Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
मन ने ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर आप से आप आकाश को बनाया, इसका गुण शब्द है।
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
(सिसृक्षया) सृष्टि को रचने की इच्छा से फिर वह परमात्मा (मनः सृष्टिं विकुरूते) महत्तत्त्व की सृष्टि को विकारी भाव में लाता है - अहंकार के रूप में विकृत करता है (तस्मात्) उस विकारी अंश से (चोद्यमानं आकाशं जायते) प्रेरित हुआ - हुआ ‘आकाश’ उत्पन्न होता है (तस्य) उस आकाश का (गुणं शब्दं विदुः) गुण ‘शब्द’ को मानते हैं ।
टिप्पणी :
आकाशोत्पत्ति के विषय में महर्षिदयानन्द लिखते हैं -
‘‘उस परमेश्वर और प्रकृति से आकाश अवकाश अर्थात् जो कारणरूप द्रव्य सर्वत्र फैल रहा है, उसको इकट्ठा करने से अवकाश उत्पनन सा होता है । वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती । क्यों कि बिना आकाश के प्रकृति और परमाणु कहां ठहर सकें ?’’
(स० प्र० अष्टमसमु०)