पाठकगण पश्र कर सकते है कि हमारे पास मिलावट जाॅचने की कौन सी तराजू है। इसलिये इस विषय मनुस्मृति और वेद में संक्षेप से कुछ लिख देना असंगत न होगा। मनुस्मृति कोई असम्बद्ध स्वतंत्र पुस्तक नहीं है। यह वैदिक साहित्य का एक ग्रन्थ है। वैदिक धर्म का प्रतिपादन ही इसका काय्र्य है । वेद ही इसका मूलाधार है यह बात कल्पित नहीं है, किन्तु मनुस्मृति से ही सिद्ध है। नीचे के श्लोक इसकी साक्षी है:-
(1) वेदोऽखिलो धर्ममूलम्। ( 2।6 )
(2) वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च पियमात्मनः।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्।। (2।12 )
(3) प्रमाणं परमं श्रुतिः (2।13 )
(4) वेदास्त्यागश्च………………………………………… (2।97 )
(5) वेदमेव सदाभ्यस्येत् तपस्तप्स्यन् द्विजोत्तमः।
वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते।। (2।166)
(6) वेद यज्ञैरहीनानां प्रशस्तानां स्वकर्मसु।
ब्रह्मचार्याहरेद् भैक्षं गृहेभ्यः प्रयतोऽन्वहम्।। (2।183)
(7) वेदानधीत्य वेदौवा वेदं वापि यथाक्रमम्।। (3।2 )
(8) वेदाभ्यासोऽन्वहंशत्तया महायज्ञक्रिया क्षमा।
नशयन्त्याशु पापानि महापातकजान्यपि।। (11।245 )
(9) आर्ष धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राऽविरोधिना।
यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्म वेद नेतरः।। (12।106 )
कई सहस्त्र वर्षो से वैदिक धर्म में विक्ल्व उत्पन्न हो गये और सब से अधिक चोट वैदिक ग्रन्थो पर आई। प्रचीन वैदिक धर्म के सिद्धान्त एक ऐसी कसौटी है जिनके द्वारा वैदिक ग्रन्थों की मिलावट अधिकांश में कसी जा सकती है।