रहा तो दुर्बलेन्द्रिय होंगा |
पाठक गण ! विचारिये, आज हमारी क्या स्तिथि है ? क्या लाखो बालक बालिकाये शिशु जीवन धारण कर मर नहीं रहे और यदि जीते भी है तो करोडो नर नारी दुर्बलेन्द्रिय बन रोगों में ग्रसित दिखाई देते है | कितनी बार हम लोगो ने इन जातीय त्रुटियों पर आंसू बहाये है परन्तु निदान ही जब भूल युक्त हो तो लाभ कि आशा कैसे हो सकती है ?
वेद ने तो स्पष्ट कहा है कि :-
ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम |
अंडवान ब्रह्मचर्य्येणाश्वो घासम जिघिर्षति ||
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकार केवल ब्रह्मचारी पुरुष और ब्रह्मचारिणी कन्या को ही प्राप्त है |
शाकभोजी बैल और घोड़े ब्रह्मचर्य कि शक्ति द्वारा बोझ को खींचते और विजय को प्राप्त करते है | जब पशु ब्रह्मचर्य कि महिमा से कितनी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति कर सकते है, इसका कोई परिमाण नहीं | वेद में तो दर्शाया है कि कोई राजा योग्य व्यक्ति बन उतमता से राज्य भी नहीं कर सकता जो पूर्ण ब्रह्मचारी न हो | यथा :-
ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति |
आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिछ्ते ||
ब्रह्मचर्य और तपस्या द्वारा राजा राज्य की विशेष रीति से रक्षा करता है और आचार्य ब्रह्मचर्य द्वारा ब्रह्मचारी तथा तपस्वी होना चाइये तभी उसमे रक्षक की क्षमता उत्पन्न हो सकती है |
जो महात्मा आचार्य बनना चाहे उसे प्रथम स्वयं ब्रह्मचारी बनना उचित है | ब्रह्मचर्य की वृति से वह मेधावी बन ब्रह्मज्ञान का उपदेश कर सकता है |
ब्रह्मचर्य का किसी समय इतना प्रचार था कि इस देश में आने वाले महापुरषों ने इस शिक्षा का प्रचार सर्वत्र भूगोल में कर दिया था | आर्यो का तो ब्रह्मचर्य में यहाँ तक विश्वास था कि प्रत्येक तपस्वी ब्रह्मचर्य को धारण करता और म्रृत्यु पर विजय पाने की कामना किया करता था |
अथर्ववेद के इसी अध्याय में वर्णित है कि-
इन्द्रो तपसा देवा मृत्यु मुपाघत |
इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवेभ्य: स्वराभरत ||
ब्रह्मचर्य और ताप के द्वारा देवो ने मृत्यु को नष्ट कर दिया | ब्रह्मचर्य द्वारा ही इन्द्र देवो के लिए सुख लाया है | वेद में एक सौ वर्ष पर्यंत जीने का आदेश मिलता है | आत्मा सुखी तभी रहता है जब इन्द्रिय स्वस्थ हो जब सौ वर्ष पर्यंत वह सबल रहकर अपने अपने कर्त्तव्य का यथोचित पालन करे | क्यों कि जीवात्मा ब्रह्मचर्य द्वारा ही इन्द्रियों को सुखी बना सकता है | स्वस्थ स्त्री पुरुष ही आनंद मय जीवन का उपभोग कर सकते है |
इस प्रकार वेद में ब्रह्मचर्य कि महिमा पर अनेक वेद मंत्रो द्वारा उपदेश दिया गया है | ब्रह्मचर्य की अवधि २४, ३६, और ४८ वर्ष पुरषों के लिए और ३६, १८, और २४ वर्ष स्त्रियों के लिए बतलाया गया है |
४८ वर्ष का ब्रह्मचर्य उत्तम बताया गया है, २५ वर्ष का निकृष्ट परन्तु हम है की अपने बालक बालिकाओ को २४ और १६ वर्ष की आयु तक पहुचने ही नहीं देते कि उनके विवाहों कि चिंता करने लगते है | वेदानुसार तो वर कन्या को पारस्परिक स्वयम्वर रीति द्वारा विवाह कि आज्ञा है | आज पौराणिक संसकारो में फंसी हुई आर्य संतान वर और कन्या के अधिकार छीन माता-पिता को विवाह का अधिकार दिए बैठे है | अनपढ़ पठान ब्रह्मचर्य द्वारा हष्ट पुष्ट संतान पैदा कर सकते है परन्तु वेदों के मानने वाले आर्य दुर्बलेन्द्रिय बन अपने शरीरों को बोदा और निकम्मा बना रहे है | आवश्यकता है कि आर्य नर नारी वेद की ब्रह्मचर्य सम्बन्धी शिक्षा की और अधिक ध्यान दे और अपने अंदर विश्वास धारण करे की ब्रह्मचारी अमोघ वीर्य होता है | ऋतुगामी गृहस्थी कर संतान उत्पन्न कर सकते है | इस लिए ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी बन वह अपने शरीरों को सदृढ़, सबल और हष्ट पुष्ट रखे ताकि उनमे सभी शक्तियो का प्रादुर्भाव हो और वह निरंतर स्वस्थ चित्त हो एक सौ वर्ष पर्यंत स्वाधीन और आनंदमय जीवन को धारण कर सखे |