मनुस्मृति में क्षेपक : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

इस पाॅचवी बात के विषय में हम कुछ थोडा सा वर्णन करते हैं। मनुस्मृति का वर्तमान रूप कम मनुस्मृति में क्षेपक से कम दो सहस्त्र वर्ष पुराना है। इसमें क्षेपक बहुत हैं। परन्तु ये क्षेपक भी नये नही हैं। याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियों में इसी मनुस्मृति के उद्धरण मिलते है। मेघातिथि आदि ने जो भाष्य किये हैं वे सब के सब इसी मनुस्मृति के है। कुछ पाठ-भेद अवश्य है। श्लोकों में भेद भी है। बहुत से ऐसे श्लोक हैं जो मेघातिथि तथा कुल्लूक आदि के भाष्यों नहीं मिलते और पीछे के भाष्यों में इनका उल्लेख है। कुछ ऐसे भी श्लोक हैं जो पीछे से निकल गये हैं। इस प्रकार हस्ताक्षेप तो इधर भी रहा है, परन्तु अधिक नहीं। और न सिद्धान्तों में कुछ बहुत भारी उलट फेर ही है। परन्तु इससे यह नही समभना चाहिए कि इस प्राचीन मनुस्मृति मे कोई भारी हस्ताक्षेप नहीं हुआ। महात्मा बुद्ध से कुछ पहले जब शुद्ध वैदिक धर्म में विकराल विकृति उत्पन्न हो गई थी और महात्मा बुद्ध के कुछ पीछे जब अवैदिक बौद्ध धर्म और वैदिक पौराणिक धर्म घमासान युद्ध हुआ, भिन्न उद्देश्य रखने वाले साम्प्रदायिक विद्वान् मनमानी कतरनी चलाते रहे। जहाॅ जो चाहा मिला दिया और जहाॅ से जो चाहा निकाल दिया। इसने वैदिक सिद्धान्तों में बडी गडबड मचा दी।

क्या मनुस्मृति मे क्षेपक हैं ? हाॅ, अवश्य हैं। कोई निष्पक्ष विद्वान् इसको मानने में संकोच नहीं कर सकता। इसके प्रमाण पुष्कल हैं। सम्भव है कि इस विषय में मतभेद हो कि कितना क्षेपक है और कितना मौलिक। सब  से पहली बात तो यह है कि परस्पर विरोध बहुत है जिसको भाष्यकारों की प्रतिभासम्पन्न आलोचना भी दूर नही कर सकी। हम यहा कुछ का उल्लेख करते हैं।

(1) सवर्णाग्रे द्विजातीनां प्रशस्ता दारकर्मणि।

कामतस्त प्रवृत्तानामिमाः स्युः क्रमशो वराः।।

शूदैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते।

ते च स्वा चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चाग्रजन्मनः।।

यहाॅ ब्रहम्णा को शूद्र भार्या विवाहने का पूरा अधिकार है। परन्तु इससे अगले ही श्लोक में बल-पूर्वक इसका निषेध किया गया हैः-

न ब्राहम्ण क्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः।

कस्ंमिश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भाय्र्योपदिश्यते।।

इसके आगे चार श्लोक हैं जिनमें  इसी बात पर बल दिया गया है कि कोई द्विज अपने से नीच वर्ण की स्त्री से विवाह न करे । यहाॅ तक कि आपत्काल में भी इसकी आज्ञा नहीं है। कुल्लूक लिखते हैं कि

”ब्राहम्णक्षत्रिययोर्गार्हस्थ्यमिच्छतोः सर्वथा सवर्णालाभे कस्ंमिश्चिदपि वृत्तान्ते इतिहासाख्यानेऽपि शूद्रा भाय्र्यां नाभिधीयते।”

इन दो विरोधों का समन्वय हो ही नहीं सकता। हमारी धारणा तो यह है कि मनु की आज्ञा शूद्रा से विवाह की अनुकूलता में स्पष्ट है। पिछले छः श्लोक जो वर्तमान मनुस्मृति के 3।14-19 श्लोक है उस समय की मिलावट है जब जाति बन्धन कडे हो गये और शूद्रों को सर्वथ त्याज्य ठहराया जा चुका। यदि मनुस्मृति के ये मौलिक श्लोक होते तो इतना विरोध हो नही सकथा था।

(2) मनु 3।21 में आठ प्रकार के विवाह सम्बन्धों का उल्लेख है:-

ब्राहम्णो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः।                                                                                                        गान्धर्वों राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः।।

अर्थात् ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य,आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच।

