Commentary by : स्वामी दर्शनानंद जी
नवीनान्न उत्पन्न होने के समय नवसस्येष्टि से हवन करें। फसल के अन्त में चातुर्मासिक यज्ञ, दोनों अयनों में पशु द्वारा हवन करें, तथा वर्ष के अन्त में सोमयोग
Commentary by : पण्डित राजवीर शास्त्री जी
टिप्पणी :
इन श्लोकों में कहा गया है - उत्तरायण - दक्षिणायन के प्रारम्भ में पशु से यज्ञ करे । दीर्घजीवन का इच्छुक द्विज यज्ञ में आहुति दिये बिना नवान्न और मांस को न खाये । जो अग्नि की तृप्ति नवान्न तथा पशुमांस से नहीं करता, उसके प्राणों को ही अग्नि खाना चाहती है । इससे दो बातों का स्पष्टीकरण होता है कि यज्ञ में पशुबलि तथा मांस खाने का विधान है । ये दोनों ही बातें मनु की मान्यताओं से विरूद्ध हैं । मनु ने सर्वत्र अहिंसा को परम धर्म तथा हिंसावृत्ति को पापमूलक माना है । और पंच्चमहायज्ञों का विधान तो इसीलिये किया है कि गृहस्थ में रहते हुए चूल्हा, चक्की, बुहारी, ऊखलादि से बिना जाने भी जो हिंसा हो जाती है, उस पाप से निवृत्त हो, (३।६८-७१) । क्या मनु जैसा अहिंसक आप्तपुरूष यज्ञ जैसे पवित्र - कर्म में पशुबलि का विधान कर सकता है ? ऐसी कल्पना ही नहीं की जा सकती क्यों कि मनु वेद को परम प्रमाण मानते हैं और पशुबलि वेद से सर्वथा विरूद्ध है । और जो हिंसा की पद - पद पर निन्दा कर रहा है, क्या वह हिंसा का आदेश दे सकता है ? देखिये मनु के कतिपय उद्धरण -
१. हिंसारतश्च यो नित्यं नेहासौ सुखमेधते ।।(४।१७०)
२. यो अहिंसकानि भूतानि हिनस्ति.........................।
स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वचित् सुखमेधते ।।(५।४५)
३. अहिंसा गुरूसेवा च निःश्रेयस परम् ।।(१२।८३)
४. अहिंसा सत्यवचनं ...............यमाश्चोपव्रतानि च ।।(४।२०६)
५. नाकृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते .................।
न च प्राणिवधः स्वग्र्यः................................। (५।४५)
६. अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कत्र्ता चोपहत्र्ता च खादकश्चेति घातकः ।। (५।५१)
७. वर्जयेन्मधु मांस च प्राणिनां चैव हिंसनम् ।। (२।१७७)
इत्यादि मनु की अन्तः साक्षी से स्पष्ट है कि मनु न केवल मांस भक्षण के ही विरोधी थे प्रत्युत वे मांसप्राप्ति को बिना हिंसा के नहीं मानते और हिंसकों में सलाह देने वाले को भी परिगणित किया है । हिंसा करने वाला कभी स्वर्ग - प्राप्त नहीं कर सकता । और स्वर्ग - प्राप्ति के साधनभूत महायज्ञ में हिंसामूलक पशुबलि को कैसे कल्याणकारक मनु मान सकते थे ?
और यज्ञ, जिसका एक नाम ‘अध्वर’ है । जिसका अर्थ ही हिंसारहित है, उसमें पशुहिंसा हो, यह कितने आश्चर्य की बात है । जिस समय इस देश में वाममार्ग ने जोर पकड़ा, तो किसी मांसाहारी ने इन श्लोकों का प्रक्षेप किया है । और मांस- भक्षण से दीर्घ - जीवन का प्रलोभन देना भी निर्मूल है । मांसाहार से आयुक्षीण ही होती है । ‘आचाराल्लभते ह्यायुः०’ इत्यादि श्लोकों में मनु ने आयुवृद्धि का कारण सदाचारादि को माना है ।
Commentary by : पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार
१. सौमिक का अर्थ है चान्द्र वर्ष सम्बन्धी।
एवं, पुराने अन्न की समाप्ति होने पर नवीन अन्न के प्रारम्भ में नवसस्येष्टि, तथा वर्ष के समाप्त होने पर नवीन वर्ष के प्रारम्भ में संवत्सरेष्टि से यज्ञ करें, तथा नवसस्येष्टि यज्ञ को किये बिना द्विज कभी नवीन अन्न का भोजन न करे।