Manu Smriti
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सावित्राञ् शान्तिहोमांश्च कुर्यात्पर्वसु नित्यशः ।पितॄंश्चैवाष्टकास्वर्चेन्नित्यं अन्वष्टकासु च ।।4/150
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है
 
Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
पर्व में नित्य गायत्री देवता का हवन और अरिष्ठ, त्रास के निमित्त शान्ति हवन करें। अष्ट का अन्वष्ट का में पित्रों की नित्य पूजा करें।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
ये ४।१५०-१५३ तक ४ श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त हैं - इन श्लोकों का ‘सतोगुणवर्धन व्रत’ विषय से कोई सम्बन्ध नहीं है, अतः ये असंगत श्लोक हैं । ४।१५०वां श्लोक मृतकश्राद्ध का प्रतिपादक होने से मनु का नहीं हो सकता । क्यों कि मनु तो दैनिक जीवित श्राद्ध का विधान करते हैं । और ४।१५३ में दैवत- देवप्रतिमा वाले पवित्र स्थानों पर पर्वों पर जाने की बात मनुप्रोक्त नहीं हो सकती । क्यों कि मनु ने पर्वों पर विशेष यज्ञों का विधान किया है और ‘हौर्मेर्देवान्’ (३।८१) कहकर हवन से ही देवपूजा मानी है । और ४।१५१ में मल - त्याग निवास स्थान से दूर करना तो ठीक है, किन्तु पैरों को दूर से कैसे धोयेगा ? यदि पैर अपवित्र हैं, तो उन्हें धोना ही चाहिये, दूर से घृणा करने से कार्य कैसे चल सकता है, पैर तो शरीर के अंग हैं । अतः अमौलिक होने से ये श्लोक मनु प्रोक्त नहीं है ।
Commentary by : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय
(सावित्रान् शान्ति होमान् च कुर्यात् पर्वसु नित्यशः) सदा पर्व के दिनों में सावित्र अर्थात् गुरुपूजन, और शान्ति होम करें। पितन च एव अष्टकासु अर्चेत् नित्यम् अनु + अष्टकासु च) और अष्टमी तथा नवमी को माता पिता को विशेष अर्चना करें।
 
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