इसके पश्चात 3।26 से 3।34 तक इनके लक्षण दिये हैं। फिर 3।39 से 3।42 तक यह बताया है कि पहले चार अर्थात् ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, श्रेष्ठ और “शिष्टयम्मत” है, शेष चार विवाह कुत्सित हैं। उनकी सन्तान भूक्ठी और ब्रहम्धर्म दिूष” होती है। इसलिये अनिन्दि अर्थात चार प्रकार के विवाहों की ही आज्ञा है। शेष चार आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच “निन्द्य“ है।  इसलिये “निन्द्यान् विवर्जयेत्“ इनको नही करना चाहिये।                                               हमारी समझ में मनु महाराज की यही निज सम्मति है। स्वामी दयानन्द ने इन आठ विवाहों के विषय में यह सम्मति दी हैः-                                                                                                     “इन सब विवाहो में ब्राहम्ण विवाह सर्वोत्कृष्ट, दैव और प्राजापत्य मध्यम, आर्ष, आसुर और गान्धर्व निकृष्ट, राक्षस अधम और पैशाच महाभ्रष्ट है।”( सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 4) आर्ष विवाह को मनु ने अनिन्दित और स्वामी दयानन्छ  ने निकृष्ट बताया है। शेष चार तो निन्दित है ही।

परन्तु नीचे के श्लोक सर्वथा विरूद्ध है:-

षडानुपूव्र्या विप्रस्य क्षत्रस्य चतुराऽवरान्।

विट्शूद्रयोस्तु तानेव विद्याद् धम्र्यानराक्षसान्।।                                                                                                                                                                                                (मनु0 3।23)

यहाॅ पहले छः अर्थात ब्राह्म देव, आर्ष, प्राजापत्य, असुर और गान्धर्व को ब्राहम्णों के लिये धर्मानुकूल बताया। पिछले चार अथार्त् असुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच को क्षत्रियों के लिये “धर्म” बताया। वैश्य और शूद्रों के लिये राक्षस विवाह को छोडकर असुर, गान्धर्व, और पैशाच कों धर्म ठहराया गया। यह बात न केवल 3।49 से ही सर्वथा विरूद्ध है, किन्तु आश्चर्य-जनक भी है । क्षत्रियों को पहले चार विवाहों की आज्ञा क्यो नही ? उनको शेष चार की क्यों है ? ‘पैशाच’ विवाह में क्या गुण, हैं कि क्षत्रियों के लिये यह अच्छा है और वैश्य तथा शूद्रों के लिये बुरा । कोई बुद्धिमान पुरूष पैशाच विवाह को किसी के लिये भी अच्छा नही बता सकता। फिर क्षत्रिय राजाओं पर क्या कृपा हो गई कि उनके विवाह के लिये कोई नियम ही नहीं रक्खा गया। सभी कुछ विहित बता दिया गया। क्या इसके क्षेपक होने में कोई सन्देह हो सकता है ? कही किसी राजा के उच्छ खल व्यवहार को ’धर्म’ बताने के लिये ही तो यह करतूत नही की गई ? फिर गांधर्व विवाह तो व्यभिचार से कम नहीं। परन्तु इसकी ब्राहम्णों को छोडकर सभी को आज्ञा है। राजा दुष्यन्त जब शकुन्तला पर आसक्त हो जाता है तो वह मनुस्मृति का प्रमाण देकर ही एकान्त प्रसग्ड करने के लिये उसको बाधित करना है। राजे लोग मनुस्मृति के इस हथियार को पाकर क्या कुछ नही कर सकते ?

यही नहीं । इससे अगला श्लोक तो इसके भी विरूद्ध हैः-

चतुरो ब्राहम्णस्याद्यान् प्रशस्तान् कवयोविदुः।

राक्षसं क्षत्रियस्यैकमासुरं वैश्यशूद्रयोः।।

विद्वानों का कहना है कि पहले चार विवाह ब्राहम्ण के लिये प्रशस्त है। क्षत्रिय के लिये एक राक्षस विवाह । वैश्य और शूद्र के लिये एक असुर विवाह है, यह सभी बाते कैसे ठीक हो सकती हैं। राक्षस विवाह में क्या विशेषता है कि यह एक ही क्षत्रिय के लिये प्रशस्त बताया गया । इससे अगले दो श्लोक भी देखिये:-

पंचानां तु त्रयो धम्र्या द्वावधम्र्यौ स्मृताविह।                                                                   पैशाचश्चासुरश्चैव न कर्तव्यौ कदाचन।।                                                                                       पृथक् पृथग्वा मिश्रौ वा विवाहौ पूर्वचोदितौ।                                                                                  गान्धर्वौ राक्षसश्वैव धम्र्यौ क्षत्रस्य तौ स्मृतौ।।

कभी कुछ और कभी कुछ। काई बुद्धिमान् पुरूष ऐसी बहकी बहकी बाते न कहेगा। थोडा- सा भी देने से विदित होता है कि 3।23 से लेकर 3।26 तक पाॅच श्लोक मिला दिये गये । आठ विवाहों के नाम बताकर उनका लक्षण बताना स्वाभाविक बात थी। इसके बीच में ’धर्म‘ और ‘अधर्म’ विवाहों को गिना बैठना जब कि 3।41-42 में ’अनिन्द्य‘ और ‘निन्द्य’ विवाहों को फिर बताना था न केवल अस्वाभाविक किन्तु अयुक्त है। इसी प्रकार 3।36,37,38 भी बेतुके जोडे गये हैं। और उनमें  इक्कीस इक्कसी पीढियों के तरने की मन को लुभाने वाली बातें बताई गई हैं। यह मिलावट ऐसा पैवन्द है जो दूर से चमकती है रफूगरी ऐसी भद्दी रीति से की गई है  कि समस्त कपडा भद्दा दीखने लगता है।

(3) अध्याय 9 के 59 से 63 श्लोक तक चार श्लोको, में ”नियोग” की आज्ञा है और 63 वें श्लोक में कहा गया है कि ”नियोग विधि“ को त्यागकर जो अन्यथा व्यवहार करते हैं वे पतित हो जाते हैं। परन्तु 64 से 67 तक नियोग का निषेध है। 59 से 69 तक ये ग्यारह श्लोक पढने से तुरन्त ही पता चल जाता है कि कुछ दाल में काला है। महाशय पी0 वी0 काणे कहते हैंः-

In one breath Manu seems to permit niyoga (9.59-63) and immediately afterwards he strongly reprobates it .(9.64-69).

66 वें श्लोक में वेन राजा की कथा देने से भी  यही प्रकट होता है कि पीछे से यह श्लोक जोड दिये गये।  (4) अध्याय 5।48-50 में मांस-भक्षण का सर्वथा निषेध हैः-

 

नाकृत्व प्राणिनां हिसां मांसमुत्पद्यते कक्चित्।

न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान् मांस विवर्जयेत्।।

समुत्पत्ति च मांसस्य वध वन्धौ चे देहिनाम्।।

प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्।।

यहाॅ न केवल मांस का निषेध ही है, किन्तु प्रबल युक्ति दी गई अर्थात बिना प्राणियों की हिंसा किये मांस मिलता ही नही और प्राणियो की हिसा स्वर्ग का  साधन नहीं इसलिये मांस वर्जनीय भी हैं। इस युक्ति के अनुसार न केवल साधारण मांस भक्षण का ही निषेध है, किन्तु यज्ञ में भी मांस डालना या खाना निन्दित है क्योकि यज्ञ में बलि देने से भी तो प्राणियों की हिंसा होती है। फिर आगे चलकर मांस का सर्वथा ही निषेध किया है:-

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।

संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः।।

(मनु0 5।51)

अर्थात् मांस खाने वाले को ही हिंसा का पाप नही लगता, किन्तु उसमें मारने वाला, बेचने वाला, खरीदने वाला, पकाने वाला आदि सभी सम्मिलित हैं। इन स्पष्ट श्लोकों के होते हुए भी नीचे के श्लोकों में मांस का विधान हैं:-

यज्ञाय जग्धिर्मां सस्येत्येष दैवो विधिः स्मृतः ।

अतोऽन्यथा प्रवत्स्तिु राक्षसा विधिरूच्यते।।

(मनु0 5।31 )

अथार्त यज्ञ में मांस डालना ’दैव विधि’ है और बिना यज्ञ की मांस की प्रवृति राक्षस विधि है। क्या बिना प्राणियों को हिंसा पहुचाये यज्ञ में मांस डाला जा सकता है ? यदि नही तो ’दैव विधि‘ और ‘राक्षस विधि’ में क्या भेद ? इसी प्रकार 5।32 से 42 तक ऊटपंटाग बाते बताई गई हैं। 3।40 में विचित्र युक्ति दी गई है कि

यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः।।

अर्थात् जो पशु-पक्षी यज्ञ के लिये मारे जाते हैं उनको दूसरे जन्म में उत्कृष्ट योनि मिलती है। इसी प्रकार श्राद्ध में भी भिन्न भिन्न पशुओं के वध का उल्लेख है। (देखो अध्याय 3।268,269)

यह हैं कुछ वे स्थल जिनमें परस्पर विरोध होने के कारण मानना ही पडेगा कि इनमें से एक मौलिक है और दूसरा क्षेपकः, क्योकि दो परस्पर बातें किसी एक ग्रन्थकार का मंतव्य नहीं हो सकतीं। परन्तु क्षेपक यही तक सीमित नहीं हैं। समय का प्रभाव प्रत्येक वस्तु पर पडता हैं। जो मकान बनाया जाता हैं वह कितना ही सुछढ क्यो न हो, वायु, धाम तथा जल का उस पर कुछ न कुछ प्रभाव पडता ही है। प्रत्येक मकान की आकृति को देखकर बता सकते है कि समय ने उसमें कितना परिवर्तन किया हैं। पहले पानी दीवारों पर धब्बे डाल देता है। फिर घर का स्वामी उस पर पुताई कर देता है। फिर वर्षा आती है और कुछ भाग धुल जाता है तथा कुछ काले धब्बे और पड जाते है। फिर घर वाले चून की एक बारीक तह और लगा देते हैं। इस प्रकार प्रत्येक दीवार पर पपडियाॅ पड जाती हैं। कभी कभी दीवारों को खुरचकर नये सिरे से पुताई कर दी जाती है। परन्तु फिर भी उस को मौलिक दीवार नहीं कह सकते। यह सब आदि से अन्त तक क्षेपक ही होते हैं। इसी प्रकार पुस्तकों का हाल है। जो पुस्तकें साधारण मनोरंजन की हैं उनमें लोग बहुत कम हम्ताक्षेप करते हैं और वह भी जान-बूझकर नही उनके क्षेपक इस प्रकार के होते हैं कि कहीं तो लेखकों के प्रमाद के कारण शब्द छूट गया या कोई पंक्ति की पंक्ति रह गई या कभी कभी ऊपर की आधी पंक्ति नीचे की आधी पंक्ति के साथ मिल गई। कभी कभी शब्द के छूट जाने पर पीछे से आने वाले लोगों ने संशोधन के उद्देश्य से अपनी और से कोई ऐसा शब्द जोड दिया जो खप सके । इस प्रकार पय्र्याय आते रहते हैं। इस प्रकार ये क्षेपक तो होते हैं परन्तु किसी को हानि नहीं पहुॅचाते । परन्तु धार्मिक पुस्तकों के क्षेपक बडे भयानक होते हैं। उनका उद्देश्य ही दूसरा होता हैं, जब किसी देश में धार्मिक बिक्लव होते हैं, तो सब से पहले धर्मग्रन्थों पर आक्रमण होता है। कोई धर्मसंस्थापक आज तक सर्वथा नया धर्म स्थापित नहीं कर सका। हर एक कहता है कि मै वही बता करता हूॅ जो पूर्व से चली आई है। ऐसा कहने पर दो दल हो जाते हैं और धर्मग्रन्थ दोनों दलों के हाथ में मोम की नाक बन जाते हैं। मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ में यह बात बहुत सुगम थी। अनुष्टुभ् छनद बहुत सीधा छनद है। स्पष्ट क्षेपकों के फिर मनुस्मृति की भाषा किल्ष्ट नहीं । दैनिक उदाहरण व्यवहार की बातें सरल से सरल भाषा में लिख दी गई है। इसमें मिला देना कौन कठिन था। उदाहरण के लिये ’नियोग‘ प्रकरण को लीजिये। जब लोगों ने किसी कारण से चाहा कि नियोग बन्द कर दिया जाय तो कुछ श्लोक बनाकर लगा दिये। और उसके लिये दो एक हेतु भी दे दिये ।हम आभी नियोग विषयक श्लोक दे चुके हैं। पहले कुछ श्लोक नियोग को विहित बताते हैं। उसके पश्चात् कहते है कि

नान्यस्मिन् विधवा नारी नियोक्तव्या द्विजातिभिः।

अन्यस्मिन् हि नियुंजाना धर्म हन्युः सनातनम्।।

(9।64)

अथार्त द्विजों में विधवा नारी अन्य के साथ नियोग न करें । इसका क्या अर्थ ? क्या विधवा को अन्य कुल में नियोग न करके अपने कुल में ही नियोग कर लेना चाहिये ? या विधवा नियोग न करे ? सधवा विशेष अवस्था में नियोग करे ? अथवा नियोग किसी अवस्था में किसी द्विज के लिये विहित नहीं ? इन तीनों में से किस निषेध का प्रतिपादन इस श्लोक द्वारा किया गया है ? आगे चलकर यह श्लोक हैः-

नोद्वाहिकेषु म्नत्रेषु नियोगः कीत्र्यते कचित्।

न विवाहविधायुक्तं विधवावेदनं पुनः।।

(9।65)

अथार्त विवाह सम्बन्धी मंत्रो में नियोग का उल्लेख नहीं और न विवाह-विधि में विधवा के पुनः-संस्कार की आज्ञा है। इस श्लोक का पहले श्लोक से क्या सम्बन्ध ? यदि कहीं भी और किसी प्रकार भी नियोग विहित नहीं तो ऊपर कहे हुए 9।59 का क्या अर्थ होगा ? यदि कहा जाय कि इस श्लोक में केवल इतना कहा गया है कि नियोग या विधवाः-संस्कार की विधि साधारण विवाह-विधि से अन्य है तो इससे अगले श्लोकों में इसको ’पशु-धर्म“ कहकर राजा वेन के समय के अत्यचारो का उल्लेख क्यों किया गया ? इससे प्रतीत होता है कि नियोग के विरूद्ध पहले एक श्लोक मिलाया गया। फिर मिलाने वाले को ज्यों ज्यों पकडे जाने का भय हुआ त्यों त्यों वह उसके उपाय-स्वरूप अगला श्लोक जोडता गया। इसी प्रकार अन्य क्षेपक भी बढ गये। पहले एक सिद्धान्त के निषेध में एक श्लोक मिलाया गया, इसको हम आक्रमण (Attack) कह सकते है। फिर उसके विरोधियों ने मौलिक सिद्धान्त की पुष्टि में आगे एक श्लोक मिला दिया। इसको प्रत्याक्रमण (Counter-attack) कहना चाहिये। इस प्रकार आक्रमण-प्रत्याक्रमणों का ताॅता बंध गया और अनेक स्थलों पर बहुत-से क्षेपक बढ गये। कहीं ऐसा भी हुआ कि विधि या निषेध की व्याख्या करने के लिये अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा में श्लोक बढाये गये, जिनका धर्मशात्र जैसे ग्रन्थ में लिखना उचित प्रतीत नही होता। ऐसे स्थल भी कई हैं। जैसे ब्रहमविवाह की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिये लिख दिया कि इस प्रकार उत्पन्न हुई सन्तान से दस पीढियाॅ अगली, दस पिछली और एक वर्तमान- इक्कीस पीढियाॅ तर जाती हैं । इसमें सन्देह नही कि ब्रहमविवाह श्रेष्ठतम है, परन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि उससे इक्कीस पीढियाॅ तर जायॅ। यदि हम मनुस्मृति को आरंभ से देखें तो प्रथमे ग्रासे हि मक्षिकापातः अर्थात् पहले ही अध्याय बूहलर की साक्षी में क्षेपक का सामना पडता है। बूहलर महोदय लिखते हैंः-

The whole first chapter must be considered as a latter addition. No Dharma-Sutra begins with a description of its own origin, much less with an account of the creation. The former, which would be absurd in a Dharma-Sutra, has been added in order to give authority to a remodeled version. The letter has been dragged in, because the myths connected with Manu presented a good opportunity ‘to show the greatness of the scope of the work’ as Medhatithi says.

(Introduction ixvi)

“पहले सम्पूर्ण अध्याय को पीछे से मिलाया हुआ समझना चाहिये । कोई धर्म सूत्र अपने निकास की कहानी से आरंभ नहीं हो और न सृष्टि-उत्पति से । पहली बात जो धर्मसूत्र के लिये सर्वथा ही अनुचित है नये रूप् को प्रमाणित सिद्ध करने के लिये दी गई हैं । दूसरी बात बलात्कार इसलिये प्रविष्ट कर दी गई कि मनु के सम्बन्ध में जो गथा प्रसिद्ध है वह ग्रन्थ के मान को बढा दे जैसे किमेघातिथि का कथन हैं।“

जो बात बूहलर महोदय ने सूत्र के विषय में लिखी हैं वह वर्तमान संहिता के विषय में भी ठीक उतरती है। पहले अध्याय के 5 वें श्लोक से आगे जो सृष्टि-उत्पत्ति का वर्णन दिया है वह “मनु-प्रजापति”अर्थात् ईश्वर और मानव-धर्मशास्त्र के लेखक में झमेला उत्पन्न करने के लिये किया गया नारायण शब्द है। मनु को न केवल मानव-धर्मशास्त्र का ही पित बताया गया है, किन्तु समस्त सृष्टि का भी और जब कवि की प्रतिभा एक बार उत्तेजित हो गई तो कविता की तरंग मे उसने सभी कुछ लिख मारा। यक्ष, ऋक्ष, पिशाच, विद्युत् मेघ, इन्द्रधनुष, किन्नर, वानर, मत्स्य, कृमि, कीट, पतंग सब उत्पन्न हो गये। इसमें सन्देह नही कि कहीं कहीं पर बडी अच्छी बातें बताई गई हैं। जैसे-

आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।

ता यदस्पायनं पूर्व तेन नारायणः स्मृतः।।

(1।10)

अर्थ -’आप‘ अर्थात् जल का नाम नारा है क्योकि वे नर अर्थात् परमात्मा के पुत्र हैं (ता नराख्यस्य परमात्मनः सूनवोऽपत्यानि-इति कुल्लूकः)। यह जल जिसके अयन है इसलिये उस इश्वर का नाम नारायण है।

परन्तु पूर्वापर सम्बन्ध कुछ नहीं । नारायण शब्द पहले किसी श्लोक में तो था नहीं । फिर इसके अर्थ बताने की क्या आवश्यकता आ पडी ? इसमे ऊपर के श्लोक मे अन्डे के तेजस्वरूप हो जाने (तदण्डमभवद्धैमं) का वर्णन था। और दो श्लोक छोड कर फिर उस अन्डे के दो भागों में विभक्त हो जाने का वर्णन है। बीच में नारायण शब्द कहाॅ से कूछ पडा, समझ में नही आता । यदि कहा जाय कि श्लोक 1।12 में आये हुए भगवान् के नारायण नाम की यवव्यापक होने के हेतु व्याख्या की गई है, तो यह भी ठीक नहीं क्योकि इसके लिये तो नारायण शब्द की विशेषता सिद्ध नहीं होती।

इसी प्रकार ’शरीर ‘ शब्द  की बडी अच्छी शरीर शब्द व्युत्पत्ति की गई हैं:-

यन् मूत्र्यवयवाः सूक्ष्मास्तस्येमान्याश्रयन्ति षट्।

तस्माच्छरीरमित्याहुस्तस्य मूत्र्तिंमनीषिणः।।

अर्थात तन्मात्रा, अहंकार आदि छः को आश्रय देने के कारण शरीर का नाम शरीर पडा। शरीर शब्द साधारणतया ‘शृ’ धातु से निकाला जाता हैं जिसके अर्थ ‘हिंसा‘ के (शृ हिसायां ) हैं। परन्तु यहाॅ शरीर और आश्रय का व्युत्पत्ति-विषयक सम्बंध हैं, इसका मिलान न्यायदर्शन के इस सूत्र से होता हैंः-

चेष्टेन्द्रियार्थश्रयः शरीरम्।

इस श्लोक और इस सूत्र में अवश्य कुछ साहश्य हैं। सूत्रकार के मस्तिष्क में अवश्य ही ’शरीर’ शब्द के साथ ’आश्रय’ शब्द का सम्बन्ध रहा होगा, ऐसा जान पडता हैं । संभव हैं, ’शृ’ धातु का ’आश्रय’ अर्थ भी रहा हो। यह व्युत्पत्ति अवश्य ही अच्छी है परन्तु प्रसंग कुछ नहीं। जैसे ’नारायण’ शब्द की व्युत्पत्ति बीच में कूद पडी इसी प्रकार ’शरीर’ शब्द की भी । न प्रसंग न क्रम ।

एक और बात है। साधारणतया यह प्रतीत होता है कि सांख्य में जो सृष्टि व्युत्पत्ति का विधान है वही यहाॅ भी बताया गया है। श्री शंकररचाय्र्य जी ने मनु को प्रमाण माना है, इसलिये कुछ भाष्यकार तो अन्त में खीचतानी से उसको वेदान्त-पकर भी सिद्ध कर देते हैं। परन्तु वास्तविकता यह है कि वह सृष्टि-उत्पत्ति का वर्णन न सांख्य-मतानुसार ही है, न डा0 झ की साक्षी वेदान्त-मतानुसार। कुछ ऐसा गोल-माल है कि विचारे भाष्यकारों की भी नाक में दम कर देता है चोटी से एडी तक यत्र करने पर भी कुछ बडा भारी समन्वय नही हो पाता। यह ऐसी लम्बी कथा है जिसके वर्णन में  पोथा बन जाता है, परन्तु हम महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ झा का निम्न उद्धरण ही पर्याप्त समझते हैं। डाक्टर महोदय ने मनुस्मृति पर टिप्पणियाॅ (Manu-Smriti-Notes) दो जिल्दों में लिखी हैं जो कलकत्ता यूनीवर्सिटी की और से छपी हैं। दूसरी जिल्द में मनुस्मृति श्लोक 14 और 15 पर उन्होंने एक लम्बा नोट लिखा है। श्लोक यह है:-

उब्दबर्हात्मनश्चैव मनः सदसदात्मकम्।

मनश्चाप्यहंकारमभिमन्तारमीश्रवरम्।।

महान्तमेव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च।

विषयाणं गृहीतृणि शनैः पन्चेन्द्रियाणि च ।।

(मनु0 1।14-15 )

डा0 झा की टिप्पणी इस प्रकार हैं-

‘’ The confusion regarding the account of the process of creation in Manu is best exemplified by these two verses. The name of the various evolutes have been so promiscuously used, thet the commentators have been led to have recourse to various forced interpretation, with a view to bring tha statement herein contained into line with their own philosophical predilections. Medha ., Kullu, Govi, and Ragh take it as describing the three prin ciples  of the Sankhya-Mahat, Ahankara and Manad ; but finding that the production of Ahankara from Manas, or of Mahat (which is what they understand by the term ‘Mahantam Atmanm’) is not in conformity with the Sankhya doctrine.- they assert that the three evolutes have been mentioned here ‘in the inverted.’ Even so, how they can get over the statement that ‘Ahankar’ was produced ‘from manas’ , (Manasah’) it is not easy to  see. Similarly the ‘atman’ from which Manas is described as being produced, Medha explains as the Sankhya ‘Pradhana’ and Kulla, as the Vedantic  ‘Supreme solu.’

Buhler remarks that according to Medha, by the particle ‘cha’ ‘the subtle elements alone are to be understood.’ This dose not represent Medha-correctly. His words being-

Inorder to escape from the above difficulties Nandan has recurse to another method of interpretation- no less forced than the former. He takes ‘Manas’as standing for mahat, and ‘Mahantam Atmanam’ as the Manas.

Not satisfied with all this, Nandan remarks that the two verses uUnu dh lk{kh are not meant to provide an accurate account of the precise order of creation ; all that is meant to be shown is that all things were producedout of parts of the body of the Creator Himself.

इस उदाहरण का भावानुवाद

मनु में सृष्टि-उत्पत्ति वर्णन सम्बन्धी गडबड का सब से अच्छा उदाहरण यह दो श्लोक (1।14-15 ) हैं। भिन्न-भिन्न विकृतियों के नाम इस झमेले से प्रयुक्त हुये हैं कि भाष्यकारों को सृष्टि-उत्पत्ति  के इस वर्णन का अपने अपने धार्मिक सिद्धान्तों के साथ समन्वय करने में बहुत बडी खीचा-तानी की आवश्यकता पडी हैं। मेघातिथि, कुल्लूक, गोविन्दराज और राघवानन्द का मत है कि इसमें सांख्य के तीन तत्वों -महत्, अहंकार और मन का वर्णन हैं । परन्तु यह देखकर कि सांख्य सिद्धान्तानुसार मन से अहंकार या महत् की उत्पत्ति नही होती (महान्तं आत्मानं से वे महत् का ही अर्थ लेते हैं ), उनको कहना पडा कि तीनों विकृतियों को ’उलटे क्रम‘ से वर्णन किया गया है। इस पर भी मन से ( मनस् ) अहंकार पैदा हुआ इस अडचन का समझना सुगम नहीं हैं। इसी प्रकार ‘आत्मा’ जिससे मन की उत्पत्ति बताई जाती है मेघातिथि के मत में सांख्य का ‘प्रधान’ और  कुल्लूक के मत में वेदान्तियों का ‘ब्रह्म’ है। बूहलर का कथ हैं  कि मेघतिथि के मतानुसार च ‘से’ सूक्ष्म तत्व ही समझने चाहिये। परन्तु मेधातिथि के कथन का यह शुद्ध अनुवाद नहीं है। मेधातिथि के शब्द यह हैं:- ‘ चशब्देन विषयांश्च शब्दस्पर्श रूपरसगन्धान् पृथिव्ययदिनि च’।

इन कठिनाइयों से बचने के निमित्त नन्दन दूसरी ही रीति से व्याख्या करता है जो कुछ कम खीचा-तानी नहीं है। वह कहता है कि ’मन‘ का अर्थ है ’महत्‘ और ‘महत् आत्मान’ का मन।

इससे भी सन्तुष्ट न होकर नन्दन कहता है कि इन दो श्लोकों का यह उदेश्य नहीं है कि सृष्टि-उत्पित्त का ठीक-ठीक क्रम शुद्ध रीति से वर्णन किया जाय। इनका उद्देश्य केवल इतना है कि सब पदार्थ ब्रह्मा के शरीर के अवयवों से उत्पन्न हुए हैं। हमने यह लम्बा उद्धरण इसलिये दिया है कि पाठकगण सुष्टि-क्रम के इस मनोरंजक परन्तु अशुद्धि-पूर्ण वर्णन को समझ  सके और बूहलर के इस कथन की सत्यता को समझ सकें कि इतना भाग पीछे से मिलाया गया है। अपके दार्शनिक सिद्धान्त कुछ भी क्यो न हों, आप इस सृष्टि-उत्पत्ति वर्णन का ओर-छोर पाने में समर्थ न होगें। यदि नन्दन का यह कहना सत्य है कि इन श्लोकों का मुख्य उदे्श्य केवल ब्रह्मा के शरीर से सब पदार्थो की उत्पत्ति दिखाना है तो यहं उदे्श्य दो शब्दो या आधे श्लोक मे ही पूरा हो सकता था । इतने श्लोक बढाकर स्मृति का आकार व्यर्थ में ही क्यो बढा दिया गया। यदि पाठकगण इन श्लोकों को बार बार पढेगे और पूर्वापर प्रसंग मिलाने की चेष्टा करेंगे तो उनको अवश्य ही भूल-भुलइयों में होकर गुजरना पडेगा।

इसी अध्याय में एक और स्थल है जो है तो उत्तम परन्तु क्षेपक प्रतीत होता हैं। श्लोक 61 से मन्वन्तर लेकर 73 तक मन्वन्तरों, युगो, संध्या तथा संध्यांशों का वर्णन है जो सृष्टि-उत्पत्तिकाल पर अच्छा प्रकाश डालता है। परन्तु जिस स्थल पर यह वर्णन है वहाॅ काल की संख्या का कुछ भी प्रसंग नही है । 61 वाॅ श्लोक यह है।

स्वायंभुवस्यास्य मनोः षड्वंश्या मनवोऽपरे।

सृष्टवन्तः प्रजाः स्वा स्वा महात्मानो महौजसः।।

अर्थात् इस स्वायंभुव मनु के छः और वंशज मनु हुए जिन्होने अपनी अपनी प्रजायें उत्पन्न की। इस सिद्धान्त की सत्यता में बडा सन्देह है। मन्वन्तर का यह अर्थ नही कि प्रत्येक मनु के आरम्भ मे सृष्टि उत्पन्न हो और अन्त में प्रलय हो जाय और दूसरा मनु अपनी प्रजा फिर से उत्पन्न करे। जहाॅ सृष्टि के काल तथा ब्रह्म-दिन औार ब्रह्म-रात्रि का वर्णन है वहाँ मन्वन्तर  ब्रह्म-दिन अर्थात् सृष्टि-काल के ही भिन्न-भिन्न भाग है आगे कहा भी है:-

ब्रह्मस्य तु क्षपाहस्य यत् प्रमाणं समासतः।

एकैकशो युगानां तु क्रमशस्तन् निबोघृत।।

(मनु0 1।68)

जिस प्रकार मनु शब्द कही मनुष्य का वाचक और कही ईश्वर का वाचक है इसी प्रकार ‘मन्वन्तर‘ शब्द में ‘मनु’ काल की एक  विशेष इकाई का वचक है, न कि पुरूष-विशेष का । काल की इकाई को मनुष्य समझकर उसके वंशज नियत करना और उन वंशजों के द्वारा सृष्टि उत्पन्न कराना सर्वथा भ्रम-मूलक कल्पना है। मनु के वंशज मनुओं का अर्थ ? स्वायंभुव मन्वन्तर के मनु का स्वारोचिष मन्वन्तर वंश कैसे हो गया ? क्या यह शारीरिक वंश परम्परा थी ? क्या यह दूसरा मनु पुत्र, प्रपौत्र के सिलसिले से पहले मनु का वंशज था ? यदि था तो क्या दूसरे मन्वन्तर के आरंभ में सब मर गये, केवल एक ही मनु बचा जिसने प्रजा उत्पन्न की, और इस प्रकार अगले मन्वन्तरों में भी सब मरते गये, केवल एक मनु बचता गया ? यदि कहा जाय कि एक मन्वन्तर के अन्त में प्रलय हो जाती है और दूसरे मन्वन्तर के आदि में फिर सृष्टि उत्पन्न होती है, तो फिर ब्रह्मदिन का क्या अर्थ होगा क्योंकि प्रत्येक ब्रह्मदिन में 14 मन्वन्तर होने चाहिये। वस्तुतः बात यह है कि ’मनु’ शब्द के भिन्न भिन्न अर्थो में गडबडझाला उत्पन्न करके मनु द्वारा प्रजा उत्पन्न करने की बात गढ ली गई। श्लोक 1।62 में सात मन्वन्तरों के नाम गिनाये गये है:-

स्वारोचिषश्चोत्तमश्च तामसो रैवतस्तथा।

चाक्षुषश्च महातेजा विवस्वत्सुत एव च ।।

अर्थात स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्त और सबसे पहला स्वायंभुव जिसका वर्णन पहले आ चुका है, यहाँ प्रश्न होता है कि अगले सात मन्वन्तरों का उल्लेख क्यों नहीं किया गया। यहाॅ कहा जा सकता है कि मनुस्मृति में केवल भूतकाल का उल्लेख है भविष्य का नही । आजकल वैवस्स्वत मन्वन्तर है इसलिये आदि से लेकर आज तक के मन्वन्तर गिना दिये। परन्तु यह कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं है। यहाॅ पुराना इतिहास लिखना नहीं था किन्तु काल के विभाग देने थे। ऐसा करने के लिये अगले युगों के नाम भी आवश्यक थे। यदि कहा जाय कि इतिहात-मात्र दिया गया है तो भी ठीक नहीं । क्योकि यदि वर्तमान मन्वन्तर अर्थात वैवग्वत सर्वथा नया है और उसमें प्रजा नये सिरे से उत्पन्न की गई है तो यह मनुस्मृति वैवस्वत मनु की बनाई होनी चाहिये न कि भ्वायंभुव मनु की। ऐसा नही माना जाता । श्लोक 1।64 में काल का परिमाण बताने के लिये छोटी से छोटी इकाई अर्थात् ’निमेष‘ से आरंभ किया जाता है और अन्त को ‘युग’ तक का वर्णन आता है। इस क्रमशः वर्णन के पहले यकाग्रक मन्वन्तरों का नाम कहाॅ से कूद पडा। श्लोक 1।73 में समय का विभाग बताकर फिर आकाश वायु अग्नि आदि की उत्पत्ति का वर्णन आरंभ हो जाता है। श्लोक 1।81 से 1।86 मे समय का विभाग बताकर फिर आकाश, वायु, अग्नि, आदि की उत्पत्ति का वर्णन आरंभ हो जाता है। श्लोक 1।81 से 1।86 तक सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग की विशेषतायें बताई गई है जो सर्वथा कल्पित और भ्रममूलक है । कलियु्रग को हास-युग बताकर एक ऐसी शिक्षा का बीज बो दिया गया है जिसने भारत निवासियो को रसातल को पहुॅचा दिया । प्रत्येक भारतवासी के मस्तिष्क में यह भ्रम बैठ गया है कि कलियुग में उन्नति हो ही नही सकती, धार्मिक जीवन बन ही नही सकता । यह तो काल का प्रभाव है, इसमें उनका दोष नहीं । यह प्रवृत्ति कितनी भयानक है इस पर जितना कहा जाय थोडा है। काल के विभार्गा का धर्म से क्या सम्बन्ध ? बहुत – से लोग कहा करते है कि जैसे शिशिर ऋतु में लोग रजाई ओढते है और ग्रीष्म काल मे पंखा चलाते हैं, इसी प्रकार सतयुग मे सत्य और धर्म की प्रधानता होती है और कलियुग में उनका हृास हो जाता है। परन्तु यह लोग तनिक नहीं सोचते कि धर्म के लक्षण तो सार्वदेशिक और सार्वकालिक होते हैं। यदि काल धर्म और अधर्म के तल का भी निश्चित किया करे तो फिर मनुष्य क्या करे ? और किस प्रकार उसकी कर्म सम्बन्धी स्वतन्त्रता रह सके। अस्तु। यह तो रही सिद्धान्त की बात, परन्तु जिस क्रम-भंग का हमने ऊपर संकेत किया है उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह सब मिलावट है और कई बार की मिलावट है जिसका ठीक ठीक अनुसन्धान कठिन काम है।

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